बुधवार, अगस्त 22, 2012

कोयला घोटाले का पूरा सच -----मीडिया ने इसे नही दिखाया |


कोयला घोटाले का पूरा सच -----मीडिया ने इसे नही दिखाया |
बापू कुटिया से लेकर टाइगर प्रोजेक्ट तक की जमीन तले कोयला खादान

इंदिरा गांधी ने 1973 में कोयला खदानों का ऱाष्ट्रीयकरण किया तो मनमोहन सिंह ने 1995 में ही बतौर वित्त मंत्री कोल इंडिया लिमिटेड से कहा कि सरकार के पास देने के धन नहीं है। और उसके बाद कोल इंडिया में दोबारा ठेके पर काम होने लगा। और पावर-स्टील उघोग के लिये कोयला खादान एक बार फिर निजी हाथों में जाने लगा। असल में कैग की रिपोर्ट इन्ही निजी हाथों में खदान देने के लिये अगर बोली ना लगाये जाने पर अंगुली उठाकर 1.86 लाख करोड़ के राजस्व के चूने की बात कर रही है। तो इससे इतर एक दूसरा सवाल इस घेरे में छिप भी रहा है और वह है खादान का लाइसेंस पाने की होड़ में ही कमाई खोजना। और पर्यावरण को ताक पर रखकर खदानों को बांटना। क्योंकि टाइगर रिजर्व के क्षेत्र में भी कोयला खनन होगा और झारखंड से लेकर बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों में आदिवासियों की जमीन पर कोयला खनन की इजाजत देकर आदिवासियों की कई प्रजातियो के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगेगा। इतना ही नहीं, महाराष्ट्र के वर्धा में जिस बापू कुटिया के लेकर देश संवेदनशील रहता है, उस वर्धा में साठ वर्ग की जमीन के नीचे खदान खोद दी जायेगी। असल में विकास की जिन नीतियों को सरकार लगातार हरी झंडी दे रही है उसमें पावर प्लांट से लेकर स्टील उघोग के लिये कोयले की जरुरत है। और कोयले से करोड़ों का वारा-न्यारा कर मुनाफा बनाने में चालिस से ज्यादा कंपनिया सिर्फ इसीलिये बन गयी जिससे उन्हें कोयला खादान का लाइसेंस मिल जाये। और 2005-09 के दौरान कोयला खादानों के लाइसेंस का बंदरबांट जिस तर्ज पर जिन कंपनियों को हुआ है, अगर उसकी फेरहिस्त देखे और लाइसेंस लेने-देने के तौर तरीके देखे तो पहला सवाल यही उठेगा कि लाइसेंस ले कर लाइसेंस बेचना भी धंघा हो गया। क्योंकि न्यूनतम पांच करोड़ के खेल में जब किसी भी कंपनी को एक ब्रेकेट खादान मिलता रहा है तो 2005-09 के दौरान देश भर में डेढ़ हजार से ज्यादा कोयला खदान के ब्रेकेट का लाइसेंस दिया गया है तो इन सभी को जोडने पर कितने लाख करोड़ के राजस्व का चूना लगा होगा इसकी कल्पना भर ही की जा सकती है। असल में पहले कोयला मंत्रालय खादानो को बांटता था और लाइसेंस लेने के बाद कंपनियो को पर्यावरण मंत्रालय से एनओसी लेना पड़ाता था। लेकिन अब जिसे भी कोयले खादान का लाईसेंस मिलेगा, उसे किसी मंत्रालय के पास जाने की जरुरत नहीं रहेगी। क्योंकि मंत्रियो के समूह में पर्यावरण मंत्रालय का एक नुमाइंदा भी रहेगा। लेकिन यह हर कोई जानता है कि मंत्रियों के फैसले नियम-कायदों से इतर बहुमत पर होते हैं। यानी पर्यावरण मंत्रालय ने अगर यह चाहा कि वर्धा में गांधी कुटिया के इर्द-गिर्द कोयला खादान ना हो या फिर किसी टाइगर रिजर्व में कोयला खादान ना हो तो भी उसे हरी झंडी मिल सकती है क्योकि मंत्रियों के समूह में वित्त ,वाणिज्य और कृर्षि मंत्री की इसपर सहमति हो कि कोयला खदानों के जरीये ही उघोग के क्षेत्र में विकास हो सकता है।

मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद बीते 2004 से 2009 तक में 342 खदानों के लाइसेंस बांटे गये। जिसमें 101 लाइसेंसधारकों ने कोयले का उपयोग पावर प्लांट लगाने के लिये लिया। लेकिन इन पांच सालों में इन्हीं कोयला खादानो के जरीये कोई पावर प्लांट नया नही आ पाया। और इन खदानों से जितना कोयला निकाला जाना था अगर उसे जोड़ दिया जाये तो देश में कही भी बिजली की कमी होनी नहीं चाहिये। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यानी एक सवाल खड़ा हो सकता है कि क्या कोयला खदान के लाइसेंस उन कंपनियों को दे दिये गये, जिन्होने लाईसेंस इसी लिये लिये कि वक्त आने पर खादान बेचकर वह ज्यादा कमा लें। तो यकिनन लाइसेंस जिन्हें दिया गया उनकी सूची देखने पर साफ होता है कि खदान का लाइसेंस लेने वालों में म्यूजिक कंपनी से लेकर गुटका, गंजी और अखबार निकालने से लेकर मिनरल वाटर का धंधा करने वाली कंपनी भी है।

इतना ही नही, दो दर्जन से ज्यादा ऐसी कंपनियां हैं, जिन्हे ना तो पावर सेक्टर का कोई अनुभव है और ना ही कभी खादान से कोयला निकालवाने का कोई अनुभव। कुछ लाइसेंस धारकों ने तो कोयले के दम पर पावर प्लांट का भी लाइसेंस ले लिया और अब वह उन्हें भी बेच रहे हैं। मसलन सिंगरौली के करीब तीन पावर प्लांट और छह खदाने बिकने को तैयार हैं। एस्सार इन्हें खरीदना चाहता है और जो बेचना चाहते है वह लगायी जा रही कीमत से ज्यादा मुनाफा चाहते हैं। वही बंगाल, महाराष्ट्र,छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, गोवा से लेकर उडिसा तक कुल 9 राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने कामिशियल यूज के लिये कोयला खादानो का लाइसेंस लिया है। और हर राज्य खदानों को या फिर कोयले को उन कंपनियों या कारपोरेट घरानो को बेच रहा है, जिन्हें कोयले की जरुरत है। इस पूरी फेरहिस्त में डोमको स्मोक लैस फ्यूल लिं., श्री बैघनाथ आर्युवेद भवन लिं, जय बालाजी इडस्ट्री लिमेटेड, अक्षय इन्वेस्टमेंट लिं, महावीर फेरो, प्रकाश इडस्ट्री, पवनजय स्टील, श्याम ओआरआई लि.. समेत 42 कंपनिया ऐसी हैं, जिन्होंने कोयला खदान का लाइसेंस लिया है लेकिन उन्होंने कभी खादानो की तरफ झांका भी नहीं। और इनके पास कोई अनुभव ना तो खदानो को चलाने का है और ना ही खदानो के नाम पर पावर प्लांट लगाने का। यानी लाइसेंस लेकर अनुभवी कंपनी को लाइसेंस बेचने का यह धंधा भी आर्थिक सुधार का हिस्सा है। ऐसे में मंत्रियों के समूह के जरीये फैसला लेने पर सरकार ने हरी झंडी क्यो दिखायी यह समझना भी कम त्रासदीदायक नहीं है। जयराम रमेश ने 2010 में सिर्फ एक ही कंपनी सखीगोपाल इंटीग्रेटेड पावर कंपनी लिं, को ही लाइसेंस दिये जाने पर सहमती जतायी। लेकिन उनके पर्यावरण मंत्री बनने से पहले औसतन हर साल 35 से 50 लाइसेंस 2005-09 के दौरान बांटे गये। असल में जयराम रमेश के बतौर पर्यावरण मंत्री की आपत्तियों को भी समझना होगा कि उन्होंने अडानी ग्रूप का लाइसेंस इसलिये रद्द किया क्योकि वह ताडोबा के टाइगर रिजर्व के घेरे में आ रहा था। लेकिन अब हालात उल्टे है क्योकि इस वक्त कोयला मंत्रालय के पास 148 जगहों के खदान बेचने के लिये पड़े हैं। इसमें मध्यप्रदेश के पेंच कन्हान का वह इलाका भी है जहा टाइगर रिजर्व है। पेंच कन्हान के मंडला ,रावणवारा,सियाल घोघोरी और ब्रह्मपुरी का करीब 42 वर्ग किलोमीटर में कोयला खदान निर्धारित किया गया है । इसपर कौन रोक लगायेगा यह दूर की गोटी है। लेकिन कोयला खदानो को जरीये मुनाफा बनाने का खेल वर्धा को कैसे बर्बाद करेगा, इसकी भी पूरी तैयारी सरकार ने कर रखी है। महाराष्ट्र में अब कही कोयला खादान बेचने की जगह बची है तो वह वर्धा है। इससे पहले वर्धा में बापू कुटिया के दस किलोमीटर के भीतर पावर प्लांट लगाने की हरी झंडी राज्य सरकार ने दी। तो अब बापू कुटिया और विनोबा भावे केन्द्र की जमीन के नीचे की कोयला खादान का लाइसेंस बेचने की तैयारी हो चुकी है। वर्धा के 14 क्षेत्रों में कोयला खादान खोजी गयी है।

किलौनी, मनौरा,बांरज, चिनौरा,माजरा, बेलगांवकेसर डोगरगांव,भांडक पूर्वी,दक्षिण वरोरा,जारी जमानी, लोहारा,मार्की मंगली से लेकर आनंदवन तक का कुल छह हजार वर्ग किलोमिटर से ज्यादा का क्षेत्र कोयला खादान के घेरे में आ जायेगा। यानी वर्धा की यह सभी खादानो में जिस दिन काम शुरु हो गया उस दिन से वर्धा की पहचान नये झरिया के तौर पर हो जायेगी। झरिया यानी झारखंड में धनबाद के करीब का वह इलाका जहा सिर्फ कोयला ही जमीन के नीचे धधकता रहता है। और यह शहर कभी भी ध्वस्त हो सकता है इसकी आशंका भी लगातार है। खास बात यह है कि कोयला मंत्रालय ने वर्धा की उन खादानो को लेकर पूरा खाका भी दस्तावेजों में खींच लिया है। मसलन वर्धा की जमीन के नीचे कुल 4781 मिट्रिक टन कोयला निकाला जा सकता है। जिसमें 1931 मिट्रिक टन कोयला सिर्फ आनंदवन के इलाके में है। इसी तरह आदिवासियों के नाम पर उडीसा में खादान की इजाजत सरकार नहीं देती है लेकिन कोयला खदानों की नयी सूची में झरखंड के संथालपरगना इलाके में 23 ब्लाक कोयला खादान के चुने गये हैं। जिसमें तीन खादान तो उस क्षेत्र में है जहा आदिवासियो की लुप्त होती प्रजाति पहाड़िया रहती है। राजमहल क्षेत्र के पचवाडा,और करनपुरा के पाकरी व चीरु में नब्बे फीसदी आदिवासी हैं। लेकिन सरकार अब यहा भी कोयला खादान की इजाजत देने को तैयार है। वहीं बंगाल में कास्ता क्षेत्र में बोरेजोरो और गंगारामाचक दो ऐसे इलाके हैं जंहा 75 फिसदी से ज्यादा आदिवासी हैं। वहां पर भी कोयला खादाना का लाइसेंस अगले चंद दिनो में किसी ना किसी कंपनी को दे दिया जायेगा। कैग रिपोर्ट आने के बाद किसी घोटाले का कोई आरोप कोयला मंत्रालय पर ना लगे इसके लिये 148 कोयला खदानो के लिये अब बोली लगाने वाला सिस्टम लागू किया जा रहा है। लेकिन जिन इलाको में कोयला खोजा गया है इस बार वहीं इलाके कटघरे में हैं

सोमवार, अगस्त 13, 2012

(एक हजार हिन्दुओं का कत्ल करो – राजदीप सरदेसाई)

राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार मुस्लिमपरस्त क्यों होते हैं?

(एक हजार हिन्दुओं का कत्ल करो – राजदीप सरदेसाई)
विष्णुगुप्त
आईबीएन सेवन के चीफ राजदीप सरदेसाई की असम दंगे पर एक खतरनाक, वीभत्स, रक्तरंजित और पत्रकारिता मूल्यों को शर्मसार करने वाली टिप्पणी से आप अवगत नहीं होना चाहेंगे? राजदीप सरदेसाई ने असम में मुस्लिम दंगाइयों द्वारा हिन्दुओं की हत्या पर खुशी व्यक्त करते हुए सोसल साइट ‘टिवट्‘ पर टिवट किया कि जब तक असम दंगे में एक हजार हिन्दू नहीं मारे जायेंगे तब तक राष्ट्रीय चैनलों पर असम दंगे की खबर नहीं दिखायी जानी चाहिए और हम अपने चैनल आईबीएन सेवन पर असम दंगे की खबर किसी भी परिस्थिति में नहीं दिखायेंगे ? अपनी इस टिप्पणी पर बाद में राजदीप सरदेसाई ने माफी मांगी पर उनकी असली मानसिकता और देश के बहुसंख्यक संवर्ग के प्रति उनकी घृणा प्रदर्शित करता है। क्या किसी पत्रकार को इस तरह की टिप्पणी करने या फिर मानसिकता रखने का कानूनी अधिकार है? क्या इस करतूत को दंगाइयों को उकसाने का दोषी नहीं माना जाना चाहिए। कानून तो यही कहता है कि ऐसी टिप्पणी करने वाले और मानसिकता रखने वाले को दंडित किया जाना चाहिए ताकि देश और समाज कानून के शासन से संचालित और नियंत्रित हो सके। पर सवाल यह उठता है कि राजदीप सरदेसाई को दंडित करेगा कौन?
हिन्दुओं की हत्या करने के लिए मुस्लिम दंगाइयों को उकसाने वाली टिप्पणी पर राजदीप सरदेसाई से सवाल पूछेगा तो कौन? सत्ता, पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिक तक हिन्दुओ के प्रसंग पर उदासीनता की स्थिति में होती है। ऐसा इसलिए होता कि सत्ता, पुलिस, प्रशासन, न्यायपालिका को मालूम है कि हिन्दु अपनी अस्मिता व अपने संकट को लेकर एकजुट होंगे नहीं और न ही हिंसा का मार्ग अपनायेंगे और मतदान के समय जाति और क्षेत्र के आधार पर मुस्लिम परस्त राजनीतिक पार्टियो के साथ खड़े होने की मानसिकता कभी छोंडेगे नहीं? फिर संज्ञान लेने की जरूरत ही क्या? इसीलिए राजदीप सरदेसाई की टिप्पणी पर न तो सरकार कोई कदम उठायी और न ही गुजरात दंगा पर गलत-सही सभी तथ्यो पर लेने वाली न्यायपालिका ने स्वतह संज्ञान लिया। हिन्दू संवर्ग की ओर से गंभीर प्रतिक्रिया का न होना भी अपेक्षित ही है। ऐसी स्थिति में हिन्दू अस्मिता भविष्य में भी अपमानित होती रहेगी और हिन्दुओं को तथाकथित अल्पसंख्यक मुस्लिम जेहादियों का शिकार होना पडे़गा। यहां विचारणीय विषय यह है कि क्या असम दंगा के लिए बोड़ो आदिवासी जिम्मेदार है? बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुस्लिम जेहाद के प्रति राष्ट्रीय मीडिया क्यों और किस स्वार्थ के लिए उदासीनता पसारती है?
अगर यह टिप्पणी मुस्लिम आबादी के खिलाफ होती तब होता क्या?
अगर एक हजार हिन्दुओं की हत्या करने के लिए मुस्लिम दंगाइयों को उकसाने वाली टिप्पणी की जगह राजदीप सरदेसाई ने एक हजार मुस्लिम आबादी की हत्या करने वाली टिप्पणी की होती तब होता क्या? फिर देश ही नहीं बल्कि मुस्लिम देशों सहित पूरी दुनिया में तहलका मच जाता। पाकिस्तान, ईरान, सउदी अरब,मलेशिया, तुर्की और लेबनान जैसे मुस्लिम देश भारत को धमकियां देना शुरू कर देते। भारत में मुस्लिम सुरक्षित नहीं है कि खतरनाक कूटनीति शुरू हो जाती। अलकायदा जैसे सैकड़ो मुस्लिम आतंकवादी संगठन भारत के खिलाफ जेहाद शुरू कर देते। अमेरिका-यूरोप के मानवाधिकार संगठन भारत में मुसलमानों की सुरक्षा को लेकर आग उगलना शुरू कर देते। यह तो रही मुस्लिम और अमेरिका-यूरोप की ओर से उठ सकने वाली प्रतिक्रिया। देश के अंदर मुस्लिम आबादी धरने-प्रदर्शन की बाढ़ ला देती। मुस्लिम नेता और संगठन सड़कों पर उतर जाते। तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग आसमान सर पर उठा लेते और सरकार से टिप्पणीकर्ता व्यक्ति को जेल में डालने की न केवल मांग करते बल्कि सरकार की आलोचना से भी पीछे नहीं हटते। क्या इतनी आलोचना और धमकियों को भारत सरकार झेल पाती ? उत्तर है कदापि नहीं। मुस्लिम आबादी को संतुष्ट करने के लिए टिप्पणीकर्ता को आतंकवादी धाराओ के अंदर जेल में ठूस दिया जाता। ऐसी स्थिति में राजदीप सरदेसाई के चैनल पर भी ताला लग गया होता? शेयरधारक और राजदीप सरदेसाई के विदेशी गाॅडफादर चैनल से अपनी हिस्सेदारी वापस लेने के लिए तैयार हो जाते । राजदीप सरदेसाई जेल की काल कोठरी में कैद हो जाते।
गोधरा भूल क्यों जाते हैं?
गुजरात दंगे को लेकर राजदीप सरदेसाई सहित राष्ट्रीय मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी संवर्ग हिन्दुओं को आतंकवादी साबित करने की कोई कसर नहीं छोड़ते। गुजरात दंगो का मनगढंत व अतिरंजित प्रसारण व लेखन हुआ है। माना कि गुजरात दंगा जैसी प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए। लेकिन जब गुजरात दंगे की बात होती है और राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार गुजरात दंगे की बात करते हैं तब गोधरा नरसंहार को क्यों भुला दिया जाता है। निहत्थे कारसेवकों की हत्या क्यों नहीं इन पत्रकारों को दिखता है। गुजरात दंगों की एक बहुत बड़ी सच्चाई यह है कि जिस तरह से राष्ट्रीय मीडिया ने गोधरा कांड के बाद हिन्दुओं को ही आतंकवादी और जेहादी बताने की पूरी कोशिश की थी। कारसेवकों का नरसंहार करने वाले मुस्लिम जेहादियों की पड़ताल करने की जरूरत महसूस नहीं की गयी कि इनके प्रेरणास्रोत मजहबी संगठन कौन-कौन है? गोधरा कांड की साजिश के पीछे की सच्चाई क्या थी। अगर राष्ट्रीय मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी जमात ने संयम बरतते और हिन्दुओं को आक्रोशित नहीं करते तब गुजरात में मुस्लिम आबादी के खिलाफ उतनी बड़ी प्रतिक्रिया होती नहीं। मुस्लिम आबादी के प्रति गुस्सा जगाने का गुनहगार राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार और उनके चैनल हैं।
असम दंगा बंग्लादेशी मुसलमानों की है करतूत…
खासकर बोड़ो आदिवासियों की अस्मिता और उनके जीने के संसाधनों पर मजहबी जेहाद चिंताजनक है। असम दंगा के लिए आॅल बोड़ो मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन को दोषी माना गया है। बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद के उप प्रमुख खम्मा गियारी ने साफतौर पर कहा है कि असम के बोडोलैंड में जारी हिंसा के लिए आॅल बोड़ो मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन की मजहबी मानसिकता जिम्मेदार है और आॅल बोड़ो मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन की मजहबी मानसिकता के पोषक तत्व विदेशी शक्तियां हैं। असम के लोग यह जानते हैं कि आॅल बोड़ो मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन की गतिविधियां क्या हैं और इनका असली मकसद क्या हैं? बांग्लादेशी घुसपैठियों का यह संगठन है। बांग्लादेश से घुसपैठ कर आयी आबादी ने अपनी राजनीतिक सुरक्षा और शक्ति के संवर्द्धन के लिए मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन सहित कई राजनीतिक व मजहबी शाखाएं गठित की है। मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन का काम शिक्षा का प्रचार-प्रसार या शिक्षा से जुड़ी हुई समस्याएं उठाने की नहीं रही है। उनका असली मकसद मजहबी मानसिकता का पोषण और प्रचार-प्रसार रहा है। इसके अलावा बांग्लादेश से आने वाली मुस्लिम आबादी को बोड़ोलैंड सहित अन्य क्षेत्रों में बसाना और उन्हे सुरक्षा कवच उपलब्ध कराना है। बोड़ोलैंड क्षेत्र की मूल आबादी के खिलाफ लव जेहाद जैसी मानसिकता भी एक उल्लेखनीय प्रसंग है। जिसके कारण बोड़ोलैंड की मूल आबादी और मुस्लिम संवर्ग के बीच तलवार खिंची हुई है। बांग्लादेश से आने वाली आबादी के कारण बोड़ोलैंड की आबादी अनुपात तो प्रभावित हुआ है और सबसे खतरनाक स्थिति यह है कि बोड़ोलैंड का परंपरिक रीति-रिवाज और अन्य संस्कृतियां खतरे में पड़ गई हैं।
असम दंगा मुस्लिम आबादी की करतूत नहीं होती तब ?
असम दंगे में मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन और बांग्लादेशी घुसपैठिये आबादी की भूमिका स्थापित होने और हताहतों में बोड़ोलैंड की मूल आबादी की संख्या अधिक होने के कारण ही राष्ट्रीय मीडिया ने उदासीनता पसारी और इतनी बड़ी आग पर चुप्पी साधने जैसी प्रक्रिया अपनायी। अगर मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन और बांग्लादेशी मुस्लिम आबादी की दंगाई भूमिका नहीं होती तो राजदीप सरदेसाई सहित राष्ट्रीय मीडिया चीख-चीख कर पूरे देश की जनता को बताता कि देखो असम मे मुस्लिम आबादी के खिलाफ हिन्दुओ ने कत्लेआम किया है, हिन्दू आतंकवादी है और हिन्दुओं से देश की शांति को खतरा है? मीडिया चैनलों पर अरूधंति राय, तिस्ता शीतलवाड़, हर्ष मंदर, जावेद आनंद और दिलीप पड़गावरकर जैसे पत्रकार व एक्टिविस्ट बैठकर और प्रिंट मीडिया में काॅलम लिख कर हिन्दुओं को आतंकवादी और दंगाई ठहराने की कोई कसर नहीं छोड़ते। पर असम दंगे पर अरूंधति राय, तिस्ता शीतलवाड़, जावेद आनंद, दिलीप पंड़गावरकर जैसे लोग आज चुप्पी साधे क्यों बैठे हैं? राष्ट्रीय मीडिया और तथाकथित बुद्धीजीवी सिर्फ असम के दंगे पर ही अपनी मुस्लिम परस्ती नहीं दिखायी है। कश्मीर में मुस्लिम आतंकवादियों द्वारा कश्मीरी पंडितों की हत्या और उन्हें अपनी मातृभूमि से बेदखल करने की राजनीतिक कार्रवाई पर राष्ट्रीय मीडिया और तथाकथित बुद्धीजीवी क्या कभी गंभीर हुए हैं। राष्ट्रीय मीडिया और तथाकथित बुद्धीजीवी संवर्ग कश्मीर की आतंकवादियों की हिंसक राजनीति को आजादी की लड़ाई करार देते हैं। कुछ ही दिन पूर्व उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले कोसी कलां क्षेत्र में मुस्लिम आबादी ने हिन्दुओं के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा फैलायी थी। कोसी कलां क्षेत्र में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार की घटना उत्तर प्रदेश विधान सभा में उठी पर राष्ट्रीय मीडिया ने मुस्लिम आबादी द्वारा हिन्दुओं के घरों और दुकानों को जलाने जैसी हिंसक घटना को साफतौर पर ब्लैक आउट कर दिया था। अभी हाल ही में बरेली में कांवरियों के साथ मुस्लिम आबादी ने बदसूलकी की और दंगा फैलायी गयी। कई दिनों तक बरेली में कर्फयू लगा रहा। पर राष्ट्रीय मीडिया बरेली में कर्फयू और कांवरियों के साथ हुई बदसूलकी को ब्लैक आउट कर दिया।
जनसांख्यिकी असंतुलन पर मीडिया का संज्ञान क्यों नहीं….
राष्ट्रीय मीडिया और सरकार असम की खतरनाक होती जनसांख्यिकी समस्या को नजरअंदाज करती आयी है। जबकि जरूरत जनसंाख्यिकी संतुलन पर गंभीरता से विचार कर घुसपैठ की समस्या पर रोक लगाने की थी। असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण आबादी का अनुपात तेजी से अनियंत्रित हो रहा है। असम के कई जिले बांग्लादेशी मुस्लिम आबादी की बहुलता के चपेट में आ गये हैं। बांग्लादेशी मुस्लिम आबादी ने अपनी राजनीतिक स्थिति भी मजबूत कर ली है। कभी बांग्लादेशी मुस्लिम आबादी के खिलाफ असम में छात्रो का एक बड़ा विख्यात अभियान और आंदोलन चला था। छात्रों के इसी अभियान की गोद से असम गण परिषद और प्रफुल मंहत जैसे राजनीतिक ताकत का जन्म हुआ था। दुर्भाग्य से असम गण परिषद खुद हासिये पर खड़ा है और बांग्लादेशी मुस्लिम आबादी की घुसपैठ का सवाल भी अब बे अर्थ होता चला जा रहा है। कांग्रेस वोट और सत्ता के लिए बांग्लादेशी घुसपैठियों क¨ संरक्षण देती है। असम में कांग्रेसी की सरकार शह और संरक्षण के कारण ही मुस्लिम आबादी की दंगायी और मजहबी मानसिकता का विस्तार हो रहा है। असम की कांग्रेसी सरकार द्वारा बोड़ोलैंड में हुए दंगों पर कड़ाई नहीं दिखाने के प्रति कारण भी यही है।
राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार मुस्लिम परस्त क्यो होते हैं…
राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार मुस्लिम परस्त क्यों होते हैं? राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार हिन्दू अस्मिता को अपमानित करने के लिए क्यों उतारू होते हैं? मुस्लिम आतंकवादियों और कश्मीर के राष्टद्रोहियांे की चरण वंदना क्यों करते हैं राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार? इसके पीछे करेंसी का खेल है। पैसे के लिए व विदेशी दौरे हासिल करने के लिए देश के पत्रकार और बुद्धिजीवी हिन्दुत्व के खिलाफ खेल-खेलते हैं और देश की अस्मिता को अपमानित करने जैसी राजनीतिक-कूटनीतिक प्रक्रिया अपनाते हैं। फई प्रसंग आपको याद नहीं है तो मैं याद करा देता हूं। फई आईएसआई का एजेंट है। फई के इसारे पर भारतीय पत्रकार और बुद्धिजीवी लट्टू की तरह नाचते थे। फई पर अमेरिका में आईएसआई एजेंट होने के आरोप में मुकदमा चल रहा है। फई के पैसे पर बडे़-बड़े पत्रकार राज करते थे और फई द्वारा भारत विरोधी सेमिनारों के आयोजन मे अमेरिका जाकर ऐस-मौज करते थे। फई के पैसे और फई के प्रायोजित अमेरिकी दौरे पर जाने वाले पत्रकारों में कुलदीप नैयर जैसे पत्रकार भी रहे हैं। राष्ट्रीय मीडिया के बड़े स्तंभों में कहीं आईएसआई या फिर मुस्लिम जेहादियों का पैसा तो नहीं लगा है? ईरान-सउदी अरब सहित यूरोप के मुस्लिम संगठनों से भारत को इस्लामिक देश में तब्दील करने के लिए अथाह धन आ रहा है। अथाह धन मुस्लिम आबादी के पक्ष में खड़ा होने के लिए मीडिया पर खर्च नहीं हो रहा होगा? मीडिया को अपने वीभत्स, रक्तरंजित स्वार्थों के लिए हथकंडा के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अलकायदा जैसे संगठनों ने सबसे पहले मीडिया को ही अपना चमचा बनाया था। कश्मीर में आतंकवादियों की जमात ‘हुर्रियत ‘ की सबसे बड़ी ताकत देश का राष्ट्रीय मीडिया ही है। यह एक सच्चाई है। हुर्रियत को आईएसआई और विदेशों से आतंकवादी और भारत विरोधी अभियान चलाने के लिए धन मिलता है। हुर्रियत के नेता अपने मजहबी स्वार्थो की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय मीडिया को करेंसी की ताकत लट्टू की तरह नचाते हैं।
स्वयं भू निगरानी संगठन मौन क्यों हैं?
राजदीप सरदेसाई ने एक हजार हिन्दुओं की कत्ल करने के लिए जो टिप्पणी की थी वह क्या पत्रकारिता मूल्यो के अनुरूप थी? पत्रकाकारिता सिद्धंातों की कसौटी पर लोकतांत्रिक माना जाने वाली थी? राजदीप सरदेसाई की टिप्पणी सीधे तौर पर पत्रकारिता के मूल्य व सरोकारों को शर्मशार करने वाली घटना थी। देश के अंदर में कुकुरमुत्ते की तरह पत्रकारों के संगठन है। कई ऐसे संगठन हैं जो पत्रकारों और पूरे मीडिया पर निगरानी करने का दावा करते हैं? इलेक्‍ट्रॉनिक्स मीडिया का स्वयं भू एक निगरानी संगठन है। इलेक्‍ट्रॉनिक्स मीडिया के स्वयं भू निगरानी संगठन में बड़े-बड़े पत्रकार और सभी चैनलों के प्रमुख सदस्य हैं। यह निगरानी संगठन इलेक्‍ट्रॉनिक्स मीडिया को लोकतांत्रिक बनाने और तथ्यहीन कवरेज पर नोटिस लेता है। राजदीप सरदेसाई की टिप्पणी पूरे पत्रकार जगत को शर्मशार करने वाली है। पत्रकारिता की विश्वसनीयता भी तार-तार हुई। फिर भी इलेक्‍ट्रॉनिक्स मीडिया का स्वयं भू निगरानी संगठन चुप क्यों है। यही निगरानी संगठन इलेक्‍ट्रॉनिक्स मीडिया पर नजर रखने के लिए सरकारी नियामक का विरोधी रहा है। राजदीप प्रकरण के बाद इलेक्‍ट्रॉनिक्स मीडिया पर नजर रखने और इलेक्‍ट्रॉनिक्स मीडिया के गैर लोकतांत्रिक चरित्र पर रोक लगाने के लिए सरकारी नियामक का होना क्यों जरूरी नहीं है? प्रेस परिषद अध्यक्ष न्यायमूर्ति काटजू के इलेक्टानिक्स मीडिया पर सरकारी नियामक बनाने के विचार को मूल रूप देने की प्रक्रिया चलनी ही चाहिए।
अति का परिणाम भी देख लीजिये………………
अति बहुत ही खतरनाक प्रक्रिया है? अति का परिणाम कभी भी सुखद निकलता नहीं? हिन्दुओं की अस्मिता से खेलने की जो पीत पत्रकारिता चल रही है, राजनीतिक खेल जारी है, उसके परिणाम गंभीर होंगे। अगर मुस्लिम आबादी की तरह हिन्दू आबादी भी अपनी परम्परागत उदारता को छोड़कर मुस्लिम विरोध की पराकाष्ठ पर उतर आयेगी तब स्थितियां कितनी खतरनाक होगी, कितनी जानलेवा होगी? इसकी कल्पना शायद राजदीप सरदेसाई जैसे बिके हुए पत्रकार नहीं कर सकते हैं। गुजरात दंगा अतिवाद के खिलाफ उपजा हुआ हिन्दू आबादी का आक्रोश था। गुजरात की तरह ही हिन्दू आबादी देश के अन्य भागो में भी एकजुट होकर मुस्लिम आबादी के खिलाफ वैमनस्य और तकरार का रास्ता चुन लिया तो फिर मुस्लिम आबादी के सामने कैसी भयानक स्थिति उत्पन्न होगी? इसकी कल्पना होनी चाहिए। क्या राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार गुजरात दंगा हिन्दुओ के आक्रोश को रोक सके थे। सही तो यह है कि राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार जेहादी मानसिकता का पोषण कर मुस्लिम आबादी को संकट में ही डाल रहे हैं। मुस्लिम आबादी की दंगाई मानसिकता का प्रबंधन होना भी क्यों जरूरी नहीं है?
निष्कर्ष
सही अर्थो में दंगाई मानसिकता और चरमपंथ की व्याख्या होनी चाहिए। एकांगी व्याख्या या फिर एकांगी दृष्टिकोण रखने से दंगायी मानसिकता व चरम पंथ को विस्तार ही मिलेगा। मुस्लिम आबादी की दंगायी मानसिकता और उनका चरमपंथ भी कम खतरनाक नहीं है। इस सच्चाई से राष्ट्रीय मीडिया को मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। असम ही नहीं पूरा पूवोत्तर क्षेत्र आज विदेशी ताकतों और मजहबी शक्तियों की चपेट में है। राष्ट्रीय मीडिया ने असम दंगे पर प्रारंभिक चुप्पी साधकर अपने कर्तव्य से न्याय नहीं किया है। क्या राष्ट्रीय मीडिया चरमपंथ और दंगाई मानसिकता का सही अर्थों में विश्लेषण करने के लिए तैयार होगा? क्या राष्ट्रीय मीडिया राजदीप सरदेसाई जैसी मानसिकता से मुक्त होने के लिए तैयार है। फिलहाल असम में दंगायी आग को बुझाने और दंगाइयो को गुजरात दंगे की तरह ही कानून व सवंधिान का पाठ पढ़ाने की जरूरत है। राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकारों को भी लोकतांत्रिक बनाने के लिए सरकारी नियामकों का सौंटा चलना चाहिए।(संवाद मंथन)
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सोमवार, अगस्त 06, 2012

संस्कृत है- ”भव्य ब्रह्मांडीय संगीत” –डॉ.मधुसूदन

संस्कृत है- ”भव्य ब्रह्मांडीय संगीत” –डॉ.मधुसूदन

प्रवेश:
ॐ —देववाणी संस्कृत: ”भव्य ब्रह्मांडीय संगीत” A Cosmic Grand Opera –कहते हैं, ”अमरिकन संस्कृत इन्स्टीट्यूट” के निर्देशक प्रो. व्यास ह्युस्टन
ॐ —प्राचीन भारतीय ऋषि-मनीषियों ने, शब्द की अमरता का, गहन आकलन किया था।
ॐ—मानवीय चेतना की उत्क्रान्ति का क्रम-विकास, भाषा-विकास के साथ अटूट रूप से जुडा हुआ है; इस तथ्य को समझा था।
ॐ—संकरित वर्णों को विचार पूर्वक वर्जनीय समझा था।
ॐ–संस्कृत की स्पंन्दन क्षमता और सुसंवादी ऊर्जा भी एक भव्य अंतरिक्षी आयाम है।

(१)
भव्य ब्रह्मांडीय संगीत
देववाणी संस्कृत भाषा को, भव्य ब्रह्मांडीय संगीत” A Cosmic Grand Opera इन शब्दों में वर्णन करने वाले विद्वान व्यक्ति कोई भारतीय नहीं, पर ”अमरिकन संस्कृत इन्स्टीट्यूट” के निर्देशक प्रो. व्यास ह्युस्टन है। ”अमरिकन संस्कृत इन्स्टीट्यूट” न्यु-योर्क के महा-नगर में, १९८९ में प्रारंभ हुआ था, जो संस्कृत शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत है; जिस के निर्देशक है, संस्कृत भक्त ”प्रो. व्यास ह्युस्टन”।
”A great deal of thought went into the development of the Sanskrit alphabet.” वे कहते हैं, बडा गहरा चिन्तन हुआ था, संस्कृत के अक्षरों को विकसित करने में।
प्राचीन भारत के ऋषियों ने, शब्द की अमरता का, बडा गंभीर आकलन किया था। उन्हों ने मानव जीवन विकास में, और उस की उन्नति में, शब्द के योगदान पर चिन्तन किया था। जीवन को पुष्ट करने में भी शब्द की विस्मयकारक क्षमता का आसामान्य आकलन उन्हें था। हज़ारो वर्षों के बाद भी आज तक अन्य कोई संस्कृति ऐसी परिपूर्ण भाषा निर्माण करने में सफल नहीं हुयी है। भारत के लिए कितनी गौरवप्रद बात है; मैं सोचता हूँ।

(२)
भाषा विकास से जुडा है आध्यात्मिक उत्कर्ष
हज़ारों वर्षों तक, प्राचीन भारतीय ऋषि-मनीषि, भाषा के विकास कार्य में रत रहे। उस में परिपूर्णता लाने का निरन्तर प्रयास करते रहे। यह सारा परिश्रम केवल इस उद्देश्य से किया गया, कि वे अपने आप की (आत्मा की) दैवी प्रकृति का परिचय प्राप्त करे, उसे पहचाने।
इन वैय्याकरणियों की श्रद्धा थी, प्रोफ़ेसर व्यास ह्युस्टन कहते है, कि, –
”मानवीय चेतना की उत्क्रान्ति का क्रम-विकास, उसके भाषा-विकास के साथ अटूट रूप से जुडा हुआ है।”
उनके शब्दों में ”the evolution of human awareness is inextricably linked to the development of language.”
वाह ! वाह ! वाह !, क्या बात कही, आपने, प्रो. ह्युस्टन, अभी तो हम भारतीय भी इस सच्चाई को उपेक्षा के कारण भूल से गये हैं। कुछ सुशिक्षित भी इस सत्य को जानते प्रतीत नहीं होते, और अन्य भ्रांत-मति पढत-मूर्ख बची खुची संस्कृत की और संस्कृति की निरन्तर उपेक्षा करने में व्यस्त हैं।

(३)
संस्कृत की घोर उपेक्षा
एक ऐसे ही, भारतीय मूल के प्रमाण पत्र धारी विद्वान(?) हैं। वे, ऐसे ही बात बात में अपना अधकचरा ज्ञान प्रदर्शित करते करते कहने लगे, कि ”संस्कृत तो डेड लॅंग्वेज है। इस से जितना शीघ्र छुटकारा भारत पाएगा, उतना आगे बढ जाएगा।”
उन की आयु देख लोग उन से भिडते नहीं है। पर कोई विरोध न देख, वे अपने आप को कल्कि अवतार समझ बैठे, और भारत का उद्धार करने की भाव दशा में आ गए। फिर आगे बोले, कि सारा भारत यदि अंग्रेज़ी सीख जाएं, तो चुटकी में उन्नति हो सकती है। { मन ही मन मैं बोला। वाह ! वाह ! चुटकी में उन्नति?} वे बोले, नए शब्द तो संस्कृत स्वीकार करती नहीं, और पुराने दकियानूसी शब्दों से भारत आगे कैसे बढ पाएगा?
तो मैं ने उन्हें पूछा कि क्या आप संस्कृत शब्द का प्रयोग किए बिना आप की अपनी भाषा का एक वाक्य भी बोल सकते हैं? उन्हें भी शायद अज्ञान ही था, कि उनकी भाषा में भी ७० से ८० प्रतिशत तक शब्द संस्कृत मूल के हैं। पर उन्हें तत्सम और तद्-भव शब्दों के बीच भी भ्रम ही था। वे, तद्-भव शब्दों को संस्कृत के बाहर मानते थे।
मुझे विवेकानन्द जी का कथन स्मरण हो आया। कहते हैं, कि हमारा समाज पागल हो गया है, और ऐसा पागल?, कि, उस पागल को औषधि पिलानेवाले को ही थप्पड मारता है। अब ऐसे पागल समाज की थप्पड खाकर भी औषधि पिलानी है; तो आओ मुन्ना भाई, आपका स्वागत है, लगे रहो।

(४)
व्यास ह्युस्टन
अब इन पढत मूर्ख, भारतीय नमूनों के सामने अमरिकन ”व्यास ह्युस्टन” भी है। जो जानते हैं , कि हजारों वर्षों तक भाषा और लिपि, और वर्णाक्षर विकास का, सारा परिश्रम केवल इस उद्देश्य से किया गया, कि वे ऋषि मनीषी अपने आप की (आत्मा की) दैवी प्रकृति का परिचय प्राप्त करे, उसे पहचाने।
व्यास ह्युस्टन को, संस्कृत का ऊपर बताया वैसा ज्ञान हैं। जिनके प्रति, आपका आदर जाग्रत हुए बिना नहीं रह सकता। एक आंग्ल भाषी अमरिकन के लिए, संस्कृत का ऐसा ज्ञान होना, जो ऊपरि परिच्छेदों में व्यक्त किया गया है, असामान्य है।
कितनी लगन से उन्हों ने संस्कृत पढी होगी? और फिर पातन्जल योग दर्शन भी पढा है।
पर, मैं ने आज तक किसी भी संस्कृतज्ञ के लेखन में या भाषण में व्यास ह्युस्टन के कथन जैसा गूढ सत्य, जो विचार करने पर सहज बुद्धि गम्य ही नहीं पर ग्राह्य भी प्रतीत हो, ऐसे परम सत्य को परिभाषित करनेवाला विधान सुना नहीं था, या पढा नहीं था।
जानने पर आज तक मैं ने संस्कृत की जो उपेक्षा की, उस कारण पलकों के पीछे आंसू आ कर खडे हो गए।

(५)
वर्णाक्षरों की परिशुद्ध वैज्ञानिकता।
आगे व्यास ह्युस्टन कहते हैं, कि, इन प्राचीन भारतीय ऋषियों ने, एकाग्रता से, ध्यान दे कर, बार बार मुख से अलग अलग ध्वनियों का उच्चारण करते हुए, जानने का प्रयास किया, कि ध्वनि मुख-विवर के, किस सूक्ष्म अंग से, कैसे और कहाँ से जन्म लेती है?
उन्हों ने मुख-विवर का वैज्ञानिक अध्ययन किया, और ध्वनियों के मूल स्थानों को ढूंढ निकाला।

(६)
संकरित वर्ण संस्कृत में क्यों वर्ज्य़ है?
फिर और एक महत्व पूर्ण सत्य का स्फोट प्रो. ह्य़ुस्टन करते हैं; वे कहते हैं, कि उन—-
”ऋषियों ने उन्हीं ध्वनियों को भाषा के लिए चुना, जिनकी परिपूर्णता के विषय में कोई संदेह नहीं था; और जिन में शुद्धता थी, स्पष्टता थी, निःसंदिग्धता थी, और अनुनाद क्षमता थी।”
उदाहरणार्थ: च छ ज झ ञ यह सारे स्वतंत्र व्यंजन है। पर नुक्ता वाला ज़ उच्चारण और नुक्ता रहित ज के उच्चारण में स्पष्ट भेद सुनने में स्पष्ट नहीं होता, और न उन की पूरी स्वतंत्र, निःसंदिग्ध पहचान है। इस लिए ऐसे वर्णों को संकरित कहा गया। और, इन्हें, बिना स्वतंत्र पहचान के वर्ण मान कर, वर्जित समझा गया। इस लिए, आज कल चलन में आए हुए नुक्ता सहित ज़, फ़, जैसे अन्य वर्ण भी संकरित (संदिग्ध ) माने गए थे। इसी लिए उनका चयन नहीं किया गया।
कितनी महत्व पूर्ण बात है यह? इस लिए संस्कृत में ऐसे संकरित वर्ण नहीं है। ऐसी मिश्रित उच्चारण वाली प्रक्रिया को भी उन्हों ने ”वर्ण संकर” ही कहा था। इसका मूल कारण किसी भी प्रकार के संदेहात्मक उच्चारण से जो भ्रम को पुष्ट करने की क्षमता रखता हो, उस से दूर रहना था। अर्थका अनर्थ ना हो, इस शुद्धिवादी दृष्टिकोण से उनका चिन्तन हुआ था। किसी भी प्रकार की राज नीति से वे प्रेरित नहीं थे।

(७)
गुजराती मराठी दोनो में नुक्ता नहीं।
वैसे, गुजराती में नुक्ता नहीं है, मराठी के शब्द कोश में भी, किसी शब्द के साथ नुक्ता नहीं है।
आज भी गुजराती में नुक्ता रहित ”जरूर” ही पढा, बोला और लिखा जाता है। नुक्ता (या नुक्ते) को किसी भी शब्द में स्वीकारा नहीं जाता। यही परिस्थिति अन्य व्यंजनो या स्वरों की भी है। ”बृहद्‌ गुजराती कोश” किसी भी शब्द को नुक्ता सहित लिखता नहीं है। ”मराठी शब्द रत्नाकर” में भी नुक्ता कहीं, मुद्रित नहीं है। पर बोलचाल में, मैं ने कहीं कहीं पर शब्दों के उच्चारण में नुक्ता सुना हुआ है। कहीं कहीं गलत रीति से भी नुक्ता सुना है, जहां वह नहीं होना चाहिए।

(८)
भाषा से खिलवाड़
आज भाषा को लेकर जिस प्रकारका खिलवाड निकट दृष्टि के आधार पर चल रहा है, उसके लिए यह चेतावनी है। हजारों वर्षों तक जो लिपि और भाषा परिमार्जन का काम हमारे पूरखों ने किया, और जो धरोहर हमें देकर गए, उसे विकृत कर हम अगली पीढियों के लिए कौनसा भालाई का काम कर रहें हैं?
यह भाषा से खिलवाड केवल लिपि तक ही सीमित नहीं है। हिन्दी को भ्रष्ट करने का काम जिस गति से हो रहा है, वह उसे कुछ दशकॊ में नष्ट कर सकता है।
केल्टिक भाषा इसी प्रकारसे नष्ट हुयी थी। कभी आगे उसका इतिहास लिखा जाएगा।

संदर्भ:भाषा विज्ञान की भूमिका, Yoga Journal,Hinduism to day, शब्द रत्नाकर, गुजराती कोश

http://www.pravakta.com/sanskrit-the-grand-cosmic-music

अफगानिस्तान कभी आर्याना था

अफगानिस्तान कभी आर्याना था

BY dr.vaidik
( प्रस्तुतकर्ता विनेक दुबे , Rudraksh Aryan )

आज अफगानिस्तान और इस्लाम एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं, इसमें शक नहीं लेकिन यह भी सत्य है कि वह देश जितने समय से इस्लामी है, उससे कई गुना समय तक वह गैर-इस्लामी रह चुका है| इस्लाम तो अभी एक हजार साल पहले ही अफगानिस्तान पहुँचा, उसके कई हजार साल पहले तक वह आर्यों, बौद्घों और हिन्दुओं का देश रहा है| धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी, महान संस्कृत वैयाकरण आचार्य पाणिनी और गुरू गोरखनाथ पठान ही थे| जब पहली बार मैंने अफगान लड़कों के नाम कनिष्क और हुविष्क तथा लड़कियों के नाम वेदा और अवेस्ता सुने तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ| अफगानिस्तान की सबसे बड़ी होटलों की श्रृंखला का नाम ‘आर्याना‘ था और हवाई कम्पनी भी ‘आर्याना‘ के नाम से जानी जाती थी| भारत के पंजाबियों, राजपूतों और अग्रवालों के गोत्र्-नाम अब भी अनेक पठान कबीलों में ज्यों के त्यों मिल जाते हैं| मंगल, स्थानकजई, कक्कर, सीकरी, सूरी, बहल, बामी, उष्ट्राना, खरोटी आदि गोत्र् पठानों के नामों के साथ जुड़े देखकर कौन चकित नहीं रह जाएगा ? ग़ज़नी और गर्देज़ के बीच एक गाँव के हिन्दू से जब मैंने पूछा कि आपके पूर्वज भारत से अफगानिस्तान कब आए तो उसने तमककर कहा ‘जबसे अफगानिस्तान ज़मीन पर आया|’ इस अफगान हिन्दू की बोली न पश्तो थी, न फारसी, न पंजाबी| वह शायद ब्राहुई थी, जो वर्तमान अफगानिस्तान की सबसे पुरानी भाषा है और वेदों की भाषा के भी बहुत निकट है|

छठी शताब्दि के वराहमिहिर के ग्रन्थ ‘वृहत्र संहिता‘ में पहली बार ‘अवगाण‘ शब्द का प्रयोग हुआ है| इसके पहले तीसरी शताब्दि के एक ईरानी शिलालेख में ‘अबगान‘ शब्द का उल्लेख माना जाता है| फ्रांसीसी विद्वान साँ-मार्टिन के अनुसार अफगान शब्द संस्कृत के ‘अश्वक‘ या ‘अशक‘ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है-अश्वारोही या घुड़सवार ! संस्कृत साहित्य में अफगानिस्तान के लिए ‘अश्वकायन‘ (घुड़सवारों का मार्ग) शब्द भी मिलता है| वैसे अफगानिस्तान नाम का विशेष-प्रचलन अहमद शाह दुर्रानी के शासन-काल (1747-1773) में ही हुआ| इसके पूर्व अफगानिस्तान को आर्याना, आर्यानुम्र वीजू, पख्तिया, खुरासान, पश्तूनख्वाह और रोह आदि नामों से पुकारा जाता था|

पारसी मत के प्रवर्त्तक जरथ्रुष्ट द्वारा रचित ग्रन्थ ‘जिन्दावेस्ता‘ में इस भूखण्ड को ऐरीन-वीजो या आर्यानुम्र वीजो कहा गया है| अफगान इतिहासकार फज़ले रबी पझवक के अनुसार ये शब्द संस्कृत के आर्यावर्त्त या आर्या-वर्ष से मिलते-जुलते हैं| उनकी राय में आर्य का मतलब होता है-श्रेष्ठ या सम्मानीय और पश्तो भाषा में वर्ष का मतलब होता है–चर भूमि ! अर्थात्र आर्यानुम्र वीज़ो का मतलब है–आर्यों की भूमि ! प्रसिद्घ अफगान इतिहासकार मोहम्मद अली और प्रो0 पझवक का यह दावा है कि ऋग्वेद की रचना वर्तमान भारत की सीमाओं में नहीं, बल्कि आर्योंके आदि देश में हुई, जिसे आज सारी दुनिया अफगानिस्तान के नाम से जानती है| कुछ पश्चिमी विद्वानों ने यह सिद्घ करने की कोशिश की है कि अफगान लोग यहूदियों की सन्तान हैं और मुस्लिम इतिहासकारों का कहना है कि अरब देशों से आकर वे इस इलाके में बस गए| लेकिन प्राचीन ग्रन्थों में मिलनेवाले अन्तर्साक्ष्यों तथा शिलालेखों, मूर्तियों, सिक्कों, खंडहरों, बर्तनों और आभूषणों आदि के बाहिर्साक्ष्य के आधार पर अकाट्रय रूप से माना जा सकता है कि अफगान लोग मध्य एशिया के मूल निवासी हैं| वे अरब भूमि, यूरोप या उत्तरी ध्रुव से आए हुए लोग नहीं हैं| हाँ, इतिहास में हुए फेर-बदल तथा उथल-पुथल के दौरान जिसे हम आज अफगानिस्तान कहते हैं, उस क्षेत्र् की सीमाएँ या संज्ञाएँ हजार-पाँच सौ मील दाएँ-बाएँ और ऊपर-नीचे होती रही हैं तथा दुनिया के इस चौराहे से गुजरनेवाले आक्रान्ताओं, व्यापारियों, धर्मप्रचारकों तथा यात्र्ियों के वंशज स्थानीय लोगों में घुलते-मिलते रहे हैं|

विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में पख्तून लोगों और अफगान नदियों का उल्लेख है| दाशराज्ञ-युद्घ में ‘पख्तुओं‘ का उल्लेख पुरू कबीले के सहयोगियों के रूप में हुआ है| जिन नदियों को आजकल हम आमू, काबुल, कुर्रम, रंगा, गोमल, हरिरूद आदि नामों से जानते हैं, उन्हें प्राचीन भारतीय लोग क्रमश: वक्षु, कुभा, कु्रम, रसा, गोमती, हर्यू या सर्यू के नाम से जानते थे| जिन स्थानों के नाम आजकल काबुल, कन्धार, बल्ख, वाखान, बगराम, पामीर, बदख्शाँ, पेशावर, स्वात, चारसद्दा आदि हैं, उन्हें संस्कृत और प्राकृत-पालि साहित्य में क्रमश: कुभा या कुहका, गन्धार, बाल्हीक, वोक्काण, कपिशा, मेरू, कम्बोज, पुरुषपुर, सुवास्तु, पुष्कलावती आदि के नाम से जाना जाता था| हेलमंद नदी का नाम अवेस्ता के हायतुमन्त शब्द से निकला है, जो संस्कृत के ‘सतुमन्त‘ का अपभ्रन्श है| इसी प्रकार प्रसिद्घ पठान कबीले ‘मोहमंद‘ को पाणिनी ने ‘मधुमन्त‘ और अफरीदी को ‘आप्रीता:‘ कहकर पुकारा है| महाभारत में गान्धारी के देश के अनेक सन्दर्भ मिलते हैं| हस्तिनापुर के राजा संवरण पर जब सुदास ने आक्रमण्पा किया तो संवरण की सहायता के लिए जो ‘पस्थ‘ लोग पश्चिम से आए, वे पठान ही थे| छान्दोग्य उपनिषद्र, मार्कण्डेय पुराण, ब्राह्मण ग्रन्थों तथा बौद्घ साहित्य में अफगानिस्तान के इतने अधिक और विविध सन्दर्भ उपलब्ध हैं कि उन्हें पढ़कर लगता है कि अफगानिस्तान तो भारत ही है, अपने पूर्वजों का ही देश है| यदि अफगानिस्तान को अपने स्मृति-पटल से हटा दिया जाए तो भारत का सांस्कृतिक-इतिहास लिखना असम्भव है| लगभग डेढ़ करोड़ निवासियों के इस भू-वेष्टित देश में हिन्दुकुश पर्वत का वही महत्व है जो भारत में हिमालय का है या मिस्र में नील नदी का है ! इब्न वतूता का कहना है कि इस पर्वत को हिन्दुकुश इसलिए कहते हैं कि हिन्दुस्तान से लाए जानेवाले गुलाम लड़के और लड़कियाँ इस क्षेत्र् में भयानक ठंड के कारण मर जाते थे| हिन्दुकुश अर्थात्र हिन्दुओं को मारनेवाला ! लेकिन अफगान विद्वान फज़ले रबी पझवक की मान्यता है कि यदि हिन्दुकुश शब्द का अर्थ प्राचीन बख्तरी भाषा तथा पश्तो के आधार पर किया जाए तो हिन्दुकुश का मतलब होगा–नदियों का उद्रगम ! बख्तरी भाषा में स को ह कहने का रिवाज है| अत: सिन्धु से हिन्दू बन गया| सिन्धू का मतलब होता है–नदी ! वास्तव में हिन्दुकुश पर्वत से, जो कि हिमालय की एक पश्चिमी शाखा है, अफगानिस्तान को कई महत्वपूर्ण नदियों का उद्रगम और सिंचन होता है| वक्षु, काबुल, हरीरूद और हेलमंद आदि नदियों का पिता हिन्दुकुश ही है| वर्षा की कमी के कारण जब अफगानिस्तान की नदियाँ सूखने लगती हैं तो हिन्दुकुश का बर्फ पिघल-पिघलकर उनकी प्यास बुझाता है|
ऋग्वेद और ‘जिन्दावस्ता‘ दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रन्थ माने जाते हैं| दोनों की रचना अफगानिस्तान में हुई, ऐसा बहुत-से यूरोपीय विद्वान भी मानते हैं| उन्होंने अनेक तर्क और प्रमाण भी दिए हैं| अवेस्ता के रचनाकार महर्षि जरथ्रुष्ट का जन्म उत्तरी अफगानिस्तान में बल्ख के आस-पास हुआ और वहीं रहकर उन्होंने पारसी धर्म का प्रचलन किया, जो लगभग एक हजार साल तक ईरान का राष्ट्रीय धर्म बना रहा| वेदों और अवेस्ता की भाषा ही एक जैसी नहीं है बल्कि उनके देवताओं के नाम मित्र्, इन्द्र, वरुण–आदि भी एक-जैसे हैं| देवासुर संग्रामों के वर्णन भी दोनों में मिलते हैं| अब से लगभग 2500 साल पहले ईरानी राजाओं–देरियस और सायरस– ने अफगान क्षेत्र् पर अपना अधिकार जमा लिया था| देरियस के शिलालेख में खुद को ऐर्य ऐर्यपुत्र् (आर्य आर्यपुत्र्) कहता है| हिन्दुकुश के उत्तरी क्षेत्र् को उन्होंने बेक्टि्रया तथा दक्षिणी क्षेत्र् को गान्धार कहा| दो सौ साल बाद यूनानी विजेता सिकन्दर इस क्षेत्र् में घुस आया| सिकन्दर के सेनापतियों ने इस क्षेत्र् पर लगभग दो सौ साल तक अपना वर्चस्व बनाए रखा| उन्होंने अपना साम्राज्य मध्य एशिया और पंजाब के आगे तक फैलाया| आज भी अनेक अफगानों को देखते ही आप तुरन्त समझ सकते हैं कि वे यूनानियों की तरह क्यों लगते हैं| आमू दरिया और कोकचा नदी के किनारे बसे गाँव ‘आया खानुम‘ की खुदाई में अभी कुछ वर्ष पहले ही ग्रीक साम्राज्य के वैभव के प्रचुर प्रमाण मिले हैं|
ईसा के तीन सौ साल पहले जब अफगानिस्तान में यूनानी साम्राज्य दनदना रहा था, भारत में मौर्य साम्राज्य-चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार और अशोक-का उदय हो चुका था| अशोक ने बौद्घ धर्म को अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक फैला दिया| बौद्घ धर्म चीन, जापान और कोरिया समुद्र के रास्तांे नहीं गया बल्कि अफगानिस्तान और मध्य एशिया के थल-मार्गों से होकर गया| पालि-साहित्य में नग्नजित्र और पुक्कुसाति नामक दो अफगान राजाओं का उल्लेख भी आता है, जो गान्धार के स्वामी थे और बिन्दुसार के समकालीन थे| गन्धार राज्य की राजधानी तक्षशिला थी, जिसके स्नातकों में जीवक जैसे वैद्य और कोसलराज प्रसेनजित जैसे राजकुमार भी थे| चन्द्रगुप्त मौर्य और सेल्यूकस के बीच हुई सन्धि के कारण अनेक अफगान और बलूच क्षेत्र् बौद्घ प्रभाव में पहले ही आ चुके थे| ये सब क्षेत्र् और इनके अलावा मध्य एशिया का लम्बा-चौड़ा भू-भाग ईसा की पहली सदी में जिन राजाओं के वर्चस्व में आया, वे भी बौद्घ ही थे| कुषाण साम्राज्य के इन राजाओं–कनिष्क, हुविष्क, वासुदेव–आदि ने सम्पूर्ण अफगानिस्तान को तो बुद्घ का अनुनायी बनाया ही, बौद्घ धर्म को दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचा दिया| चीनी इतिहासकारों ने लिखा है कि सन्र 383 से लेकर 810 तक अनेक बौद्घ ग्रन्थों का चीनी अनुवाद अफगान बौद्घ भिक्षुओं ने ही किया था| बौद्घ धर्म की ‘महायान‘ शाखा का प्रारम्भ अफगानिस्तान में ही हुआ| विश्व प्रसिद्घ गांधार-कला का परिपाक कुषाण-काल में ही हुआ| आजकल हम जिस बगराम हवाई अड्डे का नाम बहुत सुनते हैं, वह कभी कुषाणों की राजधानी था| उसका नाम था, कपीसी| पुले-खुमरी से 16 कि मी0 उत्तर में सुर्ख कोतल नामक जगह में कनिष्क-काल के भव्य खण्डहर अब भी देखे जा सकते हैं| इन्हें ‘कुहना मस्जिद‘ के नाम से जाना जाता है| पेशावर और लाहौर के संग्रहालयों में इस काल की विलक्षण कलाकृतियाँ अब भी सुरक्षित हैं|

अफगानिस्तान के बामियान, जलालाबाद, बगराम, काबुल, बल्ख आदि स्थानों में अनेक मूर्तियों, स्तूपों, संघारामों, विश्वविद्यालयों और मंदिरों के अवशेष मिलते हैं| काबुल के आसामाई मन्दिर को दो हजार साल पुराना बताया जाता है| आसामाई पहाड़ पर खड़ी पत्थर की दीवार को ‘हिन्दुशाहों‘ द्वारा निर्मित परकोटे के रूप में देखा जाता है| काबुल का संग्रहालय बौद्घ अवशेषों का खज़ाना रहा है| अफगान अतीत की इस धरोहर को पहले मुजाहिदीन और अब तालिबान ने लगभग नष्ट कर दिया है| बामियान की सबसे ऊँची और विश्व-प्रसिद्घ बुद्घ प्रतिमाओं को भी उन्होंने नि:शेष कर दिया है| फाह्रयान और ह्नेन सांग ने अपने यात्र-वृतान्तों में इन महान प्रतिमाओं, अफगानों की बुद्घ-भक्ति और बौद्घ धर्म केन्द्रों का अत्यन्त श्रद्घापूर्वक चित्र्ण किया है| अब उनके खण्डहर भी स्मृति के विषय हो गए हैं| जलालाबाद के पास अवस्थित हद्दा में मिट्टी की दो हजार साल पुरानी जीवन्त मूर्तियाँ चीन में सियान के मिट्टी के सिपाहियों जैसी थीं याने उनकी गणना विश्व के आश्चर्यों में की जा सकती थी| वे भी मुजाहिदीन हमलों में नष्ट हो चुकी हैं| बुतपरस्ती का विरोध करने के नाम पर गुमराह इस्लामवादी तत्वों ने अपने बाप-दादों के स्मृति-चिन्ह भी मिटा दिए|

इस्लाम के नौ सौ साल के हमलों के बावजूद अफगानिस्तान का एक इलाका 100 साल पहले तक अपनी प्राचीन सभ्यता को सुरक्षित रख पाया था| उसका नाम है, काफिरिस्तान| यह स्थान पाकिस्तान की सीमा पर स्थित चित्रल के निकट है| तैमूर लंग, बाबर तथा अन्य बादशाहों के हमलों का इन ‘काफिरों‘ ने सदा डटकर मुकाबला किया और अपना धर्म-परिवर्तन नहीं होने दिया| अफगानिस्तान की कुणार और पंजशीर घाटी के पास रहनेवाले ये पर्वतीय लोग जो भाषा बोलते हैं, उसके शब्द ज्यों के त्यों वेदों की संस्कृत में पाए जाते हैं| ये इन्द्र, मित्र्, वरुण, गविष, सिंह, निर्मालनी आदि देवी-देवताओं की पूजा करते थे| इनके देवताओं की काष्ठ प्रतिमाएँ मैंने स्वयं काबुल संग्रहालय में देखी हैं| चग सराय नामक स्थान पर हजार-बारह सौ साल पुराने एक हिन्दू मन्दिर के खण्डहर भी मिले हैं| सन्र 1896 में अमीर अब्दुर रहमान ने इन काफिरों को तलवार के जोर पर मुसलमान बना लिया| कुछ पश्चिमी इतिहासकारों का मानना है कि ये काफिर लोग हिन्दुओं की तरह चोटी रखते थे और हवि आदि भी देते थे| अमीर अब्दुर रहमान को डर था कि बि्रटिश शासन की मदद से इन लोगों को कहीं ईसाई न बना लिया जाए|

अफगानिस्तान में इस्लाम के आगमन के पहले अनेक हिन्दू राजाओं का भी राज रहा| ऐसा नहीं है कि ये राजा काशी, पाटलिपुत्र्, अयोध्या आदि से कन्धार या काबुल गए थे| ये एकदम स्थानीय अफगान या पठान या आर्यवंशीय राजा थे| इनके राजवंश को ‘हिन्दूशाही‘ के नाम से ही जाना जाता है| यह नाम उस समय के अरब इतिहासकारों ने ही दिया था| सन्र 843 में कल्लार नामक राजा ने हिन्दूशाही की स्थापना की| तत्कालीन सिक्कों से पता चलता है कि कल्लार के पहले भी रूतविल या रणथल, स्पालपति और लगतुरमान नामक हिन्दू या बौद्घ राजाओं का गांधार प्रदेश में राज था| ये राजा जाति से तुर्क थे लेकिन इनके ज़माने की शिव, दुर्गा और कार्तिकेय की मूतियाँ भी उपलब्ध हुई हैं| ये स्वयं को कनिष्क का वंशज भी मानते थे| अल-बेरूनी के अनुसार हिन्दूशाही राजाओं में कुछ तुर्क और कुछ हिन्दू थे| हिन्दू राजाओं को ‘काबुलशाह‘ या ‘महाराज धर्मपति‘ कहा जाता था| इन राजाओं में कल्लार, सामन्तदेव, भीम, अष्टपाल, जयपाल, आनन्दपाल, त्रिलोचनपाल, भीमपाल आदि उल्लेखनीय हैं| इन राजाओं ने लगभग साढ़े तीन सौ साल तक अरब आततायियों और लुटेरों को जबर्दस्त टक्कर दी और उन्हें सिंधु नदी पार करके भारत में नहीं घुसने दिया| लेकिन 1019 में महमूद गज़नी से त्रिलोचनपाल की हार के साथ अफगानिस्तान का इतिहास पलटा खा गया| फिर भी अफगानिस्तान को मुसलमान बनने में पैगम्बर मुहम्मद के बाद लगभग चार सौ साल लग गए| यह आश्चर्य की बात है

क्रिश्चिएनिटी कृष्णनीति है - पुरूषोत्तम नागेश ऒक. खान शब्द का इस्लाम धर्म या मुस्लिम समाज से पुरातन संबंध नही????

खान शब्द का इस्लाम धर्म या मुस्लिम समाज से पुरातन संबंध नही

(khan = kanha )

क्रिश्चिएनिटी कृष्णनीति है - पुरूषोत्तम नागेश ऒक

इन दिनों खान नाम चर्चा में है। माई नेम इज़ खान फिल्म विवाद में थी । विवाद में लाने के सारे तत्व फिल्म के जन्म से जुड़े थे । इसके बावजूद इस शब्द से जुड़ी जातीय पहचान का मिथ आज भी उतना ही रहस्यमय और आवरणों में लिपटा है। ऐसा नहीं कि खान के जातीय पहचान से जुड़े मिथ्या गर्व का खुलासा होना बहुत महत्वपूर्ण हो, मगर यह जानना तो ज़रूरी है ही कि आज चाहे खान शब्द को इस्लाम या एक जाति विशेष से जोड़ कर देखा जा रहा है, मगर मूल रूप में खान शब्द का इस्लाम धर्म या मुस्लिम समाज से पुरातन संबंध नहीं है। खास तौर पर इस्लाम की सरज़मीं अरब और अरबी समाज संस्कृति से खान का रिश्ता नहीं है। यही बात बहादुर शब्द के साथ भी है जो तुर्क मंगोल संस्कृति से उपजा शब्द है। यह जानना दिलचस्प है कि कुबलाई खान और चंगेज़ खान जैसे महान खान, मुसलमान नहीं थे। कुबलाई खान बौद्धधर्म की एक विशेष शाखा का अनुयायी था जबकि चंगेज़ खान चीन के शॉमन पंथ का अनुयायी था। खान वंशावली या खान सम्प्रभुता को अंग्रेजी में खानेट कहा जाता है। इतिहास में कई खानेट दर्ज है जो दसवीं सदी से शुरू होते हैं मसलन काराखानेट या इलेकखानेट। इनमें से ज्यादातर फारस या मध्यएशिया से लेकर सुदूर पूर्वी योरप के बल्गारिया तक पसरे थे। सुदूर मंगोलिया और मध्यचीन में जन्मे खान शब्द की पहचान कभी मंगोल वंश के शासकों ने अपनी सम्प्रभुता की सबसे बड़ी पदवी के तौर गढी थी, ठीक वैसे ही जैसे भारत में स्वामी शब्द में मालिक, शक्तिवान, पिता, पति, पालक, शासक अर्थात सर्वोच्चता के भाव निहित हैं। इसी तरह खान शब्द की अर्थवत्ता भी विकसित हुई थी। खान और बहादुर की इसी कतार में आगे खड़ा है पठान जिसके साथ भी जातीय पहचान जुड़ी है, दरहकीक़त यह सिर्फ इलाक़ाई पहचान बतानेवाला शब्द है।

खान शब्द के मूल में मंगोल और चीनी संस्कृति का भाषायी आधार है। इसकी व्युत्पत्ति संभवतः चीन के महान वंश हान से हुई है। हान वंश ने दो सदी ईसापूर्व से लेकर ईस्वी 220 तक चीन में शासन किया। चीन के मध्यप्रान्त शांक्सी से होकर गुज़रनेवाली हानशुई नदी के नाम पर चीन के प्राचीन और प्रसिद्ध हान वंश का नामकरण हुआ। यह ठीक वैसे ही है जैसे सिन्धु नदी के नाम पर सैन्धव सभ्यता की पहचान बनी। मंगोल जाति के लड़ाकों ने जब मध्य चीन के राज्यों पर कब्जा करना शुरू किया तब उपाधि के तौर पर उस क्षेत्र के महान हान वंश के नाम पर कुछ नए शब्द जैसे काघान kaghan,कागान kagan, खाकान khakan या कान kan सामने आए। चीनी भाषा का एक उपसर्ग है के-ke जिसमें महानता, सर्वोच्चता का भाव है। हान han से पहलेके जुड़ने से बना ke-han जिससे उक्त मंगोल रूपांतर बने। मंगोल भाषा में इन सभी नामों में शासक या सत्ता के सर्वोच्च पदाधिकारी का भाव था।

इतिहास में सबसे पहले काघान के तौर पर रुआनरुआन कबीले से जुड़े मंगोल शासक मुरुंग तुयुहुन का नाम दर्ज है जो ईसा की दूसरी सदी के उत्तरार्ध में दक्षिणी मंगोलिया से सटी चीन की उत्तरी पट्टी का शासक था। खान उपाधि लगाने वाले शासकों के तौर पर सबसे व्यवस्थित वंशावली मंगोलिया केरुआनरुआन कबीले में नजर आती है। इससे जुड़े कुछ नाम देखें- क्योदोफा खान, इकुगाई खान, चिल्लिन खान, चू खान, फुमिंगदुन खान और तुहान खान। ये थे असली खान नाम जो सभी तीसरी सदी से पांचवी सदी तक चीन के उत्तरी हिस्से के शासक रहे। गौरतलब है कि इसके सदियों बाद इस्लाम धर्म का आविर्भाव हुआ। हालांकि बारहवी से चौदहवीं सदी तक भी चीन और मंगोलिया के शासक काघान या खाकान उपाधि धारण करते रहे थे और अनेक मंगोल कबीलो में यह शब्द राज्यप्रमुख के तौर पर अपनी पहचान बना चुका था। मुस्लिम शासक के तौर पर पहला खाकान तैमूर लंगड़ा ही सामने आता है। हालांकि मंगोलिया और चीन में तैमूर के समकालीन कई खाकान थे जो बौद्ध, नव-ताओवादी, नव-कन्फ्यूशियसवादी और शॉमन विचारधारा को माननेवाले थे। युआन वंश में भी कई खान हुए हैं। चीन का महान शासक कुबलाई खान इस वंश का संस्थापक माना जाता है। (... मार्कोपोलो ने अपने प्रसिद्ध यात्रा वर्णन में कुबलाई खान के बौद्ध होने और चीन में उसे खाकान कहने वाले कई प्रसंग बताए हैं...) चीन की वर्तमान राजधानी पेइचिंग का नाम यूआन साम्राज्य के वक्त तातू, दादू या देदू था जिसका मतलब था महान राजधानी। मार्कोपोलो के वृत्तांत से पता चलता है कि पेइचिंग का नाम इसी अर्थ में कुबलाई खान के वक्त खानबालिक Khanbaliq रख दिया गया था जिसका मतलब होता है महान खान की राजधानी।

खान के ये सभी बहुरूप आज तुर्की मूल के माने जाते हैं। खान नामधारी शासकों की परम्परा फारस से लेकर तुर्की तक रही। दिलचस्प यह कि खान, खाघान, काघान जैसे उच्चारणों के साथ ये पदनाम मंगोल और तुर्कमानी हमलावर सुदूर पश्चिम स्थित तुर्की तक ले कर गए इसी वजह से इन्हें तुर्की मूल का मान लिया जाता है। काघान का अरबीकरण खाकान के रूप में हु्आ। अरब के कुछ सियासी अमलदारों के नामों के साथ यह खाकान शब्द नजर आता है पर अरब समाज ने सत्ता प्रमुख के तौर पर इस उपाधि में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। यह दिलचस्प है कि भारत में मुहम्मद बिन कासिम (695–715) से बाबर (1483-1531) तक जितने भी मुस्लिम हमलावर आए उनमें अधिकांश के साथ खान उपाधि नहीं लगी थी जबकि अपने वक्त में ये तमाम लोग किसी न किसी मूल इलाके के सर्वेसर्वा थे। भारत के कुछ हिस्से चंगेज़ खान के आक्रमण की चपेट में ज़रूर आए थे मगर चंगेज़ का धर्म इस्लाम नहीं था बल्कि शॉमन पंथ था।

*****भारत में मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर भी खुद को अपनी मां की तरफ से चंगेज़ खान (1206-1227) और पिता की तरफ से तैमूर लंग (1336 –1405) का वंशज मानता था। इतिहासकारों के मुताबिक तैमूर लंग भी अपना रिश्ता चंगेज़ खान से जोड़ता था, मगर यह कभी प्रमाणित नहीं हो सका। न जाने कितने खान यहां हैं। सब चंगेज़ से ही रिश्ता जोड़ना चाहते हैं जो न मुसलमान था और न ही महान निर्माता या दूरदृष्टा। वो सिर्फ एक महान योद्धा था, अलबत्ता डाक प्रणाली में उसकी सूझबूझ अनोखी थी जिसके जरिये सदियों पहले भी तेजी से संवाद प्रेषण हो जाता था।*****

मंगोलिया और चीन के जिन खान शासकों ने गर्व से खान उपाधि को अपने नाम के साथ जोड़ा, वैसा कुछ उन्ही मंगोलखाकानों या खानों के वंशजों नें भारत में मंगोल या मुगल साम्राज्य स्थापित करने के बाद नहीं किया। आश्चर्य है कि इसे इस्लाम का प्रभाव कहिए या खुद की पहचान को इस्लाम की मूल सरजमीं से जोड़ने की चाह, भारत में आए मंगोलों और तुर्कों के वंशज, मुगल शासकों नें अरब या फारस के शासकों द्वारा इस्तेमाल की जानेवाली उपाधियों को अपनाया जैसेसुल्तान, बादशाह, शहंशाह या मलिक आदि। खान की उपाधियां ज़रूर मुगलों नें अपने अहलकारों को इफरात में बांटी। दरअसल मंगोलिया से तुर्की पहुंचने के बाद खान शब्द वहां भी उपाधियां बांटने का उपकरण बन कर रह गया। तुर्की के आटोमन शासकों ने तूरान क्षेत्र के शासकों को खान उपाधि दी। यही क्रम भारत में भी मुगलों ने चलाया। राज्याध्यक्ष द्वारा प्रदत्त यह खान उपाधि बड़े सम्मान का प्रतीक बनी और बाद में अगली पीढ़ियों ने भी इसका इस्तेमाल किया। पीढ़ी दर पीढ़ी खान शब्द का दायरा बढ़ता गया। आखिर इसके साथ जातीय पहचान कैसे न जुड़ती? मंगोल दायरे से बाहर निकलने के बाद खाकान शब्द का स्त्रीवाचीखातून बना जिसका अर्थ साम्राज्ञी था। बाद में फारसी में किसी भी सम्भ्रान्त स्त्री के लिए खातून, खानम याखानुम शब्द का प्रयोग होने लगा। खान से संबंधित कई शब्द आज हिन्दी उर्दू में प्रचलितत हैं जैसे खान ए खानान जिसे खानखाना भी कहा जाता है। इसका अर्थ शहंशाह जैसा ही है अर्थात राजाओं में श्रेष्ठ। खानज़ादायानी खान का बेटा या राजपुत्र (अथवा दासीपुत्र ), खानदान यानी कुल, कुटुम्ब। खानदानी यानी कुलीन। सतपुड़ा का दक्षिणी हिस्सा जो भारत को दक्षिण से अलग करता है, महाराष्ट्र के उत्तरी क्षेत्र तक पसरा है। इसे खानदेश कहते हैं। कोश इसकी व्युत्पत्ति खंद, खांद से बताते हैं जिसका अर्थ जंगल या उबड़-खाबड़ इलाका है। खंद का अर्थ खण्डही यहां लगाना चाहिए। मगर मुझे लगता है कि मध्यकाल तक खान शब्द से मुसलमानों की शिनाख्त की जाने लगी थी। इस क्षेत्र का नाम खानदेश इसलिए पड़ा क्योंकि दक्षिण में शासन करने को लालायित मुग़लों का यहां शासन था। इससे आगे उन्हें हमेशा दक्षिण के सशक्त रजवाड़ों ने रोक कर रखा। महाराष्ट्रीयों ने दरअसल अपने क्षेत्र में भीतर तक घुस आए मुस्लिम शासन और उनकी आबादी को देखकर यह नाम दिया होगा, ऐसा लगता है। अन्यथा इस क्षेत्र का प्राचीन नाम विदर्भ ही है।

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वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास भाग-१ - पुरूषोत्तम नागेश ऒक वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास भाग-२ - पुरूषोत्तम नागेश ऒक वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास भाग-३ - पुरूषोत्तम नागेश ऒक वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास भाग-४ - पुरूषोत्तम नागेश ऒक विश्व इतिहास के विलुप्त अध्याय - पुरूषोत्तम नागेश ऒक
यहूदी ईसाइयत व इस्लाम एवं उनकी धर्मांधता की विभीषिकांए - अनवर शे‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌ख, इस्लाम ईसाइयत व हिन्दू धर्म -कृष्ण वल्लभ पालीवाल, क्रिश्चिएनिटी कृष्णनीति है - पुरूषोत्तम नागेश ऒक

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रविवार, अगस्त 05, 2012

भारत का विभाजन-क्या अंग्रेजों तथा मुस्लिम लीग की मिलीभगत थी?


क्या अंग्रेजों तथा मुस्लिम लीग की मिलीभगत
इतिहास दृष्टि
भारत का विभाजन-1

क्या अंग्रेजों तथा मुस्लिम लीग की मिलीभगत थी?

तथ्यों एवं प्रमाणों के आधार पर अंग्रेजों तथा मुस्लिम लीग के पाकिस्तान के निर्माण में गहरे संबंधों को झुठलाया नहीं जा सकता है।

डा.सतीश चन्द्र मित्तल
यह आज भी एक ऐतिहासिक विश्लेषण का विषय बना हुआ है कि भारतीयों ने विभाजित भारत, खंडित भारत, अथवा 'इंडिया दैट इज भारत' क्यों स्वीकार किया? क्या भारत का विभाजन रोका या टाला जा सकता था? क्या यह अनिवार्य था? क्या यह अटल था? क्या यह अंग्रेजों तथा मुस्लिम लीग का क्रूर षड्यंत्र था? यह कांग्रेसी नेताओं का उतावलापन था या उनकी मजबूरी थी? आज भी ऐसे अनेक प्रश्न यथावत बने हुए हैं। भारतीय इतिहास की इस महान विघटनकारी घटना को संक्षेप में तीन प्रमुख तत्वों - अंग्रेजों की धूर्त्त कूटनीति तथा अवसरवादिता, मुसलमानों के मजहबी कट्टरपन तथा जिन्ना की हठ, और कांग्रेसी नेतृत्व की अदूरदर्शिता एवं बुद्धिहीनता के रूप में विश्लेषित किया जा सकता है।
अंग्रेजों की धूर्त्त कूटनीति

यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण है कि अन्तरराष्ट्रीय स्थिति तथा भारत की आंतरिक परिस्थितियों ने अंग्रेजों को पाकिस्तान के निर्माण के लिए अधिक प्रेरित किया। प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) में अंग्रेज जीत गए थे परंतु अन्तरराष्ट्रीय जगत में उनका मनमानी का एकाधिकार समाप्त हो गया था। द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) ने उसकी विश्वव्यापी साम्राज्य की जड़ों को हिला दिया था। उसका आर्थिक ढांचा चरमरा गया था। परंतु उसने अपनी विश्वव्यापी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को तिलांजलि नहीं दी। इससे भी अधिक अंग्रेज एशिया संबंधी अपनी भावी रणनीति के प्रति सजग हो गए, जिसके प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में भारत विभाजन को देखा जा सकता है।



अंग्रेजों के लिए भारत आर्थिक और सामरिक दृष्टि से एशिया की राजनीति की मुख्य धुरी था। ब्रिटिश साम्राज्य के लिए आर्थिक दृष्टि से भारत एक कामधेनु गाय की तरह था तथा राजनीतिक तथा सामरिक उथल-पुथल में भी भारत कम महत्वपूर्ण नहीं था। अंग्रेज भारत के उत्तर-पश्चिम में अपने प्रभावाधीन एक सशक्त मुस्लिम राज्य चाहते थे जो मध्य एशिया, रूस तथा चीन से उठने वाली आपत्तियों को चुनौती दे सके। पहले उसने अफगानिस्तान को इसी दृष्टि से पाला-पोसा तथा अपना मोहरा बनाया। फिर उसे लगा कि पाकिस्तान का निर्माण उसकी आगामी योजना में प्रभावी तथा अधिक सहायक हो सकता था।


अत: पाकिस्तान का निर्माण उसकी छद्म कूटनीति का आधार था। साथ ही मध्य पूर्व में फारस की खाड़ी में तेल के भंडारों के लिए भी इंग्लैण्ड बड़ा लालायित था। वह इस संदर्भ में सोवियत संघ से सावधान था। अमरीका भी एशिया में सोवियत संघ के विस्तार को रोकने में इंग्लैण्ड का सहायक बन गया था। इंग्लैण्ड ने उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम में भारत की सुरक्षा तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति को ध्यान में रखते हुए अपने सामरिक अड्डे बनाये थे। गिलगित, जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र पर भी उसकी गिद्ध-दृष्टि रही, जो भारत विभाजन के बाद भी बनी रही। इसी प्रकार भारत के दक्षिण में हिन्द महासागर तथा उसके निकट के टापुओं पर भी उसने अपना वर्चस्व बनाया। अत: पाकिस्तान का निर्माण अंग्रेजों की एशियाई नीति का एक अंग था।


भारत की आंतरिक परिस्थितियों तथा घटनाचक्र ने अंग्रेजों को द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात भारत छोड़ने के लिए बाध्य किया। जहां एक ओर ब्रिटिश अनुदार दल के नेताओं-ब्रिटेन में सर विन्स्टन चर्चिल तथा भारत के तत्कालीन वायसरायों लार्ड लिन लिथगो तथा लार्ड वेबल ने मुस्लिम लीग की मजहबी आधार पर पाकिस्तान की मांग तथा निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त किया, उसी भांति ब्रिटेन की लेबर पार्टी के अध्यक्ष प्रो. लास्की, प्रधानमंत्री क्लीमेंट ऐटली तथा भारत के वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने कांग्रेस के नेताओं को खंडित भारत को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया।
मुसलमानों का मजहबी उन्माद

यह सर्वविदित है कि मुस्लिम लीग वस्तुत: अलीगढ़ के प्रधानाचार्य आर्च बोल्ड तथा वायसराय लार्ड मिन्टो के निजी सचिव डनलप स्मिथ की उपज थी। दोनों के संयुक्त प्रयास से एक मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल, सर आगा खां के नेतृत्व में लार्ड मिन्टो से मिला था। सर आगा खां को मुस्लिम लीग का स्थायी अध्यक्ष बना दिया गया परंतु 1913 में मतभेद होने पर वे लीग से अलग हो गए। परंतु मोहम्मद अली जिन्ना के अनुरोध पर दिसम्बर, 1928 में उन्हें अखिल मुस्लिम सम्मेलन का अध्यक्ष बनाया गया। ब्रिटिश सरकार ने 1909 के सुधारों में लीग की मांगों को संरक्षण दिया, पर टर्की के प्रश्न पर उसके मतभेद हो गये।



अंग्रेजों ने अपनी कूटनीति का पहला मोहरा जिन्ना को बनाया। जिन्ना (1876-1948) इंग्लैण्ड में पहले दादा भाई नौरोजी के निजी सचिव रहे थे। इंग्लैण्ड से वकालत पास कर जब वह भारत लौटे तो पूर्णत: अंग्रेजियत के रंग में रचे-पगे थे। वह मजहब को किंचित भी महत्व नहीं देते थे। उन्होंने एक अमीर पारसी लड़की से विवाह किया, जिसकी शीघ्र ही मृत्यु हो गई। पहले वे कांग्रेस से जुड़े तथा बाद में मुस्लिम लीग के प्रमुख नेता बन गए। वे खिलाफत आंदोलन को भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जोड़ने के पक्ष में नहीं थे, अत: उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी। उन्होंने 1928 में नेहरू रपट को स्वीकार न कर अपनी 14 मांगें रखी थीं। शीघ्र ही भारत की राजनीति से क्षुब्ध हो वे इंग्लैण्ड प्रिवी काउंसिल में वकालत करने चले गए। इंग्लैण्ड में रहते हुए उनके जीवन में बड़ा परिवर्तन हुआ। उसके सर आगा खां से पुन: गहरे संबंध स्थापित हुए तथा उनके सम्पर्क से वे इंग्लैंड के नेता सर विन्स्टन चर्चिल से मिले और तभी से उनकी चर्चिल से निकटता आई तथा पत्र व्यवहार प्रारंभ हुआ।



1937 में जब जिन्ना भारत लौटे तो बिल्कुल बदले हुए थे। वह अब पक्के तथा कट्टर मजहबी उन्माद से ग्रसित थे। 1937 के चुनाव में मुस्लिम लीग की भारी पराजय से वह बहुत कुपित हुए। उन्होंने 'इस्लाम खतरे में' बोलना प्रारंभ किया। वह शीघ्र ही भारतीय मुसलमानों के निर्विवाद नेता बन गए। वे कांग्रेस के सातों मंत्रिमंडलों के त्यागपत्र से बेहद खुश थे। उन्होंने सम्पूर्ण भारत में 'मुक्ति दिवस' मनाने को कहा। परंतु वे अभी तक कभी मस्जिद नहीं गए थे और न ही मुसलमानों के मजहबी रीति-रिवाजों से पूर्वत: अवगत थे। ऐसा माना जाता है कि 1940 के लाहौर में मुस्लिम लीग केअधिवेशन से पूर्व वे लाहौर की मस्जिद में पहली बार गए थे। इस वर्ष पाकिस्तान की मांग की गई थी।



अब उनका चर्चिल से पत्र-व्यवहार होने लगा था। इंग्लैण्ड की प्रसिद्ध इंडियन हाउस लाइब्रेरी से प्राप्त दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि चर्चिल ने इसे गुप्त रखने के लिए पत्र-व्यवहार का अपना पता न देकर किसी मिस ई.ए. गिलियट का पता दिया था, ताकि किसी को कोई संदेह न हो (देखें-द ट्रिब्यून-16 मार्च, 1983)। चर्चिल के भारत के बारे में सदैव कटु विचार थे। वह भारतीयों को असभ्य तथा जानवर कहता था। महात्मा गांधी के प्रति भी उसकी धारणा बेहद खराब थी। वह भारत की स्वतंत्रता का विरोधी था।


1942 में जब जापानी सेनाएं सिंगापुर तथा रंगून तक पहुंच गई तथा अमरीका के राष्ट्रपति रुजवेल्ट ने भारत की समस्याओं पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने की सलाह दी, तब मुसलमानों की वकालत करते हुए चर्चिल ने यह झूठ बोला कि भारतीय सेना में 75 प्रतिशत मुसलमान हैं, अत: भारत की स्वतंत्रता देने से पहले मुसलमानों के अधिकारों को प्राथमिकता देनी होगी।


वस्तुत: यह झूठ जान-बूझकर बोला गया था, क्योंकि भारतीय सेना में मुसलमान कुल 35 प्रतिशत थे। इसके बारे में चर्चिल ने लिखा है कि युद्ध के समय झूठ बोलने से उसे कोई हिचकिचाहट नहीं थी। इतना ही नहीं, जब दिसम्बर, 1946 में जिन्ना कुछ समय के लिए पुन: इंग्लैण्ड गए तब परस्पर संबंधों को सुदृढ़ बनाने के लिए जिन्ना ने 12 दिसम्बर, 1946 को दोपहर के भोजन के समय किसी होटल में मिलने का समय चाहा, परंतु चर्चिल ने इस बारे में उत्तर दिया था, 'ऐसे दिनों में यह अधिक विवेकपूर्ण होगा कि लोगों की उपस्थिति में हम परस्पर न मिलें।' वस्तुत: जैसे चर्चिल 1942 के 'क्रिप्स मिशन' के भारत आगमन से दु:खी तथा उसकी असफलता से बहुत खुश था। उसी भांति लार्ड माउंटबेटन के भारत आने से दु:खी तथा भारत विभाजन अथवा पाकिस्तान के निर्माण से अत्यधिक संतुष्ट था।



अनुदार दल के नेता चर्चिल ने जो भूमिका इंग्लैण्ड में अपनाई, वही भूमिका मुस्लिम लीग के प्रति भारत में लार्ड लिन लिथगो (1936-1943) तथा लार्ड वेबल (1943-1946) ने अपनाई। लार्ड लिन लिथगो ने जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के विचार का समर्थन किया तथा कहा कि जिन्ना के विचार तत्कालीन राजनीति में संतुलन कर सकेंगे। उसकी अगस्त, 1940 की घोषणा एक प्रकार से मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग का खुला समर्थन थी। यह मुस्लिम लीग की मांग को सुदृढ़ता प्रदान करती थी। लार्ड लिन लिथगो ने भारत मंत्री जैटलैंड को एक तार में कहा, 'जिन्ना अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करता है और यदि उसकी मदद करें तो वह कांग्रेस के ऊपर दबाव बनाये रख सकेगा।'



1943 में लार्ड लिन लिथगो के भारत से चले जाने के पश्चात लार्ड वेबल भारत आया। आते ही उसके जिन्ना से गहरे सम्बंध हो गये। 1945 में उसने भारत की राजनीतिक स्थिति डांवाडोल देखी तथा ब्रिटिश सरकार से 4-5 बिग्रेड ब्रिटिश सेना भारत भेजने का सुझाव दिया, जो ब्रिटेन की तत्कालीन स्थिति में संभव न था, अत:उसका प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया। भारत में ब्रिटिश सरकार की पुलिस की स्वामिभक्ति के प्रति संदेह, सरकारी कर्मचारियों में बढ़ते असंतोष, सैनिकों की वफादारी के प्रति संदेह, 1946 की फरवरी में नौसेना में विद्रोह तथा थल तथा वायु सेना में हलचलों ने उसे डिगा दिया।
फरवरी, 1946 में लार्ड वेबल ने पहली बार भारत के टुकड़े करने का सुझाव रखा। मार्च, 1946 में उसने एक तार में लिखा, 'पहला अत्यंत महत्वपूर्ण विषय पाकिस्तान का है। आवश्यकता है कि हिज मैजेस्टी गवर्नमेंट उस पर विचार करे।' उसने दोहरी नीति अपनाते हुए कहा, 'भारत की एकता महत्वपूर्ण है, परंतु पाकिस्तान न बनने पर गृहयुद्ध हो सकता है।' 6 जुलाई, 1946 को उसने भारत मंत्री के सम्मुख पाकिस्तान निर्माण के निमित्त प्रत्येक जिले का ब्योरा भी दिया कि कौन-सा जिला पाकिस्तान के साथ मिलाया जाना चाहिए। अत: उपरोक्त तथ्यों एवं प्रमाणों के आधार पर अंग्रेजों तथा मुस्लिम लीग के पाकिस्तान के निर्माण में गहरे संबंधों को झुठलाया नहीं जा सकता है।

शनिवार, अगस्त 04, 2012

पाकिस्तानी अब भारत में कर सकेगे निवेश .........................!!!

पाकिस्तान से एफडीआई को भारत की मंजूरी .........................!!!

पाकिस्तानी अब भारत में कर सकेगे निवेश .........................!!!

रक्षा, अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा के अलावा हर छेत्र में हो सक्ता है पाकिस्तानी


पकिस्तान की दो बैंको को भारत में शाखा खोलने की मंजूरी ......

सरकार ने बुधवार को एक अहम फैसला करते हुए देश में पाकिस्तान से निवेश की अनुमति दे दी है। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय आर्थिक संबंधों को मजबूती देने और पाकिस्तान की तरफ से भारत को सबसे तरजीही राष्ट्र (एमएफएन) का दर्जा देने की दिशा में इसे अहम पहल माना जा रहा है।

वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय द्वारा जारी एक प्रेस वक्तव्य में कहा गया है कि सरकार ने नीति की समीक्षा कर यह तय किया है कि पाकिस्तान के नागरिकों को और पाकिस्तान में पंजीकृत कंपनी को भारत में निवेश की अनुमति दे दी जाए।

रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे रक्षा, अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा को पाकिस्तान से होने वाले विदेशी निवेश से अलग रखा गया है।

पकिस्तान के साथ दोस्ती को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार ने पाकिस्तान से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को अपनी मंजूरी प्रदान की. इस मंजूरी के साथ ही पाकिस्‍तान के किसी नागरिक या कंपनी को भारत के रक्षा, अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा को छोड़कर विभिन्‍न क्षेत्रों में निवेश का अधिकार प्राप्त हो गया है ......................!!!

http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=61580
http://www.khaskhabar.com/hindi-news/National-govt-allows-pak-to-invest-in-india-22520218.html

http://khabar.ndtv.com/news/show/pakistan-s-2-banks-to-open-india-branches-24714
http://hindi.moneycontrol.com/mccode/news/article.php?id=62381

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/25585-2012-08-02-12-49-18

http://khabar.ndtv.com/news/show/pakistan-s-2-banks-to-open-india-branches-24714

http://www.samaylive.com/business-news-in-hindi/161814/pakistan-india-state-bank-of-pakistan-pak-banks.html

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/08/120802_pak_fdi_india_aa.shtml

http://www.livehindustan.com/news/business/businessnews/article1-india-pakistan-central-bank-of-pakista-state-bank-of-pakistan-45-45-248143.html