मंगलवार, जुलाई 31, 2018

राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने हेतु महत्वपूर्ण तथ्य (यूनेस्को हेरिटेज संरक्षण)

*राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने हेतु महत्वपूर्ण तथ्य*
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राजस्थानी भाषा इतनी समृद्ध और पुरानी भाषा है।इसके बारे में अगर बात करें तो किताबों की किताबें भर जाए मगर कुछ महत्वपूर्ण तथ्य यहां प्रस्तुत हैं।
1.राजस्थान भौगोलिक दृष्टि से भारत का सबसे बड़ा राज्य है।जनगणना 2011 में करीब 5 करोड़ लोगों ने अपनी मातृभाषा राजस्थानी दर्ज करवाई है।जबकि 14 करोड़ से भी ज्यादा लोग राजस्थानी बोलते हैं। राजस्थान,मध्य भारत,गुजरात,पंजाब,हरियाणा,पाकिस्तान,नेपाल,कोल
काता तथा विदेशों में बड़े चाव से राजस्थानी बोली और समझी जाती है।इन क्षेत्रों में राजस्थानी संस्कृति,लोकनृत्य और लोकगीतों को बड़े चाव से अपनाया गया है।
2. संविधान की मान्यता प्राप्त 22 भाषाओं में राजस्थानी 17 भाषाओं से बड़ी है।सिंधी केवल दस लाख लोगों द्वारा बोली जाती है जबकि राजस्थानी बोलने वाले 14 करोड़ लोग हैं।संस्कृत,सिंधी,उर्दू आदि भाषाएं अपवाद स्वरूप केवल 2-4 गांव को छोड़कर किसी भी पूरे गांव में नहीं बोली जाती।जबकि राजस्थानी हर घर-घर में बोली और समझी जाती है।
3. राजस्थानी भाषा का अपना व्याकरण है।इसमें कई अलंकार व छंद ऐसे हैं जो किसी भी भाषा में नहीं मिलते।गीत छंद के 100 से ज्यादा भेद हैं।राजस्थानी में वर्णमाला बोलने का अपना अलग अंदाज है तथा यहां आधा,पौना,सवा,डेढ़,पौने दो,अढ़ाई आदि के पहाड़े लोगों के कंठस्थ हैं।
4. राजस्थानी भाषा में किसी भी बात को सरल तरीके और गुस्से में कहने के लिए अलग-अलग शब्दों का प्रयोग होता है।प्रेमपूर्वक कही गई बात का हर एक शब्द गुस्से से कही गई बात से बिल्कुल अलग होगा।राजस्थानी भाषा बहुत ही संस्कारी भाषा है जिसमें गाली वर्जित है तथा नकारात्मकता भी वर्जित है।बंद करने को मंगल करना,नमक को मीठा कहते हैं।
5. राजस्थानी में तकरीबन 60 से भी ज्यादा अलग-अलग तरह के शब्दकोश हैं।पदम् श्री सीताराम लालस कृत राजस्थानी शब्दकोश दुनिया का सबसे बड़ा शब्दकोश है जिसके 7760 पृष्ठों में तकरीबन 3.50 लाख शब्द हैं।इस शब्दकोश की ऊंचाई डेढ़ फीट तथा वजन 10 किलो है।राजस्थानी की अपनी लिपि मुड़िया लिपि है लेकिन हिंदी को समृद्ध करने के लिए वर्तमान में यह देवनागरी में लिखी जाती है।
6. राजस्थानी के करीब 4 लाख हस्तलिखित ग्रंथ राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान और निजी संग्रहालयों में सुरक्षित पड़े हैं।राजस्थानी की कई पांडुलिपियां मुंबई,गुजरात,इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी लंदन,कैंब्रिज,जापान में भी पड़ी हैं।एशियाटिक सोसाइटी ने इस पर एक बहुत बड़ा कैटलॉग भी तैयार किया है।अमेरिकन कांग्रेस ऑफ लाइब्रेरी जने राजस्थानी को विश्व की 13 समृद्ध भाषाओं में से एक समर्थ भाषा माना है।
7. केंद्रीय साहित्य अकादमी ने 1972 से व राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ने 1983 से इसे मान्यता दे रखी है।उच्च माध्यमिक,B.A.,M.A.,NET,PH. D., राजस्थानी में की जाती है।UGC ने भी इसे मान्यता दे रखी है।NCERT इसे पढ़ाई योग्य विषय मानती है।
8. राजस्थानी का इतिहास 8वीं सदी से माना जाता है।बारहवीं सदी से लेकर आज तक लगातार गद्य और पद्य राजस्थानी भाषा में लिखा जा रहा है। गद्य 30 व पद्य 60 प्रकार से भी ज्यादा रूपों में लिखा जाता है।ऋग्वेद में भी राजस्थानी शब्दों और राजस्थानी संस्कृति का काफी उल्लेख मिलता है।कवि उद्योतन सूरी ने 8 वीं सदी में “कुवलयमाल” कथा संग्रह की रचना की थी।
9. राजस्थानी का लोक साहित्य बहुत ज्यादा समृद्ध माना गया है।लोकगीत,बात,लोकगाथा,कहावत,मु
हावरे,लोकनाट्य,पड़,पवाड़ा,रीति-नीति,पहेलियां आदि लोगों के कंठस्थ हैं। चैक विद्वान में स्मैकल के अनुसार एशिया में लोक साहित्य का सबसे बड़ा खजाना राजस्थानी भाषा में है। इसमें करीब डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोककथाएं लोगों के मुंह जुबानी याद हैं।गुरु जंभेश्वर की वाणी,गुरु ग्रंथ साहिब में धन्ना भगत की वाणी,मीराबाई के भजन ये सभी राजस्थानी में लिखे गए हैं।जैन साहित्य,चारण साहित्य,संत साहित्य और हिंदी का मध्यकाल राजस्थानी में ही लिखा गया है।
10.राजस्थानी भाषा को नेपाल पाकिस्तान आदि देशों में मान्यता है।अमेरिका में राजस्थानी भाषा यूनिवर्सिटी में पढ़ाई जाती है। शिकागो,मास्को,क
ैम्ब्रिज जैसे नामी विश्वविद्यालयों समेत दुनिया के कई और विश्वविद्यालयों में राजस्थानी पढ़ाई जाती है।अमेरिका में राजस्थानी भाषा को समृद्ध और गौरवशाली मानकर राजस्थानी कवि कन्हैयालाल सेठिया की कविताओं को करीब 1 घंटे तक रिकॉर्ड किया गया।
11. राजस्थानी में एक-एक शब्द की 500-500 पर्यायवाची शब्द मिलते हैं।उदाहरण के लिए पति व पत्नी के 500- 500,ऊंट के 150,बादल के 200,लाठी के 60,भैंस के 50 पर्यायवाची शब्द मिलते हैं।राजस्थानी बहुत ही समृद्ध भाषा है।उदाहरण के लिए हर महीने में होने वाली बरसात के नाम भी अलग-अलग हैं जैसे–सावन में लोर,भाद्रपद में झड़ी,अश्विनी में मोती,कार्तिक में कटक,मार्गशीर्ष में फांसरड़ो,पोष मेंं पावठ,माघ में मावठ,फाल्गुन में फटकार,चैत्र में चड़पड़ाट,बैसाख मेंं हळोतियो,ज्येष्ठ में झपटो,आषाढ़ में सरवांत नाम की बरसात होती है।
12. विदेशी भाषा वैज्ञानिकों ने प्रभावित होकर राजस्थानी के लिए बहुत कार्य भी किया।अनेक ग्रंथों का संपादन व सरंक्षण किया।अपना पूरा जीवन राजस्थानी को समर्पित कर दिया।जॉर्ज ग्रियर्सन ने “लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया” में,इटली के भाषा वैज्ञानिक डॉ एल पी टैस्सीतोरी ने “इंडियन एंटीक्यूवेरी में” और डॉ सुनीति कुमार चटर्जी ने “पुरानी राजस्थानी”में राजस्थानी को दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध भाषा बताया है।
13. दुनिया में ऐसी कोई भाषा नहीं बनी जो एक ही तरह से बोली जाती हो।जिस भाषा में जितनी ज्यादा बोलीयां होगी वह उतनी ज्यादा समृद्ध होगी। हिंदी-43,पंजाबी-29,गुजराती-27,नेपाली-6,तमिल-2
2,तेलुगु-36,कन्नड़-32,मलयालम-14,मराठी-65,अंग्
रेजी-57,उड़िया-24,बंगाली-15,कोंकणी-16 जबकि राजस्थानी में बोलियां हैं। हर एक भाषा में अपनी सबसे ज्यादा बोलने जाने वाली बोली को मानक भाषा के रूप में दर्जा दिया है।ठीक उसी तरह राजस्थानी का मानक रूप मारवाड़ी होगा।
14. इसके अलावा किसी भी तरह की समस्या या अड़चन का निराकरण किया जा चुका है।रिजर्व बैंक व UPSC की अनापत्ति भी मिल चुकी है।सरकार द्वारा गठित कमेटी ने राजस्थानी को समृद्ध माना है।
15. 21 फरवरी 1925 में भाषा मान्यता आंदोलन का शंखनाद स्वतंत्रता सेनानी और पहले मुख्यमंत्री श्री जयनारायण व्यास ने तरुण राजस्थान नामक अखबार में किया। इसके बाद लगातार यह आंदोलन चलता रहा।अभी कुछ साल पहले हनुमानगढ़ जिले के 1917 गांवों में “म्हारी जुबान रो ताळो खोलो” अभियान के तहत माननीय राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री,गृहमंत्री के नाम करीब 6 लाख पोस्टकार्ड लिखकर भेजे गए।
16.राजस्थानी पत्र-पत्रिकाएं,फिल्म सिनेमा,दूरदर्शन
,रेडियो पर राजस्थानी कार्यक्रमों की भरमार है।सोशल मीडिया जैसे फेसबुक,ट्विटर, व्हटसएप पर लोग राजस्थानी में लगातार लिख रहे हैं।गूगल कीबोर्ड में भी राजस्थानी भाषा शामिल है।मोबाइल कंपनियां रिंगटोन और दूसरी सेवाएं राजस्थानी में प्रस्तुत करती हैं।इसके अलावा राजस्थान के सभी नेता राजस्थानी में वोट मांगते हैं तथा अपना प्रचार राजस्थानी भाषा में करते हैं।
17.यहां के राजस्थानीयों ने हर जगह अपना परचम फहराया है।लता मंगेशकर को मंच देने वाले गुणी संगीतकार खेमचंद्र प्रकाश,गीतकार भरत व्यास,महाकवि कन्हैयालाल सेठिया,ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह,मांड गायिका अल्लाह जिलाई बाई,कालबेलिया नृत्यांगना गुलाबो, विश्वमोहन भट्ट सहित अनेक महान हस्तियों की मातृभाषा राजस्थानी ही है।राजस्थानी उद्योगपतियों व उद्यमियों ने गुजरात,कोलकाता और विदेश में अपनी मातृभाषा और कर्मठता से विशेष पहचान बनाई है।यहां के किसान व जवान दोनों ने देश के लिए अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है।
18. 21 फरवरी 2018 को जोधपुर उच्च न्यायालय में मातृभाषा को सम्मान देते हुए यहां के जजों ने जिरह राजस्थानी भाषा में करवाई है।जस्टिस व्यास राजस्थानी के पक्षधर हैं।
19.राजस्थानी का प्रसिद्ध लोकनृत्य घूमर को दुनिया के टॉप 10 में शामिल किया गया है।वहीं UNO ने प्रसिद्ध कालबेलिया लोकनृत्य को विश्व विरासत घोषित किया है।
20. हनुमानगढ़ की कवि चंद्रसिंह बिरकाली की कृति बादळी को महादेवी वर्मा व हरिवंशराय बच्चन ने गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की गीतांजलि से भी ऊपर माना है।स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर ने बहुत कम शब्दों में गहरी बात कह देने वाले राजस्थानी दोहे को अनूठा बताया था।उन्होंने कहा था कि राजस्थान ने अपने रक्त से जो साहित्य निर्माण किया है उसकी जोड़ का साहित्य और कहीं नहीं पाया जाता और उसका कारण है राजस्थानी कवियों ने कठिन सत्य के बीच में रह रहकर युद्ध के नगाड़ों के मध्य कविताएं बनाई थीं।मैं गीतांजलि लिख सकता हूं पर डिंगल के दोहे जैसी काव्य रचना नहीं कर सकता।
21.25 अगस्त 2003 में राजस्थान विधानसभा में राजस्थानी भाषा को मान्यता देने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास करके केंद्र सरकार को भेजा गया है।
22. पिछले 70 सालों में करीब 150 बड़े प्रयोग किए गए हैं उनमें से यह बात निकल कर आई है कि प्रत्येक व्यक्ति को यदि मातृभाषा में शिक्षा दी जाए तो वह बहुत आसानी से सीख सकता है।आरटीई 2009 में यह स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि प्रत्येक बालक को उसकी प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में दी जाए।ऐसा ही मत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का था।
23. विश्व में बहुत सारे ऐसे देश हैं जो अंग्रेजी को बिल्कुल भी महत्व नहीं देते जैसे- चीन मैं प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सारी की सारी पढ़ाई मातृभाषा चीनी यानी मंदारिन भाषा में की जाती है।यहां तक कि अमेरिकी छात्र भी अब चीनी भाषा सीख रहे हैं।हाल ही में उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने सभी राज्यों से अपील की है कि वे बालक को उसकी मातृभाषा में शिक्षा दें क्योंकि भाषा से संस्कृति मूल्य नैतिकता और परंपरागत ज्ञान को मूर्त रूप प्रदान किया जाता है।
24.राजस्थानी भाषा को मान्यता नहीं होने से यहां की कला,संस्कृति,विरासत,संस्कार जड़ से नष्ट हो रहे हैं तथा बेरोजगारों हो पूरे भारत के अभ्यर्थियों से कंपटीशन लड़ना पड़ता है।आईएएस परीक्षा में यहां के युवा पिछड़ जाते हैं।इसके अलावा प्रशासन और आम जनता के बीच भाषा का भेदभाव होने के कारण दोनों के बीच सही ढंग से अपनत्व तथा संपर्क नहीं बन पाता है।
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सारांश :-
महोदय नम्र निवेदन है कि 14 करोड़ लोगों की मातृभाषा राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करके करोड़ों राजस्थानियों की जुबान पर लगे हुए ताले को तुरंत प्रभाव से खोला जाए।प्रत्येक राजस्थानी व आने वाली पीढ़ियोंके लिए यह स्वर्णिम दिन आजादी से भी बढ़कर होगा।आओ हम सब मिलकर इसी यज्ञ में सामूहिक आहुति दें।
जय राजस्थान
जय राजस्थानी
जय हिंद।
कहीं कोई शिकायत,शंका या सुझाव हो तो संपर्क करें—
हरीश हैरी हनुमानगढ़
9660032133
harishharry365@gmail.com

रविवार, जुलाई 29, 2018

इस देश को खतरा है इन 4 से 1)कम्युनिस्ट 2)फेमिनिस्ट 3)pseudo-secularism(पाखंडी-धर्मनिरपेक्षता) 4)भीम सैनिक(नकली बौद्ध)

दिनेश कुमार प्रजापति
खतरा—सावधान
इस देश को खतरा है इन 4 से
1)कम्युनिस्ट
2)फेमिनिस्ट
3)pseudo-secularism(पाखंडी-धर्मनिरपेक्षता)
4)भीम सैनिक(नकली बौद्ध)
1)कम्युनिस्ट–वामपंथ आज़ादी के पहले से
भारतीय सभ्यता और संस्कृति का शत्रु रहा है।
भारतीय इतिहास की किताबो में जो कुछ भी
गलत और देश विरोधी बाते लिखी है वो सब
वामपंथ की देन है। वर्तमान समाज मे वामपंथ को
लेफ्ट,कम्युनिस्ट इत्यादि नामो से जाना
जाता है। आर्य बाहर से आये,महिषासुर
पूजन,रावण पूजन,राम की आलोचना,गौ मांस
भक्षण इत्यादि वामपंथी विचारधारा की
उपज है।
इन वामपंथियो ने देश के इतिहास के साथ बहुत
घिनौना खिलवाड़ किया और देश के मूल
इतिहास को उखाड़ फेंकने की पूरी कोशिश की
,जो आज भी जारी है। भारत के स्कूलो में पढ़ा
जाने वाला इतिहास वामपंथी लिखा करते थे
और ये लोग फिरंगियो के बहुत करीबी होते थे।
फिरंगियो ने भारत में कब्ज़े की शुरुवात ही
बंगाल से की थी यानि ईस्ट इंडिया कंपनी से।
यही कारन था की बंगाली इनके बहुत करीब रहे।
वामपंथ में अधिकतर बंगाली समुदाय है किन्तु ये
वामपंथी बंगाली वास्तव में नास्तिक होते है
और भोग ही इनके लिए सबकुछ है। देश के इतिहास
से खिलवाड़ करके देश को बर्बाद करना और एक
सोची समझी राजनीती के तहत देश को बर्बाद
करना ही वामपंथ की मुख्य विशेषता रही है।
औरतो को आज़ादी के नाम पर उकसाना और
फिर उनका उपभोग करना वामपंथ के लक्षण रहे है।
नास्तिक वामपंथी नास्तिक होने का
दिखावा करते है किन्तु इनके निशाने पर सिर्फ
हिन्दू धर्म होता है ,ईसाई या मुस्लिम धर्म
नहीं। कुल मिलाकर अगर वामपंथ को एक नाम
दिया जाये तो वो है “काले अंग्रेज” या फिर
अंग्रेज़ो की नाजायज औलादे या यु कहे “”भारत
में मौजूद अंग्रेज़ो के प्रतिनिधि”
2)फेमिनिस्ट— परिवार व्यवस्था और
पिता,पुरुष इत्यादि के अधिकारो को उखाड़
फेंकने वाली मानसिकता या आंदोलन का ही
नाम है फेमिनिज्म या फेमिनिस्ट….बात बात में
पुरुषो से बराबरी का पाखंड करना किन्तु समय
आने पर खुद के लिए विशेषाधिकार मांगना,पुरुष
या पिता ने अधिकारो का हनन करना
इत्यादि को ही कहते है फेमिनिज्म। औरत को
देवी और सभी पुरुषो को राक्षस या पशु मान
लेने की ही विचारधारा का नाम है फेमिनिज्म
या नारीवाद। वामपंथी सदैव से ही फेमिनिज्म
के समर्थक रहे है। नग्नता,slut walk,kiss ऑफ़ लव
इत्यादि आंदोलन फेमिनिज्म की ही सौगात है
भारत में।। नारीवाद का ज़हर जो जो समाज में
घुलता जाएगा त्यों त्यों समाज में परिवार
नामक संस्था ख़त्म होती जाएगी। रिश्ते
नातो का समूल अंत हो जाएगा।। फेमिनिज्म
वास्तव में महिला सशक्तिकरण का आंदोलन
नहीं है बल्कि ये एक तरह का पुरुष -निशक्तिकरण
आंदोलन है। समानता के नाम पर बाल की खाल
निकालना ,पुरुषो के प्रति एक विशेष तरह का
पूर्वाग्रह पाल के रखना और महिलाओ के लिए
बिशेषधिकार की वकालत करना फेमिनिज्म
की खासियत है।। वर्तमान भारत में ये
नारीवाद एक दीमक की तरह कार्य कर रहा है ।
इसी नारीवाद का नतीजा है की भारत में
गंभीर अपराध करने वाली स्त्रियों को सजा
नहीं मिलती किन्तु नाबालिग लड़को के लिए
फांसी की मांग की जाती है।
तलाक,विवाह,घरेलू हिंसा संबंधी सभी कानून
अगर आज एक तरफ़ा है तो इसके लिए सिर्फ
फेमिनिज्म ज़िम्मेदार है।। वर्तमान समाज में
पारिवारिक पतन के लिए नारीवाद ही
ज़िम्मेदार है जहाँ एक स्त्री खुद के अधिकारो
को लेकर इतनी अहंकारी हो गयी है की उसमे इस
बात का विवेक ही नहीं है की उसके कर्तव्य
क्या है??? समाज और भारतीय पारिवारिक
सम्पदा को अगर बचाना है तो नारीवाद को
जड़ से उखाड़ फेंकने में ही भलाई है।
3)pseudo-सेकुलरिज्म— धर्म निरपेक्षता का
पाखंड। ये एक ऐसा पाखंड है जो भारत में पिछले
68 सालो से चल रहा है और लोगो पर थोपने की
कोशिश की जाती रही। । एक तरफ ये कहा
जाता है की हम सब धर्म निरपेक्ष है किन्तु दूसरी
तरफ देश में इस देश के ही मूल धर्म(हिन्दू) का
विरोध दबी जुबान होता रहता है। कभी कोई
15 मिनट में हिन्दुओ को काटने की बात करता है
तो कभी कोई गौ मांस खाने को खुद का
जन्मसिद्ध अधिकार बताता है। धर्मनिरपेक्षता
का वास्तविक स्वरुप तो भारत में ये है की हिन्दू
धर्म को दिन रात गाली दो,योग आयुर्वेद
संस्कृत इत्यादि की जब भी बात हो उसे भगवा
चोला पहनाकर उनका विरोध शुरु कर दो।।
भारत के कई शहरों के नाम बदल दिए गए किन्तु
औरंगज़ेब नाम की सड़क का नाम बदलने पर कुछ
शांतिदूतो के कलेजे में सांप लोटने लगते है, जरा
विचार कीजिये की ये किस तरह की धर्म
निरपेक्षता है? भारत के हज़ारो मंदिर तोड़ दिए
गए या उन्हें खुद के नाम पेटेंट करा लिया गया
किन्तु एक मस्ज़िद टूटने पर भारत में सबको
धर्मनिरपेक्षता याद आने लगती है। बड़ी बड़ी
दाढ़ी रखने वाले और खुद को धर्म गुरु कहने वाले
लोग विदेशी आक्रमणकारियो को अपना
आदर्श मानते है??
ये किस तरह की धर्मनिरपेक्षता है?? ये
धर्मनिरपेक्षता कही हमारे खिलाफ कोई षड्यंत्र
तो नहीं???
बस इसे ही कहते है pseudo secularism …जहाँ
सेकुलरिज्म की वकालत तो सभी करते है किन्तु
दबी जुबान कट्टरता फैलाते रहते है और अगर कोई
इन्ही दबी जुबान वालो का विरोध करे तो उसे
गाली दी जाती है। ये देश वर्तमान हिन्दू
मुस्लिम इत्यादि सभी का है लेकिन इस देश के
मूल-नागरिको और मूल-धर्म पर अगर बार बार
आक्रमण होंगे तब शायद हमें एक ठोस कदम उठाने
पर विचार करना ही पड़ेगा।
4)भीम सैनिक–मानसिक मिर्गी से ग्रसित ये
समुदाय मूर्खता का पर्याय है। खुद को अम्बेडकर
समर्थक कहने वाले ये लोग नकली बौद्ध है।
क्योंकि असली बौद्ध तो शांतिदूत होते है
,बौद्धों का कार्य शांति फैलाना है
अराजकता फैलाना नहीं। भीम सैनिक वर्तमान
आधुनिक जातिवाद के सर्वे-सर्वा है । समाज में
जातिगत नफरत के लिए ये समुदाय विख्यात है।
वामपंथियो के मनगढंत इतिहास का दीवाना है
ये समुदाय। खुद को बौद्ध बताने वाले भीम
सैनिक ये नहीं जानते की बौद्ध धर्म में सिर्फ दो
ही संप्रदाय है जिन्हें हीनयान और महायान
कहते है और इन दोनों सम्प्रदायो में सनातन
हिन्दू देवी देवताओ जैसे दुर्गा,काली,तार
ा,भैरव,गणेश इत्यादि की पूजा होती है। फिर
ये भीम सैनिक खुद कौन से बौद्ध है??? क्या ये
नहीं जानते की हिमाचल के बौद्ध लामा
ब्राह्मणों से ही ज्योतिष सीखते है और माँ
दुर्गा एवं हिडिम्बा की पूजा भी करते है । कई
सवर्ण इन भीम सैनिको के लिए दिन रात काम
करते है ताकि इन भीम सैनिको का उत्थान हो
सके,ये लोग आगे बढ़ सके। किन्तु ये भीम सैनिक
नफरत की राजनीती करने से बाज नहीं आते।।
आरक्षण का समर्थन करना और उसी के नाम पर
जातिगत राजनीती खेलना इन लोगो का पेशा
है।। ये लोग खुद ही सुधरना नहीं चाहते और
जातिवाद को कायम रखना चाहते है और अंत में
दोषारोपन सवर्णों पर करते है। जबकि इनके
उत्थान के लिए जो कुछ भी किया वो सिर्फ
सवर्णों ने किया। चूहा खाने वाली मुसहर
जाति के लिए कई सवर्ण कई योजनाये चला रहे है
ताकि ये महादलित आगे बढ़ सके जबकि अमीर
भीम सैनिक सिर्फ जातिवाद का ज़हर घोलने
और ज़िन्दगी को एन्जॉय करने में व्यस्त है। इनके
भीम बाबा को भी राजा गायकवाड़ ने मदद
की थी वर्ना अम्बेडक कुछ न कर पाते।।
ये चारो सम्प्रदाय भारत पर दिमक की तरह है
जो धीरे धीरे देश को बर्बाद करने में लगे है। इनसे
सावधान रहने की जरूरत है वर्ना ये खुद तो नंगे है
ही , देश को भी भूँखा नंगा बनाकर छोड़ेंगे।।

पत्थलगड़ी की घटना: 1

पत्थलगड़ी की घटना: देशविरोधी मनसा से गाँव पर कब्जे की नीयत: मिशनरीज और माओवाद का षड्यंत्र।
पत्थलगड़ी की घटना जहाँ जहाँ भी हुआ वहाँ वहाँ एक नौ-दस फिट ऊँचाई और लगभग चार फिट चौड़ाई का पत्थर गाँव की सीमा पर गाड़ा गया। उस पत्थर पर हरे रंग का पेंट चढ़ाया गया। और कई स्थानों पर छेनी से खोदकर लिखा गया तो कई स्थानो पर पेंट से ही लिख दिया गया। प्रायः गाँव में पत्थर पर दोनो साईड में लिखा गया। कहीं कहीं एक साईड में ही लिखकर काम चलाया गया। जहाँ जहाँ भी पत्थलगड़ी हुआ प्रायः सभी स्थानों पर 1500-2000 की संख्या में लोगों को ले जाकर गाँव को घेर लिया गया। हथियार बंद माओवादी गिरोहों का भी सहयोग लिया गया गाँव को घेरने और ग्रामीणों पर दबाब बनाने में। निहत्थे ग्रामीण, हथियार बंद लोगों के हुजूम के आगे विवश थे उनकी बात मान लेने को।
कड़िया मुंडा के गाँव घाघरा मंदरुडीह में हुई पत्थरगड़ी की घटना के कारण यह मुद्दा सर्वाधिक चर्चित हुआ। विदित हो कि कड़िया मुंडा वर्तमान में खूँटी के लोकसभा सांसद हैं, राज्यसभा के पूर्व उपसभापति रहे हैं और आदिवासी विषय और आदिवासी क्षेत्र की ऐतिहासिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक विषयों के बहुत बड़े विद्वान बयोवृद्ध नेता हैं। ऊस गाँव में पत्थरगड़ी करने के बाद पत्थरगड़ी करने वाली भीड़ ने कड़िया मुंडा जी के घर पर आक्रमण किया, उनके तीन अंगरक्षको का अपहरण कर लिया और उनके हथियार छीन लिए थे।
जो पत्थर वहाँ गाड़ा गया उस पत्थर पर सबसे ऊपर लिखा है भारत का संविधान। भारत का संविधान गाँव में लगाने की नीयत होती तो उस पर संविधान विषयक सत्य चर्चा नीचे भी लिखी होती। संविधान के कुछ अनुच्छेद व धाराओं का वर्णन अवश्य है किंतु उनके नाम पर यहाँ झूठ ही लिखा गया है। यहाँ "भारत का संविधान" केवल भोली भाली जनता के मस्तिष्क में संविधान के सहारे संविधान विरोधी बातों को स्थापित कराने के मनोवैज्ञानिक उद्देश्य से लिखा गया है। नीचे वर्णित एक भी बात का भारत के संविधान से कोई लेना देना नहीं है। "भारत का संविधान" लिखकर उसके नीचे अशोक स्तंभ भी बनाया गया है। अशोक स्तंभ भी मनोवैज्ञानिक उद्देश्य से ही उकेरा गया है। इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि पत्थरगड़ी करने वाले लोगों को ज्ञात था कि इस देश की आदिवासी जनता देशभक्त है, संविधान का सम्मान करती है। अशोक स्तंभ देखकर नतमस्तक हो जाती है। इसीलिये संविधान का नाम लेकर संविधान के सहारे क्षदम रूप से संविधान विरोधी बातों को स्थापित करने का प्रयत्न किया गया।
दूसरी पंक्ति में लिखा है प्राकृतिक ग्राम पंचायत- घाघरा (मंदरुडीह)। यह पंक्ति ही ऊपर लिखे हुए भारत का संविधान शब्दावली को खारिज कर देता है। इस बात का समर्थन तीसरी पंक्ति में लिखा वाक्य भी करता है- "सर्वशक्ति सम्पन्नता मुंडारी खूंटकटी वर्जित क्षेत्र।" यहाँ पत्थरगड़ी को ही खूंटकटी कहा गया है। प्राकृतिक ग्राम पंचायत का यहाँ अर्थ है कि यहाँ आदिम जनजाति के लोग रहते हैं और यहाँ बाहर का कोई भी व्यक्ति प्रवेश नहीं करेगा। न कोई सरकारी अधिकारी-कर्मचार
ी आएगा न ही कोई अन्य जाती का व्यक्ति यहाँ आएगा। यह प्राकृतिक रुप से सर्वशक्तिसम्पन्न क्षेत्र है। अर्थात स्वशासित क्षेत्र है जिसपर भारत के संविधान के अंतर्गत बनी हुई कोई भी व्यवस्था लागू नहीं होगी। सर्वशक्तिसम्पन्नता अर्थात सम्प्रभुता संपन्नता तो केवल भारत राष्ट्र को ही प्रदान करता है भारत का संविधान। ग्राम को सर्वशक्तिसम्पन्न घोषित करते ही आप भारत की संप्रभुता को चुनौती प्रस्तुत कर देते हैं अर्थात भारत के संविधान को आप खारिज कर देते हैं। संप्रभुता सर्वोच्च इकाई अर्थात केंद्र सरकार को ही प्राप्त हो सकता है। संप्रभुता किसी राज्य, जिला, प्रखंड, पंचायत या ग्रामसभा को सौंपना ही देश से बगावत का प्रयत्न है।
चौथी पँक्ति में लिखा है- "भारत शासन अधिनियम 1935 अनुच्छेद- 91, 92 पारंपरिक रूढ़ि प्रथा ग्राम सभाओं के कानूनी अधिकार।" इसका अर्थ है कि 1947 के पश्चात बने और 1950 में लागू हुए संविधान के प्रावधानों को खारिज करते हुए 1935 के भारत शासन अधिनियम की धारा 91, 92 को सर्वोपरि घोषित करना। यह घोषणा का प्रयास आजादी के बाद बने संविधान सभा और बाद में उसका स्थान ले चुका भारतीय संसद के अधिकारों का अतिक्रमण करता है। यह अतिक्रमण अपने आप में स्वयंसिद्ध देशद्रोह है। 1950 में लागू हुआ नया संविधान पुराने कानूनी व्यवस्था "भारत शासन अधिनियम 1935" को रिप्लेस करता है फिर पुराने कानून की वैधता स्वतः ही समाप्त हो जाती है। ऐसे में 1935 के अधिनियम के आधार पर कोई व्यवस्था बिना शासन-प्रशासन की स्वीकृति-अनुमति के लागू करने का प्रयास भी देशद्रोह है।
अब पांचवीं पंक्ति से पॉइंट नम्बर 1 आरम्भ होता है जिसमें अनुच्छेद 13 (3) (क) का वर्णन है। इसमें कहा गया है- "भारत का संविधान अनुच्छेद 13 (3) (क) के तहत रूढ़ि या प्रथा प्राकृतिक ग्राम सभा ही विधि का बल है।" यानी संविधान की शक्ति है। जबकि यथार्थ में अनुच्छेद 13 न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति की बात करता है। "अनुच्छेद 13 – न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति। अर्थात राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनायेगा जो भाग 3 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को छीनती या उन्हें न्यून करती है।" इससे स्पष्ट होता है कि यहाँ मनमाने और मनगढ़ंत बातों को अनुच्छेद 13 के नाम पर लिख दिया गया है जिसका उद्देश्य केवल भोली भाली ग्रामीण जनता को भारत सरकार और राज्य सरकार के विरुद्ध भड़काना ही है।
पॉइंट नम्बर 2 में लिखा है- "अनुच्छेद 19 पारा (5) और (6) के तहत मुंडारी खुटकट्टी क्षेत्रों में कोई भी बाहरी गैर रूढ़ि प्रथा व्यक्तियों को स्वतंत्र रूप से भ्रमण करना , बस जाना, घूमना फिरना, कारोबार-व्यवसाय तथा रोजगार-नौकरी करना पूर्णतः प्रतिबंध है।" यह वाक्य अपने आप में भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। अनुच्छेद 19 में स्वतंत्रता के अधिकारो का वर्णन है। अनुच्छेद 19 (5) में लिखा है- "भारत के प्रत्येक नागरिक को भारत में कहीं भी रहने या बस जाने की स्वतंत्रता है। भ्रमण और निवास के सम्बंध में यह व्यवस्था संविधान द्वारा अपनाई गई इकहरी नागरिकता के अनुरूप है। भ्रमण और निवास की इस स्वतंत्रता पर भी राज्य सामान्य जनता के हित और अनुसूचित जातियों और जनजातियों के हितों में उचित प्रतिबंध लगा सकती है।"
संविधान में वर्णित बातें पत्थलगड़ी में पत्थर पर वर्णित बातों को झूठ सिद्ध करती है। और जनता के हित में भ्रमण और निवास का बंधन लगाने का अधिकार किसी मिशनरीज को नहीं है। किसी माओवादी को नहीं है। किसी ग्रामं पंचायत या जिला प्रशासन को भी नहीं है। यह अधिकार केवल और केवल भारतीय गणराज्य को है। वैसे ही अनुच्छेद 13 (6) में व्यापार-रोजगार की चर्चा करते हुए सर्वाधिकार भारतीय गणराज्य को ही सुरक्षित है। भारत सरकार चाहे तो किसी व्यापार-रोजगार के बारे में कोई नियम बना सकती है या फिर स्वयं भी वह कारबार कर सकती है। अब प्रश्न है कि यह अधिकार मिशनरीज को किसने हस्तांतरित किया?
अब पॉइंट 3 में कहा गया है कि संसद या विधानसभा के द्वारा कोई भी कानून ग्राम सभा पर लागू नहीं होता है। पॉइंट 4 में जिले के उपायुक्त का कोई अधिकार ग्राम सभा तक विस्तारित नहीं है यह लिख दिया गया है। पॉइंट 5 में ग्राम सभा की जमीन के 15 हजार फिट ऊपर और 15 हजार फिट नीचे तक का पूरा मालिकाना हक ग्राम के आदिवासियों का है यह कहा गया है। यह सब बातें भारत के संविधान के विरुद्ध है। और एक एक बात भारत की संप्रभुता सम्पन्न सरकार को चुनौती देने वाली है। इस पत्थलगड़ी के पत्थर के ऊपर लिखित संदेश से ही मिशनरीज के भारत विरोधी चाल चरित्र का अनुमान लगाया जा सकता है। ये मिशनरीज वाले खूंटी को पूर्वी तिमोर बनाना चाहते हैं। और एक एक ग्राम को भारत से आजाद अलग अलग देश बनाना चाहते हैं। एक एक गाँव को एक एक वेटिकन सिटी बनाना चाहते हैं। इनकी कुत्सित संविधान विरोधी मानसिकता पर कठोरता पूर्वक अंकुश लगाना आवश्यक है।
~मुरारी शरण शुक्ल।

पत्थलगड़ी की घटना: 2

पत्थलगड़ी की घटना: गाँव पर कब्जे की नीयत से मिशनरीज और माओवाद का षड्यंत्र: भाग 2
गाँव में गाड़े गए पत्थर पर संविधान के पाँचवें अनुच्छेद की धारा 244 (1) (3) (5) (1) का हवाला देते हुए कहा गया है कि "संसद या विधानमंडल का कोई भी सामान्य कानून ग्राम सभा पर लागू नहीं है।" यह भारत के संसद और संबंधित राज्य की विधानसभा के द्वारा बनाये गए सभी कानूनों को नकारने की स्पष्ट घोषणा है। संविधान को अमान्य कर देने की घोषणा है। संसद की विधायिका शक्ति को ही खारिज कर देने की घोषणा है। किन्तु जैसा पत्थर पर लिखा है इस धारा में ऐसा वर्णन नहीं है। वर्णन यह है कि किसी भी समय शांति और सुशासन की दृष्टि से आवश्यक होने पर राज्यपाल द्वारा संसद या विधानमंडल द्वारा पारित किसी कानून को शिथिल या अप्रभावी किया जा सकता हैं। विनियमित किया जा सकता है। अधिसूचना द्वारा नई व्यवस्था बनाया जा सकता हैं। उपरोक्त धारा में यथार्थ में वह वर्णन नहीं है जो पत्थर पर अंकित किया गया है।
244 (1) (3) 5. अनुसूचित क्षेत्रों को लागू विधि-
(1) इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी, राज्यपाल (संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा 'यथास्थिति, राज्यपाल या राजप्रमुख' शब्दों के स्थान पर उपरोक्त रूप में रखा गया।) लोक अधिसूचना द्वारा निदेश दे सकेगा कि संसद का या उस राज्य के विधान मंडल का कोई विशिष्ट अधिनियम उस राज्य के अनुसूचित क्षेत्र या उसके किसी भाग को लागू नहीं होगा अथवा उस राज्य के अनुसूचित क्षेत्र या उसके किसी भाग को ऐसे अपवादों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए लागू होगा जो वह अधिसूचना में विनिर्दिष्ट करे और इस उपपैरा के अधीन दिया गया कोई निदेश इस प्रकार दिया जा सकेगा कि उसका भूतलक्षी प्रभाव हो।
अर्थात यहाँ वर्णित समस्त शक्ति राज्य के राज्यपाल में निहित है। और संसद व विधानमंडल द्वारा बनाये गए सभी कानून यहाँ लागू होंगे। विशेष स्थिति में भी व्यवस्था बनाने का अधिकार राज्यपाल का ही है किसी मिशनरीज को यह अधिकार नहीं है।
244 (1) भाग (क) पैरा 2 का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि "अनुसूचित क्षेत्रों के जिलों के उपायुक्तों की कार्यपालिका शक्ति का विस्तारीकरण पांचवीं अनुसूचित क्षेत्र के उपबंधों के अधीन नहीं किया गया है। अतः अनुसूचित क्षेत्रों में प्रशासन पूर्णत: असंवैधानिक है।" यह झुठ लिखकर ग्रामीणों को यह समझाने का प्रयास किया गया है कि उपायुक्त का पत्थलगड़ी वाले गाँव में कोई अधिकार नहीं है। प्रशासन का यहाँ कोई अधिकार नहीं है। ग्राम सभा के पास ही सारा अधिकार है। यह भारत की स्थापित विधि के विरुद्ध बगावत का ही षड्यंत्र है। जबकि यथार्थ में उस धारा में निम्नलिखित वर्णन उपलब्ध है-
2. अनुसूचित क्षेत्रों में किसी राज्य की कार्यपालिका शक्ति-
इस अनुसूची के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार उसके अनुसूचित क्षेत्रों पर है।
यहाँ कहा जा रहा है कि कार्यपालिका का अधिकार अनुसूचित क्षेत्रों पर है। जबकि मिशनरीज कार्यपालिका की शक्ति को नकार रहे हैं पत्थलगड़ी के माध्यम से। यह सीधा सीधा भारत के संसद, राज्य की विधानसभा और जिले के उपायुक्त समेत पूरे प्रशासन को नकारकर गाँव को आजाद करने की मानसिकता का उद्घोष है। पूरा पूरा देशद्रोह है यह।
आगे CNT एक्ट के हवाले से कहा गया है जमीन के ऊपर 15 हजार किलोमीटर और जमीन नीचे 15 हजार किलोमीटर तक मालिकाना हक आदिवासियों का है। यह आश्चर्यजनक घोषणा है कि जमीन के ऊपर 15 हजार किलोमीटर तक कोई भी आदिवासी या कोई भी व्यक्ति कैसे हक जतायेगा? किस विमान या सेटेलाईट से उतनी ऊँचाई तक कौन सा हक जताने जाएगा? जमीन से 85 से 90 किलोमीटर की ऊँचाई पर आयनोस्फीयर होता है। उस ऊँचाई तक हक होने का अर्थ क्या है? क्या विमान सेवा और अंतरिक्ष सेवाओं को बाधित करने की मानसिकता भी अंतर्निहित है इस षड्यंत्र में?
जमीन के नीचे तो 15 हजार किलोमीटर व्यवहारिक बात है ही नहीं। क्योंकि पृथ्वी की त्रिज्या ही 6371 किलोमीटर है। और इसको दोगुना कर दें तो पृथ्वी का व्यास 12742 किलोमीटर है। अर्थात इतना ही पृथ्वी की कुल गहराई है। फिर 15 हजार किलोमीटर जमीन के नीचे तक कि बात बिल्कुल बेतुका और मूर्खतापूर्ण है। यह सारा झूठ और मूर्खतापूर्ण बातें ग्रामीणों को पागल बनाने की नीयत से लिखा गया है।
जबकि कोई भी अधिसूचना करने का अधिकार या तो राष्ट्रपति को है या फिर राज्यपाल को है न कि पत्थर गाड़ने वाले किसी मिशनरीज को अधिसूचना करने का अधिकार है। और वर्तमान कानूनों के आधार पर आप अपनी जमीन और अपने घर के ऊपर के एयरोस्पेस के स्वामी नहीं हो सकते। तथा अपनी भी जमीन में आप खनन करके खनिज नहीं निकाल सकते भले ही वहाँ खनिज उपलब्ध हो तब भी। आपको सरकार को इसकी सूचना देनी ही होगी। सरकार ही यह खनन का निर्णय ले सकती है।
किंतु ये मिशनरीज वाले ऐसा प्रयत्न करके भारत के एयरोस्पेस, अंतरिक्ष स्पेस और खनिजों के खनन पर भी अवैध स्वामित्व जताने का देशद्रोही प्रयत्न कर रहे हैं। यह भारत का संविधान और अशोक स्तंभ की आड़ में संविधान से बगावत/विद्रोह का एक कुत्सित प्रयत्न है। इस राष्ट्रद्रोही कृत्य को कठोरतापूर्वक डील करने की आवश्यकता है जिससे इनकी जनता के प्रतिष्ठापूर्ण जीवन से जुड़े प्राकृतिक न्याय सिद्धांत और सरकारी कामकाज में दखल देने की आदत हमेशा के लिए छूट जाए।
~मुरारी शरण शुक्ल।

पत्थलगड़ी का सच भाग 3:

पत्थलगड़ी का सच भाग 3: गाँव को आजाद देश (वेटिकन) बनाने ने की साजिश।
पत्थलगड़ी के पत्थर को गाँव की छाती पर गाड़कर युगों युगों से सनातनी जीवंत जीवनधारा में जीवमान आदिवासी समाज को मुर्दा बनाने का प्रयास किया जा रहा है। भारत का आदिवासी समाज वह समाज है जिसने औरों के जागने से पहले ही अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत का बिगुल बजा दिया था। यह वही आदिवासी समाज है जिसने अंग्रेजों के थ्री नॉट थ्री रायफल का मुकाबला तीर धनुष, हँसिया, दराँती, गुलेल, कुल्हाड़ी, टाँगी इत्यादि परंपरागत हथियारों से सफलता पूर्वक किया करता था। लगातार 20-25 वर्षो तक अंग्रेजों की आधुनिक हथियारों से सुसज्जित सेना का मुकाबला परम्परागत हथियारों से करना बहुत बड़ी बात थी। और ऐसा एक विद्रोह नहीं अनेकों विद्रोह हुए संथाल में भी, कोल्हान में भी, नागपुरिया क्षेत्र में। अदिवासी समाज ने ही भारत में स्वतंत्रता आंदोलन की अग्नि को सर्वप्रथम प्रज्वलित किया था। अंग्रेजों ने आदिवासी समाज की वीरतापूर्ण देशभक्ति को देखा था और फिर इस देशभक्ति को कुंद करने के लिए उनलोगों ने ही अपने साथ साथ मिशनरीज वालों को पाला जो आजतक आदिवासी समाज से उस बहादुरीपूर्ण विद्रोह का बदला ले रहे हैं।
जिस आदिवासी समाज ने कभी भारत की माटी का तिरस्कार नहीं किया। वृक्ष, वन, पर्यावरण, जल, जंगल और माटी के लिए ही जीवन जिया। सदा ही भारत की परम्परा और रीति नीति का पालन किया। आजादी के बाद बने संविधान का भी सदा सम्मान किया। उसी अदिवासी समाज को इंडिया नॉन ज्यूडिशियल कहकर कलंकित करने का प्रयास किया जा रहा है।जी हाँ आप सही सुन रहे हैं। पत्थलगड़ी के पत्थर पर दूसरे साईड में लिखा है इंडिया नॉन ज्यूडिशियल। इसका अर्थ क्या है? इसके पीछे का भाव क्या है? अंतर्निहित चाल क्या है? इंडिया नॉन ज्यूडिशियल कहने का अर्थ है कि यह गाँव वह गाँव है जहाँ भारत के न्यायालयों के निर्णयों का प्रभाव नहीं होगा। विभिन्न स्तर के न्यायालयों का निर्णय यहाँ लागू नहीं होगा। जिला सत्र न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय तक को खारिज करने की उद्घोषणा है यह पत्थलगड़ी। लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तंभों में से एक स्तंभ है न्यायपालिका। न्यायपालिका के बिना लोकतंत्र की कल्पना कठिन है। न्यायपालिका को खारिज करना भारत के खिलाफ राष्ट्रद्रोह है। यह राष्ट्रद्रोही हरकत ही है अदिवासी गाँव को इंडिया नॉन ज्यूडिशियल कहना।
इंडिया नॉन ज्यूडिशियल के ठीक नीचे दो कुल्हाड़ी का चित्र है एक दूसरे को क्रॉस करते हुए। यह आदिवासी समाज का परंपरागत हथियार है। यह कुल्हाड़ी का चित्र बनाने का कारण भी उनका मानसिक मनोवैज्ञानिक शोषण करना ही है। इस प्रकार उनको प्रभावित करके आगे की अनर्गल बातें वहाँ के समाज में स्थापित करने का प्रयत्न है यह। नीची लिखी हुई पंक्तियाँ समाज में विद्वेष फैलाने की नीयत से लिखा गया है। पत्थर पर दूसरे साईड में पहला पॉइंट लिखा गया है-
"भारत में गैर आदिवासी दिकू, ब्राह्मण, हिन्दू विदेशी केंद्र सरकार को शासन चलाने और रहने का लीज अग्रीमेंट 1969 में समाप्त हो गया है। लैंड रेवेन्यू 1921, गुजरात 1972, गाँधी इरविन पैक्ट 1931, भारत शासन अधिनियम 1935.
पत्थर पर लिखा उपरोक्त बिंदु समाज को तोड़ने वाले राष्ट्रघातक विषय है। जब भारत का संविधान सभी नागरिकों के लिए समानता का अधिकार सुनिश्चित करता है। (अनुच्छेद 14-18)। जब भारत का संविधान सबके लिए स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित करता है। (अनुच्छेद 19-22)। जब भारत का संविधान जीवन जीने का अधिकार सुनिश्चित करता है। (अनुच्छेद 21)। जब भारत का संविधान सबको देश में कहीं भी जाने, घूमने, रोजगार करने और बस जाने का अधिकार सुनिश्चित करता है। (अनुच्छेद 19)। फिर मिशनरीज वाले होते कौन हैं भारत में हिंदुओं और हिंदुओं की किसी भी जाति को भारत में रहने का अधिकार समाप्त करने की बात सरेआम शिलालेख पर लिखकर घोषणा करने वाले? फिर हिंदुओं को भारत में उनके अपने ही देश में रहने के लिए किसी से लीज करने की कौन सी जरूरत आन पड़ी है जिसके समाप्त हो जाने की बात मिशनरीज वाले इस प्रस्तर अभिलेख पर कह रहे हैं?
यहाँ दिकू शब्द का वर्णन है। दिकू किसको कहना चाहिए? दिकू वो अँग्रेज थे जिन्होंने जंगल का कानून बनाकर जंगल को सरकारी संपत्ति घोषित किया, आदिवासियों से उनका जंगल में प्रकृति के साथ जीवन जीने का अधिकार छीन लिया और जंगल विभाग बनाया। दिकू वो अंग्रेजी शासन था जिसने जमीन की बंदोबस्ती करके आदिवासियों के स्वतंत्र प्रकृति विचरनशील जीवन को ठहरा दिया। दिकू वो अँग्रेजी सरकार थी जिसने सीएनटी सीपीटी जैसे अनेक कानून 1857 के बाद लागू करके अपनी ही जमीन का उपयोग संकट के क्षण में भी नहीं कर सकने की स्थिति उत्पन्न कर दिया।
1857 के बाद सीएनटी एक्ट झारखंड के उस आदिवासी समाज के लिए सजा के रूप में लाया गया था जिस आदिवासी समाज ने लंबे समय तक अंग्रेजों से लोहा लिया था। उस विद्रोह का बदला लेने के लिए यह एक्ट लागू किया गया था। किंतु दुर्भाग्यबस वर्तमान में झारखंड के सभी आदिवासी नेता अंग्रेजों द्वारा तब लाये गए इस कानून की वकालत आज तक करते आ रहे हैं जिसकी चर्चा इस पत्थलगड़ी में भी किया गया है। आदिवासियों को जमीन छीने जाने का भय दिखाकर उनको भड़काने का काम आज भी यथावत चल रहा है। झारखंड के आदिवासियों को यह जानने का अधिकार है कि सीएनटी एक्ट पहली बार कब और किस उद्देश्य से लागू किया था?
दिक्कू वो मिशनरीज वाले हैं जिनके प्रभाव के कारण आज भी आदिवासी क्षेत्रों का विकास नहीं हो पा रहा है। देश में गरीबी उसी क्षेत्र में हैं जो पठारी क्षेत्र हैं। खनिज क्षेत्र हैं। आदिवासी क्षेत्र हैं। जिन क्षेत्रों में मिशनरीज और चर्च का सघन प्रभाव है। मिशनरीज और चर्च विकास में बाधक बनकर खड़े हैं। अतः असली दिक्कू तो ये मिशनरीज वाले हैं। जिनको गहराई से समझने की आवश्यकता है। दिकू जिसको कहना चाहिए वही भारत की अन्य जातियों को दिकू बताकर स्वयं आदिवासी समाज का धर्म में बदलने में लगा हुआ है दिनरात। इनके इस कुत्सित षड्यंत्र को समझे जाने की आवश्यक्ता है और पत्थलगड़ी के माध्यम से देश विरोधी बातें करने वालों के विरुद्ध राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाने की आवश्यकता है। तभी सामान्य आदिवासी समाज को प्राकृतिक न्याय सुनिश्चित किया जा सकेगा।
~मुरारी शरण शुक्ल।

पत्थलगड़ी का सच (4):

पत्थलगड़ी का सच (4): भारत के नागरिकों की पहचान मिटा देने का षड्यंत्र।
लोकतंत्र में मताधिकार जनता को दी गयी सबसे बड़ी शक्ति माना जाता है। इसके माध्यम से जनता सत्ता अधिष्ठान के बारे में चुनाव के समय अपना अभिमत व्यक्त करती है और जनता के सामूहिक मत से देश की सरकारें प्रभावित हुआ करती हैं। वस्तुतः जनता अपने मताधिकार के सहारे देश और राज्य की सरकारों का चयन करती है एक नियामित समयावधि के उपरान्त। किन्तु पत्थलगड़ी के शिलालेख में वोटर आई कार्ड और आधार कार्ड को आदिवासी विरोधी दस्तावेज कहा गया है। मताधिकार आदिवासी विरोधी कैसे हो सकता है? यह गंभीर मंथन का विषय है। आधार कार्ड को इस पत्थर पर आम आदमी का अधिकार कार्ड कहा गया है।
पत्थलगड़ी करने वाले इन देशद्रोही लोगों को आम आदमी के अधिकारो से भी समस्या है। इसीलिए वो इन कार्डों को आदिवासी विरोधी सिद्ध करके बंद करवा देना चाहते हैं जिससे आदिवासी समाज अपने मौलिक अधिकारो से रहित हो जाए, वंचित हो जाये। आदिवासी समाज को सचेत हो जाने की आवश्यक्ता है। अन्यथा ये मिशनरीज वाले माओवादियों के साथ मिलकर आदिवासियों का जीवन लकवाग्रस्त बना देने को प्रयत्नशील हैं। मिशनरीज के प्रभाव वाले सभी क्षेत्रों में देशभर में आदिवासियों की भयंकर गरीबी का एक मात्र कारण ये मिशनरीज वाले ही हैं। इन मिशनरीज वालों ने आदिवासियों का विकास होने नहीं दिया। जनकल्याणकारी योजनाओ को अनेक एनजीओ के माध्यम से प्रायः डकार जाने का इनका इतिहास रहा है।
पूरे देश में 47 लोकसभा सीटों को अदिवासियों के लिए आरक्षित रखा गया है। अनेक राज्यों के विधानसभाओं में भी आदिवासियों के लिए सीटें आरक्षित रहती हैं। नौकरी से लेकर शिक्षा व जनकल्याणकारी योजनाओं के विषय में भी आदिवासियों के लिए आरक्षण का प्रबंध किया गया है। आदिवासी समाज के लिए की गई इन सभी व्यवस्थाओं का आधार मतदाता पहचान पत्र और नागरिक पहचान के दस्तावेज ही होते हैं। नागरिक पहचान के दस्तावेज के रूप में ही आज आधार कार्ड का उपयोग हो रहा है। ये दस्तावेज यदि नहीं होंगे आदिवासियों के पास तो उनको वोट देने के अधिकार से लेकर जनकल्याण की योजनाओं तक का लाभ नहीं मिल पायेगा। और ऐसी स्थिति में आदिवासी समाज और अधिक अभाव एवं गरीबी में धँसता चला जायेगा। गरीब, मजबूर, लाचार, विवश आदिवासी समाज मतान्तरण के लिए मिशनरीज का आसान शिकार होता है।
मतदाता पहचान पत्र को हटा देने से आदिवासी क्षेत्रों के मतदाताओं की पहचान कठिन हो जाएगी और फिर लोकतंत्र का अस्तित्व खतरे में आ जायेगा। आदिवासी समाज लोकतंत्र के महापर्व चुनाव में सहभागिता से वंचित हो जाएगा यदि उसके पास वोटर आई कार्ड नहीं होगा तो। यही चाहते हैं मिशनरीज वाले षड्यंत्रकारी लोग। आधार कार्ड या अन्य नागरिक दस्तावजों को और परिष्कृत करते हुए आज आसाम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (NRC) लाने का प्रयत्न चल रहा है। NRC की प्रथम सूची प्रकाशित भी हो चुकी है। दूसरी सूची शीघ्र ही आने वाली है। उसको देश भर में लागू करने की बात चल रही है। उसके आधार पर बाहरी लोगों की पहचान आसान हो जाएगा। घुसपैठियों की पहचान आसान हो जाएगा। अवैध रूप से भारत मे रह रहे लोगों की पहचान आसान हो जाएगी। एनआरसी भविष्य में पूरे देश में न लागू हो जाए इसके भय से आधारभूत पहचान पत्रों का भी विरोध आरम्भ कर दिया गया है।
क्या अवैध रुप से रह रहे लोगों की पहचान हो जाने के भय से मिशनरीज वाले लोग पत्थलगड़ी में पत्थर पर भारत सरकार द्वारा निर्गत दस्तावजों को आदिवासी विरोधी घोषित कर रहे हैं? दुनियाँ के सारे देशों में अपने नागरिकों की पहचान के लिए कुछ न कुछ दस्तावेज का सृजन किया जाता है। ईसाई देशों में भी ऐसे दस्तावेज बनाए जाते हैं। यूरोप, अमेरिका में तो ऐसे नागरिकता के कार्ड बड़े सटीक व्यस्था से बनते हैं। वहाँ जॉब कार्ड बनता है बाहर से आये लोगो के लिए। ग्रीन कार्ड जैसे दस्तावेजो का प्रबंध होता है। इस्लामिक देशों में भी ऐसे नागरिकता के कार्ड्स बनाये जाते हैं। फिर भारत में नागरिक पहचान या मतदाता पहचान के लिए बनाए रहे सरकारी दस्तावेज आदिवासी विरोधी कैसे हो गए?
वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा आधार कार्ड को बैंक के खाते, मोबाइल फोन और पैन कार्ड से जोड़ देने के कारण देश में कई दशको से चलाए जा रहे कई अवैध धंधे बंद हो चुके हैं। मिशनरीज के गोरखधंधे और माओवादियों के कई लेन देन भी इससे प्रभावित हुए हैं। क्या यह आर्थिक हानि आधार कार्ड के विरोध का मूल कारण है? इंडिया नन ज्यूडिशियल कहकर क्या सरकारी न्याय व्यस्था को नकारने के पीछे यही हेतु है? संकुचित निहित स्वार्थों के बशीभूत भारत का विरोध राष्ट्रद्रोह के स्तर तक पहुँच रहा है यह अत्यंत खतरनाक है। यह तो देश की व्यवस्था को चुनौती देने का प्रयत्न है। इसका संज्ञान न्यायालयों को भी लेना चाहिए और सरकारों को भी। देश के विरुद्ध चलाया जा रहा यह खतरनाक खेल किसी भी दृष्टि से अनदेखी करने वाला विषय नहीं है।
अनेकों लोग अनेक देशों से टूरिस्ट वीजा पर भारत आते हैं और यहाँ धर्म प्रचार के कार्य में लग जाते हैं। बहुत बड़ी संख्या में लोग वर्षानुवर्ष से भारत में अवैध रुप से रह रहे हैं। अनेक तो कई फर्जी/सिंथेटिक कारण उपस्थित करवाकर शरणार्थी का दर्जा प्राप्त करके भारत में लंबे समय से निवास कर रहे हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों के लोग भी शरणार्थी के रूप में निवास करते हैं। आज दुनियाँ के लगभग 80 देशों के लोग भारत में शरणार्थी के रूप में रहते हैं। भारत में जितने शरणार्थी हैं उतने शरणार्थी विश्व के किसी भी देश में नहीं हैं।
अमेरिका स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी खड़ा करके कहता है कि वो शरणार्थियों की राजधानी है। किंतु यह बहुत बड़ा झुठ है। असल में शरणार्थियों की राजधानी तो भारत है। यहाँ लगभग 10 करोड़ से अधिक शरणार्थी हैं। एक अकेले बांग्लादेश के ही लगभग 7-8 करोड़ लोग भारत के विभिन्न प्रान्तों में निवास करते हैं। दो लाख से अधिक तो बर्मा से रोहिंग्या मुसलमान भारत मे आ बसे हैं। उन सभी एनोनिमस लोगों में कई प्रकार के लोगों की पहचान हो जाएगी यदि यह पहचान पत्र पूर्णतः लागू हो गया तो। पहचान पत्रों के निर्माण में थोड़ी चौकसी, सख्ती और सजगता ले आने से फर्जी कार्ड्स निरस्त हो जाने का भय सता रहा है देश विरोधियों को। भारत में पहचान पत्रों की व्यापक उपयोगिता से उनका पहचान उजागर हो जाएगा। यह भय इस विरोध का मूल कारण है। अवैध रूप से भारत में रह रहे लोग भारत के नागरिकों की पहचान मिटा देना चाहते हैं जिससे उनको यहाँ छुपकर रहना आसान हो जाये। इस षड्यंत्र को शिघ्र समझकर उचित निदान करना बहुत आवश्यक है।
~मुरारी शरण शुक्ल।

पत्थलगड़ी का सच (5):

पत्थलगड़ी का सच (5): भारत की देशी सरकार के खिलाफ राजद्रोह का षड्यंत्र।
पत्थलगड़ी के पत्थर पर भारत की स्वदेशी सरकार के विरुद्ध बगावत के षड्यंत्र की पंक्तियाँ अंकित हैं। इस शिलालेख में कहा गया है कि "भारत सरकार आदिवासी लोग हैं।" आईये समझते हैं कि इस पँक्ति और इसके आगे की पँक्तियों का अर्थ क्या है? लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा संचालित शासन प्रणाली है। जिसमें सारा स्वामित्व जनता में निहित है। देश के एक एक इंच भूमि की स्वामी जनता है। देश के हवा, वायु, प्रकाश, जल, मिट्टी, रेत, जंगल, जैव संपदा, खनिज, इत्यादि सभी प्राकृतिक संसाधनों की स्वामी जनता है। देश के अंदर के सभी प्रकार के संसाधनों की स्वामी जनता है।
किंतु भारत जैसे विशाल देश में जनता का यह स्वामित्व भारत के एक गाँव के बराबर की जनसंख्या वाले यूरोपियन सिटी स्टेटस की भाँति लागू करना संभव नही हैं। भारत समेत दुनिया के सभी बड़े देशों में जनता के स्वामित्व का हस्तांतरण स्थानीय जन प्रतिनिधियों को चुनावी मतदान के द्वारा मत देकर किया जाता है। चूँकि कोई भी ऐसा असेम्बली हॉल बनाना आज के टेक्नोलॉजीकल/
इंजीनियरिंग/वैज्ञानिक युग में भी संभव नहीं है जिसमें 132 करोड़ जनता बैठकर विधि का निर्माण कर सके और राजकाज का संचालन कर सके। इसीलिये जन प्रतिनिधि चुनना ही सबसे उपयुक्त विकल्प है।
इस प्रकार जन प्रतिनिधि जनता का नौकर न होकर एक संसदीय क्षेत्र को यदि भारत के परंपरागत परिवार भाव से एक परिवार मान लिया जाय तो उस पूरे क्षेत्र की जनता का अभिभावक है। उस क्षेत्र की विपुल जनता रूप में प्राप्त एक विस्तृत परिवार का मुखिया है। उनका हित चिंतक है। उनकी देखभाल करने वाला अधिक दायित्व समझने वाला एक जागरूक जिम्मेदार काबिल व्यक्ति है जो सबका भरोसा लेकर सबके लिए जीवन जीता है।
जन प्रतिनिधि एक क्षेत्र विशेष की जनता के अधिकारों को मत के माध्यम से ग्रहण करके संबंधित सदन में पहुँचता है। और इस क्षेत्र की जनता के स्वामित्व के अधिकारों का प्रयोग उस सदन में करता है। अर्थात उस प्रतिनिधि के माध्यम से संबंधित क्षेत्र की जनता ही अपने स्वामित्व के अधिकारों का सदन में प्रयोग करती है। अप्रत्यक्ष रुप से जनता ही जन प्रतिनिधियों के माध्यम से विधि भी बनाती है और राज काज का संचालन करती है। जनता की यह आधिकारिक भावना राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों के घोषणापत्र में भी प्रतिबिम्बित होता है। जनता अनेक बार यह अधिकारपूर्ण भावना अनेक प्रकार के आंदोलनों के माध्यम से भी अभिव्यक्त करती है। ज्ञापन देना, सरकारी विभाग-मंत्रियों-अधिकारियों को पत्र लिखना इसी स्वामित्व के अधिकार का प्रकटीकरण है।
इतना समझने के बाद एक बात स्पष्ट हो जाता है कि देश का स्वामी भारत की जनता ही है। फिर सभी 132 करोड़ जनता को भारत सरकार न कहकर केवल आदिवासियों को ही भारत सरकार कहने के पीछे निहितार्थ क्या है? क्या यह मूल निवासी और आक्रमणकारी के मनगढ़ंत फर्जी कांसेप्ट को स्थापित करने का प्रयास है? या फिर समाज के एक धड़े को देश का स्वामी कहकर उसे भड़काकर दूसरे धड़े के साथ लड़ाकर गृह युद्ध छेड़ने की शातिर चाल है? या फिर भारत के खिलाफ जनता को उकसाकर सत्ता पलटने का षड्यंत्र है? यह सारा षड्यंत्र एक सोची समझी रणनीति के अंतर्गत फैलाया जा रहा है।
पत्थलगड़ी करने वाला शातिर गिरोह "भारत सरकार आदिवासी लोग हैं" कहने के बाद आगे अंकित करता है पत्थर पर कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार आदिवासियों के ऑन इंडिया गवर्नमेंट सर्विस (O.I.G.S.)- भारत सरकार के सेवार्थ में काम करने वाले नौकर-कुली-जुड़ी हैं। यहाँ अनेक बातें समझ लेना बहुत आवश्यक है। यहाँ तीन प्रकार के सरकारों का वर्णन किया गया है। 1.केंद्र सरकार, 2.राज्य सरकार और 3.भारत सरकार। अब प्रश्न उठता है कि यहाँ इस पंक्ति में केंद्र सरकार और भारत सरकार में क्या अंतर है? आखिर कोन है भारत सरकार जिसका नौकर-कुली-जुड़ी केंद्र सरकार और राज्य सरकार को कहा गया है? यह भारत सरकार निश्चय ही इन देशद्रोहियों की बनाई हुई कोई अघोषित सरकार है जिसका हवाला ये लोग यहाँ दे रहे हैं।
जी हाँ यह आशंका नहीं सत्य है। इन्होंने एक अवैध सरकार बनाया हुआ है जिसका नामकरण ये लोग करते हैं ए सी भारत सरकार के रुप में। यह ए सी भारत सरकार संचालित होता है गुजरात से। जहाँ जहाँ भी पत्थलगड़ी हो रहा है वहाँ वहाँ के मिशनरीज चिन्हित गाँव में पहले माहौल बनाकर, उस गाँव की जनसँख्या, गाँव के प्रभावी लोगों की शक्ति, गाँव की कुल जनशक्ति, गाँव के लोगों की प्रकृति इत्यादि का आकलन करके, और इसके परिप्रेक्ष्य में अपनी स्थानीय शक्ति का आकलन कर लेने के उपरांत एक प्रस्ताव बनाकर गुजरात भेजते हैं। वहाँ चलाई जा रही इनकी ए सी भारत सरकार उस प्रस्ताव को स्वीकार करके इस कारनामे को अंजाम देने के लिए उपयुक्त व्यक्तियों की नियुक्ति करता है और साथ ही फंड रिलीज करता है तब घटित होती है यह पत्थलगड़ी की घटना।
आपको बताता चलूँ कि उनका यह फंड भारत में आन्तरिक रूप से चलाए जा रहे हवाला के नेटवर्क के माध्यम से संबंधित स्थान तक पहुंचाया जाता है। जिस व्यक्ति को फंड पहुंचना है उस व्यक्ति को एक दस रुपये के नोट का नोट पर अंकित करेंसी क्रमांक पूछा जाता है। उस नोट का फोटो खींचकर व्हाट्सएप या मैसेंजर या मेल या किसी भी अन्य साधन से संबंधित व्यक्ति को भेजना होता है। फिर उसको बता दिया जाता है कि अमुक पते पर जाकर अमुक पहचान वाले व्यक्ति को इस नंबर का वही नोट दिखाना आपको आपके पैसे मिल जाएँगे। वही नोट दिखाना जिसका फ़ोटो आपने भेजा है। इस प्रकार के गैरकानूनी गोरखधंधों को भी संचालित करता है यह पत्थलगड़ी गिरोह वाला ए सी भारत सरकार।
इसी भारत सरकार की चर्चा पत्थलगड़ी वाले पत्थर पर किया गया है। इसी अवैध भारत सरकार के अधीन नौकर-कुली-जुड़ी कहा गया है केंद्र सरकार और राज्य सरकार को। अर्थात यह अवैध सरकार चलाने वाले लोग अपने अवैध सरकार को भारत की केंद्र सरकार और राज्य सरकार से ऊपर की चीज मानते हैं। अवैध भारत सरकार के कारिंदे स्वयं को आदिवासियों का ठेकेदार और मालिक घोषित करते हुए आदिवासियों को अपने इस भारत सरकार का अंग घोषित करने का प्रयत्न कर रहे हैं इस पत्थलगड़ी के माध्यम से। केंद्र सरकार के समानांतर एक सरकार चलाने का प्रयत्न सीधा सीधा देशद्रोह है। यह भारत की संप्रभुता को चुनौती देने का प्रयत्न है। यह भारत को धूल धूसरित करने की मानसिकता से छेड़ा गया भारत विरोधी अभियान है। इन देशद्रोहियों को कठोरता से कुचलने की आवश्यक्ता है। थोड़ी भी अनदेखी बड़े विप्लव का कारण बनेगा। देश में अशांति और असुरक्षा का वातावरण उपस्थित करेगा। समय रहते इनको मटियामेट कर देने की आवश्यकता है।
~मुरारी शरण शुक्ल।

शुक्रवार, जुलाई 27, 2018

60 साल की गुलामी

हिन्दू समाज अपने इतिहास के प्रति ही
नकारात्मक
हो गया है। जिस को देखो वो 800 साल या
1300 साल
की गुलामी की बात करता है।
लोग अपने इतिहास से इतने अनभिज्ञ है की भले
ही उनके पूर्वज गुलाम न रहे हो लेकिन वो खुद
मानसिक रूप से गुलाम हो गए है। ये मानसिक
गुलामी 800 साल या 1300 साल
नही बल्कि 60 साल
पुरानी ही हैँ।
भारत अगर 800 या 1300 साल ग़ुलाम रहता तो
आज देश में
हिन्दुओ का नामो निशान ना होता। लेकिन
दुर्भाग्य है
की औपनिवेशिक और वामपंथी इतिहास पढ़
पढ़ के हमारी मानसिकता अपने
ही पूर्वजो के गौरवशाली संघर्ष को अपमानित
करने की हो गई हैँ।
दुनिया की किसी और सभ्यता ने इस्लाम
का इतनी सफलतापूर्वक
सामना नही किया जैसा हमने किया है।
भारत में इस्लाम के आगमन के 1100 वर्ष के बाद
भी 1800ई में भारतीय उपमहाद्विप में
मुसलमानों की संख्या 15% से भी कम
थी, बटवारे के समय यह 25% तक पहुँच गई
थी जो आज 40% से ऊपर है। साफ़ है भारत में
मुस्लिम जनसँख्या के बढ़ने का कारण धर्म
परिवर्तन से
ज्यादा उनकी जन्म दर है। बहरहाल, हमें
हमेशा 800 साल या 1300
की ग़ुलामी का पाठ जो अँगरेज़ हमे पढ़ा गये,
हम उसे ही पढ़े जा रहे है और इसमें वामपंथियो और
AMU वालोँ ने ये और जोड़ दिया की भारत में
इस्लाम के
आगमन से ही आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक,
वैज्ञानिक
क्रांति हुई, उससे पहले भारत में घोर अंधकार युग
था।
हमारी पाठ्य पुस्तकों में
7वीं शताब्दी में सिंध पर अरबो का आक्रमण
और हिंदुओं की हार पढ़ाया जाता है,फिर
सीधे 12वीं शताब्दी में
तुर्को की जीत। बीच में ये जरूर
बता दिया जाता है की इस काल में बहुत सारे
राजपूत
राज्य थे जो आपस में लड़ते रहते थे। लेकिन ये
नहीँ बताया जाता की स्पेन तक विजय करने
वाले अरब 7वीं शताब्दी में सिंध में आकर
आगे क्यों नही बढ़ पाए? सिंध में पहली बार
मुसलमानों के आक्रमण के बाद उन्हें 500 साल क्यों
लग गए
दिल्ली तक पहुँचने में? अनगिनत बार
राजपूतों द्वारा अरबो और तुर्को की पराजय के
बारे में
नही बताया जाता। हां महमूद ग़जनी के
आक्रमणों की चर्चा जरूर होती है लेकिन
उनकी नही जिसमे उसकी हार
हो।
फिर 1204 से 1526 के युग को भारत में सल्तनत युग
बता कर
पढ़ाया जाता है जबकि इस काल में इस सल्तनत
का वास्तविक शाशन
दिल्ली से 100 कोस तक ही था और इस
100 कोस की सल्तनत का इतिहास
ही भारत का इतिहास बन जाता है। इस
दौरान अनेक छोटे
छोटे राज्य स्थापित हुए। लेकिन उनके बारे में बहुत
कम
बताया जाता है। उस काल में उत्तर भारत में
हिंदुओं का सबसे
बड़ा राज्य मेवाड़ था। उसके बारे में पहला उल्लेख
मिलता है जब
ख़िलजी के हाथो मेवाड़ का विध्वंस होता है,
उसके बाद
सीधे 1526 में अचानक से राणा सांगा पैदा हो
जाते हैँ,
जो दिल्ली की मुस्लिम
सत्ता को चुनौती दे रहे होते हैं। ये मेवाड़
जिसका विध्वंस हो गया था ये इतना ताकतवर
कब हो गया?
मालवा और ग्वालियर में इतने ताकतवर हिन्दू
राज्य कब और कैसे बन
गए? मारवाड़ और आमेर का उतथान कब हुआ?
कितने अनगिनत
युद्धों में राजपूतो ने मुस्लिम शाशकों को
हराया,
13वीं सदी के setback के बाद
14वीं-15वीं सदी में कितने
संघर्षो के बाद उत्तर और दक्षिण भारत में
सफलतापूर्वक हिन्दू
राज्य बनाए गए, इनके बारे में
कहीँ नही बताया जाता। हम लोगो को
सिर्फ
हमारी हार पढाई जाती है।
ना हमारी उससे ज्यादा मिली हुई
जीत के बारे में बताया जाता और ना हमारे
सफल संघर्ष के
बारे में ।।
# NOTE :- विस्तृत लेख अभी बाकी है इस विषय पर ।।
जल्द ही लिखता हूं ।।

लक्ष्य वही ग़ज़वा-ए-हिन्द है और तकनीक शेर के छोटे-छोटे हज़ार घाव देने की है। जिससे धीरे-धीरे ख़ून बहने से शेर की मौत हो जाये।

ग़ज़वा-ए-हिन्द के सदियों पुराने सपने को साकार करने के लिये वृहत्तर भारत पर विभिन्न तकनीकें सैकड़ों वर्षों से प्रयोग में लायी जा रही हैं। उन्हीं में से एक प्रमुख तकनीक शत्रु पक्ष में विभाजन की तकनीक है। आपको पंचतंत्र की बूढ़े पिता और उसके चार बेटों की कहानी ध्यान होगी। बूढ़ा अपने आपस में झगड़ने वाले बेटों को बुला कर 10-12 पतली-पतली लकड़ियों के बंधे हुए गट्ठर को तोड़ने के लिये देता है। सारे बेटे एक-एक करके असफल हो जाते हैं। फिर वो गट्ठर को खोल कर एक-एक लकड़ी तोड़ने के लिये देता है। देखते हो देखते बेटे हर लकड़ी तोड़ डालते हैं। बूढ़ा पिता बेटों को समझता है "एक लकड़ी को तोडना आसान होता है किन्तु बंधी लकड़ियों को तोडना असंभव होता है' तुम सबको साथ रहना चाहिये।
यही तकनीक हिन्दुओं की विभिन्न जातियों को इस्लाम के अधीन करने के लिये सदियों से प्रयोग में लायी जा रही है। उत्तर प्रदेश में जाट, त्यागी समाज के धर्मान्तरित लोग मूले जाट, मूले त्यागी कहलाते हैं। इसी तरह से राजस्थान, गुजरात में राजपूत भी मुसलमान बने हैं। अन्य समाज भी धर्मान्तरित हुए हैं मगर ये आज भी अपनी जाट, त्यागी, राजपूत पहचान के लिये मुखर हैं और तब्लीगियों की प्रचंड हाय-हत्या के बाद भी अभी तक उसी टेक पर क़ायम हैं। धर्मांतरण चाहने वाली इन जमातों की कुदृष्टि सदियों से इसी तरह हमारे दलित, अनुसूचित जातियों पर लगी हुई है। जय भीम और जय मीम तो आज का नारा है। इस कार्य को सदियों से मुल्ला पार्टी जी-जान से चाहती है मगर उसकी दाल गल नहीं पा रही। आइये इस षड्यंत्र की तह में जाते हैं।
सामान्य हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बारे में छान-फटक करें तो बड़े मज़ेदार तथ्य हाथ आते हैं। झगड़े चाहे मस्जिद के आगे से शोभा यात्रा निकलने पर पथराव के कारण, किसी लड़की को छेड़ने, लव जिहाद की परिणति, किन्हीं दो वाहनों की टक्कर, भुट्टो को पाकिस्तान में फांसी, ईराक़ पर अमरीकी हमला, किसी भी उत्पात से शुरू होते होते हों; पहली झपट में हिन्दू समाज की ओर से आवाज़ उठाने वाले जाट, गूजर, बाल्मीकि-भंगी, चमार, इत्यादि जातियों के लोग पाये जाते हैं। जाट और गूजर ऐतिहासिक योद्धा जातियां हैं और इनके अनेकों राजवंश रहे हैं।
गुजरात प्रान्त का तो नाम ही गुर्जर प्रतिहार शासकों के कारण पड़ा है। सेना में आज भी जाट रेजीमेंट्स हैं अर्थात लड़ना इनके स्वभाव में है, मगर समाज के सबसे ख़राब समझे जाने वाले कामों को करने वाले पिछड़े, दमित, दलित लोगों में इतना साहस कहाँ से आ गया कि वो इस्लामी उद्दंडता का बराबरी से सामना कर सकें ? सदियों से पिछड़ी, दबी-कुचली समझी जाने वाली इन जातियों के तो रक्त-मज्जा में ही डर समा जाना चाहिये था। ये कैसे बराबरी का प्रतिकार करने की हिम्मत कर पाती हैं ? मगर ये भी तथ्य है कि आगरा, वाराणसी, मुरादाबाद, मेरठ, बिजनौर यानी घनी मुस्लिम जनसंख्या के क्षेत्रों के प्रसिद्ध दंगों में समाज की रक्षा इन्हीं जातियों के भरपूर संघर्ष के कारण हो पाती है।
आइये इतिहास के इस भूले-बिसरे दुखद समुद्र का अवगाहन करते हैं। यहाँ एक बात ध्यान करने की है कि इस विषय का लिखित इतिहास बहुत कम है अतः हमें अंग्रेज़ी के मुहावरे के अनुसार 'बिटवीन द लाइंस' झांकना, जांचना, पढ़ना होगा। सबसे पहले बाल्मीकि या भंगी जाति को लेते हैं। बाल्मीकि बहुत नया नाम है और पहले ये वर्ग भंगी नाम से जाना जाता था। ये कई उपवर्गों में बंटे हुए हैं। इनकी भंगी, चूहड़, मेहतर, हलालखोर प्रमुख शाखाएं हैं। इनकी क़िस्मों, गोत्रों के नाम बुंदेलिया, यदुवंशी, नादों, भदौरिया, चौहान, किनवार ठाकुर, बैस, गेहलौता, गहलोत, चंदेल, वैस, वैसवार, बीर गूजर या बग्गूजर, कछवाहा, गाजीपुरी राउत, टिपणी, खरिया, किनवार-ठाकुर, दिनापुरी राउत, टांक, मेहतर, भंगी, हलाल इत्यादि हैं। क्या इन क़िस्मों के नाम पढ़ कर इस वीरता का, जूझारू होने का कारण समझ में नहीं आता ?
बंधुओ ये सारे गोत्र भरतवंशी क्षत्रियों के जैसे नहीं लगते हैं ? किसी को शक हो तो किसी भी ठाकुर के साथ बात करके तस्दीक़ की जा सकती है। इन अनुसूचित जातियों में ये नाम इनमें कहाँ से आ गये ? ऐसा क्यों है कि अनुसूचित जातियों की ये क़िस्में उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश में ही हैं ? जो इलाक़े सीधे मुस्लिम आक्रमणकारियों से सदियों जूझते रहे हैं उन्हीं में ये गोत्र क्यों मिलते हैं ? हलालखोर शब्द अरबी है। भारत की किसी जाति का नाम अरबी मूल का कैसे है ? क्या अरबी आक्रमणकारियों या अरबी सोच रखने वाले लोगों ने ये जाति बनायी थी ? इन्हें भंगी क्यों कहा गया होगा ? ये शुद्ध संस्कृत शब्द है और इसका अर्थ 'वह जिसने भंग किया या तोड़ा' होता है। इन्होने क्या भंग किया था जिसके कारण इन्होने ये नाम स्वीकार किया।
चमार शब्द का उल्लेख प्राचीन भारत के साहित्य में कहीं नहीं मिलता है। मृगया करने वाले भरतवंशियों में भी प्राचीन काल में आखेट के बाद चमड़ा कमाने के लिये व्याध होते थे। ये पेशा इतना बुरा माना जाता था कि प्राचीन काल में व्याधों का नगरों में प्रवेश निषिद्ध था। इस्लामी शासन से पहले के भारत में चमड़े के उत्पादन का एक भी उदाहरण नहीं मिलता है। हिंदू चमड़े के व्यवसाय को बहुत बुरा मानते थे अतः ऐसी किसी जाति का उल्लेख प्राचीन वांग्मय में न होना स्वाभाविक ही है। तो फिर चमार जाति कहाँ से आई ? ये संज्ञा बनी ही कैसे ?
चर्ममारी राजवंश का उल्लेख महाभारत जैसे प्राचीन भारतीय वांग्मय में मिलता है। प्रतिष्ठित लेखक डॉ विजय सोनकर शास्त्री ने इस विषय पर गहन शोध कर चर्ममारी राजवंश के इतिहास पर लिखा है। इसी तरह चमार शब्द से मिलते-जुलते शब्द चंवर वंश के क्षत्रियों के बारे में कर्नल टाड ने अपनी पुस्तक 'राजस्थान का इतिहास' में लिखा है। चंवर राजवंश का शासन पश्चिमी भारत पर रहा है। इसकी शाखाएं मेवाड़ के प्रतापी सम्राट महाराज बाप्पा रावल के वंश से मिलती हैं। आज जाटव या चमार माने-समझे जाने वाले संत रविदास जी महाराज इसी वंश में हुए हैं जो राणा सांगा और उनकी पत्नी के गुरू थे। संत रविदास जी महाराज लम्बे समय तक चित्तौड़ के दुर्ग में महाराणा सांगा के गुरू के रूप में रहे हैं। संत रविदास जी महाराज के महान, प्रभावी व्यक्तित्व के कारण बड़ी संख्या में लोग इनके शिष्य बने। आज भी इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में रविदासी पाये जाते हैं।
उस काल का मुस्लिम सुल्तान सिकंदर लोधी अन्य किसी भी सामान्य मुस्लिम शासक की तरह भारत के हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की उधेड़बुन में लगा रहता था। इन सभी आक्रमणकारियों की दृष्टि ग़ाज़ी उपाधि पर रहती थी। सुल्तान सिकंदर लोधी ने संत रविदास जी महाराज मुसलमान बनाने की जुगत में अपने मुल्लाओं को लगाया। जनश्रुति है कि वो मुल्ला संत रविदास जी महाराज से प्रभावित हो कर स्वयं उनके शिष्य बन गए और एक तो रामदास नाम रख कर हिन्दू हो गया।
सिकंदर लोदी अपने षड्यंत्र की यह दुर्गति होने पर चिढ गया और उसने संत रविदास जी को बंदी बना लिया और उनके अनुयायियों को हिन्दुओं में सदैव से निषिद्ध खाल उतारने, चमड़ा कमाने, जूते बनाने के काम में लगाया। इसी दुष्ट ने चंवर वंश के क्षत्रियों को अपमानित करने के लिये नाम बिगाड़ कर चमार सम्बोधित किया। चमार शब्द का पहला प्रयोग यहीं से शुरू हुआ। संत रविदास जी महाराज की ये पंक्तियाँ सिकंदर लोधी के अत्याचार का वर्णन करती हैं।
वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान
फिर मैं क्यों छोड़ूँ इसे पढ़ लूँ झूट क़ुरान
वेद धर्म छोड़ूँ नहीं कोसिस करो हजार
तिल-तिल काटो चाही गोदो अंग कटार
चंवर वंश के क्षत्रिय संत रविदास जी के बंदी बनाने का समाचार मिलने पर दिल्ली पर चढ़ दौड़े और दिल्ली की नाक़ाबंदी कर ली। विवश हो कर सुल्तान सिकंदर लोदी को संत रविदास जी को छोड़ना पड़ा । इस झपट का ज़िक्र इतिहास की पुस्तकों में नहीं है मगर संत रविदास जी के ग्रन्थ रविदास रामायण की यह पंक्तियाँ सत्य उद्घाटित करती हैं
बादशाह ने वचन उचारा । मत प्यारा इसलाम हमारा ।।
खंडन करै उसे रविदासा । उसे करौ प्राण कौ नाशा ।।
जब तक राम नाम रट लावे । दाना पानी यह नहीं पावे ।।
जब इसलाम धर्म स्वीकारे । मुख से कलमा आप उचारै ।।
पढे नमाज जभी चितलाई । दाना पानी तब यह पाई ।।
भारतीय वांग्मय में आर्थिक विभाजन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के रूप में मिलता है। मगर प्राचीन काल में इन समाजों में छुआछूत बिल्कुल नहीं थी। कारण सीधा सा था ये विभाजन आर्थिक था। इसमें लोग अपनी रूचि के अनुसार वर्ण बदल सकते थे। कुछ संदर्भ इस बात के प्रमाण के लिये देने उपयुक्त रहेंगे। मैं अनुवाद दे रहा हूँ। संस्कृत में आवश्यकता होने पर संदर्भ मिलाये जा सकते हैं।
मनु स्मृति 10:65 ब्राह्मण शूद्र बन सकता है और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपना वर्ण बदल सकते हैं।
मनु स्मृति 4:245 ब्राह्मण वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ठ, अति-श्रेष्ठ व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच-नीचतर व्यक्तियों का संग छोड़ कर अधिक श्रेष्ठ बनता जाता है। इसके विपरीत आचरण से पतित हो कर वह शूद्र बन जाता है।
मनु स्मृति 2:168 जो ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़ कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है। उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी वेदों के ज्ञान से वंचित होना पड़ता है।
आप देख सकते हैं ये समाज के चलने के लिए काम बंटाने और उसके इसके अनुरूप विभाजन की बात हैं और इसमें जन्मना कुछ नहीं है। एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जाना संभव था। महर्षि विश्वामित्र का जगत-प्रसिद्ध उदाहरण क्षत्रिय से ब्राह्मण बनने का है। सत्यकेतु, जाबालि ऋषि, सम्राट नहुष के उदाहरण वर्ण बदलने के हैं। एक गणिका के पुत्र जाबालि, जिनकी माँ वृत्ति करती थीं और जिसके कारण उन्हें अपने पिता का नाम पता नहीं था, ऋषि कहलाये। तब ब्राह्मण भी आज की तरह केवल शिक्षा देने-लेने, यज्ञ करने-कराने, दान लेने-देने तक सीमित नहीं थे। वेदों में रथ बनाने वाले को, लकड़ी का काम करने वाले बढ़ई को, मिटटी का काम करने वाले कुम्हार को ऋषि की संज्ञा दी गयी है। सभी वो काम जिनमें नया कुछ खोजा गया ऋषि के काम थे।
यहाँ एक वैदिक ऋषि की चर्चा करना उपयुक्त होगा। वेद सृष्टि के उषा काल के ग्रन्थ हैं। भोले-भाले, सीधे-साधे लोग जो देखते हैं उसे छंदबद्ध करते हैं। ऋषि कवष ऐलूष ने वेद में अक्ष-सूक्त जोड़ा है। अक्ष जुए खेलने के पाँसे को कहते हैं। इस सूक्त में ऋषि कवष ऐलूष ने अपनी आत्मकथा और जुए से जुड़े सामाजिक आख्यान, उपेक्षा, बदनामी की बात करुणापूर्ण स्वर में लिखी है। कवष इलूष के पुत्र थे जो शूद्र थे। ऐतरेय ब्राह्मण बताता है कि सरस्वती नदी के तट पर ऋषि यज्ञ कर रहे थे कि शूद्र कवष ऐलूष वहां पहुंचे।
यज्ञ में सामाजिक रूप से प्रताड़ित जुआरी के भाग लेने के लिये ऋषियों ने कवष ऐलूष को अपमानित कर निष्काषित कर दिया और उन्हें ऐसी भूमि पर छोड़ा गया जो जलविहीन थी। कवष ऐलूष ने उस जलविहीन क्षेत्र में देवताओं की स्तुति में सूक्त की रचना की और कहते हैं सरस्वती नदी अपना स्वाभाविक मार्ग बदल कर शूद्र कवष ऐलूष के पास आ गयीं। सरस्वती की धारा ने कवष ऐलूष की परिक्रमा की, उन्हें घेर लिया। यज्ञकर्ता ऋषि दौड़े-दौड़े आये और शूद्र कवष ऐलूष की अभ्यर्थना की। उन्हें ऋषि कह कर पुकारा। उनके ये सूक्त ऋग्वेद के दसवें मंडल में मिलते हैं।
इस घटना से ही पता चलता है कि शूद्र का ब्राह्मण वर्ण में आना सामान्य घटना ही थी। ध्यान रहे कि वर्ण और जातियों में अंतर है। वर्णों में एक-दूसरे में आना-जाना चलता था और इसे उन्नति या अवनति नहीं समझा जाता था। ये केवल स्वभाव के अनुसार आर्थिक विभाजन था। भारत में वर्ण जन्म से नहीं थे और इनमें व्यक्ति की इच्छा के अनुसार बदलाव होता था। कई बार ये पेशे थे और इन पेशों के कारण ही मूलतः जातियां बनीं। कई बार ये घुमंतू क़बीले थे, उनसे भी कई जातियों की पहचान बनी। वर्ण-व्यवस्था समाज को चलाने की एक व्यवस्था थी मगर वो व्यवस्था हज़ारों साल पहले ही समाप्त हो गयी। वर्णों में एक-दूसरे में आना-जाना चलता था ये भी सच है कि कालांतर में ये आवागमन बंद हो गया।
उसका कारण भारत पर लगातार आक्रमण और उससे बचने लिये समाज का अपने में सिमट जाना था। समाज ने इस आक्रमण और ज़बरदस्ती किये जाने वाले धर्मांतरण से बचाव के लिये अपनी जकड़बन्दियों की व्यवस्था बना ली। अपनी जाति से बाहर जाने की बात सोचना पाप बना दिया गया। रोटी-बेटी का व्यवहार बंद करना ऐसी ही व्यवस्था थी। इन जकड़बन्दियों का ख़राब परिणाम यह हुआ कि सारी जातियों के लोग स्वयं में सिमट गए और अपने अतिरिक्त सभी को स्वयं से हल्का, कम मानने लगे। वो दूरी जो एक वैश्य समाज जाटव वर्ग से रखता था वही जाटव समाज भी बाल्मीकि समाज से बरतने लगा। आपमें से कोई भी जांच-पड़ताल कर सकता है। केवल 5 उदाहरण भी भारत भर में जाटव लड़की के बाल्मीकि लड़के से विवाह के नहीं मिलेंगे। अब महानगरों में समाज बदल गया है और अंतर्जातीय विवाह समय बात हो गयी है मगर आज से 30 वर्ष पूर्व ऐसी घटना लगभग असंभव थी।
आज बदलते समाज में शायद ये कुछ न दिखाई दे मगर आज से सौ साल पहले पंचों द्वारा व्यक्ति या परिवार से समाज का रोटी-बेटी का, हुक्का-पानी का व्यवहार बंद करना, उसका जीवन असंभव बना देता था। इसका अर्थ अंतिम संस्कार के लिये चार कंधे भी न मिलना होता था। इसका लक्ष्य अपने लोगों का धर्मांतरण न होने देना था। ये बंधन इतने कठोर थे कि अकबर के मंत्री बीरबल, टोडरमल तक उसका सारा ज़ोर लगा देने के बाद भी उसके चलाये धर्म दीने-इलाही और उसके पुराने धर्म इस्लाम में दीक्षित नहीं हुए।
प्राचीन भारत में भारत में शौचालय घर के अंदर नहीं होते थे। लोग इसके लिये घर से दूर जाते थे। समाज के लोगों में ये भाव कभी था ही नहीं कि उनका अकेले-दुकेले बाहर निकलना जीवन को संकट में डाल सकता है। मगर ये विदेशी आक्रमणकारी हर समय आशंकित रहते थे। उन्हें स्थानीय समाज से ही नहीं अपने साथियों से प्राणघाती आक्रमण की आशंका सताती थी। इसलिए उन्होंने क़िलों में सुरक्षित शौचालय बनवाये और मल-मूत्र त्यागने के बाद उन पात्रों को उठाने के लिये पराजित स्थानीय लोगों को लगाया। भारत में इस घृणित पेशे की शुरुआत यहीं से हुई है। इन विदेशी आक्रमणकारियों में इसके कारण अपनी उच्चता का आभास भी होता था और ऐसा घोर निंदनीय कृत्य उन्हें अपने पराजित को पूर्णरूपेण ध्वस्त हो जाने की आश्वस्ति देता था।
इन आक्रमणकारियों ने पराजित समाज के योद्धाओं को मार डाला और उनके बचे परिवार को इस्लाम या घृणित कार्यों को करने का विकल्प दिया। जो लोग डर कर, दबाव सहन न कर पाने के कारण मुसलमान बन गए, उन्हीं के वंशज आज के मुसलमान हैं। जो लोग मुसलमान नहीं बने, उन्होंने अपने प्राणों से प्रिय शिखा-सूत्र काट दिये और अपने धर्म को न छोड़ने के कारण भंगी-चमार संज्ञा स्वीकार की। यहाँ ये बात आवश्यक रूप से ध्यान रखने की है कि इन प्रतिष्ठित योद्धा जाति के लोगों ने पराजित हो कर भी धर्म नहीं छोड़ा।
इस्लाम के भयानक अत्याचार सहे, आत्मा तक को तोड़ देने वाला सिर पर मल-मूत्र ढोने का अत्याचार सहा, पशुओं की खाल उतारने कार्य किया, चमड़ा कमाने-जूते बनाने का कार्य किया मगर मुसलमान नहीं हुए। ये जाटव, बाल्मीकि समाज के लोग हमारे उन महान वीर पूर्वजों की संतानें हैं। आज भी इन योद्धा जातियों के वंशजों के बड़े हिस्से में अपने नाम के साथ सिंह लगाने की परम्परा है। अपने सिर पर मल-मूत्र ढोने वाले, जूते बनाने वाले कहीं सिंह होते हैं ? ये वस्तुतः सिंह ही हैं जिन्हें गीदड़ बनने पर विवश करने के लिये इस तरह अपमानित किया गया।
बाबा साहब अम्बेडकर ने भी अपने लेखों में लिखा है कि हम योद्धा जातियों के लोग हैं। यही कारण है कि 1921 की जनगणना के समय चमार जाति के नेताओं ने वायसराय को प्रतिवेदन दिया था कि हमें राजपूतों में गिना जाये। हम राजपूत हैं। अँगरेज़ अधिकारियों ने ही ये नहीं माना बल्कि हिन्दू समाज भी इस बात को काल के प्रवाह में भूल गया और स्वयं भी इस महान योद्धाओं की संतानों से वही घृणित दूरी रखने लगा जो आक्रमणकारी रखते थे। होना यह चाहिए था कि इनकी स्तुति करता, नमन करता, इनको गले लगता मगर शेष हिन्दू समाज स्वयं आक्रमणकारियों के वैचारिक फंदे में फंस गया।
भारत में विदेशी मूल के मुसलमान सैयद, पठान, तुर्क आज भी स्थानीय धर्मांतरितों को नीची निगाह से देखते हैं। स्वयं को अशराफ़ { शरीफ़ का बहुवचन } और उनको रज़ील, कमीन , कमज़ात, हक़ीर कहते हैं। रिश्ता-नाता तो बहुत दूर की बात है, ऐसी भनक भी लग जाये तो मार-काट हो जाती है मगर सामने इस्लामी एकता का ड्रामा किया जाता है। ये समाज अपने ही मज़हब के लोगों के लिए कैसी हीनभावना रखता है इसका अनुमान इन सामान्य व्यवहार होने वाली पंक्तियों से लगाया जा सकता है।
ग़लत को ते से लिख मारा जुलाहा फिर जुलाहा है
तरक़्क़ी ख़ाक अब उर्दू करेगी
जुलाहे शायरी करने लगे हैं
अपने मज़हब के लोगों के लिए घटिया सोच रखने वाला समूह इन दलित भाइयों का धर्मांतरण करने के लिये गिद्ध जैसी टकटकी बाँध कर नज़र गड़ाए हुए रहता है। वो हिंदू समाज के इन योद्धा-वर्ग के वंशजों को अब भी अपने पाले में लाना चाहता है। दलित समाज के राजनेताओं ने भी इस शिकंजे में फंस जाने को अपने हित का काम समझ लिया है। ऐसे राजनेता जिनका काम ही समाज के छोटे-छोटे खंड बाँट कर अपनी दुकान चलाना है, इस दूरी को बढ़ाने में लगे रहते हैं। जिस समाज के लोगों ने सब कुछ सहा मगर राम-कृष्ण, शंकर-पार्वती, भगवती दुर्गा को नहीं त्यागा अब उन्हीं के बीच के राजनैतिक लोग समाज के अपने हित के लिए टुकड़े-टुकड़े करने का प्रयास कर रहे हैं। लक्ष्य वही ग़ज़वा-ए-हिन्द है और तकनीक शेर के छोटे-छोटे हज़ार घाव देने की है। जिससे धीरे-धीरे ख़ून बहने से शेर की मौत हो जाये।
तुफ़ैल चतुर्वेदी

बुधवार, जुलाई 25, 2018

अत्याचार , आरक्षण और अल्पसंख्यक

Dr-Abhishek Pratap Singh Rathore
1 )महमूद ग़ज़नवी ---वर्ष 997 से 1030 तक 2000000 , बीस लाख सिर्फ बीस लाख लोगों को महमूद ग़ज़नवी ने तो क़त्ल किया था और 750000 सात लाख पचास हज़ार लोगों को गुलाम बना कर भारत से ले गया था 17 बार के आक्रमण के दौरान (997 -1030). ---- जिन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया , वे शूद्र बना कर इस्लाम में शामिल कर लिए गए। इनमे ब्राह्मण भी थे क्षत्रिय भी वैश्य भी और शूद्र भी थे ।
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2 ) दिल्ली सल्तनत --1206 से 1210 ---- कुतुबुद्दीन ऐबक --- सिर्फ 20000 गुलाम राजा भीम से लिए थे और 50000 गुलाम कालिंजर के राजा से लिए थे। जो नहीं माना उनकी बस्तियों की बस्तियां उजाड़ दीं। गुलामों की उस समय यह हालत हो गयी कि गरीब से गरीब मुसलमान के पास भी सैंकड़ों हिन्दू गुलाम हुआ करते थे ।
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3) इल्ल्तुत्मिश ---1236-- जो भी मिलता उसे गुलाम बना कर, उस पर इस्लाम थोप देता था।
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4) बलबन ----1250-60 --- ने एक राजाज्ञा निकल दी थी , 8 वर्ष से ऊपर का कोई भी आदमी मिले उसे मौत के घाट उत्तर दो। महिलाओं और लड़कियों वो गुलाम बना लिया करता था। उसने भी शहर के शहर खाली कर दिए।
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5) अलाउद्दीन ख़िलजी ---- 1296 -1316 -- अपने सोमनाथ की लूट के दौरान उसने कम उम्र की 20000 हज़ार लड़कियों को दासी बनाया, और अपने शासन में इतने लड़के और लड़कियों को गुलाम बनाया कि गिनती
कलम से लिखी नहीं जा सकती। उसने हज़ारों क़त्ल करे थे और उसके गुलमखाने में 50000 लड़के थे और 70000 गुलाम लगातार उसके लिए इमारतें बनाने का काम करते थे। इस समय का ज़िक्र आमिर खुसरो के लफ़्ज़ों में इस प्रकार है " तुर्क जहाँ चाहे से हिंदुओं को उठा लेते थे और जहाँचाहे बेच देते थे।.
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6) मोहम्मद तुगलक ---1325 -1351 ---इसके समय पर तने कैदी हो गए थे की हज़ारों की संख्या मेंरोज़ कौड़ियों के दाम पर बेचे जाते थे।
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7) फ़िरोज़ शाह तुगलक -- 1351 -1388 -- इसकेपास 180000 गुलाम थे जिसमे से 40000 इसके महल की सुरक्षा में लगे हुए थे। इसी समय "इब्न बतूता " लिखते हैं की क़त्ल करने और गुलाम बनाने की वज़ह से गांव के गांव खाली हो गए थे। गुलाम खरीदने और बेचने के लिए खुरासान ,गज़नी,कंधार,काबुल और समरकंद मुख्य मंडियां
हुआ करती थीं। वहां पर इस्तांबुल,इराक और चीन से से भी गुलाम ल कर बेचे जाते थे।
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8) तैमूर लंग --1398/99 --- इसने दिल्ली पर हमले के दौरान 100000 गुलामों को मौत के घाट उतरने के पश्चात ,2 से ढ़ाई लाख कारीगर गुलाम बना कर समरकंद और मध्य एशिया ले गया।
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9) सैय्यद वंश --1400-1451 -- हिन्दुओं के लिए कुछ नहीं बदला, इसने कटिहार ,मालवा और अलवर को लूटा और जो पकड़ में आया उसे या तो मार दिया या गुलाम बना लिया। .
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10) लोधी वंश-1451--1525 ---- इसके सुल्तान बहलूल ने नीमसार से हिन्दुओं का पूरी तरह से वंशनाश कर दिया और उसके बेटे सिकंदर लोधी ने यही हाल रीवां और ग्वालियर का किया।
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11 ) मुग़ल राज्य --1525 -1707 --- बाबर -- इतिहास में ,क़ुरान की कंठस्थ आयतों ,कत्लेआम और गुलाम बनाने के लिए ही जाना जाता है।
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12 ) अकबर ---1556 -1605 ---- बहुत महान थे यह अकबर महाशय , चित्तोड़ ने जब इनकी सत्ता मानाने से इंकार कर दिया तो इन्होने 30000 काश्तकारों और 8000 राजपूतों को या तो मार दिया या गुलाम बना लिया और, एक दिन भरी दोपहर में 2000 कैदियों का सर कलम किया था। कहते हैं की इन्होने गुलाम प्रथा रोकने की बहुत कोशिश की फिर भी इसके हरम में 5000 महिलाएं थीं। इनके समय में ज्यादातर लड़कों को खासतौर पर बंगाल की तरफ अपहरण किया जाता था और उन्हें हिजड़ा बना दिया जाता था। इनके मुख्य सेनापति अब्दुल्लाह खान उज़्बेग, की अगर मानी जाये तो उसने 500000 पुरुष और गुलाम बना कर मुसलमान बनाया था और उसके हिसाब से क़यामत के दिन तक वह लोग एक करोड़ हो जायेंगे।
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13 ) जहांगीर 1605 --1627 --- इन साहब के हिसाब से इनके और इनके बाप के शासन काल में 5 से 600000 मूर्तिपूजकों का कत्ल किया गया था औरसिर्फ 1619-20 में ही इसने 200000 हिन्दू गुलामों को ईरान में बेचा
था।
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14) शाहजहाँ 1628 --1658 ----इसके राज में इस्लाम बस ही कानून था, या तो मुसलमान बन जाओ या मौत के घाट उत्तर जाओ। आगरा में एक दिन इसने 4000 हिन्दुओं को मौत के घाट उतरा था। जवान लड़कियां इसके हरम भेज दी जाती थीं। इसके हरम में सिर्फ 8000 औरतें थी।
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15) औरंगज़ेब--1658-1707 -- इसके बारे में तो बस इतना ही कहा जा सकता है की ,जब तक सवा मन जनेऊ नहीं तुलवा लेता था पानी नहीं पीता था। बाकि काशी मथुरा और अयोध्या इसी की देन हैं। मथुरा के मंदिर
200 सालों में बने थे इसने अपने 50 साल के शासन में मिट्टी में मिला दिए। गोलकुंडा में 1659 सिर्फ 22000 लड़कों को हिजड़ा बनाया था।
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16)फर्रुख्सियार -- 1713 -1719 ,यही शख्स है जो नेहरू परिवार को कश्मीर से दिल्ली ले कर आया था, और गुरदासपुर में हजारों सिखों को मार और गुलाम बनाया था।
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17) नादिर शाह --1738 भारत आया सिर्फ 200000 लोगों को मौत के घाट उत्तर कर हज़ारों सुन्दर लड़कियों को और बेशुमार दौलत ले कर चला गया।
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18) अहमद शाह अब्दाली --- 1757-1760 -1761 ----पानीपत की लड़ाई में मराठों युद्ध के दौरान हज़ारों लोग मरे ,और एक बार में यह 22000 लोगों को गुलाम बना कर ले गया था।
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19) टीपू सुल्तान ---1750 - 1799 ---- त्रावणकोर के युद्ध में इसने 10,000 हिन्दू और ईसाईयों को मारा था एक मुस्लिम किताब के हिसाब से कुर्ग में रहने वाले 70,000 हिन्दुओं को इसने मुसलमान बनाया था। ऐसा नहीं कि हिंदुओं ने डटकर मुकाबला नहीं किया था, बहुत किया था, उसके बाद ही इस संख्या का निर्धारण इतिहासकारों ने किया जो कि उपरोक्त दी गई पुस्तकों एवं लिंक में दिया गया है ।
गुलाम हिन्दू चाहे मुसलमान बने या नहीं ,उन्हें नीचा दिखाने के लिए इनसे अस्तबलों का , हाथियों को रखने का, सिपाहियों के सेवक होने का और इज़्ज़त करने के लिए साफ सफाई करने के काम दिए जाते थे। जो गुलाम नहीं भी बने उच्च वर्ण के लोग वैसे ही सब कुछ लूटा कर, अपना धर्म न छोड़ने के फेर में जजिया और तमाम तरीके के कर चुकाते चुकाते समाज में वैसे ही नीचे की पायदान शूद्रता पर पहुँच गए। जो आतताइयों से जान बचा कर जंगलों में भाग गए जिन्दा रहने के उन्होंने मांसाहार खाना शुरू कर दिया और जैसी की प्रथा थी ,और अछूत घोषित हो गए।
Now come to the valid reason for Rigidity in Indian Caste System--------
वर्ष 497 AD से 1197 AD तक भारत में एक से बढ़ कर एक विश्व विद्यालय हुआ करते थे, जैसे तक्षिला, नालंदा, जगदाला, ओदन्तपुर। नालंदा विश्वविद्यालय में ही 10000 छात्र ,2000 शिक्षक तथा नौ मंज़िल का पुस्तकालय हुआ करता था, जहाँ विश्व के विभिन्न भागों से पड़ने के लिए विद्यार्थी आते थे। ये सारे के सारे मुग़ल आक्रमण कारियों ने ध्वस्त करके जला दिए। न सिर्फ इन विद्या और ज्ञान के मंदिरों को जलाया गया बल्कि पूजा पाठ पर सार्वजानिक और निजी रूप से भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इतना तो सबने पढ़ा है, लेकिन उसके बाद यह नहीं सोचा कि अपने धर्म को ज़िंदा रखने के लिए ज्ञान, धर्मशास्त्रों और संस्कारों को मुंह जुबानी पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया गया ।
सबसे पहला खतरा जो धर्म पर मंडराया था ,वो था मलेच्छों का हिन्दू धर्म में अतिक्रमण / प्रवेश रोकना। और जिसका जैसा वर्ण था वो उसी को बचाने लग गया। लड़कियां मुगलों के हरम में न जाएँ ,इसलिए लड़की का जन्म अभिशाप लगा ,छोटी उम्र में उनकी शादी इसलिए कर दी जाती थी की अब इसकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी इसका पति संभाले, मुसलमानों की गन्दी निगाह से बचने के लिए पर्दा प्रथा शुरू हो गयी। विवाहित महिलाएं पति के युद्ध में जाते ही दुशमनों के हाथों अपमानित होने से बचने के लिए जौहर करने लगीं ,विधवा स्त्रियों को मालूम था की पति के मरने के बाद उनकी इज़्ज़त बचाने कोई नहीं आएगा इसलिए सती होने लगीं, जिन हिन्दुओं को घर से बेघर कर दिया गया उन्हें भी पेट पालने के लिए ठगी लूटमार का पेशा अख्तिया करना पड़ा। कौन सी विकृति है जो मुसलमानों के अतिक्रमण से पहले इस देश में थी और उनके आने के बाद किसी देश में नहीं है।
हिन्दू धर्म में शूद्र कृत्यों वाले बहरूपिये आवरण ओढ़ कर इसे कुरूप न कर दें इसीलिए वर्णव्यवस्था कट्टर हुई , इसलिए कोई अतिशियोक्ति नहीं कि इस पूरी प्रक्रिया में धर्म रूढ़िवादी हो गया या वर्तमान परिभाषा के हिसाब से उसमे विकृतियाँ आ गयी। मजबूरी थी वर्णों का कछुए की तरह खोल में सिकुड़ना। यहीं से वर्ण व्यवस्था का लचीलापन जो की धर्मसम्मत था ख़त्म हो गया। इसके लिए आज अपने को शूद्र कहने वाले ब्राह्मणो या क्षत्रियों को दोष देकर अपने नए मित्रों को ज़िम्मेदार कभी नहीं हराते हैं .
वैसे जब आप लोग डा. सविता माई(आंबेडकर जी की ब्राह्मण पत्नी) के संस्कारों को ज़बरदस्ती छुपा सकते हैं,जब आप लोग अपने पूर्वजो के बलिदान को याद नहीं रख सकते हैं जिनकी वजह से आप आज भी हिन्दू हैं तो आप आज उन्मुक्त कण्ठ से ब्राह्मणो और क्षत्रिओं को गाली भी दे सकते हैं,जिनके पूर्वजों ने न जाने इस धर्म को ज़िंदा रखने के लिए क्या क्या कष्ट सहे वर्ना आज आप भी अफगानिस्तान , सीरिया और इराक जैसे दिन भोग रहे होते। और आज जिस वर्णव्यवस्था में हम विभाजित हैं उसका श्रेय 1881 एवं 1902 की अंग्रेजों द्वारा कराई गयी जनगणना है जिसमें उन्होंने demographic segmentation को सरल बनाने के लिए हिंदु समाज को इन चार वर्णों में चिपका दिया। वैसे भील, गोंड, सन्थाल और सभी आदिवासियों के पिछड़ेपन के लिए क्या वर्णव्यवस्था जिम्मेदार है?????
कौन ज़िम्मेदार है इस पूरे प्रकरण के लिए अनजाने या भूलवश धर्म में विकृतियाँ लाने वाले पंडित या उन्हें मजबूर करने वाले मुसलमान आक्रांता ?? या आपसे सच्चाई छुपाने वाले इतिहास के लेखक ??
कोई भी ज़िम्मेदार हो पर हिन्दू भाइयो अब तो आपस में लड़ना छोड़ कर भविष्य की तरफ एक सकारात्मक कदम उठाओ। . अगर आज हिन्दू एक होते तो आज कश्मीर घाटी में गिनती के 2984 हिन्दू न बचते और 4.50 लाख कश्मीरी हिंदू 25 साल से अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह न रह रहे होते और 16 दिसंबर के निर्भया काण्ड ,मेरठ काण्ड ,हापुड़ काण्ड …………गिनती बेशुमार है, इस देश में न होते। वैसे सबसे मजे की बात यह है कि जिनके पूर्वजों ने ये सब अत्याचार किए, 800 साल तक राज किया, वो तो पाक साफ हो कर अल्पसंख्यकों के नाम पर आरक्षण भी पा गये और कटघरे में खड़े हैं, कौन?. जवाब आपके पास है

मंगलवार, जुलाई 24, 2018

जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं।

मनुस्मृति, मनुवाद के बारे में फैली तमाम भ्रांतियों को दूर करने के लिये इस लेख को अवश्य पढ़ें.....
जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं।
वर्तमान दौर में ‘मनुवाद’ शब्द को नकारात्मक अर्थों में लिया जा रहा है। ब्राह्मणवाद को भी मनुवाद के ही पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है। वास्तविकता में तो मनुवाद की रट लगाने वाले लोग मनु अथवा मनुस्मृति के बारे में जानते ही नहीं है या फिर अपने निहित स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग अलापते रहते हैं। दरअसल, जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराया जाता है, उसमें जातिवाद का उल्लेख तक नहीं है ।
क्या है ? मनुवाद :
जब हम बार-बार मनुवाद शब्द सुनते हैं तो हमारे मन में भी सवाल कौंधता है कि आखिर यह मनुवाद है क्या ?
महर्षि मनु मानव संविधान के प्रथम प्रवक्ता और आदि शासक माने जाते हैं। मनु की संतान होने के कारण ही मनुष्यों को मानव या मनुष्य कहा जाता है।
अर्थात मनु की संतान ही मनुष्य है। सृष्टि के सभी प्राणियों में एकमात्र मनुष्य ही है जिसे विचारशक्ति प्राप्त है। मनु ने मनुस्मृति में समाज संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उसे ही सकारात्मक अर्थों में मनुवाद कहा जा सकता है।
मनुस्मृति :
समाज के संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उन सबका संग्रह मनुस्मृति में है। अर्थात मनुस्मृति मानव समाज का प्रथम संविधान है, न्याय व्यवस्था का शास्त्र है। यह वेदों के अनुकूल है। वेद की कानून व्यवस्था अथवा न्याय व्यवस्था को कर्तव्य व्यवस्था भी कहा गया है। उसी के आधार पर मनु ने सरल भाषा में मनुस्मृति का निर्माण किया। वैदिक दर्शन में संविधान या कानून का नाम ही धर्मशास्त्र है।
महर्षि मनु कहते है-
जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। यदि वर्तमान संदर्भ में कहें तो जो कानून की रक्षा करता है कानून उसकी रक्षा करता है। कानून सबके लिए अनिवार्य तथा समान होता है।
मनु ने भी कर्तव्य पालन पर सर्वाधिक बल दिया है। उसी कर्तव्यशास्त्र का नाम मानव धर्मशास्त्र या मनुस्मृति है। आजकल अधिकारों की बात ज्यादा की जाती है, कर्तव्यों की बात कोई नहीं करता। इसीलिए समाज में विसंगतियां देखने को मिलती हैं।
मनुस्मृति के आधार पर ही आगे चलकर महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी धर्मशास्त्र का निर्माण किया जिसे याज्ञवल्क्य स्मृति के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी काल में भी भारत की कानून व्यवस्था का मूल आधार मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति रहा है। कानून के विद्यार्थी इसे भली-भांति जानते हैं। राजस्थान हाईकोर्ट में मनु की प्रतिमा भी स्थापित है।
मनुस्मृति में दलित विरोध :
मनुस्मृति न तो दलित विरोधी है और न ही ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देती है। यह सिर्फ मानवता की बात करती है और मानवीय कर्तव्यों की बात करती है।
मनु किसी को दलित नहीं मानते।
दलित संबंधी व्यवस्थाएं तो अंग्रेजों और आधुनिकवादियों की देन हैं। दलित शब्द प्राचीन संस्कृति में है ही नहीं। चार वर्ण जाति न होकर मनुष्य की चार श्रेणियां हैं, जो पूरी तरह उसकी योग्यता पर आधारित है।
प्रथम ब्राह्मण, द्वितीय क्षत्रिय, तृतीय वैश्य और चतुर्थ शूद्र।
वर्तमान संदर्भ में भी यदि हम देखें तो शासन-प्रशासन को संचालन के लिए लोगों को चार श्रेणियों- प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणी में बांटा गया है। मनु की व्यवस्था के अनुसार हम प्रथम श्रेणी को ब्राह्मण, द्वितीय को क्षत्रिय, तृतीय को वैश्य और चतुर्थ को शूद्र की श्रेणी में रख सकते हैं।
जन्म के आधार पर फिर उसकी जाति कोई भी हो सकती है। मनुस्मृति एक ही मनुष्य जाति को मानती है। उस मनुष्य जाति के दो भेद हैं। वे हैं पुरुष और स्त्री।
मनु की व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण की संतान यदि अयोग्य है तो वह अपनी योग्यता के अनुसार चतुर्थ श्रेणी या शूद्र बन जाती है।
ऐसे ही चतुर्थ श्रेणी अथवा शूद्र की संतान योग्यता के आधार पर प्रथम श्रेणी अथवा ब्राह्मण बन सकती है।
प्राचीन समाज में ऐसे कई उदाहरण है, जब व्यक्ति शूद्र से ब्राह्मण बना। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुरु वशिष्ठ महाशूद्र चांडाल की संतान थे, लेकिन अपनी योग्यता के बल पर वे ब्रह्मर्षि बने।
एक मछुआ (निषाद) मां की संतान व्यास महर्षि व्यास बने। आज भी कथा-भागवत शुरू होने से पहले व्यास पीठ पूजन की परंपरा है।
विश्वामित्र अपनी योग्यता से क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बने। ऐसे और भी कई उदाहरण हमारे ग्रंथों में मौजूद हैं, जिनसे इन आरोपों का स्वत: ही खंडन होता है कि मनु दलित विरोधी थे।
ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहु राजन्य कृत:।
उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्मयां शूद्रो अजायत। (ऋग्वेद)
अर्थात ब्राह्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा पांवों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। दरअसल, कुछ अंग्रेजों या अन्य लोगों के गलत भाष्य के कारण शूद्रों को पैरों से उत्पन्न बताने के कारण निकृष्ट मान लिया गया,
जबकि हकीकत में पांव श्रम का प्रतीक हैं। ब्रह्मा के मुख से पैदा होने से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति या समूह से है जिसका कार्य बुद्धि से संबंधित है अर्थात अध्ययन और अध्यापन। आज के बुद्धिजीवी वर्ग को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं।
भुजा से उत्पन्न क्षत्रिय वर्ण अर्थात आज का रक्षक वर्ग या सुरक्षाबलों में कार्यरत व्यक्ति।
उदर से पैदा हुआ वैश्य अर्थात उत्पादक या व्यापारी वर्ग। अंत में चरणों से उत्पन्न शूद्र वर्ग।
यहां यह देखने और समझने की जरूरत है कि पांवों से उत्पन्न होने के कारण इस वर्ग को अपवित्र या निकृष्ट बताने की साजिश की गई है, जबकि मनु के अनुसार यह ऐसा वर्ग है जो न तो बुद्धि का उपयोग कर सकता है, न ही उसके शरीर में पर्याप्त बल है और व्यापार कर्म करने में भी वह सक्षम नहीं है। ऐसे में वह सेवा कार्य अथवा श्रमिक के रूप में कार्य कर समाज में अपने योगदान दे सकता है। आज का श्रमिक वर्ग अथवा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी मनु की व्यवस्था के अनुसार शूद्र ही है। चाहे वह फिर किसी भी जाति या वर्ण का क्यों न हो।
वर्ण विभाजन को शरीर के अंगों को माध्यम से समझाने का उद्देश्य उसकी उपयोगिता या महत्व बताना है न कि किसी एक को श्रेष्ठ अथवा दूसरे को निकृष्ट। क्योंकि शरीर का हर अंग एक दूसरे पर आश्रित है। पैरों को शरीर से अलग कर क्या एक स्वस्थ शरीर की कल्पना की जा सकती है ? इसी तरह चतुर्वण के बिना स्वस्थ समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
ब्राह्मणवाद की हकीकत :
ब्राह्मणवाद मनु की देन नहीं है। इसके लिए कुछ निहित स्वार्थी तत्व ही जिम्मेदार हैं। प्राचीन काल में भी ऐसे लोग रहे होंगे जिन्होंने अपनी अयोग्य संतानों को अपने जैसा बनाए रखने अथवा उन्हें आगे बढ़ाने के लिए लिए अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल किया होगा।
मनु तो सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य करते हैं। बिना पढ़े लिखे को विवाह का अधिकार भी नहीं देते, जबकि वर्तमान में आजादी के 70 साल बाद भी देश का एक वर्ग आज भी अनपढ़ है।
मनुस्मृति को नहीं समझ पाने का सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों ने उसके शब्दश: भाष्य किए। जिससे अर्थ का अनर्थ हुआ। पाश्चात्य लोगों और वामपंथियों ने धर्मग्रंथों को लेकर लोगों में भ्रांतियां भी फैलाईं। इसीलिए मनुवाद या ब्राह्मणवाद का हल्ला ज्यादा मचा।
अंग्रेज जानते थे भारतीय सँस्कृति को खत्म करना है, तो मनु स्मृति खत्म करो । किसी देश को खत्म करना है तो उसका संविधान खत्म कर दो । अतः भारतीय सँस्कृति को खत्म करने हेतु अंग्रेजो ने मनु स्मृति दूषित कर खत्म कर दी।
मनुस्मृति या भारतीय धर्मग्रंथों को मौलिक रूप में और उसके सही भाव को समझकर पढ़ना चाहिए। विद्वानों को भी सही और मौलिक बातों को सामने लाना चाहिए। तभी लोगों की धारणा बदलेगी।
दाराशिकोह उपनिषद पढ़कर भारतीय धर्मग्रंथों का भक्त बन गया था। इतिहास में उसका नाम उदार बादशाह के नाम से दर्ज है। फ्रेंच विद्वान जैकालियट ने अपनी पुस्तक ‘बाइबिल इन इंडिया’ में भारतीय ज्ञान विज्ञान की खुलकर प्रशंसा की है।
पंडित और पुजारी तो ब्राह्मण ही बनेगा, लेकिन उसका जन्मगत ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है। यहां ब्राह्मण से मतलब विद्वान व्यक्ति से है न कि जातिगत।
Dr-Abhishek Pratap Singh Rathore
आज भी सेना में धर्मगुरु पद के लीए जातिगत रूप से ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है बल्कि योग्य होना आवश्यक है।
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। (10/65)
महर्षि मनु कहते हैं कि कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं। विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं।

सोमवार, जुलाई 23, 2018

मॉब लिंचिंग की जड़ें ईसाइयत, इस्लाम और कम्युनिज़्म में हैं, हिन्दू तो बस 'मियाँ की जूती मियाँ के सर' मार रहे हैं!

मॉब लिंचिंग की जड़ें ईसाइयत, इस्लाम और कम्युनिज़्म में हैं, हिन्दू तो बस 'मियाँ की जूती मियाँ के सर' मार रहे हैं!

कम्युनिज़्म और इस्लाम के प्रसार का आधार ही मॉब लिंचिंग है। इसके पहले ईसाइयत का भी यही हाल था। बाइबिल में 3 दर्जन से ज़्यादा बार लिंचिंग का उल्लेख है। काफ़िरों/मुशरीक़ों को प्रताड़ित या उनकी हत्या करने का क़ुरआन में 24 बार उल्लेख है जबकि भारत की किसी भाषा में मॉब लिंचिंग का कोई मौलिक समानार्थी शब्द नहीं है। याद है अरब की प्रेम-कहानी पर बनी फ़िल्म लैला-मजनू का वो गाना:
हुस्न हाज़िर है मुहब्बत की सज़ा पाने को
कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को...
इसे कहते है मॉब लिंचिंग!
करोड़ों की मॉब लिंचिंग करने- कराने वाले मोहम्मद को पैग़म्बर माननेवाले मुसलमानों तथा लेनिन, स्टालिन और माओ जैसों को नायक माननेवाले कम्युनिस्टों को मॉब लिंचिंग के विरोध का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।
1000 सालों से मॉब लिंचिंग के शिकार हिंदुओं का धैर्य जवाब दे रहा है क्योंकि सोशल मीडिया उन्हें उनके साथ हुए अन्याय की पुख़्ता जानकारी दे रहा है। उन्हें यह भी पता चल रहा है कि देश सत्ता संस्थान (नौकरशाही, विधायिका, न्यायपालिका, मीडिया, स्कूल-कॉलेज- विश्वविद्यालय) आज भी हिंदुओं की सैकड़ों सालों से चली आ रही मॉब लिंचिंग पर या तो पर्दा डालता रहा है या फिर हिंदुओं को ही इसके लिए जिम्मेदार ठहरा देता है।
बहुमत हिन्दू अब इस साज़िश को समझ रहा है और आत्मरक्षार्थ प्रतिहिंसा का सहारा ले रहा है। इसे क़ानून से तो नहीं ही रोका जा सकता, हाँ समाजसम्मत और न्यायसम्मत व्यवस्था से जरूर रोका जा सकता है। इसलिए मामला गाय बनाम इंसान का नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से चली आ रही मॉब लिंचिंग पर चुप्पी बनाम ईंट का जवाब पत्थर से देने का है।
टीवी-अख़बार के दबदबे के कारण हिन्दू 'गगनभेदी चुप्पी के मकड़जाल' में फँसकर रह जाता था। आज वह क्रूर सत्य से लैश है, इसलिए मॉब लिंचिंग का विशेषज्ञ इवांजेलिस्ट-जेह
ादी-कम्युनिस्ट गिरोह खुद को पीड़ित घोषित करने का नाटक कर रहा है।
सवाल है कि:
●राम मंदिर की मॉब लिंचिंग हुई थी या नहीं?
●ऐसे ही देश के 40000 देवस्थानों की मॉब लिंचिंग किसने और किस किताब के आधार पर की थी?
●भारत का बँटवारा क्या बिना मॉब लिंचिंग के हुआ था?
●कश्मीर घाटी के अल्पसंख्यक का जातिनाश क्या बिना मॉब लिंचिंग के हुआ था?
●पंजाब में हिंदुओं और दिल्ली में सिखों की मॉब लिंचिंग नहीं हुई थी क्या? कौन लोग थे इसके पीछे?
●गोधरा में औरतों और बच्चों की मॉब लिंचिंग किसने की थी?
●जिस दिन अलवर में गौ-तस्कर की कथित मॉब लिंचिंग हुई उसी दिन बाड़मेर में मुस्लिम लड़की से प्रेम करने के कारण एक हिन्दू लड़के की मॉब लिंचिंग हुई या नहीं? फिर इस पर खबर को क्यों दबाया गया?
●ऐसी ही एक घटना के शिकार दिल्ली के लड़के के पिता से इफ़्तार पार्टी दिलवानेवाले कौन लोग थे?
●दिल्ली के ही डॉ नारंग की मॉब लिंचिंग पर सत्ता संस्थान क्यों चुप था?
●लाखों मामलों पर बैठनेवाली अदालत रात में एक आतंकवादी के लिए खुलती है या फिर आतंकवादियों की समर्थक पार्टी की सरकार बनवाने के लिए खुलती है। यह न्याय और नीति की मॉब लिंचिंग है या नहीं?
● नियमों को टाक पर रखकर एक सरकार 2008 से 2014 के बीच में 36 लाख करोड़ के लोन बाँट देती है, यह जनहित की मॉब लिंचिंग है या नहीं?
लब्बोलुआब यह है कि सैकड़ों सालों से अल्पमत द्वारा मॉब लिंचिंग के शिकार बहुमत ने खुद को नरम चारा के रूप में पेश करने से न सिर्फ मना कर दिया है बल्कि 'मियाँ की जूती मियाँ के सर' मारना शुरू कर दिया है जिसका ईलाज अब्राह्मिक-साम्यवादी गिरोहों द्वारा स्थापित क़ानून का शासन नहीं बल्कि ऐसे संविधान का निर्माण और उसपर अमल है जो समाजसम्मत हो, नीतिसम्मत हो, न्यायसम्मत हो और विधिसम्मत हो। सत्ता संस्थान ने इसे समझने में भूल की तो इसकी रही-सही विश्वसनीयता भी जाती रहेगी और जनता क़ानून अपने हाथ में लेकर 'फटाफट न्याय' करने लगेगी।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

रविवार, जुलाई 22, 2018

भाजपा पूर्ण बहुमत से आयी तो मंदिर बनेगा।

भाजपा पूर्ण बहुमत से आयी तो मंदिर बनेगा।
मुझे नहीं लगता इसमें कोई खुश होने वाली बात है, क्योंकि यदि मंदिर बन भी गया तो २०-३० साल बाद तोड़ दिया जाएगा ।
मुसलमान संख्या उत्तर प्रदेश समेत देश के भिन्न इलाको में ४०-५० प्रतिशत टच होते ही, आपकी उलटी गिनती शुरू हो जाएगी। ।
जब आप और आपका समझदार हिन्दू मित्र, 'फैमिली प्लानिंग' करके बढ़िया जीवन शैली के वास्ते मात्र १ बच्चे पे रुकता है, तब आपका पढ़ा लिखा मुस्लिम मित्र, पंचर बनने वाला अब्दुल और फल बेचने वाला बशीर ३ बच्चो तक तो जाता ही है।
*यदि आप सरकार या भाजपा से कुछ माँगना ही चाहते है तो जनसंख्या पर नियंत्रण क़ानून की मांग करे, क्योंकि इसमें न तो कुछ कम्यूनल है और घटते संसाधनों के मद्देनज़र जनसँख्या संतुलन की मांग दरअसल 'नेचर और मदर अर्थ' के प्रति हमारी ज़िम्मेदारी भी हे*
४०-५० प्रतिशत का ब्रैकेट क्रॉस करते ही डेमोक्रेसी जाएगी चूल्हे भाड़ में और मुस्लिम शासन की नज़ीर तैयार होगी। मस्जिदों के लाउड स्पीकर से ऐलान होगा की, सभी हिंदू परिवार आज परेड करें । वहाँ नए शरिया क़ानून बताए जाएँगे । हिंदू औरतें भी बुरका पहने इस्लाम क़बूल करेंगी । घरों के नीचे काला और हरा झंडा लिए 'अल्लाह हो अकबर' का घोष करती हुई जिप्सियां निकल रही होंगी।
५०००-१०००० वर्षो पुरानी हिन्दू सभ्यता जो आज तक टिकी रही अपनी जनसँख्या भरोसे, वो अपने अंतिम पड़ाव में है, बस खत्म होने को ही अगले २०-३० साल।
*पहले देश, फिर शेष*

गुरुवार, जुलाई 19, 2018

जो जितना अधिक पाप करेगा उसको उतनी बड़ी पदवी मिलती है, पाप ही मिशन हैं।

Murari Sharan Shukla
फादर का अर्थ है कुँवारी मरियम से लावारिस बच्चा (जीसस) पैदा करने वाला लंपट, धूर्त और शातिर अपराधी: पाप की संतान का मूल रहस्य यही है :पाप का धंधा ही है मिशन।
चर्च और मिशनरीज वाले फादर उसको ही कहते हैं जो कुँवारी लड़कियों से लावारिस बच्चा पैदा करके ईसाईयत को आगे बढ़ा सके। ईसाईयत अनाथ और लावारिस अवैध बच्चों से ही आगे बढ़ता है। जैसे जोसेफ ने वर्जिन (कुँवारी) मरियम को अपने जाल में फँसाया, उसको प्रैग्नेंट किया, एक लावारिस बच्चा पैदा हुआ जिसने नया मत शुरू किया, उसने ओल्ड टेस्टामेंट की ऐसी तैसी कर दी और न्यू टेस्टामेंट तैयार करके क्रुसेड शुरू कर दिया। इस उपलब्धि के लिए वह बालक नया मैसेंजर (पैगम्बर) हो गया। उसकी माँ आदर्श बन गयी। यह पैरामीटर तय हो गया कि कुँवारी लड़कियों का बच्चा ही ईसाईयत की असली पहचान हो गई। और कुँवारी लड़की से बच्चा पैदा करने वाला जोसेफ फादर हो गया। आज कुँवारी लड़कियों से बच्चा पैदा करने वाला हरेक क्रॉसधारी व्यक्ति इसी परम्परा के अनुसार फादर कहलाता है।
ईसाईयत कुँवारी लड़कियों से बच्चा पैदा करने में इसीलिये पूरी दुनियाँ में लगा हुआ है। अनाथ और लावारिस बच्चों के शेल्टर होम इसीलिये ईसाईयत संचालित करता है। कुँवारी प्रेग्नेंट लड़कियों को इसलिए मिशनरीज वाले आसानी से रहने, पलने और बच्चा पैदा करने का स्थान देते हैं। और जैसे ही मौका लग जाता है लावारिस बच्चो को बेंच कर कुछ पैसा बना लेते हैं जिससे चर्च का खर्च चल जाए। उनका स्पष्ट मत है जितनी लावारिस बच्चों की सँख्या बढ़ेगी उतनी सोसल विक्टिमाइजेशन थिओरी को बल मिलेगा और ईसाईयत तेज गति से बढ़ेगा। इसीलिये बच्चों का चाहे जो करो लेकिन इन लावारिस बच्चों की सँख्या दिनरात बढ़ना चाहिए। इस लक्ष्य पर ही चर्च अपना पूरा पैसा खर्च करता है।
जो लड़कियाँ कुँवारी अवस्था में बच्चे पैदा कर लेती हैं वो चर्च के लिए जीवन भर एक ब्लैकमेल मैटीरियल बन जाती हैं। उनके सहारे नई लड़कियाँ फंसा लो तो लावारिस बच्चा पैदा करने का स्कोप बढ़ जाता है, यह गोरखधंधा बढ़ता चला जाता है। फिर इन लड़कियों के इन कुकर्मों पर पर्दा डला रहे इस गरज में वो मिशनरीज की शर्तों को मानने को विवश हो जाती हैं। उनमें से अनेक तो कन्वर्ट होकर ईसाई बन जाती हैं। उनमें से अनेक ईसाई न बनकर भी मिशनरीज का काम करती रहती हैं परोक्ष रूप से। वो हिन्दू समाज में उनके लिए एम्बेसडर बन जाती हैं। लड़कियों की उस मजबूरी का पूरा लाभ लेता है ईसाईयत, चर्च, मिशनरीज। मजबूर की सहायता नहीं उसका शोषण चर्च की मूल कार्यपद्धति है।
वर्जिन मरियम के कंसेंट में पवित्रता नहीं है। वर्जिन (लड़की) से संतान पैदा करने से व्यक्ति पाप की संतान हो जाता है यह बात बाईबिल स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है। इसीलिये सारे क्रिश्चियन अपने आप को पाप की संतान कहते हैं। और इस पाप से बचने का मार्ग क्या है? तो जीसस को फॉलो करो। फ़ादरहुड को फॉलो करो। वर्जिन मदरहुड को फॉलो करो। अर्थात फिर से पाप करो। और पाप करो। और पाप करो। पाप में आकंठ धँसते चले जाओ। पापो का भंडार खड़ा करो। और फिर कन्फेस करके सबको बताओ कि मैंने इतना पाप किया। अर्थात पापों का प्रचार करो। इसी पाप से पापा शब्द बना है। इसी पाप शब्द से पॉप शब्द बना है।
जो जितना अधिक पाप करेगा उसको उतनी बड़ी पदवी मिलती है। मदर टेरेसा के पाप बहुत बड़े हो गए तो उसको सेंट की उपाधी मिल गई। इंगनेसियस लोयला ने भारत में 40 हजार हिंदुओं को ईसाई बनने से मना करने पर अठारहवीं सदी में जिंदा जला दिया तो उसको सेंट की उपाधी मिल गई। सेंट जेवियर ने इंगनेसियस का उसके कुकर्मों में साथ दिया तो उसको भी सेंट की उपाधि मिल गई। मरियम नाम की कुँवारी लड़की से जीसस पैदा करने वाला जोसेफ भी सेंट बन गया। और फादरहुड का हॉली ट्रेडिशन आरम्भ हुआ।
पाप की संतानों ने दुनियाँ को पापमय बनाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखा। उन्होंने कुँवारी लड़कियों को प्रैग्नेंट करने का खेल पूरी दुनियाँ भर में चलाया। चर्च ने शुरू से ही लड़कियों को अपने प्रभाव से इस मार्ग पर डालने का धंधा आरम्भ किया। और इसीलिए दुनियाँ में वेश्यावृति के इतिहास की पड़ताल करेंगे तो संगठित रूप में वेश्यावृति का धंधा चर्च ही चलाता रहा है। और आज भी पोर्न साइट्स का धंधा शत प्रतिशत चर्च के हाथ में ही है। चर्च अपने प्रभाव का उपयोग करके अनेकानेक देशों में यह धंधा खुलकर चलाता है। वर्जिन मरियम और लावारिस जीसस पैदा करने में यह धंधा सहायक है इसीलिए यह चर्च का एक प्रमुख प्रोजेक्ट है। और चर्च अपने सेक्स स्कैंडल में फंसे फादर्स को बचाने के लिए बेल आउट पैकेज भी रिलीज करता है। जिससे उनको बचाया जा सके।
जहाँ बुरी तरह फंस जाते हैं चर्च के फादर्स अपने कुकर्मों के कारण और बचने का कोई मार्ग शेष नहीं बचता वहाँ वहाँ मुआवजा भी चुकाता है चर्च। चर्च का मूल खर्च यही है।कई स्थानों पर चर्च अपनी संपत्ति बेचकर भी मुआवजा चुकाता है। चैरिटी के माध्यम से एकत्र पैसे भी मुआवजा चुकाता है चर्च। चर्च के फादरहुड का रहस्य समझिये फिर आगे की कहानी बताता रहूँगा क्रमशः।
~मुरारी शरण शुक्ल।

मंगलवार, जुलाई 17, 2018

गन्दी सोच खोटी नियत...

गन्दी सोच खोटी नियत...
महिला दिवस के नाम पर, मोहल्ले मे महिला सभा का आयोजन किया गया था।...सभा स्थल पर महिलाओं की संख्या अधिक और पुरुषों की कम थी.....
मंच पर तरकीबन पच्चीस वर्षीय खुबसूरत युवती, आधुनिक वस्त्रों से सज्जित.... जो आवरण कम दे रहे थे और नुमाया ज्यादा कर रहे थे बदन को।.... माइक थामे कोस रही थी, पुरुष समाज को।....
वही पुराना आलाप.... कम और छोटे कपड़ो को जायज, और कुछ भी पहनने की स्वतंत्रता का बचाव करते हुए... पुरुषों की गन्दी सोच और खोटी नियत का दोष बतला रही थी।....
तभी अचानक सभा स्थल से..... तीस बत्तीस वर्षीय सभ्य, शालिन और आकर्षक से दिखते नवयुवक ने खड़े होकर अपने विचार व्यक्त करने की अनुमति मांगी। ......
स्वीकार कर अनुरोध माइक उसके हाथों मे सौप गयी.... हाथो मे आते ही माइक बोलना उसने शुरू किया....माताओं बहनो और भाइयो आप मुझको नही जानते की मै कैसा इंसान हूं.... लेकिन पहनावे और शक्ल सूरत से मै आपको कैसा लगता हू बदमाश या फिर शरीफ ....?
सभास्थल से आवाजे गूंज उठी... शरीफ लग रहे हो... शरीफ लग रहे हो... शरीफ लग रहे हो....
ये सुनकर... अचानक ही उसने अजीबोगरीब हरकत कर डाली ... सारे कपड़े सिर्फ हाफ पैंट टाइप की अंडरवियर छोड़ मंच पर ही उतार दिये....
देख कर ये रवैया उसका.... पूरा सभा स्थल गूंज उठा आक्रोश के शोर से.... मारो मारो गुंडा है, बदमाश है, बेशर्म है, शर्म नाम की चीज नही है इसमे.... मां बहन का लिहाज नही है इसको नीच इंसान है ये छोड़ना मत इसको....
सुनकर ये आक्रोशित शोर.... अचानक वो माइक पर गरज उठा... रुको... पहले मेरी बात सुन लो... फिर मार भी लेना चाहे तो जिंदा जला भी देना मुझको...
अभी अभी तो.... ये बहन कम कपड़े, तंग और बदन नुमाया छोटे छोटे कपड़ो के साथ साथ स्वतंत्रता की दुहाई देकर गुहार लगाकर .... नियत और सोच मे खोट बतला रही थी....तब तो आप सभी तालियाँ बजाकर सहमति जतला रहे थे।....
फिर मैने क्या किया है.... सिर्फ कपड़ो की स्वतंत्रता ही तो दिखलायी है।... नियत और सोच की खोट तो नही..... और फिर मैने तो, आप लोगो को,... मां बहन और भाई कहकर ही संबोधित क्या था।... फिर मेरे अर्द्ध नग्न होते ही.... आप मे से किसी को भी मुझमे भाई और बेटा क्यो नही नजर आया।.... सिर्फ मर्द ही आपको क्यो नजर आया... आप मे से तो किसी की सोच और नियत खोटी नही थी फिर ऐसा क्यो.....?
सच तो ये है की..... झूठ बोलते है लोग की वेशभूषा और पहनावे से कोई फर्क नही पड़ता।.. हकीकत तो यही है मानवीय स्वभाव की.... की किसी को सरेआम बिना आवरण के देखे ले तो घिन्न सी जागती है मन मे और.... सम्पूर्ण आवरण से उत्सुकता तथा.... अर्द्ध नग्नता से उतेजना......ऐसे ही ये लोग तो निकल जाती है.... अर्द्ध नग्न होकर वहशियों की वहशत को जगाकर.... और शिकार हो जाती है उनकी वहशत की... कमजोर औरतें और मासूम बच्चियां...
समाज में सोच बदलने की आवश्यकता है जब तक हम अपने घरों में सुधार नही लाएंगे तब तक दरिंदे अपने घिनोने कृत्य करते रहेंगे हम को अपने बच्चों में सुधार करने की जरूरत है ।

सोमवार, जुलाई 16, 2018

ईसाईयों से प्रश्न। उत्तर देने की औकात है तो साहस करो।

ईसाईयों से प्रश्न। उत्तर देने की औकात है तो साहस करो।
1.बाईबिल में लिखा है कि पहले दिन गॉड ने पानी बनाया, दूसरे दिन हवा बनाया, तीसरे दिन धरती बनाया और चौथे दिन सूरज बनाया। इससे दो सवाल निकलते हैं।
क) जब सूरज चौथे दिन बना तो बिना सूरज के तेरे गॉड ने तीन दिनों की गिनती कैसे किया? बिना सूरज दिनरात तो हो नहीं सकता।
ख)जब तीसरे दिन पृथ्वी बनी तो जल और हवा बिना धरती के किस गुरुत्वाकर्षण के अधीन सुरक्षित रहे? और अंतरिक्ष में समा नहीं गए?
2.धरती किस पर टिकी है यह स्टीफेन हॉकिंग ने चर्च के पादरी से पूछा। तो पादरी ने उत्तर दिया कछुए की पीठ पर। कछुआ किस पर टिका है? तो दूसरे कछुए की पीठ पर। दूसरा कछुआ किस पर टिका है तो तीसरे कछुए की पीठ पर? वह कछुआ किस पर टिका है? तो चौथे कछूए की पीठ पर। चौथा कछुआ किस पर टिका है? तो पाँचवे कछूए की पीठ पर। आगे छठे कछूए की बात पूछते ही चर्च वालों ने हमला कर दिया उनपर। बहुत मुश्किल से जान बचाकर भागा वह विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक।
3.ईसाईयत का गॉड सर्वशक्तिमान (omnipotent) नहीं है। क्योंकि वह सन ऑफ डेविल से डरता है। और सन ऑफ डेविल से नफरत भी करता है। उसका अधिकार सन ऑफ डेविल पर नहीं चलता है। इसलिए वह सर्वव्यापक (omnipresent) भी नही है। अतः ईसाईयत गॉड के लाईट की बात करता है। जैसे अंधेरे का जनरेटर हो उनका गॉड।
4.गॉड से कोई ईसाई सीधा नहीं मिल सकता है। वह फादर मदर के माध्यम से ही गॉड को जान सकता है। और उनके फादर का जन्नत है कुँवारी लड़कियां जो वरजिन मरियम बनकर लावारिस जीसस पैदा कर सकें।
5.डे ऑफ जजमेंट जब आएगा तब गॉड सबको कब्र से जिंदा करेगा। और सबका फैसला करेगा कि कौन हेवेन में जायेगा और कौन हेल में जायेगा। फिर सवाल उठता है कि जो जीसस के जीते जी 2018 बर्ष पहले ईसाई बन गया होगा और तभी मर गया होगा उसको तो जजमेन्ट के लिए 2018 वर्ष की प्रतीक्षा करनी पड़ गयी यदि आज ही डे ऑफ जजमेंट आ गया तो। और जो आज ही मरा होगा उसका जजमेंट तो तुरंत मरते के साथ ही मिल गया। यह तो बड़ा अन्याय है। जस्टिस डीलेड इज जस्टिस डीनाएड। इसका मतलब उनके गॉड को न्याय करने की अकल नहीं है। ऐसे बेवकूफ गॉड से क्या उम्मीद करें कि वह हमें जीवन मरण से मुक्ति दिला देगा।
6.गॉड उसका ही जजमेंट करेगा जिसका डेड बॉडी का ढाँचा कब्र में पड़ा रहेगा तबतक। यदि किसी का ढाँचा जला दिया जाएगा या जिंदा जला दिया गया और पूरा शरीर गाड़ा नहीं गया है तो गॉड उसका जजमेंट नहीं करेगा। इसका अर्थ उनके गॉड को मनुष्य को बनाने की औकात नहीं है। मनुष्य को कोई और बनाता है जो इनके गॉड का बाप होगा निश्चित रूप से।
7.गॉड ने सबसे पहले एडम को बनाया। (Adam was the first created man specifically named in Scripture, Genesis 1:26-31 – 2:1-25) और उसे जंगल में छोड़ दिया अकेले मरने को। एक दिन एडम सोया हुआ था। उसको अकेला देखकर गॉड को दया आई। और उसने एडम की एक पसली खींची और एक औरत बना दिया। उसका नाम रखा इव। (Eve the first woman specifically named in Scripture, Genesis 2:18-25) गॉड ने कहा एडम को उसके मनोरंजन के लिए एक औरत की जरूरत है। अब कई प्रश्न उठते हैं-
क)एक पसली की हड्डी से किस विज्ञान की तकनीक के सहारे औरत बनाई जा सकती है? क्या कोई ऐसा सफल एक्सपेरिमेंट संभव हुआ है आज तक?
ख)एडम को अकेला सोया देखकर गॉड को दया आयी। इसका अर्थ उनका गॉड दयालु भी नहीं है। और क्रूर कसाई है। दूसरा वह विजनरी भी नहीं है। उसको यह बात एडम को बनाते समय ही क्यों नहीं समझ में आई?
ग)औरत का निर्माण एडम के मनोरंजन के लिए हुआ है। अर्थात औरत मनुष्य नहीं है। वह मर्द के खेलने और मनोरंजन के लिए बनी है। यह बाइबल का कथन है। यह तो नारी जाति का तिरस्कार और अपमान है।
क्रमशः...........................
~मुरारी शरण शुक्ल।

रविवार, जुलाई 15, 2018

18_साल_बाद_चर्च_का_गंदा_खेल_फिर_से_शुरू

# 18_साल_बाद_चर्च_का_गंदा_खेल_फिर_से_शुरू
॰ देश में जब-जब राष्ट्रवादीयों की सरकार गठित होती है तब-तब चर्च का गंदा खेल शुरू हो जाता है।यह चर्च का पुराना प्रयोग है जिसे समझने के लिए लगभग दो दशक पुरानी वाजपेयी सरकार के दौरान इनके गंदा खेल को पहले समझना होगा।चर्च को देश में राष्ट्रवादी सरकारों से दिक्कत इसलिए होने लगती है कि धर्मान्तरण का खेल पुरी आजादी के साथ खेल नहीं पातें। इसलिए जब-जब देश में देशभक्तों की सरकार गठित होती है तो तब-तब इसका खेल शुरू हो जाता है।वाजपेयी सरकार को बदनाम करने के लिए भी इसने अनेक गंदा खेल खेला था।
॰ बात 21 मई 2000 की है आन्ध्र के मछलीपाटनम शहर में ईसाईयो के एक धार्मिक सभा स्थल के पास एक देशी बम फटा था।हलाँकी इस बम विस्फोट में ना कोई घायल हुआ और न ही किसी सम्पति का नुकसान हुआ था ।एक सप्ताह बाद चर्च अधिकारीयो की सुचना मिलने पर पूलिस को मेडक और विकाराबाद की चर्चो में दो बम और मिले थे।ठिक 10-15 दिनो के बाद 8 जून को ओन्गोले की ज्वेट चर्च में और पोल्लगुण्डन की मदर वानिनी चर्च में सुबह के समय बम विस्फोट हुआ था ठिक उसी समय गोवा में वास्कोडिकामा की सैंट एन्न चर्च में दो बम विस्फोट हुआ था।सभी विस्फोट कम तीव्रता के थे|आपको यह जानकर हैरानी होगी की सभी चर्चो में विस्फोट तभी हुए जब कोई आदमी चर्च में उपस्थित नही था। समझने के लिए इशारा काफी है।
॰ तब देश के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई थें और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू थें। चर्च ने वाजपेयी सरकार को बदनाम कर गिराने के उपदेश्य से इन हमलों के लेकर देश से लेकर विदेश तक खुब प्रचार किया था।
॰ तब चर्च के कुत्सित साजिश को दो उदाहरण से समझीए। मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू जब चर्च को निरिक्षण करने गये थें तब वहां मौजूद ईसाई पादरियों ने उनसे यह नहीं कहा था कि-चर्च पर हुए हमलों को उच्चस्तरीय जांच किया जाए।बल्कि ईसाई संगठनों और पादरियों द्वारा एक सुर में यह मांग -"तेलगुदेशम पार्टी केंद्र की वाजपेयी सरकार से अविलंब समर्थन वापसी का घोषणा करें।यदि तेलगुदेशम पार्टी वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस नहीं लेगी तो हम अगले विधानसभा चुनाव में उनके विरूद्ध लोगों से वोट करने की अपील करेंगे।"
॰ चंद्रबाबू नायडू सुनकर हतप्रभ रह गयें किसी तरह कन्नी काटकर वहां से आएं और हैदराबाद आते ही जांच के लिए एक कमेटी गठित कर दी।... जब जांच शुरू हो गई तो मछलीपट्टनम के चर्च पर हमलें के आईएसआई साजिश के पुख्ता अनेक सबुत मिला।जिसे जांच एजेंसीयों ने प्रेस कांफ्रेंस कर इसे सार्वजनिक किया।
॰ तब 10 जून 2000 को ईसाई संगठनों ने दक्षीण भारत के ईसाई प्रतिनिधि मंडलों के हैदराबाद में एक मिटींग बुलाई गई।तब प्रेस कांफ्रेंस कर ईसाई प्रतिनिधि मंडल द्वारा यह कहा गया कि-" चर्च पर हमलें में आईएसआई का थोडा सा भी हाथ नहीं है बल्कि इसके जिम्मेवार वाजपेयी सरकार और हिन्दू संगठन हैं।"
॰ प्रेस कांफ्रेंस के बाद ईसाई प्रतिनिधि मंडल चंद्रबाबू नायडू से मिलने जा पहुंचा और एक बार फिर से उनसे इन लोगों ने कहा कि आप तुरंत ही वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस लिजीए।
॰ चंद्रबाबू नायडू से वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस लेने की अपील करने वाले लोगों का नाम --मांग करने वाले प्रतिनिधी में थे- ऑल इंडिया क्रिश्चियन काउन्सील के चेयरमैन मि जौसेफ डिसुजा ,ऑल इंडिया क्रिश्चियन कैथोलिक युनियन के नेशनल सैक्रेटरी मि जौन दयाल ,फैलोशिप ऑफ तेलगु बैप्टिस्ट चर्चेज के प्रेसीडेंट मि.जी. सैमुअल ,कर्नाटक क्रिश्चीयन ऐसोसियन के प्रेसीडेंट मि. डैविड सीमांडस तथा क्रिश्चीयन काउन्सील ऑफ केरल के वाइस प्रेसीडेंट मि के.पी योहान।
॰ दूसरे दिन 11 जून 2000 को फिर से ईसाईयो का तीस सदस्यीय प्रतिनीधि मंडल जिसमें फादर हैंड्री डिसुजा ,फादर बी जुलियन ,हैदराबाद कैथोलिक चान्सलर तथा
वाइस चान्सलर , बैपिस्ट चर्च के मि. ए विजयकुमार ,ऑल इंडिया कैथोलिक के मि. सी फ्रान्सिस , वाई थामस ,फादर जी गनानन्दम, औगोले , विकाराबाद और टाडे पल्ली गुण्डम के पुजारीगण CM चंद्राबाबु से मिलें और फिर से वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस लो की अपनी मांग दुहरा दी।तब इनसे अजिज आकर चंद्रबाबू नायडू ने दो हम वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस नहीं लेने वाले। हां यदि आपको जांच कमिटी की रिपोर्ट सही नहीं लग रहा है तो मैं फिर से कमेटी गठित कर दुंगा।
॰ चंद्रबाबू नायडू से निराश होन हाईस्कुल के मैदान में एक रैली बुलाई गयी जिसमें भाजपा छोड़कर सभी विपक्षी नेताओं को बुलाया गया।वाजपेयी सरकार को बदनाम करने की दिल्ली से हैदराबाद तक अनेकों धरना-प्रदर्शन किया गया।सभी धरना-प्रदर्शन में इनकी एक मांग होती थी की सहयोगी दल वाजपेई सरकार समर्थन वापस ले।
॰ छः महीने बाद जांच की रिपोर्ट आई जिसमें पुख्ता सबूत के साथ मछलीपट्टनम के चर्च में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का हाथ पाया गया तो अन्य चर्चो में नक्सलवादी (माक्र्सिट ) वार ग्रुप के सदस्य की संलिप्ता की पुख्ता सबुत मिली ।पकड़े गये अनेक सदस्यो में ईसाई और चर्च से भी संबधीत थे ।रहस्य से पर्दा उठ चुका था और ईसाई संगठन बुरी तरह से एक्सपोज हो चुका था।
॰ अब 18 साल बाद एक बार फिर से देश में जब राष्ट्रवादीयों की सरकार गठित है तो मोदी को बदनाम करने के लिए दिल्ली में चर्च हमला का वही पुराना खेल शुरू हुआ था अब जब चुनाव मुहाने पर है तो ईसाई संगठनों का वही गंदा खेल फिर से शुरू हो गया जो वाजपेयी सरकार के समय खेला गया था।तब भी शुरुआत गोवा से हुई थी अब भी गोवा से ही पहले शुरू हुआ है फिर दिल्ली उसके बाद गुजरात और अब शायद फिर से दक्षीण भारत की ओर भी यह आवाज आएगी।
साभार:
Sanjeet Singh

शनिवार, जुलाई 14, 2018

जानिए पुत्री को अपने पिता का गोत्र, क्यों नही प्राप्त होता?


Devendra Kumar Sharma
*जानिए पुत्री को अपने पिता का गोत्र, क्यों नही प्राप्त होता?-*
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से
हम आप सब जानते हैं कि स्त्री में गुणसूत्र xx और पुरुष में xy गुणसूत्र होते हैं ।
इनकी सन्तति में माना कि पुत्र हुआ (xy गुणसूत्र) अर्थात इस पुत्र में y गुणसूत्र पिता से ही आया यह तो निश्चित ही है क्योंकि माता में तो y गुणसूत्र होता ही नही है !
और यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र) यानी यह गुण सूत्र पुत्री में माता व् पिता दोनों से आते हैं ।
*१. xx गुणसूत्र*
xx गुणसूत्र अर्थात पुत्री , अस्तु xx गुणसूत्र के जोड़े में एक x गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा x गुणसूत्र माता से आता है । तथा इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है जिसे Crossover कहा जाता है ।
*२. xy गुणसूत्र*
xy गुणसूत्र अर्थात पुत्र , यानी पुत्र में y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्योंकि माता में y गुणसूत्र है ही नही । और दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारन पूर्ण Crossover नही होता केवल ५ % तक ही होता है । और ९५ % y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही रहता है ।
तो महत्त्वपूर्ण y गुणसूत्र हुआ । क्योंकि y गुणसूत्र के विषय में हमें निश्चित है कि यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है ।
बस इसी y गुणसूत्र का पता लगाना ही गोत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो हजारों / लाखों वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था ।
*वैदिक गोत्र प्रणाली और y गुणसूत्र
अब तक हम यह समझ चुके है कि वैदिक गोत्र प्रणाली y गुणसूत्र पर आधारित है अथवा y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है ।
उदहारण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है तो उस व्यक्ति में विद्यमान y गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस y गुणसूत्र के मूल हैं ।
चूँकि y गुणसूत्र स्त्रियों में नही होता यही कारण है कि विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है ।
वैदिक / हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष व स्त्री भाई बहन कहलाएंगे क्योंकि उनका प्रथम पूर्वज एक ही है ।
परन्तु ये थोड़ी अजीब बात नही कि जिन स्त्री व पुरुष ने एक दुसरे को कभी देखा तक नही और दोनों अलग अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे , तो वे भाई बहन हो गये ?
इसका मुख्य कारण एक ही गोत्र होने के कारण गुणसूत्रों में समानता का भी है । आज के आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनकी सन्तति आनुवंशिक विकारों के साथ उत्पन्न होगी ।
ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा , पसंद , व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता । ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है । विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगोत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात मानसिक विकलांगता , अपंगता , गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं । शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगोत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था ।
इस गोत्र का संवहन यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित न कर सके , इसलिये विवाह से पहले कन्यादान कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उस कन्या को स्थान देता है , यही कारण था कि उस समय विधवा विवाह भी स्वीकार्य नहीं था , क्योंकि , कुल गोत्र प्रदान करने वाला पति तो मृत्यु को प्राप्त कर चुका है ।
इसीलिये , कुंडली मिलान के समय वैधव्य पर खास ध्यान दिया जाता और मांगलिक कन्या होने पर ज्यादा सावधानी बरती जाती है ।
*आत्मज या आत्मजा का सन्धिविच्छेद तो कीजिये ।*
*आत्म + ज अथवा आत्म + जा*
*आत्म = मैं , ज या जा = जन्मा या जन्मी , यानी मैं ही जन्मा या जन्मी हूँ ।*
*यदि पुत्र है तो 95% पिता और 5% माता का सम्मिलन है । यदि पुत्री है तो 50% पिता और 50% माता का सम्मिलन है । फिर यदि पुत्री की पुत्री हुई तो वह डीएनए 50% का 50% रह जायेगा , फिर यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का 50% डीएनए रह जायेगा , इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में यह प्रतिशत घटकर 1% रह जायेगा ।*
*अर्थात , एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः पुनः जन्म लेता रहता है , और यही है सात जन्मों का साथ ।*
लेकिन ,
*जब पुत्र होता है तो पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों को अनुवांशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5% ( जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक % से कम भी हो सकता है ) डीएनए ग्रहण करता है , और यही क्रम अनवरत चलता रहता है , जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं , अर्थात यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है ।*
*इसीलिये , अपने ही अंश को पित्तर जन्म जन्मान्तरों तक आशीर्वाद देते रहते हैं और हम भी अमूर्त रूप से उनके प्रति श्रध्येय भाव रखते हुए आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं , और यही सोच हमें जन्मों तक स्वार्थी होने से बचाती है , और सन्तानों की उन्नति के लिये समर्पित होने का सम्बल देती है ।*
एक बात और , माता पिता यदि कन्यादान करते हैं , तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं , बल्कि इस दान का विधान इस निमित किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिये और उस कुल की कुलधात्री बनने के लिये , उसे गोत्र मुक्त होना चाहिये । डीएनए मुक्त तो हो नहीं सकती क्योंकि भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही , इसलिये मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है , गोत्र यानी पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है । तभी वह भावी वर को यह वचन दे पाती है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानी उसके गोत्र और डीएनए को दूषित नहीं होने देगी , वर्णसंकर नहीं करेगी , क्योंकि कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिये रज का रजदान करती है और मातृत्व को प्राप्त करती है । यही कारण है कि प्रत्येक विवाहित स्त्री माता समान पूज्यनीय हो जाती है ।
यह रजदान भी कन्यादान की ही तरह कोटि यज्ञों के समतुल्य उत्तम दान माना गया है जो एक पत्नी द्वारा पति को दान किया जाता है ।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अलावा यह संस्कारगत शुचिता किसी अन्य सभ्यता में दृश्य ही नहीं है।