बुधवार, अगस्त 05, 2015

आज से सौ साल पहले पंचों द्वारा व्यक्ति या परिवार से समाज का रोटी-बेटी का, हुक्का-पानी का व्यवहार बंद करना, उसका जीवन असंभव बना देता था। इसका अर्थ अंतिम संस्कार के लिये चार कंधे भी न मिलना होता था। इसका लक्ष्य अपने लोगों का धर्मांतरण न होने देना था।

ग़ज़वा-ए-हिन्द के सदियों पुराने सपने को साकार करने के लिये वृहत्तर भारत पर विभिन्न तकनीकें सैकड़ों वर्षों से प्रयोग में लायी जा रही हैं। उन्हीं में से एक प्रमुख तकनीक शत्रु पक्ष में विभाजन की तकनीक है। आपको पंचतंत्र की बूढ़े पिता और उसके चार बेटों की कहानी ध्यान होगी। बूढ़ा अपने आपस में झगड़ने वाले बेटों को बुला कर 10-12 पतली-पतली लकड़ियों के बंधे हुए गट्ठर को तोड़ने के लिये देता है। सारे बेटे एक-एक करके असफल हो जाते हैं। फिर वो गट्ठर को खोल कर एक-एक लकड़ी तोड़ने के लिये देता है। देखते हो देखते बेटे हर लकड़ी तोड़ डालते हैं। बूढ़ा पिता बेटों को समझता है "एक लकड़ी को तोडना आसान होता है किन्तु बंधी लकड़ियों को तोडना असंभव होता है' तुम सबको साथ रहना चाहिये।
यही तकनीक हिन्दुओं की विभिन्न जातियों को इस्लाम के अधीन करने के लिये सदियों से प्रयोग में लायी जा रही है। उत्तर प्रदेश में जाट, त्यागी समाज के धर्मान्तरित लोग मूले जाट, मूले त्यागी कहलाते हैं। इसी तरह से राजस्थान, गुजरात में राजपूत भी मुसलमान बने हैं। अन्य समाज भी धर्मान्तरित हुए हैं मगर ये आज भी अपनी जाट, त्यागी, राजपूत पहचान के लिये मुखर हैं और तब्लीगियों की प्रचंड हाय-हत्या के बाद भी अभी तक उसी टेक पर क़ायम हैं। धर्मांतरण चाहने वाली इन जमातों की कुदृष्टि सदियों से इसी तरह हमारे दलित, अनुसूचित जातियों पर लगी हुई है। जय भीम और जय मीम तो आज का नारा है। इस कार्य को सदियों से मुल्ला पार्टी जी-जान से चाहती है मगर उसकी दाल गल नहीं पा रही। आइये इस षड्यंत्र की तह में जाते हैं।
सामान्य हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बारे में छान-फटक करें तो बड़े मज़ेदार तथ्य हाथ आते हैं। झगड़े चाहे मस्जिद के आगे से शोभा यात्रा निकलने पर पथराव के कारण, किसी लड़की को छेड़ने, लव जिहाद की परिणति, किन्हीं दो वाहनों की टक्कर, भुट्टो को पाकिस्तान में फांसी, ईराक़ पर अमरीकी हमला, किसी भी उत्पात से शुरू होते होते हों; पहली झपट में हिन्दू समाज की ओर से आवाज़ उठाने वाले जाट, गूजर, बाल्मीकि-भंगी, चमार, इत्यादि जातियों के लोग पाये जाते हैं। जाट और गूजर ऐतिहासिक योद्धा जातियां हैं और इनके अनेकों राजवंश रहे हैं।
गुजरात प्रान्त का तो नाम ही गुर्जर प्रतिहार शासकों के कारण पड़ा है। सेना में आज भी जाट रेजीमेंट्स हैं अर्थात लड़ना इनके स्वभाव में है, मगर समाज के सबसे ख़राब समझे जाने वाले कामों को करने वाले पिछड़े, दमित, दलित लोगों में इतना साहस कहाँ से आ गया कि वो इस्लामी उद्दंडता का बराबरी से सामना कर सकें ? सदियों से पिछड़ी, दबी-कुचली समझी जाने वाली इन जातियों के तो रक्त-मज्जा में ही डर समा जाना चाहिये था। ये कैसे बराबरी का प्रतिकार करने की हिम्मत कर पाती हैं ? मगर ये भी तथ्य है कि आगरा, वाराणसी, मुरादाबाद, मेरठ, बिजनौर यानी घनी मुस्लिम जनसंख्या के क्षेत्रों के प्रसिद्ध दंगों में समाज की रक्षा इन्हीं जातियों के भरपूर संघर्ष के कारण हो पाती है।
आइये इतिहास के इस भूले-बिसरे दुखद समुद्र का अवगाहन करते हैं। यहाँ एक बात ध्यान करने की है कि इस विषय का लिखित इतिहास बहुत कम है अतः हमें अंग्रेज़ी के मुहावरे के अनुसार 'बिटवीन द लाइंस' झांकना, जांचना, पढ़ना होगा। सबसे पहले बाल्मीकि या भंगी जाति को लेते हैं। बाल्मीकि बहुत नया नाम है और पहले ये वर्ग भंगी नाम से जाना जाता था। ये कई उपवर्गों में बंटे हुए हैं। इनकी भंगी, चूहड़, मेहतर, हलालखोर प्रमुख शाखाएं हैं। इनकी क़िस्मों, गोत्रों के नाम बुंदेलिया, यदुवंशी, नादों, भदौरिया, चौहान, किनवार ठाकुर, बैस, गेहलौता, गहलोत, चंदेल, वैस, वैसवार, बीर गूजर या बग्गूजर, कछवाहा, गाजीपुरी राउत, टिपणी, खरिया, किनवार-ठाकुर, दिनापुरी राउत, टांक, मेहतर, भंगी, हलाल इत्यादि हैं। क्या इन क़िस्मों के नाम पढ़ कर इस वीरता का, जूझारू होने का कारण समझ में नहीं आता ?
बंधुओ ये सारे गोत्र भरतवंशी क्षत्रियों के जैसे नहीं लगते हैं ? किसी को शक हो तो किसी भी ठाकुर के साथ बात करके तस्दीक़ की जा सकती है। इन अनुसूचित जातियों में ये नाम इनमें कहाँ से आ गये ? ऐसा क्यों है कि अनुसूचित जातियों की ये क़िस्में उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश में ही हैं ? जो इलाक़े सीधे मुस्लिम आक्रमणकारियों से सदियों जूझते रहे हैं उन्हीं में ये गोत्र क्यों मिलते हैं ? हलालखोर शब्द अरबी है। भारत की किसी जाति का नाम अरबी मूल का कैसे है ? क्या अरबी आक्रमणकारियों या अरबी सोच रखने वाले लोगों ने ये जाति बनायी थी ? इन्हें भंगी क्यों कहा गया होगा ? ये शुद्ध संस्कृत शब्द है और इसका अर्थ 'वह जिसने भंग किया या तोड़ा' होता है। इन्होने क्या भंग किया था जिसके कारण इन्होने ये नाम स्वीकार किया।
चमार शब्द का उल्लेख प्राचीन भारत के साहित्‍य में कहीं नहीं मिलता है। मृगया करने वाले भरतवंशियों में भी प्राचीन काल में आखेट के बाद चमड़ा कमाने के लिये व्याध होते थे। ये पेशा इतना बुरा माना जाता था कि प्राचीन काल में व्याधों का नगरों में प्रवेश निषिद्ध था। इस्‍लामी शासन से पहले के भारत में चमड़े के उत्पादन का एक भी उदाहरण नहीं मिलता है। हिंदू चमड़े के व्यवसाय को बहुत बुरा मानते थे अतः ऐसी किसी जाति का उल्लेख प्राचीन वांग्मय में न होना स्वाभाविक ही है। तो फिर चमार जाति कहाँ से आई ? ये संज्ञा बनी ही कैसे ?
चर्ममारी राजवंश का उल्लेख महाभारत जैसे प्राचीन भारतीय वांग्मय में मिलता है। प्रतिष्ठित लेखक डॉ विजय सोनकर शास्त्री ने इस विषय पर गहन शोध कर चर्ममारी राजवंश के इतिहास पर लिखा है। इसी तरह चमार शब्द से मिलते-जुलते शब्द चंवर वंश के क्षत्रियों के बारे में कर्नल टाड ने अपनी पुस्तक 'राजस्थान का इतिहास' में लिखा है। चंवर राजवंश का शासन पश्चिमी भारत पर रहा है। इसकी शाखाएं मेवाड़ के प्रतापी सम्राट महाराज बाप्पा रावल के वंश से मिलती हैं। आज जाटव या चमार माने-समझे जाने वाले संत रविदास जी महाराज इसी वंश में हुए हैं जो राणा सांगा और उनकी पत्नी के गुरू थे। संत रविदास जी महाराज लम्बे समय तक चित्तौड़ के दुर्ग में महाराणा सांगा के गुरू के रूप में रहे हैं। संत रविदास जी महाराज के महान, प्रभावी व्यक्तित्व के कारण बड़ी संख्या में लोग इनके शिष्य बने। आज भी इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में रविदासी पाये जाते हैं।
उस काल का मुस्लिम सुल्तान सिकंदर लोधी अन्य किसी भी सामान्य मुस्लिम शासक की तरह भारत के हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की उधेड़बुन में लगा रहता था। इन सभी आक्रमणकारियों की दृष्टि ग़ाज़ी उपाधि पर रहती थी। सुल्तान सिकंदर लोधी ने संत रविदास जी महाराज मुसलमान बनाने की जुगत में अपने मुल्लाओं को लगाया। जनश्रुति है कि वो मुल्ला संत रविदास जी महाराज से प्रभावित हो कर स्वयं उनके शिष्य बन गए और एक तो रामदास नाम रख कर हिन्दू हो गया।
सिकंदर लोदी अपने षड्यंत्र की यह दुर्गति होने पर चिढ गया और उसने संत रविदास जी को बंदी बना लिया और उनके अनुयायियों को हिन्दुओं में सदैव से निषिद्ध खाल उतारने, चमड़ा कमाने, जूते बनाने के काम में लगाया। इसी दुष्ट ने चंवर वंश के क्षत्रियों को अपमानित करने के लिये नाम बिगाड़ कर चमार सम्बोधित किया। चमार शब्‍द का पहला प्रयोग यहीं से शुरू हुआ। संत रविदास जी महाराज की ये पंक्तियाँ सिकंदर लोधी के अत्याचार का वर्णन करती हैं।
वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान
फिर मैं क्यों छोड़ूँ इसे पढ़ लूँ झूट क़ुरान
वेद धर्म छोड़ूँ नहीं कोसिस करो हजार
तिल-तिल काटो चाही गोदो अंग कटार
चंवर वंश के क्षत्रिय संत रविदास जी के बंदी बनाने का समाचार मिलने पर दिल्ली पर चढ़ दौड़े और दिल्‍ली की नाक़ाबंदी कर ली। विवश हो कर सुल्तान सिकंदर लोदी को संत रविदास जी को छोड़ना पड़ा । इस झपट का ज़िक्र इतिहास की पुस्तकों में नहीं है मगर संत रविदास जी के ग्रन्थ रविदास रामायण की यह पंक्तियाँ सत्य उद्घाटित करती हैं
बादशाह ने वचन उचारा । मत प्‍यारा इसलाम हमारा ।।
खंडन करै उसे रविदासा । उसे करौ प्राण कौ नाशा ।।
जब तक राम नाम रट लावे । दाना पानी यह नहीं पावे ।।
जब इसलाम धर्म स्‍वीकारे । मुख से कलमा आप उचारै ।।
पढे नमाज जभी चितलाई । दाना पानी तब यह पाई ।।
भारतीय वांग्मय में आर्थिक विभाजन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के रूप में मिलता है। मगर प्राचीन काल में इन समाजों में छुआछूत बिल्कुल नहीं थी। कारण सीधा सा था ये विभाजन आर्थिक था। इसमें लोग अपनी रूचि के अनुसार वर्ण बदल सकते थे। कुछ संदर्भ इस बात के प्रमाण के लिये देने उपयुक्त रहेंगे। मैं अनुवाद दे रहा हूँ। संस्कृत में आवश्यकता होने पर संदर्भ मिलाये जा सकते हैं।
मनु स्मृति 10:65 ब्राह्मण शूद्र बन सकता है और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपना वर्ण बदल सकते हैं।
मनु स्मृति 4:245 ब्राह्मण वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ठ, अति-श्रेष्ठ व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच-नीचतर व्यक्तियों का संग छोड़ कर अधिक श्रेष्ठ बनता जाता है। इसके विपरीत आचरण से पतित हो कर वह शूद्र बन जाता है।
मनु स्मृति 2:168 जो ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़ कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है। उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी वेदों के ज्ञान से वंचित होना पड़ता है।
आप देख सकते हैं ये समाज के चलने के लिए काम बंटाने और उसके इसके अनुरूप विभाजन की बात हैं और इसमें जन्मना कुछ नहीं है। एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जाना संभव था। महर्षि विश्वामित्र का जगत-प्रसिद्ध उदाहरण क्षत्रिय से ब्राह्मण बनने का है। सत्यकेतु, जाबालि ऋषि, सम्राट नहुष के उदाहरण वर्ण बदलने के हैं। एक गणिका के पुत्र जाबालि, जिनकी माँ वृत्ति करती थीं और जिसके कारण उन्हें अपने पिता का नाम पता नहीं था, ऋषि कहलाये। तब ब्राह्मण भी आज की तरह केवल शिक्षा देने-लेने, यज्ञ करने-कराने, दान लेने-देने तक सीमित नहीं थे। वेदों में रथ बनाने वाले को, लकड़ी का काम करने वाले बढ़ई को, मिटटी का काम करने वाले कुम्हार को ऋषि की संज्ञा दी गयी है। सभी वो काम जिनमें नया कुछ खोजा गया ऋषि के काम थे।
यहाँ एक वैदिक ऋषि की चर्चा करना उपयुक्त होगा। वेद सृष्टि के उषा काल के ग्रन्थ हैं। भोले-भाले, सीधे-साधे लोग जो देखते हैं उसे छंदबद्ध करते हैं। ऋषि कवष ऐलूष ने वेद में अक्ष-सूक्त जोड़ा है। अक्ष जुए खेलने के पाँसे को कहते हैं। इस सूक्त में ऋषि कवष ऐलूष ने अपनी आत्मकथा और जुए से जुड़े सामाजिक आख्यान, उपेक्षा, बदनामी की बात करुणापूर्ण स्वर में लिखी है। कवष इलूष के पुत्र थे जो शूद्र थे। ऐतरेय ब्राह्मण बताता है कि सरस्वती नदी के तट पर ऋषि यज्ञ कर रहे थे कि शूद्र कवष ऐलूष वहां पहुंचे।
यज्ञ में सामाजिक रूप से प्रताड़ित जुआरी के भाग लेने के लिये ऋषियों ने कवष ऐलूष को अपमानित कर निष्काषित कर दिया और उन्हें ऐसी भूमि पर छोड़ा गया जो जलविहीन थी। कवष ऐलूष ने उस जलविहीन क्षेत्र में देवताओं की स्तुति में सूक्त की रचना की और कहते हैं सरस्वती नदी अपना स्वाभाविक मार्ग बदल कर शूद्र कवष ऐलूष के पास आ गयीं। सरस्वती की धारा ने कवष ऐलूष की परिक्रमा की, उन्हें घेर लिया। यज्ञकर्ता ऋषि दौड़े-दौड़े आये और शूद्र कवष ऐलूष की अभ्यर्थना की। उन्हें ऋषि कह कर पुकारा। उनके ये सूक्त ऋग्वेद के दसवें मंडल में मिलते हैं।
इस घटना से ही पता चलता है कि शूद्र का ब्राह्मण वर्ण में आना सामान्य घटना ही थी। ध्यान रहे कि वर्ण और जातियों में अंतर है। वर्णों में एक-दूसरे में आना-जाना चलता था और इसे उन्नति या अवनति नहीं समझा जाता था। ये केवल स्वभाव के अनुसार आर्थिक विभाजन था। भारत में वर्ण जन्म से नहीं थे और इनमें व्यक्ति की इच्छा के अनुसार बदलाव होता था। कई बार ये पेशे थे और इन पेशों के कारण ही मूलतः जातियां बनीं। कई बार ये घुमंतू क़बीले थे, उनसे भी कई जातियों की पहचान बनी। वर्ण-व्यवस्था समाज को चलाने की एक व्यवस्था थी मगर वो व्यवस्था हज़ारों साल पहले ही समाप्त हो गयी। वर्णों में एक-दूसरे में आना-जाना चलता था ये भी सच है कि कालांतर में ये आवागमन बंद हो गया।
उसका कारण भारत पर लगातार आक्रमण और उससे बचने लिये समाज का अपने में सिमट जाना था। समाज ने इस आक्रमण और ज़बरदस्ती किये जाने वाले धर्मांतरण से बचाव के लिये अपनी जकड़बन्दियों की व्यवस्था बना ली। अपनी जाति से बाहर जाने की बात सोचना पाप बना दिया गया। रोटी-बेटी का व्यवहार बंद करना ऐसी ही व्यवस्था थी। इन जकड़बन्दियों का ख़राब परिणाम यह हुआ कि सारी जातियों के लोग स्वयं में सिमट गए और अपने अतिरिक्त सभी को स्वयं से हल्का, कम मानने लगे। वो दूरी जो एक वैश्य समाज जाटव वर्ग से रखता था वही जाटव समाज भी बाल्मीकि समाज से बरतने लगा। आपमें से कोई भी जांच-पड़ताल कर सकता है। केवल 5 उदाहरण भी भारत भर में जाटव लड़की के बाल्मीकि लड़के से विवाह के नहीं मिलेंगे। अब महानगरों में समाज बदल गया है और अंतर्जातीय विवाह समय बात हो गयी है मगर आज से 30 वर्ष पूर्व ऐसी घटना लगभग असंभव थी।
आज बदलते समाज में शायद ये कुछ न दिखाई दे मगर आज से सौ साल पहले पंचों द्वारा व्यक्ति या परिवार से समाज का रोटी-बेटी का, हुक्का-पानी का व्यवहार बंद करना, उसका जीवन असंभव बना देता था। इसका अर्थ अंतिम संस्कार के लिये चार कंधे भी न मिलना होता था। इसका लक्ष्य अपने लोगों का धर्मांतरण न होने देना था। ये बंधन इतने कठोर थे कि अकबर के मंत्री बीरबल, टोडरमल तक उसका सारा ज़ोर लगा देने के बाद भी उसके चलाये धर्म दीने-इलाही और उसके पुराने धर्म इस्लाम में दीक्षित नहीं हुए।
प्राचीन भारत में भारत में शौचालय घर के अंदर नहीं होते थे। लोग इसके लिये घर से दूर जाते थे। समाज के लोगों में ये भाव कभी था ही नहीं कि उनका अकेले-दुकेले बाहर निकलना जीवन को संकट में डाल सकता है। मगर ये विदेशी आक्रमणकारी हर समय आशंकित रहते थे। उन्हें स्थानीय समाज से ही नहीं अपने साथियों से प्राणघाती आक्रमण की आशंका सताती थी। इसलिए उन्होंने क़िलों में सुरक्षित शौचालय बनवाये और मल-मूत्र त्यागने के बाद उन पात्रों को उठाने के लिये पराजित स्थानीय लोगों को लगाया। भारत में इस घृणित पेशे की शुरुआत यहीं से हुई है। इन विदेशी आक्रमणकारियों में इसके कारण अपनी उच्चता का आभास भी होता था और ऐसा घोर निंदनीय कृत्य उन्हें अपने पराजित को पूर्णरूपेण ध्वस्त हो जाने की आश्वस्ति देता था।
इन आक्रमणकारियों ने पराजित समाज के योद्धाओं को मार डाला और उनके बचे परिवार को इस्लाम या घृणित कार्यों को करने का विकल्प दिया। जो लोग डर कर, दबाव सहन न कर पाने के कारण मुसलमान बन गए, उन्हीं के वंशज आज के मुसलमान हैं। जो लोग मुसलमान नहीं बने, उन्होंने अपने प्राणों से प्रिय शिखा-सूत्र काट दिये और अपने धर्म को न छोड़ने के कारण भंगी-चमार संज्ञा स्वीकार की। यहाँ ये बात आवश्यक रूप से ध्यान रखने की है कि इन प्रतिष्ठित योद्धा जाति के लोगों ने पराजित हो कर भी धर्म नहीं छोड़ा।
इस्लाम के भयानक अत्याचार सहे, आत्मा तक को तोड़ देने वाला सिर पर मल-मूत्र ढोने का अत्याचार सहा, पशुओं की खाल उतारने कार्य किया, चमड़ा कमाने-जूते बनाने का कार्य किया मगर मुसलमान नहीं हुए। ये जाटव, बाल्मीकि समाज के लोग हमारे उन महान वीर पूर्वजों की संतानें हैं। आज भी इन योद्धा जातियों के वंशजों के बड़े हिस्से में अपने नाम के साथ सिंह लगाने की परम्परा है। अपने सिर पर मल-मूत्र ढोने वाले, जूते बनाने वाले कहीं सिंह होते हैं ? ये वस्तुतः सिंह ही हैं जिन्हें गीदड़ बनने पर विवश करने के लिये इस तरह अपमानित किया गया।
बाबा साहब अम्बेडकर ने भी अपने लेखों में लिखा है कि हम योद्धा जातियों के लोग हैं। यही कारण है कि 1921 की जनगणना के समय चमार जाति के नेताओं ने वायसराय को प्रतिवेदन दिया था कि हमें राजपूतों में गिना जाये। हम राजपूत हैं। अँगरेज़ अधिकारियों ने ही ये नहीं माना बल्कि हिन्दू समाज भी इस बात को काल के प्रवाह में भूल गया और स्वयं भी इस महान योद्धाओं की संतानों से वही घृणित दूरी रखने लगा जो आक्रमणकारी रखते थे। होना यह चाहिए था कि इनकी स्तुति करता, नमन करता, इनको गले लगता मगर शेष हिन्दू समाज स्वयं आक्रमणकारियों के वैचारिक फंदे में फंस गया।
भारत में विदेशी मूल के मुसलमान सैयद, पठान, तुर्क आज भी स्थानीय धर्मांतरितों को नीची निगाह से देखते हैं। स्वयं को अशराफ़ { शरीफ़ का बहुवचन } और उनको रज़ील, कमीन , कमज़ात, हक़ीर कहते हैं। रिश्ता-नाता तो बहुत दूर की बात है, ऐसी भनक भी लग जाये तो मार-काट हो जाती है मगर सामने इस्लामी एकता का ड्रामा किया जाता है। ये समाज अपने ही मज़हब के लोगों के लिए कैसी हीनभावना रखता है इसका अनुमान इन सामान्य व्यवहार होने वाली पंक्तियों से लगाया जा सकता है।
ग़लत को ते से लिख मारा जुलाहा फिर जुलाहा है
तरक़्क़ी ख़ाक अब उर्दू करेगी
जुलाहे शायरी करने लगे हैं
अपने मज़हब के लोगों के लिए घटिया सोच रखने वाला समूह इन दलित भाइयों का धर्मांतरण करने के लिये गिद्ध जैसी टकटकी बाँध कर नज़र गड़ाए हुए रहता है। वो हिंदू समाज के इन योद्धा-वर्ग के वंशजों को अब भी अपने पाले में लाना चाहता है। दलित समाज के राजनेताओं ने भी इस शिकंजे में फंस जाने को अपने हित का काम समझ लिया है। ऐसे राजनेता जिनका काम ही समाज के छोटे-छोटे खंड बाँट कर अपनी दुकान चलाना है, इस दूरी को बढ़ाने में लगे रहते हैं। जिस समाज के लोगों ने सब कुछ सहा मगर राम-कृष्ण, शंकर-पार्वती, भगवती दुर्गा को नहीं त्यागा अब उन्हीं के बीच के राजनैतिक लोग समाज के अपने हित के लिए टुकड़े-टुकड़े करने का प्रयास कर रहे हैं। लक्ष्य वही ग़ज़वा-ए-हिन्द है और तकनीक शेर के छोटे-छोटे हज़ार घाव देने की है। जिससे धीरे-धीरे ख़ून बहने से शेर की मौत हो जाये।
तुफ़ैल चतुर्वेदी

मुल्ला समूह के शिकंजे से मुसलमान समाज आजाद हो जायेगा, तभी संसार शांति से बैठ सकेगा

मुहम्मद जी ने इस्लाम फ़ैलाने के लिये जिन अद्भुत तकनीकों का इस्तेमाल किया है उनमें मृत्यु के बाद जन्नत में सैक्स का आश्वासन भी है। इस विषय पर लिख रहा हूँ। तब तक food for thought या पागल सृष्टि पर करुण दृष्टिपात के लिए एक पुराना लेख हाज़िर है……………
स्वयं और अन्य बहुत से मानवतावादी खिन्न हैं कि हमारे मुस्लिम भाई खुश नहीं हैं. मैं इनके लिए मनुष्यता में प्रबल विश्वास रखने के नाते दुखी हूँ और आंसुओं में डूबा हुआ हूँ। वो तो नगर के सौभाग्य से मेरी आँखों के ग्लैंड्स ख़राब हैं इसलिये आंसू अंदर-अंदर बह रहे हैं अन्यथा शहर में बाढ़ आ जाती।
वो मिस्र में दुखी हैं, वो लीबिया में दुखी हैं. वो मोरक़्क़ो में दुखी हैं. वो ईरान में दुखी हैं. वो ईराक़ में दुखी हैं. वो यमन में दुखी हैं. वो अफगानिस्तान में दुखी हैं. वो पाकिस्तान में दुखी हैं. वो बंग्लादेश में दुखी हैं, वो सीरिया में दुखी हैं. वो हर मुस्लिम देश में दुखी हैं. बस दुख ही उनकी नियति हो गया है. सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों के आंकड़े इस कारण उपलब्ध नहीं दे पा रहा हूँ कि वहां भयानक तानाशाही है. केवल पानी की लाइन की शिकायत करने सम्बंधित विभाग में 5 लोग चले जाएँ तो देश में विप्लव फ़ैलाने की आशंका में गिरफ्तार कर लिए जाते हैं.
आइये इसका कारण ढूँढा जाये और देखा जाये कि वो कहाँ सुखी हैं. वो ऑस्ट्रेलिया में खुश हैं. वो इंग्लैंड में खुश हैं. वो फ़्रांस में खुश हैं. वो भारत में खुश हैं. वो इटली में खुश हैं. वो जर्मनी में खुश हैं. वो स्वीडन में खुश हैं. वो अमरीका में खुश हैं. वो कैनेडा में खुश हैं. वो हर उस देश में खुश हैं जो इस्लामी नहीं है. विचार कीजिये कि अपने दुखी होने के लिए वो किसको आरोपित करते हैं ? स्वयं को नहीं, अपने नेतृत्व को नहीं, अपने जीवन दर्शन को नहीं को नहीं. वो उन देशों, जहाँ वो खुश हैं की व्यवस्थाओं, उनके प्रजातंत्र को आरोपित करते हैं और चाहते हैं कि इन सब देशों को अपनी व्यवस्था बदल लेनी चाहिए. वो इन देशों से चाहते हैं कि वो स्वयं को उन देशों जैसा बना लें जिन्हें ये छोड़ कर आये हैं
इसी अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए ये देखना रोचक रहेगा कि विश्व के भिन्न-भिन्न समाज एक दूसरे के साथ रहते हुए किस तरह की प्रतिक्रिया करते हैं. हिन्दू बौद्धों, मुसलमानों, ईसाइयों, शिन्तो मतानुयाइयों, कन्फ्यूशियस मतानुयाइयों, यहूदियों, अनीश्वरवादियों के साथ सामान्य रूप से शांति से रहते हैं. बौद्ध हिन्दुओं, मुसलमानों, ईसाइयों, शिन्तो मतानुयाइयों, कन्फ्यूशियस मतानुयाइयों, यहूदियों, अनीश्वरवादियों के साथ सामान्य रूप से शांति से रहते हैं. ईसाई मुसलमानों, बौद्धों, हिन्दुओं, शिन्तो मतानुयाइयों, कन्फ्यूशियस मतानुयाइयों, यहूदियों, अनीश्वरवादियों के साथ सामान्य रूप से शांति से रहते हैं. यहूदी ईसाइयों, मुसलमानों, बौद्धों, हिन्दुओं, शिन्तो मतानुयाइयों, कन्फ्यूशियस मतानुयाइयों, अनीश्वरवादियों के साथ सामान्य रूप से शांति से रहते हैं. इसी तरह शिन्तो मतानुयाइयों, कन्फ्यूशियस मतानुयाइयों, अनीश्वरवादियों को किसी के साथ शांतिपूर्ण जीवनयापन में कहीं कोई समस्या नहीं है.
आइये अब इस्लाम की स्थिति देखें. मुसलमान बौद्धों, हिन्दुओं, ईसाईयों, यहूदियों, शिन्तो मतानुयाइयों, कन्फ्यूशियस मतानुयाइयों, अनीश्वरवादियों के साथ कहीं शांति से नहीं रहते. यहाँ तक कि अपने ही मज़हब के तनिक भी भिन्नता रखने वाले किसी भी मुसलमान के साथ चैन से बैठने को तैयार नहीं हैं. अपने से तनिक भी अलग सोच रखने वाले मुसलमान एक दूसरे के लिए खबीस, मलऊन, काफिर, वाजिबुल-क़त्ल माने, कहे और बरते जाते हैं. एक दूसरे की मस्जिदों में जाना हराम है. एक दूसरे के इमामों के पीछे नमाज पढ़ना कुफ्र है. एक दूसरे से रोटी-बेटी के सम्बन्ध वर्जित हैं. सुन्नी शिया मुसलमानों को खटमल कहते हैं और उनके हाथ का पानी भी नहीं पीते. सुन्नी मानते हैं कि शिया उन्हें पानी थूक कर पिलाते हैं.
ये सामान्य तथ्यात्मक विश्लेषण तो यहीं समाप्त हो जाता है मगर अपने पीछे चौदह सौ वर्षों का हाहाकार, मज़हब के नाम पर सताए गए, मारे गए, धर्मपरिवर्तन के लिए विवश किये गए करोड़ों लोगों का आर्तनाद, आगजनी, वैमनस्य, आहें, कराहें, आंसुओं की भयानक महागाथा छोड़ जाता है. इस्लाम विश्व में किस तरह फैला इस विषय पर किन्हीं 4-5 इस्लामी इतिहासकारों की किताब देख लीजिये. काफिरों के सरों की मीनारें, खौलते तेल में उबाले जाते लोग, आरे से चिरवाये जाते काफ़िर, जीवित ही खाल उतार कर नमक-नौसादर लगा कर तड़पते काफ़िर, ग़ैर-मुस्लिमों के बच्चों-औरतों को ग़ुलाम बना कर बाज़ारों में बेचा जाना, काफ़िरों को मारने के बाद उनकी औरतों के साथ हत्यारों की ज़बरदस्ती शादियां, उनके मंदिर, चर्च, सिनेगॉग को ध्वस्त किया जाना......इनके भयानक वर्णनों को पढ़ कर आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे, ख़ून खौलने लगेगा
ये सब कुछ अतीत हो गया होता तो पछतावे के अतिरिक्त कुछ शेष न रहता. भोर की सुन्दर किरणें, चहचहाते पंछी, अंगड़ाई ले कर उठती धरा आते दिन का स्वागत करती और जीवन आगे बढ़ता. मगर विद्वानो ! ये घृणा, वैमनस्य, हत्याकांड, हाहाकार, पैशाचिक कृत्य अभी भी उसी तरह चल रहे हैं और इनकी जननी सर्वभक्षी विचारधारा अभी भी मज़हब के नाम पर पवित्र और अस्पर्शी है. कोई भी विचारधारा, वस्तु, व्यक्ति काल के परिप्रेक्ष्य में ही सही या गलत साबित होता है. इस्लाम की ताक़त ही ये है कि वो न केवल जीवन के सर्वोत्तम ढंग होने का मनमाना दावा करता है अपितु इस दावे को परखने भी नहीं देता. कोई परखना चाहे तो बहस की जगह उग्रता पर उतर आता है. उसकी ताकत उसका अपनी उद्दंड और कालबाह्य विचारधारा पर पक्का विश्वास है.
9-11 के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में घुस कर तालिबान को ढेर कर दिया. उसके अड्डे समाप्त कर दिए. उसके नेता मार दिए मगर क्या इससे अमेरिका और सभ्य विश्व सुरक्षित हो गया ? आज भी अमरीका के रक्षा बजट का बहुत मोटा हिस्सा इस्लामी आतंकवाद से सुरक्षा की योजनाएं बनाने में खर्च हो रहा है.
अमेरिका ने सीरिया और इराक में आई एस आई एस द्वारा स्थापित की गयी ख़िलाफ़त से निबटने के लिए सीमित बमबारी तो शुरू की है मगर पूरी प्रखरता के साथ स्वयं को युद्ध में झोंकने की जगह झरोखे में बैठ कर मुजरा लेने की मुद्रा में है. यानी अमेरिका ने अपनी भूमिका केवल हवाई हमले करने और ज़मीनी युद्ध स्थानीय बलों, कुर्दों के हवाले किये जाने की योजना बनाई है. यही चूक अमेरिका ने अफगानिस्तान में की थी. अब जिन लोगों को सशस्त्र करने की योजना है वो भी इसी कुफ्र और ईमान के दर्शन में विश्वास करने वाले लोग हैं. वो भी काफ़िरों को वाजिबुल-क़त्ल मानते हैं. इसकी क्या गारंटी है कि कल वो भी ऐसा नहीं करेंगे. ये बन्दर के हाथ से उस्तरा छीन कर भालू को उस्तरा थमाना हो सकता है और इतिहास बताता है कि हो सकता नहीं होगा ही होगा. आज नहीं कल इस युद्ध के लिए सम्पूर्ण विश्व को आसमान से धरती पर उतरना होगा. आज तो युद्ध उनके क्षेत्रों में लड़ा जा रहा है. कल ये युद्ध अपनी धरती पर लड़ना पड़ेगा. इस लिए इन विश्वासियों को लगातार वैचारिक चुनौती दे कर बदलाव के लिए तैयार करना और सशस्त्र संघर्ष से वैचारिक बदलाव के लिए बाध्य करना अनिवार्य है.
आई एस आई एस संसार का सबसे धनी आतंकवादी संगठन है. इसे सीरिया के खिलाफ प्रारंभिक ट्रेनिंग भी अमेरिका ने दी है. इसके पास अरबों-खरबों डॉलर हैं. हथियार भी आधुनिकतम अमरीकी हैं. इसके पोषण में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात द्वारा दिया जा रहा बेहिसाब धन भी है. ये देश भी इतना धन इसी लिए लगा रहे हैं चूँकि इन देशों को भी कुफ्र और ईमान के दर्शन पर अटूट विश्वास है. सभ्य विश्व को इस समस्या के मूल तक जाना होगा. इसके लिए आतंकवादियों के प्रेरणा स्रोतों की वामपंथियों, सेक्युलरों की मनमानी व्याख्या नहीं वरन उनकी अपनी व्याख्या देखनी होगी. कुफ्र के खिलाफ जिहाद और दारुल-हरब का दारुल-इस्लाम में परिवर्तन का दर्शन इन हत्याकांडों की जड़ है. इस मूल विषय, इसकी व्याख्या और इसके लिए की जा रही कार्यवाहियां वैचारिक उपक्रम को कार्य रूप में परिणत करने के उपकरण हैं. इनको विचारधारा के स्तर पर ही निबटना पड़ेगा. बातचीत की मेज पर बैठाने के लिए प्रभावी बल-प्रयोग की आवश्यकता निश्चित रूप से है और रहेगी मगर ये विचारधारा का संघर्ष है. ये कोई राजनैतिक या क्षेत्रीय लड़ाई नहीं है.
ये घात लगाये दबे पैर बढे आ रहे हत्यारे नहीं हैं. ये अपने वैचारिक कलुष, अपनी मानसिक कुरूपता को नगाड़े बजा कर उद्घाटित करते, प्रचारित करते बर्बर लोगों के समूह हैं. जब तक इनके दिमाग में जड़ें जमाये इस विचारधारा के बीज नष्ट नहीं कर दिए जायेंगे, तब तक संसार में शांति नहीं आ सकेगी. इसके लिए अनिवार्य रूप से इस विचार प्रणाली को प्रत्येक मनुष्य के समान अधिकार, स्त्रियों के बराबरी के अधिकार यानी सभ्यता के आधारभूत नियमों को मानना होगा. इन मूलभूत मान्यताओं का विरोध करने वाले समूहों को लगातार वैचारिक चुनौती देते रहनी होगी. न सुनने, मानने वालों का प्रभावशाली दमन करना होगा
इसके लिए इस्लाम पर शोध संस्थान, शोधपरक विचार-पत्र, जर्नल, शोधपरक टेलीविजन चैनल, चिंतन प्रणाली में बदलाव के तरीके की प्रभावशाली योजनायें बनानी होंगी. इस तरह के शोध संस्थान आज भी अमेरिका में चल रहे हैं, नए खुल रहे हैं मगर वो सब अरब के पेट्रो डॉलर से हो रहा है. ये संस्थान शुद्ध शोध करने की जगह इस्लाम की स्थानीय परिस्थिति के अनुरूप तात्कालिक व्याख्या करते हैं और परिस्थितियों के अपने पक्ष में हो जाने यानी जनसँख्या के मुस्लिम हो जाने का इंतज़ार करते हैं. ये तकनीक इस्लाम योरोप में इस्तेमाल कर रहा है. भारत में सफलतापूर्वक प्रयोग कर चुका है और हमारा आधे से अधिक भाग हड़प चुका है, शेष की योजना बनाने में लगा है.
जब मुसलमानों में से ही लोग सवाल उठाने लगेंगे और समाज पर दबाव बनाने के उपकरण मुल्ला समूह के शिकंजे से मुसलमान समाज आजाद हो जायेगा, तभी संसार शांति से बैठ सकेगा. कभी इसी संसार में मानव बलि में विश्वास करने वाले लोग थे मगर अब उनका अस्तित्व समाप्तप्राय है. मानव सभ्यता ने ऐसी सारी विचार-योजनाओं को त्यागा है, न मानने वालों को त्यागने पर बाध्य किया है, तभी सभ्यता का विकास हुआ है. सभ्य विश्व का नेतृत्व अब फिर इसकी योजना बनाने के लिए कृतसंकल्प होना चाहिए. कई 9-11 नहीं झेलने हैं तो स्वयं भी सन्नद्ध होइए और ऐसी हर विचारधारा को दबाइए. मनुष्यता के पक्ष में सोचने को बाध्य कीजिये. बदलने पर बाध्य कीजिये.
तुफैल चतुर्वेदी

क्यों 1997 के बाद से संस्थान का दीक्षांत समारोह नहीं हुआ है ?तीन साला पाठ्यक्रमों में वो दो से तीन गुना समय क्यों लगाते आये हैं ?


देखिए कि किस प्रकार पाँच दशकों तक FTII कम्युनिस्ट आपूर्ति केंद्र और राजवंश के चाटुकारों का आश्रय स्थल बना रहा। जानिए कि गजेन्द्र चौहान पहले कौन लोग इसे चलाते आये हैं , और मौजूदा हंगामे के पीछे कौन है ?
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MY TAKE -
FTII : चुके हुए खेमे के पिटे हुए क्षत्रपों का रुदन
-प्रशांत बाजपेई, पाञ्चजन्य, 26 जुलाई 2015

भारतीय फिल्म और दूरदर्शन संस्थान (एफटीआईआई ) में उसके 55 साल के इतिहास की 36 वीं हड़ताल जारी है। बयानों से रोज अखबार और टीवी स्क्रीन लाल हो रहे हैं। बुद्धिजीवी जगत भी दो धड़ों में बँटता नजर आ रहा है। वामपंथी खेमे की शह पर जारी इस हँगामे के असली किरदार परदे के पीछे हैं। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के छात्र विंग एआईएसए के बैनर पर प्रदर्शन हो रहे हैं।

इसी प्रकार 15 जून को एसएफआई (स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ़ इंडिया )ने बयान जारी किया है कि वो एफटीआईआई के 'भगवाकरण' के खिलाफ मजबूती से खड़ा है।संस्था के नए चेयरमैन गजेन्द्र चौहान पर हमला करते हुए कहा गया है कि वे इस पद के लिए अयोग्य है और उन्होंने लोकसभा चुनाव में मोदी जी के प्रचार अभियान में भाग लिया था।

चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले एफटीआईआई की छात्र राजनीति पर नज़र डालना जरूरी है। एफटीआईआई सरकार के वित्त पोषण पर पलने वाला ऐसा संस्थान है जिसके छात्रों पर आईआईटी के छात्रों से चार गुना (लगभग 13 लाख रुपए सालाना ) खर्च किया जाता है।

संसाधनो और सुविधाओं का अम्बार है।लेकिन यहाँ से पढ़कर निकलने वाले छात्रों पर सरकार के लिए एक तय समय तक कुछ काम करने की कोई बाध्यता नहीं है। तिस पर भी,चौहान की योग्यता पर सवाल उठाने वाले छात्र गुटों से ये सवाल पूछने वाला कोई नहीं है कि उनके तीन साला पाठ्यक्रमों में वो दो से तीन गुना समय क्यों लगाते आये हैं ? दस -दस सालों से पढ़ रहे इन 'होनहार' विद्यार्थियों पर करदाताओं का पैसा बरबाद क्यों किया जाए ?

क्यों 1997 के बाद से संस्थान का दीक्षांत समारोह नहीं हुआ है ?अधेड़ होते 'छात्रों ' से भरे इस परिसर में अनुशासन की स्थिति ये है कि 1997 के उस अंतिम दीक्षांत कार्यक्रम के मुख्य अतिथि अभिनेता दिलीप कुमार पर भद्दे शब्द उछाले गए। गत 22 जुलाई को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने कुछ तथ्य उजागर किये। इस जाँच के अनुसार जनता की जेब पर भारी इस संस्थान में 40 के लगभग पूर्व छात्र जमे हुए हैं।

बिना कोई पैसा चुकाए ये 'एलमनाइ ' सारी सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। परिसर में अनधिकृत रूप से रह रहे ये लोग अनुशासनहीनता को बढ़ावा दे रहे हैं और हड़ताल में भाग लेने के अलावा दूसरे छात्रों को संस्था प्रशासन के विरुद्ध भड़का रहे हैं। इनमें से ज्यादातर के कोर्स 2008 -2009 में समाप्त हो चुके हैं। अब ये अध्यनरत विद्यार्थियों के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं।

अनुशासनहीनता अब गुंडागर्दी में तब्दील हो रही है। हड़ताल के खिलाफ बोलने वाले अध्यापकों को हड़तालियों द्वारा धमकाकर छुट्टी पर जाने पर मजबूर किया जा रहा है। जामिया मिलिया इस्लामिया के प्राध्यापक और एफ टी आई आई के पूर्व छात्र डॉ दिवाकर के अनुसार ऐसी घटनाएं कोई नयी बात नहीं है। इन गतिविधियों का पढ़ाई लिखाई के ढर्रे पर क्या असर पड़ता है इसे बतलाते हुए दिवाकर कहते हैं कि "परिसर में सुविधाओं और संसाधनो की कोई कमी नहीं है लेकिन छात्र समय पर औपचारिकताएं पूरी नहीं करते। न ही किसी नियम या समय सीमा का पालन करते है।गजेन्द्र चौहान के खिलाफ हड़ताल भी एक और बहाना ही है।"

प्रोफ़ेसर दिवाकर की बात सच है। संस्थान के जन्म के समय से ही चेयरमैन की नियुक्ति केंद्र सरकार के हाथ रही है। ऐसे में चौहान की नियुक्ति को राजनैतिक बतलाने का क्या औचित्य है ? मजेदार बात है कि साढ़े पाँच दशकों में पहली बार 'राजनैतिक नियुक्ति ' का मुद्दा उछाला गया है। जो हड़ताली ये तर्क दे रहे हैं कि एफटीआईआई करदाताओं के पैसे से चलता है और इसलिए उन्हें अपनी मांगें थोपने और हड़ताल करके जनता के पैसे को बर्बाद करने का पूरा अधिकार है वो ये भूल जाते हैं कि उसी जनता ने इस सरकार को चुनाव जिताकर सत्ता पर बिठाया है।

सालों से ये संस्था फिल्म जगत में वामपंथी उत्पाद के निर्यात का केंद्र बनी हुई है। इतने वर्षों में किसी 'बुद्धिजीवी ' को इस पर आपत्ति नहीं हुई। होती भी कैसे, बुद्धिजीविता तो नेहरू काल से ही लाल गलियारे तक कैद रही है। लाल सलाम वालों की गुटबाज़ी भी इतनी जबरदस्त रही है कि एक तो प्रायः 'प्रमाणपत्र ' जारी करने के अधिकार वामपंथियों के हाथ में रहे हैं और दूसरा अलिखित नियम ये , कि गैर वामपंथी कभी न तो बुद्धिजीवी हो सकता है न कला पारखी। न तो साहित्यकार और न ही इतिहासकार। भारतीय फिल्म और दूरदर्शन संस्थान भी इसी भँवर में फँसा हुआ है।

एक और सवाल यह है कि योग्यता और अयोग्यता का पैमाना क्या है ?गजेन्द्र चौहान को काम का मौक़ा दिए बिना कैसे तय किया जा सकता है कि उनकी नियुक्ति गलत है ? मजे की बात है कि गजेन्द्र चौहान तो अभिनय की दुनिया से जुड़े व्यक्ति हैं जबकि फिल्म और टेलीविजन को समर्पित इस संस्थान में कई ऐसे चेयरमैन हो हो चुके है जिनका फिल्म या टेलीविजन से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। तब कोई योग्यता और अयोग्यता आड़े नहीं आई।

हाल ही में FTII के पूर्व प्रमुख और फिल्म निर्देशक मृणाल सेन तथा अभिनेता सौमित्र चटर्जी ने अभिनेता गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति का विरोध करते हुए कहा कि उन्होंने ये नाम कभी नहीं सुना और संस्था के प्रमुख को फिल्म निर्माण के हर पहलू की जानकारी होनी चाहिए। सवाल ये है कि जब ये स्वनामधन्य लोग गजेन्द्र चौहान को जानते ही नहीं हैं तो उन्होंने ये कैसे तय कर लिया कि उन्हें फिल्म निर्माण की जानकारी नहीं है ?

दूसरा, मृणाल सेन के ये पद छोड़ने के दो दशक बाद समाजवादी लेखक यू आर अनंतमूर्ति की नियुक्ति हुई। तब मृणाल सेन या सौमित्र चटर्जी ने उनके फिल्म निर्माण के अनुभव पर सवाल क्यों नहीं उठाया ? प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण भी फिल्म निर्माण का एक दिन का अनुभव लिए बिना इस पद पर रह चुके हैं।

अब एक दृष्टि इस ओर डालते हैं कि किस प्रकार एफटीआईआई एक विचारधारा विशेष को पालने-पोसने और निर्यात करने का गढ़ बना हुआ है। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में फिल्म जगत से जुड़े दर्जनो लोगों ने भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक अभियान चलाया था। इसके लिए देश के नाम बाकायदा एक चिट्ठी भी लिखी गयी थी।

इस चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में विशाल भारद्वाज , इम्तियाज़ अली, ज़ोया अख्तर , कबीर खान, नंदिता दास, अंजुम राजबाली, कमलेश पांडे, तुषार गाँधी , तीस्ता सीतलवाड़ , जावेद आनंद वगैरह के साथ दो नाम और थे -महेश भट्ट, जो पूरे मामले के सूत्रधार थे और सईद मिर्जा, जो उनके पिछलग्गू थे। । दोनों एफ टी आई आई के चेयरमैन रह चुके हैं। भट्ट नवम्बर 1995 से सितम्बर 1998 तक, और मिर्ज़ा मार्च 2011 से मार्च 2014 तक।

महेश भट्ट के पिता कांग्रेस के नेता थे। हिंदुत्व और हिंदू संगठनों को हर साँस में कोसने वाले महेश भट्ट ने विगत लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए वोट मांगते हुए 'कारवाँ ए बेदारी' नाम से अभियान चलाया था। 'कारवाँ ए बेदारी' अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से जुड़ी मिल्लत बेदारी मुहिम कमेटी की उपज है। "केवल कांग्रेस ही सेकुलरिज्म को बचा सकती है.." आप भट्ट को अक्सर कहते सुन सकते हैं।

मुंबई पर हुए 26/11 के जिहादी हमले के बाद अखबार उर्दू सहारा के एडिटर इन चीफ ने एक बेहद खुरापात से भरी किताब लिखी -'26/11 आरएसएस की साज़िश ,' किताब में इस भयंकर आतंकी हमले से पाकिस्तान, आईएसआई और जिहादी आतंकी तंजीमों को क्लीन चिट देते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी , भारत के सुरक्षा बलों तथा अमेरिकी एवं इजरायली खुफिया एजेंसियों क्रमशः सीआईए और मोसाद पर संयुक्त रूप से इस आतंकी हमले का दोष मढ़ा गया था।

किताब में ये भी दावा किया गया था कि इंडियन मुजाहिदीन वास्तव में बजरंग दल का छद्म नाम है तथा संघ और विश्व हिन्दू परिषद मुसलमानो को बदनाम करने के लिए कूट नामों से आतंकी हमले कर रहे हैं। इस किताब का लोकार्पण और वकालत करने वालों में कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह और महेश भट्ट अग्रगण्य थे। जब मामले ने तूल पकड़ा और किताब पर कानूनी कार्यवाही की बात आई तो लेखक ने माफी मांगते हुए किताब वापिस ले ली और प्रायोजकों ने पल्ला झाड़ लिया। ये पहला मामला नहीं था जब महेश भट्ट इस प्रकार की मनगढ़ंत बातों के आधार पर मज़हबी उन्माद भड़काते देखे गए थे।

निर्देशक, अभिनेता,लेखक और नाट्य लेखक गिरीश कर्नाड फरवरी 1999 से अक्टूबर 2001 तक एफटीआईआई के प्रमुख रहे। गिरीश कर्नाड अपने धुर हिंदुत्व विरोधी रुख के लिए जाने जाते हैं। हिन्दू संगठनो से उनका घोषित द्वेष है। जब महाराष्ट्र की नव निर्मित भाजपा -शिवसेना सरकार ने गौमाँस निषेध क़ानून बनाया तो देश में अनेक स्थानो पर वामपंथियों ने गौमाँस पार्टियों का आयोजन किया। 9 अप्रैल को बेंगलुरु में कम्युनिस्ट धड़ों द्वारा आयोजित ऐसी ही एक गौमाँस पार्टी में कर्नाड ने भी हिस्सा लिया। मौके पर उपस्थित मीडिया से बात करते हुए अपनी इस भड़काऊ हरकत को जायज ठहराते हुए उन्होंने गौमाँस निषेध क़ानून को ही 'भड़काने वाला ' वाला करार दे दिया।

छद्म सेकुलरिज्म के झंडाबरदार गिरीश कर्नाड ने नोबल पुरूस्कार विजेता वी एस नायपॉल को मुस्लिम द्वेषी घोषित कर डाला क्योंकि उन्होंने अपनी किताब में मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा हिन्दू संस्कृति पर आक्रमण का उल्लेख किया था।

जयपुर साहित्य महोत्सव में गिरीश कर्नाड कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर को 'दोयम दर्जे का नाटककार' और उनके नाटकों को 'असहनीय ' कहकर विवाद खड़ा कर चुके हैं। स्तंभ लेखक संदीप बालकृष्ण ने कन्नड़ दैनिक 'विजय वाणी' के हवाले से बताया कि गिरीश कर्नाड की इस हरकत का विरोध करने के लिए पांडिचेरी के नाट्य निर्देशक कुमार वालवान ने कर्नाड के ही लिखित नाटक 'ड्रीम्स ऑफ़ टीपू सुल्तान ' का उपयोग किया। कुमार ने अपने साथियों के साथ मिलकर इस नाटक का मंचन किया , लेकिन इसके अंत में थोड़ा फेरबदल कर दिया।

नाटक के अंतिम हिस्से में एक आतंकी मंच पर अवतरित होता है जो देश विरोधी बाते कहता जाता है। चूँकि कर्नाड के मूल नाटक में ऐसा कोई दृश्य नहीं है इसलिए अवाक दर्शक समझने की कोशिश में लगे रहते है कि अचानक आतंकी को मार दिया जाता है। फिर आतंकी के चेहरे से कपड़ा हटाया जाता है और नेपथ्य से आवाज आती है -" ये आतंकी नहीं है। ये गिरीश कर्नाड है।.… " गिरीश कर्नाड मर चुका है। " फिर से आवाज आती है -" ये कैसी दुगंध है ?"

मरे हुए आतंकी के शरीर पर कुछ हाथ घूमते हैं जो कुछ कागज़ के टुकड़े ढूंढ निकालते हैं। फिर एक और आवाज़ -"ये सब बकवास है " ...और कागज़ के टुकड़े फाड़कर फेंक दिए जाते हैं।इस प्रस्तुति से बौखलाए कर्नाड समर्थक जब हंगामा करने लगे तो निर्देशक ने मंच पर आकर कहा कि " यदि टैगोर को दोयम दर्जे का नाटककार कहना अभिव्यक्ति की आज़ादी है तो कर्नाड के नाटकों को बकवास कहना भी अभिव्यक्ति की आज़ादी है। "

लेखक यू आर अनंतमूर्ति मार्च 2005 मार्च 2011 तक एफटीआईआई के चेयरमैन रहे। अनंतमूर्ति आजीवन भाजपा-संघ तथा हिंदुत्व विरोधी रहे। 2004 में भाजपा उम्मीदवार के खिलाफ लोकसभा चुनाव भी लड़ा और पराजित हुए। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान अनंतमूर्ति ने बयान दिया कि यदि मोदी चुनाव जीत गए तो वे भारत छोड़ देंगे।

बाद में जब मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने चुनाव जीत लिया तो उन्होंने कहा कि उक्त बयान उन्होंने भावावेश में आकर दिया था।
फिल्मकार मृणाल सेन अप्रैल 1984 से सितम्बर 1986 तक एफटीआईआई के चेयरमैन रहे। छात्र जीवन मे सेन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया की 'कल्चरल शाखा ' के साथ जुड़े रहे। उनकी मार्क्सवादी सोच जगजाहिर है , जिसकी छाप उनकी फिल्मों पर भी दिखाई देती है। वर्ग संघर्ष मृणाल सेन का मुख्य विषय रहा है।

रोचक पहलू है कि बीते पांच दशकों में कभी भी एफटीआईआई के 'लाल' रंग पर बुद्धिजीवियों को कोई चिन्ता हुई हो ,ऐसा नहीं हुआ। न ही अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कोई 'हाथ' पड़ता दिखाई पड़ा। चिंता तो तब भी नही की गई जब इस कला संस्थान के पहले दो प्रमुख खालिस नौकरशाहों को बनाया गया। अब अचानक एक अभिनेता की नियुक्ति में 'भगवाकरण' की साज़िश, सरकारी दखल, बोलने की स्वतंत्रता पर ख़तरा सब दिखाई पड़ने लगा है।

परिसर के बाहर उठने वाले विरोधी स्वरों में प्रायः अपर्णा सेन, नंदिता दास और विशाल भारद्वाज जैसे फिल्मकार शामिल है जिनकी वैचारिक प्रतिबद्धताएं किसी से छिपी नहीं हैं। विशाल ने हैदर फिल्म के माध्यम से जम्मू कश्मीर पर जो विशाल झूठ दर्शकों के सामने परोसा है वो उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि को साफ़ -साफ़ रेखांकित कर देता है। वो अपनी एक फिल्म 'मटरू की बिजली का मंडोला ' में माओत्से तुंग को महिमामंडित कर चुके है। हाल ही में हड़तालियों द्वारा कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से समर्थन माँगा गया है। कांग्रेस अभी लोकसभा में हंगामा मचाने में व्यस्त है लेकिन आश्चर्य नहीं कि मुद्दों की तलाश में भटक रही कांग्रेस और उसके युवराज इस मुद्दे को लपक लें।

इन सभी बातों पर गौर करें तो साफ़ हो जाता है कि संस्थान की गुणवत्ता या नवनियुक्त चेयरमैन की योग्यता कोई मुद्दा नहीं है। कोशिश ये है कि सेंसर बोर्ड से लेकर भारतीय फिल्म और दूरदर्शन संस्थान तक एनडीए सरकार द्वारा नियुक्त किये गए सारे लोगों को अयोग्य करार दे दिया जाए। उन्हें 'संघ का एजेंट' और 'भगवा एजेंडे वाला' कहकर विवाद खड़े किये जाएं ताकि दशकों से विश्वविद्यालयों से लेकर कला अकादमियों तथा दूसरे संस्थानों में जमी हुई मार्क्सवादी/माओवादी /लेनिनवादी तलछट तथा वंशवादी चाटुकारों को बचाया जा सके।

विरोधियों को एक और बहुत बड़ा भय इस बात का भी है कि आज़ादी के बाद से ही बुद्धिजीविता, शिक्षा, साहित्य, कला , इतिहास आदि क्षेत्रों में जो वामपंथी/समाजवादी/मैकालेवादी प्रतिमान गढ़ दिए गए हैं, और इस वितंडावाद को आधार बनाकर इन क्षेत्रों में दूसरे विचारों और व्यक्तियों के प्रवेश के रास्ते में जो निषेध की दीवार खड़ी कर रखी है, ढह जाएगी। और एक बार ये दीवार ढह गई तो इसके साथ रसूख और एकाधिकार के लाल बुर्ज सदा के लिए विदा हो जाएँगे।

वैसे भी आज तक इन बुर्जो को सहेजने वाला सत्ता का 'हाथ' भी अब मौजूद नहीं है। जहाँ तक एफटीआईआई का प्रश्न है, फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल ने हड़तालियों से कहा है कि वे श्री चौहान से बात करें और तब किसी निष्कर्ष पर पहुंचे। चौहान भी छात्रों से कह रहे है कि उनका आकलन उनके काम के आधार पर करें, न कि पूर्वाग्रह के आधार पर। समय इस छाया युद्ध को समझने -समझाने का है। समय चूकने का नहीं है। सो, कहना ही होगा कि 'मत चूको चौहान।'

संस्कृत को बचायें संस्कृति बचेगी

मनुष्य की मेधा का अद्भुत उदाहरण, प्रखर पांडित्य का अनुपम कार्य, आनंद लीजिये
कांचीपुरम के 17वीं शती के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ ‘राघवयादवीयम्’ एक अद्भुत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। इसमें केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और विपरीत क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक। उदाहरण के लिए देखें :
अनुलोम :
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ 1 ॥
विलोम :
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ 1 ॥
अनुलोम :
साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ 2 ॥
विलोम :
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ 2 ॥
क्या ऐसा कुछ अंग्रेजी में रचा जा सकता है ??? ..... न जाने कैसे कैसे नमूनों ने इस देश पर राज किया जिनको संस्कृत एक विस्मृत करने योग्य भाषा नज़र आती थी।
संस्कृत को बचायें
संस्कृति बचेगी

आतंकवादीओ के खिलाफ मुसलमानो में रोष गुस्सा क्यों नहीं ?

मैं आज एक गंभीर पत्र अपने देशवासी मुसलमानों को विशेष रूप से और विश्व भर के मुसलमानों को सामान्य रूप से लिख रहा हूँ. संभव है मैं जिन मुसलमान बंधुओं से बात करना चाहता हूँ उन तक मेरा ये पत्र सीधे न पहुंचे अतः आप सभी से निवेदन करता हूँ कि कृपया मेरे पत्र या इसके आशय को मुस्लिम मित्रों तक पहुंचाइये। संसार आज एक भयानक मोड़ पर आ कर खड़ा हो गया है। भारत, पाकिस्तान, बांग्ला देश, इंडोनेशिया, कंपूचिया, थाई लैंड, मलेशिया, चीन, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, ईराक़, सीरिया, लीबिया, नाइजीरिया, अल्जीरिया, मिस्र, तुर्की, स्पेन, रूस, इटली, फ़्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी, डेनमार्क, हॉलैंड, यहाँ तक कि इस्लामी देशों से भौगोलिक रूप से कटे संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में भी आतंकवादी घटनाएँ हो रही हैं. विश्व इन अकारण आक्रमणों से बेचैन है। कहीं स्कूली छात्र-छात्राओं पर हमले, तो कहीं बाजार में आत्मघाती हमलावरों के बमविस्फोट, तो कहीं घात लगा कर लोगों की हत्याएं...संसार भर में ये भेड़िया-धसान मचा हुआ है। सभ्य संसार हतप्रभ है। हतप्रभ शब्द जान-बूझ कर प्रयोग कर रहा हूँ चूँकि पीड़ित समाज को इन आक्रमणों का पहली दृष्टि में कोई कारण नहीं दिखाई दे रहा मगर एक बात तय है कि सभ्य समाज इन हमलों के कारण क्रोध से खौलता जा रहा है. उसकी भृकुटियां तनती जा रही हैं।
मेरे देखे वो इसका कारण इस्लाम को मानने पर विवश हो रहा है। इन लोगों में हिन्दू, यहूदी, ईसाई, बौद्ध, शिन्तो मतानुयाई, कन्फ्यूशियस मतानुयाई, अनीश्वरवादी सभी तरह के लोग हैं। संसार भर में मुसलमानों के विरोध में एक अंतर्धारा बहने लगी है , आप यू ट्यूब, फ़ेसबुक, इंटरनेट के किसी भी माध्यम पर देखिये, पत्र-पत्रिकाओं में लेख पढ़िए, अमुस्लिम समाज में इस्लाम को ले कर एक बेचैनी हर जगह अनुभव की जा रही है। हो सकता है आप इसे न देख पा रहे हों या इसकी अवहेलना कर रहे हों मगर ये आज नहीं तो कल आपकी आँखों में आँखें डाल कर कड़े शब्दों में बात या जो भी उसके जी में आयेगा करेगी। यहाँ ये बात भी ध्यान देने की है कि इन सभी माध्यमों पर इक्का-दुक्का मुस्लिम समाज के लोग इस बेचैनी को सम्बोधित करने का प्रयास कर रहे हैं मगर लोग उनके तर्कों, बातों से सहमत होते नहीं दिखाई दे रहे।
मैं भारत और प्रकारांतर में विश्व का एक सभ्य नागरिक होने के कारण चाहता हूँ कि संसार में उत्पात न हो, वैमनस्य-घृणा समाप्त हो. इसके लिए मेरे मन में कुछ प्रश्न हैं. इस सार्वजनिक और खुले मंच का प्रयोग करते हुए मैं आपसे इन प्रश्नों का उत्तर और समाधान चाहता हूँ. विश्व शांति के लिए इस कोलाहल का शांत होना आवश्यक है और मुझे लगता है कि आप भी मेरी इस बात से सहमत होंगे।
जिन संगठनों ने विभिन्न देशों में आतंकवादी कार्यवाहियां की हैं उनमें से कुछ सबसे नृशंस हत्यारे समूहों के नाम प्रस्तुत हैं. मुस्लिम ब्रदरहुड, सलफ़ी, ज़िम्मा इस्लामिया, बोको हराम, जमात-उद-दावा, तालिबान, ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामी मूवमेंट, इख़वानुल मुस्लिमीन, लश्करे-तैय्यबा, जागृत मुस्लिम जनमत-बांग्ला देश, इस्लामी स्टेट, जमातुल-मुजाहिदीन, अल मुहाजिरो, दौला इस्लामिया...इत्यादि. इन हत्यारी जमातों में एक बात सामान्य है कि इनके नाम अरबी हैं या इनके नामों की शब्दावली की जड़ें इस्लामी हैं. ये संगठन ऐसे बहुत से देशों में काम करते हैं जहाँ अरबी नहीं बोली जाती तो फिर क्या कारण है कि इनके नाम अरबी के हैं ? ये प्रश्न बहुत गंभीर प्रश्न है कृपया इस पर विचार कीजिये. न केवल इस्लामी बंधु बल्कि सेक्युलर होने का दावा करने वाले सभी मनुष्यों को इस पर विचार करना चाहिए। इन सारे संगठनों के प्रमुख लोगों ने जो छद्म नाम रखे हैं वो सब इस्लामी इतिहास के हिंसक लड़ाके रहे हैं. उन सबके नाम हत्याकांडों के लिए कुख्यात रहे हैं. उन सब ने अपने विश्वास के अनुसार अमुस्लिम लोगों को मौत के घाट उतरा है, उनसे जज़िया वसूला है. कृपया मुझे बताएं कि ऐसा क्यों है ? क्या इस्लाम अन्य अमुस्लिम समाज के लिए शत्रुतापूर्ण है, यदि ऐसा नहीं है तो इन संगठनों के नामों का इस्लामी होना मात्र संयोग है ? कोई भी तर्कपूर्ण बुद्धि इस बात को स्वीकार नहीं कर पायेगी। कृपया इस पर प्रकाश डालें।
मैं एक ऐसे राष्ट्र का घटक हूँ स्वयं जिस पर ऐसे लाखों कुख्यात हत्यारों ने आक्रमण किये हैं। ये कोई एक दिन, एक माह, एक साल, एक दशक, एक सदी की बात नहीं है। मेरे घर में सात सौ बारह ईसवी में किये गए मुहम्मद बिन क़ासिम की मज़हबी गुंडागर्दी से ले कर आज तक लगातार उत्पात होते रहे हैं। मेरे समाज के करोड़ों लोगों का धर्मान्तरण होता रहा है। ये मेरे सामान्य जीवन-विश्वास के लिए कोई बड़ी घटना नहीं थी। मेरे ग्रंथों की अंतर्धारा "एकम सत्यम विप्रः बहुधा वदन्ति", "मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना" है. मैं मानता ही नहीं इस दर्शन को जीता भी हूँ। मेरे लिए ये कोई बात ही नहीं थी कि मेरी शरण में आने वाला यहूदी, पारसी, मुसलमान समाज अपने निजी विश्वासों को कैसे बरतता है। वो अपने रीति-रिवाजों का पालन कैसे करता है। उसने अपने चर्च, सिने गॉग, मस्जिदें कैसी और क्यों बनाई हैं. मेरे ही समाज के बंधु मार कर, सता कर, लालच दे कर अर्थात जैसे बना उस प्रकार से मुझसे अलग कर दिए गए। यदि आप इसे मेरी अतिशयोक्ति मानें तो कृपया इस तथ्य को देखें कि ऐसे हत्याकांडों के कारण ही हिन्दू समाज की लड़ाकू भुजा सिख पंथ बनाया गया। गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान, गुरु गोविन्द सिंह जी के चारों साहबजादों की हत्याओं को किस दृष्टि से देखा जा सकता है ?
मगर एक अजीब बल्कि किसी भी राष्ट्र के लिए असह्य बात, ये देखने में आई कि राष्ट्र पर हमला करने वाले इन आक्रमणकारियों के प्रति मेरे ही इन मतांतरित हिस्सों ने कभी रोष नहीं दिखाया। इनकी कभी निंदा नहीं की, बल्कि इन्हीं मतांतरित बंधुओं ने इन हमलावरों के प्रति प्यार और आदर दिखाया। इन आक्रमणकारियों ने जिनके पूर्वजों की हत्याएं की थी, उनकी पूर्वज स्त्रियों के साथ भयानक अनाचार किये थे, उन्हें हर कथनीय-अकथनीय ढंग से सताया था, उनके लिए मेरे ही राष्ट्र बंधुओं में आस्था कैसे प्रकट हो गयी ? इन हमलावरों के नाम पर देश के मार्गों, भवनों के नाम का आग्रह इन मतांतरित बंधुओं ने क्यों किया ? मेरे ही हिस्से मज़हब का बदलाव करते ही अपने मूल राष्ट्र के शत्रु कैसे और क्यों बन गए ? क्या इसका कारण इस्लामी ग्रंथों में है ? क्या इस्लाम राष्ट्र-वाद का विरोधी है ?
मैं सारे देश भर में घूमता रहता हूं. मुझे सड़कों के किनारे तहमद-कुरता या कुरता-पजामा पहने , गठरियाँ सर पर उठाये लोगों के चलते हुए समूह ने कई बार आकर्षित किया है. ये लोग अपने पहनावे के कारण स्थानीय लोगों में अलग से पहचाने जाते हैं. मेरी जिज्ञासा ने मुझे ये पूछने पर बाध्य किया कि ये लोग कौन हैं ? कहाँ से आते हैं ? इनके दैनिक ख़र्चे कैसे पूरे होते हैं ? उत्तर ने मुझे हिला कर रख दिया. मालूम पड़ा कि ये लोग अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नदवा तुल उलूम-लखनऊ, देवबंद के मदरसे जैसे संस्थानों के अध्यापक और छात्र होते हैं. मेरी दृष्टि में अध्यापकों और छात्रों का काम पढ़ाना और पढ़ना होता है. पहले मैं ये समझ ही नहीं पाया कि ये लोग अपने विद्यालय छोड़ कर दर-दर टक्करें मारते क्यों फिर रहे हैं ? अधिक कुरेदने पर पता चला कि ये कार्य तो सदियों से होता आ रहा है और यही लोग मतांतरित व्यक्ति को अधिक कट्टर मुसलमान बनाने का कार्य करते हैं। यानी मेरे राष्ट्र के मतांतरित लोगों में जो अराष्ट्रीय परिवर्तन आया है उसके लिए ये लोग भी जिम्मेदार हैं. इन्हीं लोगों के कुकृत्यों पर नज़र न रखने का परिणाम देश में इस्लामी जनसँख्या का बढ़ते जाना और फिर उसका परिणाम देश का विभाजन हुआ. इन तथ्यों से भी पता चलता है कि इस्लाम राष्ट्रवाद का विरोधी है।
ये कुछ अलग सी बात नहीं साम्यवाद भी राष्ट्रवाद का विरोधी है मगर कभी भी एक देश के साम्यवादी उस देश के शासन और राष्ट्र के ख़िलाफ़ किसी दूसरे देश के कम्युनिस्ट शासन के बड़े पैमाने पर पक्षधर नहीं हुए हैं. मैं इस बात को सहज रूप से स्वीकार कर लेता मगर मेरी समझ में एक बात नहीं आती कि अरब की भूमि और उससे लगते हुए अफ्रीका में कई घोषित इस्लामी राष्ट्र हैं. इनमें अरबी या उससे निसृत कोई बोली बोली जाती है तो ये देश एक देश क्यों नहीं हो जाते ? इस्लामी बंधुता अथवा उम्मा की भावना क्या केवल अरब मूल के बाहर के लोगों के लिए ही है ? सऊदी अरब, क़तर, संयुक्त अरब अमीरात इत्यादि देश आर्थिक रूप से बहुत संपन्न देश हैं. ये देश भारत, पाकिस्तान, बांग्ला देश में मस्जिदें, मदरसे बनाने के लिए अकूत धन भेजते रहे हैं मगर क्या कारण है कि सूडान के भूख-प्यास से मरते हुए मुसलमानों के लिए ये कुछ नहीं करते ? क्या इस्लामी बंधुता अरब मूल से बाहर के लोगों को अरबी लोगों की मानसिक दासता स्वीकार करने का उपकरण है ? यहाँ एक चलता हुआ प्रश्न पूछने से स्वयं को नहीं रोक पा रहा हूं. मैंने मुरादाबाद के एक इस्लामी एकत्रीकरण जिसे आप इज्तमा कहते हैं, में ये शेर सुना था
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे
मारे गर्मी के आवें पसीने मुझे
मेरी जानकारी में मदीना रेगिस्तान में स्थित है और वहां बर्फ़ नहीं पड़ती. भारत से कहीं अधिक गर्म स्थान में जाने की इच्छा मेरी बात '' इस्लामी बंधुता अरब मूल से बाहर के लोगों को अरबी लोगों की मानसिक दासता स्वीकार करने का उपकरण है '' की पुष्टि करती है. लाखों हिन्दू भारत से बाहर रहते हैं. उनमें गंगा स्नान, बद्रीनाथ, केदारनाथ, पुरी इत्यादि तीर्थों के दर्शन की इच्छा होती है मगर मैंने कभी नहीं सुना कि वो टेम्स, कलामथ, कोलोराडो या उन देशों की नदियों पर लानतें भेजते हुए गंगा में डुबकी लगाने के लिए भागे चले आने की बातें कहते हों.
मैं एक शायर हूँ और लगभग चौंतीस-पैंतीस साल से मुशायरों में जाता हूँ ईराक युद्ध के समय मैं बहुत से मुशायरों में शायर के नाते जाता था. वहां मुझे सद्दाम हुसैन के पक्ष में शेर सुनने को मिलते थे और श्रोता समूह उनके पक्ष में खड़ा हो कर तालियां पीटता था. एक शेर जो मूर्खता की चरम सीमा तक हास्यास्पद होने के कारण मुझे अभी तक याद है आपको भी सुनाता हूं
ये करिश्मा भी अजब मजहबे-इस्लाम का है
इस बरस जो भी हुआ पैदा वो सद्दाम का है
इस शेर पर हज़ारों लोगों की भीड़ को मैंने तालियां पीटते, जोश में आ कर नारा-ए-तकबीर बोलते सुना है. मैं ये कभी समझ नहीं पाया कि अपनी संतान का पिता सद्दाम हुसैन को मानना यानी अपनी पत्नी को व्यभिचारी मानना किसी को कैसे अच्छा लग सकता है ? मगर ये स्थिति कई मुशायरों में एक से बढ़ कर एक पाई तो समझ में आया कि वाकई ये करिश्मा इस्लाम का ही है। एक अरबी मूल के व्यक्ति के पक्ष में, जिसको कभी देखा नहीं, जिसकी भाषा नहीं आती, जिसके बारे में ये तक नहीं पता कि वो बाथ पार्टी का यानी कम्युनिस्ट था, केवल इस कारण कि वो एक अमुस्लिम देश अमरीका के नेतृत्व की सेना से लड़ रहा है, समर्थन की हिलोर पैदा हो जाने का और कोई कारण समझ नहीं आता। यहाँ ये बात देखने की है कि इस संघर्ष का प्रारम्भ सद्दाम हुसैन द्वारा एक मुस्लिम देश क़ुवैत पर हमला करने और उस पर क़ब्ज़ा करने से हुआ था. ईराक़ और क़ुवैत के लिए ये लड़ाई इस्लामी नहीं थी मगर भारत, पाकिस्तान, बंगला देश के मुसलमानों के लिए थी. इसे अरब मूल के पक्ष में अन्य मुस्लिम समाज की मानसिक दासता न मानें तो क्या मानें ? इसका कारण इस्लाम को न माने तो किसे मानें ?
इन तथ्यों की निष्पत्ति ये है कि इस्लाम अपने धर्मान्तरित लोगों से उनकी सबसे बड़ी थाती सोचने की स्वतंत्रता छीन लेता है। धर्मान्तरित मुसलमान अपने पूर्वजों, अपनी धरती के प्रति आस्था, अपने लोगों के प्रति प्यार, अपने इतिहास के प्रति लगाव से इस हद तक दूर चला जाता है कि वो अपने अतीत, अपने मूल समाज से घृणा करने लगता है ? उसमें ये परिवर्तन इस हद तक आ जाता है कि वो अरब के लोगों से भी स्वयं को अधिक कट्टर मुसलमान दिखने की प्रतिस्पर्धा में लग जाता है। सर सलमान रुशदी की किताब के विरोध में किसी अरब देश में हंगामा नहीं हुआ। फ़तवा ईरान के ख़ुमैनी ने बाद में दिया था मगर हंगामा भारत, बंगला देश, पाकिस्तान में पहले हुआ। ऐसा क्यों है कि एक किताब का, बिना उसे पढ़े इतना उद्दंड विरोध करने में अरब मूल से इतर के लोग आगे बढे रहे ? क्या इसकी जड़ें अपने उन पड़ौसियों, साथियों, को जो मुसलमान नहीं हैं, का इस्लाम के आतंक और उद्दंडता से परिचित करने में हैं ? अगर आप उसे ठीक नहीं मानते थे तो क्या इसका शांतिपूर्ण विरोध नहीं किया जाना चाहिए था ? सभ्य समाज में पुस्तक का विरोध दूसरी पुस्तक लिख कर सत्य से अवगत करना होता है मगर ऐसा क्यों है कि सभ्य समाज के तरीक़ों का प्रयोग मुस्लिम समाज नहीं करता ? जन-प्रचलित भाषा में पूछूं तो इसे ऐसा कहना उचित होगा कि मुसलमानों का एक्सिलिरेटर हमेशा बढ़ा क्यों रहता है ?
क्या इस्लाम तर्क, तथ्य, ज्ञान की सभ्य समाज में प्रचलित भाषा-शैली का प्रयोग नहीं करता या नहीं कर सकता ? ऐसा क्यों है कि इस्लामी विश्व, शालीन समाज के तौर-तरीक़ों से विलग है ? किसी भी इस्लामी राष्ट्र में संगीत, काव्य, कला, फिल्म इत्यादि ललित कलाओं के किसी भी भद्र स्वरुप का अभाव है. इस्लामी राष्ट्रों में संयोग से अगर ऐसा कुछ है भी तो उसके ख़िलाफ़ इस्लामी फ़तवे, उद्दंडता का प्रदर्शन होता रहता है ? विभिन्न दबावों के कारण अगर ये साधन नहीं होंगे तो समाज उल्लास-प्रिय होने की जगह उद्दंड हत्यारों का समूह नहीं बन जायेगा ? यहाँ ये पूछना उपयुक्त होगा कि बलात्कार जैसे घृणित अपराधों में सारे विश्व में मुसलमान सामान्य रूप से अधिक क्यों पाये जाते हैं ? उनके नेतृत्व करने वाले सामान्य ज्ञान से भी कोरे क्यों होते हैं ? क्या ये परिस्थितयां ऐसे हिंसक समूह उपजाने के लिए खाद-पानी का काम नहीं करतीं ?
ऐसा क्यों है कि इस्लाम सारे संसार को अपना शत्रु बनाने पर तुला है ? यहूदियों के ऐतिहासिक शत्रु ईसाइयों को ग़ाज़ा में इज़रायल के बढ़ते टैंक अपनी विजय क्यों प्रतीत होते हैं ? क्या इसका कारण आचार्य चाणक्य का सूत्र " शत्रु का शत्रु स्वाभाविक मित्र होता है " तो नहीं है ? ईसाइयों ने यहूदियों से शत्रुता हज़ारों साल निभायी, निकाली मगर इस्लाम के विरोध में वो एक साथ क्यों हैं ?
सामान्य भारतीय मुसलमान इस्लाम के बताये ढंग से नहीं जीता। मुहम्मद जी के किये को सुन्नत ज़रूर मानता है मगर उसे अपने जीवन में नहीं उतारता. इस्लाम ऐसे अनेकों काम पिक्चर देखना, दाढ़ी काटना, संगीत सुनना, शायरी करना इत्यादि के विरोध में है मगर आप इन विषयों में उसकी एक नहीं मानते तो इन राष्ट्र विरोधी कामों के विरोध में क्यों नहीं खड़े होते ? जितने हंगामों की चर्चा मैंने पहले की है उनमें सारा भारतीय मुसलमान सम्मिलित नहीं था मगर वो इन बेहूदगियों का विरोध करने की जगह चुप रहा है।
देश में फैले लाखों मदरसों और लाखों मुल्लाओं के प्रचार के बावजूद ईराक़ जाने वाले 20 लोग नहीं मिले जबकि संसार के अन्य देशों से ढेरों लोग सीरिया और ईराक़ गए हैं. अभी तक मुल्ला वर्ग अपने पूरे प्रयासों के बाद भी अपनी दृष्टि में आपको पूरी तरह से असली मुसलमान यानी तालिबानी नहीं बना पाया है. आपने उनकी बातों की लम्बे समय से अवहेलना की है मगर अब पानी गले तक आ गया है। आपको उनके कहे-किये-सोचे के कारण उन बातों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, आप जिनके पक्ष में नहीं हैं। आपको आपकी इच्छा के विपरीत ये समूह अराष्ट्रीय बनाने पर तुला है. आपको अब्दुल हमीद की जगह मुहम्मद अली जिनाह बनाना चाहता है। मैं समझता हूं कि आपको संभवतः मुल्ला पार्टी का दबाव महसूस होता होगा। देश बंधुओ इनका विरोध कीजिये. आपके साथ पूरा राष्ट्र खड़ा है और होगा। भारत में प्रजातान्त्रिक क़ानून चलते हैं. यहाँ फ़तवों की स्थिति कूड़ेदान में पड़े काग़ज़ बल्कि टॉयलेट पेपर जितनी ही है और होनी चाहिए। भारत एक सौ पच्चीस करोड़ लोगों का राष्ट्र है. यहाँ का इस्लाम भी अरबी इस्लाम से उसी तरह भिन्न है जैसे ईरान का इस्लाम अरबी इस्लाम से अलग है। यही भारतीय राष्ट्र की शक्ति है। आप महान भारतीय पूर्वजों की वैसे ही संतान हैं जैसे मैं हूं। ये राष्ट्र उतना ही आपका है जितना मेरा है। आप भी वैसे ही ऋषियों के वंशज हैं जैसे मैं हूं। आपको राष्ट्र-विरोधी बनाने पर तुले इन मुल्लाओं को दफ़ा कीजिये, इन से दूर रहिये और इन पर लानत भेजिए. आइये अपनी जड़ों को पुष्ट करें
तुफ़ैल चतुर्वेदी