बुधवार, अगस्त 17, 2011

वर्तमान में विज्ञान शब्द सुनते ही सबकी गर्दन पश्चिम की ओर मुड़ जाती है?

वर्तमान में विज्ञान शब्द सुनते ही सबकी गर्दन पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। ऐसा लगता है कि

Rameshwar Arya द्वारा
वर्तमान में विज्ञान शब्द सुनते ही सबकी गर्दन पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। ऐसा लगता है कि


 
विज्ञान का आधार ही पश्चिम की देन हो तथा भविष्य भी उनके वैज्ञानिकों के ऊपर टिका हो! पर न्तु क्या हमने यह जानने का प्रयास किया है कि ऐसा क्यों है? या हमारी मनोदशा ऐसी क्यों है कि जब भी विज्ञान या अन्वेषण की बात आयी है तो हम बरबस ही पश्चिम का नाम ले लेते हैं।इसका सबसे बड़ा कारण जो हमें नजर आता है वह यह है कि, ‘अपने देश व संस्कृति के प्रति हमारी अज्ञानता व उदासीनता काभाव। या यूं कहें कि सैकड़ो वर्षों की पराधीनता नें हमारे शरीर के साथ-साथ हमारे मन को भी प्रभावित किया जिसका परिणाम यह हुआ कि हम शारीरिक रुप से तो स्वतंत्र हैं किन्तु अज्ञानतावश मानसिक रुप से आज भी परतंत्र हैं। थोड़ा विचार करने परयह पता चलता है कि हीनता की यह भावना यूँ ही नही उत्पन्न हुई ! बल्कि इसके पीछे एक समुचित प्रयास दृष्टिगत होता है, जोहमारे वर्तमान पाठयक्रम के रुप में उपस्थित है। प्राइमरी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सभी पाठयक्रमों में वर्णित विषय पूरीतरह से पश्चिम की देन लगते हैं, जो हमारी मानसिकता को बदलने का पूरा कार्य करते हैं। आजादी के बाद से आज तक इसी पाठ्क्रम को पढ़ते-पढ़ते इतनी पीढ़ीयाँ बीत चुकीं हैं कि अगर सामान्य तौर पर देश के वैभव की बात किसी भारतीय से की जायतो वह कहेगा कि कैसा वैभव? किसका वैभव? हम तो पश्चिम को आधार मानकर अपना विकास कर रहे हैं। हमारे पास क्या है? ऐसी बात नही कि यह मनोदशा केवल सामान्य भारतीय की हो बल्कि देश का तथाकथित विद्वान व बुध्दिजीवी वर्ग भी यहीसोचता है। इसका मूल कारण है कि आजादी के बाद भी अंग्रजों के द्वारा तैयार पाठ्क्रम का अनवरत् जारी रहना, अपने देश के गौरवमयी इतिहास को तिरस्कृत का पश्चिमी सोच को विकसित करना। और उससे भी बड़ा कारण रहा हमारी अपनी संस्कृति, वैभव, विज्ञान, अन्वेषण,व्यापार आदि के प्रति अज्ञानता। भारतीय चिकित्सा विज्ञान को ’आयुर्वेद’ नाम से जाना जाता है। और यह केवल दवाओं और थिरैपी का ही नही अपितु सम्पूर्ण जीवन पद्धति का वर्णन करता है। आयुर्वेद को श्रीलंका, थाइलैण्ड, मंगोलिया और तिब्बत में राष्ट्रीय चिकित्सा शास्त्र के रुप में मान्यता प्राप्त है। चरक संहिता व सुश्रुत संहिता का अरबी में अनुवाद वहाँ के लोगों नें 7वीं शताब्दी में ही कर डाला था। यूरोपीय डॉ. राइल नें लिखा है- ’हिप्पोक्रेटीज (जो पश्चिमी चिकित्सा का जनक माना जाता है) नें अपनें प्रयोगों में सभी मूल तत्वों के लिए भारतीय चिकित्सा का अनुसरण किया।’ डॉ. ए. एल. वॉशम नें लिखा है कि ’अरस्तु भी भारतीय चिकित्सा का कायल था।’ सर्वप्रथम परमाणु वैज्ञानी कहीं और नहीबल्कि इस भारतभूमि में पैदा हुए, जिनमें प्रमुख हैं:- महर्षि कणाद, ऋषि गौतम, भृगु, अत्रि, गर्ग, वशिष्ट, अगत्स्य, भारद्वाज, शौनक, शुक्र, नारद,कष्यप, नंदीष, घुंडीनाथ, परशुराम, दीर्घतमस, द्रोण आदि ऐसे प्रमुख नाम हैं जिन्होनें विमान विद्या (विमानविद्या), नक्षत्र विज्ञान (खगोलशास्त्र), रसायन विज्ञान (कमेस्ट्री), जहाज निर्माण (जलयान),अस्त्र-शस्त्र विज्ञान, परमाणु विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, प्राणि विज्ञान, लिपि शास्त्र इत्यादि क्षेत्रों में अनुसंधान किये और जो प्रमाण प्रस्तुत किये वह वर्तमान विज्ञानसे उच्चकोटि के थे। जो मानव समाज के उत्थान के मार्ग को प्रशस्त करनें वाले हैं न कि आज के विज्ञान की तरह, जो निरन्तरही मानव सभ्यता के पतन का बीज बो रहा है। अगस्त ऋषि की संहिता के आधार पर कुछ विद्वानों नें उनके द्वारा लिखेगये सूत्रों की विवेचना प्रारम्भ की। उनके सूत्र में वर्णित सामग्री को इकट्ठा करके प्रयोग के माध्यम से देखा गया तो यह वर्णनइलेक्ट्रिक सेल का निकला। यही नही इसके आगे के सूत्र में लिखा है कि सौ कुंभो की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेगें तो पानीअपने रुप को बदलकर प्राणवायु (ऑक्सीजन) तथा उदानवायु (हाईड्रोजन) में परिवर्तित हो जायेगा। उदानवायु को वायु-प्रतिबन्धक यन्त्र से रोका जाय तो वह विमान विद्या में काम आता है। प्रसिध्द भारतीय वैज्ञानिक राव साहब वझे जिन्होनेभारतीय वैज्ञानिक ग्रन्थों और प्रयोगों को ढूढ़नें में जीवन लगाया उन्होने अगत्स्य संहिता एवं अन्य ग्रन्थों के आधार पर विद्युतके भिन्न-भिन्न प्रकारों का वर्णन किया। अगत्स्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग के लिए करने का भी विवरणमिलता है।

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