मंगलवार, दिसंबर 25, 2018

एक चिता तैयार की गई थी... लकड़ी की नहीं,,,,, हिन्दू धर्मग्रंथों की...

गोवा के बीचोबीच एक चिता तैयार की गई थी... लकड़ी की नहीं,,,,,
हिन्दू धर्मग्रंथों की... पिछले छह महीने में हर हिन्दू के घर का कोना कोना छान कर,मिट्टी कोड़ कोड़ कर इन धर्मग्रंथों को निकाला गया था...
संस्कृत भाषा में लिखे गए इन महत्वपूर्ण धर्मग्रन्थों की चिता, और उसके ऊपर हाथ पैर बाँध कर डाले गए हिन्दू... कुछ किताबें कहती हैं पाँच सौ लोग थे,,, कुछ कहती हैं हजार... कुछ किवदन्तियां कई हजार बताती हैं। ईश्वर जाने कितने थे....
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▪️ निकट खड़े पादरी ने अपनी पवित्र पुस्तक पढ़ी,,,,, और फिर सैनिक की ओर संकेत किया,,,,, सैनिक ने चिता में अग्नि प्रवाहित की और भारत धू-धू कर जल उठा,,,,, अग्नि की लपटें बढ़ीं, और उनके साथ ही बढ़ती गयीं दो प्रकार की ध्वनियां... एक जीवित जल रहे हिंदुओं के चीत्कार की ध्वनि, और दूसरी निकट खड़े ईसाइयों के अट्ठहास की ध्वनि...
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सन 1510
गोवा के तात्कालिक मुश्लिम शासक यूसुफ आदिल शाह को पराजित कर पुर्तगालियों ने(Portuguese)गोवा में अपनी सत्ता स्थापित की। अगले पच्चीस तीस वर्षों में गोवा पर पुर्तगाली पूरी तरह स्थापित हो गए। फिर शुरू हुआ गोवा का ईसाईकरण...
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कुछ लोग उनकी कथा के प्रभाव में आ कर
धर्म बदल लिए और ईसाई हुए।
जो धन ले कर बदले उन्हें धन दिया गया,
जो भय से बदल सकते थे उन्हें भयभीत कर बदला गया।
और जो नहीं बदले..?
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गांव के बीच मे एक हिन्दू को खड़ा करा कर उसे आरा से चीरा जाता, हिन्दू युवतियों को नग्न कर सँड़सी से उनके स्तन नोचे जाते.. स्त्रियों को नग्न कर उनकी दोनों टांगो में दो रस्सी बाँध दी जाती और दोनों रस्सियां दो घोड़ों से जोड़ दी जातीं। दोनों घोड़े दो ओर दौड़ाये जाते और पल भर में एक शरीर दो भाग में बंट जाता।
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अरे रुकिए..! यह कार्य केवल पुर्तगाली सैनिक(Portuguese) नहीं करते थे, उनके साथ एक पादरी रहता था जो बाइबल पढ़ कर अपनी देख-रेख में कार्य प्रारम्भ कराता था। पुर्तगाली ईसाइयों को किसी गाँव मे यह खेल दो बार खेलने की आवश्यकता नहीं हुई, क्योंकि जिस गाँव मे एक बार यह आयोजन हो जाता, उस गाँव की सारी प्रजा उसी दिन ईसाई हो जाती थी।
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पर भारत तो भारत है न..! यहाँ के हिन्दू इतनी जल्दी कैसे हार मान लेते..?
ऊपर से सारा गोवा ईसाई हो गया था, पर अंदर ही अंदर फिर अधिकांश जन हिन्दू हो गए थे। घर में मिट्टी के नीचे दबा कर सनातन धर्मग्रंथ रखे जाने लगे। बच्चों को धर्म का ज्ञान दिया जाने लगा। रामायण-महाभारत, वेद-पुराण पढ़े-पढ़ाने जाने लगे।
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पर ईसाई भी तो ईसाई थे न..! वे भी इतनी शीघ्रता से
कैसे पराजय स्वीकार कर लेते...? तो सन 1560...
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गोवा के बीचोबीच एक चिता तैयार की गई थी।
लकड़ी की नहीं, हिन्दू धर्मग्रंथों की। पिछले छह महीने में हर हिन्दू के घर का कोना कोना छान कर,मिट्टी कोड़ कोड़ कर इन धर्मग्रंथों को निकाला गया था। संस्कृत भाषा में लिखे गए इन महत्वपूर्ण धर्मग्रन्थों की चिता, और उसके ऊपर हाथ पैर बाँध कर डाले गए हिन्दू...
कुछ किताबें कहती हैं पाँच सौ लोग थे,,, कुछ कहती हैं हजार...
कुछ किवदन्तियां कई हजार बताती हैं। ईश्वर जाने कितने थे।
निकट खड़े पादरी ने अपनी पवित्र पुस्तक पढ़ी,,,,, और फिर सैनिक की ओर संकेत किया,,,,, सैनिक ने चिता में अग्नि प्रवाहित की और भारत धू-धू कर जल उठा,,,,, अग्नि की लपटें बढ़ीं, और उनके साथ ही बढ़ती गयीं दो प्रकार की ध्वनियां... एक जीवित जल रहे हिंदुओं के चीत्कार की ध्वनि, और दूसरी निकट खड़े ईसाइयों के अट्ठहास की ध्वनि...
सनातन जल रहा था, और अग्नि की लपटों के साथ ऊपर उठता जा रहा था चर्च! और वहाँ से हजारों कोस दूर रोम में बैठा सेंटा-क्लॉज मुस्कुरा उठा था।
यह भारत मे ईसाई धर्म के प्रारम्भ का सत्य था।
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अपने बच्चों को सेंटा क्लॉज की पोशाक पहना कर खुश होने वाले हिन्दुओं...! तुम्हारा सेंटा जब मुस्कुराता है तो लगता है कि वह गोआ की बेटियों की नोची गयी छातियों पर मुस्कुरा रहा है, एक वहशी दैत्य की तरह! तुम नहीं जानते कि क्रिसमस का जो केक तुम खा रहे हो वह गोवा की उन माओं के रक्त से सना हुआ है जिनके नग्न शरीर को घोड़े से चीरवा दिया गया था।
क्रिसमस की तुम्हारी शुभकामनाओं में मुझे अपने उन पूर्वजों की चीखें सुनाई देती हैं जिन्हें उनके धर्मग्रन्थों के साथ जीवित ही जला दिया गया था। क्यों? केवल इसी लिए कि वे हिन्दू थे।
गोवा एक उदाहरण मात्र है। भारत मे अंग्रेजी सत्ता के काल मे हिंदुओं-मुसलमानों पर ऐसे असंख्य अत्याचार ईसाइयों ने किए हैं। गिनने लगेंगे तो घृणा अपने चरम पर पहुँच जाएगी।
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सेंटा क्लॉज गिफ्ट नहीं देता। सेंटा ने जब भी दिया, भारत को नरसंहार, अत्याचार, शोषण का ही गिफ्ट दिया है। सेंटा क्लॉज भारत पर हुए अत्याचार का प्रतीक है। इसका सम्मान करना, इसका त्योहार मनाना अपने पूर्वजों के अपमान जैसा है।
तुम इसे धर्मनिरपेक्षता कहते हो? शत्रु-परम्पराओं का सम्मान धर्मनिरपेक्षता नहीं, मूर्खता है मित्र, वे झारखण्ड के जंगलों में तुम्हारे देवी-देवताओं को गाली देते हैं और तुम उनके पर्वों को उत्साह से मनाते हो...?
वे तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, गोवा केरल में तुम्हारे पूर्वजों को गाली देते हैं और तुम उनका सम्मान करते हो? वे आसाम, मेघालय, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश में सनातन धर्म का लगभग-लगभग नाश कर चुके और तुम इससे अनभिज्ञ प्रेम के गीत गा रहे हो?
तनिक सोचो तो, क्या हो तुम...?
मित्रों... तुम अनजाने में अपनी संस्कृति, अपने धर्म, अपने राष्ट्र, अपनी परम्पराओं, अपने पूर्वजों की प्रतिष्ठा की हत्या में सहयोग कर रहे हो। मित्र! तुम हत्या कर रहे हो...
और सेक्युलरिज्म...?
इसे भारत को क्या ईसाइयों से सीखना होगा? एक उदाहरण देता हूँ,,,,,
सातवीं शताब्दी में भारत के एक हिन्दू शासक अनंगपाल ने
राय पिथौरा किले के पास एक ही प्रांगण में 'हिन्दू,बौद्ध और जैन' तीनो धर्मों के सत्ताईस मन्दिरों का निर्माण कराया था। यहाँ जाने वाला हर श्रद्धालु तीन धर्मों के आराध्यों की एक ही साथ पूजा करता था।
भारत का वह मन्दिर कुतुबुद्दीन ऐबक ने तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही तोड़ दिया, पर क्या कोई आज भी मुझे पूरी दुनिया मे ऐसा कोई दूसरा स्थान दिखा सकता है? क्या कोई ऐसा स्थान है जहाँ किसी ईसाई ने किसी दूसरे धर्म का धर्मस्थल बनवाया हो? नहीं न?
मित्रों.. इस धरा पर धर्मनिरपेक्षता हमसे ही प्रारम्भ हो कर हम पर ही समाप्त हो जाती है। पर यह याद रहे, धर्मनिरपेक्षता के भ्रम में आत्महंता बनना केवल और केवल मूर्खता है।
स्वतन्त्रता के बाद वामपंथियों द्वारा थोपी गयी षड्यंत्रपूर्ण परिभाषा के अनुसार मेरी बातें साम्प्रदायिक दिख रही होंगी, पर मुझे गर्व है अपने साम्प्रदायिक होने पर.. मैं अपने पूर्वजों के हत्यारों को क्षमा नहीं कर सकता। मेरे अंदर यदि किसी को घृणा भरी हुई दिखती है तो गर्व है मुझे अपनी घृणा पर। अपने शत्रुओं के प्रति इसी घृणा ने भारत की रक्षा की है, नहीं तो यूनान, मिस्र, रोम कबके मिट गए।
शुभकामनाएं देनी हैं तो मेरे उस मित्र गंगा महतो को जन्मदिन की शुभकामना दीजिये जो झारखण्ड में ईसाइयों के प्रहार के विरुद्ध सनातन का ध्वज लिए अकेले खड़ा है। संता-बंता सब मूर्खता है।

सोमवार, दिसंबर 17, 2018

‘चंडी दी वार’ गुरु गोबिन्द सिंह जी का सैनिकों को संबोधन है। पढ़ें उसमें क्या लिखा है - ‘हिन्दू सिक्ख ..

‘चंडी दी वार’ गुरु गोबिन्द सिंह जी का सैनिकों को संबोधन है।
पढ़ें उसमें क्या लिखा है -
‘हिन्दू सिक्ख ..
दशमेश पिता गुरू गोविंद सिंह जी सैनिको में उत्साह भरने के लिये जो भाषण देते थे, उनका संग्रह 'चंड़ी दी वार' कहलाता है । उसमें लिखे दोहे पर सेक्युलर गौर करें :-
मिटे बाँग सलमान सुन्नत कुराना ।
जगे धमॆ हिन्दुन अठारह पुराना ॥
यहि देह अँगिया तुरक गहि खपाऊँ ।
गऊ घात का दोख जग सिऊ मिटाऊँ ॥
अर्थात :- हिंदुस्तान की धरती से बाँग (अजान), सुन्नत (इस्लाम) और कुरान मिट जाये, हिन्दू धर्म का जागरण होकर अट्ठारह पुराण आदर को प्राप्त हों। इस देह के अंगों से ऐसा काम हो कि सारे तुर्कों को मारकर खत्म कर दूँ और गोवध का दुष्कृत्य संसार से नष्ट कर दूँ ।
देही शिवा बर मोहे
शुभ कर्मन ते कभुं न टरूँ।
न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं
निश्चय कर अपनी जीत करौं ॥
अर्थात :-
हे परमशक्ति माँ(शिवा) ऐसा वरदान दो कि मैं अपने शुभ कर्मपथ से कभी विचलित न हो पाऊँ । शत्रु से लड़ने में कभी न डरूँ और जब लड़ूं तब उन्हें परास्त कर अपनी विजय सुनिश्चित करूँ ।।
गुरु का स्वप्न है..
सकल जगत में खालसा पंथ गाजै। जगै धर्म हिन्दू तुरक भंड भाजै।।
अर्थात् दशमेश पिता गुरु गोविन्द सिंह जी कहते हैं - सम्पूर्ण सृष्टि में खालसा पंथ की गर्जना हो। हिन्दू धर्म का पुनर्जागरण सारे संसार में हो और पृथ्वी पर से सारी अव्यवस्था, पाप और असत्य के प्रतीक इस्लाम का नाश हो।।
सतनाम वाहे गुरु
।।सत् श्री अकाल।।’

शनिवार, दिसंबर 08, 2018

उद्धव गीता

आज मुझे एक अत्यंत सुन्दर लेख प्राप्त हुआ पढ़कर आनंद विभोर हो उठा ! आप भी पढ़े और सत्य से रूबरू भी हों!
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*"उद्धव-गीता"*
उद्धव बचपन से ही सारथी के रूप में श्रीकृष्ण की सेवा में रहे, किन्तु उन्होंने श्री कृष्ण से कभी न तो कोई इच्छा जताई और न ही कोई वरदान माँगा।
जब कृष्ण अपने *अवतार काल* को पूर्ण कर *गौलोक* जाने को तत्पर हुए, तब उन्होंने उद्धव को अपने पास बुलाया और कहा-
"प्रिय उद्धव मेरे इस 'अवतार काल' में अनेक लोगों ने मुझसे वरदान प्राप्त किए, किन्तु तुमने कभी कुछ नहीं माँगा! अब कुछ माँगो, मैं तुम्हें देना चाहता हूँ।
तुम्हारा भला करके, मुझे भी संतुष्टि होगी।
उद्धव ने इसके बाद भी स्वयं के लिए कुछ नहीं माँगा। वे तो केवल उन शंकाओं का समाधान चाहते थे जो उनके मन में कृष्ण की शिक्षाओं, और उनके कृतित्व को, देखकर उठ रही थीं।
उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा-
"भगवन महाभारत के घटनाक्रम में अनेक बातें मैं नहीं समझ पाया!
आपके 'उपदेश' अलग रहे, जबकि 'व्यक्तिगत जीवन' कुछ अलग तरह का दिखता रहा!
क्या आप मुझे इसका कारण समझाकर मेरी ज्ञान पिपासा को शांत करेंगे?"
श्री कृष्ण बोले-
“उद्धव मैंने कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन से जो कुछ कहा, वह *"भगवद्गीता"* थी।
आज जो कुछ तुम जानना चाहते हो और उसका मैं जो तुम्हें उत्तर दूँगा, वह *"उद्धव-गीता"* के रूप में जानी जाएगी।
इसी कारण मैंने तुम्हें यह अवसर दिया है।
तुम बेझिझक पूछो।
उद्धव ने पूछना शुरू किया-
"हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताओ कि सच्चा मित्र कौन होता है?"
कृष्ण ने कहा- "सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना माँगे, मदद करे।"
उद्धव-
"कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीय प्रिय मित्र थे। आजाद बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया।
कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं। आप भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता हैं।
किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, क्या आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नहीं किया?
आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नहीं?
चलो ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नहीं मोड़ा!
आप चाहते तो युधिष्ठिर जीत सकते थे!
आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और यहाँ तक कि खुद को हारने के बाद तो रोक सकते थे!
उसके बाद जब उन्होंने अपने भाईयों को दाँव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे! आपने वह भी नहीं किया? उसके बाद जब दुर्योधन ने पांडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए द्रौपदी को दाँव पर लगाने को प्रेरित किया, और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे!
अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप पांसे धर्मराज के अनुकूल कर सकते थे!
इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया!
लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं?
उसे एक आदमी घसीटकर हॉल में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है!
एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया?
अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपाद-बांधव कैसे कहा जा सकता है?
बताईए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो क्या फायदा?
क्या यही धर्म है?"
इन प्रश्नों को पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।
ये अकेले उद्धव के प्रश्न नहीं हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं!
उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए।
भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले-
"प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है।
उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं।
यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।"
उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसाऔर धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है। धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा।
जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता?
पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की!
और वह यह-
उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए!
क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे।
वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं!
इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी!
इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे!
अपने भाई के आदेश पर जब दुस्साशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही!
तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा!
उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुस्साशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया!
जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर-
*'हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम'*-
की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला।
जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया।
अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?"
उद्धव बोले-
"कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई!
क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ?"
कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-
"इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?"
कृष्ण मुस्कुराए-
"उद्धव इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है।
न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ।
मैं केवल एक 'साक्षी' हूँ।
मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ।
यही ईश्वर का धर्म है।"
"वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण!
तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे?
हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?
आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?"
उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा!
तब कृष्ण बोले-
"उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।
जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?
तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे।
जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो! धर्मराज का अज्ञान यह था कि उसने माना कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता है!
अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी रूप में उपस्थित हूँ तो क्या खेल का रूप कुछ और नहीं होता?"
भक्ति से अभिभूत उद्धव मंत्रमुग्ध हो गये और बोले-
प्रभु कितना गहरा दर्शन है। कितना महान सत्य। 'प्रार्थना' और 'पूजा-पाठ' से, ईश्वर को अपनी मदद के लिए बुलाना तो महज हमारी 'पर-भावना' है। मग़र जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि 'ईश्वर' के बिना पत्ता भी नहीं हिलता! तब हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थिति महसूस होने लगती है।
गड़बड़ तब होती है, जब हम इसे भूलकर दुनियादारी में डूब जाते हैं।
सम्पूर्ण श्रीमद् भागवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी जीवन-दर्शन का ज्ञान दिया है।
सारथी का अर्थ है- मार्गदर्शक।
अर्जुन के लिए सारथी बने श्रीकृष्ण वस्तुतः उसके मार्गदर्शक थे।
वह स्वयं की सामर्थ्य से युद्ध नहीं कर पा रहा था, लेकिन जैसे ही अर्जुन को परम साक्षी के रूप में भगवान कृष्ण का एहसास वह ईश्वर की चेतना में विलय हो गया!
यह अनुभूति थी, शुद्ध, पवित्र, प्रेममय, आनंदित सुप्रीम चेतना की!
तत-त्वम-असि!
अर्थात...
वह तुम ही हो।।

गुरुवार, दिसंबर 06, 2018

वामपंथ का गढ़ा हुआ महान



 आपको बॉक्सिग में तनिक भी दिलचस्पी न हो तब भी आप मोहम्मद अली के नाम से परिचित होंगे ! जिन्हे महानतम मुक्केबाज़ के रूप में दुनिया भर में प्रचारित किया गया और तो और वह स्वयं भी अपने आप को महानतम ही मानते रहे थे ! अस्सी के दशक में तब कोर्स में हमें एक सहायक वाचन किताब होती थी जिसमे एक चैप्टर मोहम्मद अली का भी रहता था !
इसमें कोई शक नहीं की मोहम्मद अली बेहतरीन बॉक्सर रहे हैं ! लेकिन उन्हें महानतम बना कैसे थोपा गया अगर इसको थोड़ा समझा जाए तो महसूस हो जाएगा की वामपंथ की प्रचार ताकत क्या हैं ?
कैशियस क्ले 1964 में वर्ल्ड चैम्पियन बने थे ! 25 फरवरी 65 को उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार लिया! और नया नाम भी क्या चुन कर रखा, मोहम्मद अली ! यानि शिया और सुन्नी दोनों को बैलेंस करते हुए ! उनके मुताबिक उनसे अश्वेत होने के कारण एक होटल में दुर्व्यवहार किया गया जिससे आहत हो कर उन्होंने अपना मैडल नदी में फेंक दिया और इस्लाम धर्म अपना लिया ! यहाँ यह बात समझ से परे हैं की विश्व चैम्पियन होने के बाद वह संपन्न सेलिब्रेटी बन चुके थे और लोग उन्हें जानने पहचानने लगे थे फिर उनसे कैसे कोई रंगभेद कर सकता था ?
65 में उन्होंने विएतनाम युध्द में अनिवार्य सेना भर्ती के लिए इंकार कर दिया और इसका कारण अपनी धार्मिक मज़बूरी बताया ! और तो और उन्होंने अपनी ही सरकार पर युध्द के लिए ऊँगली उठा कर आलोचना भी शुरू कर दी 
वास्तव में वह देश के बजाये धन दौलत शोहरत को बनाये रखना चाहता था ! कल्पना कीजिये भारत पाकिस्तान युध्द में कोई भारतीय ऐसा करे तो आपको कैसा महसूस होंगे ? जिस वजह से इनसे मैडल छीन कर गिरफ्तार कर लिया था !
चार साल वह रिंग से बाहर रहे! 71 में सर्वोच्च न्यायलय से इन्हे राहत मिली ! लेकिन तब तक यह वामपंथी मीडिया और युवाओ में अपनी जगह बना चुके थे ! पूंजीवादी अमेरिका की आलोचना कर वह वामपंथी देशो की मीडिया का हीरो बन चूका था ! तिस पर उसका अश्वेत होना और मुस्लिम बनना उसे धारदार हथियार बना देता था !
इसी तरह इन्हे एक बार धोखा धड़ी के आरोप में 5 साल और दस हजार डॉलर की सजा भी सुनाई जा चुकी हैं जिसे बाद में महज दस दिन की सजा में तब्दील कर दिया गया था !
एक अच्छे सच्चे मुस्लिम की तरह उसके 4 निकाह से 9 बच्चे हुए थे !
इस मीडिया पोषित महानतम बड़बोले बॉक्सर को अपने कैरियर में 56 जीत के लिए 5 बार हारना भी पड़ा था ! लेकिन उस दौर में एक अन्य अमेरिकी बॉक्सर रॉकी मर्सियानो जिसका बेहतरीन रिकार्ड 49-0 था और जिसक नॉक आउट एवरेज 87 के आसपास हैं उसे वाम मीडिया ने कभी वह स्थान नहीं दिया जो उसका प्रदर्शन कहता था !
और इसकी वजह जानते हो ? क्योकि रॉकी श्वेत था उसने विएतनाम युध्द में अमेरिकी सेना ज्वाइन की थी और वह धार्मिक राष्ट्रवादी था !
एक तथ्य छूट गया 
की एक और मशहूर बॉक्सर माइक टाइसन का जब बुरा समय शुरू हुआ और उस पर कई आपराधिक मुकदमे दर्ज हुए तब इसी मोहम्मद अली ने उसे प्रेरित कर इस्लाम धर्म अपनाने के लिए राजी किया था !

रविवार, दिसंबर 02, 2018

डा भीमराव अम्बेडकर दलित नहीं “महार जाति” के क्षत्रीय योद्धाओं के वंशज थे ।

डा भीमराव अम्बेडकर दलित नहीं “महार जाति” के क्षत्रीय योद्धाओं के वंशज थे ?
oपेशवा रियासत को कमजोर करने के लिये अंग्रेजो ने “महार जाति” को “शूद्र” घोषित किया था |
शायद ही कुछ लोग यह जानते हैं कि “महार” और “राष्ट्र” शब्द से ही “महाराष्ट्र” राज्य की उत्पत्ति हुई है | महार पेशे से अंगरक्षक (क्षत्रीय) थे, इसलिए निर्भीक, साहसी, विश्वसनीय और लड़ाकू हुआ करते थे। बजीराव पेशवा (ब्राह्मण)की सेना में सबसे ज्यादा उन्नत लड़ाकू नश्ल के 28,000 सैनिक मात्र महार ही थे | यह एक लड़ाकू जाति (मार्शल रेस) है | यह बात ब्रिटिश लोगों ने पहचानी और लड़ने के लिये महार रेजिमेंट बनाई । जो आज भी भारतीय सेना का गौरव बढ़ा रही है |
नवम्बर 1817 में बाजीराव द्वितीय के नेतृत्व में संगठित मराठा सेना ने पूना की 'अंग्रेज़ी रेजीडेन्सी' को लूटकर जला दिया और खड़की स्थिति अंग्रेज़ी सेना पर हमला कर दिया, लेकिन वह पराजित हो गया। तदनन्तर वह दो और लड़ाइयों – 1 जनवरी 1818 में भीमा कोरेगाव की लडाई जिसमे अंग्रेजो ने पेशवा के 28,000 मराठा सैनिकों को पराजित किया था और उसके एक महीने के बाद आष्टी की लड़ाई में बाजीराव पेशवा द्वितीय पराजित हुआ।
उसने भागने की कोशिश की लेकिन उन्हें 3 जून, 1818 ई. को उसे अंग्रेज़ों के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा । अंग्रेज़ों ने इसके बार पेशवा का पद ही समाप्त कर दिया और बाजीराव पेशवा द्वितीय को अपदस्थ करके बंदी के रूप में कानपुर के निकट बिठूर भेज दिया जहाँ 1853 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
पेशवा पद की समाप्ति के बाद पेशवा की सेना में भरी असंतोष था | अन्ग्रेजों को बराबर यह भय था कि बाजीराव पेशवा द्वितीय की मृत्यु के बाद भी कभी भी पेशवा के वफादार सैनिक उनके ऊपर हमला कर सकते हैं अतः उन्होंने पेशवा सेना को तोड़ने के लिये विभिन्न लाभों की घोषणा करते हुये महार जाति के योद्धाओं को शूद्र घोषित कर दिया | जिस नीति से पेशवाओं की सेना में फूट पड़ गई और वह हमेशा के लिये ख़त्म हो गये |
लेकिन महार की इस योद्धा शक्ति का उपयोग अंग्रेजों ने महार रेजिमेंट बना कर किया गया और प्रथम विश्व युद्ध में सर्वाधिक मरने वाले महार रेजिमेंट के ही सैनिक थे | लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के बाद मरे सैनिकों का हर्जा खर्च न देना पड़े इसलिये महार रेजिमेंट भंग कर दी गई और बढ़ते असंतोष को शान्त करने के लिये "इण्डिया गेट" का दिल्ली में निर्माण करवाया गया | द्वतीय विश्व युद्ध में पुनः महार रेजिमेंट बनी जो आज तक भारतीय सेना का सम्मान है |
जबकि पूर्व में जब भी व्यापारी अपना कारवां लेकर कहीं दूर व्यापार करने जाते थे | तब महारो को उनकी रक्षा के लिए नियुक्त किया जाता था । महार ही गाँव की रक्षा करते थे, किसानो के ज़मीनों की रक्षा करते थे | गाँव की सीमा बतलाना, व्यापारियों को एक जगह से दूसरी जगह जाते वक़्त सुरक्षा देना, खेत से होने वाली फसल और राज्य के खजाने की रक्षा आदि करने का काम महार जाति का था |
शादी विवाह में बहू बेटियों को, महिलाओं बच्चों को, सम्पन्न व्यक्तियों को, सुरक्षित लाना ले जाना आदि कार्यों के लिये महार जाति के लोग सबसे अधिक विश्वसनीय माने जाते थे | चोरी करने वालो का पता लगाना , गाँव में आने जाने वालो के बारे में जानकारी रखना, संदिग्ध लोगो को गाँव के बाहर रोक के रखना, आदि आदि सुरक्षा का कार्य महार ही के काम थे। इनकी गवाही अंतिम और विश्वसनीय होती थी | खेत और गाँव की सीमा निर्धारित करते समय महारो की बात अंतिम होती थी।
महार समाज बड़े बड़े घरानों में आना जाना था इन्हें अस्पृश्य कभी नहीं माना गया था। यह लोग पुलिस, गुप्तचर विभाग और राजस्व विभाग संबंधित कार्य करते थे । लड़ाकू होने के नाते इनकी खुराक सामान्य मनुष्य से ज्यादा हुआ करती थी | महाआहारी (बहुत खाने वाले ) होने के नाते इन्हें “महार” बोला गया | यह बात रोबेर्टसन ने अपनी किताब “दि महार फोल्क में भी कही है |
भीमराव अम्बेडकर जी का जन्म सन 14 अप्रैल 1891 को ब्रिटिश भारत के मध्य भारत प्रांत (अब मध्य प्रदेश में) में स्थित नगर सैन्य छावनी महू में हुआ था। वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की १४ वीं व अंतिम संतान थे। उनका परिवार मराठी मूल का महार जाति से सम्बन्ध रखता था और वो आंबडवे गांव जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में है के मूल निवासी थे। लड़ाकू नश्ल के नागवंशी क्षत्री होने के नाते भीमराव आम्बेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कई पीड़ियों से कार्यरत थे और उनके पिता रामजी सकपाल जी भारतीय सेना की महू छावनी में सुबेदार के पद पर थे |
उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा प्राप्त की थी।
जब वह चौथी कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण हुए, तब उन्हें लेखक दादा केलुस्कर द्वारा खुद की लिखी 'बुद्ध की जीवनी' उन्हें भेंट दी गयी। इसे पढकर उन्होंने पहली बार गौतम बुद्ध व बौद्ध धर्म को जाना एवं उनकी शिक्षा से प्रभावित हुए।
माध्यमिक शिक्षा हेतु वह 1897 में मुंबई चले गये | जहां एल्फिंस्टोन रोड पर स्थित गवर्न्मेंट हाईस्कूल में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थे। 1907 में उन्होंने अपनी मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और अगले वर्ष उन्होंने एल्फिंस्टन कॉलेज में प्रवेश किया जो कि बॉम्बे विश्वविद्यालय से संबद्ध था | 1912 तक, उन्होंने बॉम्बे विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और राजनीतिक विज्ञान में अपनी डिग्री प्राप्त की, और बड़ौदा राज्य सरकार में नौकरी करने लगे ।
उनकी योग्यता को देख कर बड़ौदा के राजा सयाजीराव गायकवाड़ ने अपने खर्चे पर 1913 में मात्र 22 साल की उम्र में संयुक्त राज्य अमेरिका, न्यू यॉर्क शहर में कोलंबिया विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षा के अवसर प्रदान करने के लिए तीन साल के लिए 11.50 डॉलर प्रति माह बड़ौदा राज्य की छात्रवृत्ति देकर भेजा । वहां पहुंचने के तुरंत बाद वह लिविंगस्टन हॉल में पारसी मित्र नवल भातेना के साथ बस गये । जून 1915 में उन्होंने अपनी एमए परीक्षा पास कर ली, जिसमें अर्थशास्त्र प्रमुख, और समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शनशास्त्र और मानव विज्ञान यह अन्य विषय भी थे।
1916 में, उन्होंने अपना दूसरा थीसिस, नेशनल डिविडेंड ऑफ इंडिया - ए हिस्टोरिक एंड एनालिटिकल स्टडी दुसरे एमए के लिए पूरा किया, और आखिरकार उन्होंने लंदन के लिए छोड़ने के बाद, 1916 में अपने तीसरे थीसिस इवोल्युशन ओफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया के लिए अर्थशास्त्र में पीएचडी प्राप्त की, अपने थीसिस को प्रकाशित करने के बाद 1927 में अधिकृप रुप से पीएचडी प्रदान की गई। 9 मई को, उन्होंने मानव विज्ञानी अलेक्जेंडर गोल्डनवेइज़र द्वारा आयोजित एक सेमिनार में भारत में जातियां: उनकी प्रणाली, उत्पत्ति और विकास नामक एक पेपर लेख प्रस्तुत किया, जो उनका पहला प्रकाशित काम था।
डॉ॰ आम्बेडकर ने 3 वर्ष तक की मिली हुई छात्रवृत्ति का उपयोग उन्होंने केवल दो वर्षों में अमेरिका में पाठ्यक्रम पूरा किया और अक्टूबर 1916 में वह लंदन गए और वहाँ उन्होंने ग्रेज़ इन में बैरिस्टर कोर्स (विधि अध्ययन) के लिए दाखिला लिया, और साथ ही लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में दाखिला लिया जहां उन्होंने अर्थशास्त्र की डॉक्टरेट थीसिस पर काम करना शुरू किया।
इनकी मेधा शक्ति से कई अंग्रेज प्रोफ़ेसर बहुत प्रभावित हुये | उन्होंने इनके विषय में ब्रिटेन के राजनीतिज्ञों से चर्चा की | काफी लम्बे समय से ब्रिटेन के राजनीतिज्ञों को भारत में अपने अत्याचारों की कमी को छिपाने के लिये दलितों के मसीहा के रूप में एक भारतीय मूल के अंग्रेजी वक्ता की आवश्यकता थी | अत: उन ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने इन्हें दलितों के मसीहा के रूप में भारत की सामाजिक स्थिती की सार्वजनिक मंच पर अंग्रेजी भाषा में निन्दा करने के लिये खूब प्रयोग किया |
बड़े बड़े लेख और इन्टरव्यू फोटुओं के साथ समाचार पत्र पत्रिकाओं में छपने लगे | सेमिनार में विशेषज्ञ के रूप में जाने आने लगे | पिता 2 फरवरी 1913 को मर चुके थे | परिवार वाले इनकी इन हरकतों के कारण इन्हें पूछते तक नहीं थे | मन चाहा अनाब शनाब पैसा इन्हें अंग्रेज दलालों के माध्यम से मिलने लगा था | अंग्रेजों के साथ मांसाहारी पार्टी और शराब की दावतें प्रायः रोज ही होने लगी थी | जब यह पूरी तरह अंग्रेजों के प्रभाव में आ गये तो यहीं से अंग्रेजों ने इनका राजनैतिक दुरुपयोग शुरू कर दिया |
अंग्रेजों की कृपा से इन्हें भारत में दलितों के मसीहा घोषित होने में ज्यादा देर नहीं लगी | दलितों के मसीहा होने के बाद भी कभी भी यह दलित बस्ती में नहीं रहे | डा॰ अम्बेडकर बम्बई के ब्राह्मण बहुल मोहल्ले मेँ अपना स्थायी आवास “राजगृह” बना कर रहते थे और इनकी पहली पत्नी रमाबाई महार (क्षत्रिय) परिवार से थीं । 27 मई 1935 को उनकी पहली पत्नी की मृत्यु के बाद उनकी दूसरी पत्नी भी मराठी ब्राह्मण ही थीं |
इनकी कोई भी पत्नी शूद्र नहीं थी | इनको ब्राह्मण नेता सम्मान भी देते थे | बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, मोहनदास करमचंद गाँधी, मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना, वल्लभ भाई पटेल, गोविन्द बल्लभ पंत, मदन मोहन मालवीय, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, इत्यादि इनकी मित्र सूची में शामिल थे। कानून के इन्हीं विशेषज्ञों के सहयोग से 26 जनवरी 1950 एक महार (क्षत्रीय) डॉ॰ भीमराव रामजी आंबेडकर ने भारत के सविधान का निर्माण कर मजबूत भारत की नींव रखी।
किन्तु इनका उपयोग करके अंग्रेजों के इशारे पर इनका सामाजिक व राजनैतिक बहिष्कार शुरू हुआ जिससे क्षुब्द होकर डा भीमराव रामजी आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को अपने लगभग 3,80,000 अनुयायीयों के साथ हिन्दू धर्म छोड़ कर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। इसके बाद भी आज महारष्ट्र की कुल जनसंख्या का 9 % लगभग एक करोड़ महार हैं |
योगेश कुमार मिश्र
अधिवक्ता
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शनिवार, दिसंबर 01, 2018