वर्तमान समय में तथाकथित स्वयंभू बुद्धिजीवी सनातन हिंदू परंपराओं पर प्रतिकूल टिप्पणियां कर इन्हें सामाजिक ताने-बाने के लिए घातक सिद्ध करने में लगे रहते हैं इन परंपराओं को ढोंग ढकोसला बताकर अंधविश्वास का बड़ा कारण बताते हैं लेकिन यही लोग अन्य धर्म जैसे इस्लाम ईसाई के रीति-रिवाजों पर कुछ नहीं बोलते । ऐसी ही एक हिंदू सनातन धर्म की धार्मिक एवं सामाजिक परंपरा मृत्युभोज है जिसे कुरीति के रूप में प्रचारित किया गया है लेकिन यह कुरीति नहीं है. समाज और रिश्तों को सँगठित करने के अवसर की पवित्र परम्परा है. हमारे पूर्वज हमसे ज्यादा ज्ञानी थे. आज मृत्युभोज का विरोध है, कल विवाह भोज का भी विरोध होगा, होली मत खेलो पानी व्यर्थ बहेगा, पटाखे मत जलाओ प्रदूषण फैलेगा, हर उस सनातन परंपरा का विरोध होगा जिससे रिश्ते और समाज मजबूत होता है. इसका विरोध करने वाले ज्ञानियों हमारे बाप-दादाओ ने रिश्तों को जिंदा रखने के लिए ये परम्पराएं बनाई हैं. ये सब बंद हो गए तो रिश्तेदारों, सगे संबंधियों, शुभचिंतकों को एक जगह एकत्रित कर मेल-जोल का दूसरा माध्यम क्या है? पहले जो दुःख में शामिल होते थे दूर-दूर से बैलगाड़ी जैसे साधनों से आते थे तब कोई होटल आदि खाने-पीने के साधन नहीं थे, तब भोजन आदि व्यवस्था उनके लिए कौन करेगा? आज भी सगे रिश्तेदार क्या दूसरों के यहाँ भोजन करेंगे? दुख की घड़ी में भी रिश्तों को कैसे प्रगाढ़ किया जाये ये हमारे पूर्वज अच्छे से जानते थे. हमारे बाप-दादा बहुत समझदार थे. वो ऐसे आयोजन रिश्तों को सहेजने और जिंदा रखने के किए करते थे. हाँ ये सही है की कुछ लोगों ने मृत्युभोज को हेकड़ी और शान-शौकत दिखाने का माध्यम बना लिया, कुछ समाजों में तो इसे अनिवार्य कर सामाजिक प्रतिष्ठा का मान बिंदु बना दिया गया मृत्यु भोज संपूर्ण समाज गांव के निवासियों के लिए अनिवार्य कर दिया गया आप पूड़ी सब्जी ही खिलाओ. कौन कहता है की 56 भोग परोसो. कौन कहता है कि 4/5 हजार लोगों को ही भोजन कराओ और दम्भ दिखाओ। परम्परा तो केवल सगे संबंधियों व यह कर्मकांड करवाने वाले ब्राह्मण को भोजन करवाने की थी। अगर आप की आर्थिक शक्ति मजबूत है तो पास पड़ोस के लोगों भी इसमें निमंत्रित किया जाता था क्योंकि यही वह लोग थे जिन्होंने ऐसे दुखद समय में दुखी परिवार की तन मन और धन से सहायता की थी उनके इस कार्य के प्रति सम्मान को दर्शाने के रूप में उन्हें भोजन पर निमंत्रित करना यह एक परंपरा बन गई थी। जिस घर में मृत्यु हुई है वह उसके दुख में दुखी हैं अर्थात उनका मुंह कड़वा है इसलिए इस मृत्यु भोज में मीठा बनाकर उस कड़वे मुख मीठा करना अर्थात उस दुख को भूल कर फिर से सामान्य जीवन जीना यह उसका निहितार्थ था। सामान्य तौर पर मृत्यु का कारण व्याधि, बीमारी या संक्रमण होता था, इसलिए जिस घर में मृत्यु होती थी वहां रसोई नहीं की जाती थी कुछ दिनों तक (३,५,१० या १३ दिन)।
इस दौरान पड़ोसी, मित्र और अन्य परिजन भोजन की व्यवस्था करते थे। (आज भी होता है)दशगात्र या तेरहवीं के बाद जब रसोई खुलती थी तब कृतज्ञता स्वरूप सभी संबंधियों, मित्रों और पड़ोसियों को भोजन पर बुलाया जाता था।
इस भोज में दिवंगत आत्मा की पसंद के पकवान बनाए जाने का भी रिवाज है। इस प्रकार उस व्यक्ति को स्मरण करते हुए सामान्य जीवन की शुरुआत होती थी जिसे आज प्रार्थना सभा भी कहते हैं। और ये सब स्वेच्छा और क्षमता के अनुसार होता है। इसमें कोई बुराई नहीं है। यह कोई ढोंग ढकोसला नहीं था । ऐसी अनेक परंपराएं जो हमारे जीवन के पारिवारिक सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक ताने-बाने को समृद्ध करती थी परी पुष्ट करती थी एसी अपनी उन परंपराओं का कट्टर समर्थक हूँ, जिनसे आपसी प्रेम, मेल-जोल और भाईचारा बढ़ता हो. कुछ कुतर्कों की वजह से हमारे बाप-दादाओं ने जो रिश्ते सहजने की परंपरा दी उसे मत छोड़ो, यही वो परम्पराएँ हैं जो दूर-दूर के रिश्ते-नाते को एक जगह लाकर फिर से समय-समय पर जान डालते हैं. सुधारना हो तो लोगों को सुधारो जो आयोजन रिश्तों की बजाय हेकड़ी दिखाने के लिए करते हैं. किसी परंपरा की कुछ विधियां यदि समय सम्मत नहीं हैं तो उसका सुधार किया जाये ना की उस परंपरा को ही बंद कर दिया जाये. हमारे बाप-दादा जो परम्पराएं देकर गए हैं रिश्ते सहेजने के लिए दे गये हैं. उसको बन्द करने का ज्ञान मत बाँटिये, वरना तरस जाओगे मेल-जोल को, बंद बिल्कुल मत करो, समय-समय पर शुभचिंतकों ओर रिश्तेदारों को एक जगह एकत्रित होने की परम्परा जारी रखो. ये संजीवनी है रिश्ते नातों को जिन्दा करने की। इसलिए इन परंपराओं के मूल कारणों को समझो समय अनुसार उन्हें बदलाव करना है तो बदलाव कर लो क्योंकि जो बातें प्राचीन समय में सही थी वह इस वर्तमान समय में सही हो यह आवश्यक नहीं है इसलिए समय अनुकूल बदलाव कर उन्हें जारी रखना हमारा परम कर्तव्य है।
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