मकर संक्रांति अकेला ही पश्चिम और अरब के सभी पर्वों पर भारी है: सूर्य की गति पर आधारित यह उत्सव भारत के लाखों वर्षों से खगोल विज्ञान का ज्ञाता होने का प्रमाण है।
(सबसे अंतिम पैराग्राफ में पढ़ें किस राज्य में किस नाम से मनाया जाता है यह उत्सव? और क्या क्या खाया जाता है इस मकर संक्रांति में?)
मकर संक्रांति में मकर शब्द आकाश में स्थित तारामंडल का नाम है जिसके सामने सूर्य के आने के दिन ही पूरे दिवस मकर संक्रांति मनाया जाता है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली में लोहड़ी के नाम से यह उत्सव मनाया जाता है सूर्य के मकर राशी में प्रवेश से एक दिन पूर्व। यह उत्सव सूर्य का उत्तरायण में स्वागत का उत्सव है। उत्तरायण का अर्थ है पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के सापेक्ष में स्थित आकाश का भाग अर्थात उत्तरी अयन। जब सूर्य उत्तरायण में आता है तो इसकी किरणें पृथ्वी पर क्रमशः सीधी होने लगती है। जिससे धीरे धीरे गर्मी बढ़ने लगती है। यह सर्दी के ऋतु का अंतकाल माना जाता है। इसीलिए इस उत्सव में सर्दी की बिदाई का भाव भी है। यह समय फसलों से घर भर जाने का है। फसलों से आई समृद्धि को मनाने का उत्सव है यह। ऋतु परिवर्तन के समय मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता घटती है। इसीलिए उसके बीमार होने की संभावना बढ़ जाती है। ऐसे में उस प्रकार के पदार्थों का सेवन किया जाता है जिससे रोग प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि हो।
भारत के बाहर झांके तो आपको दुनियाँ के किसी भी प्राचीन सभ्यता में ग्रहों, नक्षत्रों, राशियों, उपग्रहों का विस्तृत ज्ञान नहीं मिलेगा। हमारे सनातन धर्मियों को लाखों वर्षों से सूर्य संक्रांति का ज्ञान था। साथ ही सूर्य ग्रहण का ज्ञान भी था। हम सैकड़ों वर्ष पहले ही अपनी गणितीय क्षमता से जान लेते थे कि सूर्य ग्रहण कब, किस दिन, कितने घटी, कितने पल और कितने विपल पर होगा? कितने क्षण में ग्रहण का स्पर्श होगा और कितने निमेष पर ग्रहण का मोक्ष होगा? हमें चंद्र ग्रहण का ज्ञान भी था। चंद्र ग्रहण का विस्तृत ज्ञान हम बहुत समय पूर्व ही कर लिया करते थे। सूर्य की बारह महीनों में बारह संक्रांति होती है। उनको मेष संक्रांति, वृष संक्रांति, मकर संक्रांति, मीन संक्रांति इत्यादि नामों से जाना जाता है। सभी बारह राशियों में सूर्य कितने घटी कितने पल पर प्रवेश करेगा यह हमें ज्ञात था लाखों वर्षों से। सूर्य एक राशी के सामने एक महीना रहता है फिर दूसरे महीने दूसरी राशि के सामने चला जाता है। इस प्रकार पूरे एक वर्ष में बारह महीनों में बारह राशियों का भ्रमण करते हुए सूर्य अपना एक वर्ष पूर्ण कर लेता है।
यूरोप वालों को बड़े लंबे प्रयोग के बाद, बड़ी लंबी साधना के बाद सूर्य की गति का बहुत थोड़ा ज्ञान हुआ तो उनलोगों ने अपने आठ महीने के ग्रेगोरियन कैलेंडर को ठीक करके पहले दस महीने का किया। बाद में दो महीने और जोड़कर बारह महीनों का किया। इतने लंबे समय तक कि पूरी यूरोपियन यात्रा में उनको इतना ही पता चल पाया कि सूर्य की पूरी परिक्रमा 365 दिनों की है। बहुत बाद में उनको पता चला कि 365 दिनों के अतिरिक्त भी 6 घंटे का और समय होता है एक सौर वर्ष में। तब उनको लिप ईयर की परिकल्पना हुआ। किन्तु हिंदुओं को तो लाखों वर्षों से यह ज्ञान था कि सूर्य 365 दिन साढ़े 15 घटी में अपना एक वर्ष पूर्ण करता है। इसमें एक घटी को आप घंटा मिनट में बदलेंगे तो एक घटी का अर्थ होगा 24 मिनट।
अरब वालों को चांद के आगे का ज्ञान ही नहीं था। सूर्य का थोड़ा ज्ञान हुआ भी तो बड़ा भ्रमपूर्ण ज्ञान था। उन्होंने चंद्रमा की गति के आधार पर अपना कैलेंडर बनाया। यह इंदु अर्थात चंद्रमा की गति पर आश्रित था। इसी इंदु से इदु और इदु से शब्द इद्दत बना। किन्तु वो गिनती में गड़बड़ कर गए। और चंद्रमा की गति के आधार पर ईद देखकर अर्थात इंदु देखकर अर्थात चांद देखकर महीना गिनने लगे। बारह महीनों की बात भारत के व्यापारियों से उनको पता चली थी तो उन्होंने चांद के बारह महीने गिन लिए। अर्थात 28×12=336 दिनों का वर्ष बना लिया। परिणाम उनके वर्ष का तालमेल सूर्य से आज भी नहीं बैठ पाया। और हर सौर वर्ष में उनका त्योहार एक माह पीछे चला जाता है। क्योंकि उनका वर्ष है 336 दिनों का और सूर्य का वर्ष होता है 365 दिन 6 घंटों का। तो इस अनुसार उनका चांद्र वर्ष और पश्चिम के सौर वर्ष में 29 दिनों का अंतर आ जाता है।
किन्तु भारत के ऋषियों ने दोनो ही प्रकार के काल गणना को बड़े गहराई से समझा। तभी समझ लिया जब ईसाईयत और इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था। उनके लाखों वर्ष पूर्व ही समझ लिया। और जब सनातनी ऋषियों ने अपना कैलेंडर अर्थात अपना पञ्चाङ्ग बनाया तो उनलोगों न तो सौर पञ्चाङ्ग बनाया और न ही चांद्र पञ्चाङ्ग बनाया। हमारे ऋषियों ने जो पञ्चाङ्ग बनाया वह सौर पञ्चाङ्ग और चांद्र पञ्चाङ्ग का सम्मिलित स्वरूप है। दोनो का समन्वित स्वरूप है। दोनो का तालमेल ऐसा बिठाया है भारत के ऋषियों ने कि हिन्दू पञ्चाङ्ग के एक एक महीने का संबंध ऋतुओं से पूर्व निर्धारित सा प्रतीत होता है। केवल पृथिवी पर घट रही घटनाओं का ही समन्वय नहीं है तो ब्रह्मांड में घट रही घटनाओं का भी समन्वय है इसमें। सूर्य मकर राशी में प्रवेश कर रहा है आकाश में किन्तु उसकी भी गणना है भारतीय पञ्चाङ्ग में। सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण हो रहा है आकाश में किन्तु उन सब की गणना है भारतीय पञ्चाङ्ग में। चांद्र पञ्चाङ्ग और सौर पञ्चाङ्ग का साम्य बिठाने के लिए पञ्चाङ्ग में प्रत्येक दो वर्षों के उपरांत पुरुषोत्तम माह का प्रावधान भी किया गया जिसे मलमास भी कहा जाता है। इस माह को बहुत पवित्र कहा जाता है।
भारत में छः ऋतुओं की पूरी परिकल्पना आपको पञ्चाङ्ग में मिल जाएगा। तीन मौसम का ज्ञान तो पूरी दुनियाँ को हो गया है किंतु प्रकृति में घट रही एक एक घटना चाहे वो पृथिवी पर घटित हो या ब्रह्मांड में उन सब का विवरण मिलेगा आपको भारतीय पञ्चाङ्ग में। सूर्य के उत्सव अनेक हैं भारत में। चंद्रमा के उत्सव भी अनेक हैं भारत में। पूर्णिमा और अमावस्या का हिन्दू ज्ञान तो सर्वविदित है जो भारत के बाहर कहीं चर्चा भी नहीं होता। इसी आधार पर माह में दो पक्षों की बात भारतीय मनीषा ने कहा। और चंद्रमा की एक एक तिथि का व्रत आपको मिलेगा। एक एक दिन का राशिफल आपको मिलेगा। क्योंकि चंद्रमा एक नक्षत्र में एक ही दिन रहता है। और एक राशि में लगभग ढाई दिन। चंद्रमा की गति के आधार पर ही करवा चौथ होता है। चंद्रमा की गति के आधार पर ही तीज व्रत अर्थात हरितालिका व्रत होता है। चन्द्रायण व्रत तो बहुत कठिन साधना का अंग माना जाता है भारतीय पर्व परम्परा में।
भारत के बहुत बड़े हिस्से में इसे मकर संक्रांति कहा जाता है। इस दिन लोग पवित्र नदियों, सरोवरों में स्नान करते हैं। दान करते हैं। अन्न दान भी और द्रव्य दान भी। तिल और गुड़ से बने विभिन्न मिष्ठान्न का सेवन करते हैं। इसे पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में लोहड़ी के नाम से मनाया जाता है। इन क्षेत्रों में यह उत्सव एक सप्ताह का मनाया जाता है। मायके से पति के घर उपहार लेकर आती हैं बहुएँ इस दिन। इसी को कहते हैं लोहड़ी का आना। आसाम में इसे बिहू कहा जाता है। आसाम के कुछ क्षेत्रों में इसे माघ बिहू भी कहा जाता है। कुछ क्षेत्रों में इसे भोगाली बिहू भी कहा जाता है। दक्षिण में इसे पोंगल के नाम से मनाया जाता है। तमिलनाडु में यह उत्सव चार दिनों का होता है। प्रथम दिवस इसे भोगी पांडीगई कहते हैं। दूसरे दिन थाई पोंगल कहा जाता है। तिसरे दिन माट्टू पोंगल के नाम से जाना जाता है तो चौथे दिन कानम पोंगल के नाम से मनाया जाता है। यह आंध्र में तीन दिन का उत्सव होता है।
कर्नाटक के किसानों का यह सुग्गी उत्सव है। कर्नाटक में इसे किछु हाईसुवुडडू के रूप में भी मनाया जाता है। हिमाचल प्रदेश में शिमला के आसपास इसे माघ साज्जि कहा जाता है। कुमाऊं क्षेत्र में इस उत्सव को घुघुटिया के रूप में मनाया जाता है और कौआ बुलाने की प्राचीन पद्धति के अवशिष्ट रूप में काले कौआ के आवाहन के गीत गाये जाते हैं। उड़ीसा में इसे मकर बासीबा कहकर मनाया जाता है। बंगाल में इसे मागे सक्राति के रुप में मनाते हैं। इस दिन तिल का सेवन स्वास्थ्य वर्द्धक होता है इसीलिए इसे तिल संक्रात भी कहते हैं। केरल में सबरीमाला पर मकर ज्योति जलाकर मकराविलाक्कू मनाया जाता है। गोआ में हल्दी कुमकुम मनाया जाता है। मकर संक्रांति के दूसरे दिन को मंक्रात के रूप में भी मनाया जाता है।
कहीं तिल खाया जाता है तो कहीं खिंचड़ी खाने की प्रथा है। खिचड़ी के चार यार। दहि पापड़ घी अँचार। कई क्षेत्रों में तेहरी भी बनाया जाता है। कहीं गज्जक और रेवड़ी चखा जाता है तो कहीं पतंगबाजी का हुनर तरासा जाता है। कहीं गुड़ से बने अनेकानेक मिष्ठान्न खाये जाते हैं तो कहीं दहिं चूड़ा खाने की प्रथा है। तिल के लड्डू, तीसी के लड्डू, अलसी के लड्डू, धान का लावा तो कहीं जीनोर का लावा, मक्के का लावा, मूंगफली की पट्टी, बादाम की पट्टी, काजू की पट्टी, अखरोट की पट्टी खाया जाता है। अनेक क्षेत्रों में तिलकुट कूटा जाता है। खाने के अनेक व्यंजन विशेष रुप में इसी समय खाया जाता है। जितने भी प्रकार के व्यंजन इस समय बनाये जाते हैं उन सभी सामग्रियों का संबंध इस ऋतु विशेष में स्वास्थ्य रक्षा से है। कैसे इस समय में उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त किया जा सके? इस आयुर्वेदिक चिंतन पर आधारित हैं ये सभी व्यंजन। इतना समग्र चिंतन केवल और केवल भारत में मिलता है। जिसमें फसल चक्र से लेकर अर्थ चक्र और स्वास्थ्य चक्र से लेकर आयुषचक्र तक का चिंतन भी समाहित है। इस सम्पूर्ण वांग्मय के समक्ष पूरा विश्व बौना है। और भारतीय मनीषा हिमालय से ऊँची ऊँचाई को स्पर्श करता हुआ प्रतीत होता है।
~मुरारी शरण शुक्ल।
मकर संक्रांति 2: "मकर संक्रांति का संबंध अँग्रेजी कैलेंडर की तिथि से न होकर सूर्य के रिलेटिव मोशन से है। इस संदर्भ में हिन्दू खगोलीय गणना अधिक परफेक्ट है। सूर्य के परिक्रमण गति का ज्ञान भारतीयों को था इसका प्रमाण है मकर संक्रांति।"
मकर संक्रांति की परफेक्ट गणना करने में अंग्रेजी कैलेंडर विफल रहा है। जबकि हिन्दू कैलेंडर इस गणना में परफेक्ट है। आप पूछेंगे कैसे? तो प्रस्तुत है उत्तर। स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ था मकर संक्रांति को। उस दिन अंग्रेजी तिथि 12 जनवरी 1863 था। आपको विश्वास नहीं होता मेरी बातों का तो आप उनकी जीवनी पढ़ लीजिए एक बार। इससे यह स्पष्ट होता है कि 1863 में मकर संक्रांति मनाया गया था 12 जनवरी को। कुछ वर्षों तक मकर संक्रांति मनाया जाता था 14 जनवरी को। किन्तु अब मकर संक्रांति मनाया जाता है 15 जनवरी को। क्या आप जानते हैं ऐसा क्यों हो रहा है? क्योंकि अंग्रेजी कैलेंडर बनाने वाले लोग इसका विचार करने में सक्षम नहीं थे। उनके कैलेंडर को मकर संक्रांति से कोई लेना देना न तब था न अब है। पूरे यूरोप में संक्रांति की न कोई कल्पना रही है और न ही सेलिब्रेशन। अब मकर संक्रांति विदेशों में सेलिब्रेट होता है तो भारतीयों के विदेश में होने के कारण। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार मकर संक्रांति की तिथि प्रत्येक पचास वर्ष में एक तिथि खिसक जाती है। संक्रांति वहीं रहती है। अंग्रेजी कैलेंडर खिसक जाता है। अर्थात अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार प्रत्येक दो वर्ष में लगभग एक घंटे का अन्तर आ जाता है संक्रांति के समय में। अब विवेकानंद के जन्म को 156 वर्ष हो चुके तो इसीलिये 156 वर्षों में संक्रांति की तिथि 12 से 15 जनवरी तक खिसक चुकी। इस वर्ष संक्रांति 14 जनवरी को रात्री 2 बजे के लगभग हुआ है।
हमारे सनातन पञ्चाङ्ग में न केवल मकर संक्रांति वरण सभी बारह संक्रांतियों का विस्तृत व सटीक विवरण उपलब्ध है। आप कहेंगे बारह संक्रांति? आश्चर्य मत करिए। आकाशमंडल में सौर मंडल के निकट बारह तारा समूह हैं जो हमारे सौर मंडल के सभी पिंडों के परिक्रमण पथ में सामने आते हैं। जैसे मकर राशी के सामने सूर्य के आते ही मकर संक्रांति होती है। अर्थात सूर्य का मकर राशी में संक्रमण होता है। वैसे मकर से जब सूर्य कुम्भ राशी के समीप के आकाश को स्पर्श करता है तब कुम्भ संक्रांति होती है। ऐसे ही मीन संक्रांति, मेष संक्रांति, वृष संक्रांति, मिथुन संक्रांति, कर्क संक्रांति होता है। कर्क संक्रांति से सूर्य दक्षिणायन होने लगते हैं। तभी देवशयनी एकादशी होता है। और जैनियों का चतुर्मासा होता है। इसके पश्चात सिंह संक्रांति, कन्या संक्रान्ति, तुला संक्रान्ति, बृश्चिक संक्रान्ति, धनु संक्रान्ति और फिर मकर संक्रान्ति। यह है सभी बारह संक्रान्तियों का वर्ष भर का चक्र। सूर्य इसी प्रकार अपने परिक्रमा पथ पर राशियों से सापेक्षिक गति करता हुआ परिभ्रमण करता रहता है। इसी सापेक्षिक गति को अंग्रेजी में रिलेटिव मोशन कहा जाता है।
किन्तु हमारे हिन्दू पञ्चाङ्ग में इसके कालक्रम में चूक नहीं होती। हर वर्ष यह मकर संक्रांति पौष-माघ माह में ही होता है। और इसकी तिथि हमें काल गणना के गणित से ज्ञात हो जाता है जो पञ्चाङ्ग में वर्णित होता है। वैसे ही पूरे वर्षभर के सूर्य से जुड़े एक एक घटनाक्रम का हम आकलन गणितीय सूत्रों के आधार पर कर लेते हैं। चूँकि ब्रह्मांड के सभी पिंडो की एक निश्चित गति है। इसीलिए हम गणित के सूत्रों के आधार पर निश्चित गति को प्रतिमान मानकर सूर्य समेत सभी ग्रहों की स्थिति का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। उनकी परस्पर दूरी और स्थिति ज्ञात हो जाने से हमें एक एक आकाशीय पिंड से संबंधित सभी आकाशीय घटनाओं का ज्ञान हो जाता है। सूर्य, चंद्रमा और पृथिवी की परस्पर स्थिति का ज्ञान हो जाने से हम सहजता से सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण की घटनाओं का पल, क्षण और निमेष का ज्ञान भी प्राप्त कर लेते है।
सूर्य की अनेक घटनाओं में एक बात उसका घूर्णन और परिभ्रमण भी है। सूर्य के घूर्णन का ज्ञान हमें लाखो वर्षों से था। इसीलिए हम हरेक पूजा के बाद सूर्य का अनुसरण करते हुए घूर्णन की क्रिया करते हैं। और बड़े अनुष्ठान, यज्ञ इत्यादि में परिक्रमा भी करते हैं। बड़े महापुरुषों, गुरु इत्यादि की भी हम आदरपूर्वक परिक्रमा करते हैं। यह कुछ और नहीं वरण सूर्य की कर्मठता को जानकर उसका अनुसरण करने की क्रिया है। संक्रांति का ज्ञान भी यह प्रमाणित करता है कि हमें सूर्य की परिक्रमण गति का ज्ञान था। ग्रहण का ज्ञान भी सूर्य की घूर्णन और परिक्रमण गति के हमारे ज्ञान का परिणाम है। सूर्य की सभी ऊर्जा का स्रोत होने का ज्ञान भी हमें था। तभी सूर्य निकट आने से गर्मी बढ़ेगी और सूर्य दूर जाने से ठंढक बढ़ेगी यह हम जानते हैं। उत्तरायण होने पर सूर्य मानव जनसँख्या वाले सभी महादेशों के निकट होता है। दक्षिणी गोलार्ध में सागर ही अधिक है। अधिकांश मानव जनसँख्या उत्तरी गोलार्द्ध में है इसीलिए जीवन के लिए आवश्यक गर्मी सूर्य के उत्तरी गोलार्ध के ऊपर आने से ही मिलती है।
सूर्य के अंदर चल रहे संलयन और विलयन की प्रक्रिया का भी हमें ज्ञान था। सूर्य गर्म है यह तो हम जानते ही थे। सूर्य के अत्यधिक गर्म होने से होने वाली समस्याओं के बारे में हमारा ज्ञान प्रमाणित है। संज्ञा, यमी, यम, शनि और छाया की कथा का वर्णन और विश्वकर्मा द्वारा सूर्य का तेज कम करने के उपायों की प्रतीकात्मक कथा भी इस ज्ञान से हमारे अवगत होने का प्रमाण है। सूर्य के सात घोड़ों का वर्णन भी बहुत कुछ स्पष्ट करता है। सात घोड़े का अर्थ है वह साधन जिसके सहारे सूर्य की किरणें यात्रा करती हैं। अर्थात सूर्य किरणों के सात अवयव अर्थात सूर्य की किरणों में अंतर्निहित सात रंग। विभग्योर। ईनके सहारे ही तो सूर्य किरणे लंबी यात्रा कर पाती हैं और अत्यधिक ऊष्मा सन्निहित कर पाती हैं। केवल्य सूर्य की किरणों का ही नहीं तो ब्रह्मांड के विभिन्न पिंडों से आने वाली अनेकानेक प्रकार की किरणों का ज्ञान हमें था। और उन किरणों का धरती पर पड़ने वाले प्रभावों का भी ज्ञान हमे था।
ब्रह्मण्ड के अनेक पिंडो से निकलकर पृथिवी तक अनेक किरणों के आने का विस्तृत ज्ञान वर्णित है ज्योतिष शास्त्र में। आज के वैज्ञानिक विश्व को रेड से परे की कुछ गिनती के किरणों का ही ज्ञान हो पाया तो अपनी अज्ञानता को छुपाने के लिए वैज्ञानिकों ने एक शब्द गढ़ा इंफ्रा रेड। वैसे ही एक और शब्द गढ़ा गया अल्ट्रा वायोलेट वायोलेट से इतर की सभी किरणों के लिए। और पूरा वैज्ञानिक विश्व अपनी नाकामी छुपा गया। दृश्य किरणों का ज्ञान भी पूरा पूरा नहीं है वैज्ञानिकों को। किन्तु हमारे ऋषियों ने एक लाख प्रकार की किरणों का पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभावों का विवरण प्रस्तुत किया। और उसे षोडशवर्ग के नाम से अभिव्यक्त किया। विभिन्न अंशात्मक विभाजन करके एक लाख प्रकार के स्टैंडर्ड आलेख तैयार किया जिनका विवरण भृगु संहिता में प्राप्त होता है। राहु केतु नाम के ग्रहों की कल्पना ही स्पष्ट करता है कि ब्रह्मांड से आने वाले विभिन्न प्रकार की किरणों को मोटा मोटी दो बड़े हिस्सों में बाँटकर समझने और समझाने का प्रयास किया था हमने।
सुर्य की ऊर्जा ही पृथ्वी की सभी प्रकार की ऊर्जाओं का अनंतिम श्रोत है यह हमें ज्ञात था। ईसका प्रमाण ऋग्वेद के प्रथम मंडल का प्रथम मंत्र है। अग्निमिळे पुरोहिताः का अर्थ ही है कि सृष्टि के आरम्भ में अग्नि के सभी स्वरूप एक साथ प्रकट होते हैं। अग्नि के सभी स्वरूप मिलकर सूर्य का स्वरूप लेते हैं। यह वर्णन सूर्य की ऊर्जा के विभिन्न स्वरूपों में परिवर्तित होने की क्षमता का दिग्दर्शन है। सूर्य की ऊर्जा के स्थानांन्ततरण (ट्रांसमिशन ऑफ हिट) का ज्ञान भी हमें था। उसके ऊर्जा स्थानांतरित करने की क्षमता का वर्णन सूर्य और संज्ञा की कथा में मिलता है। अग्नि सूक्त के अनेक मंत्र सूर्य की विभिन्न क्षमताओं का वर्णन करते हैं। अग्नि सूक्त का गायत्री छंद में लिखा होना भी बहुत कुछ कहता है। सूर्य की इन्ही क्षमताओं से नतमष्तक होकर हम सूर्य के आराधक हैं। और सूर्य के प्रतिनिधि रूप में हमारे सामने प्रकट होने वाली अग्नि के भी हम आराधक हैं। सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के अनेक उत्सव हैं जिनमे एक मकर संक्रांति भी हैं। आज के दिन विभिन्न जल पिंडों में स्नान करके हम अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं। सूर्य का तेज धारण करने का प्रयत्न करते हैं। यही भाव कार्तिक स्नान की परम्परा में भी है और संक्रांति स्नान और माघी स्नान की परंपरा में भी। माघ मास के कल्पवास का संबंध भी इसी आयुर्वेदिक भाव से है। क्रमशः......... ........।
~मुरारी शरण शुक्ल।
त्योहारो की निश्चित तिथी.
विगत कुछ वर्षॊ से हिंदू तीज त्योहारॊ के समय उहापोह की स्तिथि उत्पन्न हो जाती है कि अमुक त्योहार किस दिन है और वर्तमान काल मे धार्मिक ग्रन्थो से दुर होता हुआ सामान्य मानव यह निश्चित नही कर पाता परिणामस्वरुप कइ त्योहारो को दो अलग अलग दिनो मे मनाया जाता है.
और ऐसा ही आज पुनः हुआ जब मकर संक्रांति को मनाने के लिये मन्दिरो मे भी दोनो दिन अर्थात 14 और 15 जनवरी को मकर संक्रांति बता कर मनाने के लिये कहा गया. मकार सक्रांति को सामान्य भाषा मे समझाया जाये तो कहा जा सकता है कि जिस दिन सुर्य देवता धनु राशि से निक़ल कर मकर राशि मे प्रवेश करते है तो मकर संक्रांति मनायी जाती है परंतु अबकी बार सुर्य देवता 14जनवरी की रात आठ बजे मकर राशि मे प्रवेश करेगे और भुमन्डल पर मकर राशि के सुर्य का आगमन 15 जनवरी को ही होगा अत: मकर संक्रांति 15 जनवरी की ही होगी.
धार्मिक रिति रिवाजो के पीछे छिपे खगोलिय या वैज्ञानिक कारणो से अनजान सामान्य मानव के लिये यदि इतना समझना कठिन है तो इसी से अनुमान लगा लेना था कि पोन्गल भी कल 15 जनवरी को और कुम्भ पर्व मे होने वाला प्रथम शाही स्नान भी 15 जनवरी को है नाकि 14 जनवरी को...
परन्तु जब लोग पंचांग से दुर होकर सुनी सुनायी बातो पर ही अल्पज्ञान और अज्ञानता स्वरुप शुभकामनाये दे तो दशहरे वाले नवरात्रि की नवमी को राम नवमी बताने पर भी अचरज नही होता .
त्योहारो की निश्चित तिथी.
विगत कुछ वर्षॊ से हिंदू तीज त्योहारॊ के समय उहापोह की स्तिथि उत्पन्न हो जाती है कि अमुक त्योहार किस दिन है और वर्तमान काल मे धार्मिक ग्रन्थो से दुर होता हुआ सामान्य मानव यह निश्चित नही कर पाता परिणामस्वरुप कइ त्योहारो को दो अलग अलग दिनो मे मनाया जाता है.
और ऐसा ही आज पुनः हुआ जब मकर संक्रांति को मनाने के लिये मन्दिरो मे भी दोनो दिन अर्थात 14 और 15 जनवरी को मकर संक्रांति बता कर मनाने के लिये कहा गया. मकार सक्रांति को सामान्य भाषा मे समझाया जाये तो कहा जा सकता है कि जिस दिन सुर्य देवता धनु राशि से निक़ल कर मकर राशि मे प्रवेश करते है तो मकर संक्रांति मनायी जाती है परंतु अबकी बार सुर्य देवता 14जनवरी की रात आठ बजे मकर राशि मे प्रवेश करेगे और भुमन्डल पर मकर राशि के सुर्य का आगमन 15 जनवरी को ही होगा अत: मकर संक्रांति 15 जनवरी की ही होगी.
धार्मिक रिति रिवाजो के पीछे छिपे खगोलिय या वैज्ञानिक कारणो से अनजान सामान्य मानव के लिये यदि इतना समझना कठिन है तो इसी से अनुमान लगा लेना था कि पोन्गल भी कल 15 जनवरी को और कुम्भ पर्व मे होने वाला प्रथम शाही स्नान भी 15 जनवरी को है नाकि 14 जनवरी को...
परन्तु जब लोग पंचांग से दुर होकर सुनी सुनायी बातो पर ही अल्पज्ञान और अज्ञानता स्वरुप शुभकामनाये दे तो दशहरे वाले नवरात्रि की नवमी को राम नवमी बताने पर भी अचरज नही होता .
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