शनिवार, जनवरी 24, 2015

“हवाईज़ादा” एवं वैमानिक शास्त्र – कथित बुद्धिजीवियों में इतनी बेचैनी क्यों है?

“हवाईज़ादा” एवं वैमानिक शास्त्र – कथित बुद्धिजीवियों में इतनी बेचैनी क्यों है?
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जैसे ही यह निश्चित हुआ, कि मुम्बई में सम्पन्न होने वाली 102 वीं विज्ञान कांग्रेस में भूतपूर्व फ्लाईट इंजीनियर एवं पायलट प्रशिक्षक श्री आनंद बोडस द्वारा भारतीय प्राचीन विमानों पर एक शोधपत्र पढ़ा जाएगा, तभी यह तय हो गया था कि भारत में वर्षों से विभिन्न अकादमिक संस्थाओं पर काबिज, एक “निहित स्वार्थी बौद्धिक समूह” अपने पूरे दमखम एवं सम्पूर्ण गिरोहबाजी के साथ बोडस के इस विचार पर ही हमला करेगा, और ठीक वैसा ही हुआ भी. एक तो वैसे ही पिछले बारह वर्ष से नरेंद्र मोदी इस “गिरोह” की आँखों में कांटे की तरह चुभते आए हैं, ऐसे में यदि विज्ञान काँग्रेस का उदघाटन मोदी करने वाले हों, इस महत्त्वपूर्ण आयोजन में “प्राचीन वैमानिकी शास्त्र” पर आधारित कोई रिसर्च पेपर पढ़ा जाने वाला हो तो स्वाभाविक है कि इस बौद्धिक गिरोह में बेचैनी होनी ही थी. ऊपर से डॉक्टर हर्षवर्धन ने यह कहकर माहौल को और भी गर्मा दिया कि पायथागोरस प्रमेय के असली रचयिता भारत के प्राचीन ऋषि थे, लेकिन उसका “क्रेडिट” पश्चिमी देश ले उड़े हैं.

सेकुलरिज़्म, प्रगतिशीलता एवं वामपंथ के नाम पर चलाई जा रही यह “बेईमानी” कोई आज की बात नहीं है, बल्कि भारत के स्वतन्त्र होने के तुरंत बाद से ही नेहरूवादी समाजवाद एवं विदेशी सेकुलरिज़्म के विचार से बाधित वामपंथी इतिहासकारों, साहित्यकारों, लेखकों, अकादमिक विशेषज्ञों ने खुद को न सिर्फ सर्वश्रेष्ठ के रूप में पेश किया, बल्कि भारतीय इतिहास, आध्यात्म, संस्कृति एवं वेद-आधारित ग्रंथों को सदैव हीन दृष्टि से देखा. चूँकि अधिकाँश पुस्तक लेखक एवं पाठ्यक्रम रचयिता इसी “गिरोह” से थे, इसलिए उन्होंने बड़े ही मंजे हुए तरीके से षडयंत्र बनाकर, व्यवस्थित रूप से पूरी की पूरी तीन पीढ़ियों का “ब्रेनवॉश” किया. “आधुनिक वैज्ञानिक सोच”(?) के नाम पर प्राचीन भारतीय ग्रंथों जैसे वेद, उपनिषद, पुराण आदि को पिछड़ा हुआ, अनगढ़, “कोरी गप्प” अथवा “किस्से-कहानी” साबित करने की पुरज़ोर कोशिश चलती रही, जिसमें वे सफल भी रहे, क्योंकि समूची शिक्षा व्यवस्था तो इसी गिरोह के हाथ में थी. बहरहाल, इस विकट एवं कठिन पृष्ठभूमि तथा हो-हल्ले एवं दबाव के बावजूद यदि वैज्ञानिक बोडस जी विज्ञान काँग्रेस में प्राचीन वैमानिक शास्त्र विषय पर अपना शोध पत्र प्रस्तुत कर पाए, तो निश्चित ही इसका श्रेय “बदली हुई सरकार” को देना चाहिए.

यहाँ पर सबसे पहला सवाल उठता है, कि क्या विरोधी पक्ष के इन “तथाकथित बुद्धिजीवियों” द्वारा उस ग्रन्थ में शामिल सभी बातों को, बिना किसी विचार के, अथवा बिना किसी शोध के सीधे खारिज किया जाना उचित है? दूसरा पक्ष सुने बिना, अथवा उसके तथ्यों एवं तर्कों की प्रामाणिक जाँच किए बिना, सीधे उसे नाकारा या अज्ञानी साबित करने की कोशिश में जुट जाना “बौद्धिक भ्रष्टाचार” नहीं है? निश्चित है. यदि इन वामपंथी एवं प्रगतिशील लेखकों को ऐसा लगता है कि महर्षि भारद्वाज द्वारा रचित “वैमानिकी शास्त्र” निहायत झूठ एवं गल्प का उदाहरण है, तो भी कम से कम उन्हें इसकी जाँच तो करनी ही चाहिए थी. बोडस द्वारा रखे गए विभिन्न तथ्यों एवं वैमानिकी शास्त्र में शामिल कई प्रमुख बातों को विज्ञान की कसौटी पर तो कसना चाहिए था? लेकिन ऐसा नहीं किया गया. किसी दूसरे व्यक्ति की बात को बिना कोई तर्क दिए सिरे से खारिज करने की “तानाशाही” प्रवृत्ति पिछले साठ वर्षों से यह देश देखता आया है. “वैचारिक छुआछूत” का यह दौर बहुत लंबा चला है, लेकिन अंततः चूँकि सच को दबाया नहीं जा सकता, आज भी सच धीरे-धीरे विभिन्न माध्यमों से सामने आ रहा है... इसलिए इस “प्रगतिशील गिरोह” के दिल में असल बेचैनी इसी बात की है कि जो “प्राचीन ज्ञान” हमने बड़े जतन से दबाकर रखा था, जिस ज्ञान को हमने “पोंगापंथ” कहकर बदनाम किया था, जिन विद्वानों के शोध को हमने खिल्ली उड़ाकर खारिज कर दिया था, जिस ज्ञान की भनक हमने षडयंत्रपूर्वक नहीं लगने दी, कहीं वह ज्ञान सच्चाई भरे नए स्वरूप में दुनिया के सामने न आ जाए. परन्तु इस वैचारिक गिरोह को न तो कोई शोध मंजूर है, ना ही वेदों-ग्रंथों-शास्त्रों पर कोई चर्चा मंजूर है और संस्कृत भाषा के ज़िक्र करने भर से इन्हें गुस्सा आने लगता है. यह गिरोह चाहता है कि “हमने जो कहा, वही सही है... जो हमने लिख दिया, या पुस्तकों में लिखकर बता दिया, वही अंतिम सत्य है.. शास्त्रों या संस्कृत द्वारा इसे कोई चुनौती दी ही नहीं जा सकती”. इतनी लंबी प्रस्तावना इसलिए दी गई, ताकि पाठकगण समस्या के मूल को समझें, विरोधियों की बदनीयत को जानें और समझें. बच्चों को पढ़ाया जाता है कि भारत की खोज वास्कोडिगामा ने की थी... क्यों? क्या उससे पहले यहाँ भारत नहीं था? यह भूमि नहीं थी? यहाँ लोग नहीं रहते थे? वास्कोडिगामा के आने से पहले क्या यहाँ कोई संस्कृति, भाषा नहीं थी? फिर वास्कोडिगामा ने क्या खोजा?? वही ना, जो पहले से मौजूद था.

खैर... बात हो रही थी वैमानिकी शास्त्र की... सभी विद्वानों में कम से कम इस बात को लेकर दो राय नहीं हैं कि महर्षि भारद्वाज द्वारा वैमानिकी शास्त्र लिखा गया था. इस शास्त्र की रचना के कालखंड को लेकर विवाद किया जा सकता है, लेकिन इतना तो निश्चित है कि जब भी यह लिखा गया होगा, उस समय तक हवाई जहाज़ का आविष्कार करने का दम भरने वाले “राईट ब्रदर्स” की पिछली दस-बीस पीढियाँ पैदा भी नहीं हुई होंगी. ज़ाहिर है कि प्राचीन काल में विमान भी था, दूरदर्शन भी था (महाभारत-संजय प्रकरण), अणु बम (अश्वत्थामा प्रकरण) भी था, प्लास्टिक सर्जरी (सुश्रुत संहिता) भी थी। यानी वह सब कुछ था, जो आज है, लेकिन सवाल तो यह है कि वह सब कहां चला गया? ऐसा कैसे हुआ कि हजारों साल पहले जिन बातों की “कल्पना”(?) की गई थी, ठीक उसी प्रकार एक के बाद एक वैज्ञानिक आविष्कार हुए? अर्थात उस प्राचीन काल में उन्नत टेक्नोलॉजी तो मौजूद थी, वह किसी कारणवश लुप्त हो गई. जब तक इस बारे में पक्के प्रमाण सामने नहीं आते, उसे शेष विश्व द्वारा मान्यता नहीं दी जाएगी. “प्रगतिशील एवं सेकुलर-वामपंथी गिरोह” द्वारा इसे वैज्ञानिक सोच नहीं माना जाएगा, “कोरी गप्प” माना जाएगा... फिर सच्चाई जानने का तरीका क्या है? इन शास्त्रों का अध्ययन हो, उस संस्कृत भाषा का प्रचार-प्रसार किया जाए, जिसमें ये शास्त्र या ग्रन्थ लिखे गए हैं. चरक, सुश्रुत वगैरह की बातें किसी दूसरे लेख में करेंगे, तो आईये संक्षिप्त में देखें कि महर्षि भारद्वाज लिखित “वैमानिकी शास्त्र” पर कम से कम विचार किया जाना आवश्यक क्यों है... इसको सिरे से खारिज क्यों नहीं किया जा सकता.

जब भी कोई नया शोध या खोज होती है, तो उस आविष्कार का श्रेय सबसे पहले उस “विचार” को दिया जाना चाहिए, उसके बाद उस विचार से उत्पन्न हुई आविष्कार के सबसे पहले “प्रोटोटाइप” को महत्त्व दिया जाना चाहिए. लेकिन राईट बंधुओं के मामले में ऐसा नहीं किया गया. शिवकर बापूजी तलपदे ने इसी वैमानिकी शास्त्र का अध्ययन करके सबसे पहला विमान बनाया था, जिसे वे सफलतापूर्वक 1500 फुट की ऊँचाई तक भी ले गए थे, फिर जिस “आधुनिक विज्ञान” की बात की जाती है, उसमें महर्षि भारद्वाज न सही शिवकर तलपदे को सम्मानजनक स्थान हासिल क्यों नहीं है? क्या सबसे पहले विमान की अवधारणा सोचना और उस पर काम करना अदभुत उपलब्धि नहीं है? क्या इस पर गर्व नहीं होना चाहिए? क्या इसके श्रेय हेतु दावा नहीं करना चाहिए? फिर यह सेक्यूलर गैंग बारम्बार भारत की प्राचीन उपलब्धियों को लेकर शेष भारतीयों के मन में हीनभावना क्यों रखना चाहती है?

अंग्रेज शोधकर्ता डेविड हैचर चिल्द्रेस ने अपने लेख Technology of the Gods – The Incredible Sciences of the Ancients (Page 147-209) में लिखते हैं कि हिन्दू एवं बौद्ध सभ्यताओं में हजारों वर्ष से लोगों ने प्राचीन विमानों के बारे सुना और पढ़ा है. महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित “यन्त्र-सर्वस्व” में इसे बनाने की विधियों के बारे में विस्तार से लिखा गया है. इस ग्रन्थ को चालीस उप-भागों में बाँटा गया है, जिसमें से एक है “वैमानिक प्रकरण, जिसमें आठ अध्याय एवं पाँच सौ सूत्र वाक्य हैं. महर्षि भारद्वाज लिखित “वैमानिक शास्त्र” की मूल प्रतियाँ मिलना तो अब लगभग असंभव है, परन्तु सन 1952 में महर्षि दयानंद के शिष्य स्वामी ब्रह्ममुनी परिव्राजक द्वारा इस मूल ग्रन्थ के लगभग पाँच सौ पृष्ठों को संकलित एवं अनुवादित किया गया था, जिसकी पहली आवृत्ति फरवरी 1959 में गुरुकुल कांगड़ी से प्रकाशित हुई थी. इस आधी-अधूरी पुस्तक में भी कई ऐसी जानकारियाँ दी गई हैं, जो आश्चर्यचकित करने वाली हैं.

इसी लेख में डेविड हैचर लिखते हैं कि प्राचीन भारतीय विद्वानों ने विभिन्न विमानों के प्रकार, उन्हें उड़ाने संबंधी “मैनुअल”, विमान प्रवास की प्रत्येक संभावित बात एवं देखभाल आदि के बारे में विस्तार से “समर सूत्रधार” नामक ग्रन्थ में लिखी हैं. इस ग्रन्थ में लगभग 230 सूत्रों एवं पैराग्राफ की महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ हैं. डेविड आगे कहते हैं कि यदि यह सारी बातें उस कालखंड में लिखित एवं विस्तृत स्वरूप में मौजूद थीं तो क्या ये कोरी गल्प थीं? क्या किसी ऐसी “विशालकाय वस्तु” की भौतिक मौजूदगी के बिना यह सिर्फ कपोल कल्पना हो सकती है? परन्तु भारत के परम्परागत इतिहासकारों तथा पुरातत्त्ववेत्ताओं ने इस “कल्पना”(?) को भी सिरे से खारिज करने में कोई कसर बाकी न रखी. एक और अंग्रेज लेखक एंड्रयू टॉमस लिखते हैं कि यदि “समर सूत्रधार” जैसे वृहद एवं विस्तारित ग्रन्थ को सिर्फ कल्पना भी मान लिया जाए, तो यह निश्चित रूप से अब तक की सर्वोत्तम कल्पना या “फिक्शन उपन्यास” माना जा सकता है. टॉमस सवाल उठाते हैं कि रामायण एवं महाभारत में भी कई बार “विमानों” से आवागमन एवं विमानों के बीच पीछा अथवा उनके आपसी युद्ध का वर्णन आता है. इसके आगे मोहन जोदड़ो एवं हडप्पा के अवशेषों में भी विमानों के भित्तिचित्र उपलब्ध हैं. इसे सिर्फ काल्पनिक कहकर खारिज नहीं किया जाना चाहिए था. पिछले चार सौ वर्ष की गुलामी के दौर ने कथित बौद्धिकों के दिलो-दिमाग में हिंदुत्व, संस्कृत एवं प्राचीन ग्रंथों के नाम पर ऐसी हीन ग्रंथि पैदा कर दी है, उन्हें सिर्फ अंग्रेजों, जर्मनों अथवा लैटिनों का लिखा हुआ ही परम सत्य लगता है. इन बुद्धिजीवियों को यह लगता है कि दुनिया में सिर्फ ऑक्सफोर्ड और हारवर्ड दो ही विश्वविद्यालय हैं, जबकि वास्तव में हुआ यह था कि प्राचीन तक्षशिला और नालन्दा विश्वविद्यालय जहाँ आक्रान्ताओं द्वारा भीषण अग्निकांड रचे गए अथवा सैकड़ों घोड़ों पर संस्कृत ग्रन्थ लादकर अरब, चीन अथवा यूरोप ले जाए गए. हाल-फिलहाल इन कथित बुद्धिजीवियों द्वारा बिना किसी शोध अथवा सबूत के संस्कृत ग्रंथों एवं लुप्त हो चुकी पुस्तकों/विद्याओं पर जो हाय-तौबा मचाई जा रही है, वह इसी गुलाम मानसिकता का परिचायक है.

इन लुप्त हो चुके शास्त्रों, ग्रंथों एवं अभिलेखों की पुष्टि विभिन्न शोधों द्वारा की जानी चाहिए थी कि आखिर यह तमाम ग्रन्थ और संस्कृत की विशाल बौद्धिक सामग्री कहाँ गायब हो गई? ऐसा क्या हुआ था कि एक बड़े कालखण्ड के कई प्रमुख सबूत गायब हैं? क्या इनके बारे में शोध करना, तथा तत्कालीन ऋषि-मुनियों एवं प्रकाण्ड विद्वानों ने यह “कथित कल्पनाएँ” क्यों की होंगी? कैसे की होंगी? उन कल्पनाओं में विभिन्न धातुओं के मिश्रण अथवा अंतरिक्ष यात्रियों के खान-पान सम्बन्धी जो नियम बनाए हैं वह किस आधार पर बनाए होंगे, यह सब जानना जरूरी नहीं था? लेकिन पश्चिम प्रेरित इन इतिहासकारों ने सिर्फ खिल्ली उड़ाने में ही अपना वक्त खराब किया है और भारतीय ज्ञान को बर्बाद करने की सफल कोशिश की है.

ऑक्सफोर्ड विवि के ही एक संस्कृत प्रोफ़ेसर वीआर रामचंद्रन दीक्षितार अपनी पुस्तक “वार इन द एन्शियेंट इण्डिया इन 1944” में लिखते हैं कि आधुनिक वैमानिकी विज्ञान में भारतीय ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण योगदान है. उन्होंने बताया कि सैकड़ों गूढ़ चित्रों द्वारा प्राचीन भारतीय ऋषियों ने पौराणिक विमानों के बारे में लिखा हुआ है. दीक्षितार आगे लिखते हैं कि राम-रावण के युद्ध में जिस “सम्मोहनास्त्र” के बारे में लिखा हुआ है, पहले उसे भी सिर्फ कल्पना ही माना गया, लेकिन आज की तारीख में जहरीली गैस छोड़ने वाले विशाल बम हकीकत बन चुके हैं. पश्चिम के कई वैज्ञानिकों ने प्राचीन संस्कृत एवं मोड़ी लिपि के ग्रंथों का अनुवाद एवं गहन अध्ययन करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि निश्चित रूप से भारतीय मनीषियों/ऋषियों को वैमानिकी का वृहद ज्ञान था. यदि आज के भारतीय बुद्धिजीवी पश्चिम के वैज्ञानिकों की ही बात सुनते हैं तो उनके लिए चार्ल्स बर्लित्ज़ का नाम नया नहीं होगा. प्रसिद्ध पुस्तक “द बरमूडा ट्राएंगल” सहित अनेक वैज्ञानिक पुस्तकें लिखने वाले चार्ल्स बर्लित्ज़ लिखते हैं कि, “यदि आधुनिक परमाणु युद्ध सिर्फ कपोल कल्पना नहीं वास्तविकता है, तो निश्चित ही भारत के प्राचीन ग्रंथों में ऐसा बहुत कुछ है जो हमारे समय से कहीं आगे है”. 400 ईसा पूर्व लिखित “ज्योतिष” ग्रन्थ में ब्रह्माण्ड में धरती की स्थिति, गुरुत्वाकर्षण नियम, ऊर्जा के गतिकीय नियम, कॉस्मिक किरणों की थ्योरी आदि के बारे में बताया जा चुका है. “वैशेषिका ग्रन्थ” में भारतीय विचारकों ने परमाणु विकिरण, इससे फैलने वाली विराट ऊष्मा तथा विकिरण के बारे में अनुमान लगाया है. (स्रोत :- Doomsday 1999 – By Charles Berlitz, पृष्ठ 123-124).

इसी प्रकार कलकत्ता संस्कृत कॉलेज के संस्कृत प्रोफ़ेसर दिलीप कुमार कांजीलाल ने 1979 में Ancient Astronaut Society की म्यूनिख (जर्मनी) में सम्पन्न छठवीं काँग्रेस के दौरान उड़ सकने वाले प्राचीन भारतीय विमानों के बारे में एक उदबोधन दिया एवं पर्चा प्रस्तुत किया था (सौभाग्य से उस समय वहाँ सतत खिल्ली उड़ाने वाले, आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवी नहीं थे). प्रोफ़ेसर कांजीलाल के अनुसार ईसा पूर्व 500 में “कौसितकी” एवं “शतपथ ब्रह्मण” नामक कम से कम दो और ग्रन्थ थे, जिसमें अंतरिक्ष से धरती पर देवताओं के उतरने का उल्लेख है. यजुर्वेद में उड़ने वाले यंत्रों को “विमान” नाम दिया गया, जो “अश्विन” उपयोग किया करते थे. इसके अलावा भागवत पुराण में भी “विमान” शब्द का कई बार उल्लेख हुआ है. ऋग्वेद में “अश्विन देवताओं” के विमान संबंधी विवरण बीस अध्यायों (1028 श्लोकों) में समाया हुआ है, जिसके अनुसार अश्विन जिस विमान से आते थे, वह तीन मंजिला, त्रिकोणीय एवं तीन पहियों वाला था एवं यह तीन यात्रियों को अंतरिक्ष में ले जाने में सक्षम था. कांजीलाल के अनुसार, आधे-अधूरे स्वरूप में हासिल हुए वैमानिकी संबंधी इन संस्कृत ग्रंथों में उल्लिखित धातुओं एवं मिश्रणों का सही एवं सटीक अनुमान तथा अनुवाद करना बेहद कठिन है, इसलिए इन पर कोई विशेष शोध भी नहीं हुआ. “अमरांगण-सूत्रधार” ग्रन्थ के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर एवं इंद्र के अलग-अलग पाँच विमान थे. आगे चलकर अन्य ग्रंथों में इन विमानों के चार प्रकार रुक्म, सुंदरा, त्रिपुर एवं शकुन के बारे में भी वर्णन किया गया है, जैसे कि “रुक्म” शंक्वाकार विमान था जो स्वर्ण जड़ित था, जबकि “त्रिपुर विमान” तीन मंजिला था. महर्षि भारद्वाज रचित “वैमानिकी शास्त्र” में यात्रियों के लिए “अभ्रक युक्त” (माएका) कपड़ों के बारे में बताया गया है, और जैसा कि हम जानते हैं आज भी अग्निरोधक सूट में माईका अथवा सीसे का उपयोग होता है, क्योंकि यह ऊष्मारोधी है

भारत के मौजूदा मानस पर पश्चिम का रंग कुछ इस कदर चढ़ा है कि हममें से अधिकांश अपनी खोज या किसी रचनात्मक उपलब्धि पर विदेशी ठप्पा लगते देखना चाहते हैं. इसके बाद हम एक विशेष गर्व अनुभव करते हैं. ऐसे लोगों के लिए मैं प्राचीन भारतीय विमान के सन्दर्भ में एरिक वॉन डेनिकेन की खोज के बारे में बता रहा हूँ उससे पहले एरिक वॉन डेनिकेन का परिचय जरुरी है. 79 वर्षीय डेनिकेन एक खोजी और बहुत प्रसिद्ध लेखक हैं. उनकी लिखी किताब 'चेरिएट्स ऑफ़ द गॉड्स' बेस्ट सेलर रही है. डेनिकेन की खूबी हैं कि उन्होंने प्राचीन इमारतों और स्थापत्य कलाओं का गहन अध्ययन किया और अपनी थ्योरी से साबित किया है कि पूरे विश्व में प्राचीन काल में एलियंस (परग्रही) पृथ्वी पर आते-जाते रहे हैं. एरिक वॉन डेनिकेन 1971 में भारत में कोलकाता गए थे. वे अपनी 'एंशिएंट एलियंस थ्योरी' के लिए वैदिक संस्कृत में कुछ तलाशना चाहते थे. डेनिकेन यहाँ के एक संस्कृत कालेज में गए. यहाँ उनकी मुलाकात इन्हीं प्रोफ़ेसर दिलीप कंजीलाल से हुई थी. प्रोफ़ेसर ने प्राचीन भारतीय ग्रंथों का आधुनिकीकरण किया है. देवताओं के विमान यात्रा वृतांत ने वोन को खासा आकर्षित किया. वोन ने माना कि ये वैदिक विमान वाकई में नटबोल्ट से बने असली एयर क्राफ्ट थे. उन्हें हमारे मंदिरों के आकार में भी विमान दिखाई दिए. उन्होंने जानने के लिए लम्बे समय तक शोध किया कि भारत में मंदिरों का आकार विमान से क्यों मेल खाता है? उनके मुताबिक भारत के पूर्व में कई ऐसे मंदिर हैं जिनमे आकाश में घटी खगोलीय घटनाओ का प्रभाव साफ़ दिखाई देता है. वॉन के मुताबिक ये खोज का विषय है कि आख़िरकार मंदिर के आकार की कल्पना आई कहाँ से? इसके लिए विश्व के पहले मंदिर की खोज जरुरी हो जाती है और उसके बाद ही पता चल पायेगा कि विमान के आकार की तरह मंदिरों के स्तूप या शिखर क्यों बनाये गए थे? हम आज उसी उन्नत तकनीक की तलाश में जुटे हैं जो कभी भारत के पास हुआ करती थी.

By: Suresh Chiplukar

गुरुवार, जनवरी 22, 2015

किसी भी धर्म की इतनी शाखाएं नहीं हैं जितनी इस्लाम की हैं.. और इन सबकी मान्यताएं बिलकुल भिन्न हैं ??

कुरान और हदीस का रिफरेन्स और कृत्यों की वजह से सारे मुसलमानों को गलत बता देते हैं कुछ लोग.. मगर ये सिर्फ अल्पज्ञान के कारण ही ऐसा करते हैं.. आप सबको जानना चाहिए कि इस्लाम से कितनी शाखाएं निकली.. दुनिया में किसी भी धर्म की इतनी शाखाएं नहीं हैं जितनी इस्लाम की हैं.. और इन सबकी मान्यताएं बिलकुल भिन्न हैं
सुफिस्म: इस्लामिक सुफिस्म इस्लाम का ही हिस्सा है मगर इसकी शिक्षाएं इसकी अपनी हैं.. पूरी दुनिया में इस्लामिक सुफिस्म के तीन सौ से भी ज्यादा शाखाएं हैं और हर शाखा की अपनी अपनी शिक्षा है.. सुफिस्म की सारी शिक्षा वेदान्त, बुधिस्म और जेन ही की तरह हैं..
बहाई धर्म: ये भी इस्लाम से ही निकला है.. सय्यद अली मुहम्मद शिराज़ी इसके संथापक थे.. जिन्होंने अपने आपको पैगम्बर घोषित किया और नया धर्म ही चला दिया.. बाद में आखिर उनको मार डाला गया.. मगर बहाई धर्म फला फूला.. दिल्ली का लोटस टेम्पल बहाई धर्म का केंद्र है
कादियानी (अहमदिया): ये भी इस्लाम का ही एक अंग है.. मिर्ज़ा गुलाम अहमद इसके संस्थापक हैं और इन्होने भी अपने आपको पैगम्बर घोषित किया.. इसकी शिक्षाएं इस्लाम से भिन्न हैं.. इसमें कृष्ण जी और भगवान् बुद्ध को भी अल्लाह का पैगम्बर माना गया है और उनको पैगम्बर जितना सम्मान दिया जाता है
नियाजी मुस्लिम: ये पन्थ “शमा नियाजी” द्वारा स्थापित किया है.. उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गावं में.. आज इनके मानने वालों की संख्या लाखों में है.. ये पंथ काबा को आदम की कब्र मानता है.. और आदम और मनु को पहला मानव मानता है.. और ये भी कि काबा हर धर्म के लिए है और इसे सबके लिए खोलना चाहिए.. इनकी अन्य शिक्षाओं में भी सनातन, वेदांत और बुद्ध की शिक्षाओं का समावेश है.. भगवान राम और अन्य लोगों को भी इसमें पूर्ण आदर दिया जाता है.. बड़े वहाबी विरोधों के बावजूद भी ये पंथ फलफूल रहा है
शिया इस्लाम: इस पंथ की मूल आस्था का केंद्र पैगम्बर मुहम्मद, और उनके दामाद अली और नवासे हसन हुसैन हैं.. शिया संप्रदाय का वहाबी सम्प्रदाय से मतभेद बहुत पुराना है.. शिया कुरान को तो मानता है मगर हदीस में मतभेद है.. शिया पंथ का मतभेद इस्लाम के कुछ खलीफाओं से भी है.. ये माना जाता है की सुफिस्म शिया इस्लाम से ही निकला था
सुन्नी मत: वैसे पूरी दुनिया के मुसलमानों को सुन्नी बोला जाता है.. मगर एशियाई देशो में सुन्नी मत भिन्न है.. भारत में सुन्नी “अहमद राजा खान बरेलवी” की शिक्षाओं को मानता है.. इसीलिए सुन्नियों की बरेलवी भी बोला जाता है और वहाबियों को देवबंदी.. सुन्नी मत पैगम्बर मुहम्मद को प्रथम रखता है और इनकी इनकी शिक्षाओं में धर्म को लेकर कट्टरपन कम पाया जाता है.. इनका अल्लाह से मिलने का सिलसिला पैगम्बर से होकर जाता है
वहाबी इस्लाम: सऊदी अरब और अन्य इस्लामिक देशो में ये मत ही सर्वोपरि है.. भारत में इसका केंद्र देवबंद है.. ये मत अपने आपको ही असली इस्लाम बताता है बाकी अन्य किसी भी इस्लामिक मत को ये नहीं मानता है.. इनमे अल्लाह पहले आता है बाकी सब कुछ उसके बाद.. ये मत मजारों और दरगाहों और हर उस चीज़ में जिसमे किसी और व्यक्ति या वस्तु की आराधना हो, को खारिज करता है..
और भी बहुत शाखाएं हैं इस्लाम की जिनके बारे में फिर कभी लिखूंगा..

रविवार, जनवरी 18, 2015

कब्र पूजा – मुर्खता अथवा अंधविश्वास

कब्र पूजा – मुर्खता अथवा अंधविश्वास

आज वीरवार है। शाम को राह जाते एक स्थान पर भीड़ लगी देखी। मालूम चला कोई मुर्दा कब्र में लेटा है और एक अरबी टोपी लगाये एक मुसलमान हाथ में मोरपंख की झाड़ू लेकर उसके नाम पर अंदर धन बटोर रहा है जबकि बाहर उसके रिश्तेदार हरी चादर, अगरबत्ती,फूल आदि बेचकर हिन्दुओं को मुर्ख बना रहे है। कुछ पुराने मित्र कहते है यह आस्था और श्रद्धा का प्रश्न है, कुछ मत कहो। कुछ कहते है की यह मूर्ति पूजा है, कुछ मत कहो। कुछ कहते है की अगर आप प्रश्न करेंगे तो हिन्दुओं में एकता नहीं होगी क्यूंकि युद्ध काल में जब गर्दन पर तलवार हो तब प्रश्न करना मूर्खता है और प्रश्न करने वाला मूर्ख है। परन्तु भाई हम क्या करे कोई गड्डे में गिर रहा हो तो उसे गिरने से न रोके क्यूंकि भावनायें आहत होगी। हम तो महान समाज सुधारक स्वामी दयानंद के शिष्य है जिनका सन्देश स्पष्ट था "सत्य के ग्रहण एवं असत्य के त्याग में सदा उद्यत रहना चाहिये"। मानव जीवन का उद्देश्य भी यही है। हम मूर्ति पूजा के विरुद्ध नहीं है अपितु अन्धविश्वास के विरुद्ध है। यह लेख कब्र पूजा से सम्बंधित है जिसकी हिन्दू समाज मूर्ति समझ कर पूजा कर रहा है। आप इसे मुर्खता कहेंगे अथवा इसे अंधविश्वास कहेंगे। यह निश्चय आपने स्वयं करना है।

रोजाना के अखबारों में एक खबर आम हो गयी हैं की अजमेर स्थित ख्वाजा मुईन-उद-दीन चिश्ती अर्थात गरीब नवाज़ की मजार पर बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता अभिनेत्रियो अथवा क्रिकेट के खिलाड़ियो अथवा राज नेताओ का चादर चदाकर अपनी फिल्म को सुपर हिट करने की अथवा आने वाले मैच में जीत की अथवा आने वाले चुनावो में जीत की दुआ मांगना। भारत की नामी गिरामी हस्तियों के दुआ मांगने से साधारण जनमानस में एक भेड़चाल सी आरंभ हो गई है की उनके घर पर दुआ मांगे से बरकत हो जाएगी, किसी की नौकरी लग जाएग, किसी के यहाँ पर लड़का पैदा हो जायेगा, किसी का कारोबार नहीं चल रहा हो तो वह चल जायेगा, किसी का विवाह नहीं हो रहा हो तो वह हो जायेगा। कुछ सवाल हमे अपने दिमाग पर जोर डालने को मजबूर कर रहे है जैसे की यह गरीब नवाज़ कौन थे ?कहाँ से आये थे? इन्होने हिंदुस्तान में क्या किया और इनकी कब्र पर चादर चदाने से हमे सफलता कैसे प्राप्त होती है?

गरीब नवाज़ भारत में लूटपाट करने वाले , हिन्दू मंदिरों का विध्वंश करने वाले ,भारत के अंतिम हिन्दू राजा पृथ्वी राज चौहान को हराने वाले व जबरदस्ती इस्लामिक मत परिवर्तन करने वाले मुहम्मद गौरी के साथ भारत में शांति का पैगाम लेकर आये थे।

पहले वे दिल्ली के पास आकर रुके फिर अजमेर जाते हुए उन्होंने करीब ७०० हिन्दुओ को इस्लाम में दीक्षित किया और अजमेर में वे जिस स्थान पर रुके उस स्थान पर तत्कालीन हिन्दू राजा पृथ्वी राज चौहान का राज्य था। ख्वाजा के बारे में चमत्कारों की अनेको कहानियां प्रसिद्ध है की जब राजा पृथ्वी राज के सैनिको ने ख्वाजा के वहां पर रुकने का विरोध किया क्योंकि वह स्थान राज्य सेना के ऊँटो को रखने का था तो पहले तो ख्वाजा ने मना कर दिया फिर क्रोधित होकर शाप दे दिया की जाओ तुम्हारा कोई भी ऊंट वापिस उठ नहीं सकेगा। जब राजा के कर्मचारियों नें देखा की वास्तव में ऊंट उठ नहीं पा रहे है तो वे ख्वाजा से माफ़ी मांगने आये और फिर कहीं जाकर ख्वाजा ने ऊँटो को दुरुस्त कर दिया। दूसरी कहानी अजमेर स्थित आनासागर झील की है। ख्वाजा अपने खादिमो के साथ वहां पहुंचे और उन्होंने एक गाय को मारकर उसका कबाब बनाकर खाया। कुछ खादिम पनसिला झील पर चले गए कुछ आनासागर झील पर ही रह गए।

उस समय दोनों झीलों के किनारे करीब 1000 हिन्दू मंदिर थे, हिन्दू ब्राह्मणों ने मुसलमानों के वहां पर आने का विरोध किया और ख्वाजा से शिकायत करी।

ख्वाजा ने तब एक खादिम को सुराही भरकर पानी लाने को बोला। जैसे ही सुराही को पानी में डाला तभी दोनों झीलों का सारा पानी सुख गया। ख्वाजा फिर झील के पास गए और वहां स्थित मूर्ति को सजीव कर उससे कलमा पढवाया और उसका नाम सादी रख दिया। ख्वाजा के इस चमत्कार की सारे नगर में चर्चा फैल गई। पृथ्वीराज चौहान ने अपने प्रधान मंत्री जयपाल को ख्वाजा को काबू करने के लिए भेजा। मंत्री जयपाल ने अपनी सारी कोशिश कर डाली पर असफल रहा और ख्वाजा नें उसकी सारी शक्तिओ को खत्म कर दिया। राजा पृथ्वीराज चौहान सहित सभी लोग ख्वाजा से क्षमा मांगने आये। काफी लोगो नें इस्लाम कबूल किया पर पृथ्वीराज चौहान ने इस्लाम कबूलने इंकार कर दिया। तब ख्वाजा नें भविष्यवाणी करी की पृथ्वी राज को जल्द ही बंदी बना कर इस्लामिक सेना के हवाले कर दिया जायेगा।

निजामुद्दीन औलिया जिसकी दरगाह दिल्ली में स्थित हैं ने भी ख्वाजा का स्मरण करते हुए कुछ ऐसा ही लिखा है। बुद्धिमान पाठकगन स्वयं अंदाजा लगा सकते है की इस प्रकार के करिश्मो को सुनकर कोई मुर्ख ही इन बातों पर विश्वास ला सकता है। भारत में स्थान स्थान पर स्थित कब्रे उन मुसलमानों की है जो भारत पर आक्रमण करने आये थे और हमारे वीर हिन्दू पूर्वजो ने उन्हें अपनी तलवारों से परलोक पंहुचा दिया था।

ऐसी ही एक कब्र बहरीच गोरखपुर के निकट स्थित है। यह कब्र गाज़ी मियां की है। गाज़ी मियां का असली नाम सालार गाज़ी मियां था एवं उसका जन्म अजमेर में हुआ था। उन्हें गाज़ी की उपाधि काफ़िर यानि गैर मुसलमान को क़त्ल करने पर मिली थी। गाज़ी मियां के मामा मुहम्मद गजनी ने ही भारत पर आक्रमण करके गुजरात स्थित प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर का विध्वंश किया था। कालांतर में गाज़ी मियां अपने मामा के यहाँ पर रहने के लिए गजनी चला गया।
कुछ काल के बाद अपने वज़ीर के कहने पर गाज़ी मियां को मुहम्मद गजनी ने नाराज होकर देश से निकला दे दिया। उसे इस्लामिक आक्रमण का नाम देकर गाज़ी मियां ने भारत पर हमला कर दिया। हिन्दू मंदिरों का विध्वंश करते हुए, हजारों हिन्दुओं का क़त्ल अथवा उन्हें गुलाम बनाते हुए, नारी जाति पर अमानवीय कहर बरपाते हुए गाज़ी मियां ने बाराबंकी में अपनी छावनी बनाई और चारो तरफ अपनी फौजे भेजी।

कौन कहता हैं की हिन्दू राजा कभी मिलकर नहीं रहे? मानिकपुर, बहरैच आदि के 24 हिन्दू राजाओ ने राजा सोहेल देव पासी के नेतृत्व में जून की भरी गर्मी में गाज़ी मियां की सेना का सामना किया और इस्लामिक सेना का संहार कर दिया। राजा सोहेल देव ने गाज़ी मियां को खींच कर एक तीर मारा जिससे की वह परलोक पहुँच गया। उसकी लाश को उठाकर एक तालाब में फ़ेंक दिया गया।

हिन्दुओं ने इस विजय से न केवल सोमनाथ मंदिर के लूटने का बदला ले लिया था बल्कि अगले २०० सालों तक किसी भी मुस्लिम आक्रमणकारी का भारत पर हमला करने का दुस्साहस नहीं हुआ। कालांतर में फ़िरोज़ शाह तुगलक ने अपनी माँ के कहने पर बहरीच स्थित सूर्य कुण्ड नामक तालाब को भरकर उस पर एक दरगाह और कब्र गाज़ी मियां के नाम से बनवा दी जिस पर हर जून के महीने में सालाना उर्स लगने लगा। मेले में एक कुण्ड में कुछ बेहरूपियें बैठ जाते है और कुछ समय के बाद लाइलाज बिमारिओं को ठीक होने का ढोंग रचते है। पूरे मेले में चारों तरफ गाज़ी मियां के चमत्कारों का शोर मच जाता है और उसकी जय-जयकार होने लग जाती हैं. हजारों की संख्या में मुर्ख हिन्दू औलाद की, दुरुस्ती की, नौकरी की, व्यापार में लाभ की दुआ गाज़ी मियां से मांगते है, शरबत बांटते है , चादर चदाते हैं और गाज़ी मियां की याद में कव्वाली गाते है। कुछ सामान्य से १० प्रश्न हम पाठको से पूछना चाहेंगे।

१.क्या एक कब्र जिसमे मुर्दे की लाश मिट्टी में बदल चूँकि है वो किसी की मनोकामना पूरी कर सकती है?

२. सभी कब्र उन मुसलमानों की है जो हमारे पूर्वजो से लड़ते हुए मारे गए थे, उनकी कब्रों पर जाकर मन्नत मांगना क्या उन वीर पूर्वजो का अपमान नहीं है जिन्होंने अपने प्राण धर्म रक्षा करते की बलि वेदी पर समर्पित कर दिये थे?

३. क्या हिन्दुओ के राम, कृष्ण अथवा 33 करोड़ देवी देवता शक्तिहीन हो चुके है जो मुसलमानों की कब्रों पर सर पटकने के लिए जाना आवश्यक है?

४. जब गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहाँ है की कर्म करने से ही सफलता प्राप्त होती है तो मजारों में दुआ मांगने से क्या हासिल होगा?

५. भला किसी मुस्लिम देश में वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, हरी सिंह नलवा आदि वीरो की स्मृति में कोई स्मारक आदि बनाकर उन्हें पूजा जाता है तो भला हमारे ही देश पर आक्रमण करने वालो की कब्र पर हम क्यों शीश झुकाते है?

६. क्या संसार में इससे बड़ी मुर्खता का प्रमाण आपको मिल सकता है?

७. हिन्दू जाति कौन सी ऐसी अध्यात्मिक प्रगति मुसलमानों की कब्रों की पूजाकर प्राप्त कर रहीं है जो वेदों- उपनिषदों में कहीं नहीं गयीं है?

८. कब्र पूजा को हिन्दू मुस्लिम एकता की मिसाल और सेकुलरता की निशानी बताना हिन्दुओ को अँधेरे में रखना नहीं तो क्या है ?

९. इतिहास की पुस्तकों कें गौरी – गजनी का नाम तो आता है जिन्होंने हिन्दुओ को हरा दिया था पर मुसलमानों को हराने वाले राजा सोहेल देव पासी का नाम तक न मिलना क्या हिन्दुओं की सदा पराजय हुई थी ऐसी मानसिकता को बनाना नहीं है?

१०. क्या हिन्दू फिर एक बार 24 हिन्दू राजाओ की भांति मिल कर संगठित होकर देश पर आये संकट जैसे की आंतकवाद, जबरन धर्म परिवर्तन,नक्सलवाद,बंगलादेशी मुसलमानों की घुसपेठ आदि का मुंहतोड़ जवाब नहीं दे सकते?

आशा हैं इस लेख को पढ़ कर आपकी बुद्धि में कुछ प्रकाश हुआ होगा।अगर आप आर्य राजा राम और कृष्ण जी महाराज की संतान हैं तो तत्काल इस मुर्खता पूर्ण अंधविश्वास को छोड़ दे और अन्य हिन्दुओ को भी इस बारे में प्रकाशित करे।

डॉ विवेक आर्य

कवि 'नजीर अकबराबादी'


भारत पर कभी भारत के मुस्लिमों ने शासन नहीं किया, जो भी मुस्लिम यहाँ के शासक थे वे सब विदेशी थे, चाहे वो मुगल हो या गुलाम वंश, लेकिन यहाँ के मुस्लिमों ने शायद ही कभी उनका विरोध किया हो उल्टा जितना आदर उन विदेशी लुटेरों के लिये मुस्लिमों के दिल मे होता है उतना अपने देश में पैदा हुए महापुरूषो राम, कृष्ण, शिवाजी आदि के प्रति नहीं होता है और यही अलगाववाद हैं|

परन्तु कवि 'नजीर अकबराबादी' ऐसी नीच सोच रखने वालों के मुंह पर एक तमाचा हैं| कवि नजीर अकबराबादी का जन्म 1735 ई. मे दिल्ली में हुआ था, उस समय वहाँ का शासक मुहम्मदशाह 'रगींला' था| नादिरशाह के हमले के कारण दरबार
की दशा दयनीय थी| दिल्ली में निर्वाह न होने के कारण 'नजीर' के माता-पिता उन्हे आगरा(अकबराबाद) ले आयें, उस समय 'नजीर' 4 साल के थे| जहाँगीर ने अपने पिता के नाम पर आगरा का नाम अकबराबाद रखा था जिसे अपने साथ जोड़ कर 'नजीर' अकबराबादी हो गये|

कवि 'नजीर' का समय हिन्दी इतिहास मे रीतकाल की परिधि मे आता है, जहाँ रितिकालीन कवि राजदरबारो मे नायिकाओं के नख-शिख के वर्णन को राधा कन्हाई सुमिरन के साथ श्रृंगार रस मे गोते लगा रहें थे, वहाँ हम पाते है कि कवि नजीर को कामुकता छुकर भी नहीं गयी हैं| वह श्रीकृष्ण को सर्वत्र दुःखहरन कृपाकरन मानते हैं, कृष्ण उनके लिये पैगम्बर जैसे हैं| कविता देंखें:

तू सबका खुदा सब तुझ पै फिदा, अल्ला हो गनी अल्ला हो गनी|
सूरत मे नबी सीरत मे खुदा, ऐ सल्ला अल्लाह अल्ला हो गनी|
तालिब है तेरी रहमत का बंदाये नाचीज 'नजीर' तेरा,
तू बहारे करम है नंदलला अल्ला हो गनी अल्ला हो गनी|

श्रीकृष्ण का वर्णन करने मे उन्होने अमित भक्ति दिखायी हैं:-

तारीफ करूँ अब मै क्या उस मुरली अधर बजैया की,
नित सेवा कुंजपिरैया की और वन वन गऊ चरैया की|
गोपाल बिहारी बनवारी दःख हरना मेहर करैया की,
गिरधारी सुन्दर श्याम बरन और हलधर जूं के भैया की|
यह लीला है उस नन्दललन मनमोहन जसुमति छैया की
रस ध्यान सुनौ दंडौत करौ जै बोलो किशन कन्हैया की|

मित्रो हम भी चाहते हैं कि मुस्लिम भाई कवि '
नजीर' के साथ श्रीकृष्ण की जय बोले और उनकी आवाज हमसे ऊँची हो| ऐसा करके वो संसार को सन्देश दे कि हमारे पेशवा या मजहबी नेता भले ही मोहम्मद साहब हो पर हमारे पूर्वज आज भी राम और कृष्ण हैं| मै समझता हूँ यही सच्ची भारतीयता होगी|

ग़जनी का अंतिम हिन्दू शासक

मुहम्मद गजनवी नेँ भारत पर कई हमले किये थे। और गुजरात के सोमनाथ मन्दिर पर उसके हमले काफी कुख्यात है। परन्तु शहर 'गजनी' एक हिन्दू राजा "गज सिँह" का बसाया हुआ है। तवारीख-ए-जैसलमेर के पृष्ठ संख्या 9,10 का
एक दोहा बड़ा प्रसिद्ध है-
तीन सत्त अतसक धरम, वैशाखे सित तीन।
रवि रोहिणि गजबाहु नै गजनी रची नवीन।।
यानि गजबाहु नेँ युधिष्ठिर संवत्‌ 308 मेँ गजनी शहर को बसाया था।
प्रसिद्ध अरबी इतिहासकार याकूबी के अनुसार नवीँ शती मेँ भारत की सीमायेँ ईरान तक थी। 712-13 ई॰ मेँ सिँध पर मुसलमानो का अधिकार हो गया पर हिन्दुओँ ने उन्हे चैन से बैठने दिया और ये अधिकार अधूरा ही रहा। लेकिन सिँध की विजय से उत्साहित होकर बुखारा बगदाद के खलीफा बलदीन नेँ अपने गुलाम सेनापति यदीद खाँ को मेवाड़ राजस्थान पर बड़ी विजय के लिए भेजा। उस समय चित्तौड़गढ़ का शासक वीरमान सिँह था और उनके सेनानायक थे 'बप्पा रावल' जो खुद उनके भांजे थे। उन्होनेँ आगे बढ़कर यदीद खाँ की सेना का सामना किया, चित्तौड़गढ़ की सहायता मेँ अजमेर, गुजरात, सौराष्ट्र की राजपूत सेनायेँ भी आ गयी।
बड़ा भयानक युद्ध हुआ, हाथी धोड़ो की लाशो के ढेर लग गये, राजपूतोँ की तलवारेँ उन विधर्मियोँ को ऐसे काट रही थी जैसे किसान अपनी फसल बचाने को खर-पतवार काटता है। एक तरफ यदि इस्लामी जेहादी जुनून था तो दूसरी तरफ राष्ट्रधर्म रक्षा की भावना, एक तरफ हवस और लूटपाट थी तो दूसरी तरफ मातृभूमि का रक्षा का संकल्प। अतः युद्ध बप्पा को विजय मिली। बप्पा रावल केवल एक अजेय योद्धा ही नही दूरदर्शी राजनैतिज्ञ भी था। उसने भाग रहे दुश्मनोँ का पीछा किया और उन्हेँ गजनी मेँ जा घेरा। गजनी को वो अपने पूर्वजो की विरासत मानता था। उस समय गजनी का शासक शाह सलीम था, उसने बड़ी सेना के बप्पा से मुकाबला किया लेकिन बप्पा के सामने टिक न सका। जान बचाने के वास्ते अपनी बेटी की शादी बप्पा से करदी। गजनी के सिँहासन पर बैठकर बप्पा ने ईराक, ईरान तक भगवा फहराया, जिसकी पुष्टि अबुल फजल ने भी की है। प्रसिद्ध अग्रेँज इतिहासकार कर्नल.टाड के अनुसार बप्पा ने कई अरबी युवतियोँ से विवाह करके 32 सन्तानेँ पैदा जो आज अरब मेँ नौशेरा पठान के नाम से जाने जाते हैँ।
अफसोस की बात है दोस्तो कि आजादी के बाद सेक्युलरिज्म के नाम हमारे
सच्चे इतिहास को दबा दिया गया।

रविवार, जनवरी 11, 2015

काबा में आज भी चलता है वेदो का कानून


काबा में आज भी चलता है वेदो का कानून

लेखिका: फरहाना ताज
काबा जो बैलुल्लाह यानी अल्लाह का घर माना जाता है, उसका अति प्राचीन नाम मक्ख-मेदिनी है और मक्ख-मेदिनी का मतलब होता है यज्ञभूमि। मक्का का काबा मंदिर वास्तव में काव्य शुक्र का मंदिर है। काबा काव्य का ही अपभ्रंश है। शुक्र का अर्थ जुम्मा अर्थात् बड़ा होता है और गुरु शुक्राचार्य बड़े ही माने जाते हैं।

यज्ञ करने वाला अपनी सांसारिक इच्छाओ और वासनाओ को छोड देता है और यज्ञ में पाक एवं बिना सिले सफेद वस्त्र पहनने की परम्परा वैदिक काल में रही है और यही सब हज के दौरान भी होता है, हाजी एहराम पहनते हैं यानी दो बिना सिले सफेद कपडे के टुकडे होते हैं।

यज्ञ हिंसा से रहित होता है और हज भी हिंसा से रहित होती है। मक्का का पाक क्षेत्र पूरी तरह सम्मानित है, ये लोग वेदो को तो भूल गए, लेकिन यहां पर फिर भी अल्लाह की सबसे पहली किताब वेदो के ही कानून का पूरी तरह पालन किया जाता है, वेद में किसी भी प्रकार की हिंसा या बलि का विधान नहीं और मक्का में यही वेदो का कानून आज भी चलता है, इस पाक क्षेत्र में कोई भी हाजी किसी भी जानवर, यहां तक की मक्खी और इससे भी आगे बढकर किसी प्रकृति यानी किसी पौधे को तनिक भी हानि नहीं पहुंचा जा सकते। हज यात्री का पूरा अस्तित्व अल्लाह को समर्पित हो जाता है। यदि अल्लाह को कुर्बानी पंसद होती तो काबा जो बैलुल्लाह यानी अल्लाह का घर माना जाता है, फिर यहां पर सबसे अधिक बकरे काटने के लिए हाजी साथ लेकर जाते? लेकिन यह क्षेत्र तो हिंसा से रहित है, क्योंकि यहां वेदो का कानून चलता है। पांच वक्त की नमाज का बहुत महत्व है। नमाज खुद संस्कृत का शब्द है यानी पंच और यज्ञ। और पांच का महत्व वेदो में ही है, जैसे पंचाग्नि, पंचपात्र, पंचगव्य, पंचांग आदि।

पांच दिन के हज के दौरान पूरी दुनिया के हाजी मक्का में एकत्र होते हैं और एक साथ इबादत करते हैं और एक साथ लगातार एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते हैं। हज शब्द ही संस्कृत के व्रज का अपभंश है, वज्र का अर्थ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना है।

सफेद वस्त्रधारी हाजी काबा की सात परिक्रमाएं करते हैं, सात परिक्रमा का विधान पूरी तरह वेदो का है। सप्तपदी मंदिरो में होती है, सप्तपदी विवाह संस्कार में होती है यज्ञ के सामने। John Lewis Burckhardt लिखते हैं कि मुसलमानों में हज की यात्रा इस्लाम पूर्व की है। उसी प्रकार Suzafa और Merana भी इस्लाम पूर्व के पाक क्षेत्र हं और क्योंकि यहा Motem और Nabyk नाम के देवताओ के बुत होते थे। अराफात की यात्रा कर लेने पर यात्री प्रकार Motem और Nabyk की यात्रा करते हैं। N. J. Dawood ने कुरान के अंग्रेजी संस्करण की भूमिका में लिखा है कि कुरान का प्रत्येक शब्द स्वर्ग में लिखे हुए शिलालेख से अल्लाह ने देवूदत ग्रेबियल द्वारा मोहम्मद को जैसा सुनाया, वैसा लिखा गया। बाइबिल कहती है और स्वर्ग में ईश्वर का मंदिर खोला और उसके नियम का संदूक उसके मंदिर में दिखाई दिया। ईश्वर का ज्ञान चार संदूको में है। अब सच यह है कि सृष्टि के आरम्भ में ही अल्लाह ने चार मौलाओ यानी ऋषियों को अपना ज्ञान दिया, इसलिए अल्लाह का कानून वेद हैं। वेदो में ज्ञान और विज्ञान है, लेकिन कुरान में ज्ञान-विज्ञान की बाते कम और इतिहास अधिक है। लेकिन इतिहास लिखने का कार्य अल्लाह का नहीं हो सकता, इतिहासकारो का होता है। अल्लाह तो ज्ञान और विज्ञान की बाते ही बता सकते हैं।
यहां चित्र में देख लीजिए इन हाजियो के परिधान यज्ञकर्ताओ जैसे क्यों हैं?

शनिवार, जनवरी 10, 2015

मन की बात Haider Rizvi

मन की बात - पार्ट २
सही है मुहम्मद साहब का कार्टून बनाने वालों को मार दो. इस्लाम के खिलाफ बोलने वाले का सर काट दो, कुरान जलाने वाले को जिंदा जला दो ... यही तो सिखाया है तुम्हारे मुहम्मद ने????
जिस मुहम्मद का नाम तुमने खुद इतना बदनाम कर रखा है उसके कार्टून से आज इतनी चिढ क्यूँ.?????? तुम कबसे मुहम्मद और इस्लाम की इज्ज़त करने वाले हो गए??????
तुम उसी बरबरियत की औलादें हों , जिसने कभी रसूल तक को चैन से जीने नहीं दिया. अपने मुहम्मद को उसकी ज़िन्दगी में ही तुमने पागल कहा, रसूल की बेटी (जिसके आदर में खुद रसूल खड़े हो जाते थे) के घर को जलाया, जलता दरवाज़ा गिरने से रसूल का नवासा उनकी बेटी के पेट में ही मर गया, मुहम्मद की उस बेटी को आम लोगों के बीच दरबार में खड़ा किया, मुहम्मद के नवासे को कर्बला में मारा. और यह सारे कुकृत्य तुमने "अल्लाहो अकबर" के नारे के साथ किये.
तुम्हारे तो तभी से करम ऐसे रहे हैं की इंसानियत क्या खुद हैवानियत शरमा जाय. इस अल्लाहो अकबर के नारे की आड़ में तुम्हारे गुनाह आखिर कब तक छिपते? तैमूर लंग जिसके नाम से आज भी कई वंश चलते हैं, जिसे इस्लामी योद्धा मानते हो,पता है इस्लाम के नाम पर कितने लोग मारे उसने????? 5% of current world population. वो मुग़ल वो औरंगजेब वो शाहजहाँ तुम्हारे आइडियल हैं जिनसे किसी शरीफ अरब राजघराने ने कभी रिश्ता तक करना गवारा नहीं समझा.
तुम्हारे जाहिल मुल्ला तुम्हे पागल बनाते रहेंगे और तुम ऐसे ही जानवर बनते रहना. सारे मुस्लिम आतंकवादी नहीं होते , लेकिन हरातान्क्वादी क्यूँ मुस्लिम होता है. बड़ा बुरा लगता है न? क्युकी तुम सब रंगे सियार हो. एक दिन जेहाद की तालीम देने वाले मुल्ला की दाढ़ी पकड़ कर मस्जिद के बाहर निकालो तो. देखो यही मीडिया तुम्हारी जय जयकार करती है या नहीं??? लेकिन नहीं. मीम भाई निभाने लग जाते हो जाहिलों.
जिस रसूल के कार्टून बनाने पर तुम जाहिलों का दिमाग खौल रहा है, जब उसकी ज़िन्दगी में, उसकी मस्जिद में एक गैर मुस्लिम पेशाब कर गया था, तब तुम्हारे बाप दादाओं का भी खून भी ऐसे ही खौला था. मुहम्मद ने सबको डांटा कि इसे नहीं पता मस्जिद की हुरमत, इसकी कोई गलती नहीं है, हमारी मस्जिद है इसे मैं खुद साफ़ करूंगा.
तो मुहम्मद की सुन्नत पर चलने वाले मुसलमानों! अब समय आगया है की खुद झाडू उठाओ और अपने इस्लाम की सफाई खुद शुरू कर दो, जैसे मुहम्मद खुद किया करते थे . अल्लाहोअकबर के नारों के पीछे की सियासत अब सबको समझ में आचुकी है. और अगर तुम यह नहीं कर पाए, तो याद रखना दस साल बाद दुनिया तुम्हे गेंहू के साथ घुन की तरह पीस डालेगी.
(ऊपर लिखी किसी भी तथ्य में अगर किसी मुल्ला को आपत्ति हो, तो मेरा दिमाग खाने के बजाय साक्षरता मिशन को आगे बढाते हुए नीचे लिखी किताबों का मुआयना करे. यह इस्लामिक इतिहास और हदीसों की सबसे पुरानी ऐतिहासिक किताबे हैं)
- गनीहतुततालेबीन - मौलाना महमूद अहमद
- सही बुखारी वोल्यूम ३
- अल अमामुरज़ैद
- अल खुल्फाऊर्राशिदीन - अब्दुल वह्हाब अल्नाजार
- उम्मादातुल क़ारी
- तारीख़े इस्लाम - मिहीनुद्दीन अहमज़र्वी

गुरुवार, जनवरी 08, 2015

सच बताना शुरू करो तो मुल्ले आतंक मचाना शुरू कर देते हैं क्यूंकि इनके पास जवाब नहीं होता

जब से मोहम्मद ने इस्लाम के नाम पर अन्धविश्वास फैलाना शुरू किया तब से बुद्धिजीवियों ने उसका तीव्र विरोध किया है उन सबको मुहम्मद ने अपने चमचों से मरवा डाला और ये आज भी जारी है मुह्हमद के बारे में सच बताना शुरू करो तो मुल्ले आतंक मचाना शुरू कर देते हैं क्यूंकि इनके पास जवाब नहीं होता
अस्मा बिन्त मरवान - ६२४
जब मदीना वासियों ने मोहम्मद को अपने नगर में अतिथि की भांति आदर सत्कार से संरक्षण दिया हुआ था, कुछ निवासी मोहम्मद ओर इस्लाम से प्रसन्न नहीं थे. ऐसी ही एक निवासी थी अस्मा. अस्मा इस्लाम को नापसंद करती थी और इसीलिए उसने अपने पूर्वजों की मूर्तिपूजा के पद्दति (जिसे इस्लाम सबसे घोर अपराध कहता है) को नहीं त्यागा था. वो ऑस नामक कबीले के निवासी मरवान की बेटी थी जिसे कविता लिखने में रूचि थी. सन ६२४ में कविता अपने भाव व्यक्त करने के गिने चुने माध्यमों में से एक था.
अस्मा ने एक कविता रची, जिस में उस ने खेद व्यक्त किया कि उस के नगर वासी एक अनजाने व्यक्ति का स्वागत और विश्वास कर रहे थे, जिसने उन्हीके मुखिया की हत्या की थी. ये पंक्तियाँ धीरे धीरे अन्य मूर्तिपूजकों में भी प्रचलित हो गयी और मुसलामानों तक पहुँच गयीं. मुसलमान इस पर क्रोधित हो गए और उन में से एक ओमीर नामक नेत्रहीन मुसलमान (कुछ के अनुसार अस्मा का भूतपूर्व पति) अत्यंत उत्साहित हो गया और उस ने प्रण किया कि वो अस्मा की हत्या करेगा. वो भी ऑस कबीले का ही निवासी था. एक रात वो चुपके से अस्मा के घर में घुस गया. उसने टटोल कर अस्मा के दूध मुहें बच्चे को अलग किया और अपनी तलवार अस्मा के हृदय में इतनी शक्ति से घोंप दी कि वह चारपाई के साथ ही बिंध गयी.
अगली प्रातः जब वो मस्जिद में पहुंचा तो मोहम्मद ने उस से पूछा "क्या तुमने मरवान की बेटी की हत्या कर दी है?" ओमीर ने उत्तर दिया,"हां, परन्तु यह बताएं कि इस में कोई घबराने वाली बात तो नहीं है?" मोहम्मद ने उत्तर दिया,"नहीं, उस के लिए तो कोई दो बकरियां भी आपस में नहीं भिड़ेंगी." फिर वो मस्जिद में एकत्रित लोगों को संबोधित करते हुए कहा,"यदि तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखना चाहते हो जिस ने अल्लाह और उस के नबी की मदद की है तो इसे देखो".
ये सुन कर ओमर ने कहा,"क्या, ये तो अँधा ओमीर है". मोहम्मद ने उत्तर दिया,"इसे अँधा मत कहो, बल्कि कहो ओमीर बशीर (देखने वाला)".
जब वो हत्यारा वापिस अपने घर जा रहा था तो अस्मा के घर के पास से निकला जहां उसके बेटे अस्मा को दफना रहे थे. उन्होंने ओमीर से कहा कि उसी ने उन की माँ की हत्या की है. ओमीर, जो अब निडर हो चुका था ने प्रत्युतर में कहा कि उसीने हत्या की है और यदि उन में से किसी ने भी वैसा कोई कृत्या किया तो वो उन के पूरे वंश का नाश कर देगा.
इस धमकी का अपेक्षित परिणाम हुआ. धीरे धीरे पूरे कबीले ने इस्लाम संप्रदाय अपना लिया. मृत्यु से बचने का यही एक उपाय रह गया लगता था.
स्त्रोत - इब्न इस्हाक़ पृष्ठ -६७५/९९५, The life of Mahomet - William Muir pp 232
अबू अफाक
इस हत्या के कुछ ही सप्ताह पश्चात् ऐसा ही एक और वध इस्लाम के नाम पर और मोहम्मद के आदेश से किया गया. अबू अफाक नामक एक यहूदी भी अस्मा की ही भांति अपने पूर्वजों के संप्रदाय और पद्दति को पसंद करता था, इसलिए इस्लाम का समर्थक नहीं था. उसने भी कुछ पंक्तियाँ लिखी जो मुसलामानों को पसंद नहीं आयी. वो एक वयोवृद्ध था (कुछ के अनुसार १०० वर्ष से अधिक आयु), और बनी अम्र नामक कबीले का मूल निवासी था.
एक दिन मोहम्मद ने अपने अनुयायिओं से कहा," कौन इस विनाशकारी व्यक्ति से मेरा पीछा छुड़ाएगा"? कुछ ही दिनों के उपरान्त एक मुसलमान सलीम बिन उमैर को अवसर मिल गया. अबू अफाक अपने बरामदे में सो रहा था. मुसलमान ने अवसर देख कर सोये हुए वृद्ध की तलवार से हत्या कर दी. वृद्ध की मृत्यु से पूर्व की चीख पुकार ने आस पास के लोगों को आकृष्ट किया, किन्तु जब तक वे पहुँचते, हत्यारा जा चुका था.
स्त्रोत: इब्न इस्हाक़ पृष्ठ ६७५/९९५, The life of Mahomet - William Muir pp 233
काब बिन अशरफ
काब बिन अशरफ बनी नाधिर नामक कबीले की एक यहूदी महिला का बेटा था. वो कुछ समय के लिए इस्लाम संप्रदाय का समर्थक रहा, किन्तु जब मोहम्मद ने किबला (नमाज़ की दिशा) जेरुसलेम से उलट कर काबा की ओर कर दिया तो इस्लाम से पृथक हो गया.
वो कोरिशों की बद्र के झगडे में हुई पराजय से दुखी था. वो मक्का गया और कोरिशों में, अपनी कवितायों द्वारा, जोश भरने लगा कि वो बद्र में दफ़न अपने वीरों की मृत्यु का प्रतिशोध लें.
जब वो वापिस मदीना पहुंचा तो मुसलामानों ने उस पर आरोप लगाया कि वो उन की महिलायों के सन्दर्भ में अशोभनीय पंक्तियाँ लिखता है. मोहम्मद इस प्रभावशाली व्यक्ति द्वारा इस्लाम के विरोध से चिंतित था. एक दिन उस ने उच्च स्वर में नमाज़ अदा करते हुए कहा," अल्लाह मुझे अशरफ के बेटे और उसकी कवितायों और विद्रोह से किसी भी तरह निजात दिलायो". पहले कि भांति, अब भी उस ने अपने किसी अनुयायी को सीधे संबोधित करने की अपेक्षा सभी से कहा,"कौन मुझे अशरफ के बेटे से निजात दिलाएगा, जो मुझे परेशान करता है?" मोहम्मद बिन असलम आगे बढ़ा और बोला,"मैं उस की हत्या करूँगा".
मोहम्मद ने अपनी सहमती जताते हुए उसे कहा कि वो अपने कबीले (बनी ऑस) के मुखिया साद बिन मुआध से परामर्श कर ले. साद बिन मुआध के सुझाने पर उस ने अपने कबीले के चार और व्यक्तियों को अपने साथ ले लिया और मोहम्मद से अपनी योजना के लिए अनुमति लेने के लिए पहुंचा. विशेष अनुमति इस लिए लेनी थी क्योंकि योजना के अनुसार उन्होंने यह ढोंग करना था कि वो मोहम्मद को नापसंद करते हैं ताकि काब का विश्वास जीत सकें. इस गिरोह में अबू नैला भी था, जो कि काब का मुंह बोला भाई था और काब उस पर संदेह नहीं करता था.
योजना के अनुसार अबू नैला ने काब के पास जा कर दुःख जताया कि मोहम्मद के कारण कई लोगों को समस्या हो रही है. आस पास के अरबी कबीले मदीना के शत्रु बनाते जा रहे हैं, जिस से कि व्यापर के लिए जाना और जीविका अर्जित करना कठिन हो गया है. जैसी कि अपेक्षा थी, काब बातों में फंस गया. अबू नैला ने काब से कुछ खाद्य सामग्री (मक्की व खजूरें) उधार मांगी, जिस के लिए काब ने उस से कुछ बदले में रखने को कहा. योजना के अनुसार, अबू ने अपने और साथियों के शस्त्र देना स्वीकार कर लिया. अब वे काब की शंका जगाये बिना उस के पास शस्त्र ला सकते थे.
उन्होंने शाम के समय मोहम्मद के घर जा कर स्थिति से अवगत करवाया. वो चांदनी रात थी. मोहम्मद उन के साथ मदीना के बाहर तक आया और बोला,"जाओ, अल्लाह की रहमत तुम पर हो और तुम्हे ऊपर से मदद मिले".
काब का घर मदीना से लगभग २-३ मील बाहर एक यहूदियों की बस्ती के पास था. जब वे पहुंचे तो वो सो रहा था. उन्होंने काब के घर के बाहर से उसे पुकारा. काब जब उठ कर जाने लगा तो उस की नवविवाहित पत्नी ने कहा,"शत्रुता के वातावरण में रात के समय बाहर जाना उचित नहीं है. मुझे इन के स्वर में बुराई (अथवा रक्त) सुनाई दे रहा है". काब ने चेतावनी को अनसुना करते हुए कहा कि ये तो मेरा भाई अबू नैला है, यदि एक योधा को पुकारा जाये तो भी उसे जाना ही चाहिए. इतना कह कर वो बाहर निकल आया और उन से बातचीत करने लगा. अबू ने कहा कि थोड़ा आगे चलते हैं और उस के सर में हाथ फिराते हुए उस के केशों में से आने वाली महक की प्रशंसा करने लगा. काब ने उत्तर दिया कि ये तो उस की पत्नी की महक है.
फिर अचानक ही उस के बालों को खींचते हुए चिल्लाया,"अल्लाह के शत्रु को काट दो". काब ने वीरता से संघर्ष किया और उन के पास होने से उन की तलवारें असफल सिद्ध हो रही थी. फिर एक को अपने छुरे का ध्यान आया. उसने छुरा उस के पेट में घोंप दिया और पेट को काटते हुए उस के गुप्तांगो तक ले गया. इस प्रकार काब वीर गति को प्राप्त हुआ.
उन्हें मोहम्मद के पास लौटने में अधिक समय लगा क्योंकि उन का एक साथी भी घायल हो गया था. मोहम्मद उस समय नमाज़ कर रहा था और उन्हें देख कर उन के पास आया. उन्होंने हत्या की सूचना मोहम्मद को दी. मोहम्मद ने घायल मुसलमान के घाव पर थूका (मुसलामानों के अनुसार मोहम्मद की थूक भी चमत्कारी थी) और उन्हें जाने को कहा. वे अपने अपने घर चले गए.
स्त्रोत - सही बुखारी; खंड ५, पुस्तक ५९, संख्या ३६९
स्त्रोत - इब्न इस्हाक़ पृष्ठ ३६४-३६९
इस्लाम के सम्मानित इतिहासकार तबरी के अनुसार ये पाँचों व्यक्ति हत्या के पश्चात् काब का सर काट कर लाये थे जिसे मोहम्मद को भेंट स्वरुप दिया गया था.
इस की पुष्टि विल्लियम मुइर द्वारा लिखी मोहम्मद की जीवन कथा से भी होती है. वे बताते हैं:
जब उस का पेट कटा तो काब ने एक हृदय विदारक चीख मारी जो रात के सन्नाटे में दूर तक सुनाई दी. कई घरों में प्रकाश हो उठा. हत्यारे पीछा किये जाने के डर से वहाँ से अपने घायल साथी को ले कर भाग खड़े हुए. जब वे कब्रिस्तान के पास सुरक्षित पहुँच गए तो उन्होंने तकबीर लगाई 'अल्लाह हू अकबर'. जिसे मस्जिद में मोहम्मद ने सुन लिया. वो मस्जिद के द्वार पर उन से मिला और बोला,"स्वागत है, तुम्हारे चेहरे फ़तेह से चमकते लग रहे हैं. उन्होंने उत्तर दिया,"आपका भी ऐ नबी" और कटा हुआ सर मोहम्मद के पाँव में गिरा दिया.
The life of Mahomet - pp 239-240
मोहम्मद द्वारा पहली हत्या
बद्र के आक्रमण के पश्चात् जब मुसलमान अपने घायल ओर मृत साथियों के शवों को ले कर मदीना की ओर जा रहे थे तो राह में ओथील नामक घाटी में रात बिताई. प्रातःकाल जब मोहम्मद बंदियों का निरिक्षण कर रहा था तो उस की दृष्टि नाध्र पर पड़ी, जिसे मिकदाद ने बंदी बनाया था. बंधक ने भय से कांपते हुए अपने पास खड़े व्यक्ति से कहा, "उस दृष्टि में तो मृत्यु दिखाई दे रही थी". व्यक्ति ने उत्तर दिया "नहीं ये तुम्हारा भ्रम है". उस अभागे बंदी को विश्वास न आया.उस ने मुसाब को उस की रक्षा करने के लिए कहा. मुसाब ने उत्तर दिया कि वह (नाध्र) इस्लाम को इनकार करता था और मुसलामानों को परेशान करता था. नाध्र ने कहा,"यदि कोरिशों ने तुम्हें बंधक बनाया होता तो वे तुम्हारी हत्या कभी नहीं करते. उत्तर में मुसाबी ने कहा,"यदि ऐसा है भी तो मैं तुम जैसा नहीं हूँ. इस्लाम किसी बंधन को नहीं मानता. इस पर मिकदाद, जिस ने नाध्र को बंधक बनाया था, बोल उठा "वो मेरा बंदी है." उसे भय था कि यदि नाध्र की हत्या कर दी गयी तो उस के सम्बन्धियों से जो फिरौती का धन प्राप्त हो सकता था, उस से वो वंचित रह जाएगा.
इस अवसर पर मोहम्मद ने आदेश दिया,"उस की गर्दन मारो". इस वाक्य का अर्थ है सर काट देना. हत्यारा गर्दन के पीछे से प्रहार कर के एक ही वार से गर्दन काट देता है. आज भी जहां इस्लामिक शरिया व्यवस्था प्रचलित है, वहां इसी प्रकार से गर्दन काटी जाती है.
शरिया के अनुसार गर्दन काटने का दृश्य
इस के पश्चात् मोहम्मद ने कहा,"अल्लाह, मिकदाद को इस से भी अच्छा माल प्रदान करना." अली जो आगे चल कर मोहम्मद का दामाद बना था, आगे बढ़ा और उस ने नाध्र की गर्दन काट दी.
इस हत्या का कारण संभवतः नाध्र द्वारा मोहम्मद का उपहास उड़ाया जाना था. मोहम्मद जब मक्का में रहता था, वो मक्का निवासियों को ये विश्वास दिलाने की असफल चेष्ट करता रहा कि वो एक पैगम्बर है. उस की बातों से अधिकतर मक्का वासी तटस्थ ही रहते थे. इस्लाम को नकारने वालों में नाध्र भी था. जब मोहम्मद अपनी बात तथा बाईबल और तौरात की कहानियां सुनाता तो नाध्र भी कुछ कहानियाँ सुना देता और चुटकी लेते हुए कहता कि मोहम्मद मुझ से अच्छा कथाकार है.
मोहम्मद ने उस की हत्या से इसी अपमान का प्रतिशोध लिया था. ये हत्या नीति अथवा न्याय सांगत थी अथवा नहीं, ये निर्णय हम पाठकों के विवेक पर छोड़ते हैं.
इस के दो दिन उपरान्त , जब मदीना का रास्ता आधा रह गया था तो मोहम्मद ने एक और बंधक जिस का नाम ओक्बा था, की हत्या का आदेश दिया. जब ओक्बा ने पूछा कि उसे अन्य बंधकों से अधिक दंड क्यों दिया जा रहा है तो मोहम्मद ने उत्तर दिया,"क्योंकि तुम अल्लाह और उस के रुसूल के शत्रु हो." यहाँ मोहम्मद ओक्बा द्वारा मोहम्मद के उपहास में लिखी कविता की और इंगित कर रहा था. ओक्बा ने खिन्न ह्रदय से पूछा कि,"मेरी बेटी का क्या होगा? उसकी देख भाल कौन करेगा?". मोहम्मद ने उत्तर दिया,"जहन्नुम की आग ". इस के पश्चात्, उसे काट कर धरती पर गिरा दिया गया और मोहम्मद बोला,"तुम अत्यंत बुरे और उत्पीड़क थे जो न तो अल्लाह पर, न उस के रुसूल पर और न ही उस की किताब पर विश्वास करते थे. मैं अल्लाह का आभारी हूँ जिस ने तुम्हारी हत्या की और मेरी आँखों को संतोष दिलाया".
जब बचे हुए बंदियों को लेकर मुसलमान मदीना पहुंचे तो मोहम्मद के निकटतम साथियों में से अबू बकर का विचार था कि बंदियों की हत्या न की जाए बल्कि उनके सम्बन्धियों से फिरौती ले कर उन्हें स्वतंत्र कर दिया जाए, जबकि ओमर का विचार था कि सब की हत्या कर दी जाए. ऐसा कहा जाता है कि उस समय कुरान की आयत प्रकट हुई. सुरा ८, आयत ६७
مَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَكُونَ لَهُ أَسْرَىٰ حَتَّىٰ يُثْخِنَ فِي الْأَرْضِ ۚ تُرِيدُونَ عَرَضَ الدُّنْيَا وَاللَّـهُ يُرِيدُ الْآخِرَةَ ۗ وَاللَّـهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ
(अनुवाद फारूक खान एवं नदवी):-
कोई नबी जब कि रूए ज़मीन पर (काफिरों का) खून न बहाए उसके यहाँ कैदियों का रहना मुनासिब नहीं तुम लोग तो दुनिया के साज़ो सामान के ख्वाहॉ (चाहने वाले) हो और ख़ुदा (तुम्हारे लिए) आख़िरत की (भलाई) का ख्वाहॉ है और ख़ुदा ज़बरदस्त हिकमत वाला है
इस आयत ने मोहम्मद की दुविधा का निवारण कर दिया. कुछ बंधक जो उसे नापसंद थे, उन की हत्या कर दी गयी और अन्य को फिरौती ले कर स्वतंत्र कर दिया गया.
स्त्रोत : इब्न इस्हाक़ कृत, The Life of Muhammad, अनुवादक A. Guillaume, (Oxford UP, 1955, 2004), pp. 136 (Arabic pages 191-92)
The life of Mahomet by William Muir
अस्मा की हत्या
मदीना में, इस क्रूरता का प्रथम लक्ष्य बनी थी 'अस्मा बिन्त मरवान' नामक एक महिला. उस काल में कविता लिखना एवं बोलना, अपने भावों को व्यक्त करने के गिने चुने माध्यमों में से एक था और ये महिला एक कावय्त्री थी. उसके परिवार ने अपनी परम्परागत शैली एवं धर्म को नहीं त्यागा था इसलिए इस्लाम में उसकी अरुचि थी. उसने बद्र की लड़ाई के उपरान्त के ऐसे व्यक्ति पर कविता लिखी जो अपने ही प्रियजनों का विद्रोही था और युद्ध में उनके मुखिया का हत्यारा था. अन्यों ने ऐसे व्यक्ति पर विश्वास करके उसे अपना लिया था. शीघ्र ही ये कविता सभी में प्रसारित हो गयी. बद्र की लड़ाई को अभी कुछ ही दिन हुए थे. जब ये कविता मुसलामानों के कानों तक पहुंची तो वो भड़क उठे. उनमें से एक 'ओमीर' नामक नेत्रहीन मुसलमान ने, जो अस्मा के ही कबीले का निवासी था (कुछ सूत्रों के अनुसार, उसका पूर्व पति था), ने ये घोषणा की कि वो उस काव्यत्री का वध कर देगा.
एक रात, जब अस्मा और उसके बच्चे सो रहे थे, वो चुपके से अस्मा के घर में घुस गया और टटोल टटोल कर अस्मा के दूध पीते बच्चे को उससे छीन कर अपनी खड़ग, पूरे वेग से, अस्मा के वक्षस्थल में उतार दी. प्रहार इतना शक्तिशाली था कि खड़ग उसे चीर कर खाट में जा धंसी थी.
अगले दिन जब नमाज़ के लिए वो मस्जिद में पहुंचा तो मोहम्मद ने, उससे इस विषय में पूछा
मोहम्मद - 'ओमीर; क्या तुमने मरवान की बेटी को मार दिया है?'.
ओमीर - ' हाँ! पर मुझे ये बताओ कि ये कोई चिंता का विषय तो नहीं है?'
मोहम्मद - चिंता की कोई बात नहीं है. उसके लिए तो दो बकरियां भी आपस में नहीं भिड़ेंगी.
इसके उपरान्त, मोहम्मद ने मस्जिद में एकत्रित मुसलामानों को संबोधित करते हुए कहा
मोहम्मद - अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखना चाहते हो जिसने अल्लाह और उसके नबी की मदद की है तो ओमीर को देखो.
उमर - क्या! अंधे ओमीर को!
मोहम्मद - नहीं! इसे अँधा मत कहो; बल्कि ये तो ओमीर बशीर है. (बशीर अर्थात जो देख सकता है).
ओमीर हत्यारा जब ऊपरी मदीना में स्थित अपने निवास की ओर लौट रहा था तो अस्मा के बेटे अपनी माता के शव को दफना रहे थे. उसे देख कर उन्होंने हत्यारे पर आरोप लगाया कि उसीने उनकी माता का वध किया है. अस्मा ने पूरी निर्लज्जता से इसे न केवल स्वीकार कर लिया अपितु उन बालकों को धमकी देता हुआ बोला कि जिस प्रकार की बातें वो करती थी, यदि किसी ने ऐसा किया तो वो उसके परिवार की भी हत्या कर देगा. इस उग्र धमकी का परिणाम ये हुआ कि मोहम्मद के बढ़ते प्रभाव और उसके चेलों की हिंसक प्रवृति के चलते, अस्मा के परिवार ने ही नहीं, कुछ ही दिनों में सम्पूर्ण कबीला मुसलमान बन गया. इतिहासकारों के अनुसार, रक्त पात से बचने का एक ही उपाय बच जाता था, इस्लाम को अपनाना.
अबू अफाक
इस महिला के पश्चात, जिस कवि की निर्मम हत्या नए सम्प्रदाय इस्लाम के लिए की गयी, वो एक सौ वर्ष से भी अधिक आयु का वृद्ध यहूदी था. अपनी सृजनात्मक कविताओं के द्वारा, अबू अफाक नामक वृद्ध कवि ने कुछ ऐसी कवितायें लिखीं जो मुसलामानों को उचित नहीं लगीं. मोहम्मद ने अपने साथियों से कहा,'कौन मुझे इस कीड़े से मुक्त करवाएगा?' एक नए बने मुसलमान ने, जो अबू अफाक के ही कबीले का था, एक रात, अपने घर के बाहर सोये हुए वृद्ध को अपनी खड़ग से मार डाला. उसकी अंतिम चीख सुन कर निकटवर्ती लोग, जब तक वहां पहुँचते, हत्यारा वहां से भाग चुका था.
यहूदियों में आतंक
जैसा कि अपेक्षित था, महिला और वृद्ध की निर्मम हत्याओं ने यहूदियों एवं सभी उन नागरिकों के मन में, जो मुसलामानों के प्रति अविश्वास अथवा अरुचि रखते थे, एक आतंक व्याप्त हो गया.
बानू कुनैका को मोहम्मद की धमकी
मदीना के साथ ही एक यहूदी कबीला था, बानू कुनैका. बानू कुनैका का मुख्य व्यवसाय सोने की शिल्पकारी का था और मदीना से इस कबीले की मैत्री संधि थी. बद्र की हत्याओं के कुछ दिन पश्चात, मोहम्मद बानू कुनैका नामक यहूदी कबीले में गया और वहां के प्रमुख नागरिकों से एक बैठक में कहने लगा:
अल्लाह कसम! तुम सब जानते हो कि मैं अल्लाह का नबी हूँ इसलिए मुसलमान बन जाओ अन्यथा तुम्हारा भी वही हश्र होगा जो कुरैशियों का हुआ है.
यहूदियों ने मुसलमान बनना अस्वीकार कर दिया और मोहम्मद से कहा कि वो अपने पूर्वजों का मत नहीं त्यागेंगे, भले जो कर लो.
तुरंत 'अल्लाह, की एक नयी आयत मोहम्मद में उतरी.
अध्याय ३, आयत १३:
तुम्हें पहले ही इशारा मिल चूका है, जब दो गिरोह लड़ने के लिए भिड़े तो उनमें से एक अल्लाह की राह में लड़ रहा था और दूसरा काफिर था. ईमानदारों ने देखा कि काफिर उनसे दोगुणा हैं. अल्लाह उसे ही फतह देता है, जिसे वो चाहता है. समझदारों के लिए ये एक इशारा है.
इस प्रकार, एक भीषण परिणाम की धमकी दे कर मोहम्मद चला गया.
इसके कुछ ही समय उपरान्त मोहम्मद को हिंसा का अवसर मिल गया. एक मुसलमान महिला जब एक शिल्पकार के यहाँ किसी आभूषण लेने के लिए बैठी थी तो एक मूर्ख पडोसी ने उसके घाघरे को, उसकी चोली से सिल दिया. जब वो उठी तो घाघरा भी उठ गया. इस असुविधाजनक स्थिति में वो चिल्लाई तो उसे सुन कर एक मुसलमान वहां पहुंचा. उसे जब पता लगा तो उसने ऐसा करने वाले यहूदी को काट दिया. उस यहूदी के भाइयों ने मुसलमान को मार गिराया. उस मुसलमान के साथियों ने मदीना में जा कर, जो मुसलमान बने थे, उन्हें सहायता के लिए कहा. मैत्री संधि के चलते, मोहम्मद चाहता तो शांतिपूर्ण ढंग से, केवल दोषियों को दण्डित कर अथवा करवा सकता था किन्तु उसने मुसलामानों को एकत्रित किया और कुनैका की ओर चल पड़ा. वो श्वेत ध्वज जो उसने लगभग एक महीना पूर्व बद्र में लहराया था, हम्ज़ा को थमाते हुए आक्रमण करने पहुँच गया. कबीले का निर्माण किसी हमले से रक्षा के लिए ही किया गया था, इसलिए कबीले वाले भीतर सुरक्षित थे.
विश्वासघात की प्रशंसा
मुसलामानों ने कबीले को घेर लिया ताकि उन्हें कोई सहायता न मिल सके. कबीलेवासी आशा कर रहे थे कि अब्दुल्लाह बिन उबे एवं खजराज कबीला, जिन से उनके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे, उनकी सहायता करेंगे. उनमें से कोई भी इतना साहस न कर पाया और लगभग १५ दिन तक उनका कबीला अकेला पड़ गया. मुसलमान उन्हें चारों ओर से घेरे रहे. अपने को असहाय स्थिति में पाकर, कुनैका कबीले ने आत्म समर्पण कर दिया. एक एक कर, जब वे बाहर निकले तो उनके हाथ पीछे बाँध कर उन्हें काटने के लिए एक ओर खड़ा कर दिया गया. 'अब्दुल्लाह बिन उबे' अपने पुराने साथियों को इस स्थिति में नहीं देख पाया और उसने मोहम्मद से उन्हें छोड़ने का आग्रह किया. मोहम्मद, जो कि कवच पहने हुए था, ने मुंह फेर लिया तो अब्दुल्लाह ने उसकी भुजा थाम कर अपनी बात दोहराई. मोहम्मद ने चिल्ला कर कहा,' मुझे छोड़!'; किन्तु अब्दुल्लाह ने मोहम्मद को नहीं छोड़ा तो मोहम्मद के हाव भाव से क्रोध झलकने लगा. उसने झल्ला कर कहा:'ऐ नीच! मुझे छोड़!' अब्दुल्लाह ने कहा,' नहीं! मैं तुम्हें तब तक नहीं छोडूंगा जब तक तुम मेरे मित्रों को नहीं छोड़ोगे. मोहम्मद, क्या तुम उन सब को एक ही दिन में काट दोगे जिन्होंने मुझे हदैक और बोआथ की लड़ाइयों में सभी शत्रुओं से सुरक्षा दी. उन लड़ाइयों में ३०० सशत्र कवचधारी और ४०० शास्त्रहीनों नें मेरी रक्षा की थी. मेरा मत है कि समय के साथ अनिष्ट किसी पर भी हो सकता है.'
मोहम्मद अभी इतना शक्तिशाली नहीं हुआ था कि अब्दुल्लाह के कहे को ठुकरा देता. अंततः उसने अपने साथियों से कहा 'इन्हें जाने दो! अल्लाह इन पर अपना कहर बरसायेगा, और इस (अब्दुल्लाह) पर भी!'. मोहम्मद ने उन्हें मारा तो नहीं किन्तु उन्हें अपना कबीला छोड़ कर जाने का आदेश दे दिया और उनकी चल अचल संपत्ति पर मुसलामानों ने अधिकार कर लिया. इस लूट के माल (अन्फाल) में, यहूदियों के स्वर्ण शिल्पकारी के उपकरण, उनके कवच एवं शास्त्र सम्मिलित थे. इनमें से २०%, मोहम्मद के लिए था. इसके अतिरिक्त मोहम्मद ने अपने लिए तीन धनुष, तीन खड़ग और दो कवच अपने कब्ज़े में ले लिए थे.
कुनिकावासी अपनी जान बचा कर एक निकटवर्ती यहूदी काबिले 'वादी अल कोरा' पहुंचे और वहां के यहूदियों की सहायता से उन्हें सीरिया की सीमा तक जाने के लिए सवारी का प्रबंध करने में सहायता मिली.
मोहम्मद की, इब्न इस्हाक़ कृत सर्वप्रथम जीवनी में इस घटना के वर्णन से स्पष्ट होता है कि जिस समय अब्दुल्लाह अपने पुराने सहयोगियों का जीवन बचाने के लिए मोहम्मद से विवाद कर रहा था, उस समय 'बानू ऑस' काबिले का 'उबैदा बिन अल समित', जो स्वयं को कुनैकावासियों का मित्र बताता था, ने कुनैकावासियों की मैत्री त्याग कर मोहम्मद से मैत्री कर ली थी. वो मोहम्मद के निकट आया और बोला,"ऐ अल्लाह के पैगम्बर!मैं अल्लाह को, उसके पैगम्बर को और मुसलामानों को अपना मित्र मानता हूँ और काफिरों से अपनी संधि का त्याग करता हूँ".
इस समय अब्दुल्लाह के संबंध में कुरान की नई पंक्तियाँ प्रकट हुई. अध्याय ५, आयत ५१:
ऐ मुसलामानों! यहूदियों और ईसाईयों को अपना औलिया (मित्र, संरक्षक, सहायक इत्यादि) मत बनाओ. वो तो केवल एक दुसरे के परस्पर औलिया हैं. और यदि तुम में से किसी ने उन्हें अपना मित्र बनाया तो वो भी उनके जैसा ही माना जाएगा. अल्लाह जालिमों (अन्य भगवान् की पूजा करने वालों और अन्याय करने वालों) का साथ नहीं देता.
जिस समय अब्दुल्लाह बिन उबे ने कहा कि 'अनिष्ट किसी पर भी हो सकता है' तो कुरान की आयत प्रकट हुई. अध्याय ५, आयत ५२-५३:
और तुम उन्हें देखो जिनके दिलों में (दोगलेपन की) बीमारी है, वो अपने मित्रों को बचाने के लिए कहते हैं: " हमें भय है कि अनिष्ट किसी पर भी हो सकता है." जब अल्लाह अपनी इच्छा से हमें फतह देगा उस समय वो अपने राज़ छिपाने के कारण शर्मिंदा होंगे...... और जो ईमानदार (मुसलमान) हैं, वो कहेंगे:"क्या ये वही हैं जो अल्लाह की कसम खा कर कहते थे कि हम मुसलामानों के साथ हैं?" उन्होंने जो किया व्यर्थ जाएगा और वो पराजित होंगे.
उबैदा, जिसने अपने पुराने मित्रों का इस गंभीर समय में विश्वासघात करते हुए, मोहम्मद से मित्रता कर ली थी, की प्रशंसा करते हुए कुरान में नई आयत आई.अध्याय ५, आयत ५६:
और जिस शख्स ने अल्लाह और उसके रसूल और मुसलामानों को अपना औलिया बनाया तो (अल्लाह के गिरोह में आ गया और) इसमें शक नहीं कि अल्लाह का गिरोह (ग़ालिब) रहता है.

मंगलवार, जनवरी 06, 2015

विमान प्रकार

संजय सुदर्शन

श्री राम चरित मानस जिन्होंने भी पढ़ा होगा वे महर्षि भरद्वाज के नाम से भलीभांति परिचित होंगे. रामायण में इनकी बहुत प्रशंसा की गयी है. चरक संहिता में इन्हें चिकित्सा शास्त्र का जनक माना गया है.
ये अपने समय के बहुत बड़े वैज्ञानिक भी थे.

महर्षि भरद्वाज अपने ग्रन्थ 'यंत्र सर्वस्व' में आकाश में उड़ने वाले विमानों के सम्बन्ध में जो जानकारी देते हैं वो चौंका देने वाली है.
'यंत्र सर्वस्व' के एक खंड 'विमान प्रकरण' में ये विभिन्न विमानों का विस्तार से वर्णन करते हैं.

इन्होने विमानों का युगानुसार वर्णन किया है. युगशक्ति अनुसार विमान अलग अलग प्रकार के होते हैं. त्रेता में मांत्रिक ( मन्त्र शक्ति ), द्वापर में तांत्रिक ( तंत्र शक्ति ) और कलयुग में इनके अनुसार यांत्रिक ( यंत्र शक्ति ) के विमानों का प्रचलन होता है. सतयुग में विमान की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि मानव चेतना इतनी उन्नत होती है की बिना किसी साधन के मनुष्य कहीं भी पहुँचने की क्षमता रखता है.

पुष्पक विमान को महर्षि मान्त्रिक शक्ति का विमान बताते हैं.

इनके अनुसार कुछ अन्य विमान इस प्रकार से हैं -
1. बिजली से चलने वाला - शाक्युदगम
2. अग्नि , जल , वायु से चलने वाला - भूतवाह
3. गैस से चलने वाला - धूम्रयान
4. तेल से चलने वाला - शिखोदगम
5. सूर्य किरणों से चलने वाला - अंशुवाह
6. चुम्बक से चलने वाला - तारामुखी
7. मणियों से चलने वाला - मणिवाह
8. केवल वायु से चलने वाला - मरुत्सखा

इनके अनुसार कलयुग में यांत्रिक विमान का प्रचलन होता है जिसमे खनिज तेल ईंधन रूप में प्रयुक्त होता है और विमानों की विभिन्न श्रेणियों में यह सबसे निम्न कोटि का विमान है...

गुरुवार, जनवरी 01, 2015

10 लाख सालों में एक ही समय पर इतना सारे महान वैज्ञानिक कैसे पैदा हो गए.

ये सच्चाई सब भारतीय शेयर करे::
मानव इतिहास के 10 लाख सालों में एक ही समय पर इतना सारे महान वैज्ञानिक कैसे पैदा हो गए..न इससे पहले न इसके बाद कोई नया मौलिक सूत्र या नया नियम नहीं आया!!
--( ये सवाल बिलकुल बाजिब है । हमारे मनमें भी यह सवाल उठा था लेकिन आगेकी बात पढी तो किस्सा समज में आ गया ।)----
ऐसा लगता है जैसे उस समय ब्रिटिश, पड़ोसी व मित्र देशों में विज्ञान की लौटरी लग गई हो!! ये सवाल तो कोई हिन्दुस्तानी ही उठा सकता है... समझदार लोग अपने ऊपर गर्व करें ..बाकी पुरातन भारत का इतिहास पढ़े ...कुछ प्रारंभिक तथ्य प्रस्तुत है -
जिस समय न्यूटन के पूर्वज जंगली लोग थे, उस समय महर्षि भाष्कराचार्य ने पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था किन्तु आज हमें सिखाया जाता है कि ब्रिटेन के उस वैज्ञानिक ने ये बनाया जरमनी के उस वैज्ञानिक ने वो बनाया ....
जबकि सच ये है कि भारत से चुरा कर ले जाए ग्रन्थ इन लोगो के हाथ लग गए थे ..और ये उन पर टूट पड़े थे ..हमारे विज्ञान में कोई पेटेंट कराने की जरूरत नहीं थी क्यूंकि तब ब्रहम्मांड के रहस्य हम ही जानते थे किन्तु चोर ने जब चोरी कर ली ...तो चोरी के माल को अपना बताने के लिए वो कागजी रजिस्ट्रेशन का सहारा लेने लगा ....
पिता भारत, मां भारती का कोमेन्ट
आप को अचरज हुआ लेकिन ये सच्चाई है । वो रेनेसां पिरियड था, युरोप में नव जागृति काल । प्रिन्टिंग टेक्नोलोजी और प्रिन्ट मिडिया आ जाने से सामान्य मानवी तक ज्ञान पहुंचने लगा । पढाई लिखाई पर ध्यान गया, बडे बडे पुस्तक छपने लगे, बडे बडे विचारक पैदा होने लगे, बुध्धिजीवियों के क्लब खूलने लगे । आज की तरह ऐसा नही होता था की मायकल दारू पी के दंगा करते थे । वो सब आपस में मिल के ज्ञान की, अपने नए विचार की, अपनी नयी खोज की बातें करते थे । नया ज्ञान था ना, तो उत्साह था । उस युग को ज्ञान का विस्फोट युग भी कहा जाता है । आज की दुनिया को जो भी अच्छा बूरा मिला उस समय का परिणाम है ।
भारत के विज्ञान के लिए इस तरह इतराना ठीक नही । उन लोगों के पूरखें भी सनातनी हिन्दु ही थे, हिन्दु ज्ञान उनकी लाइब्रेरी में पहले से ही मौजुद था, उन की युरोपिय भाषा में ही था सब । ग्रीस का हिन्दुत्व सायन्स पर ज्यादा भार देता था, भगवान कृष्ण का हिन्दुत्व था । द्वारिका डुबने से पहले भगवान के वारिस यादव सेना लेकर ग्रीस तक अश्वमेध का घोडा लेकर चले गए थे । भारत के धनपतियों ने इजराईल के धनपतियों की संगत में आकर सोने के सिक्कों के बल पर भारत के हिन्दुत्व को आसमान की सैर करने को भेज दिया, योग और जुठे चमत्कारों में डाल दिया । जब की जमीनी काम के लिए ग्रीस और युरोप के हिन्दुत्व को खतम करने के बाद धनपतियों के प्यादे इसाईयों ने हिन्दुओं का सायन्सवाला हिस्सा अपने पास रख लिया और बाकी बहुत सा ज्ञान एलेक्जांड्रिया लाईब्रेरी में था वो पूरी लायब्रेरी ही जला डाली ।
पता नही कब भारत के लोग आसमान से जमीन पर आएन्गे । अपना संभाल नही सके और दुसरे लोग करते हैं तो अपना होने का दावा ठोक देते हैं । वो भी सनातनी लोगों के वारिस है, धनपति राक्षसों ने उनकी आस्था बदल दी है और हिन्दुओं के दुश्मन बनाकर अपने पक्ष में कर लिए हैं ।
ये सत्य है उस नव जागृतिकाल में बडे बडे विज्ञानिक और विचारक पैदा हो गए थे लेकिन तुरंत ही धनपति राक्षस डर गए थे और हरकत में आ गए थे । अच्छे अच्छों को खरीद लिया और मिडिया को अपने कंट्रोल में कर लिया था । विज्ञानिकों को अपने नौकर बना कर अपने व्यापार हेतु खोजबीन करवाने लगे जो आज तक जारी है । बुध्धिजीवियों को खरीद कर हिन्दुत्व खतम करने के काम में लगा दिया ।
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दोनो की बात अपने अपने हिसाब से सही है । साला कुछ ही समय में इतने विज्ञानिक पैदा कैसे हो सकते थे !
महान विज्ञानिक निकोला टेस्ला प्रेरणा के लिए एक ग्रंथ हाथ में लेकर बैठा रहता था । वो कोइ इसाई का लिखा ग्रन्थ नही था, हिन्दु ग्रंथ था । हमारा हिन्दुत्व या उनका हिन्दुत्व कहने का कोइ मतलब नही है । हिन्दुत्व सनातन है और सर्वव्यापी था । आज उसका व्याप घटकर आधे भारत में भी नही रहा है ।
हिटलर का स्वस्तिक भी उसके पूरखों का था । उस के पूरखे इसाई बन गए थे वो उसका दुर्भाग्य था ।
हिन्दुस्थान वालों को समजना चाहिए कि चिजें भारत की ना कह कर हिन्दुत्व की है ऐसा मानना चाहिए । युरोप और मिडल इस्ट भी कभी हिन्दुओं का स्थान था । अगर आज भी नही संभले, जमीन पर नही आए तो ये व्यापारियों का दानव समाज हमारे बचे हुए हिन्दुंओं का स्थान भी छीन लेन्गे ।