सोमवार, अगस्त 22, 2011

कैसे होगा कोई असांजे पैदा


 

कैसे होगा कोई असांजे पैदा

आशीष कुमार 'अंशु'


इंटरनेट पर आजादी के नाम से एक रिपोर्ट इसी साल अप्रैल में जब संयुक्त राष्ट्र अमरीका की प्रकाशन संस्था ‘फ्रीडम हाउस’ से आई तो उस वक्त एक भारतीय के नाते खुश होने के लिए उसमें बहुत कुछ था. एक तो यही कि पूरी एशिया में दक्षिण कोरिया के बाद इंटरनेट पर आजादी का लाभ उठाने वाले हम ही हैं.
ब्लॉक बेबसाइट
अब इंटरनेट पर ना दिखने वाली और एकदम से गायब हो जाने वाली किसी भी वेबसाइट पर ब्लॉक होने का संदेह अनायास ही हो जाता है. इसकी एक वजह यह है कि अपने देश में सरकार के आदेश पर बंद की गई वेबसाइटों की सूची पहली बार आम लोगों के सामने आई है. ‘खबरनामा’ के नाम से एक वेबसाइट चलाने वाले निखिल पाहवा को यह जानकारी अपने आरटीआई के जवाब में सूचना प्रोद्यौगिकी विभाग से प्राप्त हुई है. बंद की गई ग्यारह वेबसाइट्स में दो खबरों से जुड़ी थीं.

निखिल के अनुसार वे नियमित कुछ वेबसाइट्स देखा करते हैं. एक दिन जब उनके पसंद की एक वेबसाइट उन्हें कोशिशों के बाद भी दिखाई नहीं पड़ी तो उन्होंने इंटरनेट की गड़बड़ी समझ कर उस पर ध्यान नहीं दिया. ऐसा फिर जब एक दूसरी वेबसाइट के साथ हुआ तो उन्हें मामला थोड़ा गंभीर लगा. चूंकि वह वेबसाइट नहीं खुल रही थी और ना ही ना खुलने के पीछे की वजह स्पष्ट हो रही थी.

उन्होंने जानकारी जुटाने के लिहाज से एक आरटीआई डाली, जिसमें वेबसाइट्स को ब्लॉक करने से संबंधित सवाल थे. ऐसा नहीं है कि इस तरह के सवालों से पहवा अकेले ही जूझ रहे थे. बेंगलूरु की एक गैर सरकारी संस्था ‘द सेन्टर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटिज’ ने भी सरकार के सूचना प्रोद्यौगिकी विभाग से इसी तरह के सवाल पूछे. इसके जवाब में ग्यारह वेबसाइट की सूची उन्हें दी गई. यह ग्यारह वे वेबसाइट हैं, जो सूचना प्रोद्यौगिकी विभाग द्वारा प्रतिबंधित की गई हैं.

वास्तव में सूची लंबी हो सकती है. ‘ द सेन्टर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटिज’ के कार्यकारी निदेशक सुनील अब्राहम ने आरटीआई का जवाब मिलने के बाद उससे असंतोष जताते हुए कहा कि हम इस जवाब के बाद भी नहीं जान पाए कि किसके आदेश पर यह वेबसाइट्स बंद की गई हैं.

अब्राहम ने दूसरा आरटीआई डालने की मंशा जताई, जिससे वे जान सकें कि किन वजहों से और किनके कहने पर वेबसाइट बंद की गई. बताया जाता है कि पहवा और सीआईएस को मिली सूची सिर्फ एक छोटा नमूना है, वास्तव में कितनी वेबसाइट ब्लॉक की गई हैं, इसका सही-सही हिसाब कोई देने को तैयार नहीं है.

सरकारी कायदे में कुछ और बातें हैं, जिस पर चर्चा हो सकती है. जैसे किसी की मानहानि की बात, किसी को परेशान करने की बात, देश की अखंडता, संप्रभूता और मैत्री को चोट पहुंचाने की बात इंटरनेट साइट को ब्लॉक करने के लिए पर्याप्त हैं.

वेबसाइट पर किसी प्रकाशित सामग्री को हटाने के लिए शिकायत आने के बाद सिर्फ छत्तीस घंटे का समय है कि वे सामग्री को हटा लें. सामग्री ना हटने पर वेबसाइट मॉडरेटर और इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर जैसी संस्थाएं जिम्मेवार मानी जाएंगी. किसी सामग्री को वेबसाइट से हटाने के लिए इतना पर्याप्त है कि कोई व्यक्ति आपके द्वारा प्रकाशित किसी सामग्री को हटाने का आपसे निवेदन मात्र करे या फिर आपको एक पत्र लिखे या फिर लेख को हटाने संबंधित अपने इलेक्ट्रानिक हस्ताक्षर के साथ एक ई-मेल भेज दे.

इस पत्र के बाद इस तरह का कोई नियम नहीं है कि आप प्रकाशित सामग्री के मूल्यांकन का सवाल उठाएं. कुल मिलाकर अभिव्यक्ति की आजादी के मुकाबले हर आदमी के हाथ में सरकार ने सेंसरशिप की लगाम दे दी है.

कुल मिलाकर ये कि अंदर की खबर विकीलिक्स जैसी कोई संस्था बाहर लाना चाहेगी तो भारत में उसे देश की संप्रभूता पर खतरा बताकर प्रतिबंधित किया जा सकता है. इसका मतलब अब अपने देश में इस बहस की कोई खास जरूरत ही नहीं बचती कि भारत में कोई जुलियन असांजे पैदा क्यो नहीं होता? चूंकि अपने देश का कानून इसकी इजाजत नहीं देता.

साइबर कानून के जानकार पवन दुग्गल भी मानते हैं कि वर्तमान कानून के कई पहलू तर्कसंगत नहीं हैं. उन्होंने माना कि इस कानून में पारदर्शिता की कमी है. वे यह भी कहते हैं कि वेबसाइट्स के ऊपर हम किताबों और पत्र-पत्रिकाओं का कानून नहीं लगा सकते. वेबसाइट के माध्यम से मिनटों में कोई बात पूरी दुनियां में पहुंच जाती है. इतनी तेजी किसी माध्यम में नहीं है. साथ ही प्रॉक्सी माध्यम से वेबसाइट्स के खुलने का खतरा हमेशा रहता है. यह सुविधा किसी माध्यम के पास नहीं है.

श्री दुग्गल मानते हैं कि साइबर की दुनिया दो धारी तलवार की तरह है. जिससे संबंधित कानून अभी पुख्ता और मुकम्मल नहीं है. आने वाले समय में हम कुछ बेहतर कानून की उम्मीद रख सकते हैं.

वेबसाइट पर आने वाले विषयवस्तु को लेकर एक बार फिर बहस गरम होने की उम्मीद है. एक बार पहले भी दिसम्बर 2004 में बाजी डॉट कॉम, इंडिया के सीईओ अविनाश बजाज की गिरफ्तारी हुई थी. उन पर आरोप था कि उनकी वेबसाइट के माध्यम से दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल के सोलह-सत्तरह साल के एक छात्र-छात्रा की दो मिनट सैंतीस सेकेन्ड की क्लिप बेची जा रही थी. उस वक्त इस मामले की खूब चर्चा हुई थी. साथ ही वेबसाइट पर उपलब्ध सामग्री और उसके नियंत्रण को लकर भी सवाल उठे थे.

खबरनामा डॉट कॉम के निखिल पहवा वेबसाइट को ब्लॉक किए जाने के खिलाफ नहीं हैं. वे शालीनता के साथ अपना सवाल रखते हैं- “जब कोई किताब प्रतिबंधित की जाती है तो सरकार उसकी जानकारी देती है, वेबसाइट के साथ भी ऐसा ही होना चाहिए. इससे सरकार पर आम आदमी का विश्वास बढ़ेगा. उनके काम में पारदर्शिता नजर आएगी. साथ ही सरकार को कारण भी स्पष्ट करना चाहिए कि वह अमुक वेबसाइट को क्यो प्रतिबंधित कर रही है? इसके साथ यह बात भी जोड़नी चाहिए कि वह वेबसाइट अपने प्रतिबंध को हटाना चाहे तो उसे क्या करना होगा? जो वेबसाइट ब्लाक की गई हैं, यदि कोई उसके आईपी पते पर जाए तो वहां सरकार की तरफ से नोटिस लगा होना चाहिए, जिससे आम आदमी समझे कि यह वेबसाइट सरकार की तरफ से ब्लॉक की गई है. वरना आम आदमी अपने कम्प्यूटर सिस्टम और इंटरनेट कनेक्टिविटी को कोसता रह जाता है.”

यह जानकारी तो अपने हाथ लग गई कि देश में ग्यारह वेबसाइट ब्लॉक कर दी गई हैं. अब क्या हमें इस बात पर खुश होना चाहिए कि पाकिस्तान की प्रतिबंधित बारह सौ वेबसाइट्स से यह संख्या बेहद कम है या हमें इस बात की चिन्ता शुरू कर देनी चाहिए कि सरकार वर्चुअल स्पेस पर मिली आम आदमी को अपनी बात कहने की आजादी को नियंत्रित करने की तरकीब में लगी है ?

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