बुधवार, फ़रवरी 29, 2012

भारतीय मुसल्मानों के हिन्दु पूरवज (मुसलमान कैसे बने)

भारतीय मुसल्मानों के हिन्दु पूरवज (मुसलमान कैसे बने)

इस्लाम में धर्मान्‍तरण के मुख्य कारण थे मृत्यु भय, परिवार को गुलाम बनाये जाने का भय, आर्थिक लोभ (पारितोषिक, पेन्शन, लूत का माल) धर्मान्‍तरित होने वालों के पैतृक धर्म में प्रचलित अन्धविश्वास और अंत में इस्लाम के प्रचारकों द्वारा किया गया प्रभावशाली प्रचार – (जाफर मक्की द्वारा 19 दिसम्बर, 1421 को लिखे गये एक पत्र से।
- इण्डिया आफिस हस्तलेख संख्या 1545

लेखक - पुरुषोत्तम

भूमिका
इस तथ्य को सभी स्वीकार करते हैं कि लगभग ९५ प्रतिशत भारतीय मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे। वह स्वधर्म को छोड़ कर कैसे मुसलमान हो गये? इस पर तीव्र विवाद है। अधिकां हिन्दू मानते हैं कि उनको तलवार की नोक पर मुसलमान बनाया गया अर्थात्‌ वे स्वेच्छा से मुसलमान नहीं बने। मुसलमान इसका प्रतिवाद करते हैं। उनका कहना है कि इस्लाम का तो अर्थ ही शांति का धर्म है। बलात धर्म परिवर्तन की अनुमति नहीं है। यदि किसी ने ऐसा किया अथवा करता है तो यह इस्लाम की आत्मा के विरुद्ध निंदनीय कृत्य है। अधिकांश हिन्दू मुसलमान इस कारण बने कि उन्हें दम घुटाऊ धर्म की तुलना में समानता का संदेद्गा लेकर आने वाला इस्लाम उत्तम लगा।
वास्तविकता क्या है? यही इस छोटी सी पुस्तिका का विषय है। हमने अधिकतर मुस्लिम इतिहासकारों और मुस्लिम विद्वानों के उद्धरण देकर निषपक्ष भाव से यह पता लगाने की चेष्टा की है कि इन परस्पर विपरीत दावों में कितनी सत्यता है.
१. कितना सच-कितना झूठ

इस्लाम भारत में कैसे फैला, शांति पूर्वक अथवा तलवार के बल पर? जैसा कि हम आगे विस्तार से बतावेंगे कि इस्लाम का विश्व में (और भारत में भी) विस्तार दोनों प्रकार ही हुआ है। उसके शांति-पूर्वक फैलने के प्रमाण दक्षिणी-पूर्वी एशिया के, वे देश हैं जहाँ अब मुसलमान पर्याप्त और कहीं-कहीं बाहुल्य संखया में हैं; जैसे-इंडोनेशिया, मलाया इत्यादि। वहाँ मुस्लिम सेनाएँ कभी नहीं गईं। वह वृहत्तर भारत के अंग थे। भारत के उपनिवेश थे। उनका धर्म बौद्ध और हिन्दू था। किन्तु इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इस्लाम निःसंदेह तलवार के बल पर भी फैला। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इस्लाम में गैर-मुसलमानों का इस्लाम में धर्म परिवर्तन करने से अधिक दूसरा कोई भी पुण्य कार्य नहीं है। इस कार्य में लगे लोगों द्वारा युद्ध में बलिदान हो जाने से अधिक प्रशंसनीय और स्वर्ग के द्वार खोलने का अन्य कोई दूसरा साधन नहीं है।
इस्लाम का अत्यावश्यक मिशन पूरे विश्व को इस्लाम में दीक्षित करना है-कुरान, हदीस, हिदाया और सिरातुन्नबी, जो इस्लाम के चार बुनियादी ग्रंथ हैं, मुसलमानों को इसके आदेश देते हैं। इसलिए मुसलमानों के मन में पृथ्वी पर कब्जा करने में कोई संशय नहीं रहा। हिदाया स्पष्ट रूप से काफिरों पर आक्रमण करने की अनुमति देता है, भले ही उनकी ओर से कोई उत्तेजनात्मक कार्यवाही न भी की गई हो। इस्लाम के प्रचार-प्रसार के धार्मिक कर्तव्य को लेकर तुर्की ने भारत पर आक्रमण में कोई अनैतिका नहीं देखी। उनकी दृष्टि में भारत में बिना हिंदुओं को पराजित ओर सम्पत्ति से वंचित किये, इस्लाम का प्रसार संभव नहीं था। इसलिए इस्लाम के प्रसार का अर्थ हो गया, ‘युद्ध और (हिंदुओं पर) विजय।’(१)
वास्तव में अंतर दृष्टिकोण का है। यह संभव है कि एक कार्य को हिन्दू जोर-जबरदस्ती समझते हों और मुसलमान उसे स्वेच्छा समझते हों अथवा उसे दयाजनित कृत्य समझते हों। पहले का उदाहरण मोपला विद्रोह के समय मुसलमान मोपलाओं द्वारा मालाबार में २०,००० हिन्दुओं के ‘बलात्‌ धर्मान्तरण’ पर मौलाना हसरत मोहानी द्वारा कांग्रेस की विषय समिति में की गई, वह विखयात टिप्पणी है जिसने गाँधी इत्यादि कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं की जुबान पर ताले लगा दिये थे। उन्होंने कहा था-
”(मालाबार) दारुल हर्ब (शत्रु देश) हो गया था। मुस्लिमविद्रोहियों को शक (केवल शक) था कि हिन्दू उनके शत्रु अंग्रेजों से मिले हुए हैं। ऐसी दशा में यदि हिन्दुओं ने मृत्युदंड से बचने के लिये इस्लाम स्वीकार कर लिया तो यह बलात्‌ धर्मान्तरण कहाँ हुआ? यह धर्म परिवर्तन तो स्वेच्छा से ही माना जायेगा।”(१क)
दूसरे दृष्टिकोण का उदाहरण, अब्दल रहमान अज्जम अपनी पुस्तक ”द एटरनल मैसेज ऑफ मौहम्मद” में प्रस्तुत करते हैं। उनका कहना है- ”जब मुसलमान मूर्ति पूजकों और बहुदेवतावादियों के विरुद्ध युद्ध करते हैं तो वह भी इस्लाम के मानव भ्रातृत्ववाद के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत के अनुकूल ही होता है। मुसलमानों की दृष्टि में, देवी-देवताओं की पूजा से निकृष्ट विश्वास दूसरा नहीं है। मुसलमानों की आत्मा, बुद्धि और परिणति इस प्रकार के निकृष्ट विश्वासधारियों को अल्लाह के क्रोध से बचाने के साथ जुड़ी हुई है। जब मुसलमान इस प्रकार के लोगों को मानवता के नाते अपना बन्धु कुबूल करते हैं तो वे अल्लाह के कोप से उनको बचाने को अपना कर्तव्य समझकर उन्हें तब तक प्रताड़ित करते हैं, जब तब कि वे उन झूठे देवी देवताओं में विश्वास को त्यागकर मुसलमान न हो जायें। इस प्रकार के निकृष्ट विश्वास को त्यागकर मुसलमान हो जाने पर वे भी दूसरे मुसलमानों के समान व्यवहार के अधिकारी हो जाते हैं। इस प्रकार के निकृष्ट विश्वास करने वालों के विरुद्ध युद्ध करना इस कारण से एक दयाजनित कार्य है क्योंकि उससे समान भ्रातृत्ववाद को बल मिलता है।”(२)
कुरान में धर्म प्रचार के लिये बल प्रयोग के विरुद्ध कुछ आयते हैं किन्तु अनेक विशिष्ट मुस्लिम विद्वानों का यह भी कहना है कि काफिरों को कत्ल करने के आदेश देने वाली आयत (९ : ५) के अवतरण के पश्चात्‌ कुफ्र और काफिरों के प्रति किसी प्रकार की नम्रता अथवा सहनशीलता का उपदेश करने वाली तमाम आयतें रद्‌द कर दी गयी हैं।(३) शाहवली उल्लाह का कहना है कि इस्लाम की घोषणा के पश्चात्‌ बल प्रयोग, बल प्रयोग नहीं है। सैयद कुत्व का कहना है कि मानव मस्तिष्क और हदय को सीधे-सीधे प्रभावित करने से पहले यह आवश्यक हे कि वे परिस्थितियाँ, जो इसमें बाधा डालती हैं, बलपूर्वक हटा दी जायें।’(४) इस प्रकार वह भी बल प्रयोग को आवश्यक समझते हैं। जमाते इस्लामी के संस्थापक सैयद अबू आला मौदूदी बल प्रयोग को इसलिए उचित ठहराते हैं कि ”जो लोग ईद्गवरीय सृष्टि के नाज़ायज मालिक बन बैठे हैं और खुदा के बन्दों को अपना बंदा बना लेते हैं, वे अपने प्रभुत्व से,महज नसीहतों के आधार पर, अलग नहीं हो जाये करते- इसलिए मौमिन (मुसलमान) को मजबूरन जंग करना पड़ता है ताकि अल्लाह की हुकूमत (इस्लामी हुकूमत) की स्थापना के रास्ते में जो बाधा हो, उसे रास्ते से हटा दें।’(५) यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि इस्लाम के अनुसार पृथ्वी के वास्तविक अधिकारी अल्लाह, उसके रसूल मौहम्मद और उनके उत्तराधिकारी मुसलमान ही हैं।(६) इनके अतिरिक्त, जो भी गैर-मुस्लिम शासक हैं, वे मुसलमानों के राज्यापहरण के दोषी हैं। अपहरण की गई अपनी वस्तु को पुनः प्राप्त करने के लिये लड़ा जाने वाला युद्ध तो सुरक्षात्मक ही होता है।
१९ दिसम्बर १४२१ के लेख के अनुसार, जाफर मक्की नामक विद्वान का कहना है कि ”हिन्दुओं के इस्लाम ग्रहण करने के मुखय कारण थे, मृत्यु का भय, परिवार की गुलामी, आर्थिक लोभ (जैसे-मुसलमान होने पर पारितोषिक, पेंशन और युद्ध में मिली लूट में भाग), हिन्दू धर्म में घोर अन्ध विश्वास और अन्त में प्रभावी धर्म प्रचार।(७)
अगले अध्यायों में हम इतिहास से यह बताने का प्रयास करेंगे कि किस प्रकार भारतीय मुसलमानों के हिन्दू पूर्वजों का इन विविध तरीकों से धर्म परिवर्तन किया गया।
२. आर्थिकलोभ

शासकों द्वारा स्वार्थ जनित मुस्लिम तुष्टिकरण
मौहम्मद साहब के जीवन काल से बहुत पहले से, अरब देशों का दक्षिणी-पूर्वी देशों से समुद्री मार्ग द्वारा भारत के मालाबार तट पर होते हुए बड़ा भारी व्यापार था। अरब नाविकों का समुद्र पर लगभग एकाधिकार था। मालाबार तट पर अरबों का भारत से कितना व्यापार होता था, वह केवल इस तथ्य से समझा जा सकता है कि अरब देश से दस हजार (१०,०००) घोड़े प्रतिवर्ष भारत में आयत होते थे।(९) और इससे कहीं अधिक मूल्य का सामान लकड़ी, मसाले, रेशम इत्यादि निर्यात होते थे। स्पष्ट है कि दक्षिण भारत के शासकों की आर्थिक सम्पन्नता इस व्यापार पर निर्भर थी। फलस्वरूप् भारतीय शासक इन अरब व्यापारियों और नाविकों को अनेक प्रकार से संतुष्ट रखने का प्रयास करते थे। मौहम्मद साहब के समय में ही पूरा अरब देद्गा मुसलमान हो गया, तो वहाँ से अरब व्यापारी मालाबार तट पर अपने नये मत का उत्साह और पैगम्बर द्वारा चाँद के दो टुकड़े कर देने जैसी चमत्कारिक कहानियाँ लेकर आये। वह भारत का अत्यन्त अवनति का काल था। न कोई केन्द्रीय शासन रह गया था और न कोई राष्ट्रीय धर्म। वैदिक धर्म का हास हो गया था और अनेकमत-मतान्तर, जिनका आधार अनेक प्रकार के देवी-देवताओं में विश्वास था, उत्पन्न हो गये थे। मूर्ति पूजा और छुआछूत का बोलबाला था। ऐसे अवनति काल में इस्लाम एकेश्वरवाद और समानता का संदेश लेकर समृद्ध व्यापारी के रूप में भारत में प्रविष्ट हुआ। मौहम्मद साहब की शिक्षाओं ने, जो एक चमत्कार किया है वह, यह है कि प्रत्येक मुसलमान इस्लाम का मिशनरी भी होता है और योद्धा भी। इसलिए जो अरब व्यापारी और नाविक दक्षिण भारत में आये उन्होंने इस्लाम का प्रचार प्रारंभ कर दिया। जिस भूमि पर सैकड़ों मत-मतान्तर हों और हजारों देवी-देवता पूजे जाते हों वहाँ किसी नये मत को जड़ जमाते देर नहीं लगती विशेष रूप से यदि उसके प्रचार करने वालों में पर्याप्त उत्साह हो ओर धन भी।
अवश्य ही इस प्रचार के फलस्वरूप हिन्दुओं के धर्मान्तरण के विरुद्ध कुछ प्रतिक्रिया भी हुई और अनेक स्थानों पर हिन्दू-मुस्लिम टकराव भी हुआ। क्योंकि शासकों की समृद्धि और ऐश्वर्य मुसलमान व्यापारियों पर निर्भर करता था, इसलिए इस प्रकार के टकराव में शासक उन्हीं का पक्ष लेते थे, और अनेक प्रकार से उनका तुष्टीकरण करते थे। फलस्वरूप् हिन्दुओं के धर्मान्तरण करने में बाधा उपस्थित करने वालों को शासन बर्दाश्त नहीं करता था। अपनी पुस्तक ‘इंडियन इस्लाम’ में टाइटस का कहना है कि ”हिन्दू शासक अरब व्यापारियों का बहुत ध्यान रखते थे क्योंकि उनके द्वारा उनको आर्थिक लाभ होता था और इस कारण हिन्दुओं के धर्म परिवर्तन में कोई बाधा नहीं डाली जा सकती थी। केवल इतना ही नहीं, अत्यन्त निम्न जातियों से धर्मान्तरित हुए भारतीय मुसलमानों को भी शासन द्वारा वही सम्मान और सुविधाएँ दी जाती थीं जो इन अरब (मुसलमान) व्यापारियों को दी जाती थी।”(९) ग्यारहवीं शताब्दी के इतिहासकार हदरीसों द्वारा बताया गया है कि ”अनिलवाड़ा में अरब व्यापारी बड़ी संखया में आते हैं और वहाँ के शासक और मंत्रियों द्वारा उनकी सम्मानपूर्वक आवभगत की जाती है और उन्हें सब प्रकार की सुविधा और सुरक्षा प्रदान की जाती है।”(१०) दूसरा मुसलमान इतिहासकार, मौहम्मद ऊफी लिखता है कि कैम्बे के मुसलमानों पर जब हिंदुओं ने हमला किया तो वहाँ के शासक सिद्धराज (१०९४-११४३ ई.) ने, न केवल अपनी प्रजा के उन हिंदुओं को दंड दिया अपितु उन मुसलमानों को एक मस्जिद बनाकर भेंद की।(११) एक शासक तो अपने मंत्रियों समेत अरब देश जाकर मुसलमान ही हो गया।(१२)
३. मृत्यु का भय और परिवार की गुलामी
‘इस्लाम का जन्म जिस वातावरण में हुआ था वहाँ तलवार की सर्वोच्च कानून था और है।……..मुसलमानों में तलवार आज भी बहुतायत से दृष्टिगोचर होती है। यदि इस्लाम का अर्थ सचमुच में ही ‘शांति’ है तो तलवार को म्यान में बंद करना होगा।’ (महात्मा गाँधी : यंग इंडिया, ३० सित; १९२७)
जहाँ दक्षिण भारत में इस्लाम, शासकों के आर्थिक लोभ के कारण एवं मुस्लिम व्यापारियों के शांतिपूर्ण प्रयासों द्वारा पैर पसार रहा था, वहीं उत्तर भारत में वह अरब, अफगानी, तूरानी, ईरानी, मंगोल और मुगल इत्यादि मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा कुरान और तलवार का विकल्प लेकर प्रविष्ट हुआ। इन आक्रान्ताओं ने अनगिनत मंदिर तोड़े, उनके स्थान पर मस्जिद, मकबरे, और खानकाहें बनाए। उन मस्जिदों की सीढ़ियों पर उन उपसाय मूर्तियों के खंडित टुकड़ों को बिछाया जिससे वह हिन्दुओं की आँखों के सामने सदैव मुसलमानों के जूतों से रगड़ी जाकर अपमानित हों और हिन्दू प्रत्यक्ष देखें कि उन बेजान मूर्तियों में मुसलमानों का प्रतिकार करने की कोई शक्ति नहीं है। उन्होंने मंदिरों और हिन्दू प्रजा से, जो स्वर्ण और रत्न, लूटे उनकी मात्रा मुस्लिम इतिहासकार सैकड़ों और सहस्त्रों मनों में देते हैं। जिन हिन्दुओं का इस्लाम स्वीकार करने से इनकार करने पर वध किया गया, उनकी संखया कभी-कभी लाखों में दी गई है और उनमें से जो अवयस्क बच्चे और स्त्रियाँ गुलाम बनाकर विषय-वासना के शिकार बने, उनकी संखया सहस्त्रों में दी गई है। इस्लाम के अनुसार, उनमें से ४/५ भाग को भारत में ही आक्रमणकारियों और उसके सैनिकों में बाँट दिये जाते थे और शेष १/५ को, शासकों अथवा खलीफा इत्यादि को भेंट में भेज दिये जाते थे और सहस्त्रों की संखया में वह विदेशों में भेड़ बकरियों की तरह गुलामों की मंडियों में बेंच दिये जाते थे। स्वयं दिल्ली में भी इस प्रकार की मंडियाँ लगती थीं। भारत की उस समय की आबादी केवल दस-बारह करोड़ रही होगी। ऐसी दशा में लाखों हिन्दुओं के कत्ल और हजारों के गुलाम बनाये जाने से समस्त भारत के हिन्दुओं पर कैसा आतंक छाया होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
मुसलमानों के उन हिन्दू-पूर्वजों का चरित्र कैसा था? अल-इदरीसी नामक मुस्लिम इतिहासकार के अनुसार ‘न्याय करना उनका स्वभाव है। वह न्याय से कभी परामुख नहीं होते। इनकी विश्वसनीयता, ईमानदारी और अपनी वचनबद्धता को हर सूरत में निभाने की प्रवृति विश्व विखयात है। उनके इन गुणों की खयाति के कारण सम्पूर्ण विश्व के व्यापारी उनसे व्यापार करने आते हैं।(१३)
अलबेरुनी के अनुसार, जो महमूद गजनवी के साथ भारत आया था, अरब विद्वान, बौद्ध भिक्षुओं और हिन्दू पंडितों के चरणों मे बैठकर दर्शन्, ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद, रसायन और दूसरे विषयों की शिक्षा लेते थे। खलीफा मंसूर (७४५-७६) के उत्साह के कारण अनेक हिन्दू विद्वान उसके दरबार में पहुँच गये थे। ७७१ ई. में सिन्धी हिन्दुओं के एक शिष्ट मंडल ने उसको अनेक ग्रंथ भेंट किये थे। ब्रह्‌म सिद्धांत और ज्योतिष संबंधी दूसरे ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद भारतीय विद्वानों की सहायता से इब्राहीम-अल-फाजरी द्वारा बगदाद में किया गया था। बगदाद के खलीफा हारु-अल-रशीद के बरमक मंत्रियों (मूल संस्कृत पर प्रमुख) के परिवार जो बौद्ध धर्म त्यागकर, मुसलमान हो गये थे, निरन्तर अरबी विद्वानों को भारत में द्गिाक्षा प्राप्त करने के लिये भेजते थे और हिन्दू विद्वानों को बगदाद आने को आमंत्रित करते थे। एक बार जब खलीफा हारु-अल-रशीद एक ऐसे रोग से ग्रस्त हो गये, जो स्थानीय हकीमों की समझ में नहीं आया, तो उन्होंने हिन्दू वैद्यों को भारत से बुलवाया। मनका नामक हिन्दू वैद्य ने उनको ठीक कर दिया। मनका बगदाद में ही बस गया। वह बरमकों के अस्पताल से संबंद्ध हो गया और उसने अनेक हिन्दू ग्रंथों का फारसी और अरबी में अनुवाद किया। इब्न धन और सलीह, जो धनपति और भोला नामक हिन्दुओं के वंशज थे, बगदाद के अस्पतालों में अधीक्षक नियुक्त किये गये थे। चरक, सुश्रुत के अष्टांग हदय निदान और सिद्ध योग का तथा स्त्री रोगों, विष, उनके उतार की दवाइयों, दवाइयों के गुण दोष, नशे की वस्तुओं, स्नायु रोगों संबंधी अनेक रोगों से संबंधित हिन्दू ग्रंथों का वहाँ खलीफा द्वारा पहलवी और अरबी भाषा में अनुवाद कराया गया, जिससे गणित और चिकित्सा शास्त्र का ज्ञान मुसलमानों में फैला। (के.एस.लाल-लीगेसी ऑफ मुस्लिम रूल इन इंडिया, पृ. ३५-३६)। फिर भी इस्लाम इस विज्ञान युक्त संस्कृति को ‘जहालिया’ अर्थात्‌ मूर्खतापूर्ण संस्कृति मानता है और उसको नष्ट कर देना ही उसका ध्येय रहा है क्योंकि उनका दोष यह था कि वे मुसलमान नहीं थे। इस्लाम के बंदों के लिये उनका यह पाप उन्हें सब प्रकार से प्रताड़ित करने, वध करने, लूटने और गुलाम बनाने के लिये काफी था।
मुस्लिम इतिहासकारों ने इन कत्लों और बधिक आक्रमणकारियों द्वारा वध किये गये लोगों के सिरों की मीनार बनाकर देखने पर आनंदित होने के दृश्यों के अनेक प्रशंसात्मक वर्णन किये हैं। कभी-कभी स्वयं आक्रमणकारियों और सुल्तानों द्वारा लिखित अपनी जीवनियों में उन्होंने इन बर्बरताओं पर अत्यंत हर्ष और आत्मिक संतोष प्रकट करते हुए अल्लाह को धन्यवाद दिया है कि उनके द्वारा इस्लाम की सेवा का इतना महत्त्वपूर्ण कार्य उनके द्वारा सिद्ध हो सका।
इन बर्बरताओं के ये प्रशंसात्मक वर्णन, जिनके कुछ मूल हस्तलेख आज भी उपलब्ध हैं, उन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष आधुनिक, इतिहासकारों के गले की हड्‌डी बन गये हैं, जो इन ऐतिहासिक तथ्यों को हिन्दू-मुस्लिम एकता की मृग मरीचिका को वास्तविक सिद्ध करने के उनके प्रयासों में बाधा समझते हैं। इस उद्‌देश्य से वह इस क्रूरता को हिन्दुओं से छिपाने के लिये झूँठी कहानियों के तानों-बानों की चादरें बुनते हैं। परन्तु ये क्रूरता के ढ़ेर इतने विशाल हैं कि जो छिपाये नहीं छिपते हैं।
दुर्भाग्यवश भारतीय शासकों का चिंतन आज भी वहीं है जो ७वीं द्गाताब्दी में दक्षिण में इस्लाम के प्रवेश के समय वहाँ के हिंदू शासकों का था। यदि उन दिनों खाड़ी देशों से व्यापार द्वारा आर्थिक लाभ का लोभ था तो अब मुस्लिम वोटों की सहायता से प्रांतों और केंद्र में सत्ता प्राप्त करने और सत्ता में बने रहने का लोभ है। यह लोभ साधारण नहीं है। जिस प्रकार करोड़ों और अरबों रुपये के घोटाले प्रतिदिन उजागर हो रहे हैं, जिस प्रकार के मुगलिया ठाठ से हमारे ‘समाजवादी धर्मनिरपेक्ष’ नेता रहते हैं, वह तो अच्छे-अच्छे ऋषि मुनियों के मन को भी डिगा सकते हैं। इसलिये भारतीय बच्चों को दूषित इतिहास पढ़ाने पर शासन बल देता है। एन.सी.ई.आर.टी. ने, जो सरकारी और सरकार द्वारा सहायता प्राप्त सभी स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों के लेखन और प्रकाशन पर नियंत्रण रखने वाला केंद्रीय शासन का संस्थान है, लेखकों और प्रकाशकों के ‘पथ प्रदर्शन’ के लिये सुझाव दिये हैं। इन सुझावों का संक्षिप्त विवरण नई दिल्ली जनवरी १७, १९७२ के इंडियन एक्सप्रेस में दिया गया है। कहा गया है कि ‘उद्‌देश्य यह है कि अवांछित इतिहास और भाषा की ऐसी पुस्तकों को पाठ्‌य पुस्तकों में से हटा दिया जाये जिनसे राष्ट्रीय एकता निर्माण में और सामाजिक संगठन के विकसित होने में बाधा पड़ती है-२० राज्यों और तीन केन्द्र शासित प्रदेशों ने एन.सी.ई.आर.टी. के सुझावों के तहत कार्य प्रारंभ भी कर दिया है। पश्चिमी बंगाल के बोर्ड ऑफ सेकेन्ड्री एजुकेद्गान द्वारा २९ अप्रैल १९७२ को जो अधिसूचना स्कूलों और प्रकाशकों के लिए जारी की गई उसमें भारत में मुस्लिम राज्य के विषय में कुछ ‘शुद्धियाँ’ करने को कहा गया है जैसे कि महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण करने का वास्तविक उद्‌देश्य, औरंगजेब की हिन्दुओं के प्रति नीति इत्यादि। सुझावों में विशेष रूप से कहा गया है कि ‘मुस्लिम शासन की आलोचना न की जाये। मुस्लिम आक्रमणकारियों और शासकों द्वारा मंदिरों के विध्वंस का नाम न लिया जाये। ‘इस्लाम में बलात्‌ धर्मान्तरण के वर्णन पाठ्‌य पुस्तकों से निकाल दिये जायें।(१४)
तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष’ हिन्दू शासकों और इतिहासकारों द्वारा इतिहास को झुठलाने के इन प्रभावी प्रयासों के फलस्वरूप सरकारी और सभी हिन्दू स्कूलों में शिक्षा प्राप्त हिन्दुओं की नई पीढ़ियाँ एक नितांत झूठ ऐतिहासिक दृष्टिकोण को सत्य मान बैठी हैं कि ‘इस्लाम गैर-मुसलमानों के प्रति प्रेम औरसहिद्गणुता के आदेद्गा देता है। भारत पर आक्रमण करने वाले मौहम्मद बिन कासिम, महमूद गज़नवी, मौहम्मद गौरी, तैमूर, बाबर, अब्दाली इत्यादि मुसलमानों का ध्येय लूटपाट करना था, इस्लाम का प्रचार-प्रसार नहीं था। उनके कृत्यों से इस्लाम का मूल्यांकन नहीं किया जाना चाहिये। ये लोग अपनी हिन्दू प्रजा के प्रति दयालु और प्रजावत्सल थे। कभी-कभी उनके मंदिरों को दान देते थे। उन्हें देखकर प्रसन्न होते थे।’ जबकि वास्तविकता यह है कि हिन्दुओं के प्रति उनके उस प्रकार के क्रूर आचरण का कारण उन सबके मन में अपने धर्म-इस्लाम के प्रति अपूर्व सम्मान और धर्मनिष्ठा थी ओर इस्लाम के प्रति धर्मनिष्ठता का अर्थ केवल इस्लाम के प्रति प्रेम ही नहीं है, सभी गैर-इस्लामी धर्मों, दर्शनों और विश्वासों के प्रति घृणा करना भी है।(१५)
मुस्लिम धार्मिक विद्वान्‌ उनको इसी कारण परम आदर की दृष्टि से इस्लाम के ध्वजारोहक के रूप में देखते हैं और अपने बच्चों को भी ऐसा ही करने की शिक्षा देते हैं।
जहाँ एक ओर, हिन्दुओं की भावी पीढ़ियों को वास्तविकता से दूर रखकर भ्रमित किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर भारत में स्वतंत्रता के पश्चात्‌ खड़े किये गये, लगभग ४० हजार मदरसों और ८ लाख मकतवों, में मुस्लिम बच्चों को गैर-इस्लाम से घृणा करना, और इन लुटेरों को इस्लाम के महापुरुष और उनके शासन को, अकबर के कुफ्र को प्रोत्साहन देने वाले शासन से बेहतर बताया जा रहा है। फिर इसमें आश्चर्य की क्या बात है कि भारत सरकार के एक मंत्री (गुलाम नबी आजाद) को कहना पड़ा कि- ‘कश्मीर में जमाते इस्लामी द्वारा चलाये जाने वाले मदरसों ने देश के धर्म निरपेक्ष ढाँचे को बहुत हानि पहुँचाई है।…….घाटी के नौजवानों का बन्दूक की संस्कृति से परिचय करा दिया है।’(१६)
मंत्री जी के वक्तव्य से यह भ्रम हो सकता है कि उनका आरोप केवल जमाते इस्लामी द्वारा चलाये जाने वाले मदरसों के लिये ही सत्य है, दूसरों के लिये नहीं। किन्तु डॉ. मुशीरुल हक, जो न केवल स्वयं मदरसा शिक्षा प्राप्त हैं, अपितु विदेशी विश्व-विद्यालयों के भी विद्वान हैं के अनुसार ‘सभी मदरसों में पाठ्‌यचर्या, पाठ्‌य-पुस्तकें, पाठ्‌यनीति अकादमिक तथा धार्मिक शिक्षण एक जैसा ही है।’(१७) यह भिन्न हो भी नहीं सकता क्योंकि बुनियादी पुस्तकें कुरान, हदीस इत्यादि एक ही हैं।
अफगानिस्तान में मदरसों में शिक्षा पा रहे सशस्त्र विद्यार्थियों (तालिबान) द्वारा गृह युद्ध में कूदकर जिस प्रकार अपेक्षाकृत उदारवादी मुस्लिम शासकों के दाँत खट्‌टे कर दिये गये, उससे उड्‌डयन मंत्री के उपरोक्त उद्धत वक्तव्य को बल मिलता है। यह तालिबान कट्‌टरवादी (शुद्ध) इस्लाम की स्थापना के लिये समर्पित अनुशासनबद्ध जिहादी सेनाओं के समर्पित योद्धा हैं। उनका उपयोग किसी समय भी इस रूप् में किया जा सकता है। चाहे अफगानिस्तान हो या काश्मीर अथवा कोई दूसरा देश।
इस प्रारंभिक विश्लेषण के पश्चात्‌ आइये देखें कि भारतीय मुसलमानों के हिन्दू पूर्वजों को किस प्रकार शासकों द्वारा तलवार की नोक पर धर्मपरिवर्तन पर मजबूर होना पड़ा। उनके साथ क्या घटा? वह कैसा आतंक था? अथवा किस प्रकार उनके विश्वास के भोलेपन का लाभ उठाकर उनका धर्म परिवर्तन आक्रामकों एवं शासकों द्वारा किया गया।
४. मुस्लिम आक्रामकों और शासकों द्वारा हिन्दुओं का बलात्‌ धर्म परिवर्तन

०१. मौहम्मद बिन कासिम (७१२ ई.)
०२ सुबुक्तगीन (९७७-९९७)
०३. महमूद गजनवी (९९७-१०३०)
०४. सोमनाथ का पतन (१०२५)
०५. मौहम्मद गौरी (११७३-१२०६)
०६. कुतुबुद्‌दीन ऐबक (१२०६-१२१०)
०७. सुल्तान इल्तुतमिश (१२१०-१२३६)
०८. खिलजी सुल्तान (१२९०-१३१६)
०९. तुगलक सुल्तान
१०. तैमूर शैतान
११. दूसरे सुल्तान
१२. अलीशाह (१४१३-१४२०)
१३. बाबर (१५१९-१५३०)
१४. शेरशाह सूरी (१५४०-१५४५)
१५. हुमायूँ (१५२०-१५५६)
१६. अकबर महान (१५५६-१६०५)
१७. जहाँगीर (१६०५-१६२७)
१८. औरंगजेब (१६५८-१७०७)
१९. शाहजहां (१६२७-१६५८)

०१. मौहम्मद बिन कासिम (७१२ ई.)

इस्लामी सेनाओं का पहला प्रवेश सिन्ध में, १७ वर्षीय मौहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में ७११-१२ ई. में हुआ। प्रारंभिक विजय के पश्चात उसने ईराक के गवर्नर हज्जाज को अपने पत्र में लिखा-’दाहिर का भतीजा, उसके योद्धा और मुखय-मुखय अधिकारी कत्ल कर दिये गयेहैं। हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित कर लिया गया है, अन्यथा कत्ल कर दिया गया है। मूर्ति-मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर दी गई हैं। अजान दी जाती है।’ (१)
वहीं मुस्लिम इतिहासकार आगे लिखता है- ‘मौहम्मद बिन कासिम ने रिवाड़ी का दुर्ग विजय कर लिया। वह वहाँ दो-तीन दिन ठहरा। दुर्ग में मौजूद ६००० हिन्दू योद्धा वध कर दिये गये, उनकी पत्नियाँ, बच्चे, नौकर-चाकर सब कैद कर लिये (दास बना लिये गये)। यह संखया लगभग ३० हजार थी। इनमें दाहिर की भानजी समेत ३० अधिकारियों की पुत्रियाँ भी थीं।(२)
विश्वासघात
बहमनाबाद के पतन के विषय में ‘चचनामे’ का मुस्लिम इतिहासकार लिखता है कि बहमनाबाद से मौका बिसाया (बौद्ध) के साथ कुछ लोग आकर मौहम्मद-बिन-कासिम से मिले। मौका ने उससे कहा, ‘यह (बहमनाबाद) दुर्ग देश का सर्वश्रेष्ठ दुर्ग है। यदि तुम्हारा इस पर अधिकार हो जाये तो तुम पूर्ण सिन्ध के शासक बन जाओगे। तुम्हारा भय सब ओर व्याप्त हो जायेगा और लोग दाहिर के वंशजों का साथ छोड़ देंगे। बदले में उन्होंने अपने जीवन और (बौद्ध) मत की सुरक्षा की माँग की। दाहिर ने उनकी शर्तें मान ली। इकरारनामे के अनुसार जब मुस्लिम सेना ने दुर्ग पर आक्रमण किया तो ये लोग कुछ समय के लिये दिखाने मात्र के वास्ते लड़े और फिर शीघ्र ही दुर्ग का द्वार खुला छोड़कर भाग गये। विश्वासघात द्वारा बहमनाबाद के दुर्ग पर बिना युद्ध किये ही मुस्लिम सेना का कब्जा हो गया।(३)
बहमनाबाद में सभी हिन्दू सैनिकों का वध कर दिया गया। उनके ३० वर्ष की आयु से कम के सभी परिवारीजनों को गुलाम बनाकर बेच दिया गया। दाहिर की दो पुत्रियों को गुलामों के साथ खलीफा को भेंट स्वरूप भेज दिया गया। कहा जाता है कि ६००० लोगों का वध किया गया किन्तु कुछ कहते हैं कि यह संखया १६००० थी। ‘अलविलादरी’ के अनुसार २६०००(४)। मुल्तान में भी६,००० व्यक्ति वध किये गये। उनके सभी रिश्तेदार गुलाम बना लिये गये।(५) अन्ततः सिन्ध् में मुसलमानों ने न बौद्धों को बखशा, न हिन्दुओं को।

०२ सुबुक्तगीन (९७७-९९७)

अल उतबी नामक मुस्लिम इतिहासकार द्वारा लिखित ‘तारिखे यामिनी’ के अनुसार-’सुल्तान ने उस (जयपाल) के राज्य पर धावा बोलने के अपने इरादे रूपी तलवार की धार को तेज किया जिससे कि वह उसको इस्लाम अस्वीकारने की गंदगी से मुक्त कर सके। अमीर लत्रगान की ओर बढ़ा जो कि एक शक्तिशाली और सम्पदा से भरपूर विखयात नगर है। उसे विजयकर, उसके आस-पास के सभी क्षेत्रों में, जहाँ हिन्दू निवास करते थे, आग लगा दी गई। वहाँ के सभी मूर्ति-मंदिर तोड़कर वहाँ मस्जिदें बना दी गईं। उसकी विजय यात्रा चलती रही और सुल्तान उन (मूर्ति-पूजा से) प्रदूषित भाग्यहीन लोगों का कत्ल कर मुसलमानों को संतुष्ट करता रहा। इस भयानक कत्ल करने के पश्चात्‌ सुल्तान और उसके मित्रों के हाथ लूट के माल को गिनते-गिनते सुन्न हो गये। विजय यात्रा समाप्त होने पर सुल्तान ने लौट कर जब इस्लाम द्वारा अर्जित विजय का वर्णन किया तो छोटे बड़े सभी सुन-सुन कर आत्म विभोर हो गये और अल्लाह को धन्यवाद देने लगे। (६)
०३. महमूद गजनवी (९९७-१०३०)

भारत पर आक्रमण प्रारंभ करने से पहले, इस २० वर्षीय सुल्तान ने यह धार्मिक शपथ ली कि वह प्रति वर्ष भारत पर आक्रमण करता रहेगा, जब तक कि वह देश मूर्ति और बहुदेवता पूजा से मुक्त होकर इस्लाम स्वीकार न कर ले। अल उतबी इस सुल्तान की भारत विजय के विषय में लिखता है-’अपने सैनिकों को शस्त्रास्त्र बाँट कर अल्लाह से मार्ग दर्शन और शक्ति की आस लगाये सुल्तान ने भारत की ओर प्रस्थान किया। पुरुषपुर (पेशावर) पहुँचकर उसने उस नगर के बाहर अपने डेरे गाड़ दिये।(७)
मुसलमानों को अल्लाह के शत्रु काफिरों से बदला लेते दोपहर हो गयी। इसमें १५००० काफिर मारे गये और पृथ्वी पर दरी की भाँति बिछ गये जहाँ वह जंगली पशुओं और पक्षियों का भोजन बन गये। जयपाल के गले से जो हार मिला उसका मूल्य २ लाख दीनार था। उसके दूसरे रिद्गतेदारों और युद्ध में मारे गये लोगों की तलाद्गाी से ४ लाख दीनार का धन मिला। इसके अतिरिक्त अल्लाह ने अपने मित्रों को ५ लाख सुन्दर गुलाम स्त्रियाँ और पुरुष भी बखशो। (८)
कहा जाता है कि पेशावर के पास वाये-हिन्द पर आक्रमण के समय (१००१-३) महमूद ने महाराज जयपाल और उसके १५ मुखय सरदारों और रिश्तेदारों को गिरफ्तार कर लिया था। सुखपाल की भाँति इनमें से कुछ मृत्यु के भय से मुसलमान हो गये। भेरा में, सिवाय उनके, जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया, सभी निवासी कत्ल कर दिये गये। स्पष्ट है कि इस प्रकार धर्म परिवर्तन करने वालों की संखया काफी रही होगी।(९)
मुल्तान में बड़ी संखया में लोग मुसलमान हो गये। जब महमूद ने नवासा शाह पर (सुखपाल का धर्मान्तरण के बाद का नाम) आक्रमण किया तो उतवी के अनुसार महमूद द्वारा धर्मान्तरण के जोद्गा का अभूतपूर्व प्रदर्शन हुआ। (अनेक स्थानों पर महमूद द्वारा धर्मान्तरण के लिये देखे-उतबी की पुस्तक ‘किताबें यामिनी’ का अनुवाद जेम्स रेनाल्ड्‌स द्वारा पृ. ४५१, ४५२, ४५५, ४६०, ४६२, ४६३ ई. डी-२, पृ-२७, ३०, ३३, ४०, ४२, ४३, ४८, ४९ परिशिष्ट पृ. ४३४-७८(१०)) काश्मीर घाटी में भी बहुत से काफिरों को मुसलमान बनाया गया और उस देश में इस्लाम फैलाकर वह गजनी लौट गया।(११)
उतबी के अनुसार जहाँ भी महमूद जाता था, वहीं वह निवासियों को इस्लाम स्वीकार करने पर मजबूर करता था। इस बलात्‌ धर्म परिवर्तन अथवा मृत्यु का चारों ओर इतना आतंक व्याप्त हो गया था कि अनेक शासक बिना युद्ध किये ही उसके आने का समाचार सुनकर भाग खड़े होते थे। भीमपाल द्वारा चाँद राय को भागने की सलाह देने का यही कारण था कि कहीं राय महमूद के हाथ पड़कर बलात्‌ मुसलमान न बना लिया जाये जैसा कि भीमपाल के चाचा और दूसरे रिश्तेदारों के साथ हुआ था।(१२)
१०२३ ई. में किरात, नूर, लौहकोट और लाहौर पर हुए चौदहवें आक्रमण के समय किरात के शासक ने इस्लाम स्वीकार कर लिया और उसकी देखा-देखी दूसरे बहुत से लोग मुसलमान हो गये। निजामुद्‌दीन के अनुसार देश के इस भाग में इस्लाम शांतिपूर्वक भी फैल रहा था, और बलपूर्वक भी।(१३) सुल्तान महमूद कुरान का विद्वान था और उसकी उत्तम परिभाषा कर लेता था।(१३क) इसलिये यह कहना कि उसका कोई कार्य इस्लाम विरुद्ध था, झूठा है।
राष्ट्रीय चुनौती

हिन्दुओं ने इस पराजय को राष्ट्रीय चुनौती के रूप में लिया। अगले आक्रमण के समय जयपाल के पुत्र आनंद पाल ने उज्जैन, ग्वालियर, कन्नौज, दिल्ली और अजमेर के राजाओं की सहायता से एक बड़ी सेना लेकर महमूद का सामना किया। फरिश्ता लिखता है कि ३०,००० खोकर राजपूतों ने जो नंगे पैरों और नंगे सिर लड़ते थे, सुल्तान की सेना में घुस कर थोड़े से समय में ही तीन-चार हजार मुसलमानों को काट कर रख दिया। सुल्तान युद्ध बंद कर वापिस जाने की सोच ही रहा था कि आनंद पाल का हाथी अपने ऊपर नेपथा के अग्नि गोले के गिरने से भाग खड़ा हुआ

रविवार, फ़रवरी 26, 2012

नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रम संवत् २०६९, युगाब्द ५११४,शक संवत् १९९४ तदनुसार २३ मार्च

शंखनादी सुनील २३ मार्च को शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत की बरसी है.....इसी दिन इन तीनों महानायकों को फांसी दी गई थी और आज भी इस बलिदान की ना तो कोई उपमेयता है और ना ही इसे कोई विस्मृत कर पाया है

नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रम संवत् २०६९, युगाब्द ५११४,शक संवत् १९९४ तदनुसार २३ मार्च २०१२ , इस धरा की १९५५८८५११२वीं वर्षगांठ तथा इसी दिन सृष्टि का शुभारंभ हुआ...

नववर्ष की उषा काल की प्रतीक्षा

भारतवर्ष वह पावन भूमि है जिसने सम्पूर्ण भ्रह्माण्ड को अपने ज्ञान से आलोकित किया है, इसने जो ज्ञान का निदर्शन प्रस्तुत किया है, वह केवल भारतवर्ष में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण का ...पोषक है. यहाँ संस्कृति का प्रत्येक पहलू प्रकृति और विज्ञान का ऐसा विलक्षण उदाहरण है जो कहीं और नहीं मिलता. नए वर्ष का आरम्भ अर्थात भारतीय परंपरा के अनुसार 'वर्ष प्रतिपदा' भी एक ऐसा ही विलक्षण उदाहरण है...

भारतीय कालगणना के अनुसार इस पृथ्वी के सम्पूर्ण इतिहास की कुंजी मन्वंतर विज्ञान में है. इस ग्रह के सम्पूर्ण इतिहास को 14 भागों अर्थात मन्वन्तरों में बांटा गया है. एक मन्वंतर की आयु 30 करोड 67 लाख और 20 हजार वर्ष होती है. इस पृथ्वी का सम्पूर्ण इतिहास 4 अरब 32 करोंड वर्ष का है. इसके 6 मन्वंतर बीत चुके हैं. और 7 वां वैवश्वत मन्वंतर चल रहा है. हमारी वर्त्तमान नवीन सृष्टि 12 करोण 5 लाख 33 हजार 1 सौ चार वर्ष की है. ऐसा युगों की कालगणना बताती है. पृथ्वी पर जैव विकास का सम्पूर्ण काल 4 ,32 ,00 ,00 .00 वर्ष है. इसमे बीते 1 अरब 97 करोड 29 लाख 49 हजार 1 सौ 11 वर्ष के दीर्घ काल में 6 मन्वंतर प्रलय, 447 महायुगी खंड प्रलय तथा 1341 लघु युग प्रलय हो चुके हैं...

पृथ्वी और सूर्य की आयु की अगर हम भारतीय कालगणना देखें तो पृथ्वी की शेष आयु 4 अरब 50 करोड 70 लाख 50 हजार 9 सौ वर्ष है तथा पृथ्वी की सम्पूर्ण आयु 8 अरब 64 करोण वर्ष है. सूर्य की शेष आयु 6 अरब 66 करोण 70 लाख 50 हजार 9 सौ वर्ष तथा इसकी सम्पूर्ण आयु 12 अरब 96 करोड वर्ष है...

नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रम संवत् २०६९, युगाब्द ५११४,शक संवत् १९९४ तदनुसार २३ मार्च २०१२ , इस धरा की १९५५८८५११२वीं वर्षगांठ तथा इसी दिन सृष्टि का शुभारंभ हुआ...

१. भगवान राम का राज्याभिषेक, २. युधिष्ठिर संवत की शुरुवात, ३. विक्रमादित्य का दिग्विजय, ४. वासंतिक नवरात्र प्रारंभ, ५. शिवाजी की राज्य स्थापना, ६. डॉ. केशव हेडगेवार का जन्मदिन

चैत्रा ही एक ऐसा महीना है, जिसमें वृक्ष तथा लताएं पल्लवित व पुष्पित होती हैं। शुक्ल प्रतिपदा का दिन चन्द्रमा की कला का प्रथम दिवस माना जाता है। जीवन के मुख्य आधार वनस्पतियों को सोमरस चन्द्रमा ही प्रदान करता है। इसीलिए इस दिन को नए साल का आरम्भ माना जाता है।

नववर्ष का प्रारंभ चैत्रा शुक्ल प्रतिपदा से ही माना जाता है और इसी दिन से ग्रहों, वारों, मासों और संवत्सरों का प्रारंभ गणितीय और खगोल शास्त्रीय संगणना के अनुसार माना जाता है प्रतिपदा का यह शुभ दिन भारत राष्ट्र की गौरवशाली परंपरा का प्रतीक है। ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्रामास के प्रथम दिन ही ब्रह्मा ने सृष्टि संरचना प्रारंभ की। यह भारतीयों की मान्यता है, इसीलिए हम चैत्रा शुक्ल प्रतिपदा सेनए साल का आरम्भ मानते हैं।

ब्रह्मा द्वार सृष्टि का सृजन, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का राज्याभिषेक, मां दुर्गा की उपासना की नवरात्र व्रत का प्रारंभ, युगाब्द या युधिष्ठिर संवत्द्ध का आरम्भ, उज्जयिनी सम्राट-विक्रमादित्य द्वारा विक्रमी संवत का प्रारंभ, शालिवाहन शक संवत् (भारत सरकार का राष्ट्रीय पंचांगद्ध) महषि दयानन्द द्वारा आर्य समाज की स्थापना, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगवार का जन्म दिन।

चैत्रा मास की शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा या नववर्ष या उगादि (युगादिद्ध कहा जाता हैं, इस दिन हिन्दू नववर्ष का आरम्भ होता है। `गुड़ी´ का अर्थ `विजय पताका´ होती है। कहा जाता है कि शालिवाहन नामक एक कुम्हार के लड़के ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाई और उस पर पानी छिड़कर उनमें प्राण फूंक दिए और इस सेना की मदद से शक्तिशाली शत्रुओं को पराजित किया। इसी विजय के प्रतीक के रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ हुआ। `युग´ और `आदि´ शब्दों की सन्धि से बना है `युगादि´। आन्धरप्रदेश और कर्नाटक में `उगादि´ और महाराष्ट्र में यह पर्व `गुड़ी पड़वा´ के रूप में मनाया जाता है। कश्मीरी हिन्दुओं के लिए नववर्ष यानी नवरेह एक महत्वपूर्ण उत्सव है। बंगाल में नव वर्ष, पंजाब में बैसाखी आदि त्योहार भी इसी के आस-पास मनाये जाते हैं।कई मान्यताएं हैं इस दिन की कहा जाता है कि इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का निमार्ण किया था। इसमें मुख्यतया ब्रह्माजी और उनके द्वारा निर्मित सृष्टि के प्रमुख देवी-देवताओ, यक्ष-राक्षस, गंध्वारें, ऋषि-मुनियों, नदियों, पर्वतों, पशु-पक्षियां और कीट पतंगो का ही नहीं, रोगों और उनके उपचारों तक का भी पूजन किया जाता है। आन्धरप्रदेश प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट में सारे घरों को आम के पेड़ की पत्तियों के बन्दनवार से सजाया जाता है। सुखद जीवन की अभिलाषा के साथ-साथ यह बन्दनवार समृधि व अच्छी फसल के भी परिचायक हैं। `उगादि´ के दिन ही पंचांग तैयार होता है। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने इसी दिन से सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना करते हुए पंचांग की रचना की। चैत्रा मास की शुक्ल प्रतिपदा को महाराष्ट में गुड़ीपडवा कहा जाता है। वर्ष के साढे तीन मुहूर्तों में गुड़ीपड़वा की गिनती होती है। शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन से होता है।कई लोगों की मान्यता है कि इसी दिन भगवान राम ने बाली के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई। बाली के त्राास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर ध्वज फहराए जाते है। आज भी घर के आंगन में गुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। इसीलिए इस दिन को `गुड़ीपड़वा´ नाम दिया गया।रोगोपचार का भी दिनइस अवसर पर आन्धरप्रदेश प्रदेश में घरों में पच्चड़ी/प्रसादम तीर्थ के रूप में बांटा जाता है। कहा जाता है कि इसका निराहार सेवन करने से मानव निरोगी बना रहता है। चर्म रोग भी दूर होता है। इस पेय में मिली वस्तुएं स्वादिष्ट होने के साथ-साथ आरोग्यप्रद होती हैं। महाराष्ट्र में पूरन पाली या मीठी रोटी बनाई जाती है। इसमें जो चीजें मिलाई जाती हैं वे हैं- गुड़, नमक, नीम के पफूल, इमली और कच्च आम। गुड़ मिठास के लिए, नीम के पफूल कड़वाहट मिटाने के लिए और इमली व आम जीवन के खट्टे-मीठे स्वाद चखने का प्रतीक होती हैं। यूं तो आजकल आम बाजार में मौसम से पहले ही आ जाता है। किन्तु आन्धरप्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में इसी दिन से खाया जाता है। नौ दिन तक मनाया जाने वाला यह त्योहार दुर्गा पूजा के साथ-साथ, रामनवमी को भगवान श्रीराम का जन्मोत्सव भी मनाया जाता हैं।दो ऋतुओं का सन्धिकालआज भी हमारे देश में प्रकृति, शिक्षा तथा राजकीय कोष आदि के चालन-संचालन में मार्च, अप्रैल के रूप में चैत्रा शुक्ल प्रतिपदा को ही देखते हैं। यह समय दो ऋतुओं का सन्धिकाल है। इसमें रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। प्रकृति नया रूप ले लेती है। प्रतीत होता है कि प्रकृति नवपल्लव धारण कर नव संरचना के लिए उफर्जस्वित होती है। मानव, पशु-पक्षी, यहां तक कि जड़-चेतन प्रकृति भी प्रमाद और आलस्य को त्याग सचेतन हो जाती है। बसन्तोत्सव का भी यही आधर है। इसी समय बपर्फ पिघलने लगती है। आमों पर बौर आने लगता है। प्रकृति की हरीतिमा नवजीवन का प्रतीक बनकर हमारे जीवन से जुड़ जाती है। काल गणना के प्रारंभ एवं ऐतिहासिक यादों का दिनइसी प्रतिपदा के दिन आज से 2067 वर्ष पूर्व उज्जयिनी नरेश महाराज विक्रमादित्य ने विदेशी आक्रान्त शकों से भारत-भू का रक्षण किया और इसी दिन से काल गणना प्रारंभ की। उपकृत राष्ट्र ने भी उन्हीं महाराज के नाम से विक्रमी संवत कह कर पुकारा। महाराज विक्रमादित्य ने आज से 2067 वर्ष पूर्व राष्ट्र को सुसंगठित कर शकों की शक्ति का उन्मूलन कर देश से भगा दिया और उनके ही मूल स्थान अरब में विजयश्री प्राप्त की। साथ ही यवन, हूण, तुषार, पारसिक तथा कंबोज देशों पर अपनी विजय ध्वजा पफहराई। उसी के स्मृति स्वरूप यह प्रतिपदा संवत्सर के रूप में मनाई जाती थी और यह क्रम पृथ्वीराज चौहान के समय तक चला। महाराजा विक्रमादित्य ने भारत की ही नहीं, अपितु समस्त विश्व की सृष्टि की। सबसे प्राचीन कालगणना के आधर पर ही प्रतिपदा के दिन को विक्रमी संवत के रूप में अभिषिक्त किया। इसी दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र के राज्याभिषेक अथवा रोहण के रूप में मनाया गया। यह दिन ही वास्तव में असत्य पर सत्य की विजय दिलाने वाला है। इसी दिन महाराज युधिष्ठिर का भी राज्याभिषेक हुआ और महाराजा विक्रमादित्य ने भी शकों पर विजय के उत्सव के रूप में मनाया। आज यह दिन हमारे सामाजिक और धर्मिक कार्यों के अनुष्ठान की ध्ुरी के रूप में तिथि बनाकर मान्यता प्राप्त कर चुका है। यह राष्ट्रीय स्वाभिमान और सांस्कृतिक ध्रोहर को बचाने वाला पुण्य दिवस है। हम प्रतिपदा से प्रारंभ कर नौ दिन में छह मास के लिए शक्ति संचय करते हैं, फिर अश्विन मास की नवरात्रि में शेष छह मास के लिए शक्ति संचय करते हैं।हिन्दू कैलेण्डर निर्धारण का दिनक्या हमने कभी सोचा है कि बैसाखी हर साल 13 अप्रैल को ही क्यों मनायी जाती है। जबकि बाकी सब पर्व होली, दीपावली बदलते रहते हैं। दरअसल, हिन्दू कैलेण्डर लूनर और सोलर आधरित होता है। लूनर कैलेण्डर कुछ इस प्रकार से चलता है चन्द्रमा के पृथ्वी के चारों ओर एक चक्कर लगाने को एक माह माना जाता है, जबकि यह 29 दिन का होता है। हर मास को दो भागों में बांटा जाता है- कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष। कृष्णपक्ष, जिस में चान्द घटता है और शुक्लपक्ष जिस में चान्द बढ़ता है। दोनों पक्ष प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी आदि ऐसे ही चलते हैं लगभग पन्द्रह दिन तक। कृष्णपक्ष के अन्तिम दिन चन्द्रमा बिल्कुल नहीं दिखता यानी अमावस्या, जबकि शुक्लपक्ष के अन्तिम दिन पूरा चान्द होता यानी पूणिमा। आध चान्द अष्टमी को होता है। प्राय: पर्व अष्टमी, पूर्णिमा और अमावस्या को होते हैं, उदाहरणत: जन्माष्टमी, होली, दीपावली आदि। साल के बारह महीनों मे कोई दस दिन कम पड़ जाते हैं जो हर तीसरे साल एक पूरा महीना जोड़कर पूरा कर लिए जाते हैं। इस तरह से पर्व दस-बीस दिन आगे पीछे होते रहते हैं। इसके अतिरिक्त सोलर कैलेण्डर भी प्रयुक्त होता है, जिसमें हर मास के दिनों की संख्या निर्धारित होती है। हर मास के पहले दिन को `संक्रान्ति´ कहा जाता है। वैसाख का पहला दिन बैसाखी या नव वर्ष होता है। लूनर कैलेण्डर के चैत्रा शुक्लपक्ष शुदीद्ध का पहला दिन प्रतिपदाद्ध उगादी, वर्ष-प्रतिपदा, नवरेह आदि रूप में मनाया जाता है।

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शुक्रवार, फ़रवरी 17, 2012

भारत में ७ लाख ३२ हज़ार गुरुकुल एवं विज्ञान की २० से अधिक शाखाएं थीं!!!

अनिल गुप्ता
भारत में ७ लाख ३२ हज़ार गुरुकुल एवं विज्ञान की २० से अधिक शाखाएं थीं!!!

अब बात आती है की भारत में विज्ञान पर इतना शोध किस प्रकार होता था, तो इसके मूल में है भारतीयों की जिज्ञासा एवं तार्किक क्षमता, जो अतिप्राचीन उत्कृष्ट शिक्षा तंत्र एवं अध्यात्मिक मूल्यों की देन है। "गुरुकुल" के बारे में बहुत से लोगों को यह भ्रम है की वहाँ केवल संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी जो की गलत है। भारत में विज्ञान की २० से अधिक शाखाएं रही है जो की बहुत पुष्पित पल्लवित रही है जिसमें प्रमुख १. खगोल शास्त्र २. नक्षत्र शास्त्र ३. बर्फ़ बनाने का विज्ञान ४. धातु शास्त्र ५. रसायन शास्त्र ६. स्थापत्य शास्त्र ७. वनस्पति विज्ञान ८. नौका शास्त्र ९. यंत्र विज्ञान आदि इसके अतिरिक्त शौर्य (युद्ध) शिक्षा आदि कलाएँ भी प्रचुरता में रही है। संस्कृत भाषा मुख्यतः माध्यम के रूप में, उपनिषद एवं वेद छात्रों में उच्चचरित्र एवं संस्कार निर्माण हेतु पढ़ाए जाते थे।

थोमस मुनरो सन १८१३ के आसपास मद्रास प्रांत के राज्यपाल थे, उन्होंने अपने कार्य विवरण में लिखा है मद्रास प्रांत (अर्थात आज का पूर्ण आंद्रप्रदेश, पूर्ण तमिलनाडु, पूर्ण केरल एवं कर्णाटक का कुछ भाग ) में ४०० लोगो पर न्यूनतम एक गुरुकुल है। उत्तर भारत (अर्थात आज का पूर्ण पाकिस्तान, पूर्ण पंजाब, पूर्ण हरियाणा, पूर्ण जम्मू कश्मीर, पूर्ण हिमाचल प्रदेश, पूर्ण उत्तर प्रदेश, पूर्ण उत्तराखंड) के सर्वेक्षण के आधार पर जी.डब्लू.लिटनेर ने सन १८२२ में लिखा है, उत्तर भारत में २०० लोगो पर न्यूनतम एक गुरुकुल है। माना जाता है की मैक्स मूलर ने भारत की शिक्षा व्यवस्था पर सबसे अधिक शोध किया है, वे लिखते है "भारत के बंगाल प्रांत (अर्थात आज का पूर्ण बिहार, आधा उड़ीसा, पूर्ण पश्चिम बंगाल, आसाम एवं उसके ऊपर के सात प्रदेश) में ८० सहस्त्र (हज़ार) से अधिक गुरुकुल है जो की कई सहस्त्र वर्षों से निर्बाधित रूप से चल रहे है"।

उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत के आकडों के कुल पर औसत निकलने से यह ज्ञात होता है की भारत में १८ वी शताब्दी तक ३०० व्यक्तियों पर न्यूनतम एक गुरुकुल था। एक और चौकानें वाला तथ्य यह है की १८ शताब्दी में भारत की जनसंख्या लगभग २० करोड़ थी, ३०० व्यक्तियों पर न्यूनतम एक गुरुकुल के अनुसार भारत में ७ लाख ३२ सहस्त्र गुरुकुल होने चाहिए। अब रोचक बात यह भी है की अंग्रेज प्रत्येक दस वर्ष में भारत में भारत का सर्वेक्षण करवाते थे उसे के अनुसार १८२२ के लगभग भारत में कुल गांवों की संख्या भी लगभग ७ लाख ३२ सहस्त्र थी, अर्थात प्रत्येक गाँव में एक गुरुकुल। १६ से १७ वर्ष भारत में प्रवास करने वाले शिक्षाशास्त्री लुडलो ने भी १८ वी शताब्दी में यहीं लिखा की "भारत में एक भी गाँव ऐसा नहीं जिसमें गुरुकुल नहीं एवं एक भी बालक ऐसा नहीं जो गुरुकुल जाता नहीं"।

राजा की सहायता के अपितु, समाज से पोषित इन्ही गुरुकुलों के कारण १८ शताब्दी तक भारत में साक्षरता ९७% थी, बालक के ५ वर्ष, ५ माह, ५ दिवस के होते ही उसका गुरुकुल में प्रवेश हो जाता था। प्रतिदिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक विद्यार्जन का क्रम १४ वर्ष तक चलता था। जब बालक सभी वर्गों के बालको के साथ निशुल्कः २० से अधिक विषयों का अध्यन कर गुरुकुल से निकलता था। तब आत्मनिर्भर, देश एवं समाज सेवा हेतु सक्षम हो जाता था।

इसके उपरांत विशेषज्ञता (पांडित्य) प्राप्त करने हेतु भारत में विभिन्न विषयों वाले जैसे शल्य चिकित्सा, आयुर्वेद, धातु कर्म आदि के विश्वविद्यालय थे, नालंदा एवं तक्षशिला तो २००० वर्ष पूर्व के है परंतु मात्र १५०-१७० वर्ष पूर्व भी भारत में ५००-५२५ के लगभग विश्वविद्यालय थे।

थोमस बेबिगटन मैकोले (टी.बी.मैकोले) जिन्हें पहले हमने विराम दिया था जब सन १८३४ आये तो कई वर्षों भारत में यात्राएँ एवं सर्वेक्षण करने के उपरांत समझ गए की अंग्रेजो पहले के आक्रांताओ अर्थात यवनों, मुगलों आदि भारत के राजाओं, संपदाओं एवं धर्म का नाश करने की जो भूल की है, उससे पुण्यभूमि भारत कदापि पददलित नहीं किया जा सकेगा, अपितु संस्कृति, शिक्षा एवं सभ्यता का नाश करे तो इन्हें पराधीन करने का हेतु सिद्ध हो सकता है।

इसी कारण "इंडियन एज्यूकेशन एक्ट" बना कर समस्त गुरुकुल बंद करवाए गए। हमारे शासन एवं शिक्षा तंत्र को इसी लक्ष्य से निर्मित किया गया ताकि नकारात्मक विचार, हीनता की भावना, जो विदेशी है वह अच्छा, बिना तर्क किये रटने के बीज आदि बचपन से ही बाल मन में घर कर ले और अंग्रेजो को प्रतिव्यक्ति संस्कृति, शिक्षा एवं सभ्यता का नाश का परिश्रम न करना पड़े।

उस पर से अंग्रेजी कदाचित शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं होती तो इस कुचक्र के पहले अंकुर माता पिता ही पल्लवित होने से रोक लेते परंतु ऐसा हो न सका। हमारे निर्यात कारखाने एवं उत्पाद की कमर तोड़ने हेतु भारत में स्वदेशी वस्तुओं पर अधिकतम कर देना पड़ता था एवं अंग्रेजी वस्तुओं को कर मुक्त कर दिया गया था। कृषकों पर तो ९०% कर लगा कर फसल भी लूट लेते थे एवं "लैंड एक्विजिशन एक्ट" के माध्यम से सहस्त्रो एकड़ भूमि भी उनसे छीन ली जाती थी, अंग्रेजो ने कृषकों के कार्यों में सहायक गौ माता एवं भैसों आदि को काटने हेतु पहली बार कलकत्ता में कसाईघर चालू कर दिया, लाज की बात है वह अभी भी चल रहा है। सत्ता हस्तांतरण के दिवस (१५-८-१९४७ ) के उपरांत तो इस कुचक्र की गोरे अंग्रेजो पर निर्भरता भी समाप्त हो गई, अब तो इसे निर्बाधित रूप से चलने देने के लिए बिना रीढ़ के काले अंग्रेज भी पर्याप्त थे, जिनमें साहस ही नहीं है भारत को उसके पूर्व स्थान पर पहुँचाने का |

आप सोच रहे होंगे उस समय अमेरिका यूरोप की क्या स्थिति थी, तो सामान्य बच्चों के लिए सार्वजानिक विद्यालयों की शुरुआत सबसे पहले इंग्लैण्ड में सन १८६८ में हुई थी, उसके बाद बाकी यूरोप अमेरिका में अर्थात जब भारत में प्रत्येक गाँव में एक गुरुकुल था, ९७ % साक्षरता थी तब इंग्लैंड के बच्चों को पढ़ने का अवसर मिला। तो क्या पहले वहाँ विद्यालय नहीं होते थे? होते थे परंतु महलों के भीतर, वहाँ ऐसी मान्यता थी की शिक्षा केवल राजकीय व्यक्तियों को ही देनी चाहिए बाकी सब को तो सेवा करनी है।
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"दुर्भाग्य है की भारत में हम अपने श्रेष्ठतम सृजनात्मक पुरुषों को भूल चुके है। इसका कारण विदेशियत का प्रभाव और अपने बारे में हीनता बोध की मानसिक ग्रंथि से देश के बुद्धिमान लोग ग्रस्त है" – डॉ.कलाम, "भारत २०२० : सहस्त्राब्दी"

(ER ANKIT MIMANI MAHESHWARI )

मंगलवार, फ़रवरी 14, 2012

आखिर इस "पवित्र" परिवार को किस देवता का आशीर्वाद हासिल है ? जो भी इनके सामने आता है बेमौत मारा जाता है ..

Jitendra Pratap Singh


क्या अन्ना के गाँव का सरपंच कांग्रेस के साथ मिलकर अन्ना को बीमार रखने की साजिश में शामिल है ?

एक खुलासा हुआ है कि अन्ना को संचेती अस्पताल में उनके गाँव का सरपंच लेकर गया था . जबकि अन्ना और उनके निजी सचिव सुरेश पठारे दूसरे अस्पताल जाना चाहते थे ..

जो रालेगाव का सरपंच कुछ दिनों पहले तक कांग्रेस और शरद पवार और उनकी पार्टी को जमकर गालियाँ देता था . और जब राहुल गाँधी ने उसे दिल्ली बुलाकर भी नहीं मिले... तो वो राहुल गाँधी को भी मीडिया में जमकर कोस रहा था .. उसे अचानक् शरद पवार की राकपा ने जिला पंचायत अध्यक्ष का टिकट दे दिया और कांग्रेस ने भी उसके खिलाफ कोई उमीदवार खड़ा नही किया ..जबकि इस चुनाव के लिए कांग्रेस और राकपा में कोई समझौता भी नही था ..

कई पत्रकार कहते है की अन्ना के गाँव के सरपंच की राजनितिक महत्वाकांक्षाएं बहुत बड़ी है ..इसलिए कांग्रेस ने उसे आसानी से साजिश में शामिल कर लिया होगा .

इसके पहले भी जिसने भी इस "पवित्र" नकली गाँधी खानदान के रास्ते में आया इस खानदान ने उसका बुरा अंत कर दिया ..जैसे

1- इंदिरा गाँधी के रास्ते में आने वाले लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में रहस्यमय हालत में मौत हो गयी .?

2- नेहरु के लिए खतरा बन रहे श्यामा प्रशाद मुखर्जी और दीन दयाल उपाध्याय की हत्या कर दी गयी और पुलिस ने आज तक इस साजिश से पर्दा नहीं उठाया ?

3- राजीव गाँधी के लिए चुनौती बन रहे बीर बहादुर सिंह की पेरिस में मौत हो गयी . जबकि उनको ह्रदय की कोई समस्या नही थी ?

4- सोनिया गाँधी के खिलाफ कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ने की दो लोगो ने हिम्मत की .. राजेश पाइलट और जितेन्द्र प्रशाद .. राजेश पाइलट की कार को एक रहस्यमय ट्रक ने टक्कर मारकर गायब हो गया .और जितेन्द्र प्रशाद बरेली के सर्किट हॉउस में मर गए ??

इसके पहले सोनिया को चुनौती देने वाले सीताराम केसरी को पार्टी से भगा दिया गया ?

5- राहुल गाँधी के लिए खतरा साबित हो रहे माधवराव सिंधिया एक प्लेन एक्सीडेंट में मारे गए .. जबकि उनका प्लेन ब्रांड न्यू था और उसमे कोई समस्या नहीं थी और उसमे किसी भी मौसम में उड़ने वाला सिस्टम लगा था ..

६- जयप्रकाश नारायण को जेल मे लेड युक्त पानी पिलाकर उनके गुर्दे फेल करके उन्हें मार डाला गया ? जबकि वो इंदिरा गाँधी के सामने एक बड़ी ताकत बनकर उभर रहे थे .

७- बिहार के लोकप्रिय नेता और पूरे उत्तर भारत मे प्रभाव वाले तात्कालिन रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र को एक ऐसे बम से उड़ा दिया गया जो सिर्फ सेना इस्तेमाल करती है ...

मित्रों , आखिर इस "पवित्र" परिवार को किस देवता का आशीर्वाद मिला हुआ है जिससे की जो भी इनके अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाता है या रास्ते में आता है उसकी रहस्यमय हालात में मौत हो जाती है ??????????


रविवार, फ़रवरी 05, 2012

“सेकुलर लूट” से बचने हेतु सुप्रीम कोर्ट को चन्द सुझाव – Jagran Junction Forum

यदि आप सोचते हैं कि मन्दिरों में दान किया हुआ, भगवान को अर्पित किया हुआ पैसा, सनातन धर्म की बेहतरी के लिए, हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए काम आ रहा है तो आप निश्चित ही बड़े भोले हैं। मन्दिरों की सम्पत्ति एवं चढ़ावे का क्या और कैसा उपयोग किया जाता है पहले इसका एक उदाहरण देख लीजिये, फ़िर आगे बढ़ेंगे-

कर्नाटक सरकार के मन्दिर एवं पर्यटन विभाग (राजस्व) द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार 1997 से 2002 तक पाँच साल में कर्नाटक सरकार को राज्य में स्थित मन्दिरों से “सिर्फ़ चढ़ावे में” 391 करोड़ की रकम प्राप्त हुई, जिसे निम्न मदों में खर्च किया गया-

1) मन्दिर खर्च एवं रखरखाव – 84 करोड़ (यानी 21.4%)
2) मदरसा उत्थान एवं हज – 180 करोड़ (यानी 46%)
3) चर्च भूमि को अनुदान – 44 करोड़ (यानी 11.2%)
4) अन्य – 83 करोड़ (यानी 21.2%)
कुल 391 करोड़

जैसा कि इस हिसाब-किताब में दर्शाया गया है उसको देखते हुए “सेकुलरों” की नीयत बिलकुल साफ़ हो जाती है कि मन्दिर की आय से प्राप्त धन का (46+11) 57% हिस्सा हज एवं चर्च को अनुदान दिया जाता है (ताकि वे हमारे ही पैसों से जेहाद, धार्मिक सफ़ाए एवं धर्मान्तरण कर सकें)। जबकि मन्दिर खर्च के नाम पर जो 21% खर्च हो रहा है, वह ट्रस्ट में कुंडली जमाए बैठे नेताओं व अधिकारियों की लग्जरी कारों, मन्दिर दफ़्तरों में AC लगवाने तथा उनके रिश्तेदारों की खातिरदारी के भेंट चढ़ाया जाता है। उल्लेखनीय है कि यह आँकड़े सिर्फ़ एक राज्य (कर्नाटक) के हैं, जहाँ 1997 से 2002 तक कांग्रेस सरकार ही थी…

अब सोचिए कि 60-65 साल के शासन के दौरान कितने राज्यों में कांग्रेस-वामपंथ की सरकारें रहीं, वहाँ कितने प्रसिद्ध मन्दिर हैं, कितने देवस्थान बोर्ड एवं ट्रस्ट हैं तथा उन बोर्डों एवं ट्रस्टों में कितने कांग्रेसियों, गैर-हिन्दुओं, “सो कॉल्ड” नास्तिकों की घुसपैठ हुई होगी और उन्होंने हिन्दुओं के धन व मन्दिर की कितनी लूट मचाई होगी। लेकिन चूंकि हिन्दू आबादी का एक हिस्सा इन बातों से अनभिज्ञ है…, एक हिस्सा मूर्ख है…, एक हिस्सा “हमें क्या लेना-देना यार, हम तो श्रद्धा से मन्दिर में चढ़ावा देते हैं और फ़िर पलटकर नहीं देखते, कि उन पैसों का क्या हो रहा है…” किस्म के आलसी हैं, जबकि “हिन्दू सेकुलरों” का एक बड़ा हिस्सा तो है ही, जिसे आप विभीषण, जयचन्द, मीर जाफ़र चाहे जिस नाम से पुकार लीजिए। यानी गोरी-गजनवी-क्लाइव तो चले गए, लेकिन अपनी “मानस संतानें” यहीं छोड़े गए, कि बेटा लूटो… हिन्दू मन्दिर होते ही हैं लूटने के लिए…। पद्मनाभ मन्दिर(Padmanabh Swamy Temple) की सम्पत्ति की गणना, देखरेख एवं कब्जा चूंकि सुप्रीम कोर्ट के अधीन एवं उसके निर्देशों के मुताबिक चल रहा है इसलिए अभी सब लोग साँस रोके देख रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने इस खजाने की रक्षा एवं इसके उपयोग के बारे में सुझाव माँगे हैं। सेकुलरों एवं वामपंथियों के बेहूदा सुझाव एवं उसे “काला धन” बताकर सरकारी जमाखाने में देने सम्बन्धी सुझाव तो आ ही चुके हैं, अब कुछ सुझाव इस प्रकार भी हैं –

1) सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एक “हिन्दू मन्दिर धार्मिक सम्पत्ति काउंसिल” का गठन किया जाए। इस काउंसिल में सुप्रीम कोर्ट के एक वर्तमान, दो निवृत्त न्यायाधीश, एवं सभी प्रमुख हिन्दू धर्मगुरु शामिल हों। इस काउंसिल में पद ग्रहण करने की शर्त यह होगी कि सम्बन्धित व्यक्ति न पहले कभी चुनाव लड़ा हो और न काउंसिल में शामिल होने के बाद लड़ेगा (यानी राजनीति से बाहर)। इस काउंसिल में अध्यक्ष एवं कोषाध्यक्ष का पद त्रावणकोर के राजपरिवार के पास रहे, क्योंकि 250 वर्ष में उन्होंने साबित किया है कि खजाने को खा-पीकर “साफ़” करने की, उनकी बुरी नीयत नहीं है।

2) इस काउंसिल के पास सभी प्रमुख हिन्दू मन्दिरों, उनके शिल्प, उनके इतिहास, उनकी संस्कृति के रखरखाव, प्रचार एवं प्रबन्धन का अधिकार हो।

3) इस काउंसिल के पास जो अतुलनीय और अविश्वसनीय धन एकत्रित होगा वह वैसा ही रहेगा, परन्तु उसके ब्याज से सभी प्रमुख मन्दिरों की साज-सज्जा, साफ़-सफ़ाई एवं प्रबन्धन किया जाएगा।

4) इस विशाल रकम से प्रतिवर्ष 2 लाख हिन्दुओं को (रजिस्ट्रेशन करवाने पर) अमरनाथ, वैष्णो देवी, गंगासागर, सबरीमाला, मानसरोवर (किसी एक स्थान) अथवा किसी अन्य स्थल की धार्मिक यात्रा मुफ़्त करवाई जाएगी। एक परिवार को पाँच साल में एक बार ही इस प्रकार की सुविधा मिलेगी। देश के सभी प्रमुख धार्मिक स्थलों पर काउंसिल की तरफ़ से सर्वसुविधायुक्त धर्मशालाएं बनवाई जाएं, जहाँ गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपनी धार्मिक यात्रा में तीन दिन तक मुफ़्त रह-खा सके।

5) इसी प्रकार पुरातात्विक महत्व के किलों, प्राचीन स्मारकों के आसपास भी “सिर्फ़ हिन्दुओं के लिए” इसी प्रकार की धर्मशालाएं बनवाई जाएं जिनका प्रबन्धन काउंसिल करेगी।

6) नालन्दा एवं तक्षशिला जैसे 50 विश्वविद्यालय खोले जाएं, जिसमें भारतीय संस्कृति, भारतीय वेदों, भारत की महान हिन्दू सभ्यता इत्यादि के बारे में विस्तार से शोध, पठन, लेखन इत्यादि किया जाए। यहाँ पढ़ने वाले सभी छात्रों की शिक्षा एवं आवास मुफ़्त हो।

ज़ाहिर है कि ऐसे कई सुझाव माननीय सुप्रीम कोर्ट को दिये जा सकते हैं, जिससे हिन्दुओं द्वारा संचित धन का उपयोग हिन्दुओं के लिए ही हो, सनातन धर्म की उन्नति के लिए ही हो, न कि कोई सेकुलर या नास्तिक इसमें “मुँह मारने” चला आए। हाल के कुछ वर्षों में अचानक हिन्दू प्रतीकों, साधुओं, मन्दिरों, संस्कृति इत्यादि पर “सरकारी” तथा “चमचात्मक” हमले होने लगे हैं। ताजा खबर यह है कि उड़ीसा की “सेकुलर” सरकार, पुरी जगन्नाथ मन्दिर के अधीन विभिन्न स्थानों पर जमा कुल 70,000 एकड़ जमीन “फ़ालतू” होने की वजह से उसका अधिग्रहण करने पर विचार कर रही है। स्वाभाविक है कि इस जमीन का “सदुपयोग”(?) फ़र्जी नेताओं के पुतले लगाने, बिल्डरों से कमाई करने, दो कमरों में चलने वाले “डीम्ड” विश्वविद्यालयों को बाँटने अथवा नास्तिकों, गैर-हिन्दुओं एवं सेकुलरों की समाधियों में किया जाएगा…। भारत में “ज़मीन” का सबसे बड़ा कब्जाधारी “चर्च” है, जिसके पास सभी प्रमुख शहरों की प्रमुख जगहों पर लाखों वर्गमीटर जमीन है, परन्तु सरकार की नज़र उधर कभी भी नहीं पड़ेगी, क्योंकि कांग्रेस के अनुसार “सफ़ेद” और “हरा” रंग पवित्रता और मासूमियत का प्रतीक है, जबकि “भगवा” रंग आतंकवाद का…।

जब से केरल के स्वामी पद्मनाभ मन्दिर के खजाने के दर्शन हुए हैं, तमाम सेकुलरों एवं वामपंथियों की नींद उड़ी हुई है, दिमाग पर बेचैनी तारी है, दिल में हूक सी उठ रही है और छाती पर साँप लोट रहे हैं। पिछले 60 साल से लगातार हिन्दुओं के विरुद्ध “विष-वमन” करने एवं लगातार हिन्दू धर्म व भारतीय संस्कृति को गरियाने-धकियाने-दबाने के बावजूद सनातन धर्म की पताका विश्व के कई देशों में फ़हरा रही है, बढ़ रही है। ऐसी स्थिति में मन्दिर से निकले इस खजाने ने मानो सेकुलर-वामपंथी सोच के जले पर नमक छिड़क दिया है।

हिन्दू तो पहले से ही जानते हैं कि मन्दिरों में श्रद्धापूर्वक भगवान को अर्पित किया हुआ टनों से सोना-जवाहरात मौजूद है, इसलिए हिन्दुओं को पद्मनाभ स्वामी मन्दिर की यह सम्पत्ति देखकर खास आश्चर्य नहीं हुआ, परन्तु “कु-धर्मियों” के पेट में दर्द शुरु हो गया। हिन्दुओं द्वारा अर्पित, हिन्दू राजाओं एवं पुजारियों-मठों द्वारा संचित और संरक्षित इस सम्पत्ति को सेकुलर तरीके से “ठिकाने लगाने” के सुझाव भी आने लगे हैं, साथ ही इस सम्पत्ति को “काला धन” (Black Money in India) बताने के कुत्सित प्रयास भी जारी हैं। एक हास्यास्पद एवं मूर्खतापूर्ण बयान में केरल के एक वामपंथी नेता ने, इस धन को मुस्लिम और ईसाई राजाओं से लूटा गया धन भी बता डाला…

अतः इस लेख के माध्यम से मैं सुप्रीम कोर्ट से अपील करता हूँ कि वह “स्वयं संज्ञान” लेते हुए ताजमहल के नीचे स्थित 22 सीलबन्द कमरों को खोलने का आदेश दे, जिसकी निगरानी सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो ताकि पता चले कि कहीं शाहजहाँ और मुमताज सोने की खदान पर तो आराम नहीं फ़रमा रहे? इन सीलबन्द कमरों को खोलने से यह भी साफ़ हो जाएगा कि क्या वाकई ताजमहल एक हिन्दू मन्दिर था? इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर करके यह माँग भी की जाना चाहिए कि ज्ञानवापी मस्जिद के नीचे, अजमेर दरगाह के नीचे एवं गोआ के विशाल चर्चों तथा केरल के आर्चबिशपों के भव्य मकानों की भी गहन जाँच और खुदाई की जाए ताकि जो सेकुलर-वामपंथी हिन्दू मन्दिरों के खजाने पर जीभ लपलपा रहे हैं, वे भी जानें कि “उधर” कितना “माल” भरा है। हिन्दुओं एवं उनके भगवान के धन पर बुरी नज़र रखने वालों को संवैधानिक एवं कानूनी रूप से सबक सिखाया जाना अति-आवश्यक है… वरना आज पद्मनाभ मन्दिर का नम्बर आया है, कल भारत के सभी मन्दिर इस “सेकुलर-वामपंथी” गोलाबारी की रेंज में आ जाएंगे…

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चलते-चलते :-

पद्मनाभ मन्दिर की सम्पत्ति को लेकर कई तरह के “विद्वत्तापूर्ण सुझाव” आ रहे हैं कि इस धन से भारत के गरीबों की भलाई होना चाहिए, इस धन से जनकल्याण के कार्यक्रम चलाए जाएं, बेरोजगारी दूर करें, सड़कें-अस्पताल बनवाएं… इत्यादि। यानी यह कुछ इस तरह से हुआ कि परिवार के परदादा द्वारा गाड़ी गई तिजोरी खोलने पर अचानक पैसा मिला, तो उसमें से कुछ “दारुकुट्टे बेटे” को दे दो, थोड़ा सा “जुआरी पोते” को दे दो, एक हिस्सा “लुटेरे पड़पोते” को दे दो… बाकी का बैंक में जमा कर दो, जब मौका लगेगा तब तीनों मिल-बाँटकर “जनकल्याण”(?) हेतु खर्च करेंगे … :) :) । जबकि “कुछ सेकुलर विद्वान” तो पद्मनाभ मन्दिर की सम्पत्ति को सीधे “काला धन” बताने में ही जुट गए हैं ताकि उनके 60 वर्षीय शासनकाल के “पाप” कम करके दिखाए जा सकें…। ये वही लोग हैं जिन्हें “ए. राजा” और “त्रावणकोर के राजा” के बीच अन्तर करने की तमीज नहीं है… http://sureshchiplunkar.jagranjunction.com/2011/07/13/%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B0-%E0%A4%B2%E0%A5%82%E0%A4%9F-%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A5%81-%E0%A4%B8%E0%A5%81/

सोनिया गाँधी किस हैसियत से भारतीय वायुसेना के विमानों और हेलीकॉप्टरों का इस्तेमाल करती है ?


सोनिया गाँधी किस हैसियत से भारतीय वायुसेना के विमानों और हेलीकॉप्टरों का इस्तेमाल करती है ?

क्या एक सांसद जब चाहे तब मनमाने ढंग से वायुसेना के विमानों और हेलीकॉप्टरों का अपने निजी काम या अपने पार्टी के प्रचार के लिए कर सकता है ?

मित्रों आज ही मैंने वायुसेना को एक पत्र लिखकर पूछा है कि आखिर सोनिया गाँधी अपने हर दौरे पर चाहे वो निजी हों या उनकी पार्टी का चुनाव प्रचार हों वो किस हैसियत से हमारे सेना के महगे विमान और हेलीकाप्टरों का इस्तेमाल करती है ? चुनी सेना के किसी भी अंग से हम आरटीआई से कोई भी जानकारी नहीं मांग सकते इसलिए मैंने एक पत्र लिखा ..


मित्रों , भारत मे सोनिया गाँधी किसी भी संवैधानिक पद पर नहीं है . उनकी हैसियत सिर्फ एक सांसद की है . और प्रोटोकाल के अनुसार सिर्फ पांच गैर सेना के लोग ही वायुसेना के विमानों और हेलीकॉप्टरों का इस्तेमाल कर सकते है ..

१- भारत के राष्ट्रपति जो भारत के सेनाओं के पदेन चीफ होते है
२- भारत का प्रधानमंत्री
३- गृहमंत्री
४- उपराष्ट्रपति
५- रक्षा मंत्री

किसी विशेष और आपात परिस्थिति मे राज्यों के मुख्यमंत्री भी इस्तेमाल कर सकते है

मित्रों , सेना के हेलीकाप्टर चूँकि लड़ाई के लिए बने होते है इसलिए इनको बहुत ही दुर्गम परिस्थितियों के लिए बनाया जाता है . इनमे चार इंजन होते है . इसलिए इनको उड़ाना बहुत ही खर्चीला होता है ..
मै ही नही पूरा देश टीवी पर हर रोज देखता है कि सोनिया गाँधी जहाँ भी जाती है सेना का सबसे बड़ा और सबसे खर्चीला अपाचे हेरिसन हेलीकाप्टर या फिर सेना का बोम्बार्डियर लीनियर जेट ६५७ लेकर ही जाती है .. अपाचे हेलीकाप्टर एक घंटे मे दो हज़ार लीटर जेट फुएल लेता है . यानी पाइलट और दूसरे स्टाफ का खर्च छोडकर ही सिर्फ तेल मे ही करीब पांच लाख रूपये हर घंटे ..
और बोम्बार्डियर लीनियर सेना अपने लिए चार इंजन वाला बनवाती है जबकि निजी इस्तेमाल के लिए दो इंजन वाला बनाये जाते है .. इसको उड़ाना एक लड़ाकू जेट से पांच गुणा महगा होता है . क्योकि इसे वायुसेना के कई अधिकारियों को एक साथ किसी जगह आने जाने के लिए डिज़ाइन किया गया है . इसमें कुल पचीस लोग बैठ सकते है .

आखिर एक मामूली सांसद पिछले आठ सालो से किस हैसियत से इस देश के सेना के विमानों का इस्तेमाल अपने बाप का माल समझकर कर रहा है ? कितनी अजीब बात है कि बिना किसी पात्रता के सोनिया गाँधी सेना के विमान से किसी चुनावी सभा मे जाती है और वहाँ भ्रस्टाचार से लड़ने की दोगली बात करती है . जबकि सबसे बड़ा भ्रष्टाचार करके ही वो सेना का इस्तेमाल कर रही है .

मुझे त्ताज्जुब तो इस बात है कि आखिर आजतक किसी भी मीडिया ने सरकार या कांग्रेस के इस बारे मे क्यों नहीं पूछा ?
एक तरफ कांग्रेस और राहुल गाँधी आदर्शवाद की बड़ी बड़ी बाते करते है लेकिन अपनी निजी जिंदगी मे खुद ये सबसे बड़े भ्रष्ट और मुफ्तखोर है

स्वाभिमानी राष्ट्र गुलामी के कलंकों को बर्दाश्त नहीं करते : आर्नोल्ड टॉयन्बी

आर्नोल्ड टॉयन्बी आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ इतिहासज्ञ माने गये। वर्ष 1960 में वे भारत आये तथा उन्होंने तीन भाषण दिये। इन भाषणों में उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि काशी और मथुरा के जन्मस्थलों पर अभी भी मस्जिद बनी हैं तथा उन्हें हटाने का कोई प्रयास भी नहीं हुआ है। हम उनके भाषणों पर आधारित यह लेख यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।

काशी की ज्ञानवापी मस्जिद, कृष्ण जन्मभूमि पर बनी ईदगाह तथा देश के मंदिरों को तोड़कर बनाई गई हजारों मस्जिदें राष्ट्रीय अपमान और गुलामी की प्रतीक हैं। औरंगजेब को काशी और मथुरा में मस्जिद बनाने के लिए और भी काफी स्थान थे। बाबर को भी मस्जिद बनाने के लिए पूरी अयोध्या थी लेकिन उसने श्रीराम-जन्मभूमि मंदिर को ध्वस्त कर उसी स्थान पर मस्जिद का ढांचा खड़ा करने की कोशिश की। इसी तरह औरंगजेब ने भी ज्ञानवापी मंदिर तथा श्रीकृष्णजन्मभूमि मंदिर के स्थान पर ही मस्जिदें बनवाई। स्पष्ट है कि ये मस्जिदें विदेशी हमलावरों की विजय और भारत की हार और अपमान के स्मारक हैं। कोई भी स्वाभिमानी और स्वतंत्र राष्ट्र गुलामी की निशानियों को सहेजकर नहीं रखता, बल्कि उन्हें नष्ट कर देता है।

रूसियों ने चर्च को ध्वस्त किया

भारत के शासकों की स्वाभिमान-शून्यता और निर्लज्जता ऐसी है कि वे इन शर्मनाक-स्मारकों की सुरक्षा में जुटे हुए हैं। वर्तमान सत्ताधीशों की सत्ता लोलुपता तो देखिए कि काशी और मथुरा के कलंकों की सुरक्षा के लिए उन्होंने कानून तक बना दिये हैं। यही नहीं काशी-विश्वनाथ में जलाभिषेक होता है तो सारे सेकुलर-सियार हू-हू करना शुरु कर देते हैं। मथुरा में यज्ञ करने की बात आती है तो आसमान सर पर उठा लिया जाता है। पूरी केन्द्र सरकार हरकत में आ जाती है, केन्द्रीय मंत्री मथुरा में पहुंच जाते हैं, जबकि इन मंत्रियों को कश्मीरी विस्थापितों की सुध लेने की याद तक भी नहीं आती है। एक ओर भारत के हुय्मरानों की यह ‘आत्म-गौरवहीनता’ है तो दूसरी ओर ऐसे राष्ट्रों के उदाहरण हैं जिन्होंने गुलामी के निशानों को जड़ सहित मिटा दिया।

आर्नोल्ड टॉयन्बी आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ इतिहासकार माने जाते हैं। सन 1960 में श्री टॉयन्बी ‘अब्दुल कलाम आजाद स्मृति व्याख्यानमाला’ में बोलने के लिए दिल्ली आये। ‘भारत और एक विश्व’ विषय पर उनके तीन भाषण हुए। ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ ने ये तीनों भाषण एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किये हैं। श्री टॉयन्बी ने अपने भाषण में पोलैंड का एक उदाहरण दिया कि किस प्रकार पोलैंड ने स्वतंत्र होते ही रूसियों द्वारा बनवाया गया चर्च ध्वस्त कर दिया। श्री टॉयन्बी के शब्दों में, ”सन् 1914-15 में रूसियों ने पोलैंड की राजधानी वार्सा को जीत लिया तो उन्होंने शहर के मुख्य चौक में एक चर्च बनवाया। रूसियों ने यह पोलैंडवासियों को निरन्तर याद करवाने के लिए बनवाया कि पोलैंड में रूस का शासन है। जब पोलैंड 1918 में आजाद हुआ तो पोलैंडवासियों ने पहला काम उस चर्च को ध्वस्त करने का किया, हालांकि नष्ट करने वाले सभी लोग ईसाई मत को मानने वाले ही थे। मैं जब पोलैंड पहुंचा तो चर्च ध्वस्त करने का काम समाप्त हुआ ही था। मैं एक चर्च को ध्वस्त करने के लिए पोलैंड को दोषी नहीं मानता क्योंकि रूस ने वह चर्च राजनीतिक कारणों से बनवाया था। उनका मन्तव्य पोल लोगों का अपमान करना था।‘’

उसी भाषण में श्री टॉयन्बी ने आगे कहा कि, ‘इसी सिलसिले में मैं काशी और मथुरा की मस्जिदों का जिक्र करना चाहूंगा। औरंगजेब ने अपने दुश्मनों को अपमानित करने के लिए जान-बूझकर इन मंदिरों को मस्जिदों में बदल डाला, उसी दुर्भावना के कारण जिसके कारण कि रूसियों ने वार्सा में चर्च बनाया था। इन मस्जिदों का उद्देश्य यह सिद्ध करना था कि हिन्दुओं के पवित्रतम स्थानों पर भी मुसलमानों की हुकूमत चलती है।”

श्री टॉयन्बी के अनुसार पोलिश लोगों ने समझदारी का काम किया क्योंकि चर्च ध्वस्त करने से रूस और पोलैंड के बीच की शत्रुता की भावना समाप्त हो गई। वह चर्च पोल लोगों को रूस के आक्रमण की याद दिलाता रहता था। आर्नोल्ड टॉयन्बी ने इस बात पर खेद प्रकट किया कि हिन्दुस्थान के लोग हिन्दू और मुस्लिमों में तनाव की जड़ इन मस्जिदों को हटा नहीं रहे हैं। उन्होंने यह कह कर अपनी बात समाप्त की कि, ‘’भारत की इस सहिष्णुता से मैं स्तभ्भित हूं साथ इससे मुझे अपार पीड़ा भी हुई है।‘’

नास्तिक रूसियों ने मूर्तियां स्थापित कीं
यह उन दिनों की घटना है जब रूस में साम्यवाद अपने उफान पर था। सन 1968 में भारत के सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी के नेतृत्व में रूस गया। रूसी दौरे के समय सांसदों को लेनिनग्राद शहर का एक महल दिखाने भी ले जाया गया। वह रूस के ‘जार’ (राजा) का सर्दियों में रहने के लिए बनवाया गया महल था। महल को देखते समय संसद सदस्यों के ध्यान में आया कि पूरा महल तो पुराना लगता था किन्तु कुछ मूर्तियां नई दिखाई देती थीं। पूछताछ करने पर पता लगा कि वे मूर्तियां ग्रीक देवी-देवताओं की हैं। सांसदों में प्रसिद्ध विचारक तथा भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी भी थे। उन्होंने सवाल किया कि, ‘आप तो धर्म और भगवान के खिलाफ हैं, फिर आपकी सरकार ने देवी-देवताओं की मूर्तियों को फिर से बनाकर यहां क्यों रखा है?’ इस पर साथ चल रहे रूसी अधिकारी ने उत्तर दिया, ‘इसमें कोई शक नहीं कि हम घोर नास्तिक हैं किन्तु महायुद्ध के दौरान जब हिटलर की सेनाएं लेनिनग्राद पर पहुंच गई तो वहां हम लोगों ने उनसे जमकर संघार्ष किया। इस कारण जर्मन लोग चिढ़ गये और हमारा अपमान करने के लिए उन्होंने यहां की देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां तोड़ दी। इसके पीछे यही भाव था कि रूस का राष्ट्रीय अपमान किया जाये। हमारी दृष्टि में हमें ही नीचा दिखाया जाये। इस कारण हमने भी प्रणा किया कि महायुद्ध में हमारी विजय होने के पश्चात् राष्ट्रीय सम्मान की पुनर्स्थापना करने के लिए हम इन देवताओं की मूर्तियां फिर से स्थापित करेंगे।

रूसी अधिकारी ने आगे कहा कि, ‘हम तो नास्तिक हैं ही किन्तु मूर्ति भंजन का काम हमारा अपमान करने के लिए किया गया था और इसलिए इस राष्ट्रीय अपमान को धो डालने के लिए हमने इन मूर्तियों का पुनर्निर्माण किया।‘

ये मूर्तियां आज भी जार के ‘विन्टर पैलेस’ में रखी हैं और सैलानियों के मन में कौतुहल जगाती हैं।

दक्षिण कोरिया की कैपिटल बिल्डिंग

दक्षिण कोरिया अनेक वर्षों तक जापान के कब्जे में रहा है। जापानी सत्ताधारियों ने अपनी शासन सुविधा के लिए राजधानी सिओल के बीचों-बीच एक भव्य इमारत बनाई और उसका नाम ‘कैपिटल बिल्डिंग’ रखा। इस समय इस भवन में कोरिया का राष्ट्रीय संग्रहालय है। इस संग्रहालय में अनेक प्राचीन वस्तुओं के साथ जापानियों के अत्याचारों के भी चित्रा हैं।

वर्ष 1995 में दक्षिण कोरिया को आजाद हुए पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं। अत: वहां की सरकार आजादी का स्वर्ण जयंती वर्ष’ धूमधाम से मनाने की तैयारी कर रही है। इस स्वतंत्राता प्राप्ति की स्वर्णा जयंती महोत्सव का एक प्रमुख कार्यक्रम होगा ‘कैपिटल बिल्डिंग’ को ध्वस्त करना। दक्षिण कोरिया की सरकार ने इस विशाल भवन को गिराने का निर्णय ले लिया है। इसमें स्थित संग्रहालय को नये बन रहे दूसरे भवन में ले जाया जायेगा। इस पूरी कार्रवाई में 1200 करोड़ रुपये खर्च होंगे।

यह समाचार 2 मार्च 1995 को बी.बी.सी. पर प्रसारित हुआ था। कार्यक्रम में ‘कैपिटल बिल्डिंग’ को भी दिखाया गया। इस भवन में स्थित ‘राष्ट्रीय वस्तु संग्रहालय’ के संचालक से बीबीसी संवाददाता की बातचीत भी दिखाई गई। जब उनसे इस इमारत को नष्ट करने का कारण पूछा गया तो संचालक महोदय ने बताया कि, ‘इस इमारत को देखते ही हमें जापान द्वारा हम पर लादी गई गुलामी की याद आ जाती है। इसको गिराने से जापान और दक्षिण कोरिया के बीच सम्बंधों का नया दौर शुरु हो सकेगा। इसके पीछे बना हमारे राजा का महल लोगों की नजरों से ओझल रहे यही इसको बनाने का उद्देश्य था और इसी कारण हम इसको गिराने जा रहे हैं।‘

दक्षिण कोरिया की जनता ने भी सरकार के इस निर्णय का उत्साहपूर्वक स्वागत किया। (यह भवन उसी वर्ष ध्वस्त कर दिया गया।)

पांच सौ साल पुराने गुलामी के निशान मिटाये कुछ वर्ष पहले तक युगोस्लाविया एक राज्य था जिसके अन्तर्गत कई राष्ट्र थे। साम्यवाद के समाप्त होते ही ये सभी राष्ट्र स्वतंत्र हो गये तथा सर्बिया, क्रोशिया, मान्टेनेग्रो, बोस्निया हर्जेगोविना आदि अलग-अलग नाम से देश बन गये। बोस्निया में अभी भी काफी संख्या में सर्ब लोग हैं। ऐसे क्षेत्रों में जहां सर्ब काफी संख्या में हैं, इस समय (सन् 1995) सर्बियाई तथा बोस्निया की सेना में युद्ध चल रहा है। इस साल के शुरु में सर्ब सैनिकों ने बोस्निया के कब्जे वाला एक नगर ‘इर्वोनिक’ अपने अधिकार में ले लिया।

इर्वोनिक की एक लाख की आबादी में आधे सर्ब हैं और शेष मुसलमान। सर्ब फौजों के कब्जे के बाद मुसलमान इस शहर से भाग गये तथा बोस्निया के ईसाई यहां आ गये। ब्रंकों ग्रूजिक नाम के एक सर्ब नागरिक को शहर का महापौर भी बना दिया गया। महापौर ने सबसे पहले यह काम किया कि नगर के बाहर बहने वाली ड्रिना नदी के किनारे बनी एक टेकड़ी पर एक ‘क्रास’ लगा दिया। महापौर ने बताया कि, ‘इस स्थान पर हमारा चर्च था जिसे तुर्की के लोगों ने सन् 1463 में ध्वस्त कर डाला था। अब हम उस चर्च को इसी स्थान पर पुन: नये सिरे से खड़ा करेंगे।‘ श्री ग्रूजिक ने यह भी कहा कि तुर्कों की चार सौ साल की सत्ता में उनके द्वारा खड़े किये गये सारे प्रतीक मिटाये जाएंगे। उसी टेकड़ी पर पुराने तुर्क साम्राज्य के रूप में एक मीनार खड़ी थी उसे सर्बों ने ध्वस्त कर दिया। टेकड़ी के नीचे ‘रिजे कॅन्स्का’ नाम की एक मस्जिद को भी बुलडोजर चलाकर मटियामेट कर दिया गया।

यह विस्तृत समाचार अमरीकी समाचार पत्र हेरल्ड ट्रिब्युन में 8 मार्च 1995 को छपा। समाचार लाने वाला संवाददाता लिखता है कि उस टेकड़ी पर पांच सौ साल पहले नष्ट किये गये चर्च की एक घंटी पड़ी हुई थी। महापौर ने अस्थायी क्रॉस पर घंटी टांककर उसको बजाया। घंटी गुंजायमान होने के बाद महापौर ने कहा कि, ‘मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वह क्लिंटन (अमरीकी राष्ट्रपति) को थोड़ी अक्ल दे ताकि वह मुसलमानों का साथ छोड़कर उसके सच्चे मित्र ईसाइयों का साथ दे।

सोमनाथ का कलंक मिटाया गया
भारत में जब तक सत्ता की भूख नेताओं के सर पर सवार नहीं हुई थी, गुलामी के प्रतीकों को मिटाने का प्रयत्न किया गया। नागपुर के विधानसभा भवन के सामने लगी रानी विक्टोरिया की संगमरमर की मूर्ति आजादी के बाद हटा दी गई। मुम्बई के काला घोड़ा स्थान पर घोड़े पर सवार इंग्लैंड के राजा की प्रतिमा हटाई गई। विक्टोरिया, एंडवर्ड और जार्ज पंचम से जुड़े अस्पताल, भवन, सड़कों आदि तक के नाम बदले गये। लेकिन जब सत्ता का स्वार्थ और चाहे जैसे हो सत्ता में बने रहने की अंधी लालसा जगी तो दिल्ली की सड़कों के नाम अकबर, जहांगीर, शाहजहां तथा औरंगजेब रोड तक रख दिये गये।

भारत के आजाद होते ही सरदार पटेल ने सोमनाथ का जीर्णोद्धार कराया। उस स्थान पर बनी मस्जिदों व मजारों को ध्वस्त कर भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया। मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के समारोह में सेकुलरवादी पं. नेहरु के विरोध के बावजूद तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सम्मिलित हुए। उस समय किसी ने मुस्लिम भावनाओं की या मस्जिदें नष्ट न करने की बात नहीं उठाई। इसलिए कि उस समय सरदार पटेल जैसे राष्ट्रवादी नेता थे और देश की जनता में भी आजाद के आंदोलन का कुछ जोश बाकी था। (पाथेय कण) aksh Aryan