मंगलवार, अगस्त 09, 2011

आरक्षण पर मीरा कुमार के नाम एक पत्र

बात निकलेगी तो...


आरक्षण पर मीरा कुमार के नाम एक पत्र

अनिल चमड़िया


प्रति,
अध्यक्ष
लोकसभा, संसद भवन
नई दिल्ली
मीरा कुमार

विषय- लोकसभा टीवी में सामाजिक न्याय के तहत आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था के लागू नहीं होने के संबंध में.

मैं आपको स्मरण कराना चाहता हूं कि दिल्ली के हिन्दी दैनिक समाचार पत्र में देश में दलितों की बुरी अवस्था को लेकर प्रकाशित मेरे एक लेख के बाद आपके दफ्तर से आपके निजी सचिव ने मुझे फोन किया था. उन्होंने बताया कि आप मुझ से मिलना चाहती है. आप उस समय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थी.

दलितों के सवालों से जुझते हिन्दी का एक लेख छपने के बाद भारत सरकार के मंत्री का फोन वैसे भी मुझे आश्चर्यचकित कर रहा था. लेकिन इससे मैंने आपकी संवेदनशीलता को समझने की कोशिश की. आपने उस लेख के अलावा दलितों की आम स्थिति को लेकर बातचीत की थी. उस समय के बाद अब तक मेरी आपसे दोबारा बातचीत नहीं हुई.

यह स्मरण कराने का उद्देश्य लोकसभा द्वारा सूचना के अधिकार के तहत मेरे पास आए जवाब की तरफ आपका ध्यान ले जाना है. लोकसभा का अपना टीवी चैनल है और मैंने उसमें कार्यरत लोगों के बाबत कुछ सूचनाएं मांगी थी. सूचनाओं (नंबर 1(299)/IC/11) में कंसलटेंट के रूप में कार्यरत 107 लोगों की सूची भी शामिल है.

मैंने ये सूचना भी मांगी थी कि क्या लोकसभा टीवी में दलितों, आदिवासियों एवं पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था को लागू किया गया है? और वास्तव में इसी सूचना ने मुझे भी आपको पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया.

लोकसभा से मिले जवाब के मुताबिक कंसलटेंट के रूप में काम लेने की स्थिति में आरक्षण लागू नहीं होता है. दूसरी तरफ स्थिति यह है कि सरकारी कर्मचारियों की सेवा के अलावा लोकसभा टीवी में कंसलटेंट ही रखे जाते हैं. एक तरह से लोकसभा टीवी को कंसलटेंट ही चलाते हैं. कम से कम संपादकीय विभाग के बारे में तो यह बात पूरी तरह से लागू होती है.

मैंने देखा कि राज्य सभा अपना टीवी चैनल शुरू करने जा रहा है. लेकिन जब राज्य सभा की ओर से विभिन्न पदों के लिए टेलीविजन क्षेत्र के लोगों को आवेदन करने के लिए कहा गया तो उसमें भी आरक्षण की व्यवस्था नहीं थी. तब मुझे आश्चर्य हुआ था और मैंने संबंधित अधिकारी का इसकी तरफ ध्यान खींचा था. लेकिन मुझे तब आश्चर्य हुआ था कि आरक्षण की व्यवस्था लागू नहीं करने के बावजूद राज्यसभा के अधिकारी निश्चिंत थे.

अब मुझे यह लगता है कि राज्यसभा टीवी में आरक्षण नहीं लागू करने की ताकत के रूप में लोकसभा टीवी में जारी व्यवस्था सक्रिय रही है. कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती है और कंसलटेंट एंगेज किए जाते हैं. यह समय शब्दों के खेल में भारतीय जनमानस के सचमुच उलझ जाने का रहा है.

सवाल यह है कि संविधान में आरक्षण की व्यवस्था है और संसद ने इसकी बहाली का फैसला भी किया है. लेकिन दूसरी तरफ संसद में लोकसभा टीवी भी है और वह कंसलटेंट के सहारे चल रहा है और वहां आरक्षण भी लागू नहीं है क्योंकि कंसलटेंसी तो नौकरी होती नहीं है. मैं ये समझने और जानने की कोशिश कर रहा था कि लोकसभा द्वारा 107 कंसलटेंट में क्या दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्ग के सदस्यों की कुछ संख्या शामिल है. संविधान में उन्हें नौकरी में अवसर देने की व्यवस्था की है. कंसलटेंसी के लायक उन्हें माना जा रहा है? लेकिन मेरी जानकारी में शायद दलित और आदिवासी नहीं हैं. कंसलटेंसी की व्यवस्था के लायक वे नहीं हुए हैं.

इस बारे में कुछ और बातें आपके सामने रखूं, उससे पहले मैं आपका ध्यान उस दिन की तरफ ले जाना चाहता हूं, जिस दिन आपका लोकसभा अध्यक्ष बनना तय हुआ था. उस दिन के समाचार पत्रों की तरफ भी आपका ध्यान गया होगा.

एक बड़े मीडिया ग्रुप के एक अंग्रेजी दैनिक ने 2 जून 2009 को लोकसभा अध्यक्ष के रूप में चयन किए जाने के बाद अपने संपादकीय में लिखा- Lok Sabha needs an effective speaker. इस शीर्षक के बाद उसमें लिखा है कि- The office of the Speaker of the Lok Sabha is not a decorative one . The Speaker decides the agenda of the house and conducts its business, including disciplining unruly members. It requires considerable executive ability, an adroit tongue and a cool head. In recent years it also required considerable lung power and stamina. Those who have seen Ms Kumar at work are bound to ask whether she has it in her power to deliver what her party expects of her. संपादकीय का यह अंतिम पैरा लिखने से पहले एक पंक्ति ये भी है- But it ( the Congress party) has one major weakness- it is a destroyer of institutions. यह कोई एकलौता समाचार पत्र नहीं था, जिसने इस स्वर में अपने पूर्वाग्रहों को सार्वजनिक किया था बल्कि ज्यादातर पत्रों का इसी तरह का रूख और स्वर था.

मैंने इसका उल्लेख यह बताने के लिए किया है कि जिस समाज व्यवस्था में इस तरह के पूर्वाग्रह सक्रिय हों, वहां मानवीय और सामाजिक न्याय की क्या उम्मीद की जा सकती है? हमसे आप ज्यादा जानती हैं कि देश में इस तरह के पूर्वाग्रहों का इतिहास कितना लंबा है. ऐसी स्थिति में यदि कोई यह कल्पना करे कि बिना किसी संवैधानिक व्यवस्था के इस देश में सामाजिक वर्गों को न्याय मिल सकता है तो यह बकवास से ज्यादा कुछ नहीं है. यहीं मैं आपका ध्यान लोकसभा टी वी में कंसलटेंट की व्यवस्था और उसकी पूरी प्रक्रिया की तरफ ले जाना चाहता हूं. आखिर इस तरह की व्यवस्था में क्यों नहीं, अपवाद की स्थिति को छोड़कर, दलित और आदिवासी सहजता से आ पाते हैं?

मैंने अपने दो मित्रों के साथ मिलकर 2006 में राष्ट्रीय मीडिया की सामाजिक पृष्ठभूमि का एक सर्वेक्षण किया था. सैतीस संस्थान इस सर्वेक्षण में शामिल थे. इसमें यह भी जानने की योजना थी कि मीडिया के संपादकीय विभागो में उपर से नीचे दस तक के पदों पर बैठने वालों की सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है. सामाजिक पृष्ठभूमि में जाति, धर्म और लिंग शामिल था.

हमें यह जानकारी मिली कि इन पदों पर एक भी दलित और आदिवासी नहीं हैं. सवाल है कि इन वर्गों के लिए निजी संस्थानों और सरकार की कंसलटेंसी वाली व्यवस्था में क्या फर्क है ? आखिर निजी संस्थानों में दलित आदिवासी चुनकर क्यों नहीं आते हैं ? मैं आपको, आपके लोकसभा अध्यक्ष के चयन के समय लिखे गए संपादकीय के उपरोक्त अंशों की तरफ एक बार फिर ले जाना चाहता हूं. वहां अध्यक्ष के बारे में एक निश्चित राय यह बनी हुई है कि उसे कितने भारी आवाज और मोटे गले का मनुष्य चाहिए. सदस्यों को नियंत्रित करने के लिए कितना बलशाली होना चाहिए.

योग्यता एक पैकेजिंग है और उस पैकेजिंग में दलित, आदिवासी का छंटना स्वभाविक प्रक्रिया का हिस्सा है.

मैं यह उम्मीद करता था कि कम से कम सरकारी संस्थानों में खासतौर से सार्वजनिक क्षेत्र के मीडिया में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को आरक्षण के संवैधानिक व्यवस्था का लाभ मिलेगा. लेकिन मैंने सार्वजनिक क्षेत्र के जिस मीडिया संस्थान से सूचना के अधिकार कानून के तहत जानकारी हासिल की, मुझे हैरानी हुई है. सार्वजनिक क्षेत्रों में भी ‘योग्यता’ का नया रास्ता निकाल लिया गया है. लोकसभा टीवी भी उसी रास्ते पर है.

अनिल चमड़िया

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