डरी हुई भ्रष्ट सरकार
प्रीतीश नंदी
अन्ना हजारे को भूल जाएं. मेरे तईं जन लोकपाल आंदोलन भी भाड़ में जाये. हम केवल उन मुद्दों पर नज़र डालें, जिन पर सरकार और हम आम नागरिकों के बीच लड़ाई लड़ी जा रही है. उसके बाद हम सभी यह तय करें कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर हम कहां खड़े होना चाहते हैं.
दूसरी लड़ाई चार सवालों पर है.
पहला: क्या प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में आना चाहिए? मैं जितने भी लोगों को जानता हूं, उनमें से लगभग सभी का यह मत है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में आना चाहिए. एक ईमानदार प्रधानमंत्री किसी भी जांच-पड़ताल का सामना करने की फिक्र नहीं करेगा. उसे लोकपाल से कोई दिक्कत नहीं होगी. लेकिन एक बेईमान प्रधानमंत्री पर नजर रखना जरूरी है. नहीं तो बोफोर्स जैसे मामले होंगे, जिन्हें कभी सुलझाया नहीं जा सकेगा.
दूसरा: क्या संसद में सांसदों का आचरण लोकपाल के दायरे में होना चाहिए? मैं आज तक एक भी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिला, जो यह सोचता हो कि हमारे सांसद इतने ईमानदार और निष्ठावान हैं कि उन पर नजर रखने की कोई जरूरत नहीं है. मेरा अनुमान है कि अगर कोई जनमत संग्रह कराया जाता है तो अन्ना को इस सवाल पर सौ फीसदी जवाब ‘हां’ में मिलेंगे. देश के आम जनमानस में हमारे राजनेताओं की जो छवि है और सार्वजनिक जीवन में नैतिकता व निष्ठा के जो मानक हैं, उन्हें देखकर तो खैर यही लगता है.
तीसरा सवाल तो और जाहिर है: क्या सभी लोकसेवक लोकपाल के तहत होने चाहिए? मेरा अनुमान है इस सवाल पर देश का जवाब होगा: हां, हां, क्यों नहीं. हर दिन, जीवन के हर क्षेत्र में, हमें भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों के कारण परेशानियां झेलनी पड़ती हैं. आप जितने गरीब हैं, उतने ही अधिक प्रताड़ना के शिकार होंगे. तो हां, हर लोकसेवक, हर सरकारी अधिकारी और कर्मचारी लोकपाल के दायरे में आना चाहिए.
चौथा: किसी भ्रष्ट न्यायाधीश के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करने की अनुमति किसे होनी चाहिए? मेरा मानना है यदि लोकपाल प्रधानमंत्री, सांसदों और लोकसेवकों के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच कर सकता है तो यह भी तर्कपूर्ण और उचित ही होगा कि वह न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार के मामलों की भी जांच करे.
तीसरी और अंतिम लड़ाई एक सीधी-सरल-सी बात पर है: द सिटीजंस चार्टर. क्या हर सरकारी दफ्तर में ऐसा एक चार्टर नहीं होना चाहिए, जो यह निर्धारित करे कि कौन-सा अधिकारी, कितने समय में, कौन-सा कार्य करेगा? और यदि कोई सरकारी अधिकारी समय पर काम करने से इनकार कर दे या फाइल आगे बढ़ाने के लिए घूस मांगे तो क्या उसे सजा नहीं दी जानी चाहिए?
सरकार कहती है कि चार्टर अपनी जगह पर ठीक है, लेकिन यदि कोई सरकारी कर्मचारी काम नहीं करता है तो उसे दंडित नहीं किया जाना चाहिए! अन्ना हजारे कहते हैं कि अधिकारियों द्वारा समयसीमा में काम नहीं करने से भ्रष्टाचार को बल मिलता है, लिहाजा इसके लिए दंड की व्यवस्था होनी चाहिए. क्या यह भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि इस बिंदु पर देश की राय क्या होगी?
क्या हमें वाकई इन बुनियादी और आसान सवालों पर जनमत संग्रह की जरूरत है? मुझे नहीं लगता. भारत का हर व्यक्ति लोकपाल के विचार का समर्थन करेगा, जिसकी कल्पना अन्ना और उनकी टीम ने की है. इसमें वे हजारों भारतीय उनके सहायक सिद्ध होंगे, जिन्होंने मसौदा निर्माण की प्रक्रिया में ऑनलाइन योगदान दिया है. हां, सभी को इस बात का डर जरूर है कि कहीं हम एक और ऐसी विशाल संस्था का गठन न कर दें, जो हमारी पहले से ही मुश्किल जिंदगी को और मुश्किल बना दे. लेकिन अन्ना की टीम ने इस मसले का दक्षतापूर्वक समाधान दिया है. यकीनन, मसौदा निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है, किंतु इससे यह भी सुनिश्चित होता है कि सभी विकल्पों पर चतुराईपूर्वक विचार किया गया है. और यदि लोकपाल पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो? इसके लिए भी एक प्रावधान है. सीधे सर्वोच्च अदालत जाएं और न्याय की मांग करें.
तो आखिर हम लोकपाल पर इतनी बहस और जिरह क्यों कर रहे हैं? सरकार क्यों खूंटा गाड़कर खड़ी है? वह नागरिकों की बात क्यों नहीं सुनना चाहती? अन्ना हजारे को एक बार फिर अनशन करने के लिए क्यों मजबूर होना चाहिए? यह सरकार का अहंकार है, लेकिन वह भयभीत भी है. कोई भी व्यक्ति अपनी ताकतें और अपने अधिकार छोड़ना नहीं चाहता और सरकार तो बिल्कुल भी नहीं.
वास्तव में सरकार हमेशा हमारे जीवन में अधिक से अधिक हस्तक्षेप करना चाहती है, वह हम पर अधिक से अधिक आधिपत्य जमाना चाहती है. और भय? मुझे लगता है, इस सवाल का जवाब हम सभी जानते हैं. संभवत: यह हमारी अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार है. भ्रष्ट सरकार का डरा हुआ होना स्वाभाविक ही है.
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