रविवार, मार्च 31, 2013

ग्रामोफोन पर गूंजा प्रथम वाक्य 'वेद' था।

Shivam Shukla
ग्रामोफोन पर गूंजा प्रथम वाक्य 'वेद' था।
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ग्रामोफोन का आविष्कार 19 वीँ सदी मेँ थॉमस अल्वा एडिसन ने किया था। इलेक्ट्रिक बल्ब और मोशन पिक्चर कैमरा जैसे कई अन्य आविष्कार करने वाले एडिसन चाहते थे कि सबसे पहले ग्रामोफोन पर किसी प्रतिष्ठित विद्वान की आवाज रिकॉर्ड की जाये इसके लिये उन्होँने जर्मनी के प्रो. मैक्स मूलर को चुना जो 19 वीँ सदी की एक महान हस्ती थे उन्होँने एडिसन से कहा कि एक समारोह मेँ यूरोप के कई विद्वान इकट्ठा हो रहे हैँ, उसी दौरान ये कार्य ठीक रहेगा। इसके मुताबिक एडिसन इंग्लैँड यूरोप पहुँच गये समारोह मेँ हजारोँ लोगोँ के सामने उनका परिचय कराया गया। सभी लोगोँ ने एडिसन का करतल ध्वनि से स्वागत किया। बाद मेँ एडिसन की गुजारिश पर मूलर स्टेज पर आये और उन्होँने ग्रामोफोन के रिकार्डिँग पीस पर कुछ शब्द बोले, इसके बाद एडिसन ने डिस्क को चालू किया और ग्रामोफोन से निकलती आवाज को सभी दर्शकोँ को सुनाया सभी लोग रोमांचित हो उठे लोगो ने इस अनूठे आविष्कार के लिये एडिसन की जमकर प्रशंसा की।

इसके बाद मैक्स मूलर दुबारा स्टेज पर आये और दर्शकोँ से बोले -"मैँने ग्रामोफोन पर जो कुछ भी रिकॉर्ड किया क्या वो आप लोगोँ को समझ मे आया?"

श्रोताओँ मैँ सन्नाटा छा गया, क्योँकि मूलर जो बोले थे वो किसी को भी समझ मेँ नहीँ आया था फिर मैक्स मूलर ने उन्हेँ बताया कि-
"वे संस्कृत मेँ बोले थे यह ऋग्वेद का पहला श्लोक सूक्त था जो कहता है 'अग्निमीले पुरोहितं' यह ग्रामोफोन डिस्ट प्लेट पर रिकॉर्डेड पहला वाक्य था"
आखिर मूलर ने रिकॉर्ड करने के लिये यही वाक्य क्योँ चुना मैक्स मूलर ने इसके बारे मेँ कहा-"वेद इंसानो द्वारा रचित सबसे पहले ग्रंथ हैँ और यह वाक्य ऋग्वेद का पहला सूक्त है अति प्राचीन समय मेँ जब इंसान अपने तन को ढंकना भी नहीँ जानता था, शिकार पर जीवन-यापन करता था व गुफाओँ मेँ रहता था, तब हिन्दुओँ ने उच्च शहरी सभ्यता प्राप्त कर ली थी और उन्होँने दुनिया को वेदोँ के रूप मेँ एक सार्वभौमिक दर्शन प्रदान किया इसीलिये मैँने ये वाक्य इस मशीन पर रिकॉर्ड करने के लिये चुना"
हमारे देश मेँ ऐसी वैभवशाली विरासत है। जब इस वाक्य को फिर से रिप्ले किया गया तो वहाँ मौजूद तमाम लोग इस प्राचीन ग्रंथ के सम्मान मेँ खड़े हो गये।

शुक्रवार, मार्च 29, 2013

“La illaha ill allah” means “There is no other God but one.” which is right but mohammad misunderstood this how....read this By Arya Jasdev

Muhammad sunk himself to solve the mystery of God. At that time he received the message: 
“La illaha ill allah” means “There is no other God but one.” 
 
 In this message, God said to Muhammad:
 
 
“Oh Muhammad, let the people pray wherever they pray; whether they pray in church or Jewish or  in Hindu temple. Oh Muhammad, let the people pray to whomever they pray; don’t worry if they pray to the moon, sun or the wind or to any book or any statue. Muhammad, let the people pray however they pray; whether they pray in Hebrew, Arabic, English or Hindi; whether they pray in light or in the dark. All the prayers come to me because there is no other God, but one and only one: Me.”
 
 
Muhammad had no wisdom to understand the words of God, that is why he produced a new religion and a new nation to fight with others. Take the example of the ocean. God is like an ocean; there is only one ocean all around Earth; geographically we divide it into seven oceans. Still it is one water all around Earth. There are many rivers on Earth, and every river comes to its end in the ocean. All rivers mix in the same ocean. The ocean welcomes the water that comes from any river. The ocean accepts rivers from west to east. The ocean never says ‘I do not like rivers coming from the west’. The ocean welcomes every river with the same love; all rivers are equal for the ocean. It is the same with God; for God, it is not an issue if you pray in the mosque, church or temple; for God it is not an issue if you pray in front of any book or in front of any statue; or in what position you pray; whether you are standing, kneeling or sitting on a chair. The only thing that matters is what you are praying about, and what you ask in your prayers, and if you are praying from your heart or if you are praying to show off to others. 
 
 
I would like to write another example.
 
 
People eat different kind of foods in different parts of the world, but all eat for the same reason; the reason to live. People in China eat differently to what people in Italy eat.
Arabian food is different from Mexican food, but still all people eat for the same reason.
 
 
Just imagine if Chinese people started to believe all those who do not eat Chinese food are foolish, and we are wise because we eat Chinese food. I do not know what Muslims will think about them, some might start eating Chinese food, but wise men will laugh at them, because they do not know the truth.
 
 
Prayers are food for your soul and different people pray in different ways; still all pray for the same reasons. You do not eat food because food wishes to be eaten by you. You eat because you need food to live. The same way, you do not pray because it is favour on God. You pray because your soul needs strength to stand against evil and by praying, you receive wisdom, and your soul becomes connected to God, and God accepts all the prayers. God never says I do not accept those who pray in temples or in churches, God accepts all the prayers from all mankind. 
 
 
 Muhammad was the man who said my food is better than others food so all should eat my food, and he slaughtered people who did not agree with him. Muslims accept Muhammad as a prophet, and at the same time they believe God is all-wise. If you believe God is all-wise then Muhammad can never be His messenger.
 
 
There is no other God, but one; a simple message, which Muhammad misunderstood, and explained to people, “There are so many gods, but you should only pray to my one, and his name is Allah.” Muhammad and his followers fought with those who did not believe in Muhammad and his Islamic Allah. Muhammad was a blind leader of the blind, and if the blind lead the blind, both will fall into ditch.

“La illaha ill allah” means “There is no other God but one.” which is right but mohammad misunderstood this how....read this

When Ambedkar Almost Became A Sikh, Finaly Embraced Buddhism Instead.

यह लेख फारवार्ड प्रेस के अक्टूबर अंक में छपा है। इस लेख से एक बात तो साफ होती है कि अंबेडकर भारतीय धर्मों में ही कोई ऐसी जगह तलाश रहे थे, जहां अछूतों के लिए भी बराबरी की जगह हो। ईसाइयत और इस्‍लाम से अलग भारतीय परंपरा में सिक्‍ख पन्थ की ओर उनके कदम बढ़े, लेकिन अंतत: बौद्ध सम्प्रदाय उन्‍हें सबसे सटीक लगा। इस लेख में उनकी धार्मिक खोज के एक प्रसंग का उल्‍लेख किया गया है l

1936 के आसपास, सिक्ख पन्थ के प्रति अंबेडकर का आकर्षण हमें पहली बार दिखलाई देता है। यह आकर्षण अकारण नहीं था। सिक्ख पन्थ भारतीय था और समानता में विश्वास रखता था, पूर्वज भी हिन्दू थे और अंबेडकर के लिए ये तीनो बातें महत्वपूर्ण थीं। अंबेडकर को इस बात का एहसास था कि हिंदू धर्म के “काफी नजदीक” होने के कारण, सिक्ख धर्म अपनाने से उन हिंदुओं में भी अलगाव का भाव पैदा नहीं होगा, जो कि यह मानते हैं कि धर्मपरिवर्तन से विदेशी धर्मों की ताकत बढ़ेगी।

सन 1936 में अंबेडकर, हिंदू महासभा के अखिल भारतीय अध्यक्ष डाक्टर मुंजे से मिले और उन्हें इस संबंध में अपना एक विचारों पर आधारित एक वक्तव्य सौंपा। बाद में यह वक्तव्य, एम आर जयकर, एम सी राजा व अन्यों को भी सौंपा गया। यह दिलचस्प है कि जहां डाक्टर मुंजे ने कुछ शर्तों के साथ अपनी सहमति दे दी, वहीं गांधी ने सिक्ख पन्थ अपनाने के इरादे की कड़े शब्दों में निंदा की।

अप्रैल 1936 में अंबेडकर अमृतसर पहुंचे, जहां उन्होंने सिक्ख मिशन द्वारा अमृतसर में आयोजित सम्मेलन में भाग लिया। उन्होंने कई भीड़ भरी सभाओं को संबोधित किया। उन्होंने सम्मेलन में कहा कि हिंदू धर्म त्यागने का निर्णय तो ले लिया है, परंतु अभी यह तय नहीं किया है कि वे कौन सा धर्म अपनाएगें। इस सम्मेलन में उनका भाग लेना, “जात-पात तोड़क मंडल” को नागवार गुजरा।

मंडल ने उन्हें लाहौर में आयोजित अपने सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था, परंतु आयोजक चाहते थे कि वे अपने भाषण से वेदों की निंदा करने वाले कुछ हिस्से हटा दें। अंबेडकर ने ऐसा करने से इंकार कर दिया और भाषण को “जाति का विनाश” शीर्षक से स्वयं ही प्रकाशित करवा दिया। इस भाषण में, एक स्थान पर वे कहते हैं, “सिक्खों के गुरु नानक के नेतृत्व में, धार्मिक व सामाजिक क्रांति हुई थी।” महाराष्ट्र के “सुधारवादी” भक्ति आंदोलन के विपरीत वे सिक्ख धर्म को क्रांतिकारी मानते थे। अंबेडकर का तर्क यह था कि सामाजिक व राजनीतिक क्रांति से पहले, मस्तिष्क की मुक्ति, दिमागी आजादी जरूरी हैः “राजनीतिक क्रांति हमेशा सामाजिक व धार्मिक क्रांति के बाद ही आती है”।

उस समय, सिक्ख पन्थ को चुनने के पीछे के कारण बताने वाला उनका वक्तव्य दिलचस्प है। “शुद्धतः हिंदुओं के दृष्टिकोण से अगर देखें तो ईसाइयत, इस्लाम व सिक्ख सम्प्रदाय में से सर्वश्रेष्ठ कौन सा है? स्पष्टतः सिक्ख पन्थ ।

अगर दमित वर्ग, मुसलमान या ईसाई बनते हैं तो वे न केवल हिंदू धर्म छोड़ेंगे बल्कि हिंदू संस्कृति को भी त्यागेंगे। दूसरी ओर, अगर वे सिक्ख धर्म का वरण करते हैं तो कम से कम हिंदू संस्कृति में तो वे बने रहेंगे। यह हिंदुओं के लिए अपने-आप में बड़ा लाभ है। इस्लाम या ईसाई धर्म कुबूल करने से, दमित वर्गों का अराष्ट्रीयकरण हो जावेगा। अगर वो इस्लाम अपनाते हैं तो मुसलमानों की संख्या दोगुनी हो जाएगी और देश में मुसलमानों का प्रभुत्व कायम होने का खतरा उत्पन्न हो जावेगा। दूसरी ओर, अगर वे ईसाई धर्म को अपनाएंगे तो उसके ब्रिटेन की भारत पर पकड़ और मजबूत होगी।”

उस दौर में बहस का एक विषय यह भी था कि क्या सिक्ख (या कोई और) पन्थ-सम्प्रदाय अपनाने वालों को पूना पैक्ट या अन्य कानूनों के तहत अनुसूचित जाति के रूप में उन्हें मिलने वाले अधिकार मिलेंगे। मुंजे का कहना था कि सिक्ख पन्थ अपनाने वालों को ये अधिकार मिलते रहेंगे।

अंततः, 18 सितंबर 1936 को अंबेडकर ने अपने अनुयायियों के एक समूह को सिक्ख पन्थ का अध्ययन करने के लिए अमृतसर के सिक्ख मिशन में भेजा। वे लोग अंबेडकर की भांति बुद्धिमान तो थे नही, तो वहां अपने जोरदार स्वागत से इतने अभिभूत हो गये कि – अपने मूल उद्देश्य को भुलाकर – सिक्ख पन्थ अपना लिया। उसके बाद उनके क्या हाल बने, यह कोई नहीं जानता, अधिकाँश को तो बाद में दलित सिक्खों की ही कई जातियों में विभाजित कर दिया गया l बहुत से दलित सिक्खों को गुरु ग्रन्थ साहिब कंठस्थ होने के बावजूद जीवन में उन्हें कभी ग्रंथी या जत्थेदार नहीं बनाया गया l उनके गुरुद्वारों को धन आदि से भी सहायता में हाशिये पर ही रखा जाने लगा l

सन 1939 में बैसाखी के दिन, अंबेडकर ने अपने अनुयायियों के साथ अमृतसर में अखिल भारतीय सिक्ख मिशन सम्मलेन में हिस्सेदारी की। वे सब पगड़ियां बांधे हुए थे। अंबेडकर ने अपने एक भतीजे को अमृत चख कर खालसा सिक्ख बनने की इजाजत भी दी।

बाद में, अंबेडकर और सिक्ख नेता मास्टर तारा सिंह के बीच मतभेद पैदा हो गये। तारा सिंह, निस्‍संदेह, अंबेडकर के राजनीतिक प्रभाव से भयभीत थे। उन्हें डर था कि अगर बहुत बड़ी संख्या में अछूत सिक्ख बन गये तो वे मूल सिक्खों पर हावी हो जाएंगे और अंबेडकर, सिक्ख पंथ के नेता बन जाएंगे। यहां तक कि, एक बार अंबेडकर को 25 हजार रुपये देने का वायदा किया गया परंतु वे रुपये अंबेडकर तक नहीं पहुंचे बल्कि तारा सिंह के अनुयायी, मास्टर सुजान सिंह सरहाली को सौंप दिए गये।

इस प्रकार, अपने जीवन के मध्यकाल में अंबेडकर का सिक्खों और उनके नेताओं से मेल-मिलाप बढ़ा और वे सिक्ख पन्थ की ओर आकर्षित भी हुए। यह जानना महत्वपूर्ण है कि अंततः उन्होंने सिक्ख पन्थ से मुख क्यों मोड़ लिया।

निस्‍संदेह, इसका एक कारण तो यह था कि अंबेडकर इस तथ्य से अनजान नहीं थे कि सिक्ख धर्म में भी अछूत प्रथा है। यद्यपि, सिद्धांत में सिक्ख धर्म पन्थ में विश्वास करता था तथापि दलित सिक्खों को – जिन्हें मजहबी सिक्ख या ‘रविदासी’ कहा जाता था – अलग-थलग रखा जाता था। इस प्रकार, सिक्ख पन्थ में भी एक प्रकार का भेदभाव था। सामाजिक स्तर पर, पंजाब के अधिकांश दलित सिक्ख भूमिहीन थे और वे प्रभुत्वशाली जाट सिक्खों के अधीन, कृषि श्रमिक के रूप में काम करने के लिए बाध्य थे।

असल में, जिन कारणों से अंबेडकर सिक्ख पन्थ की ओर आकर्षित हुए थे, उन्हीं कारणों से उनका उससे मोहभंग हो गया। अगर सिक्ख पन्थ “हिंदू संस्कृति का हिस्सा” था, तो उसे अपनाने में क्या लाभ था? जातिप्रथा से ग्रस्त “हिंदू संस्कृति’ पूरे सिक्ख समाज पर हावी रहती। सिक्ख पन्थ के अंदर भी दलित, अछूत ही बने रहते – पगड़ी पहने हुए अछूत। जट्ट सिखों द्वारा उन्हें कभी आगे बढने ही नहीं दिया गया l

अंबेडकर को लगने लगा के बौद्ध धर्म इस मामले में भिन्न है। सिक्ख पन्थ की ही तरह वह “विदेशी” नहीं बल्कि भारतीय है और सिक्ख पन्थ की ही तरह, वह न तो देश को विभाजित करेगा, न मुसलमानों का प्रभुत्व कायम करेगा और न ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के हाथ मजबूत करेगा।

बौद्ध धर्म में शायद एक तरह की तार्किकता थी, जिसका सिक्ख पन्थ में अभाव था। अंबेडकर, बुद्ध द्वारा इस बात पर बार-बार जोर दिये जाने से बहुत प्रभावित थे कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने अनुभव और तार्किकता के आधार पर, अपने निर्णय स्वयं लेने चाहिए – अप्‍प दीपो भवs (अपना प्रकाश स्वयं बनो)। इस तरह, अंबेडकर का, सिक्ख पन्थ की तुलना में, बौद्ध सम्प्रदाय के प्रति आकर्षण अधिक शक्तिशाली और स्थायी साबित हुआ। यद्यपि बौद्ध सम्प्रदाय उतना सामुदायिक समर्थन नहीं दे सकता था जितना कि सिक्ख पन्थ परंतु बौद्ध सम्प्रदाय को अंबेडकर, दलितों की आध्यात्मिक और नैतिक जरूरतों के हिसाब से, नये कलेवर में ढाल सकते थे। सिक्खों का धार्मिक ढांचा पहले से मौजूद था और अंबेडकर चाहे कितने भी प्रभावशाली और बड़े नेता होते, उन्हें उस ढांचे के अधीन और खासकर जट्ट सिक्खों के अधीन रहकर ही काम करना होता।

इस तरह, अंततः, अंबेडकर और उनके लाखों अनुयायियों के स्वयं के लिए उपयुक्त धर्म की तलाश बौद्ध धर्म पर समाप्त हुई और सिक्ख पन्थ पीछे छूट गया।
When Ambedkar Almost Became A Sikh, Finaly Embraced Buddhism Instead.

गुरुवार, मार्च 28, 2013

देश का नाम और उस पर कर्जा : कैसे मैनेज होता है ये पूरा घिनौना मकड़जाल


स्वदेशी अपनाओ देश बचाओ
आज एक सीआईए की वेबसाईट से निकाली गई एक लिस्ट देती हु ,,,,,,देश का नाम और उस पर कर्जा है l

आखिरी में छोटा सा सवाल है उसका जवाब आपको देना है l

लिंक जहाँ से लिस्ट निकली है https://­www.cia.gov/­library/­publications/­the-world-factbo­ok/fields/­2079.html
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countryदेश Debt - externalकर्जा
China $656,300,000,00­0.00
India $287,500,000,00­0.00
United States $14,710,000,000­,000.00
Indonesia $190,700,000,00­0.00
Brazil $382,500,000,00­0.00
Pakistan $58,270,000,000­.00
Nigeria $9,640,000,000.­00
Bangladesh $33,840,000,000­.00
Russia $519,400,000,00­0.00
Japan $2,719,000,000,­000.00
Mexico $210,900,000,00­0.00
Philippines $72,220,000,000­.00
Vietnam $39,630,000,000­.00
Ethiopia $8,292,000,000.­00
Egypt $33,750,000,000­.00
Germany $5,624,000,000,­000.00
Turkey $306,700,000,00­0.00
Iran $17,900,000,000­.00
Congo, Democratic Republic of the $7,136,000,000.­00
Thailand $82,540,000,000­.00
France $5,633,000,000,­000.00
United Kingdom $9,836,000,000,­000.00
Italy $2,684,000,000,­000.00
Burma $5,804,000,000.­00
Korea, South $449,600,000,00­0.00
South Africa $47,490,000,000­.00
Spain $2,570,000,000,­000.00
Tanzania $10,330,000,000­.00
Colombia $70,040,000,000­.00
Ukraine $126,200,000,00­0.00
Kenya $8,999,000,000.­00
Argentina $136,800,000,00­0.00
Poland $318,300,000,00­0.00
Algeria $4,661,000,000.­00
Canada $1,181,000,000,­000.00
Sudan $38,620,000,000­.00
Uganda $3,486,000,000.­00
Morocco $28,080,000,000­.00
Iraq $50,790,000,000­.00
Afghanistan $1,280,000,000.­00
Nepal $3,774,000,000.­00
Peru $37,390,000,000­.00
Malaysia $89,710,000,000­.00
Uzbekistan $8,540,000,000.­00
Venezuela $89,600,000,000­.00
Saudi Arabia $107,100,000,00­0.00
Yemen $6,314,000,000.­00
Ghana $9,712,000,000.­00
Korea, North $12,500,000,000­.00
Mozambique $4,461,000,000.­00
Taiwan $125,700,000,00­0.00
Syria $8,196,000,000.­00
Australia $1,367,000,000,­000.00
Madagascar $2,362,000,000.­00
Cote d'Ivoire $8,539,000,000.­00
Romania $127,900,000,00­0.00
Sri Lanka $22,660,000,000­.00
Cameroon $3,147,000,000.­00
Angola $18,780,000,000­.00
Kazakhstan $103,300,000,00­0.00
Burkina Faso $2,336,000,000.­00
Chile $95,990,000,000­.00
Netherlands $2,655,000,000,­000.00
Niger $1,342,000,000.­00
Malawi $1,051,000,000.­00
Mali $2,652,000,000.­00
Ecuador $18,620,000,000­.00
Cambodia $5,030,000,000.­00
Guatemala $15,640,000,000­.00
Zambia $4,619,000,000.­00
Senegal $4,068,000,000.­00
Zimbabwe $6,430,000,000.­00
Rwanda $907,300,000.00
Cuba $21,520,000,000­.00
Chad $1,769,000,000.­00
Guinea $2,997,000,000.­00
Portugal $548,300,000,00­0.00
Greece $583,300,000,00­0.00
Tunisia $23,180,000,000­.00
South Sudan
Burundi $322,500,000.00
Belgium $1,399,000,000,­000.00
Bolivia $5,451,000,000.­00
Czech Republic $93,910,000,000­.00
Dominican Republic $14,860,000,000­.00
Somalia $2,942,000,000.­00
Hungary $185,000,000,00­0.00
Haiti $674,600,000.00
Belarus $1,079,000,000.­00
Benin $913,800,000.00
Azerbaijan $4,056,000,000.­00
Sweden $1,016,000,000,­000.00
Honduras $4,564,000,000.­00
Austria $883,500,000,00­0.00
Switzerland $1,346,000,000,­000.00
Tajikistan $2,589,000,000.­00
Israel $102,600,000,00­0.00
Serbia $31,530,000,000­.00
Hong Kong $903,200,000,00­0.00
Bulgaria $47,610,000,000­.00
Togo
Laos $5,955,000,000.­00
Paraguay $5,330,000,000.­00
Jordan $7,644,000,000.­00
Papua New Guinea $5,144,000,000.­00
El Salvador $12,180,000,000­.00
Eritrea $1,013,000,000.­00
Nicaragua $5,012,000,000.­00
Libya $4,744,000,000.­00
Denmark $626,900,000,00­0.00
Kyrgyzstan $3,602,000,000.­00
Sierra Leone $829,900,000.00
Slovakia $72,940,000,000­.00
Singapore $23,620,000,000­.00
United Arab Emirates $156,300,000,00­0.00
Finland $577,000,000,00­0.00
Central African Republic $404,400,000.00
Turkmenistan $452,900,000.00
Ireland $2,352,000,000,­000.00
Norway $644,500,000,00­0.00
Costa Rica $10,750,000,000­.00
Georgia $11,080,000,000­.00
Croatia $64,470,000,000­.00
Congo, Republic of the $4,865,000,000.­00
New Zealand $91,070,000,000­.00
Lebanon $29,470,000,000­.00
Liberia $306,800,000.00
Bosnia and Herzegovina $8,764,000,000.­00
Puerto Rico $56,820,000,000­.00
Moldova $4,956,000,000.­00
Lithuania $31,030,000,000­.00
Panama $12,210,000,000­.00
Mauritania $2,816,000,000.­00
Uruguay $11,700,000,000­.00
Mongolia $1,900,000,000.­00
Oman $9,033,000,000.­00
Albania $5,188,000,000.­00
Armenia $6,417,000,000.­00
Jamaica $14,620,000,000­.00
Kuwait $29,870,000,000­.00
West Bank $1,040,000,000.­00
Latvia $37,490,000,000­.00
Namibia $3,944,000,000.­00
Botswana $1,969,000,000.­00
Macedonia $6,727,000,000.­00
Slovenia $61,230,000,000­.00
Qatar $125,600,000,00­0.00
Lesotho $729,500,000.00
Gambia, The $530,800,000.00
Kosovo $326,000,000.00
Gaza Strip
Guinea-Bissau $1,095,000,000.­00
Gabon $2,726,000,000.­00
Swaziland $703,200,000.00
Mauritius $5,489,000,000.­00
Estonia $24,980,000,000­.00
Bahrain $25,150,000,000­.00
Trinidad and Tobago $4,749,000,000.­00
Timor-Leste
Cyprus $106,500,000,00­0.00
Fiji $259,100,000.00
Djibouti $802,500,000.00
Guyana $1,234,000,000.­00
Comoros $279,300,000.00
Bhutan $1,275,000,000.­00
Equatorial Guinea $1,149,000,000.­00
Montenegro $1,200,000,000.­00
Solomon Islands $166,000,000.00
Macau $0.00
Suriname $504,300,000.00
Cape Verde $824,200,000.00
Western Sahara
Luxembourg $2,146,000,000,­000.00
Malta $48,790,000,000­.00
Brunei $0.00
Maldives $943,000,000.00
Belize $1,398,000,000.­00
Bahamas, The $14,930,000,000­.00
Iceland $124,500,000,00­0.00
Barbados $668,000,000.00
French Polynesia
New Caledonia $79,000,000.00
Vanuatu $307,700,000.00
Samoa $235,500,000.00
Sao Tome and Principe $266,000,000.00
Saint Lucia $470,500,000.00
Guam
Curacao
Grenada $531,000,000.00
Aruba $478,600,000.00
Micronesia, Federated States of $60,800,000.00
Tonga $113,500,000.00
Virgin Islands
Saint Vincent and the Grenadines $264,900,000.00
Kiribati $10,000,000.00
Jersey
Seychelles $1,475,000,000.­00
Antigua and Barbuda $359,800,000.00
Isle of Man
Andorra
Dominica $257,700,000.00
Bermuda $160,000,000.00
Marshall Islands $87,000,000.00
Guernsey
Greenland $36,400,000.00
American Samoa
Cayman Islands $70,000,000.00
Northern Mariana Islands
Saint Kitts and Nevis $199,100,000.00
Faroe Islands $888,800,000.00
Turks and Caicos Islands
Sint Maarten
Liechtenstein $0.00
San Marino
British Virgin Islands $36,100,000.00
Saint Martin
Monaco
Gibraltar
Palau $0.00
Dhekelia
Akrotiri
Wallis and Futuna $3,670,000.00
Anguilla $8,800,000.00
Cook Islands $141,000,000.00
Tuvalu
Nauru $33,300,000.00
Saint Helena, Ascension, and Tristan da Cunha
Saint Barthelemy
Saint Pierre and Miquelon
Montserrat $8,900,000.00
Falkland Islands (Islas Malvinas)
Norfolk Island
Svalbard
Christmas Island
Tokelau
Niue $418,000.00
Holy See (Vatican City)
Cocos (Keeling) Islands
Pitcairn Islands

दुनिया के २४५ एक भी देश का नाम बताओ जो करजेमें नही ?
अगर सब देश करजे में डूबे हैं तो आखिर वो धन किस का था जो इन सब देशों को दिया ?

सवाल ये है वर्ल्ड बैंक ने ये कर्जा दिया ,,,,,अमेरिका को भी दिया ,,,,,,आखिर ये कर्जा देने वाले कौन है,,,,,,,,,किन लोगो के इशारे पर अमेरिकी फेड रिसर्व थोक भाव में डॉलर छापती है ,,,,,,फिर सभी देशो में बाटा जाता है ,,,,,,कर्ज में डूबे देश अपनी करेंसी का भाव ऊँचा नहीं कर पाते जिससे उनके खनिज सस्ते भाव में खरीदते हैं ये जालिम लोग ,,,,,कौन हैं वो जालिम ,,,,किन जालिमो के इशारे के बिना कोई भी देश अपनी करेंसी का एक भी नोट नहीं छाप सकता ,,,,,,कैसे मैनेज होता है ये पूरा घिनौना मकड़जाल ,,,,,,किनके इशारे पर सीआईए वर्ल्ड बैंक फोर्ड काम करती है ,,,,,,

बुधवार, मार्च 27, 2013

हम अल्पसंख्यको को कोई विशेष सुविधा नहीं देंगे : रूस के राष्ट्रपति पूतिन का महान भाषण

रूस के राष्ट्रपति पूतिन का महान भाषण

"अल्पसंख्यक रूसी नहीं हैं |"

मित्रों, आज एक ओर जहाँ पूरा विश्व अपनी-अपनी संस्कृति व् सभ्यता की रक्षा के लिए सक्रीय रूप से कार्य कर रहा है वहीँ दूसरी ओर हमारा अपना भारत देश उलटी दिशा में जा रहा है | यहाँ होड़ मची है की कैसे अल्पसंख्यको को अपने नीजी स्वार्थ के लिए खुश किया जाए | और इस चक्कर में हमारे कुछ नेता हमारी संस्कृति को ख़त्म करने में लगे हुए हैं | विश्व के बड़े से बड़े देश जो अब तक सेकुलरिज्म का गाना गाते थे, वे भी अपनी संस्कृति को बचाने हेतु सक्रीय हो रहे हैं, और हमारे नेता हमारी वो संस्कृति जो विश्व की सबसे महान संस्कृति है उसे केवल अपने वोट बैंक के चक्कर में लगभग ख़त्म करने की राह पकड़ चुके हैं, अगर समय रहते इस ओर कड़े कदम नहीं उठाये गए तो परिणाम गंभीर होंगे ये निश्चित है...

ऐसा ही एक कदम रूस के राष्ट्रपति पूतिन ने उठाया और उनके देश में रह रहे अल्पसंख्यकों को कड़ा सन्देश दिया | पढ़िए क्या कहा उन्होंने..

"रूस में रूसी रहते हैं | कोई भी अल्पसंख्यक समुदाय चाहे वो कहीं का भी हो, अगर उन्हें रूस में रहना है, काम करना है, अपना पेट भरना है तो उसे रूसी भाषा बोलनी होगी एवं रूस के कानूनों का पूरी तरह सम्मान करना होगा | अगर उन्हें शरियत कानून (इस्लामिक कानून) चाहिए तो मेरी उन्हें सलाह है की वो किसी ऐसे देश में चले जाएँ जहाँ उनके इस कानून को मान्यता प्राप्त हो |

अप्ल्संख्यको को रूस की जरूरत है ना की रूस को अल्पसंख्यकों की | हम अल्पसंख्यको को कोई विशेष सुविधा नहीं देंगे, न ही हम अपने कानून में किसी तरह का बदलाव करेंगे उनकी इच्छानुसार, चाहे वो कितना ही जोर जोर से चीखें की ये अन्याय है | अगर हमें अपने देश को बचान है तो हमें अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस और हॉलैंड जैसे देशों से सीखना होगा | कानून बनाने वालों को भी मेरी सलाह है की जब भी वे कोई कानून बनाएं तो उसमे राष्ट्र सर्वोपरि की भावना का ख्याल रखें और इतना याद रखे की अल्पसंख्यक रूसी नहीं हैं |"

पुतिनजी के इस भाषण पर वहां मौजूद सभी नेता इतने प्रभावित हुए की सारे नेताओं ने करीब ५ मिनट तक उनके सम्मान खड़े होकर तालियाँ बजाई |

आज सम्पूर्ण विश्व में अगर इस प्रकार आक्रमक रुख अपनाने की जरुरत सबसे ज्यादा किसी देश को है तो वो हैं हमारा भारत देश | लेकिन ये हमारा दुर्भाग्य है की देश की सत्ता उन चंद भूखे और नीच लोगों के हाथ में है जिन्हें हमारी संस्कृति से न तो कोई मतलब है न ही उन्हें इसकी महानता का ज्ञान है | और उससे भी दुर्भाग्यपूर्ण है आम जनता का सुस्त रवैया और हर ज़ुल्म को चुपचाप सहना |

जय माँ भारती !

साभार- अनिल गुप्ता जी

सनातन धर्म के प्रति इसका इतना गहरा ज्ञान Hinduism (Danielle)

शुक्रवार, मार्च 15, 2013

गणितज्ञ डा वशिष्ठ नारायण सिंह , श्रीनिवास रामानुजन्

गणितज्ञ डा वशिष्ठ नारायण सिंह

14 मार्च को मैथ डे के रूप में मनाया जाता है। मैथ डे मूल रूप से एक ऑनलाइन कम्प्टीशन था, जिसकी शुरुआत 2007 से हुई थी। इसी दिन पाई डे (Pi) भी मनाया जाता है, जिसका उपयोग हम मैथ में करते हैं। मैथ डे पर हम आपको बता रहे हैं एक ऐसे गणितज्ञ के बारे में, जिनका लोहा पूरी अमेरिका मानती है। इन्होंने कई ऐसे रिसर्च किए, जिनका अध्ययन आज भी अमेरिकी छात्र कर रहे हैं। हाल-फिलहाल डा वशिष्ठ नारायण सिंह मानसिक बीमारी सीजोफ्रेनिया से ग्रसित हैं। इसके बावजूद वे मैथ के फॉर्मूलों को सॉल्व करते रहते हैं।

इनकी गिनती दुनिया के महान गणितज्ञों में होती थी, लेकिन गरीबी की वजह से ये शख्स अब खुद में खोया रहता है।मानसिक बीमारी सीजोफ्रेनिया से जूझ रहे डा वशिष्ठ नारायण सिंह बिहार के भोजपुर जिले बसंतपुर के रहने वाले हैं। इनकी गिनती दुनिया के महान गणितज्ञों में होती थी, लेकिन गरीबी की वजह से ये शख्स अब खुद में खोया रहता है। आर्यभट्ट ने जहां जीरो देकर पूरी दुनिया को नई राह दिखाई थी। वहीं, अमेरिका में जाने के साथ ही ‘साइकिल वेक्टर स्पेश थ्योरी’ पर शोध कर डा वशिष्ठ ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा था।

वशिष्ठ नारायण सिंह बेहद गरीब परिवार से आते हैं। लेकिन, प्रतिभा उनमें कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने नेतरहाट स्कूल में एडमिशन लिया और मैट्रिक की परीक्षा में पूरे बिहार में टॉप किया। वहीं साइंस कॉलेज से इंटर की परीक्षा में भी पूरे बिहार में अव्वल रहे

डा सिंह ने न सिर्फ आइंस्टिन के सिद्धांत E=MC2 को चैलेंज किया, बल्कि मैथ में रेयरेस्ट जीनियस कहा जाने वाला गौस की थ्योरी को भी उन्होंने चैलेंज किया था। लेकिन, बीमारी की वजह से कुछ भी नहीं हो सका।

अमेरिका में आज भी इनके शोध किए गए विषयों को पढ़ाया जाता है। भारत के लोग भले ही वशिष्ठ नारायण सिंह को नहीं जानते, लेकिन अमेरिका में इन्हें काफी सम्मान की नजर से देखा जाता है।

ऐसा कहा जाता है कि अपोलो मिशन के दौरान डा सिंह नासा में मौजूद थे, तभी गिनती करने वाले कम्प्यूटर में खराबी आ गई। ऐसे में कहा जाता है कि डा वशिष्ठ नारायण सिंह ने उंगलियों पर गिनती शुरू कर दी। बाद में साथी वैज्ञानिकों ने उनकी गिनती को सही माना था। लेकिन, इस बात की आधिकारिक रूप से कहीं भी पुष्टि नहीं है।

अमेरिका में पढ़ने का न्योता जब डा वशिष्ठ नारायण सिंह को मिला तो उन्होंने ग्रेजुएशन के तीन साल के कोर्स को महज एक साल में पूरा कर लिया था।
यह वशिस्ठ नारायण जी है जो पुरे भारतवर्ष में सबसे महान गणित के विद्वान् रहे! इन्होने अपने जीवनकाल में कंप्यूटर को मात दी थी! गणित की जो गणना कंप्यूटर करता था उससे कम समय में यह करके सामने रख देते थे! कई लोग इनको आइन्स्टीन से भी जाएदा प्रखर और विद्वान मानते थे! अमेरिकी नासा को जब इनके अदबुध दिमाग का पता चला तोह इनको कई सारे लुभावने अवसर देने की पेशकश की, जैसे की न्यूयौक में विशाल बंगला, गाडी, एक अच्छी सैलरी जैसा की वोह हर भारतीय विज्ञानिक को देके अपने पास बुलावा लेते है!
लेकिन इन्होने उन सभी लुभावने असवर को दरकिनार करते हुए कहा की मुझे मेरे देश की सेवा करनी है, मुझे जो कुछ भी मिला है वोह इस गाओ, समाज और देश ने दिया है और जब मुझे मौका मिला है तोह मैं इनकी सेवा करुगा ना की अमेरिका की!
बाद में इनका विवाह भी एक संपन्न घराने की स्त्री के साथ हुआ था जिनसे वोह बहुत अधिक प्रेम करते थे!
लेकिन अमेरिका को यह बात खली और उसने केंद्र की कांग्रेस सरकार और बिहार की कांग्रेस राज्य सरकार को निर्देश दिया की इनको जाएदा से जाएदा परेशान किया जाए!
आप जानते है कांग्रेस का देशविरोधी इतिहास, उसने यह काम बखूबी किया! जो भी रिसर्च वोह करते थे इनके जूनियर उस डेरी को फाड़ दिया करते थे! इनके चाय और पानी में इनको पागल करने की दवाई दी जाने लगी थी जिस वजह से यह धीरे धीरे भूलने लगे और इनको भूलने की बिमारी हो गई और बाद में यह पागल हो गए!
इनकी बीवी ने इनको छोर्ड दिया और यह वापस अपने माँ के पास पुराने घर आ गए! कई साल तक गुमनामी की ज़िन्दगी जीने के बाद इनको सड़क किनारे भीख मांगते हुए ढूंढा गया था जिसमे मेरे दादा जी भी थे, उन्होंने इनको पहचाना और सरकार की तरह से कुछ सुविधायें दिलवाई थी!
लेकिन यह आज भी पागल है और केंद्र और राज्य सरकार इनको कोई आर्थिक मदद नहीं देती!
लेकिन आज भी इनके जुबान पर अपनी पत्नी का नाम और भारत माता का नाम रह रह कर आता है!

इनको प्रणाम!
अखिलेश शर्मा!




श्रीनिवास रामानुजन्

श्रीनिवास रामानुजन् इयंगर (तमिल ஸ்ரீனிவாஸ ராமானுஜன் ஐயங்கார்) (22 दिसम्बर, 1887 – 26 अप्रैल, 1920) एक महान भारतीय गणितज्ञ थे। इन्हें आधुनिक काल के महानतम गणित विचारकों में गिना जाता है। इन्हें गणित में कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर भी इन्होंने विश्लेषण एवं संख्या सिद्धांत के क्षेत्रों में गहन योगदान दिए। इन्होंने अपने प्रतिभा और लगन से न केवल गणित के क्षेत्र में अद्भुत अविष्कार किए वरन भारत को अतुलनीय गौरव भी प्रदान किया।
ये बचपन से ही विलक्षण प्रतिभावान थे। इन्होंने खुद से गणित सीखा और अपने जीवनभर में गणित के 3,884 प्रमेयों का संकलन किया। इनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किये जा चुके हैं। इन्होंने गणित के सहज ज्ञान और बीजगणित प्रकलन की अद्वितीय प्रतिभा के बल पर बहुत से मौलिक और अपारम्परिक परिणाम निकाले जिनसे प्रेरित शोध आज तक हो रहा है, यद्यपि इनकी कुछ खोजों को गणित मुख्यधारा में अब तक नहीं अपनाया गया है। हाल में इनके सूत्रों को क्रिस्टल-विज्ञान में प्रयुक्त किया गया है। इनके कार्य से प्रभावित गणित के क्षेत्रों में हो रहे काम के लिये रामानुजन जर्नल की स्थापना की गई है।

आरंभिक जीवनकाल

रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर1887 को भारत के दक्षिणी भूभाग में स्थित कोयंबटूर के ईरोड नामके गांव में हुआ था। वह पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। इनकी की माता का नाम कोमलताम्मल और इनके पिता का नाम श्रीनिवास अय्यंगर था। इनका बचपन मुख्यतः कुंभकोणम में बीता था जो कि अपने प्राचीन मंदिरों के लिए जाना जाता है। बचपन में रामानुजन का बौद्धिक विकास सामान्य बालकों जैसा नहीं था। यह तीन वर्ष की आयु तक बोलना भी नहीं सीख पाए थे। जब इतनी बड़ी आयु तक जब रामानुजन ने बोलना आरंभ नहीं किया तो सबको चिंता हुई कि कहीं यह गूंगे तो नहीं हैं। बाद के वर्षों में जब उन्होंने विद्यालय में प्रवेश लिया तो भी पारंपरिक शिक्षा में इनका कभी भी मन नहीं लगा। रामानुजन ने दस वर्षों की आयु में प्राइमरी परीक्षा में पूरे जिले में सबसे अधिक अंक प्राप्त किया और आगे की शिक्षा के लिए टाउन हाईस्कूल पहुंचे। रामानुजन को प्रश्न पूछना बहुत पसंद था। उनके प्रश्न अध्यापकों को कभी-कभी बहुत अटपटे लगते थे। जैसे कि-संसार में पहला पुरुष कौन था? पृथ्वी और बादलों के बीच की दूरी कितनी होती है? रामानुजन का व्यवहार बड़ा ही मधुर था। इनका सामान्य से कुछ अधिक स्थूल शरीर और जिज्ञासा से चमकती आखें इन्हें एक अलग ही पहचान देती थीं। इनके सहपाठियों के अनुसार इनका व्यवहार इतना सौम्य था कि कोई इनसे नाराज हो ही नहीं सकता था। विद्यालय में इनकी प्रतिभा ने दूसरे विद्यार्थियों और शिक्षकों पर छाप छोड़ना आरंभ कर दिया। इन्होंने स्कूल के समय में ही कालेज के स्तर के गणित को पढ़ लिया था। एक बार इनके विद्यालय के प्रधानाध्यापक ने यह भी कहा था कि विद्यालय में होने वाली परीक्षाओं के मापदंड रामानुजन के लिए लागू नहीं होते हैं। हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इन्हें गणित और अंग्रेजी मे अच्छे अंक लाने के कारण सुब्रमण्यम छात्रवृत्ति मिली और आगे कालेज की शिक्षा के लिए प्रवेश भी मिला।
आगे एक परेशानी आई। रामानुजन का गणित के प्रति प्रेम इतना बढ़ गया था कि वे दूसरे विषयों पर ध्यान ही नहीं देते थे। यहां तक की वे इतिहास, जीव विज्ञान की कक्षाओं में भी गणित के प्रश्नों को हल किया करते थे। नतीजा यह हुआ कि ग्यारहवीं कक्षा की परीक्षा में वे गणित को छोड़ कर बाकी सभी विषयों में फेल हो गए और परिणामस्वरूप उनको छात्रवृत्ति मिलनी बंद हो गई। एक तो घर की आर्थिक स्थिति खराब और ऊपर से छात्रवृत्ति भी नहीं मिल रही थी। रामानुजन के लिए यह बड़ा ही कठिन समय था। घर की स्थिति सुधारने के लिए इन्होने गणित के कुछ ट्यूशन तथा खाते-बही का काम भी किया। कुछ समय बाद 1907 में रामानुजन ने फिर से बारहवीं कक्षा की प्राइवेट परीक्षा दी और अनुत्तीर्ण हो गए। और इसी के साथ इनके पारंपरिक शिक्षा की इतिश्री हो गई।

रामानुजन का पैत्रिक आवास

औपचारिक शिक्षा की समाप्ति और संघर्ष का समय

विद्यालय छोड़ने के बाद का पांच वर्षों का समय इनके लिए बहुत हताशा भरा था। भारत इस समय परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा था। चारों तरफ भयंकर गरीबी थी। ऐसे समय में रामानुजन के पास न कोई नौकरी थी और न ही किसी संस्थान अथवा प्रोफेसर के साथ काम करने का मौका। बस उनका ईश्वर पर अटूट विश्वास और गणित के प्रति अगाध श्रद्धा ने उन्हें कर्तव्य मार्ग पर चलने के लिए सदैव प्रेरित किया। नामगिरी देवी रामानुजन के परिवार की ईष्ट देवी थीं। उनके प्रति अटूट विश्वास ने उन्हें कहीं रुकने नहीं दिया और वे इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी गणित के अपने शोध को चलाते रहे। इस समय रामानुजन को ट्यूशन से कुल पांच रूपये मासिक मिलते थे और इसी में गुजारा होता था। रामानुजन का यह जीवन काल बहुत कष्ट और दुःख से भरा था। इन्हें हमेशा अपने भरण-पोषण के लिए और अपनी शिक्षा को जारी रखने के लिए इधर उधर भटकना पड़ा और अनेक लोगों से असफल याचना भी करनी पड़ी।

विवाह और गणित साधना

वर्ष 1908 में इनके माता पिता ने इनका विवाह जानकी नामक कन्या से कर दिया। विवाह हो जाने के बाद अब इनके लिए सब कुछ भूल कर गणित में डूबना संभव नहीं था। अतः वे नौकरी की तलाश में मद्रास आए। बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण न होने की वजह से इन्हें नौकरी नहीं मिली और उनका स्वास्थ्य भी बुरी तरह गिर गया। अब डॉक्टर की सलाह पर इन्हें वापस अपने घर कुंभकोणम लौटना पड़ा। बीमारी से ठीक होने के बाद वे वापस मद्रास आए और फिर से नौकरी की तलाश शुरू कर दी। ये जब भी किसी से मिलते थे तो उसे अपना एक रजिस्टर दिखाते थे। इस रजिस्टर में इनके द्वारा गणित में किए गए सारे कार्य होते थे। इसी समय किसी के कहने पर रामानुजन वहां के डिप्टी कलेक्टर श्री वी. रामास्वामी अय्यर से मिले। अय्यर गणित के बहुत बड़े विद्वान थे। यहां पर श्री अय्यर ने रामानुजन की प्रतिभा को पहचाना और जिलाधिकारी श्री रामचंद्र राव से कह कर इनके लिए 25 रूपये मासिक छात्रवृत्ति का प्रबंध भी कर दिया। इस वृत्ति पर रामानुजन ने मद्रास में एक साल रहते हुए अपना प्रथम शोधपत्र प्रकाशित किया। शोध पत्र का शीर्षक था "बरनौली संख्याओं के कुछ गुण” और यह शोध पत्र जर्नल ऑफ इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी में प्रकाशित हुआ था। यहां एक साल पूरा होने पर इन्होने मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लर्क की नौकरी की। सौभाग्य से इस नौकरी में काम का बोझ कुछ ज्यादा नहीं था और यहां इन्हें अपने गणित के लिए पर्याप्त समय मिलता था। यहां पर रामानुजन रात भर जाग कर नए-नए गणित के सूत्र लिखा करते थे और फिर थोड़ी देर तक आराम कर के फिर दफ्तर के लिए निकल जाते थे। रामानुजन गणित के शोधों को स्लेट पर लिखते थे। और बाद में उसे एक रजिस्टर में लिख लेते थे।रात को रामानुजन के स्लेट और खड़िए की आवाज के कारण परिवार के अन्य सदस्यों की नींद चौपट हो जाती थी।

प्रोफेसर हार्डी के साथ पत्रव्यावहार

इस समय भारतीय और पश्चिमी रहन सहन में एक बड़ी दूरी थी और इस वजह से सामान्यतः भारतीयों को अंग्रेज वैज्ञानिकों के सामने अपने बातों को प्रस्तुत करने में काफी संकोच होता था। इधर स्थिति कुछ ऐसी थी कि बिना किसी अंग्रेज गणितज्ञ की सहायता लिए शोध कार्य को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था। इस समय रामानुजन के पुराने शुभचिंतक इनके काम आए और इन लोगों ने रामानुजन द्वारा किए गए कार्यों को लंदन के प्रसिद्ध गणितज्ञों के पास भेजा। पर यहां इन्हें कुछ विशेष सहायता नहीं मिली लेकिन एक लाभ यह हुआ कि लोग रामानुजन को थोड़ा बहुत जानने लगे थे। इसी समय रामानुजन ने अपने संख्या सिद्धांत के कुछ सूत्र प्रोफेसर शेषू अय्यर को दिखाए तो उनका ध्यान लंदन के ही प्रोफेसर हार्डी की तरफ गया। प्रोफेसर हार्डी उस समय के विश्व के प्रसिद्ध गणितज्ञों में से एक थे। और अपने सख्त स्वभाव और अनुशासन प्रियता के कारण जाने जाते थे। प्रोफेसर हार्डी के शोधकार्य को पढ़ने के बाद रामानुजन ने बताया कि उन्होने प्रोफेसर हार्डी के अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर खोज निकाला है। अब रामानुजन का प्रोफेसर हार्डी से पत्रव्यवहार आरंभ हुआ। अब यहां से रामानुजन के जीवन में एक नए युग का सूत्रपात हुआ जिसमें प्रोफेसर हार्डी की बहुत बड़ी भूमिका थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जिस तरह से एक जौहरी हीरे की पहचान करता है और उसे तराश कर चमका देता है, रामानुजन के जीवन में वैसा ही कुछ स्थान प्रोफेसर हार्डी का है। प्रोफेसर हार्डी आजीवन रामानुजन की प्रतिभा और जीवन दर्शन के प्रशंसक रहे। रामानुजन और प्रोफेसर हार्डी की यह मित्रता दोनो ही के लिए लाभप्रद सिद्ध हुई। एक तरह से देखा जाए तो दोनो ने एक दूसरे के लिए पूरक का काम किया। प्रोफेसर हार्डी ने उस समय के विभिन्न प्रतिभाशाली व्यक्तियों को 100 के पैमाने पर आंका था। अधिकांश गणितज्ञों को उन्होने 100 में 35 अंक दिए और कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को 60 अंक दिए। लेकिन उन्होंने रामानुजन को 100 में पूरे 100 अंक दिए थे।
आरंभ में रामानुजन ने जब अपने किए गए शोधकार्य को प्रोफेसर हार्डी के पास भेजा तो पहले उन्हें भी पूरा समझ में नहीं आया। जब उन्होंने अपने मित्र गणितज्ञों से सलाह ली तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि रामानुजन गणित के क्षेत्र में एक दुर्लभ व्यक्तित्व है और इनके द्वारा किए गए कार्य को ठीक से समझने और उसमें आगे शोध के लिए उन्हें इंग्लैंड आना चाहिए। अतः उन्होने रामानुजन को कैंब्रिज आने के लिए आमंत्रित किया।

विदेश गमन

कुछ व्यक्तिगत कारणों और धन की कमी के कारण रामानुजन ने प्रोफेसर हार्डी के कैंब्रिज के आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। प्रोफेसर हार्डी को इससे निराशा हुई लेकिन उन्होनें किसी भी तरह से रामानुजन को वहां बुलाने का निश्चय किया। इसी समय रामानुजन को मद्रास विश्वविद्यालय में शोध वृत्ति मिल गई थी जिससे उनका जीवन कुछ सरल हो गया और उनको शोधकार्य के लिए पूरा समय भी मिलने लगा था। इसी बीच एक लंबे पत्रव्यवहार के बाद धीरे-धीरे प्रोफेसर हार्डी ने रामानुजन को कैंब्रिज आने के लिए सहमत कर लिया। प्रोफेसर हार्डी के प्रयासों से रामानुजन को कैंब्रिज जाने के लिए आर्थिक सहायता भी मिल गई। रामानुजन ने इंग्लैण्ड जाने के पहले गणित के करीब 3000 से भी अधिक नये सूत्रों को अपनी नोटबुक में लिखा था।
रामानुजन ने लंदन की धरती पर कदम रखा। वहां प्रोफेसर हार्डी ने उनके लिए पहले से व्ववस्था की हुई थी अतः इन्हें कोई विशेष परेशानी नहीं हुई। इंग्लैण्ड में रामानुजन को बस थोड़ी परेशानी थी और इसका कारण था उनका शर्मीला, शांत स्वभाव और शुद्ध सात्विक जीवनचर्या। अपने पूरे इंग्लैण्ड प्रवास में वे अधिकांशतः अपना भोजन स्वयं बनाते थे। इंग्लैण्ड की इस यात्रा से उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। उन्होंने प्रोफेसर हार्डी के साथ मिल कर उच्चकोटि के शोधपत्र प्रकाशित किए। अपने एक विशेष शोध के कारण इन्हें कैंब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा बी.ए. की उपाधि भी मिली। लेकिन वहां की जलवायु और रहन-सहन की शैली उनके अधिक अनुकूल नहीं थी और उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। डॉक्टरों ने इसे क्षय रोग बताया। उस समय क्षय रोग की कोई दवा नहीं होती थी और रोगी को सेनेटोरियम मे रहना पड़ता था। रामानुजन को भी कुछ दिनों तक वहां रहना पड़ा। वहां इस समय भी यह गणित के सूत्रों में नई नई कल्पनाएं किया करते थे।

रॉयल सोसाइटी की सदस्यता

इसके बाद वहां रामानुजन को रॉयल सोसाइटी का फेलो नामित किया गया। ऐसे समय में जब भारत गुलामी में जी रहा था तब एक अश्वेत व्यक्ति को रॉयल सोसाइटी की सदस्यता मिलना एक बहुत बड़ी बात थी। रॉयल सोसाइटी के पूरे इतिहास में इनसे कम आयु का कोई सदस्य आज तक नहीं हुआ है। पूरे भारत में उनके शुभचिंतकों ने उत्सव मनाया और सभाएं की। रॉयल सोसाइटी की सदस्यता के बाद यह ट्रिनीटी कॉलेज की फेलोशिप पाने वाले पहले भारतीय भी बने। अब ऐसा लग रहा था कि सब कुछ बहुत अच्छी जगह पर जा रहा है। लेकिन रामानुजन का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था और अंत में डॉक्टरों की सलाह पर उन्हें वापस भारत लौटना पड़ा। भारत आने पर इन्हें मद्रास विश्वविद्यालय में प्राध्यापक की नौकरी मिल गई। और रामानुजन अध्यापन और शोध कार्य में पुनः रम गए।

स्वदेश आगमन

भारत लौटने पर भी स्वास्थ्य ने इनका साथ नहीं दिया और हालत गंभीर होती जा रही थी। इस बीमारी की दशा में भी इन्होने मॉक थीटा फंक्शन पर एक उच्च स्तरीय शोधपत्र लिखा। रामानुजन द्वारा प्रतिपादित इस फलन का उपयोग गणित ही नहीं बल्कि चिकित्साविज्ञान में कैंसर को समझने के लिए भी किया जाता है।

मृत्यु

इनका गिरता स्वास्थ्य सबके लिए चिंता का विषय बन गया और यहां तक की अब डॉक्टरों ने भीजवाब दे दिया था। अंत में रामानुजन के विदा की घड़ी आ ही गई। 26 अप्रैल1920 के प्रातः काल में वे अचेत हो गए और दोपहर होते होते उन्होने प्राण त्याग दिए। इस समय रामानुजन की आयु मात्र 33 वर्ष थी। इनका असमय निधन गणित जगत के लिए अपूरणीय क्षति था। पूरे देश विदेश में जिसने भी रामानुजन की मृत्यु का समाचार सुना वहीं स्तब्ध हो गया।

रामानुजन की कार्यशैली और शोध

रामानुजन और इनके द्वारा किए गए अधिकांश कार्य अभी भी वैज्ञानिकों के लिए अबूझ पहेली बने हुए हैं। एक बहुत ही सामान्य परिवार में जन्म ले कर पूरे विश्व को आश्चर्यचकित करने की अपनी इस यात्रा में इन्होने भारत को अपूर्व गौरव प्रदान किया। इनका उनका वह पुराना रजिस्टर जिस पर वे अपने प्रमेय और सूत्रों को लिखा करते थे 1976 में अचानक ट्रिनीटी कॉलेज के पुस्तकालय में मिला। करीब एक सौ पन्नों का यह रजिस्टर आज भी वैज्ञानिकों के लिए एक पहेली बना हुआ है। इस रजिस्टर को बाद में रामानुजन की नोट बुक के नाम से जाना गया। मुंबई के टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान द्वारा इसका प्रकाशन भी किया गया है। रामानुजन के शोधों की तरह उनके गणित में काम करने की शैली भी विचित्र थी। वे कभी कभी आधी रात को सोते से जाग कर स्लेट पर गणित से सूत्र लिखने लगते थे और फिर सो जाते थे। इस तरह ऐसा लगता था कि वे सपने में भी गणित के प्रश्न हल कर रहे हों। रामानुजन के नाम के साथ ही उनकी कुलदेवी का भी नाम लिया जाता है। इन्होने शून्य और अनन्त को हमेशा ध्यान में रखा और इसके अंतर्सम्बन्धों को समझाने के लिए गणित के सूत्रों का सहारा लिया। रामानुजन के कार्य करने की एक विशेषता थी। पहले वे गणित का कोई नया सूत्र या प्रमेंय पहले लिख देते थे लेकिन उसकी उपपत्ति पर उतना ध्यान नहीं देते थे। इसके बारे में पूछे जाने पर वे कहते थे कि यह सूत्र उन्हें नामगिरी देवी की कृपा से प्राप्त हुए हैं। रामानुजन का आध्यात्म के प्रति विश्वास इतना गहरा था कि वे अपने गणित के क्षेत्र में किये गए किसी भी कार्य को आध्यात्म का ही एक अंग मानते थे। वे धर्म और आध्यात्म में केवल विश्वास ही नहीं रखते थे बल्कि उसे तार्किक रूप से प्रस्तुत भी करते थे। वे कहते थे कि "मेरे लिए गणित के उस सूत्र का कोई मतलब नहीं है जिससे मुझे आध्यात्मिक विचार न मिलते हों।”

http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%8D


गुरुवार, मार्च 14, 2013

Pepsi's use मानव भ्रूण of aborted fetal cells in soft drinks constitutes 'ordinary business operations'

Obama agency rules Pepsi's use of aborted fetal cells in soft drinks constitutes 'ordinary business operations' 

भारत के लोगो को जहर के साथ साथ मानव भ्रूण (यानिकी गर्भ मे अविकसित बच्चे )का किडनी भी पिलाती है विदेशी कंपनी
ये बाते हम नहीं बल्कि कई विदेशी कंपनी कह रही है आप खुद देखिये नीचे दी गयी लिंक को

क्या इतना सब जानने के बाद भी आप विदेशी कपनियों का उत्पाद खा कर या पीकर मानव मांस भक्षक बनेगे
इसलिए हम कहते है स्वदेशी अपनाओ देश बचाओ -धर्म बचाओ -कर्म बचाओ -शर्म बचाओ

 

Saturday, March 17, 2012 by: Ethan A. Huff, staff writer

(NaturalNews) The Obama Administration has given its blessing to PepsiCo to continue utilizing the services of a company that produces flavor chemicals for the beverage giant using aborted human fetal tissue. LifeSiteNews.com reports that the Obama Security and Exchange Commission (SEC) has decided that PepsiCo's arrangement with San Diego, Cal.-based Senomyx, which produces flavor enhancing chemicals for Pepsi using human embryonic kidney tissue, simply constitutes "ordinary business operations."

The issue began in 2011 when the non-profit group Children of God for Life (CGL) first broke the news about Pepsi's alliance with Senomyx, which led to massive outcry and a worldwide boycott of Pepsi products. At that time, it was revealed that Pepsi had many other options at its disposal to produce flavor chemicals, which is what its competitors do, but had instead chosen to continue using aborted fetal cells -- or as Senomyx deceptively puts it, "isolated human taste receptors" (http://www.naturalnews.com).

A few months later, Pepsi' shareholders filed a resolution petitioning the company to "adopt a corporate policy that recognizes human rights and employs ethical standards which do not involve using the remains of aborted human beings in both private and collaborative research and development agreements." But the Obama Administration shut down this 36-page proposal, deciding instead that Pepsi's used of aborted babies to flavor its beverage products is just business as usual, and not a significant concern.

"We're not talking about what kind of pencils PepsiCo wants to use -- we are talking about exploiting the remains of an aborted child for profit," said Debi Vinnedge, Executive Director of CGL, concerning the SEC decision. "Using human embryonic kidney (HEK-293) to produce flavor enhancers for their beverages is a far cry from routine operations!"

To be clear, the aborted fetal tissue used to make Pepsi's flavor chemicals does not end up in the final product sold to customers, according to reports -- it is used, instead, to evaluate how actual human taste receptors respond to these chemical flavorings. But the fact that Pepsi uses them at all when viable, non-human alternatives are available illustrates the company's blatant disregard for ethical and moral concerns in the matter.

Back in January, Oklahoma Senator Ralph Shortey proposed legislation to ban the production of aborted fetal cell-derived flavor chemicals in his home state. If passed, S.B. 1418 would also reportedly ban the sale of any products that contain flavor chemicals derived from human fetal tissue, which includes Pepsi products as well as products produced by Kraft and Nestle (http://www.naturalnews.com).

फास्ट फूड’ एवं शीतपेयसे बचें !

फास्ट फूड’ एवं शीतपेयसे बचें !

पाश्चात्यों समान भारतमें भी आज ‘फास्ट फूड’ की भोगवादी संस्कृति पैल रही है । पिज्जा, बर्गर, चिप्स इत्यादि ‘फास्ट फूड’, कृत्रिम एवं प्रक्रियासे तैयार किया गया अन्न है !

‘फास्ट फूड’ के सेवनसे शारीरिक हानि

‘फास्ट फूड’ पौष्टिक नहीं होता एवं पचनके लिए कठिन होता है । एक सर्वेक्षणसे ज्ञात हुआ है कि, ‘विदेशमें ‘फास्ट फूड’ एवं शीतपेयके अत्यधिक सेवनसे बच्चोंमें स्थूलता बढ रही है और उनके चेहरे विकृत दिख रहे हैं’ । इससे हृदयरोग होनेकी संभावना होती है, जंकफूडके कारण बांझपन आता है, दांत दुर्बलहो जाते हैं, कर्करोगकी संभावना होती है, दांत तिरछे निकलते हैं और जबडेका आकार छोटा हो रहा है ।

मनुष्यकी आयु घटती है

‘फास्ट फूड’ जैसे आहारके कारण शरीरका मोटापा बढता है । इससे मनुष्यकी आयु घट सकती है । ब्रिटेनके प्रा. डेविड किंगके एक शोधके निष्कर्षके अनुसार जंकफूड खानेसे हुए मोटापेके कारण मनुष्यकी आयु १३ वर्षतक घट सकती है ।

‘फास्ट फूड’ के कारण संभावित आध्यात्मिक हानि

अधिकांशतः ‘फास्ट फूड’ दीर्घ कालावधिके लिए संग्रहित अन्न होता है । इससे तमोगुण बढता है और अनिष्ट शक्तियोंको आकर्षित करता है । ऐसे ‘फास्ट फूड’ के सेवनसे वृत्ति तामसिक बनती है (उदा. चिडचिडापन, वर्चस्व, मत्सर इत्यादि दुर्गुण बढते हैं) तथा अनिष्ट शक्तियोंके प्रभावकी आशंका बढती है ।

सात्त्विक भारतीय पदार्थोंका सेवन करें !

भारतीय पदार्थ ताजे, पचानेमें हलके एवं पौष्टिक होते हैं । भारतीय पाककलामें, अन्नमें विद्यमान नैसर्गिक तत्त्वों एवं जीवनसत्त्वोंको नष्ट किए बिना, पदार्थोंपर प्रक्रिया (उदा. सेकना, उबालना, सलाद बनाना) ध्यानपूर्वक की जाती है । इसलिए भारतीय पदार्थ सात्त्विक भी होते हैं ।

उतने ही अन्नका सेवन कीजिए, जिससे आधा पेट भर जाए; एक चौथाई जलके लिए तथा शेष वायुके लिए रहे !

आगरा में 12 वे ज्योतिर्लिंग का नाम हे अग्रेश्वर महादेव , आपको पता हें?

भारत में 12 ज्योतिर्लिंग थे 11 का सब को पता हें 12 व कहा गया ? आपको पता हें? चलो में बताता हूँ 12 वे ज्योतिर्लिंग का नाम हे अग्रेश्वर महादेव जो की आगरा में स्थित था| अब आप कहेंगे की आगरा में आज की तारीख में तो कोई शिव जी का ज्योतिर्लिंग नही हें ? किसी जमाने में, जिसे आज सब ताज मह
ल कहते हें, वो शिवालय हुआ करता था |जिसे शाहजहाँ ने अपनी पत्नी या कहे की बच्चे पैदा करने की मशीन मुमताज की लाश को दफ़नकरने के लिए जबरदस्ती छीन लिया था |

पूरी तथ्यात्मक रिपोर्ट पढ़े और अगर आप की रगों में हिन्दू का खून हें, तो ज्यादा से ज्यादा शेयर जरुर करे......

>प्रो. ओक कि खोज ताजमहल के नाम से प्रारम्भ होती है———

=”महल” शब्द, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में भवनों के लिए प्रयोग नही किया जाता…
यहाँ यह व्याख्या करना कि, महल शब्द मुमताज महल से लिया गया है……वह कम से कम दो प्रकार से तर्कहीन है-

पहला - शाहजहाँ कि पत्नी का नाम मुमताज महल कभी नही था, बल्कि उसका नाम मुमताज-उल-ज़मान­ ी था ।

दूसरा - किसी भवन का नामकरण किसी महिला के नाम के आधार पर रखने के लिए केवल अन्तिम आधे भाग (ताज)का ही प्रयोग किया जाए और प्रथम अर्ध भाग (मुम) को छोड़ दिया जाए, यह समझ से परे है ।

प्रो.ओक दावा करते हैं कि,ताजमहल नाम तेजो महालय (भगवान शिव का महल) का बिगड़ा हुआ संस्करण है, साथ ही साथ ओक कहते हैं कि -
मुमताज और शाहजहाँ कि प्रेम कहानी, चापलूस इतिहासकारों की भयंकर भूल और लापरवाह पुरातत्वविदों की सफ़ाई से, स्वयं गढ़ी गई कोरी अफवाह मात्र है, क्योंकि अगर इसमे थोड़ी भी सच्चाई होती तो शाहजहाँ के समय का कम से कम एक शासकीय अभिलेख इस प्रेम कहानी की पुष्टि कही ना कही जरुर करता है…..
इसके अतिरिक्त बहुत से प्रमाण ओक के कथन का प्रत्यक्षतः समर्थन कर रहे हैं……
तेजो महालय (ताजमहल) मुग़ल बादशाह के युग से पहले बना था, और यह भगवान् शिव कोसमर्पित था तथा आगरा के राजपूतों द्वारा पूजा जाता था ।

==>न्यूयार्क के पुरातत्वविद प्रो. मर्विन मिलर ने ताज के यमुना की तरफ़ केदरवाजे की लकड़ी की कार्बन डेटिंग के आधार पर 1985 में यह सिद्ध किया कि, यह दरवाजा सन् 1359 के आसपास अर्थात् शाहजहाँ के काल से लगभग 300 वर्ष पुराना है ।

==>मुमताज कि मृत्यु जिस वर्ष (1631) में हुई थी, उसी वर्ष के अंग्रेज भ्रमण कर्ता पीटर मुंडी का लेख भी इसका समर्थन करता है कि, ताजमहल मुग़ल बादशाह के पहले का एक अति महत्वपूर्ण भवन था ।

==>यूरोपियन यात्री जॉन अल्बर्ट मैनडेल्स्लो ने सन् 1638 (मुमताज कि मृत्यु के 07 साल बाद) में आगरा भ्रमण किया, और इस शहर के सम्पूर्ण जीवन वृत्तांत का वर्णन किया, परन्तु उसने ताज के बनने का कोई भी सन्दर्भ नही प्रस्तुत किया, जबकि भ्रांतियों मे यह कहा जाता है कि ताज का निर्माण कार्य 1631 से 1651 तक जोर शोर से चल रहा था ।

==>फ्रांसीसी यात्री फविक्स बर्निअर एम.डी. जो औरंगजेब द्वारा गद्दीनशीन होने के समय भारत आया था, और लगभग दस सालयहाँ रहा, के लिखित विवरण से पता चलता है कि, औरंगजेब के शासन के समय यह झूठ फैलाया जाना शुरू किया गया कि, ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था…….

प्रो. ओक. बहुत सी आकृतियों और शिल्प सम्बन्धी असंगताओं को इंगित करते हैं जो इस विश्वास का समर्थन करते हैं कि, ताजमहल विशाल मकबरा न होकर विशेषतः हिंदू शिव मन्दिर है…….

आज भी ताजमहल के बहुत से कमरे शाहजहाँ के काल से बंद पड़े हैं, जो आम जनता की पहुँच से परे हैं। प्रो. ओक जोर देकर कहते हैं कि, हिंदू मंदिरों में ही पूजाएवं धार्मिक संस्कारों के लिए भगवान् शिव की मूर्ति, त्रिशूल,कलश और ॐ आदि वस्तुएं प्रयोग की जाती हैं।

==>ताज महल के सम्बन्ध में यह आम किवदंत्ती प्रचलित है कि ताजमहल के अन्दर मुमताज की कब्र पर सदैव बूँद बूँद कर पानी टपकता रहता है, यदि यह सत्य है तो पूरे विश्व मे किसी कि भी कब्र पर बूँद बूँद कर पानी नही टपकाया जाता, जबकि प्रत्येक हिंदू शिव मन्दिर में ही शिवलिंग पर बूँद बूँद कर पानी टपकाने की व्यवस्था की जाती है, फ़िर ताजमहल (मकबरे) में बूँद बूँद कर पानी टपकाने का क्या मतलब….????

राजनीतिक भर्त्सना के डर से इंदिरा गाँधी सरकार ने ओक की सभी पुस्तकें स्टोर्स से वापस ले लीं थीं, और इन पुस्तकों के प्रथम संस्करण को छापने वाले संपादकों को भयंकर परिणाम भुगत लेने की धमकियां भी दी गईं थी ।
प्रो. पी. एन. ओक के अनुसंधान को ग़लत या सिद्ध करने का केवल एक ही रास्ता है, कि वर्तमान केन्द्र सरकार बंद कमरों को संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षण में खुलवाए, और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों को छानबीन करने दे ।

ज़रा सोचिये….!!!!!!
कि यदि ओक का अनुसंधान पूर्णतयः सत्य है तो किसी देशी राजा के बनवाए गए संगमरमरी आकर्षण वाले खूबसूरत, शानदारएवं विश्व के महान आश्चर्यों में से एक भवन, “तेजो महालय” को बनवाने का श्रेय बाहर से आए मुग़ल बादशाह शाहजहाँ को क्यों……?????

तथा -
इससे जुड़ी तमाम यादों का सम्बन्ध मुमताज-उल-ज़मान­ ी से क्यों……..??????­ ? ताजमहल के बारे में ये लाइने बिलकुल सटीक बैठती हें--

आंसू टपक रहे हैं, हवेली के बाम से,
रूहें लिपट के रोती हैं, हर खासों आम से|
अपनों ने बुना था हमें, कुदरत के काम से,
फ़िर भी यहाँ जिंदा हैं, हम गैरों के नाम से|

आर्यावर्त भरतखण्ड संस्कृति
आर्यावर्त भरतखण्ड संस्कृति

इसाई धर्म की दीवार में औरतें : आर एल फ्रांसिस

इसाई धर्म की दीवार में औरतें
आर एल फ्रांसिस

हर साल महिला असुरक्षा को लेकर ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ पर जोरदार भाषण होते हैं. वहीं महिला अस्मिता को लेकर सरकारे भी लम्बे-चौड़े वायदे कर अपनी दरयादिली दिखाने में पीछे नही रहती. तमाम कोशिशों और कानूनों के बावजूद इस बात को लेकर आशंका बनी रहती है कि घर के अंदर और बाहर महिलाओं की स्थिति में कोई बड़ा फर्क आएगा. यह सब इसलिए है क्योंकि महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा बहुत जटिल है और यह तभी हल होगा, जब हम समाज और परंपरा से लेकर कानून व्यवस्था की जड़ता को खत्म नहीं कर लेते.

यह शायद टूट भी जाए लेकिन उन करोड़ों महिलाओं का क्या होगा, जो धार्मिक रीति रिवाजों और परंपराओं की एक अटूट डोर से बंधी हुई हैं और सात पर्दों में ढके हुए उनके जीवन पर कोई चर्चा ही नही करना चाहता. ऐसी महिलाओं की संख्या दुनिया में लाखों में है. कहीं वह छोटे धार्मिक समूहों में है और कहीं कैथोलिक चर्च की विशाल व्यवस्था में. उनमें से अधिकतर के सामने गंभीर चुनौतियां हैं. ऐसी व्यवस्था में उनके लिए अंदर जाने का रास्ता तो होता है लेकिन बाहर आने के सभी दरवाजें बंद कर दिए गए हैं. इस कारण ज्यादातर मानसिक बीमारियों की जकड़न में हैं.

चार साल पहले केरल की एक कैथोलिक नन सिस्टर जेस्मी की आत्मकथा ‘आमीन’ ने कैथोलिक चर्च के दमघोंटू माहौल और धर्म के आडंबर की आड़ में जारी दुराचारों को समाज के सामने लाने का काम किया. तीन साल पहले केरल के कोल्लम जिले की एक कैथोलिक नन अनुपा मैरी की आत्महत्या ने चर्च की कार्यप्रणाली पर ढेरों सवाल खड़े कर दिये थे. इसके पहले सिस्टर अभया ने भी अनुपा मैरी वाला रास्ता चुना था और इन दोनों की लाशें कान्वेंट में ही पाई गई थीं.

अनुपा मैरी ने अपने सुसाइड नोट में साफ लिखा था कि उसे यह रास्ता इसलिए अपनाना पड़ा क्योंकि कान्वेंट में उसका मानसिक उत्पीड़न किया जा रहा था. नन के पिता ने चर्च व्यवस्था पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा था कि उसकी पुत्री का यौन शोषण किया जा रहा था और उसने अपनी तकलीफ को अपनी मां और बहन के साथ साझा किया था.

केरल के कन्नूर जिले की एक और नन सिस्टर मैरी चांडी ने ‘स्वास्ति’ नामक आत्मकथा लिखकर चर्च के अंदर घुट-घुट कर मरती ननों पर बहस को आगे बढ़ाने का काम किया है. सिस्टर मैरी चांडी ने बंद दरवाजों के अंदर यौन कुंठाओं के शिकार अपने ही सहयोगी पादरियों तथा अन्य अधिकारियों के व्यवहारों की व्याख्या के साथ देह की पवित्रता बनाए रखने के नाम पर ननों के लिए गढ़े गए आडंबरों की पोल खोल दी है.

यह दोनों महिलाएं 52 साल की सिस्टर जेसमी और 67 साल की सिस्टर मैरी चांडी कोई साधारण महिलाएं नही हैं. वह पिछले तीस वर्षों से कैथोलिक चर्च के विभिन्न संस्थाओं में अवैतनिक सेवा कर रही हैं. सिस्टर जेसमी अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक हैं और अगस्त 2008 तक वह त्रिसूर में चर्च द्वारा चलाए जाने वाले एक कालेज की प्राचार्या थीं. तीन दशक तक चर्च की सेवा करने के बाद उन्होंने चर्च के अंदर ननों के साथ होने वाले अनाचार का राज खोलने का साहस दिखाया है.

हाल ही में आयरलैंड में गर्भपात को लेकर एक बहस दुनिया भर में चली और बंद भी हो गई. क्योंकि वेटिकन- कैथोलिक चर्च ने इसमें कोई छूट देने से मना कर दिया क्योंकि चर्च नहीं चाहता कि धार्मिक कायद-कानूनों में कोई बदलाव किया जाए. जहां तक कैथोलिक ननों का सवाल है तो खुद पोप भी मानते हैं कि दस में से एक नन मानसिक रुप से परेशान होती है और उसे इलाज की जरुरत है.

व्यवस्था के विरुद्व आवाज उठाने वालों को रिट्रीट सैंटर में भेजने और पागल करार देकर इलाज के नाम पर एक अंतहीन शोषण का सिलसिला शुरु किया जाता है (इनमें पादरी और नन दोनो होते हैं), जहां उनकी मर्जी के विरुद्व जबरदस्ती उनका इलाज किया जाता है, जो एक नर्क से कम नही होता.

ऐसे मामले यह दर्शाते हैं कि धर्म की आड़ में बहुत कुछ ऐसा चल रहा है, जिसे उत्पीड़न की हद भी कहा जा सकता है लेकिन इसमें पीड़ितों की सुनवाई कहीं नहीं है. उम्मीद की जानी चाहिए कि दूसरों को मानवाधिकार का पाठ पढ़ाने वाले खुद भी इन्हें अपने काम के तरीकों में अपनायेंगे. देश में केरल ही एक ऐसा राज्य है, जहां से सबसे ज्यादा नन और पादरी आते हैं. एक लाख चालीस हजार ननों में से हर तीसरी नन केरल से आती है. ऐसे ही आंकड़े पादरियों के बारे में भी मिलते हैं.

वेटिकन के एक अध्ययन के मुताबिक सैमनरियों में पादरी तथा नन बनने के दौरान दस में से केवल चार पुरुप ही इस पेशे में टिक पाते हैं तथा बाकी अपने स्वाभाविक जीवन में लौट जाते हैं जबकि महिलाएं बहुत कम संख्या में वापिस लौट पाती हैं. इसकी वजह यह है कि महिलाओं पर परिवारिक और सामाजिक दबाव बहुत ज्यादा होता है, इसलिए वह चाहकर भी वापिस नहीं लौट पातीं.

केरल के कुछ चर्च सुधार समर्थक ईसाइयों की तरफ से कुछ साल पहले राज्य महिला आयोग से मांग की गई कि नन बनने की न्यूनतम आयु तय की जाए क्योंकि विश्वासी परिवार छोटी बच्चियों को ही नन बनने के लिए भेज देते हैं, जबकि वह खुद फैसला लेने में सक्षम नहीं होतीं.

नन बन चुकी लड़कियों का परिवारिक संपत्ति में अधिकार नहीं रहता. एक तरह से वह परिवारों से बेदखल कर दी जाती हैं. आयोग ने उस समय की वाम-मोर्चा सरकार से कई सिफारिशें की. आयोग ने कहा कि जो मां-बाप अपनी बेटी को नन बनने के लिए मजबूर करते हैं, उन पर कानूनी कार्रवाही की जानी चाहिए. ननों की संपति से बेदखली रोकी जानी चाहिए, अगर कोई नन वापिस लौटना चाहें तो उसके पुनर्वास की व्यवस्था की जानी चाहिए.

आयोग ने सरकार से सिफारिश की कि वह एक जांच करवाये, जिसमें यह पता चल सके कि कितनी नाबालिग बच्चियों को नन बनने के लिए बाध्य किया गया और कितनी ननें ऐसी हैं, जो सामाजिक जीवन में लौटना चाहती हैं. लेकिन चर्च के दबाव में किसी भी सरकार ने इस मामले में दखल देना जरुरी नहीं समझा.

चर्च के अधिकारियों ने केरल महिला आयोग के सुझावों को गैरजरुरी तथा अपने धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप करार देते हुए कहा कि यह केवल सुझाव है और इसे मानने या न मानने के लिए हम आजाद हैं. धर्मसम्मत नियम उन ननों पर ‘दया दिखाने’ को कहता है, जो नन होने का परित्याग कर चुकी हों. अध्ययन बताते हैं कि एक चौथाई से भी ज्यादा ननें अपने धार्मिक जीवन से असंतुष्ट हैं.

कार्डिनल वार्की विथायथिल ने अपनी जीवनी ‘स्ट्रेट फ्रॉम द हार्ट आई’ में माना है कि ननें जिन ‘दयनीय परिस्थितियों में रहती हैं,’ अब उन्हें उससे मुक्त करने का समय आ गया है. मेरा मानना है कि हमारी ननें काफी हद तक आजाद स्त्रियां नही हैं.’ वैसे महिलाओं को न्याय देने में आनाकानी करने में केवल चर्च ही नहीं, दूसरे धार्मिक संस्थानों का रुख भी वैसा ही है और इन पर भी बात करने की जरुरत है.

http://raviwar.com/news/844_church-nun-sex-women-rl-frencies.shtml

इस्लाम में बुर्के की शुरुआत क्यों और कैसे हुई है...????


क्या आप जानते हैं कि...... इस्लाम में बुर्के की शुरुआत क्यों और कैसे हुई है...????

दरअसल ... बुर्के की कहानी जानने से पहले हमें आज से लगभग १४०० साल पहले के अरब और मिस्र को जानना होगा...!

यहाँ यह ... यह सर्वविदित है कि....... मुहम्मद के समय अरब के लोग...... मुहम्मद के सामान ही लुटेरे, अय्याश और अत्याचारी रहे...... और, उस समय औरतें बाजार में बिकती थी.

उस समय अरब की हालत यह थी कि...... हिन्दा नाम की औरत ने तो अमीर हमजा का सीना चीरकर उसका कलेजा तक चबा लिया था.....!

इसके अलावा...... उस समय की अरबी औरते अनपढ़ ,अन्धविश्वासी और मूर्ख थीं....!

यहाँ तक कि.... इस्लाम के प्रतिपादक और अल्लाह के तथाकथित रसूल मुहम्मद की भी सारी औरतें अनपढ़ थी ,और अधिकांश अन्धविश्वासी थीं......इसलिए वे वासना पूर्ति और अपना पेट भरने के लिए मुहम्मद के पास जाती थी....क्योंकि..... उन्हें डर था कि कहीं उन्हें भी कोई लूट कर बेच न दे....!

लेकिन.... अब असली कारण और बुर्के की शुरुआत पर आते हैं.....!

अबू बकर की एक नौ साल की बेटी आयशा थी ....... तथा , मुहम्मद की पहली पत्नी खदीजा मर चुकी थी...!

उस समय मुहम्मद 54 साल का था ......जब उसकी नजर आयशा पर पड़ी....!

उसने अबू बकर को खलीफा बनाने का लालच दिया और उस छोटी सी मासूम बच्ची आयशा से शादी का दवाब डाला.......आयशा को शादी के बारे में ज्ञान ही नहीं था....!

इस पर .... मुहम्मद की दासियाँ आयशा को उठाकर मुहम्मद के कमरे में ले गयीं...... और, मुहम्मद ने उसका बलात्कार किया....!

आयशा चिल्लाती रही... और, रोती रही..... तथा उसकी आवाज दवाने के लिए औरतें शोर करती रही .........सही मुस्लिम-किताब8, हदीस-3309 & बुखारी-खंड 7, हदीस -65

जब तक मुहम्मद अपनी मनमानी नहीं कर चुका .... तब तक औरतें शोरमचाती रही ,ताकि किसी को पता नहीं चले कि क्या हो रहा है.....सही मुस्लिम -खंड 2 हदीस 3309

सिर्फ इतना ही नहीं......

मुहम्मद का एक जैद नामक बेटा था...... जिसे मुहम्मद ने गोद लिया था....!

मुहम्मद ने अपने बेटे जैद की शादी अपनी फूफी की लड़की जैनब से करवा दी थी और शादी के लिए सारा सामान भी दिया था...!

लेकिन एक बार जब जैद घर में नहीं था...... उस समय मुहम्मद की जैनब पर भी नजर पड़ गयी जब वह घर में कपडे धो रही थी...!

समय का लाभ उठाते हुए मुहम्मद ने अपनी भतीजी और बेटे की पत्नी जैनब का भी बलात्कार कर लिया ... और, उसने कुरान में ये आयत जोड़ दी....

मुहम्मद ने कहा कि... यह मैं अल्लाह के आदेश से कर रहा हूँ ..और , इसमे अल्लाह नेअ नुमति दी है....कुरआन-सूरा अह्जाब -३३.३७
अल्लाह ने कहा है लूट में पकड़ी गयी औरतों से तुम सम्भोग कर सकते हो....यह तुम्हारी संपत्ति हैं.......कुरआन-सूरा निसा ४/२३-२४

लेकिन.... अपने बाप द्वारा अपनी पत्नी के बलात्कार किये जाने से जैद काफी कुपित हो गया..... और, उसने मुहम्मद के करतूत का भांडा फोड़ देने की धमकी दी...!

इसी घटना के बाद इस्लाम में ..... बुर्के प्रथा की शुरुआत हुई ... ताकि अन्य औरतों को .... रसूल मुहम्मद की बलात्कारी दृष्टि से बचाया जा सके....!

और.... इसे कुरान में इस तरह परिभाषित कर दिया गया.....

अल्लाह पर ईमान रखने वाली औरतों से कह दो कि... वे अपनी नज़रे नीची रखें और अपनी इज्जत की सुरक्षा करें तथा वे अपने बनाव-श्रृंगार और आभूषणों को न दिखाएँ ,
इसमें कोई आपत्ति नहीं जो सामान्य रूप से नज़र आता हैं...और, उन्हे चाहिए कि वे अपने सीनों पर ओढ़नियॉ ओढ़ ले और अपने पतियों, बापों, अपने बेटों के अतिरिक्त किसी के सामने अपने बनाव-श्रृंगार प्रकट न करें।......क़ुरआन...24:31

( रिमार्क: लेकिन, अब इसका क्या किया जाए कि....... इस्लाम में... बाप, बेटे और भाइयों से भी यौन सम्बन्ध बनाना जायज बता दिया गया है..... और, ऐसा खुद अल्लाह के उस तथाकथित रसूल मुहम्मद ने भी अपनी सगी बेटी फातिमा के साथ किया था )

इस तरह..... बुर्का प्रथा ...... किसी अच्छे संस्कार की वजह से नहीं.... बल्कि.... मुहम्मद की कुदृष्टि से बचने के लिए अपनाई गयी एक प्रथा है....!

जय महाकाल...!!!

नोट: उपरोक्त लेख कुरान के गहन अध्धयन के बाद उसके reference से ही लिखी गयी है.... इसीलिए यदि किसी सज्जन अथवा दुर्जन को..... लेख को कोई आपत्ति हो तो..... वो पहले लेख में दिए गए कुरान की आयत एवं कहानी को गलत साबित करे....! 
Kumar Satish

गुरुवार, मार्च 07, 2013

क़ुतुब मीनार का सच , विष्णु ध्वज /विष्णु स्तम्भ

जरुर पढ़ें....................................क़ुतुब मीनार का सच ........


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1191A.D.में मोहम्मद गौरी ने दिल्ली पर आक्रमण किया ,तराइन के मैदान में पृथ्वी राज चौहान के साथ युद्ध में
गौरी बुरी तरह पराजित हुआ, 1192 में गौरी ने दुबारा आक्रमण में पृथ्वीराज को हरा दिया ,कुतुबुद्दीन, गौरी का सेनापति था
1206 में गौरी ने कुतुबुद्दीन को अपना नायब नियुक्त किया और जब 1206 A.D,में मोहम्मद गौरी की मृत्यु हुई tab वह गद्दी पर बैठा
,अनेक विरोधियों को समाप्त करने में उसे लाहौर में ही दो वर्ष लग गए I



1210 A.D. लाहौर में पोलो खेलते हुए घोड़े से गिरकर उसकी मौत हो गयी
अब इतिहास के पन्नों में लिख दिया गया है कि कुतुबुद्दीन ने
क़ुतुब मीनार ,कुवैतुल इस्लाम मस्जिद और अजमेर में अढाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद भी बनवाई I
अब कुछ प्रश्न .......
अब कुतुबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार बनाई, लेकिन कब ?
क्या कुतुबुद्दीन ने अपने राज्य काल 1206 से 1210 मीनार का निर्माण करा सकता था ? जबकि पहले के दो वर्ष उसने लाहौर में विरोधियों को समाप्त करने में बिताये और 1210 में भी मरने
के पहले भी वह लाहौर में था ?......शायद नहीं I
कुछ ने लिखा कि इसे 1193AD में बनाना शुरू किया
यह भी कि कुतुबुद्दीन ने सिर्फ एक ही मंजिल बनायीं
उसके ऊपर तीन मंजिलें उसके परवर्ती बादशाह इल्तुतमिश ने बनाई और उसके ऊपर कि शेष मंजिलें बाद में बनी I
यदि 1193 में कुतुबुद्दीन ने मीनार बनवाना शुरू किया होता तो उसका नाम बादशाह गौरी के नाम पर "गौरी मीनार "या ऐसा ही कुछ होता
न कि सेनापति कुतुबुद्दीन के नाम पर क़ुतुब मीनार I
उसने लिखवाया कि उस परिसर में बने 27 मंदिरों को गिरा कर उनके मलबे से मीनार बनवाई ,अब क्या किसी भवन के मलबे से कोई क़ुतुब मीनार जैसा उत्कृष्ट कलापूर्ण भवन बनाया जा
सकता है जिसका हर पत्थर स्थानानुसार अलग अलग नाप का पूर्व निर्धारित होता है ?
कुछ लोगो ने लिखा कि नमाज़ समय अजान देने के लिए यह मीनार बनी पर क्या उतनी ऊंचाई से किसी कि आवाज़ निचे तक आ भी सकती है ?
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उपरोक्त सभी बातें झूठ का पुलिंदा लगती है इनमें कुछ भी तर्क की कसौटी पर सच्चा नहीं lagta
सच तो यह है की जिस स्थान में क़ुतुब परिसर है वह मेहरौली कहा जाता है, मेहरौली वराहमिहिर के नाम पर बसाया गया था जो सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में एक , और
खगोलशास्त्री थे उन्होंने इस परिसर में मीनार यानि स्तम्भ के चारों ओर नक्षत्रों के अध्ययन
के लिए २७ कलापूर्ण परिपथों का निर्माण करवाया था I
इन परिपथों के स्तंभों पर सूक्ष्म कारीगरी के साथ देवी देवताओं की प्रतिमाएं भी उकेरी गयीं थीं जो नष्ट किये जाने के बाद भी कहीं कहींदिख जाती हैं I
कुछ संस्कृत भाषा के अंश दीवारों और बीथिकाओं के स्तंभों पर उकेरे हुए मिल जायेंगे जो मिटाए गए होने के बावजूद पढ़े जा सकते हैं I
मीनार , चारों ओर के निर्माण का ही भाग लगता है ,अलग से बनवाया हुआ नहीं लगता,
इसमे मूल रूप में सात मंजिलें थीं सातवीं मंजिल पर " ब्रम्हा जी की हाथ में वेद लिए हुए "मूर्ति थी जो तोड़ डाली गयीं थी ,छठी मंजिल पर विष्णु जी की मूर्ति के साथ कुछ निर्माण थे
we भी हटा दिए गए होंगे ,अब केवल पाँच मंजिलें ही शेष है
इसका नाम विष्णु ध्वज /विष्णु स्तम्भ या ध्रुव स्तम्भ प्रचलन में थे ,
इन सब का सबसे बड़ा प्रमाण उसी परिसर में खड़ा लौह स्तम्भ है जिस पर खुदा हुआ ब्राम्ही भाषा का लेख जिसे झुठलाया नहीं जा सकता ,लिखा है की यह स्तम्भ जिसे गरुड़ ध्वज कहा गया है
,सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य (राज्य काल 380-414 ईसवीं) द्वारा स्थापित किया गया था और यह लौह स्तम्भ आज भी विज्ञानं के लिए आश्चर्य की बात है कि आज तक इसमें जंग नहीं लगा .उसी महानसम्राट के दरबार में महान गणितज्ञ आर्य भट्ट,खगोल शास्त्री एवं भवन निर्माण
विशेषज्ञ वराह मिहिर ,वैद्य राज ब्रम्हगुप्त आदि हुए
ऐसे राजा के राज्य काल को जिसमे लौह स्तम्भ स्थापित हुआ तो क्या जंगल में अकेला स्तम्भ बना होगा निश्चय ही आसपास अन्य निर्माण हुए होंगे जिसमे एक भगवन विष्णु का मंदिर था उसी मंदिर के पार्श्व में विशालस्तम्भ वि ष्णुध्वज जिसमे सत्ताईस झरोखे जो सत्ताईस नक्षत्रो व खगोलीय अध्ययन के लिए बनाए गए निश्चय ही वराह मिहिर के निर्देशन में बनाये गए
इस प्रकार कुतब मीनार के निर्माण का श्रेय सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य के राज्य कल में खगोल शाष्त्री वराहमिहिर को जाता है I
कुतुबुद्दीन ने सिर्फ इतना किया कि भगवान विष्णु के मंदिर को विध्वंस किया उसे कुवातुल इस्लाम मस्जिद कह दिया ,विष्णु ध्वज (स्तम्भ ) के हिन्दू संकेतों को छुपाकर उन पर
अरबी के शब्द लिखा दिए और क़ुतुब मीनार बन गया...

आर्यावर्त भरतखण्ड संस्कृति
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