रविवार, दिसंबर 28, 2014

शर्म करो आप भारतीय हो , अपने को जानते भी हो ?

शर्म करो आप भारतीय हो , अपने को जानते भी हो ?

4 जनवरी को मुंबई में होने वाली इंडियन साइंस कांग्रेस में शिरकत करने वाले वक्ता कैप्टन आनंद जे बोडास का कहना है कि हवाई जहाज की खोज वैदिक युग में हुई और इससे न सिर्फ एक देश से दूसरे देश बल्कि एक ग्रह से दूसरे ग्रह में भी ट्रैवल करना आसान था।

बोडास ने प्राचीन भारतीय ग्रंथ 'वैमानिका प्रकारानाम' का हवाला देते हुए मीडिया से चर्चा के दौरान बताया कि उन दिनों के विमान आज के विमानों की तुलना में (जो केवल आगे की तरफ ही उड़ते हैं) काफी बड़े होते थे। साथ ही वे दाएं-बाएं घूमने के अलावा पीछे की ओर भी आसानी से आ सकते थे।
वैदिक गणित की खोज भारत में ही हुई थी। स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ द्वारा रचित वैदिक गणित न्यूमेरिकल कैल्कुलेशन की वैकल्पिक व शॉर्ट मेथड का समूह है। इसमें 16 मूल सूत्र दिए गए हैं। वैदिक गणित कैल्कुलेशन की ऐसी मेथड है, जिससे कठिन न्यूमेरिकल कैल्कुलेशन बेहद आसान तरीके से संभव हैं, फिर भी हम कठिन अंग्रेजी तरीको से सवाल हल करते हैं।
शून्य व दशमलव की खोज

माना जाता है कि शून्य का प्रयोग वैदिक काल से शुरू हुआ। सन् 498 में भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट ने शून्य को खोजा। उन्होंने कहा था- 'स्थानं स्थानं दसा गुणम्' अर्थात् दस गुना करने के लिए उसके आगे शून्य रखो।  यही संख्या के दशमलव सिद्धांत की शुरूआत माना जाता है। भारत का 'शून्य' अरब में 'सिफर' (खाली) नाम से जाना गया। लैटिन, इटैलियन, फ्रेंच से होते हुए यह अंग्रेजी में 'जीरो' (zero) कहलाया।
भाषा व्याकरण

दुनिया का पहला व्याकरण पाणिनी ने लिखा। 500 ईसा पूर्व पाणिनी ने संस्कृत भाषा को व्याकरण में ढाला। इनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है, जिसमें 8 अध्याय और 4 सहस्र सूत्र हैं। अष्टाध्यायी में उस समय के भारतीय समाज के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा, राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन के रिफरेंस भी हैं।
पहिए (व्हील) की खोज

ऐसा माना जाता है कि रामायण और महाभारतकाल से पहले ही पहिए की खोज भारत में हो चुकी थी और रथों में पहियों का प्रयोग किया जाता था। विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता सिन्धु घाटी के अवशेषों से मिले (ईसा से 3000-1500 वर्ष पूर्व की बनी) खिलौना हाथीगाड़ी भारत के म्यूजियम में अब भी रखे हैं।
शल्य चिकित्सा (सर्जरी) की खोज

भारत में सुश्रुत को पहला शल्य चिकित्सक माना जाता है। आज से 3,000 साल पहले सुश्रुत युद्ध या नेचुरल डिजास्टर में जो लोग घायल हो जाते थे उन्हें ठीक करने का काम करते थे। सुश्रुत ने 1,000 ईसा पूर्व प्रेग्नेंसी, कैटरेक्ट, बॉडी पार्ट ट्रांसप्लांट, पथरी का इलाज और प्लास्टिक सर्जरी जैसी कई तरह की सर्जरी के सिद्धांत बताए थे।
ज्यामिति (ज्यॉमेट्री) की खोज

बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ हैं। दरअसल (800 ईसा पूर्व) बौधायन ने रेखागणित, ज्यामिति के महत्वपूर्ण नियमों की खोज की थी। उस समय भारत में रेखागणित, ज्यामिति या त्रिकोणमिति को शुल्व शास्त्र कहा जाता था।




पूरे विश्व को सभ्यता हमने सिखाई और आज हम उनसे सभ्यता सिख रहे हैं
ध्यान-साधना, योग, आयुर्वेद, ये सारी अनमोल चीजें हमारी विरासत थी लेकिन अंग्रेजों ने हम लोगों के मन में बैठा दिया कि ये सब फालतू कि चीज़े हैं और हम लोगों ने मान भी लिया पर आज जब उनको जरुरत पड़ रही हैं इन सब चीजों कि तो फिर से हम लोगों कि शरण में दौड़े-भागे आ रहे हैं और अब हमारा योग 'योगा' बनकर हमारे पास आया तब जाकर हमें एहसास हो रहा हैं कि जिसे हम कंचे समझकर खेल रहे थे, वो हीरा था। उस आयुर्वेद के ज्ञान को विदेशी वाले अपने नाम से पेटेंट करा रहे हैं जिसके बाद उसका व्यापारिक उपयोग हम नहीं कर पायेंगे। इस आयुर्वेद का ज्ञान इस तरह रच बस गया हैं हम लोगों के खून में कि चाहकर भी हम इसे भुला नहीं सकते ...आज भले ही बहुत कम ज्ञान हैं हमें आयुर्वेद का पर पहले घर कि हरेक औरतों को इसका पर्याप्त ज्ञान था तभी तो आज दादी माँ के नुस्खे या नानी माँ के नुख्से पुस्तक बनकर छप रहे हैं। उस आयुर्वेद की छाया प्रति तैयार करके अरबी वाले 'यूनानी चिकित्सा' का नाम देकर प्रचलित कर रहे हैं।
जिस समय पश्चिम में आदिमानवों ने कपडे पहनना सीखा था...उस समय हमारे यहाँ लोग पुष्पक विमान में उड़ा करते थे। आज अगर विदेशी वाले हमारे ज्ञान को अपने नाम से पेटेंट करा रहे हैं तो हमारी नपुंसकता के कारण ही ना ??
वो तो योग के ज्ञाता नहीं रहे होंगे विदेश में और जब तक होते तब तक स्वामी रामदेव जी आते नहीं तो ये किसी विदेशी के नाम से पेटेंट हो चुका होता....हमारी एक और महान विरासत हैं संगीत की जो माँ सरस्वती की देन हैं किसी साधारण मानवों की नहीं। फिर इसे हम तुच्छ समझकर इसका अपमान कर रहे हैं। याद हैं आज से साल भर पहले हमारे संगीत-निर्देशक ए.आर. रहमान (पहले नाम दिलीप कुमार) को संगीत के लिए आस्कर पुरूस्कार दिया गया था. और गर्व से सीना चौड़ा हम भारतियों का जबकि मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरे अपनों ने मुझे जख्म दिया और अंग्रेज उसमे नमक छिड़क रहे हैं और मेरे अपने उसे देखकर खुश हो रहे हैं।
किस तरह भीगा कर जूता मारा था अंग्रेजों ने हम भारतियों के सर पर और हम गुलाम भारतीय उसमे भी खुश हो रहे थे कि मालिक ने हमें पुरस्कार तो दिया..... भले ही वो जूतों का हार ही क्यों ना हों ?? अरे शर्म से डूब जाना चाहिए हम भारतियों को अगर रत्ती भर भी शर्म बची है तो ??
बेशक रहमान की जगह कोई सच्चा देशभक्त होता तो ऐसे आस्कर को लात मार कर चला आता ........क्योंकि वो पुरस्कार अच्छे संगीत के लिए नहीं दिए गए थे बल्कि उसने पश्चिमी संगीत को मिलाया था भारतीय संगीत में इसलिए मिला वो पुरस्कार....यानी कि भारतीय संगीत कितना भी मधुर क्यों न हों आस्कर लेना हैं तो पश्चिमी संगीत को अपनाना होगा........सीधा सा मतलब यह हैं कि हमें कौन सा संगीत पसंद करना हैं और कौन सा नहीं ये हमें अब वो बताएँगे .........इससे बड़ा और गुलामी का सबूत और क्या हो सकता हैं कि हम अपनी इच्छा से कुछ पसंद भी नहीं कर सकते......कुछ पसंद करने के लिए भी विदेशियों कि मुहर लगवानी पड़ेगी उस पर हमें.... जिसे क,ख,ग भी नहीं पता अब वो हमें संगीत सिखायेंगे जहाँ संगीत का मतलब सिर्फ गला फाड़कर चिल्ला देना भर होता हैं वो सिखायेंगे ??
ज्यादा पुरानी बात भी नहीं हैं ये ......हरिदास जी और उसके शिष्य तानसेन (जो अकबर के दरबारी संगीतज्ञ थे) के समय कि बात हैं जब राज्य के किसी भाग में सुखा और आकाल कि स्थिति पैदा हो जाती थी तो तानसेन को वहां भेजा जाता था वर्षा करने के लिए......तानसेन में इतनी क्षमता थी कि मल्हार गाके वर्षा करा दे, दीपक राग गाके दीपक जला दे और शीतराग से शीतलता पैदा कर दे तो प्राचीन काल में अगर संगीत से पत्थर मोम बन जाता था, जंगल के जानवर खींचे चले आते थे कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये बात कोई भी अनुभव कर सकता हैं की किस तरह दिनों-दिन संगीत-कला विलुप्त होती जा रही हैं .....और संगीत कला का गुण तो हम भारतियों के खून में हैं .......किशोर कुमार, उषा मंगेशकर, कुमार सानू जैसे अनगिनत उदाहरण हैं जो बिना किसी से संगीत की शिक्षा लिए बॉलीवुड में आये थे।
एक और उदहारण हैं जब तानसेन की बेटी ने रात भर में ही "शीत राग" सीख लिया था.......चूँकि दीपक राग गाते समय शरीर में इतनी ऊष्मा पैदा हो जाती हैं कि अगर अन्य कोई “शीत राग” ना गाये तो दीपक राग गाने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जायेगी और तानसेन के प्राण लेने के उद्द्येश्य से ही एक चाल चलकर उसे दीपक राग गाने के लिए बाध्य किया था उससे इर्ष्या करने वाले दरबारियों ने और तानसेन भी अपनी मृत्यु निश्चित मान बैठे थे क्योंकि उनके अलावा कोई और इसका ज्ञाता (जानकार) भी नहीं था और रातभर में सीखना संभव भी ना था किसी के लिए पर वो भूल गए थे कि उनकी बेटी में भी उन्ही का खून था और जब पिता के प्राण पर बन आये तो बेटी असंभव को भी संभव करने कि क्षमता रखती हैं ...... तानसेन के ऐसे सैकड़ों कहानियां हैं पर ये छोटी सी कहानी मैंने आप लोगों को अपने भारत के महान संगीत विरासत कि झलक दिखने के लिए लिखी.......अब सोचिये कि ऐसे में अगर विदेशी हमें संगीत कि समझ कराये तो ऐसा ही हैं जैसे पोता, दादा जी को धोती पहनना सिखाये, राक्षस साधू-महात्माओं को धर्म का मर्म समझाए और शेर किसी हिरन को अपने पंजे में दबाये अहिंसा कि शिक्षा दे ......नहीं..??
हम लोगों के यहाँ सात सुर से संगीत बनता हैं इसलिए 'सात तारों से बना सितार' बजाते हैं हमलोग, लेकिन अंग्रेजों को क्या समझ में आ गया जो छह तार वाला वाध्य-यंत्र बना लिया और सितार कि तर्ज पर उन्सका नामकरण गिटार कर दिया ??
इतना कहने के बाद भी हमारे भारतीय नहीं मानेगे मेरी बात पर जब कोई अंग्रेज कहेगा कि उसने गायों को भारतीय संगीत सुनाया तो ज्यादा दूध लिया या जब शोध सामने आएगा कि भारतीय संगीत का असर फसलों पर पड़ता हैं और वे जल्दी-जल्दी बढ़ने लगते हैं तब हम विश्वास करेंगे.... क्यों ?? ये सब शोध अंग्रेज को भले आश्चर्यचकित कर दे पर अगर ये शोध किसी भारतीय को आश्चर्यचकित करते हैं तो ये दुःख: कि बात हैं।
हमारे देश वासियों को लगता हैं हम लोग पिछड़े हुए हैं जो हमारे यहाँ छोटे-छोटे घर हैं और दूसरी और अंग्रेज तकनीकी विद्या के कितने ज्ञानी हैं, वो खुशनसीब हैं जो उनके यहाँ इतनी ऊँची-ऊँची अट्टालिकाए (Buildings) हैं और इतने बड़े-बड़े पुल हैं........ इस पर मैं अपने देशवासियों से यहीं कहूँगा कि ऊँचे घर बनाना मज़बूरी और जरुरत हैं उनकी, विशेषता नहीं..... हमलोग बहुत भाग्यशाली हैं जो अपनी धरती माँ कि गोद में रहते हैं विदेशियों कि तरह माँ के सर पर चढ़ कर नहीं बैठते।
हम लोगों को घर के छत, आँगन और द्वार का सुख प्राप्त होता हैं .....जिसमें गर्मी में सुबह-शाम ठंडी-ठंडी हवा जो हमें प्रकृति ने उपहार-स्वरूप प्रदान किये हैं उसका आनंद लेते हैं और ठण्ड में तो दिन-दिन भर छत या आँगन में बैठकर सूर्य देव कि आशीर्वाद रूपी किरणों को अपने शारीर में समाते हैं, विदेशियों कि तरह धुप सेंकने के लिए नंगे होकर समुन्द्र के किनारे रेत पर लेटते नहीं हैं.............रही बात क्षमता कि तो जरुरत पड़ने पर हमने समुन्द्र पर भी पत्थरों का पुल बनाया था और रावण तो पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तक सीढ़ी बनाने कि तैयारी कर रहा था तो अगर वो चाहता तो गगनचुम्बी इमारते भी बना सकता था लेकिन अगर नहीं बनाया तो इसलिए कि वो विद्वान था।
तथ्यपूर्ण बात तो ये हैं कि हम अपनी धरती माँ के जितने ही करीब रहेंगे रोगों से उतना ही दूर रहंगे और जितना दूर रहेंगे रोगों के उतना करीब जायेंगे। हमारे मित्रों को इस बात कि भी शर्म महसूस होती हैं कि हम लोग कितने स्वार्थी, बेईमान, झूठे, मक्कार, भ्रष्टाचारी और चोर होते हैं जबकि अंग्रेज लोग कितने ईमानदार होते हैं ....हम लोगों के यहाँ कितनी धुल और गंदगी हैं जबकि उनके यहाँ तो लोग महीने में एक-दो बार ही झाड़ू मारा करते हैं.......तो जान लीजिये कि वैज्ञानिक शोध ये कहती हैं कि साफ़ सुथरे पर्यावरण में पलकर बड़े होने वाले शिशु कमजोर होते हैं, उनके अन्दर रोगों से लड़ने कि शक्ति नहीं होती दूसरी तरफ दूषित वातावरण में पलकर बढ़ने वाले शिशु रोगों से लड़ने के लिए शक्ति संपन्न होते हैं। इसका अर्थ ये मत लगा लीजियेगा कि मैं गंदगी पसंद आदमी हूँ, मैं भारत में गंदगी को बढ़ावा दे रहा हूँ ........मेरा अर्थ ये हैं कि सीमा से बाहर शुद्धता भी अच्छी नहीं होती और जहाँ तक भारत कि बात हैं तो यहाँ हद से ज्यादा गंदगी हैं जिसे साफ़ करने कि अत्यंत आवश्यकता हैं.......रही बात झाड़ू मारने कि तो घर गन्दा हो या ना हों झाड़ू तो रोज मारना ही चाहिए क्योंकि झाड़ू मारकर हम सिर्फ धुल-गंदगी को ही बाहर नहीं करते बल्कि अपशकुन को भी झाड -फुहाड़ कर बाहर कर देते हैं तभी तो हम गरीब होते हुए भी खुश रहते हैं।
भारतीय को समृद्धि कि सूची में पांचवे स्थान पर रखा गया था क्योंकि ये पैसे के मामले में भले कम हैं लेकिन और लोगो से ज्यादा सुखी हैं और जहाँ तक हमारे ऐसे बनने की बात है तो वो सब अंग्रेजों ने ही सिखाया है हमें, नहीं तो उसके आने के पहले हम छल-कपट जानते तक नहीं थे........उन्होंने हमें धर्म-विहीन और चरित्र-विहीन शिक्षा देना शुरू किया ताकि हम हिन्दू धर्म से घृणा करने लगे और ईसाई बन जाए।
उन्होंने नौकरी आधारित शिक्षा व्यवस्था लागू की ताकि बच्चे नौकरी करने कि पढाई के अलावा और कुछ सोच ही न पाए. इसका परिणाम तो देख ही रहे हैं कि अभी के बच्चे को अगर चरित्र, धर्म या देशहित के बारे में कुछ कहेंगे तो वो सुनना ही नहीं चाहता..........वो कहता है उसे अभी सिर्फ अपने कोर्स कि किताबों से मतलब रखना हैं और किसी चीज़ से कोई मतलब नहीं उसे......अभी कि शिक्षा का एकमात्र उद्द्येश्य नौकरी पाना रह गया हैं लोगो को किताबी ज्ञान तो बहुत मिल जाता हैं कि वो डॉक्टर, इंजिनियर, वकील, आई.ए.एस. या नेता बन जाता हैं पर उसकी नैतिक शिक्षा न्यूनतम स्तर कि भी नहीं होती जिसका कारण रोज एक-से-बढ़कर एक अपराध और घोटाले करते रहते हैं ये लोग। अभी कि शिक्षा पाकर बच्चे नौकरी पा लेते हैं लेकिन उनका मानसिक और बौद्धिक विकास नहीं हो पाता हैं, इस मामले में वो पिछड़े ही रह जाते हैं जबकि हमारी सभ्यता में ऐसी शिक्षा दी जाती थी जिससे उस व्यक्ति के पूर्ण व्यक्तिगत का विकास होता था.....उसकी बुद्धि का विकास होता था, उसकी सोचने-समझने कि शक्ति बढती थी।
आज ये अंग्रेज जो पूरी दुनिया में ढोल पिट रहे हैं कि ईसाईयत के कारण ही वो सभ्य और विकसित हुए और उनके यहाँ इतनी वैज्ञानिक प्रगति हुई तो क्या इस बात का उत्तर हैं उनके पास कि कट्टर और रुढ़िवादी ईसाई धर्म जो तलवार के बल पर 25-50 कि संख्या से शुरू होकर पूरा विश्व में फैलाया गया, जो ये कहता हो कि सिर्फ बाईबल पर आँख बंदकर भरोसा करने वाले लोग ही स्वर्ग जायेंगे बाकी सब नर्क जाएंगे,,,जिस धर्म में बाईबल के विरुद्ध बोलने कि हिम्मत बड़ा से बड़ा व्यक्ति भी नहीं कर सकता वो इतना विकासशील कैसे बन गया ???
400 साल पहले जब गैलीलियों ने यूरोप की जनता को इस सच्चाई से अवगत कराना चाहा कि पृथ्वी सूर्य कि परिक्रमा करती हैं तो ईसाई धर्म-गुरुओं ने उसे खम्बे से बांधकर जीवित जलाये जाने का दंड दे दिया वो तो बेचारा क्षमा मांगकर बाल-बाल बचा। एक और प्रसिद्ध पोप, उनका नाम मुझे अभी याद नहीं, वे भी मानते थे कि पृथ्वी सूर्य के चारो और घुमती हैं लेकिन जीवन भर बेचारे कभी कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए...उनके मरने के बाद उनकी डायरी से ये बात पता चली। क्या ऐसा धर्म वैज्ञानिक उन्नति में कभी सहायक हो सकता हैं ??? ये तो सहायक की बजाय बाधक ही बन सकता हैं।
हिन्दू जैसे खुले धर्म को जिसे गरियाने की पूरी स्वतंत्रता मिली हुई हैं सबको, जिसमें कोई मूर्ति-पूजा करता हैं, कोई ध्यान-साधना, कोई तन्त्र-साधना, कोई मन्त्र-साधना ....... ऐसे अनगिनत तरीके हैं इस धर्म में, जिस धर्म में कोई बंधन नहीं ..जिसमें नित नए खोज शामिल किये जा सकते हैं और समय तथा परिस्थिति के अनुसार बदलाव करने की पूरी स्वतंत्रता हैं, जिसने सिर्फ पूजा-पाठ ही नहीं बल्कि जीवन जीने की कला सिखाई, 'वसुधैव कुटुम्बकम' का नारा दिया, पूरे विश्व को अपना भाई माना, जिसने अंक शास्त्र, ज्योतिष-शास्त्र, आयुर्वेद-शास्त्र, संगीत-कला, भवन निर्माण कला, काम-कला आदि जैसे अनगिनत कलाएं तुम लोगों (ईसाईयों) को दी और तुम लोग कृतघ्न, जो नित्यकर्म के बाद अपने गुदा को पानी से धोना भी नहीं जानते, हमें ही गरियाकर चले गए।
अगर ईसाई धर्म के कारण ही तुमने तरक्की की तो वो तो 1800 साल पहले कर लेनी चाहिए थी, पर तुमने तो 200-300 साल पहले जब सबको लूटना शुरू किया और यहाँ (भारत) के ज्ञान को सीख-सीखकर यहाँ के धन-दौलत को हड़पना शुरू किया तबसे तुमने तरक्की की ऐसा क्यों ???
ये दुनिया करोडों वर्ष पुरानी हैं लेकिन तुम लोगों को 'ईसा और मुहम्मद' के पहले का इतिहास पता ही नहीं कहते हो बड़े-बड़े विशाल भवन बना दिए तुमने. अरे जाओ, जब आज तक पिछवाडा धोना सीख ही नहीं पाए, खाना बनाना सीख ही नहीं पाए, जो की अभी तक उबालकर नमक डालकर खाते तो बड़े-बड़े भवन बनाओगे तुम। एक भी ग्रन्थ तुम्हारे पास-भवन निर्माण के ?? जो भी छोटे-मोटे होंगे वो हमारे ही नक़ल किये हुए होंगे।
प्रोफ़ेसर ओक ने तो सिद्ध कर दिया की भारत में जितने प्राचीन भवन हैं वो हिन्दू भवन या मंदिर हैं जिसे मुस्लिम शासकों ने हड़प कर अपना नाम दे दिया और विश्व में भी जो बड़े-बड़े भवन हैं उसमें हिन्दू शैली की ही प्रधानता हैं। ये भी हंसी की ही बात हैं की मुग़ल शासक महल नहीं सिर्फ मकबरे और मस्जिद ही बनवाया करते थे भारत में। जो हमेशा गद्दी के लिए अपने बाप-भाईयों से लड़ता-झगड़ता रहता था, अपना जीवन युद्ध लड़ने में बिता दिया करते थे उसके मन में अपने बाप या पत्नी के लिए विशाल भवन बनाने का विचार आ जाया करता था !! इतना प्यार करता था अपनी पत्नी से जिसको बच्चा पैदा करवाते करवाते मार डाला उसने !! मुमताज़ की मौत बच्चा पैदा करने के दौरान ही हुई थी और उसके पहले वो 14 बच्चे को जन्म दे चुकी थी. जो भारत को बर्बाद करने के लिए आया था, यहाँ के नागरिकों को लूटकर, लाखों-लाख हिन्दुओं को काटकर और यहाँ के मंदिर और संस्कृतिक विरासत को तहस-नहस करके अपार खुशी का अनुभव करता था वो यहाँ कोई सृजनात्मक विरासत कार्य करे ये तो मेरे गले से नहीं उतर सकता। जिसके पास अपना कोई स्थापत्य कला का ग्रन्थ नहीं हैं वो भारत की स्थापत्य कला को देखकर ये कहने को मजबूर हो गया था की भारत इस दुनिया का आश्चर्य हैं इसके जैसा दूसरा देश पूरी दुनिया में कहीं नहीं हो सकता हैं, वो लोग अगर ताजमहल बनाने का दावा करते हैं तो ये ऐसा ही हैं जैसा 3 साल के बच्चे द्वारा दसवीं का प्रश्न हल करना।
दुःख तो ये हैं की आज़ाद देश आज़ाद होने के बाद भी मुसलमानों को खुश रखने के लिए इतिहास में कोई सुधर नहीं किये, हमारे मुसलमान और ईसाई भाइयों के मूत्र-पान करने वाले हमारे राजनितिक नेताओं ने। आज जब ये सिद्ध हो चूका हैं की ताजमहल शाहजहाँ ने नहीं बनवाया बल्कि उससे सौ-दो-सौ साल पहले का बना हुआ हैं तो ऐसे में अगर सरकार सच्चाई लाने की हिम्मत करती तो क्या हम भारतीय गर्व का अनुभव नहीं करते ? क्या हमारी हीन भावना दूर होने में मदद नहीं मिलती? ताजमहल साथ आश्चर्यों में से एक हैं ये सब जानते हैं पर सात आश्चर्यों में ये क्यों शामिल हैं ये कितने लोग जानते हैं ? इसके शामिल होने का कारण इसकी उत्कृष्ट स्थापत्य कला, इसकी अदभुत कारीगरी को अब तक आधुनिक इंजीनियर समझने की कोशिश कर रहे हैं। जिस प्रकार कुतुबमीनार के लौह-स्तम्भ की तकनीक को समझने की कोशिश कर रहे हैं......जो की अब तक समझ नहीं पाए हैं। (इस भुलावे में मत रहिएगा की कुतुबमीनार को कुतुबद्दीन एबक ने बनवाया था)
मोटी-मोटी तो मैं इतना ही जानता हूँ की यमुना नहीं के किनारे के गीली मुलायम मिटटी को इतने विशाल भवन के भार को सेहन करने लायक बनाना, पूरे में सिर्फ पत्थरों का काम करना समान्य सी बात नहीं हैं. इसको बनाने वाले इंजिनियर के इंजीनियरिंग प्रतिभा को देखकर अभी के इंजीनियर दांतों तले ऊँगली दबा रहे हैं। अगर ये सब बातें जनता के सामने आएगी तभी तो हम अपना खोया आत्मविश्वास प्राप्त कर पायेंगे. 1200 सालों तक हमें लूटते रहे, लूटते रहे, लूटते रहे और जब लुट-खसौट कर कंगाल कर दिया तब अब हमें एहसास करा रहे हों की हम कितने दीन-हीन हैं और ऊपर से हमें इतिहास भी गलत पढ़ा रहे हैं इस डर से की कहीं फिर से अपने पूर्वजों का गौरव इतिहास पढ़कर हम अपना आत्मविश्वास ना पा लें। अरे, अगर हिम्मत हैं तो एक बार सही इतिहास पढ़कर देखों हमें हम स्वाभिमानी भारतीय जो सिर्फ अपने वचन को टूटने से बचाने के लिए जान तक गवां देते थे इतने दिनों तक दुश्मनों के अत्याचार सहते रहे तो ऐसे में हमारा आत्म-विश्वास टूटना स्वभाविक ही हैं. हम भारतीय जो एक-एक पैसे के लिए, अन्न के एक-एक दाने के लिए इतने दिनों तक तरसते रहे तो आज हीन भावना में डूब गए, लालची बन गए, स्वार्थी बन गए तो ये कोई शर्म की बात नहीं. ऐसी परिस्थिति में तो धर्मराज युधिष्ठिर के भी पग डगमगा जाएँ. आखिर युधिष्ठिर जी भी तो बुरे समय में धर्म से विचलित हो गए थे जो अपनी पत्नी तक को जुए में दावं पर लगा दिए थे।
चलिए इतिहास तो बहुत हो गया अब वर्तमान पर आते हैं
वर्तमान में आप लोग देख ही रहे हैं कि विदेशी हमारे यहाँ से डाक्टर-इंजिनियर और मैनेजर को ले जा रहे हैं इसलिए कि उनके पास हम भारतियों कि तुलना में दिमाग बहुत ही कम हैं। आप लोग भी पेपरों में पढ़ते रहते होंगे कि अमेरिका में गणित पढ़ाने वाले शिक्षकों की कमी हो जाती हैं जिसके लिए वो भारत में शिक्षक की मांग करते हैं तो कभी ओबामा भारतीय बच्चो की प्रतिभा से डर कर अमेरिकी बच्चो को सावधान होने की नसीहत देते हैं । पूर्वजों द्वारा लुटा हुआ माल हैं तो अपनी कंपनी खड़ी कर लेते हैं लेकिन दिमाग कहाँ से लायेंगे....उसके लिए उन्हें यहीं आना पड़ता हैं ....हम बेचारे भारतीय गरीब पैसे के लालच में बड़े गर्व से उनकी मजदूरी करने चले जाते थे, पर अब परिस्थिति बदलनी शुरू हो गयी हैं। अब हमारे युवा भी विदेश जाने की बजाय अपने देश की सेवा करना शुरू कर दिए हैं ....वो दिन दूर नहीं जब हमारे युवाओं पर टिके विदेशी फिर से हमारे गुलाम बनेंगे। फिर से इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि पूरे विश्व पर पहले हमारा शासन चलता था जिसका इतिहास मिटा दिया गया हैं.
लेकिन जिस तरह सालों पहले हुई हत्या जिसकी खूनी ने अपनी तरफ से सारे सबूत मिटा देने की भरसक कोशिश की हो, उसकी जांच अगर की जाती हैं तो कई सुराग मिल जाते हैं जिससे गुत्थी सुलझ ही जाती हैं, बिलकुल यहीं कहानी हमारे इतिहास के साथ भी हैं जिस तरह अब हमारे युवा विदेशों के करोड़ों रुपये की नौकरी को ठुकराकर अपने देश में ही इडली, बड़ा पाव सब्जी बेचकर या चालित शौचालय, रिक्शा आदि का कारोबार कर करोड़ों रुपये सालाना कम रहे हैं, ये संकेत हैं की अब हमारे युवा अपना खोया आत्म-विशवास प्राप्त कर रहे हैं और उनमे नेतृत्व क्षमता भी लौट चुकी हैं तो वो दीन भी दूर नहीं जब पूरे विश्व का नेतृत्व फिर से हम भारतियों के हाथों में होगा और हम पुन: विश्वगुरु के सिंहासन पर आसीन होंगे। जिस तरह हरेक के लिए दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है वैसे हम लोगों के 1200 सालों से ज्यादा रात का समय कट चुका हैं अब दिन निकल आया हैं ...इसका उदाहरण देख लो भारत का झारखंड राज्य जहां जनसँख्या 3 करोड़ की नहीं हैं और यहाँ 14,000 करोड़ का घोटाला हो जाता हैं फिर भी ये राज्य प्रगति कर रहा है।
इसलिए अपने पराधीन मानसिकता से बाहर आओ, डर को निकालों अपने अन्दर से हमें किसी दूसरे का सहारा लेकर नहीं चलना हैं। खुद हमारे पैर ही इतने मजबूत हैं की पूरी दुनिया को अपने पैरों तले रौंद सकते हैं हम ...हम वही हैं जिसने विश्वविजेता का सपना देखने वाले सिकन्दर का दंभ चूर-चूर कर दिया था। गौरी को 13 बार अपने पैरों पर गिराकर गिडगिडाने को मजबूर किया और जीवनदान दिया। जिस प्रकार बिल्ली चूहे के साथ खेलती रहती हैं वैसे ही ये दुर्भाग्य था हमारा जो शत्रू के चंगुल में फंस गए क्योंकि उस चूहे ने अपनों की ही सहायता ले ली पर हमने उसे छोड़ा नहीं,
अँधा हो जाने के बावजूद भी उसे मारकर मरे.. जिस प्रकार जलवाष्प की नन्ही-नन्ही पानी की बूंदें भी एकत्रित हो जाने पर घनघोर वर्षा कर प्रलय ला देती है, अदृश्य हवा भी गति पाकर भयंकर तबाही मचा देती है, नदी-नाले की छोटी लहरें नदी में मिलकर एक होती है तो गर्जना करती हुई अपने आगे आने वाली हरेक अवरोधों को हटाती हुई आगे बढती रहती है वैसे ही मैं अभी भले ही जलवाष्प की एक छोटी सी बूंद हूँ, पर अगर आप लोग मेरा साथ दो तो इसमें कोई शक नहीं की हम भारतीय फिर से इस दुनिया को अपने चरणों में झुका देंगे. और मुझे पता हैं दोस्त मेरे जैसी करोड़ों बूंदें एकृत होकर बरसने को बेकरार हैं इसलिए अब और ज्यादा विलंब ना करो और मेरे हाँथ में अपना हाँथ दो मित्र और अगर किसी को इस लेख से किसी भी प्रकार की चोट पहुंचाई तो उसके लिए भी क्षमा मांगता हूँ।
मैं गर्व से कह सकता हूँ मैं भारतीय हूँ


शुक्रवार, सितंबर 12, 2014

मुहम्मद की दौलत का भंडाफोड़ !

Via BhanDafodu
मुहम्मद की दौलत का भंडाफोड़ !
आज हमें मुहम्मद साहब के चरित्र से शिक्षा लेने की जरुरत है . ऐसा इसलिए नहीं कि वह अल्लाह के सच्चे अनुयायी और सबसे प्यारे अंतिम रसूल थे . बल्कि इसलिए नहीं कि वह जोभी गलत काम करते थे उसे जायज बताने के लिए अल्लाह की तरफ से कोई न कोई आयत कुरान में जोड़ देते थे . यानि अपने सभी गलत कामों में अल्लाह को शामिल कर लेते थे . यद्यपि मुस्लिम विद्वान् दावा करते हैं कि मुहम्मद साहब एक सच्चे सीधे और सदा व्यक्ति थे ,और उनको धन संपत्ति से कोई मोह नहीं था . और न उन्होंने जीवन भर में किसी प्रकार की दौलत और जमीन अपने पास रखी थी . लेकिन हदीसों और इस्लाम की इतिहास की किताबों से सिद्ध होता है कि मुहम्मद साहब दुनिया में एकमात्र ऐसे नबी थे इस्लाम की जगह अपनी दौलत पर अधिक प्यार था . उनको इस्लाम की नहीं दौलत की चिंता बनी रहती थी , जो इस हदीस से सिद्ध होता है ,
1-महालोभी और लालची रसूल
मुहम्मद साहब को धन संपत्ति का कितना मोह और लालच था , इसे साबित करने के लिए यह एक ही हदीस काफी है ,
“उकबा बिन आमिर ने कहा कि रसूल कहते थे कि मुझे इस बात की कोई चिंता नहीं है कि मेरी मौत के बाद तुम इस्लाम त्याग कर फिर से मुशरिक हो जाओ , लेकिन मुझे तो इस बात की सबसे बड़ी चिंता लगी रहती है , कि कहीं मेरी संपत्ति दूसरों हाथों में न चली जाये “
बुखारी-जिल्द 2 किताब 2 हदीस 428
2-बद्र की लूट
मुहम्मद के साथी पहले भी काफिले लूटते थे , और मुहम्मद की कई औरतें भी थी ,जिनका खर्चा चलाना कठिन हो रहा था ,इसलिए मुहम्मद जब अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना में रहने लगे , तो लूटमार करने लगे . इसका नाम उन्होंने “गजवा ” रख दिया था जिसका अरबी बहुवचन ” गजवात ” होता है .जिसका वास्तविक अर्थ “युद्ध (Battle ) नहीं बल्कि “छापा raids ” या लूट (plundering) होता है .मुहम्मद ने अपने जीवन में ऐसे कई गजवे (छापे ) किये , और लूट का माल घर में भर लिया था .चूँकि मदीना से कुछ दूर ही मुख्य व्यापारिक मार्ग था , जो लाल समुद्र (Red Sea ) के किनारे यमन से सीरिया तक जाता था . और इसी मार्ग से काफिले अपना कीमती सामान लाते -लेजाते थे .मुहम्मद की जीवनी लिखने वाले प्रसिद्ध मुस्लिम इतिहासकार इब्ने इसहाक ( Ibn Ishaq/Hisham 428) पर लिखा है .कि अबूसुफ़यान ने रसूल को एक गुप्त सूचना दी , कि मदीना से करीब 80 मील दूर मुख्य मार्ग से काफिला गुजरने वाला है .जिसमे पचास हजार सोने की दीनार , और चांदी के दिरहम के साथ काफी कीमती सामान है .अबूसुफ़यान ने यह भी बताया कि उस काफिले में केवल तीस या चालीस लोग ही हैं .यह खबर मिलते ही रसूल ने अपने लोगों को आदेश दिया कि जल्दी जाओ और उस काफिले पर धावा बोल दो . और काफिले का जितना भी माल है सब लूट लो .मुहम्मद के आदेश से मुसलमानों ने मदीना से करीब 80 मील दूर “बद्र ” नामकी जगह पर 13 मार्च शनिवार सन 624 तदानुसार 17 रमजान हिजरी सन 2 को उस काफिले पर धावा बोल दिया .मुसलमान इस लूट को” बद्र का युद्ध Battle of Badr “या अरबी में “गजवा बद्र غزوة بدر “कहते हैं .इस लूट का कमांडर अबूसुफ़यान था . जिसके साथी अबूबकर ,उमर .अली ,हमजा ,मुसअब इब्न उमर ,जुबैर अल अब्बास , अम्मार इब्न यासिर और अबूजर अल गिफारी थे . यह लोग 70 ऊंट और दो घोड़े भी लाये थे .इनमे जादातर लोग मुहम्मद के रिश्तेदार थे . और सबने मिलकर काफिले की संपत्ति लुट ली . क्योंकि काफिले वाले कम थे .और मुहम्मद ने अल्लाह का डर दिखा कर वह सारा माल घर में भर लिया .जिसका नाम मुहम्मद ने “अनफाल ” रख दिया .
3-कुरान में अनफाल
क्योंकि बद्र की इस लूट में मुहम्मद के कई रिश्तेदार शामिल थे , इसलिए वह भी अपना हिस्सा मांगने लगे . तब उनका मुंह बंद करने के लिए मुहम्मद ने आयत बना दी ,
” हे नबी जो लोग तुम से अनफाल के धन के बारे में सवाल ( आपत्ति ) करते हैं ,तो उनसे कह दो कि इस अनफाल के धन पर केवल रसूल का ही अधिकार है “
सूरा -अनफाल 8:1 ( अनफाल का अर्थ”Accession ” होता है .यह ऐसी संपत्ति को कहते हैं ,जो दूसरों से छीन कर प्राप्त की गयी हो )
यह बात इन हदीसों से प्रमाणित होती है , कि मुहम्मद ने अकेले ही लूट का माल हथिया लिया था ,
“सईद बिन जुबैर ने इब्न अब्बास से पूछा कि कुरान की सूरा ” अनफाल ( सूरा 8) किस लिए उतरी थी . तो वह बोले यह सूरा बद्र में लुटे गए माल को रसूल के लिए वैध ठहराने के लिए उतरी थी “बुखारी -जिल्द 6 किताब 60 हदीस 404
बुखारी -जिल्द 6 किताब 60 हदीस 168
4-लूट का माल रसूल के घर में
मुहम्मद ने पहले तो बद्र के लूट की दौलत अपने लिए वैध ठहरा दी और अपने परिवार में बाँट दी , जैसा इन हदीसों में कहा है ,
“अली ने कहा ,कि बद्र की लुट में मुझे जो दौलत और सोना मिला , उस से मैंने उसी दिन एक ऊंटनी खरीद ली . मैं फातिमा से शादी करना चाहता था .इस लिए मैंने लूट के सोने से ” बनू कैनूना ” के सुनार (Goldsmith ) से फातिमा के लिए जेवर बनवा लिए . और कुछ सोना सुनारों को बेच कर अपनी और फातिमा की शादी और दावत पर खर्च कर दिया .और अपने और फातिमा के लिए दो ऊंटनियाँ काठी (Saddles ) सहित खरीद लीं
.बुखारी -जिल्द 5 किताब59 हदीस 340
5-खैबर पर हमला
एकबार जब मुहम्मद को लूट से काफी दौलत मिल गयी तो लूट से दौलत कमाने का चस्का लग गया , और धन के साथ जमीन पर भी कब्ज़ा करने लगे ,मुहम्मद में ऐसा एक और हमला खैबर पर किया था .खैबर में फदक का बगीचा यहूदियों के पास था , जो कई पीढ़ियों से वहां के खजूर बेच कर ,पैसा कमा रहे थे , और दुसरे धंधे कर रहे थे . जब मुहम्मद को पता चला कि फदक के खजूरों को बेचकर यहूदी धनवान हो रहे हैं ,तो मुहम्मद ने 7 मई सन 629 को करीब 1500 जिहादी और 200 घुड़सवारों की फ़ौज बना कर खैबर पर हमला कर दिया .और यहूदियों को मार भगा दिया . और फदक के बागों पर कब्ज़ा कर लिया .यह घटना इब्न इसहाक ने मुहम्मद की जीवनी ” सीरत रसूलल्लाह ” में विस्तार में लिखी है .अरब के उत्तरी भाग में खैबर नामकी जगह में एक “नखलिस्तान (Oasis ) था . जहाँ पानी की प्रचुरता होने से खजूरों के बड़े बड़े बाग़ थे . इनका नाम “फदक فدك” था . यह बाग़ मदीना से करीब 30 मील दूर था .फदक के खजूर अच्छे होते थे और इनसे काफी आमदानी होती थी .खैबर की लूट में मुहमद ने यहूदियों से फदक के बाग़ के साथ 2000 कीमती यमनी कपड़ों की गाठें (Bales ) और 5000 कपड़ों के थान लूट लिये थे ,यहूदी यह सामान सीरिया भेजने वाले थे . इसके अलावा मुहम्मद ने फदक पास दो बाग़ ” अल शिक्क الشِّق” और “अल कतीबाالكتيبة ” पर भी कब्जा कर लिया था .और सबको अपनी संपत्ति घोषित कर दिया था .जब तक मुहम्मद जीवित रहे फदक बाग़ उनकी संपत्ति माने गए . उन्हीं की उपज से मुहम्मद अपने इतने बड़े परिवार का खर्चा चलाते रहे . खलीफा उमर इन बागों की कीमत पचास लाख दीनार आंकी थी .और जब फातिमा और अली अपने पुत्रों हसन और हुसैन के लिए अबू बकर से फदक के बागों से अपना हिस्सा मागने गयी थी , तो अबू बकर ने इंकार कर दिया था .शिया -सुन्नी विवाद का यह भी एक कारण है .
6-लुटेरे के घर डाका
मुहम्मद ने जिस दौलत और जमीन के लिए हजारों निर्दोष लोगों इस लिए को मार दिया था .कि इस दौलत से मेरे परिवार के लोग पीढ़ियों तक मजे से ऐश करते रहेंगे , लेकिन मुहम्मद को पता नहीं था कि उसकी मौत के बाद लूट की सम्पति उसका सगा ससुर एक डाकू की तरह हथिया लेगा ,और मुहम्मद की औरतों , और लड़की दामाद को अबू बकर ने एक फूटी कौड़ी नहीं दी थी ,जो इन हदीसों से पता चलता है ,
“आयशा ने कहा कि रसूल की मौत के बाद उनकी दूसरी पत्नियाँ रसूल की सम्पति में हिस्सा चाहती थी . इसके लिए उन्होंने उस्मान बिन अफ्फान को मेरे पिता अबू बकर के पास भेजा . तो मेरे पिता ने कहा ” रसूल का कोई वारिस नहीं होता ” मैंने तो रसूल की दौलत ग़रीबों में खैरात कर दी है “
सही मुस्लिम -किताब 19 हदीस 4351
अबू बकर ने कहा कि एकमात्र मैं ही रसूल की संपत्ति का संरक्षक हूँ . और जब अली और अब्बास अबू बकर से बद्र और “फदक” के बागों में हिस्सा मांगने आये तो . अबू बकर बोला अल्लाह की कसम खाता इनमे तुम्हारा कोई हिस्सा नहीं बनता .” सही मुस्लिम -किताब 19 हदीस 4349
“उरवा बिन जुबैर ने कहा कि , आयशा ने बताया , जब फातिमा और अली मेरे पिता अबू बकर के पास गए , और उन से बद्र और खबर की लूट का हिस्सा माँगा ,तो ,मेरे पिता ने कहा , मैं उस अल्लाह की कसम खाकर सच कहता हूँ जिसके हाथों में मेरी जान है .लूट की वह सारी दौलत इस्लामी राज्य की स्थापना में खर्च हो गयी . और रसूल की यही अंतिम इच्छा थी . यह सुन कर फातिमा और अली रुष्ट होकर घर लौट गए .
सही मुस्लिम -किताब 19 हदीस 4354
7-लूट का क्रूर तरीका
मुसलमान दावा करते हैं कि हमारे रसूल तो बड़े दयालु और रहमदिल थे , उन्होंने जिंदगी भर एक व्यक्ति की भी हत्या नहीं की थी . लेकिन सब जानते हैं लालच में अँधा व्यक्ति कुछ भी कर सकता है .मुहम्मद ने लूटों के दौरान हत्या का जो तरीका अपनाया था , उसे जानकर कटर से कठोर दिल वाले काँप जायेंगे मुहम्मद लोगों को जिन्दा दफना देता था , ताकि कोई सबूत्त बाकि नहीं रहे ,.
“अबू तल्हा ने कहा कि बद्र की लूट में रसूल ने सभी काफिले वालों बुरी तरह से मारा , जिस से कुछ तो अपनी जान बचा कर काफिले का सामान छोड़ कर भाग गए .लेकिन 24 लोग रसूल के हाथों पकडे गए .जो बुरी तरह से घायल थे . तब रसूल ने उन सभी को बद्र के एक सूखे और गहरे कुंएं में फिकवा दिया .और हमें वहीँ तीन दिन रात रुकने का हुक्म दिया . कहीं कोई कुंएं से जिन्दा न निकल सके . अबू तल्हा ने बताया की जब भी रसूल काफिले लूटते यही तरीका अपनाते थे .जिस से घायल काफिले वाले कुंएं में भूखे प्यासे मर जाते थे ” बुखारी -जिल्द 5 किताब 59 हदीस 314
8-मुहम्मद की धूर्तता
जिस तरह हर मुसलमान अपने अपराधों पर पर्दा डालने के लिए दूसरों पर आरोप लगा देता है , उसी तरह खुद को हत्या के अपराध से निर्दोष साबित करने के लिए मुहम्मद अल्लाह को ही जिम्मेदार बता देता था . जैसा कुरान में कहा है ,
” हे रसूल तुमने उनका क़त्ल नहीं किया , बल्कि अल्लाह ने उनको क़त्ल किया है . और तुमने उनको कुंएं में नहीं फेका ,बल्कि अल्लाह ने ही उनको कुएं में फेका है .सूरा -अनफाल 8: 17
9-निष्कर्ष
इन सभी प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि मुहम्मद एक महालोभी , क्रूर लुटेरा और ऐसा धूर्त था कि लोग उसके द्वारा की गयी हजारों हत्याओं का पता भी नहीं कर सकें . जब लाश ही नहीं मिलेगी तो लोग मुहम्मद को दयालु मान लेगे , इसके अतिरिक्त यह बात भी सिद्ध है कि मुहमद और अल्लाह एकही थैली के चट्टे बट्टे है . और अल्लाह भी मुहम्मद की मर्जी के मुताबिक आयतें बना देता था .
लेकिन इस अटल सत्य को हजारों अल्लाह मिल कर भी नहीं बदल सकते ,कि हरेक धूर्त का एक दिन “भंडाफोड़ ” जरुर हो जाता है .मुहम्मद ने जैसे क्रूर कर्म किये थे वैसी ही कष्टदायी मौत मारा गया .
यदि धूर्तता सीखना हो तो रसूल से सीखो
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गुरुवार, सितंबर 04, 2014

कैसे रोथ्स्चाइल्ड ने बैंकों के माध्यम से भारत पर कब्जा किया

कैसे रोथ्स्चाइल्ड ने बैंकों के माध्यम से भारत पर कब्जा किया
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भारत इतना समृद्ध देश था कि उसे `सोने की चिडिया ‘ कहा जाता था । भारत की इस शोहरत ने पर्यटकों और लुटेरों – दोनों को आकर्षित किया ।

यह बात तब की है जब ईस्ट इन्डिया कम्पनी को भारत के साथ व्यापार करने का अधिकार प्राप्त नहीं हुआ था । उसके बाद क्या हुआ यह नीचे पढिये -
सन् १६०० – ईस्ट इन्डिया कम्पनी को भारत के साथ व्यापार करने की स्वीकृति मिली

१६०८ – इस दौरान कम्पनी के जहाज सूरत की बन्दरगाह पर आने लगे जिसे व्यापार के लिये आगमन और प्रस्थान क्षेत्र नियुक्त किया गया ।.

अगले दो सालों में ईस्ट इन्डिया कम्पनी ने दक्षिण भारत में बंगाल की खाडी के कोरोमन्डल तट पर मछिलीपटनम नामक नगर में अपना पहला कारखाना खोला ।

१७५० – ईस्ट इन्डिया कम्पनी ने अपने २ लाख सैनिकों की निजी सेना के वित्त प्रबन्ध के लिये बंगाल और बिहार में अफीम की खेती शुरु कर दी । बंगाल में इसके कारण खाद्य फसलों की जो बर्बादी हुई उससे अकाल की स्थिति पैदा हुई जिससे दस लाख लोगों की मृत्यु हुई ।

कैसे और कितनी भारी संख्या मे लोगों की मृत्यु हुई यह जानने के लिये पढिये Breakdown of Death Toll of Indian Holocaust caused during the British (Mis)Rule

१७५७ – बंगाल के शासक सिराज-उद-दौला के पदावनत हुए सेना अध्यक्ष मीर जाफर, यार लुत्फ खान, महताब चन्द, स्वरूप चन्द, ओमीचन्द और राय दुर्लभ के साथ षडयन्त्र करके अफीम के व्यापारियों ने प्लासी की लडाई में सिराज-उद-दौल को पराजित करके भारत पर कब्जा कर लिया और दक्षिण एशिया में ईस्ट ईन्डिया कम्पनी की स्थापना की ।

जगत सेठ, ओमीचन्द और द्वारकानाथ ठाकुर ( रबिन्द्रनाथ ठाकुर के दादा) को `बंगाल के रोथ्चाईल्ड’ का नाम दिया गया था (द्वारकानाथ ठाकुर, भारत के `ड्रग लार्ड’ की गाथा अलग से एक लेख में लिखी जाएगी)
१७८० – चीन के साथ नशीली पदार्थों का व्यापार करने का खयाल सर्वप्रथम भारत के पहले गवर्नर जेनरल वारेन हेस्टिंग्स को आया ।

सन् १७९० — ईस्ट इन्डिया कम्पनी ने अफीम के व्यापार पर एकाधिकार बनाया और खस खस उत्पादकों को अपनी उपज सिर्फ ईस्ट इन्डिया कम्पनी को बेचने की छूट थी । हजारों की संख्या में बंगाली, बिहारी और मालवा के किसानों से जबरन अफीम की खेती करवायी जाती थी ।

उस दौरान योरोप में व्यापार में मन्दी और स्थिरता चल रही थी । कम्पनी के संचालक ने पार्लियामेन्ट से आर्थिक सहायता मांगकर दिवालियापन से बचने की कोशिश की । इसके लिये `टी ऐक्ट’ बनाया गया जिससे चाय और तेल के निर्यात पर शुल्क लगना बन्द हो गया । ईस्ट इन्डिया कम्पनी की करमुक्त चाय दुनिया के हर ब्रिटिश कोलोनी में बेची जाने लगी, जिससे देशी व्यापारियों का कारोबार रुक गया । अमेरिका में इसके कारण जो विरोध शुरु हुआ, उसका समापन मस्साचुसेट्स में `बोस्टन टी पार्टी ‘ से हुआ जब विरोधियों के झुन्ड ने जहाजों में रखी चाय की पेटियों को समुद्र में फेंक दिया | इसके पश्चात् बगावत बढती गयी और अमेरिकन रेवोल्युशन का जन्म हुआ जिसके कारण १७६५ से १७८३ के बीच तेरह अमरीकी उपनिवेश ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतन्त्र (नाम के स्वतंत्र ,जैसे भारत को नकली आज़ादी मिली ,आज भी नागरिको पर कंट्रोल पावर इल्लुमिनाती की है )हो गये ।

ब्रिटेन अब चाँदी देकर चीन से चाय खरीदने में समर्थ नहीं रहा । अफीम जो कि आसानी से और मुफ्त में हासिल था, अब उनके व्यापार का माध्यम बन गया ।

उन्नीसवीं सदी — ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया नशीले पदार्थों की सबसे बडी व्यापारी थीं । वह खुद भी अफीम ( लौडनम, जो कि अफीम को शराब में मिलाकर बनाया जाता है) का सेवन करती थीं । इस बात के रिकार्ड बाल्मोरल पैलेस के शाही औषधखाने में हैं कि कितनी बार अफीम शाही घराने में पहुँचाया गया । कई ब्रिटिश कुलीन जन समुदाय के लोग भी अफीम का सेवन करते थे ।

अब कुछ जरूरी बातें …

ईस्ट इन्डिया कम्पनी के मालिक कौन थे ?

यह सभी को मालूम है कि इस कम्पनी ने भारत से भारी मात्रा में सोना और हीरे – जवाहरात लूटे थे । उसका क्या हुआ ???

सच तो यह है कि भारत से लूटा गया यह खजाना आज तक बैंक आफ इंगलैन्ड के तहखाने में रखा है | यह खजाना अप्रत्यक्ष रूप से भारत में लगभग सभी बैंकिन्ग संस्थानो के निर्माण के लिये इस्तेमाल किया गया, साथ ही विश्व में और भी कई बैंकों की स्थापना का आधार बना ।

१७०८ — मोसेस मोन्टेफियोर और नेथन मेयर रोथ्स्चाइल्ड ने ब्रिटिश राजकोष को ३,२००,००० ब्रिटिश पाऊन्ड कर्ज दिया (जिसे रोथ्स्चाइल्ड के निजी बैन्क ओफ इंगलैन्ड का ऋण चुकाने के लिये इस्तेमाल किया गया) । यह कर्ज रोथ्स्चाइल्ड ने अपनी ईस्ट इन्डिया कम्पनी को (जिसके वह गुप्त रूप से मालिक थे) केप होर्न और केप आफ गुड होप के बीच स्थित इन्डियन और पैसेफिक महासागर के सभी देशों के साथ व्यापार करने के विशिष्ट अधिकार दिलाने के लिये दिया – अर्थात् रिश्वत्खोरी की सहायता ली ।

रोथ्स्चाइल्ड हमेशा संयुक्त पूँजी द्वारा स्थापित संस्थाओं के जरिये काम करते हैं ताकि उनका स्वामित्व गुप्त रहे और वह निजी जिम्मेदारी से बचे रहें ।

नेथन रोथ्स्चाइल्ड ने कहा, ` तब ईस्ट ईंडिया कम्पनी के पास बेचने के लिये आठ लाख पाउन्ड का सोना था । मैंने नीलामी में सारा सोना खरीद लिया । मुझे पता था कि वेलिंग्टन के ड्यूक के पास वह जरूर होगा, चूंकि मैंने उनके ज्यादातर बिल सस्ते दाम पर खरीद लिये थे। सरकार से मुझे बुलावा आया और यह कहा गया कि इस सोने की (उन दिनों चल रही लडाईयों की आर्थिक सहयता के लिये ) उन्हें जरूरत है । जब वह उनके पास पहुँच गया तो उन्हें समझ नहीं आया कि उसे पुर्तगाल कैसे पहुँचाया जाए । मैंने सारी जिम्मेवारी ली और फ्रान्स के जरिये भिजवाया । यह मेरा सबसे बढिया व्यापार था । ‘

इस प्रकार नेथन रोथ्स्चाइल्ड ब्रिटिश सरकार के विश्वसनीय बन गये जो कि उनके लिये मुद्रा क्षेत्र में अपना कारोबार और हुकूमत बढाने में फायदेमन्द साबित हुआ, जैसा कि आप आगे पढेंगे ।

यह ध्यान रहे कि वह रोथ्स्चाइल्ड घराना ही था जिसने आदम वाईशौप के जरिये इलुमिनाटी ग्रूप की शुरुआत की । योजना यह थी कि खुद को संसार में सबसे ज्यादा सुशिक्षित मानने वाले इस वर्ग के लोग अपने शिष्यों के जरिये मानव समाज के सभी महत्वपूर्ण सन्स्थाओं में मुख्य स्थानों पर अधिकार जमाकर `न्यु वर्ल्ड आर्डर’ अर्थात् `नयी सुनियोजित दुनिया’ की स्थापना करेंगे जिसके नियम वह बनाएँगे ।
१८४४ – राबर्ट पील के शासन में बैन्क चार्टर ऐक्ट पास हुआ जिससे ब्रिटिश बैंकों की ताकत कम कर दी गयी और सेन्ट्रल बैंक आफ इंगलैंड (जो कि रोथ्स्चाइल्ड के अधीन था) को नोट प्रचलित करने का एकमात्र अधिकार दिया गया । इससे यह हुआ कि रोथ्स्चाइल्ड अब और भी शक्तिशाली हो गये चूँकि अब कोई भी बैंक अपने नोट नहीं बना सकता था, उन्हें जबरन रोथ्स्चाइल्ड नियन्त्रित बैंक के नोट स्वीकार करने पडते थे ।
और आज यह स्थिति है कि संसार में मात्र तीन देश बच गये हैं जहाँ के बैंक रोथ्स्चाइल्ड के कब्जे में नहीं हैं

दुनिया मे हो रही लडाइयों का लक्ष्य है उन देशों के सेन्ट्रल बैंक पर कब्जा । मेयर ऐम्शेल रोथ्स्चाइल्द ने बिल्कुल सच कहा था जब उन्होंने यह कहा था कि `मुझे बस देश के धन/पैसों के सप्लाई पर नियन्त्रण चाहिये, उस देश के नियम कौन बनाता है इसकी मुझे परवाह नहीं।

जार्ज वार्ड नोर्मन १८२१ से १८७२ तक बैंक आफ इंगलैन्ड के निदेशक थे और १८४४ के बैंक चार्टर ऐक्ट के निर्माण में उनकी बडी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी । उनका सोंचना था कि रेवेन्यू सिस्टम को पूरी तरह से बदल उसे बहुग्राही सम्पत्ति टैक्स (कंप्रिहेन्सिव प्रापर्टी टैक्स) सिस्टम बनाकर मानव के आनन्द को बढाया जा सकता है ।

१८५१ – १८५३ – महारानी विक्टोरिया से शाही अधिकार पत्र मिलने के पश्चात् जेम्स विल्सन ने लन्दन में चार्टर्ड बैंक आफ इन्डिया, औस्ट्रेलिया और चाइना की स्थापना की ।

यह बैंक मुख्य रूप से अफीम और कपास के दामों पर छूट दिलाने का कार्य करते थे । हालाँकि चीन में अफीम की खेती में वृद्धि होती गयी, फिर भी आयात में बढोतरी हुई थी ।

अफीम के व्यापार से चार्टर्ड बैंक को अत्यधिक मुनाफा हुआ ।

उसी वर्ष (१८५३) कुछ पारसी लोगों के द्वारा (जो कि अफीम के व्यापारी थे और ईस्ट ईंडिया कम्पनी के दलाल थे) मुम्बई में मर्केन्टाइल बैंक आफ ईन्डिया, लन्दन और चाईना की स्थापना हुई ।

कुछ समय बाद यही बैंक शांघाई (चीन) में विदेशी मुद्रा जारी करने की प्रमुख संस्था बन गया । आज हम उसे एच-एस-बी-सी बैंक के नाम से जानते हैं ।

१९६९ में चार्टर्ड बैंक आफ ईन्डिया और स्टैन्डर्ड बैंक का विलय हो गया और इन दोनों के मिलने से स्टैन्डर्ड चार्टर्ड बैंक बना । उसी वर्ष भारत की सरकार ने इलाहाबाद बैंक का राष्ट्रीयकरण किया । .

स्टेट बैंक आफ ईन्डिया

एस-बी-आई की शुरुआत कोलकाता ( ब्रिटिश इन्डिया के समय में भारत की राजधानी ) में हुई , जब उसका जन्म २ जून १८०६ को बैंक आफ कल्कत्ता के नाम से हुआ। इसकी शुरुआत का मुख्य कारण था टीपू सुल्तान और मराठाओं से युद्ध कर रहे जेनेरल वेलेस्ली को आर्थिक सहयता पहुँचाना । जनवरी २, १८०९ को इस बैंक को बैंक आफ बंगाल का नया नाम दिया गया । इसी तरह के मिश्रित पूँजी (जोइन्ट स्टौक ) के अन्य बैंक यानि बैंक आफ बम्बई और बैंक आफ मद्रास की शुरुआत १८४० और १८४३ में हुई ।
१९२१ में इन सभी बैंकों और उनकी ७० शाखाओं को मिलाकर इम्पीरियल बैंक आफ ईन्डिया का निर्माण किया गया । आजादी के पश्चात् कई राज्य नियन्त्रित बैंकों को भी इम्पीरियल बैंक आफ ईन्डिया के साथ मिला दिया गया और इसे स्टेट बैंक आफ ईन्डिया का नाम दिया गया । आज भी वह इसी नाम से जाना जाता है ।

१८५९ – १८५७ की बगावत के पश्चात् जेम्स विल्सन (चार्टर्ड बैंक आफ इन्डिया, औस्ट्रेलिया और चाइना के निर्माता ) को टैक्स योजना और नयी कागजी मुद्रा की स्थापना और भारत के वित्तीय प्रणाली (फाईनान्स सिस्टम) का पुनः निर्माण करने के लिये भारत भेजा गया ।

उन्हें भारतीय टैक्स सिस्टम के पितामह का दर्जा दिया गया है ।

रिजर्व बैंक आफ इन्डिया

आर –बी-आई की नींव हिल्टन यंग कमीशन के समक्ष डाक्टर अम्बेड्कर के बताये निदेशक सिद्धान्त और सन्चालन रीति पर रखी गयी ( जैसा के हमें बताया जाता है, मगर असली प्रारम्भ कहीं और ही हुआ, जिसके बारे एक दूसरा लेख हम प्रस्तुत करेंगे ) । जब यह कमीशन `रायल कमीशन आन इन्डियन करेन्सी एन्ड फाईनान्स’ के नाम से भारत आयी तब उसके हरेक सदस्य के पास डाक्टर अम्बेड्कर की किताब ` द प्राब्लेम आफ द रुपी- इट्स ओरिजिन एन्ड इट्स सोल्यूशन ‘ मौजूद थी ।

डाक्टर अम्बेड्कर की किताब ` द प्रोब्लेम आफ द रुपी- इट्स ओरिजिन एन्ड इट्स सोल्यूशन ‘ से उद्धृत –

अध्याय ५ – स्वर्ण मान से स्वर्ण विनिमय तक (from a Gold Standard To a Gold Exchange Standard)

` जब तक मूल्यांकन धातु मुद्रा से किया जाता है तब तक अत्यधिक मुद्रा स्फीति (इन्फ्लेशन) सम्भव नहीं है क्योंकि उत्पादन लागत उसपर रोक लगाती है । जब मूल्यांकन रुपयों (पेपर मनी) से होता है तो प्रतिबन्ध से इसको काबू में रखा जा सकता है । लेकिन जब मूल्यांकन वैसे रुपयों से होता है जिसका मोल उसकी अपनी कीमत से ज्यादा है और वह अपरिवर्तनीय है, तो उसमें असीमित स्फीति की सम्भावना है , जिसका अर्थ है मूल्य मे कमी और दामों मे बढोतरी । इसलिये यह नहीं कहा जा सकता है कि बैंक चार्टर ऐक्ट ने बैंक रेस्ट्रिक्शन ऐक्ट से बेहतर नहीं था । वाकई वह बेहतर था क्योंकि उस ऐक्ट से ऐसी मुद्रा जारी की गयी जिसमें मुद्रा स्फीति की सम्भावना कम थी । अब रुपया एक अपरिवर्तनीय अपमिश्रित ( डीबेस्ड) सिक्का और असीमित वैध मुद्रा (लीगल टेन्डर) है । इस रूप में वह अब उस वर्ग में है जिसमें असीमित मुद्रा स्फीति की क्षमता है । इससे बचाव के लिये निःसन्देह पहली योजना इससे बेहरत थी जिसमें रुपयों का वितरण सीमित था । इससे भारतीय मुद्रा प्रणाली १८४४ के बैंक चार्टर ऐक्ट के अधीन ब्रिटिश प्रणाली के अनुरूप था ।

यदि उपर्युक्त तर्कसंगत विचारों में बल है, तो फिर चेम्बर्लेन कमीशन आफ एक्स्चेन्ज स्टैंडर्ड के विचारों से सहमत होने में आपत्ति होती है । इससे यह प्रश्न उठता है कि कमीशन ने जो भी कहा उसके बावजूद उस प्रणाली में कहीं कोई कमजोरी तो नहीं जो कभी उसके पतन का कारण बन सकती है । ऐसी अवस्था में उस मान्य की नींव को नये द्रिष्टिकोण से जाँचना जरूरी हो जाता है ।

क्या डाक्टर अम्बेड्कर को भिन्न आरक्षन प्रणाली (फ्रैक्शनल रिजर्व बैंकिंग) और खन्ड मुद्रा (फिआत करेंसी) के खतरों का (जिसका असर आज समस्त सन्सार पर हो रहा है ) सही अनुमान हो चुका था ?

इस विषय पर रिसर्च और चर्चा की जरूरत है जिससे हकीकत सामने आ सके !

नशीले पदार्थों की तस्करी और भारत, पुर्तगाल, ब्राजील, चीन, बर्मा और अन्य देशों से लूटे गये सोने से आज के मुद्रा प्रणाली (मोनेटरी सिस्टम ) की नींव रखी गयी ।

लेकिन क्या यह अब समाप्त हो चुका ?

यह जानने के लिये कि ओबामा ने अपने द्वितीय कार्यकाल में भारत के लिये क्या सोंच रखा है कृपया पढें – Unlocking the full potential of the US-India Relationship 2013

सार्वभौमिकता (Globalisation) सर्वव्यापी धर्मनिर्पेक्ष जीवन शैली नहीं है ….
यह उपनिवेशवाद (Colonialism) का नया रूप है जिसके जरिये समस्त संसार को एक बडा उपनिवेश (कोलोनी) बनाने की चेष्टा की जा रही है ।

अपने दिनों में कम्पनी नें सही अर्थों में सार्वभौमिक अर्थव्यवस्था में मौजूद कमजोरियों का धूर्तता से अपने फायदे के लिये शोषण किया । चीन की चाय भारत के अफीम से खरीदी गयी । भारत मे उपजे कपास से बने भारतीय और बाद में ब्रिटिश कपडों से पश्चिम अफ्रीका के गुलाम खरीदे गये , जिन्हें अमेरिका में सोने और चाँदी के लिये बेचा गया , जिसे इंगलैंड में निवेशित किया गया जहाँ गुलामों द्वारा बनाई चीनी के कारण चायना से आयात चाय की लोकप्रियता मर्केट में बनी रही । विजेता विश्व के सबसे महत्वपूर्ण वित्तीय केन्द्र अर्थात् फाईनेन्शियल सेन्टर `सिटी आफ लन्दन’ में विराजमान थे और भारी संख्या में असफल व्यक्तिगण संसार के हर कोने में मौजूद थे ।

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रिजर्व बैंक आफ इन्डिया

आर –बी-आई की नींव हिल्टन यंग कमीशन के समक्ष डाक्टर अम्बेड्कर के बताये निदेशक सिद्धान्त और सन्चालन रीति पर रखी गयी ( जैसा के हमें बताया जाता है, मगर असली प्रारम्भ कहीं और ही हुआ, जिसके बारे एक दूसरा लेख हम प्रस्तुत करेंगे ) । जब
यह कमीशन `रायल कमीशन आन इन्डियन करेन्सी एन्ड फाईनान्स’ के नाम से भारत आयी तब उसके हरेक सदस्य के पास डाक्टर अम्बेड्कर की किताब ` द प्राब्लेम आफ द रुपी- इट्स ओरिजिन एन्ड इट्स सोल्यूशन ‘ मौजूद थी ।

डाक्टर अम्बेड्कर की किताब ` द प्रोब्लेम आफ द रुपी- इट्स ओरिजिन एन्ड इट्स सोल्यूशन ‘ से उद्धृत –

अध्याय ५ – स्वर्ण मान से स्वर्ण विनिमय तक (from a Gold Standard To a Gold Exchange Standard)

` जब तक मूल्यांकन धातु मुद्रा से किया जाता है तब तक अत्यधिक मुद्रा स्फीति (इन्फ्लेशन) सम्भव नहीं है क्योंकि उत्पादन लागत उसपर रोक लगाती है । जब मूल्यांकन रुपयों (पेपर मनी) से होता है तो प्रतिबन्ध से इसको काबू में रखा जा सकता है । लेकिन जब मूल्यांकन वैसे रुपयों से होता है जिसका मोल उसकी अपनी कीमत से ज्यादा है और वह अपरिवर्तनीय है, तो उसमें असीमित स्फीति की सम्भावना है , जिसका अर्थ है मूल्य मे कमी और दामों मे बढोतरी । इसलिये यह नहीं कहा जा सकता है कि बैंक चार्टर ऐक्ट ने बैंक रेस्ट्रिक्शन ऐक्ट से बेहतर नहीं था । वाकई वह बेहतर था क्योंकि उस ऐक्ट से ऐसी मुद्रा जारी की गयी जिसमें मुद्रा स्फीति की सम्भावना कम थी । अब रुपया एक अपरिवर्तनीय अपमिश्रित ( डीबेस्ड) सिक्का और असीमित वैध मुद्रा (लीगल टेन्डर) है । इस रूप में वह अब उस वर्ग में है जिसमें असीमित मुद्रा स्फीति की क्षमता है । इससे बचाव के लिये निःसन्देह पहली योजना इससे बेहरत थी जिसमें रुपयों का वितरण सीमित था । इससे भारतीय मुद्रा प्रणाली १८४४ के बैंक चार्टर ऐक्ट के अधीन ब्रिटिश प्रणाली के अनुरूप था ।

यदि उपर्युक्त तर्कसंगत विचारों में बल है, तो फिर चेम्बर्लेन कमीशन आफ एक्स्चेन्ज स्टैंडर्ड के विचारों से सहमत होने में आपत्ति होती है । इससे यह प्रश्न उठता है कि कमीशन ने जो भी कहा उसके बावजूद उस प्रणाली में कहीं कोई कमजोरी तो नहीं जो कभी उसके पतन का कारण बन सकती है । ऐसी अवस्था में उस मान्य की नींव को नये द्रिष्टिकोण से जाँचना जरूरी हो जाता है ।

क्या डाक्टर अम्बेड्कर को भिन्न आरक्षन प्रणाली (फ्रैक्शनल रिजर्व बैंकिंग) और खन्ड मुद्रा (फिआत करेंसी) के खतरों का (जिसका असर आज समस्त सन्सार पर हो रहा है ) सही अनुमान हो चुका था ?

इस विषय पर रिसर्च और चर्चा की जरूरत है जिससे हकीकत सामने आ सके !

मुहम्मद मरे नहीं थे, भारत के महाकवि कालिदास के हाथों मारे गए थे :?


मुहम्मद मरे नहीं थे, भारत के महाकवि कालिदास के हाथों मारे गए थे :

इतिहास का एक अत्यंत रोचक तथ्य है कि इस्लाम के पैगम्बर (रसूल) मुहम्मद साहब सन ६३२ में अपनी स्वाभाविक मौत नहीं मरे थे, अपितु भारत के महान साहित्यकार कालिदास के हाथों मारे गए थे. मदीना में दफनाए गए (?) मुहम्मद की कब्र की जांच की जाए तो रहस्य से पर्दा उठ सकता है कि कब्र में मुहम्मद का कंकाल है या लोटा ।

भविष्यमहापुराण (प्रतिसर्गपर्व) में सेमेटिक मजहबों के सभी पैगम्बरों का इतिहास उनके नाम के साथ वर्णित है. नामों का संस्कृतकरण हुआ है I इस पुराण में मुहम्मद और ईसामसीह का भी वर्णन आया है. मुहम्मद का नाम "महामद" आया है. मक्केश्वर शिवलिंग का भी उल्लेख आया है. वहीं वर्णन आया है कि सिंधु नहीं के तट पर मुहम्मद और कालिदास की भिड़ंत हुई थी और कालिदास ने मुहम्मद को जलाकर भस्म कर दिया. ईसा को सलीब पर टांग दिया गया और मुहम्मद भी जलाकर मार दिए गए- सेमेटिक मजहब के ये दो रसूल किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे. शर्म के मारे मुसलमान किसी को नहीं बताते कि मुहम्मद जलाकर मार दिए गए, बल्कि वह यह बताते हैं कि उनकी मौत कुदरती हुई थीI

भविष्यमहापुराण (प्रतिसर्गपर्व, 3.3.1-27) में उल्लेख है कि ‘शालिवाहन के वंश में १० राजाओं ने जन्म लेकर क्रमश: ५०० वर्ष तक राज्य किया. अन्तिम दसवें राजा भोजराज हुए । उन्होंने देश की मर्यादा क्षीण होती देख दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया । उनकी सेना दस हज़ार थी और उनके साथ कालिदास एवं अन्य विद्वान्-ब्राह्मण भी थे । उन्होंने सिंधु नदी को पार करके गान्धार, म्लेच्छ और काश्मीर के शठ राजाओं को परास्त किया और उनका कोश छीनकर उन्हें दण्डित किया । उसी प्रसंग में मरुभूमि मक्का पहुँचने पर आचार्य एवं शिष्यमण्डल के साथ म्लेच्छ महामद (मुहम्मद) नाम व्यक्ति उपस्थित हुआ । राजा भोज ने मरुस्थल (मक्का) में विद्यमान महादेव जी का दर्शन किया । महादेवजी को पंचगव्यमिश्रित गंगाजल से स्नान कराकर चन्दनादि से भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया और उनकी स्तुति की: “हे मरुस्थल में निवास करनेवाले तथा म्लेच्छों से गुप्त शुद्ध सच्चिदानन्दरूपवाले गिरिजापते ! आप त्रिपुरासुर के विनाशक तथा नानाविध मायाशक्ति के प्रवर्तक हैं । मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे अपना दास समझें । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।” इस स्तुति को सुनकर भगवान् शिव ने राजा से कहा- “हे भोजराज ! तुम्हें महाकालेश्वर तीर्थ (उज्जयिनी) में जाना चाहिए । यह ‘वाह्लीक’ नाम की भूमि है, पर अब म्लेच्छों से दूषित हो गयी है । इस दारुण प्रदेश में आर्य-धर्म है ही नहीं । महामायावी त्रिपुरासुर यहाँ दैत्यराज बलि द्वारा प्रेषित किया गया है ।

वह मानवेतर, दैत्यस्वरूप मेरे द्वारा वरदान पाकर मदमत्त हो उठा है और पैशाचिक कृत्य में संलग्न होकर महामद (मुहम्मद) के नाम से प्रसिद्ध हुआ है । पिशाचों और धूर्तों से भरे इस देश में हे राजन् ! तुम्हें नहीं आना चाहिए । हे राजा ! मेरी कृपा से तुम विशुद्ध हो । भगवान् शिव के इन वचनों को सुनकर राजा भोज सेना सहित पुनः अपने देश में वापस आ गये । उनके साथ महामद भी सिंधु तीर पर पहुँच गया । अतिशय मायावी महामद ने प्रेमपूर्वक राजा से कहा- ”आपके देवता ने मेरा दासत्व स्वीकार कर लिया है ।” राजा यह सुनकर बहुत विस्मित हुए। और उनका झुकाव उस भयंकर म्लेच्छ के प्रति हुआ । उसे सुनकर कालिदास ने रोषपूर्वक महामद से कहा- “अरे धूर्त ! तुमने राजा को वश में करने के लिए माया की सृष्टि की है । तुम्हारे जैसे दुराचारी अधम पुरुष को मैं मार डालूँगा ।“ यह कहकर कालिदास नवार्ण मन्त्र (ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे) के जप में संलग्न हो गये । उन्होंने (नवार्ण मन्त्र का) दस सहस्र जप करके उसका दशांश (एक सहस्र) हवन किया । उससे वह मायावी भस्म होकर म्लेच्छ-देवता बन गया । इससे भयभीत होकर उसके शिष्य वाह्लीक देश वापस आ गये और अपने गुरु का भस्म लेकर मदहीनपुर (मदीना) चले गए और वहां उसे स्थापित कर दिया जिससे वह स्थान तीर्थ के समान बन गया। एक समय रात में अतिशय देवरूप महामद ने पिशाच का देह धारणकर राजा भोज से कहा- ”हे राजन् ! आपका आर्यधर्म सभी धर्मों में उत्तम है, लेकिन मैं उसे दारुण पैशाचधर्म में बदल दूँगा । उस धर्म में लिंगच्छेदी (सुन्नत/खतना करानेवाले), शिखाहीन, दढि़यल, दूषित आचरण करनेवाले, उच्च स्वर में बोलनेवाले (अज़ान देनेवाले), सर्वभक्षी मेरे अनुयायी होंगे । कौलतंत्र के बिना ही पशुओं का भक्षण करेंगे. उनका सारा संस्कार मूसल एवं कुश से होगा । इसलिये ये जाति से धर्म को दूषित करनेवाले ‘मुसलमान’ होंगे । इस प्रकार का पैशाच धर्म मैं विस्तृत करूंगा I”

‘एतस्मिन्नन्तरे म्लेच्छ आचार्येण समन्वितः ।
महामद इति ख्यातः शिष्यशाखा समन्वितः ।। 5 ।।
नृपश्चैव महादेवं मरुस्थलनिवासिनम् ।
गंगाजलैश्च संस्नाप्य पंचगव्यसमन्वितैः ।
चन्दनादिभिरभ्यच्र्य तुष्टाव मनसा हरम् ।। 6 ।।

भोजराज उवाच
नमस्ते गिरिजानाथ मरुस्थलनिवासिने ।
त्रिपुरासुरनाशाय बहुमायाप्रवर्तिने ।। 7 ।।
म्लेच्छैर्मुप्ताय शुद्धाय सच्चिदानन्दरूपिणे ।
त्वं मां हि किंकरं विद्धि शरणार्थमुपागतम् ।। 8 ।।

सूत उवाच
इति श्रुत्वा स्तवं देवः शब्दमाह नृपाय तम् ।
गंतव्यं भोजराजेन महाकालेश्वरस्थले ।। 9 ।।
म्लेच्छैस्सुदूषिता भूमिर्वाहीका नाम विश्रुता ।
आर्यधर्मो हि नैवात्र वाहीके देशदारुणे ।। 10 ।।
वामूवात्र महामायो योऽसौ दग्धो मया पुरा ।
त्रिपुरो बलिदैत्येन प्रेषितः पुनरागतः ।। 11 ।।
अयोनिः स वरो मत्तः प्राप्तवान्दैत्यवर्द्धनः ।
महामद इति ख्यातः पैशाचकृतितत्परः ।। 12 ।।
नागन्तव्यं त्वया भूप पैशाचे देशधूर्तके ।
मत्प्रसादेन भूपाल तव शुद्धि प्रजायते ।। 13 ।।
इति श्रुत्वा नृपश्चैव स्वदेशान्पु नरागमतः ।
महामदश्च तैः साद्धै सिंधुतीरमुपाययौ ।। 14 ।।
उवाच भूपतिं प्रेम्णा मायामदविशारदः ।
तव देवो महाराजा मम दासत्वमागतः ।। 15 ।।
इति श्रुत्वा तथा परं विस्मयमागतः ।। 16 ।।
म्लेच्छधनें मतिश्चासीत्तस्य भूपस्य दारुणे ।। 17 ।।
तच्छ्रुत्वा कालिदासस्तु रुषा प्राह महामदम् ।
माया ते निर्मिता धूर्त नृपमोहनहेतवे ।। 18 ।।
हनिष्यामिदुराचारं वाहीकं पुरुषाधनम् ।
इत्युक्त् वा स जिद्वः श्रीमान्नवार्णजपतत्परः ।। 19 ।।
जप्त्वा दशसहस्रंच तदृशांश जुहाव सः ।
भस्म भूत्वा स मायावी म्लेच्छदेवत्वमागतः ।। 20 ।।
मयभीतास्तु तच्छिष्या देशं वाहीकमाययुः ।
गृहीत्वा स्वगुरोर्भस्म मदहीनत्वामागतम् ।। 21 ।।
स्थापितं तैश्च भूमध्येतत्रोषुर्मदतत्पराः ।
मदहीनं पुरं जातं तेषां तीर्थं समं स्मृतम् ।। 22 ।।
रात्रौ स देवरूपश्च बहुमायाविशारदः ।
पैशाचं देहमास्थाय भोजराजं हि सोऽब्रवीत् ।। 23 ।।
आर्यधर्मो हि ते राजन्सर्वधर्मोत्तमः स्मृतः ।
ईशाख्या करिष्यामि पैशाचं धर्मदारुणम् ।। 24 ।।
लिंगच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रु धारी स दूषकः ।
उच्चालापी सर्वभक्षी भविष्यति जनो मम ।। 25 ।।
विना कौलं च पशवस्तेषां भक्षया मता मम ।
मुसलेनेव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति ।। 26 ।।
तस्मान्मुसलवन्तो हि जातयो धर्मदूषकाः ।
इति पैशाचधर्मश्च भविष्यति मया कृतः ।। 27 ।।’

(भविष्यमहापुराणम् (मूलपाठ एवं हिंदी-अनुवाद सहित), अनुवादक: बाबूराम उपाध्याय, प्रकाशक: हिंदी-साहित्य-सम्मेलन, प्रयाग; ‘कल्याण’ (संक्षिप्त भविष्यपुराणांक), प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर, जनवरी, 1992 ई.)

कुछ विद्वान कह सकते हैं कि महाकवि कालिदास तो प्रथम शताब्दी के शकारि विक्रमादित्य के समय हुए थे और उनके नवरत्नों में से एक थे, तो हमें ऐसा लगता है कि कालिदास नाम के एक नहीं बल्कि अनेक व्यक्तित्व हुए हैं, बल्कि यूं कहा जाए की कालिदास एक ज्ञानपीठ का नाम है, जैसे वेदव्यास, शंकराचार्य इत्यादि. विक्रम के बाद भोज के समय भी कोई कालिदास अवश्य हुए थे. इतिहास तो कालिदास को छठी-सातवी शती (मुहम्मद के समकालीन) में ही रखता है.

कुछ विद्वान "सरस्वतीकंठाभरण", समरांगणसूत्रधार", "युक्तिकल्पतरु"-जैसे ग्रंथों के रचयिता राजा भोज को भी ९वी से ११वी शताब्दी में रखते हैं जो गलत है. भविष्यमहापुराण में परमार राजाओं की वंशावली दी हुई है. इस वंशावली से भोज विक्रम की छठी पीढ़ी में आते हैं और इस प्रकार छठी-सातवी शताब्दी (मुहम्मद के समकालीन) में ही सिद्ध होते हैं.
कालिदासत्रयी-

एकोऽपि जीयते हन्त कालिदासो न केनचित्।

शृङ्गारे ललितोद्गारे कालिदास त्रयी किमु॥

(राजशेखर का श्लोक-जल्हण की सूक्ति मुक्तावली तथा हरि कवि की सुभाषितावली में)
इनमें प्रथम नाटककार कालिदास थे जो अग्निमित्र या उसके कुछ बाद शूद्रक के समय हुये। द्वितीय महाकवि कालिदस थे, जो उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य के राजकवि थे। इन्होंने रघुवंश, मेघदूत तथा कुमारसम्भव-ये ३ महाकाव्य लिखकर ज्योतिर्विदाभरण नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा। इसमें विक्रमादित्य तथा उनके समकालीन सभी विद्वानों का वर्णन है। अन्तिम कालिदास विक्रमादित्य के ११ पीढ़ी बाद के भोजराज के समय थे तथा आशुकवि और तान्त्रिक थे-इनकी चिद्गगन चन्द्रिका है तथा कालिदास और भोज के नाम से विख्यात काव्य इनके हैं।

शनिवार, अगस्त 30, 2014

The Islamic State isn’t just killing people. It’s destroying a culture.

August 22

Aki Peritz is a former CIA counterterrorism analyst and a co-author of “Find, Fix, Finish: Inside the Counterterrorism Campaigns That Killed bin Laden and Devastated Al-Qaeda.”

Before the world witnessed the full force of the Islamic State’s brutality in the video this past week showing American journalist James Foley’s murder, a different video revealed another kind of destruction the terrorist group is bent on inflicting.

A little more than a minute long, the earlier video focuses on a large tan building with a graceful minaret rising into the day’s haze. Ten seconds in, there’s a flash and a loud bang. The minaret and the building disappear in a plume of smoke. And just like that, the supposed final resting place of the prophet Jonah — he of the very large fish — was reduced to rubble.

The Islamic State has been consolidating its fanatical grip on its conquered lands. Besides the innumerable cruelties the militant group has meted out, such as the forced expulsions of Christians and other minorities, mass executions and the murder of religious leaders, it also has been destroying Iraq’s cultural heritage wherever its black banners flutter overhead.

Since taking over a chunk of northern and western Iraq in June, the Islamic State has systematically blown up heritage sites in and around Mosul, such as the centuries-old shrine to Seth (the third son of Adam and Eve ), the Prophet Jirjis Mosque and the Awn al-Din Shrine. An hour’s drive west of Mosul, in the town of Tal Afar, it has demolished at least three Shiite shrines and three mosques.

Iraq’s biblical and historic sites have suffered enormous damage over the past decade of war. For instance, Baghdad’s National Museum and National Archives were famously looted after the U.S. invasion, while American troops in 2003-2004 used part of ancient Babylon as a heliport and fuel reservoir. But the difference is that the Islamic State makes a deliberate effort to wreck Iraq’s cultural spaces. The group even brags about it; a recent edition of its English-language online magazine, Dabiq , features a photo essay showing many places its fighters have destroyed in and around Nineveh province. And what the organization doesn’t bulldoze, it loots; the Sunday Times recently reported that the Islamic State is ransacking archaeological sites and extracting a “tax” on smugglers moving stolen artifacts.

The Islamic State’s appetite for destruction makes perfect sense. The group claims to adhere to the Salafist worldview; its members want to return Islam to what they perceive to be how Muhammad’s first generations of followers acted and behaved. Salafists explicitly reject post-7th-century “innovations” concerning behavior and Koranic interpretation — which, taken to the extreme, means all other forms of Islamic faith are corrupt and should be expunged. This ideology underpins the Islamic State’s justification for destroying everything of cultural consequence in Mosul and elsewhere.

Of course, this is hardly the first time radicals have delighted in systematically demolishing a nation’s heritage. The Taliban’s dynamiting of ancient statues of the Buddha in Bamiyan, Afghanistan, in 2001 is another tragic example. But a better analogy of cultural destruction on an industrial scale is China during the Cultural Revolution of 1966-1976. Chinese youth, empowered by Mao Zedong’s vision of a permanent class struggle, formed Red Guard units across the country. They were then encouraged to stamp out the “four olds” from Chinese society: old customs, old habits, old culture and old thinking.

The Red Guards destroyed temples, mosques, heritage sites, art and libraries, turning much of the country’s 5,000-year-old culture to ash. Only the intercession of high-ranking officials could stop the demolitions. For example, the reason Beijing’s Forbidden City was not greatly damaged is because Premier Zhou Enlai deployed Chinese troops to protect it.

Throughout history, we sometimes see small groups rise up to try to halt — or at least mitigate — the destruction. In Robert Edsel’s book “The Monuments Men” (and in George Clooney’s movie of the same title), a group of volunteers comes together to attempt to rescue priceless cultural artifacts from Nazi ravages during World War II.

Even today, there are those who seek to preserve civilization from within. When al-Qaeda in the Islamic Maghreb (AQIM) and its allies gobbled up half of Mali in 2012, they conquered Timbuktu , a city of great Islamic scholarship. AQIM’s fanatics bulldozed several shrines in the city, and declared that certain centuries-old texts were unholy and must be put to the torch. But a few librarians and a security guard decided to risk their lives to move some 28,000 texts from harm’s way, until the Malian government and French paratroopers retook the city in early 2013.

President Obama declared Wednesday that the United States “will continue to do what we must do to protect our people” against the Islamic State, and that “we will be vigilant, and we will be relentless.” But in addition to its campaign of airstrikes, the United States should quietly identify and assist those brave enough to try to stem the irredeemable cultural losses being inflicted in Islamic State-controlled territory. Sadly, it is hard to save immovable places such as mosques, monasteries, churches, tombs, shrines and archaeological sites — although residents have made efforts to protect a few places — but we should work with those willing to spirit whatever artifacts can be saved from the conflict zone. The administration should also work with the Kurdistan Regional Government, Turkey and the European Union to house whatever collections can be saved from the Islamic State’s murderous fanatics. The group is quickly erasing Iraq’s cultural heritage, with little holding it back.

Iraqi and Kurdish forces are battling Islamic State fighters to retake two towns in northern Iraq, after their strategic win of recapturing the Mosul Dam. (Reuters)

No doubt, it’s a bit callous to emphasize the rescue of artifacts and items rather than focus solely on the risks to long-suffering people. Yet for one reason or another, no political player that can bring overwhelming force to the table is effectively challenging the Islamic State — not the Sunni tribes (yet), not the government in Baghdad, not the Iranians and not the United States, despite our limited air campaign and Defense Secretary Chuck Hagel calling the group “a threat to every stabilized country on Earth.” So, the Islamic State will tighten its grip on its territory and continue its pillaging of Iraq’s heritage.

In the Book of Jonah, God commands the reluctant prophet to journey to the Assyrian city of Nineveh to tell its king and its inhabitants of their coming destruction due to their wickedness. Modern Mosul is built over the bones of ancient Nineveh, and the wicked now rule the city again. We need brave, modern-day Monuments Men (and women) in Iraq to help stop the damage the Islamic State is inflicting every day upon the some of the first drafts of human civilization.
http://www.washingtonpost.com/opinions/islamic-state-militants-arent-just-killing-people--theyre-destroying-a-culture/2014/08/22/0b11f766-1819-11e4-85b6-c1451e622637_story.html

शुक्रवार, अगस्त 29, 2014

इतिहास को फिर से क्यों लिखा जाना चाहिए

भारत दुनिया का शायद अकेला ऐसा देश होगा, जहां के आधिकारिक इतिहास की शुरुआत में ही यह बताया जाता है कि भारत में रहने वाले लोग यहां के मूल निवासी नहीं हैं. भारत में रहने वाले अधिकांश लोग भारत के हैं ही नहीं. ये सब विदेश से आए हैं. इतिहासकारों ने बताया कि हम आर्य हैं. हम बाहर से आए हैं. कहां से आए? इसका कोई सटीक जवाब नहीं है. फिर भी बाहर से आए. आर्य कहां से आए, इसका जवाब ढूंढने के लिए कोई इतिहास के पन्नों को पलटे, तो पता चलेगा कि कोई सेंट्रल एशिया कहता है, तो कोई साइबेरिया, तो कोई मंगोलिया, तो कोई ट्रांस कोकेशिया, तो कुछ ने आर्यों को स्कैंडेनेविया का बताया. आर्य धरती के किस हिस्से के मूल निवासी थे, यह इतिहासकारों के लिए आज भी मिथक है. मतलब यह कि किसी के पास आर्यों का सुबूत नहीं है, फिर भी साइबेरिया से लेकर स्कैंडेनेविया तक, हर कोई अपने-अपने हिसाब से आर्यों का पता बता देता है. भारत में आर्य अगर बाहर से आए, तो कहां से आए और कब आए, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है. यह भारत के लोगों की पहचान का सवाल है. विश्‍वविद्यालयों में बैठे बड़े-बड़े इतिहासकारों को इन सवालों का जवाब देना है. सवाल पूछने वाले की मंशा पर सवाल उठाकर इतिहास के मूल प्रश्‍नों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है. -
भारत की सरकारी किताबों में आर्यों के आगमन को आर्यन इन्वेजन थ्योरी कहा जाता है. इन किताबों में आर्यों को घुमंतू या कबीलाई बताया जाता है. इनके पास रथ था. यह बताया गया कि आर्य अपने साथ वेद भी साथ लेकर आए थे. उनके पास अपनी भाषा थी, स्क्रिप्ट थी. मतलब यह कि वे पढ़े-लिखे खानाबदोश थे. यह दुनिया का सबसे अनोखा उदाहरण है. यह इतिहास अंग्रेजों ने लिखा था. वर्ष 1866 में भारत में आर्यों की कहानी मैक्समूलर ने गढ़ी थी. इस दौरान आर्यों को एक नस्ल बताया गया. मैक्स मूलर जर्मनी के रहने वाले थे. उन्हें उस जमाने में दस हज़ार डॉलर की पगार पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने वेदों को समझने और उनका अनुवाद करने के लिए रखा था. अंग्रेज भारत में अपना शासन चलाना चाहते थे, लेकिन यहां के समाज के बारे में उन्हें जानकारी नहीं थी. इसी योजना के तहत लॉर्ड मैकॉले ने मैक्स मूलर को यह काम दिया था. यह लॉर्ड मैकॉले वही हैं, जिन्होंने भारत में एक ऐसे वर्ग को तैयार करने का बीड़ा उठाया था, जो अंग्रेजों और उनके द्वारा शासित समाज यानी भारत के लोगों के बीच संवाद स्थापित कर सकें. इतना ही नहीं, मैकॉले कहते हैं कि यह वर्ग ऐसा होगा, जो रंग और खून से तो भारतीय होगा, लेकिन आचार-विचार, नैतिकता और बुद्धि से अंग्रेज होगा. इसी एजेंडे को पूरा करने के लिए उन्होंने भारत में शिक्षा नीति लागू की, भारत के धार्मिक ग्रंथों का विश्‍लेषण कराया और सरकारी इतिहास लिखने की शुरुआत की. आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद भारत के शासक वर्ग ने लॉर्ड मैकॉले के सपने को साकार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इतिहासकारों ने भी इसी प्रवृत्ति का परिचय दिया.

अंग्रेजों की एक आदत अच्छी है. वे दस्तावेज़ों को संभाल कर रखते हैं. यही वजह है कि वेदों को समझने और उनके अनुवाद के पीछे की कहानी की सच्चाई का पता चल जाता है. मैक्स मूलर ने वेदों के अध्ययन और अनुवाद के बाद एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने साफ़-साफ़ लिखा कि भारत के धर्म को अभिशप्त करने की प्रक्रिया पूरी हो गई है और अगर अब ईसाई मिशनरी अपना काम नहीं करते हैं, तो इसमें किसका दोष है. मैक्स मूलर ने ही भारत में आर्यन इन्वेजन थ्योरी को लागू करने का काम किया था, लेकिन इस थ्योरी को सबसे बड़ी चुनौती 1921 में मिली. अचानक से सिंधु नदी के किनारे एक सभ्यता के निशान मिल गए. कोई एक जगह होती, तो और बात थी. यहां कई सारी जगहों पर सभ्यता के निशान मिलने लगे. इसे सिंधु घाटी सभ्यता कहा जाने लगा. यहां की खुदाई से पता चला कि सिंधु नदी के किनारे कई शहर दबे पड़े हैं. इन शहरों में सड़कें थीं, हर जगह और घरों से नालियां निकल रही थीं. पूरे शहर में एक सुनियोजित ड्रेनेज सिस्टम था. बाज़ार के लिए अलग जगह थी. रिहाइशी इलाक़ा अलग था. इन शहरों में स्वीमिंग पूल थे, जिनका डिजाइन भी 21वीं सदी के बेहतरीन स्वीमिंग पूल्स की तरह था. अनाज रखने के लिए गोदाम थे. नदियों के किनारे नौकाओं के लिए बंदरगाह बना हुआ था. जब इन शहरों की उम्र का अनुमान लगाया गया, तो पता चला कि यह दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता है. यह आर्यों के आगमन के पहले से है. अब सवाल यह उठ खड़ा हुआ है कि जब आर्य बाहर से आए थे, तो यहां कौन रहते थे. सिंधु घाटी सभ्यता के शहर स़िर्फ ज़मीन में धंसे हुए शहर नहीं थे, बल्कि इतिहास के सुबूतों के भंडार थे. अंग्रेज इतिहासकारों ने इतिहास के इन सुबूतों को दरकिनार कर दिया और अपनी आर्यों की थ्योरी पर डटे रहे. होना तो यह चाहिए था कि सिंधु घाटी सभ्यता से मिली नई जानकारी की रौशनी में इतिहास को फिर से लिखा जाता, लेकिन अंग्रेजी इतिहासकारों ने सिंधु घाटी सभ्यता का इस्तेमाल आर्यन इन्वेजन थ्योरी को सही साबित करने में किया.
-यह इतिहास के साथ सबसे बड़ा धोखा था, लेकिन किसी ने सवाल नहीं उठाया. उन्होंने लिख दिया कि आर्य बाहर से स़िर्फ आए ही नहीं, बल्कि सिंधु घाटी सभ्यता का विनाश भी किया. भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों की सबसे बड़ी चूक यही है कि किसी ने आर्यन इन्वेजन थ्योरी को नए प्रमाणों की रौशनी में नहीं परखा. इस भ्रामक थ्योरी पर सवाल खड़ा नहीं किया. अंग्रेजों ने जो लिख दिया, उसे सत्य मानकर बैठ गए. आज़ादी के बाद भी इतिहासकारों ने इसे बदलने की कोशिश नहीं की. इतिहास में नए तथ्यों या प्रमाणों के आधार पर बदलाव नहीं किया गया, तो कुछ सवाल उठने लाजिमी हैं. यह कैसे संभव है कि खानाबदोश आर्यों के पास रहने के लिए अपना घर न हो, लेकिन वेद जैसा ग्रंथ हो. अपनी भाषा हो और अपनी स्क्रिप्ट भी. और, जो लोग सुनियोजित शहरों में रह रहे थे, जो स्वीमिंग पूल में नहाते थे, अपना अनाज गोदामों में रखते थे, जो व्यापार करते थे, उनके पास न तो कोई भाषा थी, न स्क्रिप्ट थी और न कोई धर्म ग्रंथ था. और वे इतने कायर और कमज़ोर थे कि खानाबदोश लोगों ने उन्हें उनके शहर से मार भगाया. भारतीय इतिहासकारों ने इन्हीं अंग्रेजों के लिखे इतिहास पर आर्यों और द्रविड़ों का भेद किया. बताया कि सिंधु घाटी में रहने वाले लोग द्रविड़ थे, जो यहां से पलायन कर दक्षिण भारत चले गए. अब यह सवाल भी उठता है कि सिंधु घाटी से जब वे पलायन कर दक्षिण भारत पहुंच गए, तो क्या उनकी बुद्धि और ज्ञान सब ख़त्म हो गया. वे शहर बनाना भूल गए, स्वीमिंग पूल बनाना भूल गए, नालियां बनाना भूल गए. और, बाहर से आने वाले आर्य, जो मूल रूप से खानाबदोश थे, कबीलाई थे, वे वेदों का निर्माण कर रहे थे. दरअसल, वामपंथी इतिहासकारों ने देश के इतिहास को मजाक बना दिया.
भारत का प्राचीन इतिहास विवादों से घिरा है. इस विवाद की जड़ में इतिहास लेखन प्रणाली है. भारत का इतिहास मूल रूप से भाषाई अध्ययन पर लिखा गया है. भारत जैसे देश में जहां पुरातात्विक अवशेषों और स्थलों का भंडार है, वहां के इतिहास लेखन में पुरातत्व को नज़रअंदाज़ किया जाए, यह उचित नहीं है. दरअसल, यह राजनीति का हिस्सा है. देश की सभी इतिहास लेखन संस्थाओं, विश्‍वविद्यालयों और अनुसंधानिक संस्थाओं पर वामपंथी इतिहासकारों का क़ब्ज़ा है. एक स़िर्फ पुरातत्व विभाग है, जहां वामपंथियों का क़ब्ज़ा नहीं हो सका है. यही वजह है कि भारत के नामी-गिरामी इतिहासकार पुरातात्विक सुबूतों को सुबूत नहीं मानते, अनर्गल दलील देकर उन्हें दरकिनार कर देते हैं. यही वजह है कि प्राचीन भारत का इतिहास आज भी वही है, जो अंग्रेजों द्वारा लिखा गया था. कुछ सतही फेरबदल ज़रूर किए गए हैं, लेकिन उसका चरित्र आज भी मैकॉले द्वारा स्थापित मापदंड पर कायम है. जिसका सार यह है कि भारत में जो कुछ प्राचीन है, वह बुरा है, असभ्य है और शोषक है. यह इतिहास लिखे 150 साल हो गए हैं. इस दौरान विज्ञान का विकास हुआ है, नई खोजें हुई हैं. ऐतिहासिक प्रमाणों के परीक्षण के लिए तकनीक मौजूद है. दुनिया भर में बहु-विषयक दृष्टिकोण के साथ इतिहास लेखन का काम हो रहा है, लेकिन भारत के वामपंथी इतिहासकार भाषाई अध्ययन को ही एकमात्र सत्य मानकर इतिहास का गला घोंट रहे हैं. वे रूढ़िवादी बन गए हैं. जो कोई उनके द्वारा लिखे इतिहास पर सवाल उठाता है, उस पर वे एक गैंग की तरह हमलावर हो जाते हैं.
हक़ीक़त यह है कि देश-विदेश के कई पुरातत्वविदों, भौतिकशास्त्रियों, भूगर्भशास्त्रियों, खगोलशास्त्रियों, वैज्ञानिकों, गणितज्ञों और इतिहासकारों के लिए सिंधु घाटी सभ्यता रुचि का विषय बन चुकी है. भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में अनुसंधान हो रहे हैं, किताबें लिखी जा रही हैं. ऐसा इसलिए, क्योंकि सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई से मिली जानकारियां हैरान करने वाली और अविश्‍वसनीय हैं. -

इतिहास में रुचि रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह आश्‍चर्य का विषय है कि जब ग्रीस, रोम और एथेंस का नामोंनिशान नहीं था, तब यहां के लोग विश्‍वस्तरीय शहर बनाने में कैसे कामयाब हो गए, टाउन-प्लानिंग का ज्ञान कहां से आया और उन्होंने स्वीमिंग पूल बनाने की तकनीक कैसे सीखी? अफ़सोस इस बात का है कि भारत के लोग जब अपने ही इतिहास को पढ़ते हैं, तो उन्हें गर्व की अनुभूति नहीं होती है. इसका कारण यह भी है कि देश के महान इतिहासकारों ने इस ढंग से इतिहास लिखा है कि जो एक बार पढ़ ले, तो उसकी इतिहास से रुचि ही ख़त्म हो जाती है. यह भी एक कारण है कि इतिहास को फिर से लिखा जाना चाहिए. वैसे अब तो और भी नए सुबूत आ गए हैं. सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़े 700 से ज़्यादा पुरातात्विक स्थलों की खोज हो चुकी है. भारत में राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में नई खोज हो चुकी है. इनकी वैज्ञानिक जांच होनी चाहिए और जो भी वैज्ञानिक तथ्य सामने आते हैं, उन्हें इतिहास की किताबों में शामिल करना चाहिए. फिर से इतिहास लिखने की ज़रूरत पड़े, तो लिखना चाहिए. इतिहास लिखते समय यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि नया इतिहास बहु-विषयक दृष्टिकोण लेखन प्रणाली से लिखा गया इतिहास हो. विज्ञान द्वारा प्रमाणित साक्ष्यों पर आधारित हो. प्राचीन इतिहास को मिथकों और धार्मिक मान्यताओं से दूर रखने की ज़रूरत है.
इतिहास कोई आसमानी किताब नहीं है, जिसे बदला न जा सके. नए साक्ष्य, नई खोज और नई तकनीक की वजह से हर व़क्त हमें भूतकाल के बारे में नई जानकारियां मिलती हैं. विज्ञान और तकनीकी विकास की वजह से कई राज से पर्दा हटाया जा सकता है. इन साक्ष्य, तकनीक और सुबूतों के आधार पर इतिहास को बदलना ही सही इतिहास का सृजन करना है. भारत में आज़ादी के बाद से इतिहास लिखने का काम शुरू हुआ. लेखकों ने कॉपी और पेस्ट करके पुरानी बातों को नए अंदाज और नई दलीलों के साथ परोस दिया. किताबों को ऐसे लिखा गया कि यदि कोई एक बार पढ़ ले, तो फिर उसकी इतिहास के बारे में जानने की इच्छा ही ख़त्म हो जाए. इतिहासकारों ने भूतकाल के बारे में बताने से ज़्यादा छिपाने का काम किया. जो बताया, उसमें भी राजनीति और विचारधारा का घालमेल कर दिया. इतिहास घृणा करने की वस्तु नहीं है. वामपंथी इतिहासकारों का दोष यही है कि उन्होंने इतिहास को ही घृणित बना दिया. भारत एक राष्ट्र नहीं, राज्य नहीं और न ही किसी ऐसे-वैसे भूखंड का नाम है. यह दुनिया की सबसे पुरातन सभ्यता है. यहां हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध और न जाने कितने धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं. इतिहास ऐसा होना चाहिए, जिससे हर भारतवासी को गर्व हो, जिससे आपस में भाईचारा और एकता का संचार हो और जो हमारा हौसला बुलंद कर सके कि हम मानव विकास के मानदंडों पर दुनिया में अग्रणी रहे हैं. एक ऐसा इतिहास लिखा जाना चाहिए, जो मिथकों या धार्मिक कथा-कहानियों पर नहीं, बल्कि सत्य और सुबूतों पर आधारित हो. भारत में इतिहास को फिर से लिखने की ज़रूरत है. इतिहासकारों को नए साक्ष्य, सुबूतों, विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल इतिहास लेखन में करना चाहिए. मनगढ़ंत बातों के लिए इतिहास में कोई जगह नहीं होनी चाहिए. -
Source ::
http://www.chauthiduniya.com/2014/08/itihaas-fir-se-kyoun-likha-jana-chahiye.html

आर्यन इन्वेजन थ्योरी का सच
यह बहुत कम लोग जानते हैं कि आर्यन इन्वेजन थ्योरी (आर्य आक्रमण सिद्धांत) की उत्पत्ति की जड़ में ईसाई-यहूदी वैचारिक लड़ाई है. आर्यन इन्वेजन थ्योरी की उत्पत्ति 18वीं शताब्दी में यूरोप, ख़ासकर जर्मनी में हुई. उस वक्त के इतिहासकारों एवं दार्शनिकों ने यूरोपीय सभ्यता को जुडाइज्म (यहूदी) से मुक्त करने के लिए यह थ्योरी प्रचारित की. कांट एवं हरडर जैसे दार्शनिकों ने भारत और चीन के मिथकों तथा दर्शन को यूरोपीय सभ्यता से जोड़ने की कोशिश की. वे नहीं चाहते थे कि यूरोपीय सभ्यता को जुडाइज्म से जोड़कर देखा जाए. इसलिए उन्होंने यह दलील दी कि यूरोप में जो लोग हैं, वे यहूदी नहीं, बल्कि चीन और भारत से आए हैं. उनका नाम उन्होंने आर्य रखा. समझने वाली बात यह है कि चीन और भारत के सभी लोग आर्य नहीं थे. उनके मुताबिक़, एशिया के पहाड़ों में रहने वाले सफेद चमड़ी वाले कबीलाई लोग आर्य थे, जो यूरोप में आकर बसे और ईसाई धर्म अपनाया. यूरोप में आर्य को एक अलग रेस माना जाने लगा. यह एक सर्वमान्य थ्योरी मानी जाने लगी. आर्यन इन्वेजन थ्योरी की उत्पत्ति मूल रूप से यूरोप के लिए की गई थी. जब अंग्रेजों ने भारत का इतिहास समझना शुरू किया, तो आश्‍चर्य की बात यह है कि उन्होंने इस थ्योरी को भारत पर भी लागू कर दिया. 1866 से आर्यन इन्वेजन थ्योरी ऑफ इंडिया को भारत के इतिहास का हिस्सा बना दिया गया. बताया गया कि भारत के श्‍वेत रंग के, उच्च जाति के शासक वर्ग और यूरोपीय उपनिवेशक एक ही प्रजाति के हैं. यह थ्योरी अंग्रेजों के काम भी आई. अंग्रेज बाहरी नहीं है और उनका भारत पर शासन करना उतना ही अधिकृत है, जितना यहां के राजाओं का. अंग्रेजों को भारत में शासन करने के लिए इन हथकंडों की ज़रूरत थी. लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि आज़ादी के बाद भी वामपंथी इतिहासकारों ने इस थ्योरी को जड़-मूल से ख़त्म क्यों नहीं किया? जबकि हमें यह पता है कि इस मनगढ़ंत थ्योरी की वजह से हिटलर जैसे तानाशाह पैदा हुए. वह भी तब, जब यूरोप में विज्ञान के विकास के साथ-साथ रेस थ्योरी को अविश्‍वसनीय और ग़ैर-वैज्ञानिक घोषित कर दिया गया. पिछले 70 सालों से आर्यन रेस पर कई अनुसंधान हुए. अलग-अलग देशों ने इसमें हिस्सा लिया है, अलग-अलग क्षेत्र के वैज्ञानिकों ने अपना योगदान दिया है. सबने एक स्वर में आर्यन के एक रेस होने की बात को मिथक और झूठा करार दिया है. ये स़िर्फ वामपंथी इतिहासकार हैं, जो अभी तक इस रेस थ्योरी को पकड़ कर बैठे हैं. 10 दिसंबर, 2011 को एक ख़बर आई कि सेलुलर मोलिकुलर बायोलॉजी के वैज्ञानिकों ने कई महाद्वीपों के लोगों पर एक रिसर्च किया. इस रिसर्च में कई देशों के वैज्ञानिक शामिल थे. यह रिसर्च 3 सालों तक किया गया और लोगों के डीएनए की सैंपलिंग पर किया गया. इस रिसर्च से पता चला कि भारत में रहने वाले चाहे वे दक्षिण भारत के हों या उत्तर भारत के, उनके डीएनए की संरचना एक जैसी है. इसमें बाहर से आई किसी दूसरी प्रजाति या रेस का कोई मिश्रण नहीं है और यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि पिछले 60 हज़ार सालों से भारत में कोई भी बाहरी जीन नहीं है. इस रिसर्च की रिपोर्ट में कहा गया है कि डीएनए सैंपलिंग के जरिये यह बिना किसी शक के दावा किया जा सकता है कि आर्यों के आक्रमण की कहानी एक मिथक है. इस रिसर्च की रिपोर्ट को अमेरिकन जनरल ऑफ ह्यूमन जेनेटिक्स में 9 दिसंबर, 2011 को प्रकाशित किया गया. यह एक प्रामाणिक रिसर्च है. इसमें विज्ञान की सबसे उच्च कोटि की तकनीकों का इस्तेमाल हुआ है. कई देशों के वैज्ञानिक इसमें शामिल थे. यह रिपोर्ट आए तीन साल होने वाले हैं. देश के इतिहासकार क्यों चुप हैं? हक़ीक़त यह है कि भारत का इतिहास राजनीति से ग्रसित है. इतिहास की किताबों ने सच बताने से ज़्यादा सच को छिपाने का काम किया है.
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आधुनिक इतिहास का कांग्रेसीकरण
आधुनिक भारत का इतिहास सन् 1857 की क्रांति से लेकर 1947 तक माना जाता है. प्राचीन इतिहास जहां भारत की पहचान के लिए ज़रूरी है, उसी तरह आधुनिक इतिहास भारत की एकता, अखंडता और प्रजातंत्र को सींचने के लिए महत्वपूर्ण है. अफ़सोस इस बात का है कि आधिकारिक इतिहासकारों ने इसमें वामपंथ और कांग्रेसी विचारधारा का ऐसा घालमेल किया कि कई लोग मुख्य धारा से अलग-थलग हो गए. आधुनिक भारत का पूरा इतिहास गांधी, नेहरू, कांग्रेस और वामपंथी संगठनों तक सीमित कर दिया गया. सेकुलरिज्म और कम्युनलिज्म के चश्मे से लिखा गया वामपंथी इतिहास पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है. इंस्टीट्यूट ऑफ आब्जेक्टिव स्टडीज ने एक किताब प्रकाशित की, जिसमें आज़ादी की लड़ाई में शामिल कई मुस्लिम नेताओं और क्रांतिकारियों के बारे में जानकारी दी गई. ये वे नाम हैं, जिनका मुख्य धारा के इतिहास में न तो कोई जिक्र है और न ही उनके योगदान की चर्चा है. मुस्लिम लीग में शामिल मुस्लिम नेताओं को आधुनिक भारत के इतिहास से निकाल कर बाहर फेंक दिया गया. इतना ही नहीं, मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक के योगदान को भी भुला दिया गया, जबकि वे कांग्रेस के नेता भी रहे. दरअसल, वामपंथी लेखन प्रणाली ने आधुनिक भारत का इतिहास सेकुलर-कम्युनल चश्मे से लिखा. इसमें मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को कम्युनल संगठन बताकर उनके योगदान को जड़ से उखाड़ कर फेंक दिया गया. जबकि हक़ीक़त यह है कि मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा काफी समय तक कांग्रेस का हिस्सा रही. कांग्रेस उस वक्त कोई संगठन नहीं, बल्कि एक आंदोलन था, जिसमें कई संगठन शामिल थे. मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के ज़मीनी कार्यकर्ता और स्थानीय नेता आज़ादी के आंदोलन में किसी से पीछे नहीं थे. वैसे भी सेकुलरिज्म और कम्युनलिज्म के चश्मे से लिखा गया वर्तमान इतिहास न स़िर्फ अधूरा है, बल्कि विरोधाभासों से भरा पड़ा है. इसके अलावा इन किताबों को पढ़कर लगता है कि पूरे के पूरे नॉर्थ-ईस्ट की स्वतंत्रता संग्राम में कोई हिस्सेदारी ही नहीं थी. नॉर्थ-ईस्ट के वे कौन लोग थे, जिन्होंने आज़ादी के लिए जानें दीं, आंदोलन किया और अंग्रेजों के डंडे खाए, यह वर्तमान इतिहास में नहीं है. कांग्रेस सरकारों द्वारा चयनित वामपंथी इतिहासकारों ने इतिहास को राजनीति का अखाड़ा बना दिया. उन्होंने इतिहास के नाम पर कुछ झूठ कहा, कुछ सच छिपाए और कई मनगढ़ंत कहानियां गढ़ दीं.
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वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ 
यह देश का दुर्भाग्य होगा कि पुनर्लेखन के नाम पर मिथकों और इतिहास का घालमेल कर दिया जाए. आज के युवाओं को यह स्वीकार नहीं होगा कि हमारी किताबों में यह लिखा हो कि स्टेम सेल तकनीक का विकास महाभारत काल में हुआ था और मोटरकार का आविष्कार वैदिक काल में ही हो गया था. 21वीं सदी के भारत को ऐसे इतिहास की ज़रूरत नहीं है, जिसमें यह लिखा जाए कि भारत में महाभारत काल में इस तकनीक का उपयोग होता था. कुंती का बेटा सूर्य के समान तेजस्वी था. गांधारी जब दो साल तक गर्भधारण नहीं कर पा रही थीं, तो उन्होंने गर्भपात कराया. उस दौरान उनके गर्भाशय से बड़ी मात्रा में मांस निकला. ऋषि द्वैपायन व्यास ने उस मांस में औषधियां मिलाकर उसे एक ठंडे टैंक में रख दिया. बाद में उन्होंने उसके 100 टुकड़े किए और हर टुकड़े को घी से भरे 100 अलग-अलग टैंकों में दो साल तक रखा. दो साल के बाद उसी से 100 कौरवों का जन्म हुआ. ऐसी कहानियां कथावाचकों के लिए तो ठीक हैं, लेकिन इतिहास की किताबों में इनकी कोई जगह नहीं है. भारत का प्राचीन इतिहास वैसे ही गौरवशाली है. जो सुबूत उपलब्ध हैं, वही हमें दुनिया की सबसे पुरातन और अग्रणी सभ्यता साबित करने के लिए काफी हैं. इसके लिए यह ज़रूरी नहीं है कि इतिहास की किताबों में यह लिखा जाए कि वैदिक काल में भी मोटरकारें थीं, जिन्हें अनश्‍व रथ कहा जाता था. सामान्य तौर पर रथ को घोड़े खींचते हैं, लेकिन अनश्‍व रथ बगैर घोड़ों के दौड़ता था. इसे यंत्र रथ भी कहा जाता था और यही आज की मोटरकार है. या फिर हम पुष्पक विमान के बारे में यह बताएं कि उस जमाने में ही भारत में हवाई जहाज का आविष्कार हो चुका था.
भारत का इतिहास वैसे ही गौरवशाली है. भारत का प्राचीन काल हर दृष्टि से दुनिया में अग्रणी रहा है. ज़रूरत इस बात की है कि इतिहास को प्रामाणिक सुबूतों के साथ लिखा जाए, ताकि उस पर कोई उंगली न उठा सके. अगर संघ और उससे जुड़े कुछ लोग पिछली बार की तरह इतिहास के नाम पर मिथ्या को सच बताने लगेंगे, तो ऐसे इतिहास की वजह से भारत पूरे विश्‍व में उपहास का पात्र बन जाएगा.
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American Dollar v/s Indian Rupee

Real story  American Dollar v/s Indian Rupee 
(Very Interesting Article MUST SHARE)
An Advice to all who are worrying about fall of Indian Rupee

Throughout the country please stop using cars except for emergency for only seven days (Just 7 days)
Definitely Dollar rate will come down. This is true. The value to dollar is given by petrol only.This is called Derivative Trading. America has stopped valuing its Dollar with Gold 70 years ago.

Americans understood that Petrol is equally valuable as Gold so they made Agreement with all the Middle East countries to sell petrol in Dollars only. That is why Americans print their Dollar as legal tender for debts. This mean if you don't like their American Dollar and go to their Governor and ask for repayment in form of Gold,as in India they won't give you Gold.

You observe Indian Rupee, " I promise to pay the bearer..." is clearly printed along with the signature of Reserve Bank Governor. This mean, if you don't like Indian Rupee and ask for repayment,Reserve Bank of India will pay you back an equal value of gold.(Actually there may be minor differences in the Transaction dealing rules, but for easy comprehension I am explaining this)

Let us see an example. Indian petroleum minister goes to Middle East country to purchase petrol, the Middle East petrol bunk people will say that liter petrol is one Dollar.
But Indians won't have dollars. They have Indian Rupees. So what to do now? So That Indian Minister will ask America to give Dollars. American Federal Reserve will take a white paper , print Dollars on it and give it to the Indian Minister. Like this we get dollars , pay it to petrol bunks and buy petrol.

But there is a fraud here. If you change your mind and want to give back the Dollars to America we can't demand them to pay Gold in return for the Dollars. They will say " Have we promised to return something back to you? Haven't you checked the Dollar ? We clearly printed on the Dollar that it is Debt"
So, Americans don't need any Gold with them to print Dollars. They will print Dollars on white papers as they like.

But what will Americans give to the Middle East countries for selling petrol in Dollars only?

Middle East kings pay rent to America for protecting their kings and heirs. Similarly they are still paying back the Debt to America for constructing Roads and Buildings in their countries. This is the value of American Dollar. That is why Many say some day the Dollar will be destroyed.

At present the problem of India is the result of buying those American Dollars. American white papers are equal to Indian Gold. So if we reduce the consumption of petrol and cars, Dollar will come down

The Above Details are translated originally from Telugu Language to English by Radhika Gr.
Kindly share this and make everyone aware of the facts of American Dollar V/s Indian Rupee.

And here is a small thing other than petrol , what we can do to our Indian Rupee

YOU CAN MAKE A HUGE DIFFERENCE TO THE INDIAN ECONOMY BY FOLLOWING FEW SIMPLE STEPS:-

Please spare a couple of minutes here for the sake of India.
Here's a small example:-

At 2008 August month 1 US $ = INR Rs 39.40
At 2013 August now 1 $ = INR Rs 62

Do you think US Economy is booming? No, but Indian Economy is Going Down.

Our economy is in your hands.INDIAN economy is in a crisis. Our country like many other ASIAN countries, is undergoing a severe economic crunch. Many INDIAN industries are closing down. The INDIAN economy is in a crisis and if we do not take proper steps to control those, we will be in a critical situation. More than 30,000 crore rupees of foreign exchange are being siphoned out of our country on products such as cosmetics, snacks, tea, beverages, etc. which are grown, produced and consumed here.

A cold drink that costs only 70 / 80 paise to produce, is sold for Rs.9 and a major chunk of profits from these are sent abroad. This is a serious drain on INDIAN economy. We have nothing against Multinational companies, but to protect our own interest we request everybody to use INDIAN products only at least for the next two years. With the rise in petrol prices, if we do not do this, the Rupee will devalue further and we will end up paying much more for the same products in the near future.

What you can do about it?
Buy only products manufactured by WHOLLY INDIAN COMPANIES.Each individual should become a leader for this awareness. This is the only way to save our country from severe economic crisis. You don't need to give-up your lifestyle. You just need to choose an alternate product.

Daily products which are COLD DRINKS,BATHING SOAP ,TOOTH PASTE,TOOTH BRUSH ,SHAVING CREAM,BLADE, TALCUM POWDER ,MILK POWDER ,SHAMPOO , Food Items etc. all you need to do is buy Indian Goods and Make sure Indian rupee is not crossing outside India.

Every INDIAN product you buy makes a big difference. It saves INDIA. Let us take a firm decision today.

we are not anti-multinational. we are trying to save our nation. every day is a struggle for a real freedom. we achieved our independence after losing many lives.
they died painfully to ensure that we live peacefully. the current trend is very threatening.

multinationals call it globalization of indian economy. for indians like you and me, it is re-colonization of india. the colonist's left india then. but this time, they will make sure they don't make any mistakes.

russia, s.korea, mexico - the list is very long!! let us learn from their experience and from our history. let us do the duty of every true indian. finally, it's obvious that you can't give up all of the items mentioned above. so give up at least one item for the sake of our country!

We would be sending useless forwards to our friends daily. Instead, please forward this to all your friends to create awareness. — with franklin and gandhi.

बुधवार, जुलाई 23, 2014

भारत के चंदे का भारत के खिलाफ दुरूपयोग

अपने शहर बैंगलूर में कुछ साल पहले फिलिस्तीनी छात्र पढने आते थे, यह सिलसिला आज भी जारी है कि कई अरब देशों के स्टूडेंट्स हमारे शहर की कॉलेजों में पढ़ रहे हैं. अपने ही मोहल्ले फ्रेज़र टाउन में कई फिलिस्तीनी छात्र हमारे पड़ोसी रह चुके हैं, साथ में फुटबॉल और वॉलीबॉल खेला करते थे. एक बात है कि हम बहुत ही कट्टर धार्मिक परिवार में पैदा हुए जिसकी वजह से बचपन से ही हमारे दिलों में अरब और अरब की क़ौम पवित्र माने जाते थे.
तभी कुछ फिलिस्तीनी दोस्तों से पूछा कि आप क्या करते हो, आपके पिता क्या करते हैं, आपके वहां कौनसा व्यापार अच्छा है आदि. यह बहुत देर से पता चला कि फ़िलिस्तीन में कोई कुछ भी काम नहीं करता सब बाकी अरब देशों से चंदा, दान लेकर ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं. और यह भी पता चला कि भारत सरकार और कुछ अरब सरकारें मिलकर उनकी पढ़ाई का खर्च पूरा करते हैं.
अखबारों में पढ़ने को मिला है कि भारत सरकार ने फिलिस्तीनियों को कई बार बड़ी बड़ी मदद की थी.
आज मेरी समझ में आया कि फ़िलिस्तीनों को कई देशों से पैसा मिलता है जब जब इसराइल उनपर हमला करता है. दान से आने वाला पैसा ही फिलिस्तीनियों का जीवन है और जब पैसा खत्म होगया तो एक ईंट इसराइल पर फेंक कर सारी दुनिया को संकेत देंगे कि पैसा खत्म हो गया अब इसराइल चाहिए कि हमपर हमला करे.
اپنے شہر بنگلور میں کچھ سال قبل فلسطینی طلباء تعلیم حاصل کرنے آیا کرتے تھے، یہ سلسلہ آج بھی جاری ہے کہ کئی عرب ملکوں کے اسٹوڈینٹس ہمارے شہر کی کالجوں میں پڑھ رہے ہیں ۔ اپنے ہی محلے فریزر ٹاون میں کئی فلسطینی طلباء ہمارے پڑوسی رہ چکے ہیں، ساتھ میں فٹ بال اور والی بال بھی کھیلتے تھے ۔ ایک بات ہے کہ ہم بہت ہی کٹر مذہب گھرانے میں پیدا ہوئے جس کی وجہ سے بچپن سے ہی ہمارے دلوں میں عرب اور عربی لوگ مقدس مانے جاتے تھے ۔
تبھی کچھ فلسطینی دوستوں سے پوچھا کہ آپ کیا کرتے ہو، آپ کے والد کیا کرتے ہیں، آپ کے وہاں کونسا کاروبار اچھا ہے وغیرہ ۔ یہ بات بہت دیر سے پتہ چلی کہ وہاں فلسطین میں کوئی کچھ بھی کام نہیں کرتا سب کے سب باقی عرب ملکوں سے چندہ عطیہ جات پر جی رہے ہیں ۔ اور یہ بھی پتہ چلا کہ بھارتی سرکار اور کچھ عرب سرکاریں ملکر ان کی پڑھائی کا خرچ پورا کرتے ہیں ۔
اخباروں میں پڑھنے کو آیا ہے کہ بھارت سرکار نے بھی فلسطینیوں کو کئی بار بڑی بڑی مدد کی تھی ۔
آج میری سمجھ میں آیا کہ فلسطین کو کئی ملکوں سے پیسہ ملتا ہے جب جب اسرائیل ان پر حملہ کرتا ہے ۔ عطیہ سے آنے والا پیسہ ہی فلسطینیوں کی زندگی ہے اور جب پیسہ ختم ہوگیا تو پھر سے ایک اینٹ اسرائیل پر پھینک کر ساری دنیا کو اشارہ دیں گے کہ پیسہ ختم ہوگیا اب اسرائیل کو ہم پر تھوپو ۔