शनिवार, मार्च 24, 2012

खत्म होता असम Part - 2 : बलबीर पुंज


खत्म होता असम Part - 2 : बलबीर पुंज
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अमरनाथ प्रकरण को लेकर कश्मीर घाटी में अलगाववादियों ने जिस तरह विरोध प्रदर्शन किया उसकी एक झलक अब असम के मुस्लिम बहुल इलाके-उदलगिरी, दरांग और रीता गांव में दिख रही है। पाकिस्तानी झंडा लहराते हुए घाटी के अलगाववादियों ने यदि भारत विरोधी नारे लगाए थे तो असम के उदलगिरी जिले के सोनारीपाड़ा और बाखलपुरा गांवों में बोडो आदिवासियों के घरों को जलाने के बाद बांग्लादेशी मुसलमानों द्वारा पाकिस्तानी झंडे लहराए गए। इससे पूर्व कोकराझार जिले के भंडारचारा गांव में अलगाववादियों ने स्वतंत्रता दिवस के दिन तिरंगे की जगह काला झंडा लहराने की कोशिश की थी, जिसे स्थानीय राष्ट्रभक्त ग्रामीणों ने नाकाम कर दिया था।
असम के 27 जिलों में से आठ में बांग्लाभाषी मुसलमान बहुसंख्यक बन चुके है। बहुसंख्यक होते ही उनका भारत विरोधी नजरिया क्या रेखांकित करता है? भारत द्वेष का ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन कश्मीर घाटी का एक कड़वा सच बन चुका है और इसे भारत विभाजन से जोड़कर न्यायोचित ठहराने की कोशिश भी होती रही है, किंतु भारत के वैसे इलाके जहां धीरे-धीरे मुसलमान बहुसंख्यक की स्थिति में आ रहे हैं, वहां भी ऐसी मानसिकता दिखाई देती है। क्यों? मैं कई बार अपने पूर्व लेखों में इस कटु सत्य को रेखांकित करता रहा हूं कि भारत में जहां कहीं भी मुसलमान अल्पसंख्यक स्थिति में हैं वे लोकतंत्र, संविधान और भारतीय दंड विधान के मुखर पैरोकार के रूप में सामने आते है, किंतु जैसे ही वे बहुसंख्या में आते है, उनका रवैया बदल जाता है और मजहब के प्रति उनकी निष्ठा अन्य निष्ठाओं से ऊपर हो जाती है। विडंबना यह है कि भारत की बहुलतावादी संस्कृति को नष्ट करने पर आमादा ऐसी मानसिकता का पोषण सेकुलरवाद के नाम पर किया जा रहा है।
असम में बोडो आदिवासियों और बांग्लादेशी मुसलमानों के बीच हिंसा चरम पर है। अब तक बोडो आदिवासियों के 500 घरों को जलाने की घटना सामने आई है। करीब सौ लोगों के मारे जाने की खबर है, जबकि एक लाख बोडो आदिवासी शरणार्थी शिविरों में रहने को विवश है। सेकुलरिस्ट इसे बोडो आदिवासी और स्थानीय मुसलमानों के बीच संघर्ष साबित करने की कोशिश कर रहे है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी सच को सामने लाने से कतरा रहा है। आल असम स्टूडेट्स यूनियन के सलाहकार रागुज्ज्वल भट्टाचार्य के अनुसार प्रशासन पूर्वाग्रहग्रस्त है। बांग्लादेशी अवैध घुसपैठियों को संरक्षण दिया जा रहा है, वहीं बोडो आदिवासियों को हिंसा फैलाने के नाम पर प्रताड़ित किया जा रहा है। इससे पूर्व गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने भी विगत जुलाई माह में यह कड़वी टिप्पणी की थी, ''बांग्लादेशी इस राज्य में 'किंगमेकर' की भूमिका में आ गए है।'' यह एक कटु सत्य है कि और इसके कारण न केवल असम के जनसांख्यिक स्वरूप में तेजी से बदलाव आया है, बल्कि देश के कई अन्य भागों में भी बांग्लादेशी अवैध घुसपैठिए कानून एवं व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा बने हुए है। हुजी जैसे आतंकी संगठनों की गतिविधियां इन्हीं बांग्लादेशी घुसपैठियों की मदद से चलने की खुफिया जानकारी होने के बावजूद कुछ सेकुलर दल बांग्लादेशियों को भारतीय नागरिकता देने की मांग कर रहे है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में प्रभावी मंत्री रामविलास पासवान इस मुहिम के कप्तान है।
अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को संरक्षण देना और उनके वोट बैंक का दोहन नई बात नहीं है। असम में पूर्वी बंगाली मुसलमानों की घुसपैठ 1937 से शुरू हुई। इस षड्यंत्र का उद्देश्य जनसंख्या के स्वरूप को मुस्लिम बहुल बनाकर इस क्षेत्र को पाकिस्तान का भाग बनाना था। पश्चिम बंगाल से चलते हुए उत्तर प्रदेश, बिहार और असम के सीमावर्ती क्षेत्रों में इन अवैध घुसपैठियों के कारण एक स्पष्ट भू-पट्टी विकसित हो गई है, जो मुस्लिम बहुल है। 1901 से 2001 के बीच असम में मुसलमानों का अनुपात 15.03 प्रतिशत से बढ़कर 30.92 प्रतिशत हुआ है। इस दशक में असम के बंगाईगांव, धुबरी, कोकराझार, बरपेटा और कछार के इलाकों में मुसलमानों की आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है और यह तीव्रता से बढ़ रही है। असम सेकुलरिस्टों की कुत्सित नीति का एक और दंश झेल रहा है। यहां छल-फरेब के बल पर चर्च बड़े पैमाने पर मतांतरण गतिविधियों में संलग्न है। यहां ईसाइयों का अनुपात स्वतंत्रता के बाद करीब दोगुना हुआ है। कोकराझार, गोआलपारा, दरंग, सोनिपतपुर में ईसाइयों का अनुपात अप्रत्याशित रूप से बढ़ा है। कार्बी आंग्लांग के पहाड़ी जनपदों में ईसाइयों का अनुपात करीब 15 प्रतिशत है, जबकि उत्तर कछार जनपद में वे 26.68 प्रतिशत हैं।
असम की कुल आबादी में 1991 से 2001 की अवधि में ईसाइयों की आबादी 0.41 से बढ़कर 3.70 प्रतिशत हुई है। उड़ीसा और कर्नाटक में चर्च की दशकों पुरानी मतांतरण गतिविधियों से त्रस्त आदिवासियों का क्रोध ईसाई संगठनों पर फूट रहा है, जिसके लिए सेकुलरिस्ट बजरंग दल और विहिप को कसूरवार बताकर उन पर पाबंदी लगाने की मांग कर रहे है। भविष्य में यदि असम के आदिवासियों का आक्रोश भी उबल पड़े तो इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी? अवैध घुसपैठियों की पहचान के लिए 1979 में असम में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ। इसी कारण 1983 के चुनावों का बहिष्कार भी किया गया, क्योंकि बिना पहचान के लाखों बांग्लादेशी मतदाता सूची में दर्ज कर लिए गए थे। चुनाव बहिष्कार के कारण केवल 10 प्रतिशत मतदान ही दर्ज हो सका। शुचिता की नसीहत देने वाली कांग्रेस पार्टी ने इसे ही पूर्ण जनादेश माना और सरकार का गठन कर लिया गया। 10 प्रतिशत मतदान करने वाले इन्हीं अवैध घुसपैठियों के संरक्षण के लिए कांग्रेस सरकार ने जो कानून बनाया वह असम के बहुलतावादी स्वरूप के लिए नासूर बन चुका है। कांग्रेस ने 1983 में अवैध आव्रजन अधिनियम के अधीन बांग्लादेशी घुसपैठियों को बसने का अवसर उपलब्ध कराया था। हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को निरस्त कर अवैध बांग्लादेशियों को राज्य से निकाल बाहर करने का आदेश भी पारित किया, किंतु वर्तमान कांग्रेसी सरकार भी पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकारों के अनुरूप पिछवाड़े से इस कानून को लागू रखने पर आमादा है।

========Must Watch Report by Sh. Mayank Jain ========
# http://youtu.be/9FeKuE5TsFM
# http://youtu.be/Gk3YU_Ll9Fk=

क्या एक हिन्दू होने के नाते जवानो का खून नहीं खौलता , जब उनकी आँखों के सामने गौ माता को कत्ल के लिए ले जाया जाए

क्या एक हिन्दू होने के नाते जवानो का खून नहीं खौलता , जब उनकी आँखों के सामने गौ माता को कत्ल के लिए ले जाया जाए
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आपको शायद याद होगा 2001 मे बांग्लादेश राइफल ने हमारे 16 जवानो के सिर काट कर उन्हे भारतीय सीमा मे फेंक दिया था

"इस पर हमारी विदेशी शासक श्रीमती सोनिया गांधी ने कहा था की जिस बर्बरता से जवानों की हत्याएँ की गई और जैसा अमानवीय व्यवहार किया गया उससे पूरा इंडिया स्तब्ध है। लेकिन इसका असर भारत-बांग्लादेश संबंधों पर पड़ सकता है"

अब जरा आज की इस खबर की और देखे भारतीय जवानों ने एक बंगलादेशी को भारतीय सीमा से गाय ले जाते हुए पकड़ लिया और पीट पीट कर मार दिया तो इस पर हमारे मुर्दे "गांधी वादी सिद्धान्त" जाग गए है अब देखना हमारी मीडिया कैसा हाय तौबा मचाती है
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सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के 8 जवानों पर एक वीडियो के सामने आने के बाद गाज गिरी है। इस वीडियो में इन जवानों को गायों की तस्करी करने वाले एक बांग्लादेशी नागरिक को नंगा कर पीटते हुए दिखाया गया है। खबरों के मुताबिक बेरहमी से हुई पिटाई के बाद तस्कर की मौत हो गई। मौत के बाद बीएसएफ के जवानों ने उसे बांग्लादेश की सीमा में फेंक दिया। यह घटना पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के बेहरामपुर के बांग्लादेश से लगी कहरापारा सीमा पर हुई। वीडियो के सामने आने के बाद सीमा सुरक्षा बल ने आरोपी जवानों की पहचान कर उन्हें निलंबित कर दिया है।

वीडियो में बीएसएफ के जवानों को शेख के हाथ बांस के साथ बांधकर मोड़ते और बेंत से पीटते हुए दिखाया गया है। वीडियो में आवाज़ भी सुनाई देती है, जिसमें कोई शख्स तस्कर को पीटते जवानों से कहता है कि घुटने पर मारो। यह वीडियो तब सामने आया जब बीएसएफ जवान ने अपने सेलफोन में रिकॉर्डिंग करने के बाद एक दुकान पर रिंगटोन डाउनलोड करवाने गया। दुकानदार ने इस दौरान तस्कर पर किए गए अत्याचार का वीडियो मोबाइल फोन में देख लिया। इसके बाद दुकानदार उसे कॉपी कर लिया और उसकी सीडी पत्रकारों और मानवाधिकार संगठनों को सौंप दी। गायों का तस्कर बांग्लादेश के नवाबगंज का सलीम शेख है, जिसे तस्करी करते हुए पद्मा नदी पर चार मुरुशी द्वीप से गिरफ्तार किया गया।

=== क्या एक हिन्दू होने के नाते जवानो का खून नहीं खौलता , जब उनकी आँखों के सामने गौ माता को कत्ल के लिए ले जाया जाए ? ====


विडियो http://youtu.be/ebwfiRZLc7Y
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क्या सच में "आजादी बिना खड़क बिना ढाल" के मिली ? पुनर्विचार


क्या सच में "आजादी बिना खड़क बिना ढाल" के मिली ? ....
कृपया निम्न तथ्यों को बहुत ही ध्यान से तथा मनन करते हुए पढ़िये:-
1. 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन को ब्रिटिश सरकार कुछ ही हफ्तों में कुचल कर रख देती है।
2. 1945 में ब्रिटेन विश्वयुद्ध में ‘विजयी’ देश के रुप में उभरता है।
3. ब्रिटेन न केवल इम्फाल-कोहिमा सीमा पर आजाद हिन्द फौज को पराजित करता है, बल्कि जापानी सेना को बर्मा से भी निकाल बाहर करता है
4. इतना ही नहीं, ब्रिटेन और भी आगे बढ़कर सिंगापुर तक को वापस अपने कब्जे में लेता है।
5. जाहिर है, इतना खून-पसीना ब्रिटेन ‘भारत को आजाद करने’ के लिए तो नहीं ही बहा रहा है। अर्थात् उसका भारत से लेकर सिंगापुर तक अभी जमे रहने का इरादा है।
6. फिर 1945 से 1946 के बीच ऐसा कौन-सा चमत्कार होता है कि ब्रिटेन हड़बड़ी में भारत छोड़ने का निर्णय ले लेता है?
हमारे शिक्षण संस्थानों में आधुनिक भारत का जो इतिहास पढ़ाया जाता है, उसके पन्नों में सम्भवतः इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा। हम अपनी ओर से भी इसका उत्तर जानने की कोशिश नहीं करते- क्योंकि हम बचपन से ही सुनते आये हैं- दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल। इससे आगे हम और कुछ जानना नहीं चाहते।
(प्रसंगवश- 1922 में असहयोग आन्दोलन को जारी रखने पर जो आजादी मिलती, उसका पूरा श्रेय गाँधीजी को जाता। मगर “चौरी-चौरा” में ‘हिंसा’ होते ही उन्होंने अपना ‘अहिंसात्मक’ आन्दोलन वापस ले लिया, जबकि उस वक्त अँग्रेज घुटने टेकने ही वाले थे! दरअसल गाँधीजी ‘सिद्धान्त’ व ‘व्यवहार’ में अन्तर नहीं रखने वाले महापुरूष हैं, इसलिए उन्होंने यह फैसला लिया। हालाँकि एक दूसरा रास्ता भी था- कि गाँधीजी ‘स्वयं अपने आप को’ इस आन्दोलन से अलग करते हुए इसकी कमान किसी और को सौंप देते। मगर यहाँ ‘अहिंसा का सिद्धान्त’ भारी पड़ जाता है- ‘देश की आजादी’ पर।)
यहाँ हम 1945-46 के घटनाक्रमों पर एक निगाह डालेंगे और उस ‘चमत्कार’ का पता लगायेंगे, जिसके कारण और भी सैकड़ों वर्षों तक भारत में जमे रहने की ईच्छा रखने वाले अँग्रेजों को जल्दीबाजी में फैसला बदलकर भारत से जाना पड़ा।
(प्रसंगवश- जरा अँग्रेजों द्वारा भारत में किये गये ‘निर्माणों’ पर नजर डालें- दिल्ली के ‘संसद भवन’ से लेकर अण्डमान के ‘सेल्यूलर जेल’ तक- हर निर्माण 500 से 1000 वर्षों तक कायम रहने एवं इस्तेमाल में लाये जाने के काबिल है!)
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लालकिले के कोर्ट-मार्शल के खिलाफ देश के नागरिकों ने जो उग्र प्रदर्शन किये, उससे साबित हो गया कि जनता की सहानुभूति आजाद हिन्द सैनिकों के साथ है।
इस पर भारतीय सेना के जवान दुविधा में पड़ जाते हैं।
फटी वर्दी पहने, आधा पेट भोजन किये, बुखार से तपते, बैलगाड़ियों में सामान ढोते और मामूली बन्दूक हाथों में लिये बहादूरी के साथ “भारत माँ की आजादी के लिए” लड़ने वाले आजाद हिन्द सैनिकों को हराकर एवं बन्दी बनाकर लाने वाले ये भारतीय जवान ही तो थे, जो “महान ब्रिटिश सम्राज्यवाद की रक्षा के लिए” लड़ रहे थे! अगर ये जवान सही थे, तो देश की जनता गलत है; और अगर देश की जनता सही है, तो फिर ये जवान गलत थे! दोनों ही सही नहीं हो सकते।
सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रुप लिया, फिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रुप में फूटकर बाहर आने लगा।
फरवरी 1946 में, जबकि लालकिले में मुकदमा चल ही रहा था, रॉयल इण्डियन नेवी की एक हड़ताल बगावत में रुपान्तरित हो जाती है।* कराची से मुम्बई तक और विशाखापत्तनम से कोलकाता तक जलजहाजों को आग के हवाले कर दिया जाता है। देश भर में भारतीय जवान ब्रिटिश अधिकारियों के आदेशों को मानने से इनकार कर देते हैं। मद्रास और पुणे में तो खुली बगावत होती है। इसके बाद जबलपुर में बगावत होती है, जिसे दो हफ्तों में दबाया जा सका। 45 का कोर्ट-मार्शल करना पड़ता है।
यानि लालकिले में चल रहा आजाद हिन्द सैनिकों का कोर्ट-मार्शल देश के सभी नागरिकों को तो उद्वेलित करता ही है, सेना के भारतीय जवानों की प्रसिद्ध “राजभक्ति” की नींव को भी हिला कर रख देता है।
जबकि भारत में ब्रिटिश राज की रीढ़ सेना की यह “राजभक्ति” ही है!
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बिल्कुल इसी चीज की कल्पना नेताजी ने की थी. जब (मार्च’44 में) वे आजाद हिन्द सेना लेकर इम्फाल-कोहिमा सीमा पर पहुँचे थे। उनका आव्हान था- जैसे ही भारत की मुक्ति सेना भारत की सीमा पर पहुँचे, देश के अन्दर भारतीय नागरिक आन्दोलित हो जायें और ब्रिटिश सेना के भारतीय जवान बगावत कर दें।
इतना तो नेताजी भी जानते होंगे कि-
1. सिर्फ तीस-चालीस हजार सैनिकों की एक सेना के बल पर दिल्ली तक नहीं पहुँचा जा सकता, और
2. जापानी सेना की ‘पहली’ मंशा है- अमेरिका द्वारा बनवायी जा रही (आसाम तथा बर्मा के जंगलों से होते हुए चीन तक जानेवाली) ‘लीडो रोड’ को नष्ट करना; भारत की आजादी उसकी ‘दूसरी’ मंशा है।
ऐसे में, नेताजी को अगर भरोसा था, तो भारत के अन्दर ‘नागरिकों के आन्दोलन’ एवं ‘सैनिकों की बगावत’ पर। ...मगर दुर्भाग्य, कि उस वक्त देश में न आन्दोलन हुआ और न ही बगावत।
इसके भी कारण हैं।
पहला कारण, सरकार ने प्रेस पर पाबन्दी लगा दी थी और यह प्रचार (प्रोपागण्डा) फैलाया था कि जापानियों ने भारत पर आक्रमण किया है। सो, सेना के ज्यादातर भारतीय जवानों की यही धारणा थी।
दूसरा कारण, फॉरवर्ड ब्लॉक के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, अतः आम जनता के बीच इस बात का प्रचार नहीं हो सका कि इम्फाल-कोहिमा सीमा पर जापानी सैनिक नेताजी के नेतृत्व में युद्ध कर रहे हैं।
तीसरा कारण, भारतीय जवानों का मनोबल बनाये रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नामी-गिरामी भारतीयों को सेना में कमीशन देना शुरु कर दिया था। इस क्रम में महान हिन्दी लेखक सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सयायन 'अज्ञेय' भी 1943 से 46 तक सेना में रहे और वे ब्रिटिश सेना की ओर से भारतीय जवानों का मनोबल बढ़ाने सीमा पर पहुँचे थे। (ऐसे और भी भारतीय रहे होंगे।)
चौथा कारण, भारत का प्रभावशाली राजनीतिक दल काँग्रेस पार्टी गाँधीजी की ‘अहिंसा’ के रास्ते आजादी पाने का हिमायती था, उसने नेताजी के समर्थन में जनता को लेकर कोई आन्दोलन शुरु नहीं किया। (ब्रिटिश सेना में बगावत की तो खैर काँग्रेस पार्टी कल्पना ही नहीं कर सकती थी!- ऐसी कल्पना नेताजी-जैसे तेजस्वी नायक के बस की बात है। ...जबकि दुनिया जानती थी कि इन “भारतीय जवानों” की “राजभक्ति” के बल पर ही अँग्रेज न केवल भारत पर, बल्कि आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं।)
पाँचवे कारण के रुप में प्रसंगवश यह भी जान लिया जाय कि भारत के दूसरे प्रभावशाली राजनीतिक दल भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी ने ब्रिटिश सरकार का साथ देते हुए आजाद हिन्द फौज को जापान की 'कठपुतली सेना' (पपेट आर्मी) घोषित कर रखा था। नेताजी के लिए भी अशोभनीय शब्द तथा कार्टून का इस्तेमाल उन्होंने किया था।
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खैर, जो आन्दोलन एवं बगावत 1944 में नहीं हुआ, वह डेढ़-दो साल बाद होता है और लन्दन में राजमुकुट यह महसूस करता है कि भारतीय सैनिकों की जिस “राजभक्ति” के बल पर वे आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं, उस “राजभक्ति” का क्षरण शुरू हो गया है... और अब भारत से अँग्रेजों के निकल आने में ही भलाई है।
वर्ना जिस प्रकार शाही भारतीय नौसेना के सैनिकों ने बन्दरगाहों पर खड़े जहाजों में आग लगाई है, उससे तो अँग्रेजों का भारत से सकुशल निकल पाना ही एक दिन असम्भव हो जायेगा... और भारत में रह रहे सारे अँग्रेज एक दिन मौत के घाट उतार दिये जायेंगे।
लन्दन में ‘सत्ता-हस्तांतरण’ की योजना बनती है। भारत को तीन भौगोलिक तथा दो धार्मिक हिस्सों में बाँटकर इसे सदा के लिए शारीरिक-मानसिक रूप से अपाहिज बनाने की कुटिल चाल चली जाती है। और भी बहुत-सी शर्तें अँग्रेज जाते-जाते भारतीयों पर लादना चाहते हैं। (ऐसी ही एक शर्त के अनुसार रेलवे का एक कर्मचारी आज तक वेतन ले रहा है, जबकि उसका पोता पेन्शन पाता है!) इनके लिए जरूरी है कि सामने वाले पक्ष को भावनात्मक रूप से कमजोर बनाया जाय।




लेडी एडविना माउण्टबेटन के चरित्र को देखते हुए बर्मा के गवर्नर लॉर्ड माउण्टबेटन को भारत का अन्तिम वायसराय बनाने का निर्णय लिया जाता है- लॉर्ड वावेल के स्थान पर। एटली की यह चाल काम कर जाती है। विधुर नेहरूजी को लेडी एडविना अपने प्रेमपाश में बाँधने में सफल रहती हैं और लॉर्ड माउण्टबेटन के लिए उनसे शर्तें मनवाना आसान हो जाता है!
(लेखकद्वय लैरी कॉलिन्स और डोमेनिक लेपियरे द्वारा भारत की आजादी पर रचित प्रसिद्ध पुस्तक “फ्रीडम एट मिडनाईट” में एटली की इस चाल को रेखांकित किया गया है।)
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बचपन से ही हमारे दिमाग में यह धारणा बैठा दी गयी है कि ‘गाँधीजी की अहिंसात्मक नीतियों से’ हमें आजादी मिली है। इस धारणा को पोंछकर दूसरी धारणा दिमाग में बैठाना कि ‘नेताजी और आजाद हिन्द फौज की सैन्य गतिविधियों के कारण’ हमें आजादी मिली- जरा मुश्किल काम है। अतः नीचे खुद अँग्रेजों के ही नजरिये पर आधारित कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिन्हें याद रखने पर शायद नयी धारणा को दिमाग में बैठाने में मदद मिले-
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सबसे पहले, माईकल एडवर्ड के शब्दों में ब्रिटिश राज के अन्तिम दिनों का आकलन:
“भारत सरकार ने आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चलाकर भारतीय सेना के मनोबल को मजबूत बनाने की आशा की थी। इसने उल्टे अशांति पैदा कर दी- जवानों के मन में कुछ-कुछ शर्मिन्दगी पैदा होने लगी कि उन्होंने ब्रिटिश का साथ दिया। अगर बोस और उनके आदमी सही थे- जैसाकि सारे देश ने माना कि वे सही थे भी- तो भारतीय सेना के भारतीय जरूर गलत थे। भारत सरकार को धीरे-धीरे यह दीखने लगा कि ब्रिटिश राज की रीढ़- भारतीय सेना- अब भरोसे के लायक नहीं रही। सुभाष बोस का भूत, हैमलेट के पिता की तरह, लालकिले (जहाँ आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चला) के कंगूरों पर चलने-फिरने लगा, और उनकी अचानक विराट बन गयी छवि ने उन बैठकों को बुरी तरह भयाक्रान्त कर दिया, जिनसे आजादी का रास्ता प्रशस्त होना था।”
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अब देखें कि ब्रिटिश संसद में जब विपक्षी सदस्य प्रश्न पूछते हैं कि ब्रिटेन भारत को क्यों छोड़ रहा है, तब प्रधानमंत्री एटली क्या जवाब देते हैं।
प्रधानमंत्री एटली का जवाब दो विन्दुओं में आता है कि आखिर क्यों ब्रिटेन भारत को छोड़ रहा है-
1. भारतीय मर्सिनरी (पैसों के बदले काम करने वाली- पेशेवर) सेना ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति वफादार नहीं रही, और
2. इंग्लैण्ड इस स्थिति में नहीं है कि वह अपनी (खुद की) सेना को इतने बड़े पैमाने पर संगठित एवं सुसज्जित कर सके कि वह भारत पर नियंत्रण रख सके।
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यही लॉर्ड एटली 1956 में जब भारत यात्रा पर आते हैं, तब वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल निवास में दो दिनों के लिए ठहरते हैं। कोलकाता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश चीफ जस्टिस पी.बी. चक्रवर्ती कार्यवाहक राज्यपाल हैं। वे लिखते हैं:
“... उनसे मेरी उन वास्तविक विन्दुओं पर लम्बी बातचीत होती है, जिनके चलते अँग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। मेरा उनसे सीधा प्रश्न था कि गाँधीजी का "भारत छोड़ो” आन्दोलन कुछ समय पहले ही दबा दिया गया था और 1947 में ऐसी कोई मजबूर करने वाली स्थिति पैदा नहीं हुई थी, जो अँग्रेजों को जल्दीबाजी में भारत छोड़ने को विवश करे, फिर उन्हें क्यों (भारत) छोड़ना पड़ा? उत्तर में एटली कई कारण गिनाते हैं, जिनमें प्रमुख है नेताजी की सैन्य गतिविधियों के परिणामस्वरुप भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों में आया ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में क्षरण। वार्तालाप के अन्त में मैंने एटली से पूछा कि अँग्रेजों के भारत छोड़ने के निर्णय के पीछे गाँधीजी का कहाँ तक प्रभाव रहा? यह प्रश्न सुनकर एटली के होंठ हिकारत भरी मुस्कान से संकुचित हो गये जब वे धीरे से इन शब्दों को चबाते हुए बोले, “न्यू-न-त-म!” ”
(श्री चक्रवर्ती ने इस बातचीत का जिक्र उस पत्र में किया है, जो उन्होंने आर.सी. मजूमदार की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑव बेंगाल’ के प्रकाशक को लिखा था।)
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निष्कर्ष के रुप में यह कहा जा सकता है कि:-
1. अँग्रेजों के भारत छोड़ने के हालाँकि कई कारण थे, मगर प्रमुख कारण यह था कि भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों के मन में ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में कमी आ गयी थी और- बिना राजभक्त भारतीय सैनिकों के- सिर्फ अँग्रेज सैनिकों के बल पर सारे भारत को नियंत्रित करना ब्रिटेन के लिए सम्भव नहीं था।
2. सैनिकों के मन में राजभक्ति में जो कमी आयी थी, उसके कारण थे- नेताजी का सैन्य अभियान, लालकिले में चला आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा और इन सैनिकों के प्रति भारतीय जनता की सहानुभूति।
3. अँग्रेजों के भारत छोड़कर जाने के पीछे गाँधीजी या काँग्रेस की अहिंसात्मक नीतियों का योगदान नहीं के बराबर रहा।

सो, अगली बार आप भी ‘दे दी हमें आजादी ...’ वाला गीत गाने से पहले जरा पुनर्विचार कर लीजियेगा। - Abhishek Pandey

हिन्दुत्व की आलोचना सुनने वाले और करने वाले दोनों यहाँ पढे !!

हिन्दुत्व की आलोचना सुनने वाले और करने वाले दोनों यहाँ पढे !!

कुछ दिन पहले rNDTV पर दलाल पत्रकार बुर्का दत्त एक कार्यक्रम मे हिंदुत्व का जम कर मजाक उड़ा रही थी ...

इस प्रोग्राम मे दो मुस्लिम मौलवी और दो पादरी और अग्निवेश था ..
ये सब हिंदू धर्म मे जातिवाद को लेकर हिंदू धर्म का मजाक बना रहे थे ..
तथाकथित "जातिवाद" (इस्लामिक शासन के बाद आए ) पर चर्चा कर रहे थे
और दूर बैठे अपने आकाओ को खुश कर रहे थे ....
अक्सर हिन्दू द्रोही हिन्दुत्व का मखौल उड़ाते है की इसमे छुआछूत है जात पात है
अगर ऐसा होता तो महाभारत और रामायण हिन्दुओ के पवित्र ग्रंथ नहीं होते
यहाँ जाती व्यवस्था हमेशा कर्म आधारित थी ....

लेकिन जरा यहाँ नजर डालिए

अब आप जरा इनकी भी सच्चाई देखिये :=
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क्या आप जानते हैं कि......

================ईसाई धर्म में=================
- - - - एक मसीह....एक बाइबल..... और एक ही धर्म है ... - - - -
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लेकिन मजे कि बात ये कि...
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ये रोमन कैथेलिक और प्रोटेस्टेंट मे बंटे हुए है ..
आयरलैंड और बेलफास्ट मे अब तक सिर्फ पचास साल मे ही बीस हज़ार ईसाई आपसी दंगो मे मरे ..

ये कहते है कि युशु इंसान मे कोई फर्क नहीं करता ..
लेकिन गोरे ईसाइयों ने काले ईसाइयों पर भयानक पैशाचिक जुल्म ढाए और आज भी अमेरिका का सबसे खतरनाक आतंकी संगठन कोई मुस्लिम संगठन नहीं बल्कि "द व्हाइट सुपर " है जो गोरो का ग्रुप है और कालो और नीग्रो का दुश्मन है ..

किसी गोरे लोगो के चर्च मे कोई काला ईसाई नहीं जा सकता .

लैटिन कैथोलिक, सीरियाई कैथोलिक चर्च में प्रवेश नहीं करेगा.

ये दोनों, मर्थोमा चर्च में प्रवेश नहीं करेगा.

ये तीनों, Pentecost के चर्च में प्रवेश नहीं करेगा.

और, ये चारों... साल्वेशन आर्मी चर्च में प्रवेश नहीं करेगा.

इतना ही नहीं, ये पांचों, सातवें दिन Adventist चर्च में प्रवेश नहीं करेगा.

ये छह के छह, रूढ़िवादी चर्च में प्रवेश नहीं करेगा.

अब ये सातों जैकोबाइट चर्च में प्रवेश नहीं करेगा.

और, इसी तरह से........ ईसाई धर्म की 146 जातियां सिर्फ केरल में ही मौजूद हैं,

इतना शर्मनाक होने पर भी ये .... चिल्लाते रहेंगे कि.. एक मसीह, एक बाइबिल, एक धर्म(??)

=============== अब देखिए मुस्लिमों को===========

अल्लाह एक , एक कुरान, एक .... नबी ! और महान एकता......... बतलाते हैं ?

जबकि, मुसलमानों के बीच, शिया और सुन्नी सभी मुस्लिम देशों में एक दूसरे को मार रहे हैं .

और, अधिकांश मुस्लिम देशों में.... इन दो संप्रदायों के बीच हमेशा धार्मिक दंगा होता रहता है..!

इतना ही नहीं... शिया को.., सुन्नी मस्जिद में जाना मना है .

इन दोनों को.. अहमदिया मस्जिद में नहीं जाना है.

और, ये तीनों...... सूफी मस्जिद में कभी नहीं जाएँगे.

फिर, इन चारों का मुजाहिद्दीन मस्जिद में प्रवेश वर्जित है..!
किसी बोहरा मस्जिद मे कोई दूसरा मुस्लिम नहीं जा सकता .
कोई बोहरा का किसी दूसरे के मस्जिद मे जाना वर्जित है ..
आगा खानी या चेलिया मुस्लिम का अपना अलग मस्जिद होता है .

सबसे ज्यादा मुस्लिम किसी दूसरे देश मे नही बल्कि मुस्लिम देशो मे ही मारे गए है ..

आज भी सीरिया मे करीब हर रोज एक हज़ार मुस्लिम हर रोज मारे जा रहे है .

अपने आपको इस्लाम जगत का हीरों बताने वाला सद्दाम हुसैन ने करीब एक लाख कुर्द मुसलमानों को रासायनिक बम से मार डाला था ...

पाकिस्तान मे हर महीने शिया और सुन्नी के बीच दंगे भड़कते है .

और इसी प्रकार से मुस्लिमों में भी 13 तरह के मुस्लिम हैं., जो एक दुसरे के खून के प्यासे रहते हैं और आपस में बमबारी और मार-काट वगैरह... मचाते रहते हैं.

*****अब आइये ... जरा हम अपने हिन्दू/सनातन धर्म को भी देखते हैं.

हमारी 1280 धार्मिक पुस्तकें हैं, जिसकी 10,000 से भी ज्यादा टिप्पणियां और १,00.000 से भी अधिक उप-टिप्पणियों मौजूद हैं..! एक भगवान के अनगिनत प्रस्तुतियों की विविधता, अनेकों आचार्य तथा हजारों ऋषि-मुनि हैं जिन्होंने अनेक भाषाओँ में उपदेश दिया है..

फिर भी, हम सभी मंदिरों में जाते हैं, इतना ही नहीं.. हम इतने शांतिपूर्ण और सहिष्णु लोग हैं कि सब लोग एक साथ मिलकर सभी मंदिरों और सभी भगवानो की पूजा करते हैं .

और तो और.... पिछले दस हजार साल में धर्म के नाम पर हिंदुओं में "कभी झगड़ा नहीं" हुआ .

इसलिए इन लोगों की नौटंकी और बहकावे पर मत जाओ... और.... "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं"
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जरा यहाँ भी पढे :
भारत की जाती व्यवस्था के
बारे मे संक्षिप्त वर्णन और तथ्य है
http://alturl.com/ehem9
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शादी के नाम पर हुआ विश्वासघात ... साथ में हुआ खतना और धर्म परिवर्तन...

शादी के नाम पर हुआ विश्वासघात ... साथ में हुआ खतना और धर्म परिवर्तन....
विजय पंड्या, नाडियाद। (गुजरात)। नाडियाद जिले, कपडवंज तहसील के आतरसुंबा गांव में रहने वाले एक ब्राह्मण युवक के धर्म परिवर्तन का मामला सामने आया है। ब्राह्मण युवक के अनुसार उसने धर्म परिवर्तन अपनी मुस्लिम प्रेमिका से शादी करने के लिए किया था, लेकिन धर्म परिवर्तन के बाद उसके साथ प्रेमिका के परिजनों ने धोखा करते हुए उसका विवाह किसी अन्य जगह कर दिया। युवक की शिकायत पर पुलिस ने आठ व्यक्तियों के खिलाफ मामला दर्ज किया है।

कपडवंज तहसील के आतरसुंबा गांव में रहने वाले हिमांशु प्रसन्न कुमार पाठक के गांव की ही एक मुस्लिम लड़की रेहाना (परिवर्तित नाम) से प्रेम संबंध थे। जब इस प्रेम संबंध की बात रेहाना के परिजनों को पता चली तो उन्होंने हिमांशु से कहा कि धर्म परिवर्तन के बाद ही तुम्हारी शादी हो सकती है।

आखिरकार हिमांशु ने अपना प्यार पाने के लिए धर्म परिवर्तन की बात स्वीकार ली। रेहाना के परिजन हिमांशु को अहमदाबाद ले गए और उसकी ‘सुन्नत’ करा दी। इसके बाद कलमा पढ़ाकर धर्म परिवर्तन करवाया गया। धर्म परिवर्तन के बाद हिमांशु ने रेहानाके घरवालों से शादी की बात कही। इस पर परिजनों ने कहा कि रमजान के बाद शादी करवा देंगे।

लेकिन इसी बीच हाल ही में रेहाना के परिजनों ने उसका निकाह किसी अन्य युवक के साथ करवा दिया। शादी के कुछ दिनों बाद ही हिमांशु और रेहाना फिर से एक-दूसरे से मिलने लगे। इसकी खबर रेहाना के पति को लग गई और उसने व रेहाना के परिजनों ने हिमांशु को जान से मारने की धमकी दे दी।

इस घटना के बाद आखिरकार हिमांशु को पुलिस की शरण में आना पड़ा। हिमांशु ने 8 व्यक्तियों के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई है। पुलिस ने 326, 120 (बी), 506 (2), 504 तथा धर्म परिवर्तन अधिनियम के तहत मामला दर्ज कर जांच की कार्रवाई शुरू कर दी है।
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source : Bhaskar.com news

प्राचीन अरबी काव्य संग्रह गंथ ‘सेअरूल-ओकुल’ अरब की प्राचीन समृद्ध संस्कृति वैदिक थी


प्राचीन अरबी काव्य संग्रह गंथ ‘सेअरूल-ओकुल’ के 257वें पृष्ठ पर हजरतमोहम्मद से 2300 वर्ष पूर्व एवं ईसा मसीह से 1800 वर्ष पूर्व पैदा हुए लबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता में भारत भूमि एवं वेदों को जो सम्मान दिया है, वह इस प्रकार है-

“अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे।

व अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन।1।

वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन जिकरा।

वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंदतुन।2।

यकूलूनल्लाहः या अहलल अरज आलमीन फुल्लहुम।

फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन।3।

वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहे तनजीलन।

फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअन योवसीरीयोनजातुन।4।

जइसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुबातुन।

व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।5।”

अर्थात-(1) हे भारत की पुण्य भूमि (मिनार हिंदे) तू धन्य है, क्योंकि ईश्वरने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना। (2) वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश, जो चार प्रकाश स्तम्भों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, यह भारतवर्ष (हिंद तुन) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ। (3) और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान है, इनकेअनुसार आचरण करो।(4) वह ज्ञान के भण्डार साम और यजुर है, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए, हे मेरे भाइयों! इनको मानो, क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते है।(5) और दो उनमें से रिक्, अतर (ऋग्वेद, अथर्ववेद) जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा देते है, और जो इनकी शरण में आ गया, वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता।

इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप में जन्में थे, और जब उन्होंने अपने हिन्दू परिवार की परम्परा और वंश से संबंध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया, तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न-भिन्न हो गया और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगेअस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचाउमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गंवाने पड़े। उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरबमें एवं केन्द्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो कि भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक थे, उन्हें अबुल हाकम अर्थात ‘ज्ञान कापिता’ कहते थे। बाद में मोहम्मद के नये सम्प्रदाय ने उन्हें ईर्ष्यावश अबुलजिहाल ‘अज्ञान का पिता’ कहकर उनकी निन्दा की।

जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया, उस समय वहाँ बृहस्पति, मंगल, अश्विनीकुमार, गरूड़, नृसिंह की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी। साथ ही एक मूर्ति वहाँ विश्वविजेता महाराजा बलि की भी थी, और दानी होने की प्रसिद्धि से उसका एकहाथ सोने का बना था। ‘Holul’ के नाम से अभिहित यह मूर्ति वहाँ इब्राहम और इस्माइल की मूर्त्तियो के बराबर रखी थी। मोहम्मद ने उन सब मूर्त्तियों को तोड़कर वहाँ बने कुएँ में फेंक दिया, किन्तु तोड़े गये शिवलिंग का एक टुकडा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित है, वरन् हज करने जाने वाले मुसलमान उस काले (अश्वेत) प्रस्तर खण्ड अर्थात ‘संगे अस्वद’ को आदर मान देते हुए चूमते है।

प्राचीन अरबों ने सिन्ध को सिन्ध ही कहा तथा भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों को हिन्द निश्चित किया। सिन्ध से हिन्द होने की बात बहुत ही अवैज्ञानिक है। इस्लाम मत के प्रवर्तक मोहम्मद के पैदा होने से 2300 वर्ष पूर्व यानि लगभग 1800 ईश्वी पूर्व भी अरब में हिंद एवं हिंदू शब्द का व्यवहार ज्यों कात्यों आज ही के अर्थ में प्रयुक्त होता था।

अरब की प्राचीन समृद्ध संस्कृति वैदिक थी तथा उस समय ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, धर्म-संस्कृति आदि में भारत (हिंद) के साथ उसके प्रगाढ़ संबंध थे। हिंद नाम अरबों को इतना प्यारा लगा कि उन्होंने उस देश के नाम पर अपनी स्त्रियों एवं बच्चों के नाम भी हिंद पर रखे।

अरबी काव्य संग्रह ग्रंथ ‘ से अरूल-ओकुल’ के 253वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता है जिसमें उन्होंने हिन्दे यौमन एवंगबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया है। ‘उमर-बिन-ए-हश्शाम’ की कवितानयी दिल्ली स्थित मन्दिर मार्ग पर श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर (बिड़लामन्दिर) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर के स्तम्भ (खम्बे) पर कालीस्याही से लिखी हुई है, जो इस प्रकार है -

” कफविनक जिकरा मिन उलुमिन तब असेक ।

कलुवन अमातातुल हवा व तजक्करू ।1।

न तज खेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा ।

वलुकएने जातल्लाहे औम असेरू ।2।

व अहालोलहा अजहू अरानीमन महादेव ओ ।

मनोजेल इलमुद्दीन मीनहुम व सयत्तरू ।3।

व सहबी वे याम फीम कामिल हिन्दे यौमन ।

व यकुलून न लातहजन फइन्नक तवज्जरू ।4।

मअस्सयरे अरव्लाकन हसनन कुल्लहूम ।

नजुमुन अजा अत सुम्मा गबुल हिन्दू ।5।

अर्थात् – (1) वह मनुष्य, जिसने सारा जीवन पाप व अधर्म में बिताया हो, काम, क्रोध में अपने यौवन को नष्ट किया हो। (2) अदि अन्त में उसको पश्चाताप होऔर भलाई की ओर लौटना चाहे, तो क्या उसका कल्याण हो सकता है ? (3) एक बार भीसच्चे हृदय से वह महादेव जी की पूजा करे, तो धर्म-मार्ग में उच्च से उच्चपद को पा सकता है। (4) हे प्रभु ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत (हिंद) के निवास का दे दो, क्योंकि वहाँ पहुँचकर मनुष्य जीवन-मुक्त हो जाताहै। (5) वहाँ की यात्रा से सारे शुभ कर्मो की प्राप्ति होती है, और आदर्शगुरूजनों (गबुल हिन्दू) का सत्संग मिलता है ।

Source : Pravakta.com

मंगलवार, मार्च 20, 2012

हिन्दू नव वर्ष.. कुछ तथ्य .. जिनके सम्बन्ध में हम सबको जानकारी होनी चाहिए...

हिन्दू नव वर्ष॥ कुछ तथ्य ॥ जिनके सम्बन्ध में हम सबको जानकारी होनी चाहिए... Sunil Dixit

ये तथ्य हमने कई जगह से संकलित किये हैं अपनी जानकारी के लिए.. और अब आप के साथ इनको शेयर कर रहें हैं

दीपों के माध्यम से ॐ

दो हजार वर्ष पहले शकों ने सौराष्ट्र और पंजाब को रौंदते हुए अवंती पर आक्रमण किया तथा विजय प्राप्त की। विक्रमादित्य ने राष्ट्रीय शक्तियों को एक सूत्र में पिरोया और शक्तिशाली मोर्चा खड़ा करके ईसा पूर्व 57 में शकों पर भीषण आक्रमण कर विजय प्राप्त की। थोड़े समय में ही इन्होंने कोंकण, सौराष्ट्र, गुजरात और सिंध भाग के प्रदेशों को भी शकों से मुक्त करवा लिया।

वीर विक्रमादित्य ने शकों को उनके गढ़ अरब में भी करारी मात दी। इसी सम्राट विक्रमादित्य के नाम पर भारत में विक्रमी संवत प्रचलित हुआ। सम्राट पृथ्वीराज के शासनकाल तक इसी संवत के अनुसार कार्य चला। इसके बाद भारत में मुगलों के शासनकाल के दौरान सरकारी क्षेत्र में हिजरी सन चलता रहा। इसे भाग्य की विडंबना कहें अथवा स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं की अकृतज्ञता कि सरकार ने शक संवत को स्वीकार कर लिया, लेकिन सम्राट विक्रमादित्य के नाम से प्रचलित संवत को कहीं स्थान न दिया।

31 दिसंबर की आधी रात को नव वर्ष के नाम पर नाचने वाले आम जन को देखकर तो कुछ तर्क किया जा सकता है, पर भारत सरकार को क्या कहा जाए जिसका दूरदर्शन भी उसी रंग में रंगा श्लील-अश्लील कार्यक्रम प्रस्तुत करने की होड़ में लगा रहता है और स्वयं राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री पूरे राष्ट्र को नव वर्ष की बधाई देते हैं। भारतीय सांस्कृतिक जीवन का विक्रमी संवत से गहरा नाता है। इस दिन लोग पूजापाठ करते हैं और तीर्थ स्थानों पर जाते हैं। लोग पवित्र नदियों में स्नान करते हैं।

मांस-मदिरा का सेवन करने वाले लोग इस दिन इन तामसी पदार्था से दूर रहते हैं, पर विदेशी संस्कृति के प्रतीक और गुलामी की देन विदेशी नव वर्ष के आगमन से घंटों पूर्व ही मांस मदिरा का प्रयोग, श्लील-अश्लील कार्यक्रमों का रसपान तथा अन्य बहुत कुछ ऐसा प्रारंभ हो जाता है जिससे अपने देश की संस्कृति का रिश्ता नहीं है। विक्रमी संवत के स्मरण मात्र से ही विक्रमादित्य और उनके विजय अभियान की याद ताजा होती है, भारतीयों का मस्तक गर्व से ऊंचा होता है जबकि ईसवी सन के साथ ही गुलामी द्वारा दिए गए अनेक जख्म हरे होने लगते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को जब किसी ने पहली जनवरी को नव वर्ष की बधाई दी तो उन्होंने उत्तर दिया था- किस बात की बधाई? मेरे देश और देश के सम्मान का तो इस नव वर्ष से कोई संबंध नहीं। यही हम लोगों को भी समझना होगा।

हमारे देश से गोरे अंग्रेज तो चले गए मगर काले अंग्रेजों को छोड़ गए। ये काले अंग्रेज विदेशी परंपराओं और फूहड़ नाच गानों के ऐसे दीवाने हैं कि अपने देश की गरिमामयी सांस्कृतिक परंपराओं, मूल्यों और आचरण का इनके लिए कोई मूल्य नहीं है। संस्कृति के इस प्रदूषण के करेले में नीम का काम किया है सैटेलाईट चैनलों ने। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा प्रायोजित विदेशी उत्सवों को इन खबरिया चैनलों पर खूब प्रचार मिलता हैं मगर हमारे अपने ही देश की परंपराओं और संस्कृति से जुड़े कार्यक्रमों को लेकर इऩ चैनलों द्वारा हमेशा उदासीनता बरती जाती है। इसके बावजूद देश भर के और देश के बाहर बसे हमारे हजारों पाठकों ने हमसे आग्रह किया कि हम भारतीय नवसंवत्सर के महत्व, इसको मनाए जाने के तौर तरीके आदि के बारे में विस्तार से जानकारी दें।

गुड़ी पड़वा और इसका महत्व:

हमें गर्व है कि हम इसाई कैलेंडर से 57 साल आगे हैं। इसाई कैलेंडर जहाँ अभी वर्ष 2011 तक ही पहुँचा है, वहीं हमारा भारतीय कैलेंडर 4 अप्रैल 2011को गुड़ी पढ़वा के दिन 2068 वे वर्ष में प्रवेश कर जाएगा। इसी दिन से चैत्र नवरात्र प्रारंभ होंगे जिसका समापन रामनवमी पर होगा। 04 अप्रैल 2011 से शुरू हो रहे नव संवत्सर 2068 पर कई संगठनों द्वारा हिन्दू नव वर्ष का स्वागत किया जाएगा।

ऐसे तो विश्व के विशाल धरातल पर अनेक प्रकार वर्षों (कैलेंडरों) का प्रचलन है। उनके आरम्भ के अनुसार भिन्न-भिन्न कारणों के साथ भिन्न-भिन्न समय में मनाये जाने की परंपरा है। अपनी-अपनी आस्था-श्रद्धा, परंपरा, विभिन्न देश-राष्ट्र, धर्म-जाति, समाज और सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुसार अपने-अपने तौर-तरीकों से नववर्ष बड़े धूमधाम से उत्साहपूर्वक मानते हैं। विशेष रूप से सम्पूर्ण विश्व में इसाई नववर्ष (३१ दिसम्बर की रात्रि और १ जनवरी के आरम्भ को लेकर) बड़े धूमधाम से मनाते हैं, किन्तु हमारा अपना भारतीय नववर्ष अति प्राचीन और वैज्ञानिक आधार लिये हुए है। हमारे धार्मिक एवं सांस्कृतिक संस्कारों के साथ भी जुड़ा हुआ है, अत: घर-घर में कुल धर्म के रूप में स्थापित भी हैं, इसे भव्यरूप में संगठित होकर मनाया जाना चाहिये।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा कल्पादि, सृष्टि्यादि, युगादि के आरंभ के साथ-साथ प्रथम सतयुग का आरंभ भी इसी दिवस से होने से यह भारतीय नववर्ष अति प्राचीन है। अरबों वर्षों की प्राचीनता इसके साथ जुड़ी हुई है। फिर उज्जैन कालगणना की सर्वसम्मत नगरी है, यही कालगणना के प्रतीक ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर भी स्थित है, इसी विशिष्टता के कारण सम्राट विक्रम ने विक्रम संवत् प्रदान किया था तथा जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह ने उज्जैन में वेधशाला की स्थापना की थी। अत: उज्जयिनी की महत्ता और भारतीय नववर्ष की प्राचीनता को जन-जन तक पहुँचाने की दृष्टि से संवत् २०३५ (सन् १९७८ ई.) से नववर्ष की शुभकामना संदेश और नववर्ष को उत्सव का स्वरूप देते हुए भिन्न-भिन्न नगरों में भी इस उत्सव को स्थापित करने की दिशा में सतत प्रयास कर रहे हैं। संवत् २०५७ (सन् २००० ई.) से इस उत्सव को भव्य रूप में शास्त्रीय मर्यादाओं के साथ आयोजित किए जा रहे हैं।

क्या विशेषता है हमारे नववर्ष की?

भारतीय नववर्ष की विशेषता, कैसे मनाये नववर्ष?

वेद-पुराण, इतिहास और शास्त्रीय परंपराओं को जोड़कर नववर्ष मनाये जाने की रूपरेखा तैयार की गई है। उज्जैन में संवत्सर मनाने की प्राचीन परंपरा क्यों चलती आ रही है? उस पर भी विचार किया गया है। आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को सान्दीपनि स्मृति महोत्सव आदर्श गुरु शिष्य परंपरा को लेकर संवत् २०३५ से ही मनाया जा रहा है। श्रीकृष्ण जन्म को ५ हजार वर्ष से अधिक हो जाने के कारण ``व्यास-सान्दीपनि-श्रीकृष्ण पंचसहस्राब्दी पंच वर्षीय महोत्सव'' नाम देकर मना रहे हैं। हमारे प्रयास से नेपाल सहित देश के अन्य नगरों में भी यह उत्सव मनाया जा रहा है।

आओ हम सब मिलकर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के प्रात: सूर्योदय पर नववर्ष का महोत्सव मनावें और इसके लिये अन्य लोगों को भी प्रेरित करें।

यातो धर्मस्ततो जय:।

श्री नववर्ष मङ्गलम

(कल्पादी-सृष्ट्यादि-युगादि महोत्सव)

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा नववर्ष आरम्भ

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के प्रात: सूर्योदय की प्रथम रश्मि के दर्शन के साथ नववर्ष का आरंभ होता है।

``मधौ सितादेर्दिनमासवर्षयुगादिकानां युगपत्प्रवृत्ति:''

महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने प्रतिबादित किया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से दिन-मास-वर्ष और युगादि का आरंभ हुआ है। युगों में प्रथम सतयुग का आरंभ भी इसी दिन से हुआ है। कल्पादि-सृष्ट्यादि-युगादि आरंभ को लेकर इस दिवस के साथ अति प्राचीनता जुड़ी हुई है। सृष्टि की रचना को लेकर इसी दिवस से गणना की गई है, लिखा है-

चैत्र-मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे%हनि ।

शुक्लपक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति ।।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि के सूर्योदय के समय से नवसंवत्सर का आरंभ होता है, यह अत्यंत पवित्र तिथि है। इसी दिवस से पितामह ब्रह्मा ने सृष्टि का सृजन किया था।

इस तिथि को रेवती नक्षत्र में, विष्कुंभ योग में दिन के समय भगवान का प्रथम अवतार मत्स्यरूप का प्रादुर्भाव भी माना जाता है-

कृते च प्रभवे चैत्रे प्रतिपच्छुक्लपक्षगा ।

रेवत्यां योग-विष्कुम्भे दिवा द्वादश-नाड़िका: ।।

मत्स्यरूपकुमार्यांच अवतीर्णो हरि: स्वयम् ।।

प्रकृति खुद स्वागत करती है इस दिन का

चैत्र शुक्ल पक्ष आरंभ होने के पूर्व ही प्रकृति नववर्ष आगमन का संदेश देने लगती है। प्रकृति की पुकार, दस्तक, गंध, दर्शन आदि को देखने, सुनने, समझने का प्रयास करें तो हमें लगेगा कि प्रकृति पुकार-पुकार कर कह रही है कि पुरातन का समापन हो रहा है और नवीन बदलाव आ रहा है, नववर्ष दस्तक दे रहा है। वृक्ष-पौधे अपने जीर्ण वस्त्रों को त्याग रहे हैं, जीर्ण-शीर्ण पत्ते पतझड़ के साथ वृक्ष शाखाओं से पृथक हो रहे हैं, वायु के द्वारा सफाई अभियान चल रहा है, प्रकृति के रचयिता अंकुरित-पल्लवित-पुष्पित कर बोराने की ओर ले जा रहे हैं, मानो पुरातन वस्त्रों का त्याग कर नूतन वस्त्र धारण कर रहे हैं। पलाश खिल रहे हैं, वृक्ष पुष्पित हो रहे हैं, आम बौरा रहे हैं, सरसों नृत्य कर रही है, वायु में सुगंध और मादकता की मस्ती अनुभव हो रही है।

shiit -व्यतीत होकर ग्रीष्म के आगमन के साथ मिला-जुला सुहाना मौसम अनुभव हो रहा है, यह सुहानी-सुगंधित-सुवासित, मादकता से युक्त वायु का स्पर्श सभी को आनंदित आंदोलित कर रहा है। प्रकृति की प्रसन्नता, खुशी-हास्य सर्वत्र बिखर रहा है। मानो एक बड़े उत्सव की यह साज-सज्जा है, सजावट है, समस्त भूमंडल एक विशाल सुसज्जित मंच के रूप में तैयार है। पक्षियों का कलरव, चहचहाहट, कोयल की कूक, उनकी स्वच्छन्द उड़ान एक संगीतमय वातावरण बनाते हुए अंतरिक्ष को सुसज्जित कर रहा है। पुष्पों की सुगंध से वायुमंडल `सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम्', का पर्याय बन गया है। प्रकृति के द्वारा इत्रपान की व्यवस्था अनुभव हो रही है। पुष्पों फलों से लबालब वृक्ष अभिनंदन के लिए झुके हुए प्रसन्नचित्त, मुस्कराते, सुगंध बिखेरते हुए नववर्ष के आतिथ्य के लिए अपनी तैयारी दिखा रहे हैं।

पतझड़ के पश्चात वसंत में वसंत पंचमी के अवसर पर नवपल्लवित-पुष्पित पत्र-पुष्प और नव फसल को परमात्मा को अर्पण करते हैं।

होली के पश्चात चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को वसंतोत्सव के रूप में नववर्ष के महोत्सव का आरंभ हो जाता है, जो एक पखवाड़े तक चलते हुए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के सूर्योदय के अवसर पर नववर्ष का महोत्सव मनाया जाता है। इस प्रकार यह एकमात्र भारतीय नववर्ष है जो प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है, भव्य है, अद्वितीय है, महापर्व है।

पूर्णतः विज्ञान सम्मत है यह नव वर्ष

हमारे नये वर्ष को जानने के लिए किसी पंचांग या केलेन्डर की आवश्यकता नहीं है

ऊपर हमने लिखा है कि हमारा नया वर्ष प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है। नये वर्ष आने से बहुत पहले ही प्रकृति का संकेत हमें प्राप्त होने लगता है। पतझड़ के पश्चात वृक्ष पौधे अंकुरित पल्लवित-पुष्पित, फलित होकर भूमंडल को सुसज्जित करने लगता है, यह बदलाव हमें नवीन परिवर्तन का आभास देने लगता है। प्रकृति के संकेत को सुने, समझे और देखें तो नए वर्ष की सन्निकटता को समझ सकते हैं।

आकाश व अंतरिक्ष हमारे लिए एक विशाल प्रयोगशाला है। ग्रह-नक्षत्र-तारों आदि के दर्शन से उनकी गति-स्थिति, युति, उदय-अस्त से हमें अपना पंचांग स्पष्ट आकाश में दिखाई देता है। अमावस-पूनम को हम स्पष्ट समझ जाते हैं। पूर्णचंद्र चित्रा नक्षत्र के निकट हो तो चैत्री पूर्णिमा, विशाखा के निकट वैशाखी पूर्णिमा, ज्येष्ठा के निकट से ज्येष्ठ की पूर्णिमा इत्यादि आकाश को पढ़ते हुए जब हम पूर्ण चंद्रमा को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के निकट देखेंगे तो यह फाल्गुन मास की पूर्णिमा है और यहां से नवीन वर्ष आरंभ होने को १५ दिवस शेष है। इन १५ दिनों के पश्चात जिस दिन पूर्ण चंद्र अस्त हो तो अमावस (चैत्र मास की) स्पष्ट हो जाती है और अमांत के पश्चात प्रथम सूर्योदय ही हमारे नए वर्ष का उदय है।

इस प्रकार हम बिना पंचांग और केलेंडर के प्रकृति और आकाश को पढ़कर नवीन वर्ष को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा दिव्य नववर्ष दुर्लभ है।

नव वर्ष और उज्जयिनी

देश के सबसे प्राचीन और समृध्द शहरों में से एक उज्जयिनी (जिसे आज उज्जैन भी कहा जाता है) को समस्त सिद्धांतकारों, पूर्वाचार्यों और ज्योतिर्विज्ञानवेत्ताओं ने कालगणना का केंद्र माना है। यहीं से समय की गणना होती है। सृष्ट्यादि- युगादि की गणना मानते हुए देश के समस्त पंचांगों की गणना उज्जयिनी मध्यमोदय लेकर होती है। यही कालगणना के प्रतीक ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर पृथ्वी की नाभि पर स्थित है, और स्कंद पुराण में उल्लेख है-

कालचक्रप्रवर्तको महाकाल: प्रतापन:।

पृथ्वी की भूमध्य रेखा और भौगोलिक कर्क रेखा यही उज्जयिनी में मिलती है, इसलिए भी यह स्थान समय गणना के लिए महत्वपूर्ण है। ज्योतिष के प्राचीनतम सूर्य सिद्धान्त में उज्जयिनी के महत्व को इस प्रकार प्रतिपादित किया है-

राक्षसालय दैवौक:शैलयोर्मध्यसूत्रग: ।

रोहितकमवन्ती च यथा सन्निहितं सर: ।।

इसी बात को `सिद्धान्तशिरोमणि' में भास्कराचार्य ने इस प्रकार लिखा है-

यल्लङ्कोज्जययिनी-पुरोपरि कुरुक्षेत्रादि देशान् स्पृशत्।

सूत्रं-मेरुगतं बुधैर्निगदिता सा मध्यरेखा भुव:।।

अन्य सिद्धांतों में हाह्मस्फुट सिद्धांत, वराहमिहिर की पंचसिद्धान्तिका, आर्यभटीय, ग्रहलाघव, केतकर का केतकी ग्रहगणित एवं तिलक का रैवतपक्षीय गणना आदि सभी ने उज्जयिनी मध्यमोदय को गणना का आधार स्वीकार किया है। नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्यसेन ने भी उज्जैन के इस महत्व को स्वीकारा है।

अत: स्पष्ट है कि जहाँ समस्त भूमंडल के स्वामी पृथ्वी की नाभि पर स्थित होकर काल-समय का संचालन कर रहे हैं। ऐसी पवित्र और सिद्धभूमि उज्जयिनी में ही कल्पादि-सृष्टि्यादि युगादि नववर्ष महोत्सव आयोजित करने का विशेष महत्व है।

कैसे मनाएं अपना नववर्ष

धर्मशास्त्र के निर्देशानुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में नित्यकर्म से निवृत्त होकर अभ्यंग स्नान अथवा तीर्थ, नदी, सरोवर में स्नान करके शुद्ध पवित्र होवे। स्नान के पश्चात् अपने-अपने नगर के स्पष्ट सूर्योदय के समय (अथवा संपूर्ण देश में एक ही समय उज्जयिनी मध्यमोदय ६ बजकर २ मिनट पर) नववर्ष के शुभारंभ के अवसर पर सूर्य की प्रथम रश्मि के दर्शन के साथ ही शंख ध्वनि, ढोल-नगाड़े, तुरही, शहनाई आदि वाद्यों के साथ नववर्ष का उद्घोष करें। यह कार्य तीर्थ, नदी, सरोवर के तट पर अथवा धार्मिक स्थल पर एकत्रित होकर आयोजित करें।

नववर्ष के उद्घोष के पश्चात् समस्त उपस्थित आस्थावान् लोग पूर्व दिशा में मुख करके नीचे लिखे मंत्र से सूर्य को जल-पुष्प सहित अर्ध्य प्रदान करें।

आकृष्णेन रजसा व्वर्तमानो निवेशयन्नमृतम्मर्त्यञ्च ।

हिरण्ययेन सविता रधेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ।।

सूर्य को जलार्ध्य प्रदान करने के पश्चात् नीचे लिखे मंत्र से उपस्थान करें।

विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव यद् भद्रं तन्न आसुव ।

तश्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुश्चरत्

पश्येम शरद: शतम्, जीवेम शरद:शतम् शृणुयाम शरद: शतम् ।

प्रव्ववाम शरद: शुतम् अदीना: स्याम शरद: शतम् भूयश्र शरद: शतात्।

हे सविता देव, हमारे सभी दुखों को दूर करो। जिससे हमारा भला हो, वही प्राप्त कराओ। वह ज्ञानियों का हित करने वाला शुद्ध ज्ञान नेत्र पहले से उदित हुआ है। उसकी सहायता से सौ वर्षों तक नेत्रों से दिखाई देवे, सौ वर्षों का जीवन प्राप्त हो, सौ वर्षों तक श्रवण करें, सौ वर्षों तक अच्छी तरह से संभाषण करें, सौ वर्षों तक किसी के अधीन न रहे और सौ वर्षों से अधिक समय तक भी आनन्दपूर्वक रहें।

पश्चात् वैदिक संवत्सर मंत्र का पाठ करें

१. संवत्सरोसि परिवत्सरोसी दावत्सरोसीद् वत्सरोसि व्वत्सरोसि।

उखसस्ते कल्पन्ता-महोरात्रास्ते कल्पन्ता मर्द्धसास्ते कल्पन्ताम्मासास्ते कल्पन्तामृतवस्ते कल्पन्ता संव्वत्सरस्ते कल्प्पताम् ।

प्रेत्याएत्यै सञ्चाञ्च प्प्रसारय ।

सुपर्ण्ण चिदसि तया देवतयाङि्गरस्वद् धुवासीद।

२. समास्त्वाग्न ऋतवोव्वर्द्धयन्तु संवत्सरा ऋखयो जानि सत्या।

सन्दिव्ये नदीदिही रोचनेनव्विस्वा आभाहि प्प्रदिशस्चतस।।

सूर्य के द्वादश नामों के उच्चारण के साथ सामूहिक सूर्य नमस्कार करें।

वसन्तऋतु का स्मरण मंत्र से करें-

व्वसन्तेनऋतुना देवा व्वसवस्त्रिवृतास्तुता: ।

रथन्तरेण तेजसा हविरिन्द्रेव्वयोदधु ।।

सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी की पूजन- जलसहित गंध, अक्षत, पुष्प लेकर देश-काल का उच्चारण करके इस प्रकार संकल्प करें।

`मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य स्वजन परिजनसहितस्य आयुरारोग्यैश्चर्यादिसकल- शुभफलोत्तरोत्तराभिवृद्धयर्थं ब्रह्मादि संवत्सर देवतानां पूजनमहं करिष्ये।

ऐसा संकल्प करके स्वच्छ पाठ के ऊपर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर चावल से अष्टदल कमल बनाकर ब्रह्माजी की सुवर्ण प्रतिमा स्थापित करें। गणेश-अम्बिका पूजन के पश्चात् ` ब्रह्मणे नम:' मंत्र से ब्रह्माजी का आवाहनादि षोडशोपचार पूजन करें। प्रथम अवतार मत्स्य अवतार का भी पूजन करें।

ब्रह्माजी के लिए वैदिक मंत्र से ध्यान करें-

ब्रह्म जजान्प्रथमम्पुरस्ताद्धिसीमत सुरुचोव्वेन आव: ।

सबुध्न् याउपमा अस्यव्विष्ठा, सतश्चजोनिमसतश्चव्विव:।।

प्रथम मत्स्य अवतार का पूजन करके भागवत का यह मंत्र उच्चारण करें-

सोनुध्यातस्ततो राजाप्रादुरासीन्महार्णवे।

एक शृंर्गंधरो मत्स्यो हैमौ नियुत योजन: । भागवत ८।२४।४४

पूजन के पश्चात् विघ्न विनाश और वर्ष की सुमंगल भावना के लिए ब्रह्माजी की इस प्रकार प्रार्थना करें-

भगवैस्त्वत्प्रसादेन वर्षक्षेममिहास्तु मे ।

संवत्सरोपसर्गा मे विलयं यान्त्वशेषत: ।।

प्रार्थना के पश्चात् ध्वजपूजन, ध्वजवन्दन, कलशार्चन विधि विधान से करें। गीत, वाद्य, नृत्य, लोकगीतों के माध्यम से नववर्ष उत्साह और उमंग के साथ मनावें। आज के दिन नीम की पत्तियाँ खाने का विशेष महत्व है, लिखा है-

पारिभद्रस्य पत्राणि कोमलानि विशेषत:।

सुपुष्पाणि समानीय चूर्णंकृत्वा विधानत: ।

मरीचिं लवणं हिंगु जीरणेण संयुतम्।

अजमोदयुतं कुत्वा भक्षयेद्रोगशान्तये ।

नीम के कोमल पत्ते, पुष्प, काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा मिश्री और अजवाइन मिलाकर चूर्ण बनाकर आज के दिन सेवन करने से संपूर्ण वर्ष रोग से मुक्त रहते हैं। तीर्थ की आरती पूजन करके मंत्र पुष्पांजली और प्रसाद वितरण के पश्चात् नववर्ष का अभिनन्दन और परस्पर शुभकामना, मंगलकामना, नववर्ष मधुर मिलन आदि व्यवहारिक पक्ष के साथ पंचांग का फल श्रवण करें। नवसंवत्सर आरंभ के दिन नूतन वर्ष के पंचांग की पूजन, पंचांग का फल श्रवण, पंचांग वाचन और पंचांग का दान करने का उल्लेख धर्मशास्त्र में लिखा है। यह परंपरा आज भी गाँव-गाँव में प्रचलित है, गांव गुरु, गांवठी, पुरोहित आदि गांवों में पंचांग वाचन करते हैं। विद्वान का पूजन-अर्चन, ब्राह्मणों को भोजन, दक्षिणा वस्त्रादि से अभिनंदन करे।

अपने-अपने घरों में ध्वज लगावें (गुडी लगावें) ध्वज पूजन करें। घरों को दीप और विद्युत्सज्जा से आलोकित करें।

द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति:

पृथिवी: शांन्ति: आप: शान्ति:

औषधय: शान्ति: वनस्पतय:शान्ति:

विश्वेदेवा: शान्ति: ब्रह्मशान्ति:

सर्व शान्तिरेवशान्ति: सामाशान्तिरेधि ।

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खमाप्नुयात् ।।

ओम शान्ति: शान्ति: शान्ति:।

(लेखक देश के जाने माने ज्योतिषाचार्य हैं और महर्षि सांदीपनि के वंशज हैं। इनके परिवार द्वारा विगत कई पीढि़यों से पंचांग का प्रकाशन किया जा रहा है, जिसे नारायण विजय पंचांग के रूप में दुनिया भर में प्रतिष्ठा प्राप्त है)

गुड़ी पड़वा और इसका महत्व

चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा वर्ष प्रतिपदा कहलाती है। इस दिन से ही नया वर्ष प्रारंभ होता है। ‘युग‘ और ‘आदि‘ शब्दों की संधि से बना है ‘युगादि‘ । आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में ‘उगादि‘ और महाराष्ट्र में यह पर्व ‘ग़ुड़ी पड़वा‘ के रूप में मनाया जाता है।

कहा जाता है कि इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का निर्माण किया था। इसमें मुख्यतया ब्रह्माजी और उनके द्वारा निर्मित सृष्टि के प्रमुख देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षस, गंधवारें, ऋषि-मुनियों, नदियों, पर्वतों, पशु-पिक्षयों और कीट-पतंगों का ही नहीं, रोगों और उनके उपचारों तक का भी पूजन किया जाता है। इसी दिन से नया संवत्सर शुंरू होता है। अत इस तिथि को ‘नवसंवत्सर‘ भी कहते हैं।

शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस माना जाता है। जीवन का मुख्य आधार वनस्पतियों को सोमरस चंद्रमा ही प्रदान करता है। इसे औषधियों और वनस्पतियों का राजा कहा गया है। इसीलिए इस दिन को वर्षारंभ माना जाता है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में सारे घरों को आम के पेड़ की पत्तियों के बंदनवार से सजाया जाता है। सुखद जीवन की अभिलाषा के साथ-साथ यह बंदनवार समृद्धि, व अच्छी फसल के भी परिचायक हैं। ‘उगादि‘ के दिन ही पंचांग तैयार होता है। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने इसी दिन से सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना करते हुए ‘पंचांग ‘ की रचना की थी।

चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को महाराष्ट्र में गुड़ीपड़वा कहा जाता है। वर्ष के साढ़े तीन मुहुर्तों में गुड़ीपड़वा की गिनती होती है। शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन से होता है। इस अवसर पर आंध्र प्रदेश में घरों में ‘पच्चड़ी/प्रसादम‘ के रूप में बांटा जाता है। कहा जाता है कि इसका निराहार सेवन करने से मानव निरोगी बना रहता है। चर्म रोग भी दूर होता है। इस पेय में मिली वस्तुएं स्वादिष्ट होने के साथ-साथ आरोग्यप्रद भी होती हैं। महाराष्ट्र में पूरन पोली या मीठी रोटी बनाई जाती है। इसमें—गुढ़, नमक, नीम के फूल, इमली और कच्चा आममिलाया जाता है। गुढ़ मिठास के लिए, नीम के फूल कड़वाहट मिटाने के लिए और इमली व आम जीवन के खट्टे-मीठे स्वाद चखने का प्रतीक के रूप में होते हैं। भारतीय परंपरा में घरों में इसी दिन से आम खाने की आम का रस बनाने की और आम के रस की मिठाई बनाने की शुरुआत होती है।

गुड़ी पड़वा की लोक कथा:

शालिवाहन नामक एक कुम्हार के लड़के ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाई और उस पर पानी छिड़ककर उनमें प्राण फूँक दिए और इस सेना की मदद से शक्तिशाली शत्रुओं को पराजित किया। इस विजय के प्रतीक के रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ हुआ।

एक कथा यह भी है कि इसी दिन भगवान राम ने बाली के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई थी । बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर ध्वज (ग़ुड़ियां) फहराए थे। आज भी घर के आंगन में ग़ुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। इसीलिए इस दिन को गुड़ीपडवा नाम दिया गया।

गुड़ी पड़वा के साथ ही नौ दिन की चैत्र की नवरात्रि शुरु हो जाती है। नौ दिन तक चलने वाली यह नवरात्रि दुर्गापूजा के साथ-साथ, रामनवमी को राम और सीता के विवाह के साथ सम्पन्न होती है।

सोमवार, मार्च 05, 2012

"अगर आप नरेंद्र मोदी को हरा नहीं सकते, तो उन्हें अयोग्य ठहरा दो। - (काँग्रेसी रणनीति)"

‎"अगर आप नरेंद्र मोदी को हरा नहीं सकते, तो उन्हें अयोग्य ठहरा दो। - (काँग्रेसी रणनीति)"

पिछले एक दशक में गुजरातियों के जनमानस में बड़ा बदलाव आया है, दरअसल, 1969 के दंगे के बाद से गुजरात एक दंगा संभाव्य राज्य बन गया था। 1969 के दंगे के बाद, 1971, 1972 और 1973 में गुजरात में भीषण दंगे हुए। इसके बाद जनवरी 1982, मार्च 1984, मार्च से जुलाई 1985, जनवरी 1986, मार्च 1986, जनवरी 1987, अप्रैल 1990, अक्टूबर 1990, नवंबर 1990, दिसंबर 1990, जनवरी 1991, मार्च 1991, अप्रैल 1991, जनवरी 1992, जुलाई 1992, दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 में दंगे हुए। इस दौरान गुजरात कफ्र्यू, सामाजिक असुरक्षा और हिंदू-मुस्लिम समुदायों में घृणा का साक्षी रहा। दंगों का यह सिलसिला पूरे गुजरात में चलता रहा। 1993 में सूरत में भीषण दंगे हुए थे। मार्च 2002 के बाद से गुजरात में कोई दंगा नहीं हुआ है। वहां कफ्र्यू अतीत की बात बन गया है।

मोदी में बुराई ढूंढने वाले सेक्युलरिस्ट बिना सोचे-समझे इसका जवाब यह देते हैं कि 2002 के दंगों के बाद गुजरात के मुसलमान इतने भयभीत हो गए हैं कि वे हिंदुओं के अत्याचारों का विरोध कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। इससे तो यही लगता है कि दंगे 'मुस्लिम समुदाय' द्वारा शुरू किए जाते थे।

दस साल पहले गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस पर हुए जघन्य हमले से गुजरात में हिंसा भड़की में अब मुद्दा दंगाइयों और अमानवीय कृत्य के जिम्मेदार लोगों को दंडित करने का नहीं रह गया है, बल्कि एक व्यक्ति-मुख्यमंत्री 'नरेंद्र मोदी' को राजनीतिक निशाना बनाना भर रह गया है। अगर मोदी पर व्यक्तिगत रूप से दंगों को बढ़ावा देने के आरोप में मामला दर्ज हो जाता है तो न्याय हासिल हो जाएगा। एक अतिरिक्त लाभ के रूप में मोदी राजनीतिक परिदृश्य से गायब भी हो जाएंगे।
परिणामस्वरूप अगले लोकसभा चुनाव में उनके प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की संभावना भी खत्म हो जाएगी।

पिछले दस वर्षो में नरेंद्र मोदी ने गुजरात का कायापलट कर दिया है। 2002 में सांप्रदायिक माहौल में चुनाव जीतने के बाद उन्होंने अपना ध्यान गुजरात के तीव्र विकास पर केंद्रित किया। मोदी के प्रयासों से गुजरात की विकास दर दहाई में प्रवेश कर गई। मोदी एक आदर्श प्रशासक हैं, जो कम से कम खर्च में प्रभावी शासन का मंत्र जानते हैं।

जय हो नरेंद्र मोदी !!

बढ़ रहा है इस्लामी आतंकवाद का राजनैतिक दायरा

बढ़ रहा है इस्लामी आतंकवाद का राजनैतिक दायरा -

इन दिनों समस्त विश्व में जिस इस्लामवादी खतरे का सामना सर्वत्र किया जा रहा है उसके पीछे मूल प्रेरणा इस्लाम की राजनीतिक इच्छा ही है। समस्त विश्व में मुसलमानों के मध्य इस बात को लेकर सहमति है कि उनके व्यक्तिगगत कानून में कोई दखल ना दिया जाये और विश्व के अधिकांश या सभी भाग पर शरियत का शासन हो। इस विषय में इस्लामवादी आतंकवादियों और विभिन्न इस्लामी राजनीतिक या सामाजिक संगठनों में विशेष अंतर नहीं है। इसी क्रम में पिछ्ले दिनों कुछ घटनायें घटित हुईं जो वैसे तो घटित अलग-अलग हिस्सों में हुईं परंतु उनका सम्बन्ध राजनीतिक इस्लाम से ही था। सेनेगल की राजधानी डकार में इस्लामी देशों के सबसे बडे संगठन आर्गनाइजेशन आफ इस्लामिक कन्ट्रीज की बैठक हुई और उसमें दो मह्त्वपूर्ण निर्णय लिये गये जिनका आने वाले दिनों में समस्त विश्व पर गहरा प्रभाव पडने वाला है। इन दो निर्णयों के अनुसार

इस्लामी देशों के संगठन ने प्रस्ताव पारित किया कि समस्त विश्व में विशेषकर पश्चिम में इस्लामोफोब की बढती प्रव्रत्ति के विरुद्ध अभियान चलाया जायेगा और इस्लाम के प्रतीकों को अपमानित किये जाने पर उसके विरुद्ध कानूनी लडाई लडी जायेगी। इस प्रस्ताव में स्पष्ट कहा गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस्लाम के प्रतीकों को अपमानित करने या पैगम्बर को अपमानित करने के किसी भी प्रयास का डट कर मुकाबला किया जायेगा और कानूनी विकल्पों को भी अपनाया जायेगा।

दूसरे निर्णय के अनुसार मुस्लिम मतावलम्बियों को चेतावनी दी गयी कि वे शरियत के पालन के प्रति और जागरूक हों इस क्रम में सऊदी अरब के विदेशमंत्री ने अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हुए घोषणा की कि उनका देश आर्गनाइजेशन आफ इस्लामिक कन्ट्रीज के गरीब देशों को एक अरब यू.एस. डालर की सहायता देगा परंतु बदले में उन्हें अपने यहाँ शरियत के अनुसार शासन-प्रशासन सुनिश्चित करना होगा।

ये दोनों ही निर्णय दूरगामी प्रभाव छोडने वाले हैं। पिछ्ले कुछ वर्षों में पश्चिम ने अनेक सन्दर्भों में इस्लाम को चुनौती दी है और विशेष रूप से डेनमार्क की एक पत्रिका में पैगम्बर को लेकर कार्टून छपने के उपरांत पश्चिम में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और इस्लाम के विशेषाधिकार को लेकर व्यापक बहस आरम्भ हो गयी। पिछ्ले वर्ष कैथोलिक चर्च के धार्मिक गुरु पोप द्वारा इस्लाम के सम्बन्ध में की गयी कथित टिप्पणी के बाद इस बहस ने फिर जोर पकडा। इस बार इस्लामी सम्मेलन में इस्लाम के प्रतीकों पर आक्रमण की बात को प्रमुख रूप से रेखांकित किये जाने के पीछे प्रमुख कारण यही माना जा रहा है कि इस्लाम पश्चिम की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धांत को स्वीकार कर अपने अन्दर कोई परिवर्तन लाने को तैयार नहीं है। आने वाले दिनों में यह विषय इस्लाम और पश्चिम के मध्य टकराव का प्रमुख कारण बनने वाला है। पश्चिम को इस बात पर आपत्ति है कि जब उनके यहाँ सभी धर्मों पर मीमांसा और आलोचना की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आती है तो इस सिद्धांत की परिधि से इस्लाम बाहर क्यों है या उसे विशेषाधिकार क्यों प्राप्त है। इस्लामी देशों ने इस विषय पर अपना रूख पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है कि वे अपनी विशेषाधिकार की स्थिति को कायम रखना चाह्ते हैं। उधर पश्चिम में इस्लाम के विशेषाधिकार को ध्वस्त करने के अनेक प्रयास हो रहे हैं। हालैण्ड की संसद के एक सदस्य और आप्रवास विरोधी राजनीतिक दल फ्रीडम पार्टी के प्रमुख गीर्ट वाइल्डर्स ने कुरान पर अपने विचारों को लेकर एक फिल्म तक बन डाली है जो 28 मार्च को प्रदर्शित होने वाली है। पश्चिम की इस मानसिकता के बाद इस्लामी देशों के सबसे बडे संगठन द्वारा जिस प्रकार का अडियल रवैया अपनाया गया है उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि इस्लामी मतावलम्बी किसी भी नये परिवर्तन के किये तैयार नहीं हैं। इससे तो एक ही बात स्पष्ट होती है कि आने वाले दिनों में पश्चिम और इस्लाम का टकराव बढने ही वाला है।

इस सम्मेलन के दूसरे प्रस्ताव से भी राजनीतिक इस्लाम को प्रश्रय ही प्रोत्साहन मिलने वाला है। इस प्रस्ताव के अनुसार इस्लामी संगठन के उन सदस्य देशों को आर्थिक सहायता देते समय जो गरीब हैं यह शर्त लगायी जायेगी वे अपने शासन और प्रशासन में शरियत का पालन सुनिश्चित करें। इस शर्त से उन मुस्लिम देशों में धार्मिक कट्टरता बढ सकती है जिनमें विकास का सूचकांक काफी नीचे है और राजनीतिक इस्लाम और कट्टरपंथी इस्लाम में अधिक अंतर नहीं है। इन देशों के पिछ्डेपन का लाभ उन संगठनों को मिल सकता है जिन्होंने शरियत का पालन सुनिश्चित करने के लिये आतंकवाद और हिंसा का सहारा ले रखा है। इस्लामी देशों के इस सम्मेलन में शरियत पर जोर देकर राजनीतिक इस्लाम को प्रश्रय दे कर इस्लामी कट्टरता को नया आयाम ही दिया गया है। इस निर्णय के उपरांत यह फैसला कर पाना कठिन हो गया है कि इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद और इस्लामी राजनीति के इस संकल्प में अंतर क्या है। विशेषकर तब जबकि दोनों का उद्देश्य शरियत के आधार पर ही विश्व का संचालन करना और उसे प्रोत्साहित करना ही है। इस्लाम के विशेषाधिकार को कायम रखना और शरियत के अनुसार शासन और प्रशासन चलाने के लिये मुस्लिम देशों को प्रेरित करना मुस्लिम देशों की उस मानसिकता को दर्शाता है जहाँ वे परिवर्तन के लिये तैयार नहीं दिखते और इस्लामी सर्वोच्चता के सिद्धांत में विश्वास रखते हैं।

इसके अतिरिक्त दो और घटनायें पिछ्ले दिनों घटित हुईं जो इस्लाम को लेकर चल रही
पूरी बह्स को और तीखा बनाती हैं तथा इस्लामी बुद्धिजीवी और धार्मिक नेता इस्लामी आतंकवाद से असहमति रखते हुए भी उसके उद्देश्यों से सहमत प्रतीत होते दिखते हैं। इन दो घटनाओं में एक का केन्द्र उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ रहा जहाँ आतंकवाद विरोधी आन्दोलन के बैनर तले आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के कुछ प्रमुख सदस्यों ने निर्णय लिया कि वे प्रदेश के किसी भी जिले में बार काउंसिल के उस निर्णय का खुलकर विरोध करेंगे जिसमें वकील उन लोगों के मुकदमे लडने से इंकार कर देंगे जो किसी आतंकवादी घटना के आरोप में गिरफ्तार किये जाते हैं। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के इस फैसले के बाद वकीलों के संगठन बार काउंसिल में धर्म के आधार पर विभाजन हो गया है और इसके पीछे तर्क यह दिया गया है कि आतंकवादी घटनाओं के नाम पर निर्दोष मुसलमान युवकों को पकडा जा रहा है और उन्हें कानूनी सहायता मुसलमान वकील दिलायेंगे। ज्ञातव्य हो कि पिछ्ले कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश में अनेक आतंकवादी घटनायें घटित हुईं जिनमे अयोध्या स्थित रामजन्मभूमि पर आक्रमण, वाराणसी स्थित संकटमोचन मन्दिर पर आक्रमण प्रमुख हैं। इन आतंकवादी घटनाओं में जो आतंकवादी गिरफ्तार हुए उनका मुकदमा लडने से स्थानीय बार काउंसिल ने इंकार कर दिया। इसी के विरोध में न्यायिक प्रक्रिया को आतंकित करने के लिये पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश में अनेक न्यायालयों में एक साथ बम विस्फोट हुए और आतंकवादी संगठनों ने इसके कारण के रूप में आतंकवादियों का मुकदमा लडने से वकीलों के इंकार को बताया।

अब जिस प्रकार मुस्लिम वकील आतंकवादियों को निर्दोष बताकर सरकार और पुलिस बल पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं उससे उनकी नीयत पर शक होना स्वाभाविक है और यहाँ भी इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद और इस्लामी आन्दोलन के मध्य उद्देश्यों की समानता दिख रही है। इस निर्णय का व्यापक असर होने वाला है और विशेष रूप से तो यह कि जब समस्त विश्व इस्लामी बुद्धिजीवियों से आतंकवाद की इस लडाई में रचनात्मक सहयोग की आशा करता है तो उनका नयी-नयी रणनीति अपनाकर प्रकारांतर से सही इस्लाम के नाम पर चल रहे अभियान को हतोत्साहित करने के स्थान उसे बल प्रदान करने के लिये तोथे तर्कों का सहारा लेना इस आशंका को पुष्ट करता है कि इस्लामी आतंकवाद कोई भटका हुआ अभियान नहीं है।

इसी बीच एक और प्रव्रत्ति ने जोर पकडा है जिसकी आकस्मिक बढोत्तरी से देश की खुफिया एजेंसियों के माथे पर भी बल आ गया है। जिस प्रकार पिछ्ले दिनों उत्तर प्रदेश में सहारनपुर स्थित दारूल-उलूम्-देवबन्द ने देश भर के विभिन्न मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों और उलेमाओं को आमंत्रित कर इस्लाम के साथ आतंकवाद के सहयोग को नकारने का प्रयास किया उसने भी अनेक प्रश्न खडे किये। क्योंकि इस सम्मेलन में भी ऊपर से तो आतंकवाद के साथ इस्लाम को जोडने की प्रव्रत्ति की आलोचना की गयी परंतु जो विषय उठाये गये और मुस्लिम समाज की जिन चिंताओं को व्यक्त किया गया उनसे उन्हीं बिन्दुओं को समर्थन मिला जो इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद के हैं। दारूल उलूम देवबन्द के सम्मेलन के उपरांत इसी प्रकार के और सम्मेलन देश के अनेक हिस्सों में आयोजित करने की योजना बन रही है। आतंकवाद विरोध में मुस्लिम संगठनों की इस अचानक पहल की पहेली देश की खुफिया एजेंसियाँ सुलझाने में जुट गयी हैं। एजेंसियाँ केवल यह जानना चाहती हैं कि यह मुस्लिम संगठनों की स्वतःस्फूर्त प्रेरणा है या फिर इसके लिये बाहर से धन आ रहा है। यदि इसके लिये बाहर से धन आ रहा है या फिर यह कोई सोची समझी रणनीति है तो इससे पीछे के मंतव्य को समझना आवश्यक होगा। कहीं यह जन सम्पर्क का अच्छा प्रयास तो नहीं है ताकि इस्लाम के सम्बन्ध में बन रही धारणा को तो ठीक किया जाये परंतु आतंकवाद की पूरी बह्स और उसके स्वरूप पर सार्थक चर्चा न की जाये जैसा कि देवबन्द के सम्मेलन में हुआ भी। तो क्या माना जाये कि खतरा और भी बडा है या सुनियोजित है।

आर्गनाइजेशन आफ इस्लामिक कंट्रीज ने जहाँ अपने प्रस्तावों से संकेत दिया है कि इस्लामिक उम्मा आने वाले दिनों में अधिक सक्रिय और कट्टर भूमिका के लिये तैयार हो रहा है तो ऐसे में भारत में घटित होने वाली कुछ घटनायें भी उसी संकेत की ओर जाती दिखती हैं। समस्त मुस्लिम विश्व में हो रहे घटनाक्रम एक ही संकेत दे रहे हैं कि इस्लाम में शेष विश्व के साथ चलने के बजाय उसे इस्लाम के रास्ते पर लाने का अभियान चलाया जा रहा है। वास्तव में इस्लामी राजनीति के अनेक जानकारों का मानना है कि इस्लामी आतंकवाद और कुछ नहीं बल्कि फासिस्ट और कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित अधिनायकवादी आन्दोलन है जो अपने काल्पनिक विश्व को शेष विश्व पर थोपना चाह्ता है परंतु नये घटनाक्रम से तो ऐसा लगता है कि समस्त इस्लामी जगत इस काल्पनिक दुनिया को स्थापित करना चाह्ता है और उनमें यह भावना घर कर गयी है कि वर्तमान विश्व के सिद्धांतों को स्वीकार करने के स्थान पर कुरान और शरियत के आधार पर विश्व को नया स्वरूप दिया जाये। यही वह बिन्दु है जो राजनीतिक इस्लाम को इस्लामी आतंकवाद के साथ सहानुभूति रखने को विवश करता है क्योंकि दोनों का एक ही उद्देश्य है और वह है खिलाफत की स्थापना और समस्त विश्व के शासन प्रशासन का संचालन शरियत के आधार पर करना।
नर व्याघ्रो आर्यों सार्वभौमः