देश में महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध,खासकर बलात्कार की घटनाओं पर अंकुश लगाने की कवायदें सिरे नहीं चढ़ पा रही हैं। इसके विपरीत ऐसे हादसों में लगातार भयावह ढंग से वृद्धि हो रही है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि बलात्कार के अभियुक्तों को मिलने वाली सजा का आंकड़ा दशमलव सत्ताइस फीसदी है, जो बेहद शर्मनाक है। यह आंकड़ा हमारी कानून-व्यवस्था व न्याय-प्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े करता है। ये हालात तो कम से कम बलात्कार की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की दिशा में कोई उम्मीद नहीं जगाते। केंद्र की तरफ से एक प्रस्ताव चर्चा में है कि ऐसे हादसे की शिकार स्त्री को मुआवजा दिया जाए। ऐसे प्रयासों को ‘पुष्टिकर-न्याय की संज्ञा दी जा रही है,जो मौजूदा न्याय की धीमी प्रक्रिया को अधिक जटिल ही बनाएगा।
अपने किस्म के इस अलग प्रस्ताव में बलात्कार-पीडि़त महिला को दो से तीन लाख रुपये की राशि देने की बात की जा रही है। सरकार के ऐसे ही प्रस्ताव का समर्थन पृर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने अपने एक संभाषण में किया था। उन्होंने कहा था कि यदि बलात्कार-पीडि़त महिला का अभियुक्त से विवाह कराया जाता है या फिर बलात्कार के हादसे की शिकार महिला द्वारा बच्चे को जन्म दिया जाता है, तो उसे पर्याप्त सम्मान दिया जाना चाहिए क्योंकि ऐसी स्थिति किसी हादसे की परिणति है। वास्तव में कई कबीलाई संस्कृतियों तथा आदिवासी इलाकों में बलात्कार-पीडि़त महिलाओं को इस तरह का न्याय दिलाने की परंपरा प्रचलन में रही है। नामीबिया आदि देशों में बलात्कार-पीडि़त महिला के अभिभावक पारंपरिक पंचायतनुमा अदालतों के जरिये मामले निपटाया करते हैं। इन अदालतों के जरिये अभियुक्त के अभिभावक धन या पशुधन देकर क्षतिपूर्ति करते हैं। ऐसा ही कई इस्लामिक अदालत द्वारा पीडि़त स्त्री के साथ बलात्कारी को विवाह करने के लिए बाध्य किया जाता है। लेकिन आधुनिक समाज में ऐसे न्याय को तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता।
वास्तव में पीडि़त महिला को इस हादसे के दौरान जिन मानसिक यंत्रणाओं से गुजरना पड़ता है तथा उसकी अस्मिता को जिस तरह चोट पहुंचती है, उसकी भरपाई पैसे से करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कुल मिलाकर यह उपाय घृणित अपराध करने वाले अभियुक्त को निरपराध ठहराने या बरी करने जैसा है। आज के सभ्य समाज में यह एक प्रतिगामी कदम सरीखा है, जहां प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान अधिकारों की वकालत की गयी है। सवाल यह भी उठता है कि हम सदैव पीडि़त स्त्री को आघात योग्य व कमजोर ही क्यों मानकर चलते हैं, क्यों नहीं हम उसे मुुकाबला करने वाली तथा सम्मान के साथ जीने लायक समझते हैं? ऐसे उपायों को लेकर तमाम सवाल सामने आते हैं। उस महिला को सरकार कैसे न्याय दिला पाएगी जिसकी कोई आर्थिक मजबूरी न हो? ऐसे में उन कथित मानवाधिकारवादियों की उस मुहिम का क्या होगा जो विवाह संस्था में जबरन रिश्तों का विरोध करके उसे दंडात्मक बनाने की वकालत करते हैं? ऐसे में बलात्कारी को आर्थिक दंड देकर बरी करने का प्रयास क्या तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है?
यह तो कुछ-कुछ इस्लामिक देशों में प्रचलित ‘ब्लड मनी' की परंपरा की अगली कड़ी लगता है, जहां हत्यारे द्वारा मृतक के परिजनों को धन देने की परम्परा है। यानी कि अपराधी को निरपराध ठहराने की कवायद। वास्तव में ऐसी घृणित वारदात को अंजाम देने वाले को नैतिक व कानूनी आधार पर किसी भी तरह की छूट देना असंगत है। यदि सरकार वास्तव में बलात्कार के अपराध पर नियंत्रण की दिशा में ईमानदार है तो ऐसे मामले त्वरित न्याय देने वाली विशेष अदालतों को सौंपे जाने चाहिए। इसके साथ ही स्थानीय प्रशासन को विशेष अधिकार दिये जाने चाहिए ताकि ऐसे मामलों में बिना भेदभाव के पीडि़त पक्ष को तत्काल न्याय मिल सके। अन्यथा राजस्थान की भंवरी देवी की तरह डेढ़ दशक तक अदालतों के चक्कर काटने के उपरांत भी न्याय न मिलने जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति ही होगी।
- दामोदर सिंह राजावत
लेखक ई खबर मीडिया के प्रधान संपादक है
अपने किस्म के इस अलग प्रस्ताव में बलात्कार-पीडि़त महिला को दो से तीन लाख रुपये की राशि देने की बात की जा रही है। सरकार के ऐसे ही प्रस्ताव का समर्थन पृर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने अपने एक संभाषण में किया था। उन्होंने कहा था कि यदि बलात्कार-पीडि़त महिला का अभियुक्त से विवाह कराया जाता है या फिर बलात्कार के हादसे की शिकार महिला द्वारा बच्चे को जन्म दिया जाता है, तो उसे पर्याप्त सम्मान दिया जाना चाहिए क्योंकि ऐसी स्थिति किसी हादसे की परिणति है। वास्तव में कई कबीलाई संस्कृतियों तथा आदिवासी इलाकों में बलात्कार-पीडि़त महिलाओं को इस तरह का न्याय दिलाने की परंपरा प्रचलन में रही है। नामीबिया आदि देशों में बलात्कार-पीडि़त महिला के अभिभावक पारंपरिक पंचायतनुमा अदालतों के जरिये मामले निपटाया करते हैं। इन अदालतों के जरिये अभियुक्त के अभिभावक धन या पशुधन देकर क्षतिपूर्ति करते हैं। ऐसा ही कई इस्लामिक अदालत द्वारा पीडि़त स्त्री के साथ बलात्कारी को विवाह करने के लिए बाध्य किया जाता है। लेकिन आधुनिक समाज में ऐसे न्याय को तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता।
वास्तव में पीडि़त महिला को इस हादसे के दौरान जिन मानसिक यंत्रणाओं से गुजरना पड़ता है तथा उसकी अस्मिता को जिस तरह चोट पहुंचती है, उसकी भरपाई पैसे से करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कुल मिलाकर यह उपाय घृणित अपराध करने वाले अभियुक्त को निरपराध ठहराने या बरी करने जैसा है। आज के सभ्य समाज में यह एक प्रतिगामी कदम सरीखा है, जहां प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान अधिकारों की वकालत की गयी है। सवाल यह भी उठता है कि हम सदैव पीडि़त स्त्री को आघात योग्य व कमजोर ही क्यों मानकर चलते हैं, क्यों नहीं हम उसे मुुकाबला करने वाली तथा सम्मान के साथ जीने लायक समझते हैं? ऐसे उपायों को लेकर तमाम सवाल सामने आते हैं। उस महिला को सरकार कैसे न्याय दिला पाएगी जिसकी कोई आर्थिक मजबूरी न हो? ऐसे में उन कथित मानवाधिकारवादियों की उस मुहिम का क्या होगा जो विवाह संस्था में जबरन रिश्तों का विरोध करके उसे दंडात्मक बनाने की वकालत करते हैं? ऐसे में बलात्कारी को आर्थिक दंड देकर बरी करने का प्रयास क्या तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है?
यह तो कुछ-कुछ इस्लामिक देशों में प्रचलित ‘ब्लड मनी' की परंपरा की अगली कड़ी लगता है, जहां हत्यारे द्वारा मृतक के परिजनों को धन देने की परम्परा है। यानी कि अपराधी को निरपराध ठहराने की कवायद। वास्तव में ऐसी घृणित वारदात को अंजाम देने वाले को नैतिक व कानूनी आधार पर किसी भी तरह की छूट देना असंगत है। यदि सरकार वास्तव में बलात्कार के अपराध पर नियंत्रण की दिशा में ईमानदार है तो ऐसे मामले त्वरित न्याय देने वाली विशेष अदालतों को सौंपे जाने चाहिए। इसके साथ ही स्थानीय प्रशासन को विशेष अधिकार दिये जाने चाहिए ताकि ऐसे मामलों में बिना भेदभाव के पीडि़त पक्ष को तत्काल न्याय मिल सके। अन्यथा राजस्थान की भंवरी देवी की तरह डेढ़ दशक तक अदालतों के चक्कर काटने के उपरांत भी न्याय न मिलने जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति ही होगी।
- दामोदर सिंह राजावत
लेखक ई खबर मीडिया के प्रधान संपादक है
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