गुरुवार, जून 27, 2013

टिहरी बाँध के टूटने पर समूचा आर्यावर्त, उसकी सभ्यता नष्ट हो जाएगी by शंखनादी सुनील


यह भारत की एक प्रमुख नदी घाटी परियोजना हैं ।टिहरी बांध दो महत्वपूर्ण हिमालय की नदियों भागीरथी तथा भीलांगना के संगम पर बना है  टिहरी बांध करीब 260.5 मीटर ऊंचा, जो की भारत का अब तक का सबसे ऊंचा बाँध है      




   प्रो. टी. शिवाजी राव भारत के प्रख्यात भू-वैज्ञानिक हैं। भारत सरकार ने टिहरी बांध परियोजना की वैज्ञानिक-विशेषज्ञ समिति में इन्हें भी शामिल किया था। प्रो. शिवाजी राव का मानना है कि उनकी आपत्तियों के बावजूद यह परियोजना चालू रखी गयी।गंगा भारतवासियों की आस्था है। भारत की आध्यात्मिक शक्ति एवं राष्ट्रीय परम्परा का अंग है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पवित्र गंगा को कुछ लोग सिर्फ भौतिक स्रोत के रूप में देखते हैं। सिंचाई और विद्युत उत्पादन के लिए वे टिहरी बांध के पीछे गंगा को अवरुद्ध कर रहे हैं। मेरा मानना है कि सिंचाई और विद्युत उत्पादन वैकल्पिक तरीकों से भी हो सकता है। इसके कई विकल्प हैं, लेकिन गंगा का कोई विकल्प नहीं है।            

सन. 1977-78 में टिहरी परियोजना के विरुद्ध आन्दोलन हुआ था। तब श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सन् 1980 में इस परियोजना की समीक्षा के आदेश दिए थे। तब केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित भूम्बला समिति ने सम्यक विचारोपरांत इस परियोजना को रद्द कर दिया था।अन्तरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार जहां भी चट्टान आधारित बांध बनते हैं वे अति सुरक्षित क्षेत्र में बनने चाहिए। प्रसिद्ध अमरीकी भूकम्प वेत्ता प्रो. ब्राने के अनुसार, "यदि उनके देश में यह बांध होता तो इसे कदापि अनुमति न मिलती।" क्योंकि यह बांध उच्च भूकम्प वाले क्षेत्र में बना है। ध्यान रहे कि 1991 में उत्तरकाशी में जो भूकम्प आया था, वह रिक्टर पैमाने पर 8.5 की तीव्रता का था। टिहरी बांध का डिजाइन, जिसे रूसी एवं भारतीय विशेषज्ञों ने तैयार किया है, केवल 9 एम.एम. तीव्रता के भूकम्प को सहन कर सकता है। परन्तु इससे अधिक पैमाने का भूकम्प आने पर यह धराशायी हो जाएगा। मैं मानता हूं कि यह परियोजना भयानक है, खतरनाक है, पूरी तरह असुरक्षित है। भूकम्प की स्थिति में यदि यह बांध टूटा तो जो तबाही मचेगी, उसकी कल्पना करना भी कठिन है। इस बांध के टूटने पर समूचा आर्यावर्त, उसकी सभ्यता नष्ट हो जाएगी। प. बंगाल तक इसका व्यापक दुष्प्रभाव होगा। मेरठ, हापुड़, बुलन्दशहर में साढ़े आठ मीटर से लेकर 10 मीटर तक पानी ही पानी होगा। हरिद्वार, ऋषिकेश का नामोनिशां तक न बचेगा। मेरी समझ में नहीं आता कि केन्द्र व प्रदेश सरकार ने इसे कैसे स्वीकृति दी? जनता को इसके कारण होने वाले पर्यावरणीय असन्तुलन एवं हानि के बारे में अंधेरे में रखा गया है। श्रीमती इंदिरा गांधी ने जब परियोजना की समीक्षा के आदेश दिए थे तो इसके पीछे उनकी यही सोच थी कि जनता के हितों और पर्यावरण को ध्यान में रखकर ही इस परियोजना पर अन्तिम फैसला लिया जाए। देश के अनेक वैज्ञानिकों व अभियंताओं ने भी इस परियोजना का विरोध किया है। मुझे तो लगता है कि टिहरी बांध सिर्फ एक बांध न होकर विभीषिका उत्पन्न करने वाला एक "टाइम बम" है।                

गनीमत है कि जिस नैनीताल में हम पढ़े लिखे, वह राजधानी नहीं बना, वरना विनाशकारी पौधे क्या गुल खिलाते कहना मुश्किल है। नैनी झील पर  पर हमारे मित्र प्रयाग पांडेय की रपट का लोगों ने नोटिस नहीं लिया और न ही लोग नैनीताल समाचार या पहाड़ को गंभीरता से पढ़ते। अज्ञानता से हम विकास के कार्निवाल में खुशा खुशी मरने को तैयार हैं।नैनीताल की सुंदरता पर चार चांद लगाने वाली नैनी झील का अस्तित्व खतरे में है। पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केंद्र इस झील का पानी तेजी से खत्म हो रहा है। झील से करीब एक किलोमीटर दूर पानी का एक स्रोत फूट पड़ा है, जिससे रोजाना करीब चार लाख 32 हजार लीटर पानी यूं ही बह जा रहा है। झील पर उपजे खतरे के पूरे अध्ययन व समाधान के लिए उत्तराखंड विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद (यूकॅास्ट) ने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी (एनआइएच) को पत्र लिखा है। पानी का यह स्रोत नैनी झील के निचले क्षेत्र में मई माह में फूटा है। इससे 300 एलपीएम (लीटर प्रति मिनट) पानी निकल रहा है। पानी की इतनी तेज रफ्तार को देखकर वैज्ञानिकों के पेशानी पर बल पड़ गए हैं। यूकॉस्ट के महानिदेशक डॉ. राजेंद्र डोभाल का कहना है कि झील के निचले हिस्से पर कोई दरार आने की आशंका है। अन्यथा इतनी रफ्तार में झील के निचले क्षेत्र में पानी का स्रोत न फूटता। यदि झील के मुख्य स्रोत व बर्बाद हो रहे पानी के बीच का अंतर बढ़ गया तो आने वाले सालों में नैनी का अस्तित्व समाप्त हो सकता है। डॉ. डोभाल के मुताबिक झील से पानी का रिसाव रोकने के लिए एनआइएच के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. वीसी गोयल को पत्र लिखा है। यूकॉस्ट के आग्रह पर एनआइएच ने सकारात्मक रुख दिखाया है और संस्थान के विज्ञानियों ने दो माह के भीतर अध्ययन पूरा करने की बात कही है।             

हिमालय का पर्वतीय क्षेत्र काफी कच्चा हैं। इसलिए गंगा में बहने वाले जल में मिट्टी की मात्रा अधिक होती हैं देश की सभी नदियों से अधिक मिट्टी गंगा जल में रहती हैं। अत: जब गंगा के पानी को जलाशय मे रोका जाएगा तो उसमें गाद भरने की दर देश के किसी भी अन्य बांध में गाद भरने की दर से अधिक होगी। दूसरी ओर, टिहरी में जिस स्थान पर जलाशय बनेगा वहाँ के आस-पास का पहाड़ भी अत्यंत कच्चा हैं। जलाशय में पानी भर जाने पर पहाड़ की मिट्टी कटकर जलाशय में भरेगी। अर्थात गंगा द्वारा गंगोत्री से बहाकर लायी गयी मिट्टी तथा जलाशय के आजू-बाजू के पहाड़ से कटकर आयी मिट्टी दोनों मिलकर साथ-साथ जलाशय को भरेंगे। गाद भरने की दर के अनुमान के मुताबिक टिहरी बांध की अधिकतम उम्र 40 वर्ष ही आँकी गई हैं। अत: 40 वर्षो के अल्प लाभ के लिए करोड़ों लोगों के सिर पर हमेशा मौत की तलवार लटकाए रखना लाखों लोगों को घर-बार छुड़ाकर विस्थापित कर देना एवं भागीरथी और भिलंगना की सुरम्य घाटियो को नष्ट कर देना पूरी तरह आत्मघाती होगा। 

टिहरी बांध से होने वाले विनाश में एक महत्वपूर्ण पहलू गंगा का भी हैं। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार गंगा के बहते हुए जल में ही श्राद्ध और तर्पण जैसे धार्मिक कार्य हो सकते है लेकिन बांध बन जाने से गंगा का प्रवाह जलाशय में कैद हो जाएगा हिन्दू शास्त्रों के अनुसार गंगा का जल जितनी तेज गति से बहता है उतना ही शुद्ध होता हैं। यही गतिमान जल गंगा में बाहर से डाली गई गंदगी को बहाकर ले जाता हैं। गंगा भारत की पवित्रतम् नदी तो हैं ही, हमारी सभ्यता-संस्कृति की जननी भी हैं। प्रत्येक भारतवासी के मन में गंगा में एक डुबकी लगाने या जीवन के अंतिम क्षणों में गंगा जल की एक बूंद को कंठ से उतारने की ललक रहती हैं। जब भी कोई भारतवासी किसी अन्य नदी में स्नान करता हैं तो सर्वप्रथम वह गंगा का स्मरण करता हैं। यदि वह गंगा से दूर रहता हैं तो मन में सदैव गंगा में स्नान करने की इच्छा रखता हैं। जब वह अपने मंतव्य में सफल हो जाता हैं तो गंगा के परम पवित्र जल में स्नान करने के पश्चात अपने साथ गंगा जल ले जाना नहीं भूलता और घर जाकर उसे सुरक्षित स्थान पर रख देता हैं। जब भी घर में कोई धार्मिक अनुष्ठान हो तो इसी गंगा जल का प्रयोग होता हैं।

राष्ट्र की एकता और अखंडता में गंगा का बहुत महत्वपूर्ण योगदान हैं। शास्त्रों के अनुसार गंगोत्री से गंगा जल ले जाकर गंगा सागर में चढ़ाया जाता हैं और फिर गंगा सागर का बालू लाकर गंगोत्री में डाला जाता हैं। इस पूरी प्रक्रिया में व्यक्ति को गंगोत्री से गंगासागर और फिर गंगासागर से गंगोत्री तक की यात्रा करनी होती हैं। देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक की यह यात्रा ही राष्ट्रीय एकता के उस ताने-बाने को बुनती हैं जिसमें देश की धरोहर बुनी हुई हैं। गंगा हमारे राष्ट्र की जीवनधारा हैं और इसे रोकना राष्ट्र के जीवन को रोकने जैसा हैं। 1914-16 में स्व. पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने अंग्रेज़ो द्वारा भीमगौड़ा में बनाए जाने वाले बांध के खिलाफ आंदोलन किया था। इस आंदोलन से पैदा हुए जन आक्रोश के कारण बाँध बनाने का फैसला रद्द कर दिया था। मालवीय जी ने अपनी मृत्यु से पूर्व श्री शिवनाथ काटजू को लिखे पत्र में कहा था कि “गंगा को बचाए रखना।


विशेषज्ञों की मानें तो नैनी झील में हर साल 67 घनमीटर रेत जमा होने से उसकी गहराई घट रही है। घरेलू कूड़े-कचरे के कारण झील में प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है। झील का पानी प्रदूषित होने से बीमारियां फैल रही हैं। यदि झील संरक्षण के लिए दीर्घकालिक उपाय नहीं किए गए तो अगले 300 सालों में नैनी झील का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। नैनीताल शहर के एक होटल में कुमाऊं विश्वविद्यालय, जर्मनी की यूनिवर्सिटी ऑफ पो‌र्ट्सडम व प्राइवेट संस्था हाईड्रोलॉजिकल कंसलटेंसी के नुमाइंदों की झील संरक्षण पर बैठक हुई। बैठक में डीएसबी के प्रो. पीसी तिवारी ने बताया कि जर्मन सरकार के दुनियाभर में जल संरक्षण कार्यक्रम के अंतर्गत भूगोल विभाग ने नैनी झील समेत जिले की अन्य झीलों का अध्ययन किया। जर्मन विशेषज्ञों के सहयोग से झील संरक्षण के प्रयास शुरू किए गए हैं। इसका खर्च भी जर्मन सरकार वहन करेगी। परियोजना के अंतर्गत पब्लिक प्राइवेट पीपुल्स पार्टनरशिप से झीलों का संरक्षण किया जाएगा। इसमें जल संस्थान, जल निगम का सहयोग भी लिया जाएगा। जर्मन विशेषज्ञ प्रो. ओसव‌र्ल्ड ब्लूमिस्टिन व ओलेफ ग्रेगोरी ने झील संरक्षण के लिए तकनीकी पक्ष की जानकारी दी। बैठक में डीएसबी परिसर के निदेशक प्रो. बीआर कौशल, प्रो. सीसी पंत, एकेडमिक स्टाफ कालेज के निदेशक प्रो. बीएल साह, प्रो. आरके पांडे, प्रो. आरसी जोशी, प्रो. गंगा बिष्ट, प्रो. पीएस बिष्ट, प्रो. बीएस कोटलिया, प्रो. पीके गुप्ता, जल निगम के मुख्य अभियंता सुशील कुमार, जल संस्थान के एई एसके गुप्ता, जेई रमेश चंद्रा आदि मौजूद थे। संचालन डॉ. भगवती जोशी ने किया।

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