शुक्रवार, सितंबर 12, 2014

मुहम्मद की दौलत का भंडाफोड़ !

Via BhanDafodu
मुहम्मद की दौलत का भंडाफोड़ !
आज हमें मुहम्मद साहब के चरित्र से शिक्षा लेने की जरुरत है . ऐसा इसलिए नहीं कि वह अल्लाह के सच्चे अनुयायी और सबसे प्यारे अंतिम रसूल थे . बल्कि इसलिए नहीं कि वह जोभी गलत काम करते थे उसे जायज बताने के लिए अल्लाह की तरफ से कोई न कोई आयत कुरान में जोड़ देते थे . यानि अपने सभी गलत कामों में अल्लाह को शामिल कर लेते थे . यद्यपि मुस्लिम विद्वान् दावा करते हैं कि मुहम्मद साहब एक सच्चे सीधे और सदा व्यक्ति थे ,और उनको धन संपत्ति से कोई मोह नहीं था . और न उन्होंने जीवन भर में किसी प्रकार की दौलत और जमीन अपने पास रखी थी . लेकिन हदीसों और इस्लाम की इतिहास की किताबों से सिद्ध होता है कि मुहम्मद साहब दुनिया में एकमात्र ऐसे नबी थे इस्लाम की जगह अपनी दौलत पर अधिक प्यार था . उनको इस्लाम की नहीं दौलत की चिंता बनी रहती थी , जो इस हदीस से सिद्ध होता है ,
1-महालोभी और लालची रसूल
मुहम्मद साहब को धन संपत्ति का कितना मोह और लालच था , इसे साबित करने के लिए यह एक ही हदीस काफी है ,
“उकबा बिन आमिर ने कहा कि रसूल कहते थे कि मुझे इस बात की कोई चिंता नहीं है कि मेरी मौत के बाद तुम इस्लाम त्याग कर फिर से मुशरिक हो जाओ , लेकिन मुझे तो इस बात की सबसे बड़ी चिंता लगी रहती है , कि कहीं मेरी संपत्ति दूसरों हाथों में न चली जाये “
बुखारी-जिल्द 2 किताब 2 हदीस 428
2-बद्र की लूट
मुहम्मद के साथी पहले भी काफिले लूटते थे , और मुहम्मद की कई औरतें भी थी ,जिनका खर्चा चलाना कठिन हो रहा था ,इसलिए मुहम्मद जब अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना में रहने लगे , तो लूटमार करने लगे . इसका नाम उन्होंने “गजवा ” रख दिया था जिसका अरबी बहुवचन ” गजवात ” होता है .जिसका वास्तविक अर्थ “युद्ध (Battle ) नहीं बल्कि “छापा raids ” या लूट (plundering) होता है .मुहम्मद ने अपने जीवन में ऐसे कई गजवे (छापे ) किये , और लूट का माल घर में भर लिया था .चूँकि मदीना से कुछ दूर ही मुख्य व्यापारिक मार्ग था , जो लाल समुद्र (Red Sea ) के किनारे यमन से सीरिया तक जाता था . और इसी मार्ग से काफिले अपना कीमती सामान लाते -लेजाते थे .मुहम्मद की जीवनी लिखने वाले प्रसिद्ध मुस्लिम इतिहासकार इब्ने इसहाक ( Ibn Ishaq/Hisham 428) पर लिखा है .कि अबूसुफ़यान ने रसूल को एक गुप्त सूचना दी , कि मदीना से करीब 80 मील दूर मुख्य मार्ग से काफिला गुजरने वाला है .जिसमे पचास हजार सोने की दीनार , और चांदी के दिरहम के साथ काफी कीमती सामान है .अबूसुफ़यान ने यह भी बताया कि उस काफिले में केवल तीस या चालीस लोग ही हैं .यह खबर मिलते ही रसूल ने अपने लोगों को आदेश दिया कि जल्दी जाओ और उस काफिले पर धावा बोल दो . और काफिले का जितना भी माल है सब लूट लो .मुहम्मद के आदेश से मुसलमानों ने मदीना से करीब 80 मील दूर “बद्र ” नामकी जगह पर 13 मार्च शनिवार सन 624 तदानुसार 17 रमजान हिजरी सन 2 को उस काफिले पर धावा बोल दिया .मुसलमान इस लूट को” बद्र का युद्ध Battle of Badr “या अरबी में “गजवा बद्र غزوة بدر “कहते हैं .इस लूट का कमांडर अबूसुफ़यान था . जिसके साथी अबूबकर ,उमर .अली ,हमजा ,मुसअब इब्न उमर ,जुबैर अल अब्बास , अम्मार इब्न यासिर और अबूजर अल गिफारी थे . यह लोग 70 ऊंट और दो घोड़े भी लाये थे .इनमे जादातर लोग मुहम्मद के रिश्तेदार थे . और सबने मिलकर काफिले की संपत्ति लुट ली . क्योंकि काफिले वाले कम थे .और मुहम्मद ने अल्लाह का डर दिखा कर वह सारा माल घर में भर लिया .जिसका नाम मुहम्मद ने “अनफाल ” रख दिया .
3-कुरान में अनफाल
क्योंकि बद्र की इस लूट में मुहम्मद के कई रिश्तेदार शामिल थे , इसलिए वह भी अपना हिस्सा मांगने लगे . तब उनका मुंह बंद करने के लिए मुहम्मद ने आयत बना दी ,
” हे नबी जो लोग तुम से अनफाल के धन के बारे में सवाल ( आपत्ति ) करते हैं ,तो उनसे कह दो कि इस अनफाल के धन पर केवल रसूल का ही अधिकार है “
सूरा -अनफाल 8:1 ( अनफाल का अर्थ”Accession ” होता है .यह ऐसी संपत्ति को कहते हैं ,जो दूसरों से छीन कर प्राप्त की गयी हो )
यह बात इन हदीसों से प्रमाणित होती है , कि मुहम्मद ने अकेले ही लूट का माल हथिया लिया था ,
“सईद बिन जुबैर ने इब्न अब्बास से पूछा कि कुरान की सूरा ” अनफाल ( सूरा 8) किस लिए उतरी थी . तो वह बोले यह सूरा बद्र में लुटे गए माल को रसूल के लिए वैध ठहराने के लिए उतरी थी “बुखारी -जिल्द 6 किताब 60 हदीस 404
बुखारी -जिल्द 6 किताब 60 हदीस 168
4-लूट का माल रसूल के घर में
मुहम्मद ने पहले तो बद्र के लूट की दौलत अपने लिए वैध ठहरा दी और अपने परिवार में बाँट दी , जैसा इन हदीसों में कहा है ,
“अली ने कहा ,कि बद्र की लुट में मुझे जो दौलत और सोना मिला , उस से मैंने उसी दिन एक ऊंटनी खरीद ली . मैं फातिमा से शादी करना चाहता था .इस लिए मैंने लूट के सोने से ” बनू कैनूना ” के सुनार (Goldsmith ) से फातिमा के लिए जेवर बनवा लिए . और कुछ सोना सुनारों को बेच कर अपनी और फातिमा की शादी और दावत पर खर्च कर दिया .और अपने और फातिमा के लिए दो ऊंटनियाँ काठी (Saddles ) सहित खरीद लीं
.बुखारी -जिल्द 5 किताब59 हदीस 340
5-खैबर पर हमला
एकबार जब मुहम्मद को लूट से काफी दौलत मिल गयी तो लूट से दौलत कमाने का चस्का लग गया , और धन के साथ जमीन पर भी कब्ज़ा करने लगे ,मुहम्मद में ऐसा एक और हमला खैबर पर किया था .खैबर में फदक का बगीचा यहूदियों के पास था , जो कई पीढ़ियों से वहां के खजूर बेच कर ,पैसा कमा रहे थे , और दुसरे धंधे कर रहे थे . जब मुहम्मद को पता चला कि फदक के खजूरों को बेचकर यहूदी धनवान हो रहे हैं ,तो मुहम्मद ने 7 मई सन 629 को करीब 1500 जिहादी और 200 घुड़सवारों की फ़ौज बना कर खैबर पर हमला कर दिया .और यहूदियों को मार भगा दिया . और फदक के बागों पर कब्ज़ा कर लिया .यह घटना इब्न इसहाक ने मुहम्मद की जीवनी ” सीरत रसूलल्लाह ” में विस्तार में लिखी है .अरब के उत्तरी भाग में खैबर नामकी जगह में एक “नखलिस्तान (Oasis ) था . जहाँ पानी की प्रचुरता होने से खजूरों के बड़े बड़े बाग़ थे . इनका नाम “फदक فدك” था . यह बाग़ मदीना से करीब 30 मील दूर था .फदक के खजूर अच्छे होते थे और इनसे काफी आमदानी होती थी .खैबर की लूट में मुहमद ने यहूदियों से फदक के बाग़ के साथ 2000 कीमती यमनी कपड़ों की गाठें (Bales ) और 5000 कपड़ों के थान लूट लिये थे ,यहूदी यह सामान सीरिया भेजने वाले थे . इसके अलावा मुहम्मद ने फदक पास दो बाग़ ” अल शिक्क الشِّق” और “अल कतीबाالكتيبة ” पर भी कब्जा कर लिया था .और सबको अपनी संपत्ति घोषित कर दिया था .जब तक मुहम्मद जीवित रहे फदक बाग़ उनकी संपत्ति माने गए . उन्हीं की उपज से मुहम्मद अपने इतने बड़े परिवार का खर्चा चलाते रहे . खलीफा उमर इन बागों की कीमत पचास लाख दीनार आंकी थी .और जब फातिमा और अली अपने पुत्रों हसन और हुसैन के लिए अबू बकर से फदक के बागों से अपना हिस्सा मागने गयी थी , तो अबू बकर ने इंकार कर दिया था .शिया -सुन्नी विवाद का यह भी एक कारण है .
6-लुटेरे के घर डाका
मुहम्मद ने जिस दौलत और जमीन के लिए हजारों निर्दोष लोगों इस लिए को मार दिया था .कि इस दौलत से मेरे परिवार के लोग पीढ़ियों तक मजे से ऐश करते रहेंगे , लेकिन मुहम्मद को पता नहीं था कि उसकी मौत के बाद लूट की सम्पति उसका सगा ससुर एक डाकू की तरह हथिया लेगा ,और मुहम्मद की औरतों , और लड़की दामाद को अबू बकर ने एक फूटी कौड़ी नहीं दी थी ,जो इन हदीसों से पता चलता है ,
“आयशा ने कहा कि रसूल की मौत के बाद उनकी दूसरी पत्नियाँ रसूल की सम्पति में हिस्सा चाहती थी . इसके लिए उन्होंने उस्मान बिन अफ्फान को मेरे पिता अबू बकर के पास भेजा . तो मेरे पिता ने कहा ” रसूल का कोई वारिस नहीं होता ” मैंने तो रसूल की दौलत ग़रीबों में खैरात कर दी है “
सही मुस्लिम -किताब 19 हदीस 4351
अबू बकर ने कहा कि एकमात्र मैं ही रसूल की संपत्ति का संरक्षक हूँ . और जब अली और अब्बास अबू बकर से बद्र और “फदक” के बागों में हिस्सा मांगने आये तो . अबू बकर बोला अल्लाह की कसम खाता इनमे तुम्हारा कोई हिस्सा नहीं बनता .” सही मुस्लिम -किताब 19 हदीस 4349
“उरवा बिन जुबैर ने कहा कि , आयशा ने बताया , जब फातिमा और अली मेरे पिता अबू बकर के पास गए , और उन से बद्र और खबर की लूट का हिस्सा माँगा ,तो ,मेरे पिता ने कहा , मैं उस अल्लाह की कसम खाकर सच कहता हूँ जिसके हाथों में मेरी जान है .लूट की वह सारी दौलत इस्लामी राज्य की स्थापना में खर्च हो गयी . और रसूल की यही अंतिम इच्छा थी . यह सुन कर फातिमा और अली रुष्ट होकर घर लौट गए .
सही मुस्लिम -किताब 19 हदीस 4354
7-लूट का क्रूर तरीका
मुसलमान दावा करते हैं कि हमारे रसूल तो बड़े दयालु और रहमदिल थे , उन्होंने जिंदगी भर एक व्यक्ति की भी हत्या नहीं की थी . लेकिन सब जानते हैं लालच में अँधा व्यक्ति कुछ भी कर सकता है .मुहम्मद ने लूटों के दौरान हत्या का जो तरीका अपनाया था , उसे जानकर कटर से कठोर दिल वाले काँप जायेंगे मुहम्मद लोगों को जिन्दा दफना देता था , ताकि कोई सबूत्त बाकि नहीं रहे ,.
“अबू तल्हा ने कहा कि बद्र की लूट में रसूल ने सभी काफिले वालों बुरी तरह से मारा , जिस से कुछ तो अपनी जान बचा कर काफिले का सामान छोड़ कर भाग गए .लेकिन 24 लोग रसूल के हाथों पकडे गए .जो बुरी तरह से घायल थे . तब रसूल ने उन सभी को बद्र के एक सूखे और गहरे कुंएं में फिकवा दिया .और हमें वहीँ तीन दिन रात रुकने का हुक्म दिया . कहीं कोई कुंएं से जिन्दा न निकल सके . अबू तल्हा ने बताया की जब भी रसूल काफिले लूटते यही तरीका अपनाते थे .जिस से घायल काफिले वाले कुंएं में भूखे प्यासे मर जाते थे ” बुखारी -जिल्द 5 किताब 59 हदीस 314
8-मुहम्मद की धूर्तता
जिस तरह हर मुसलमान अपने अपराधों पर पर्दा डालने के लिए दूसरों पर आरोप लगा देता है , उसी तरह खुद को हत्या के अपराध से निर्दोष साबित करने के लिए मुहम्मद अल्लाह को ही जिम्मेदार बता देता था . जैसा कुरान में कहा है ,
” हे रसूल तुमने उनका क़त्ल नहीं किया , बल्कि अल्लाह ने उनको क़त्ल किया है . और तुमने उनको कुंएं में नहीं फेका ,बल्कि अल्लाह ने ही उनको कुएं में फेका है .सूरा -अनफाल 8: 17
9-निष्कर्ष
इन सभी प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि मुहम्मद एक महालोभी , क्रूर लुटेरा और ऐसा धूर्त था कि लोग उसके द्वारा की गयी हजारों हत्याओं का पता भी नहीं कर सकें . जब लाश ही नहीं मिलेगी तो लोग मुहम्मद को दयालु मान लेगे , इसके अतिरिक्त यह बात भी सिद्ध है कि मुहमद और अल्लाह एकही थैली के चट्टे बट्टे है . और अल्लाह भी मुहम्मद की मर्जी के मुताबिक आयतें बना देता था .
लेकिन इस अटल सत्य को हजारों अल्लाह मिल कर भी नहीं बदल सकते ,कि हरेक धूर्त का एक दिन “भंडाफोड़ ” जरुर हो जाता है .मुहम्मद ने जैसे क्रूर कर्म किये थे वैसी ही कष्टदायी मौत मारा गया .
यदि धूर्तता सीखना हो तो रसूल से सीखो
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गुरुवार, सितंबर 04, 2014

कैसे रोथ्स्चाइल्ड ने बैंकों के माध्यम से भारत पर कब्जा किया

कैसे रोथ्स्चाइल्ड ने बैंकों के माध्यम से भारत पर कब्जा किया
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भारत इतना समृद्ध देश था कि उसे `सोने की चिडिया ‘ कहा जाता था । भारत की इस शोहरत ने पर्यटकों और लुटेरों – दोनों को आकर्षित किया ।

यह बात तब की है जब ईस्ट इन्डिया कम्पनी को भारत के साथ व्यापार करने का अधिकार प्राप्त नहीं हुआ था । उसके बाद क्या हुआ यह नीचे पढिये -
सन् १६०० – ईस्ट इन्डिया कम्पनी को भारत के साथ व्यापार करने की स्वीकृति मिली

१६०८ – इस दौरान कम्पनी के जहाज सूरत की बन्दरगाह पर आने लगे जिसे व्यापार के लिये आगमन और प्रस्थान क्षेत्र नियुक्त किया गया ।.

अगले दो सालों में ईस्ट इन्डिया कम्पनी ने दक्षिण भारत में बंगाल की खाडी के कोरोमन्डल तट पर मछिलीपटनम नामक नगर में अपना पहला कारखाना खोला ।

१७५० – ईस्ट इन्डिया कम्पनी ने अपने २ लाख सैनिकों की निजी सेना के वित्त प्रबन्ध के लिये बंगाल और बिहार में अफीम की खेती शुरु कर दी । बंगाल में इसके कारण खाद्य फसलों की जो बर्बादी हुई उससे अकाल की स्थिति पैदा हुई जिससे दस लाख लोगों की मृत्यु हुई ।

कैसे और कितनी भारी संख्या मे लोगों की मृत्यु हुई यह जानने के लिये पढिये Breakdown of Death Toll of Indian Holocaust caused during the British (Mis)Rule

१७५७ – बंगाल के शासक सिराज-उद-दौला के पदावनत हुए सेना अध्यक्ष मीर जाफर, यार लुत्फ खान, महताब चन्द, स्वरूप चन्द, ओमीचन्द और राय दुर्लभ के साथ षडयन्त्र करके अफीम के व्यापारियों ने प्लासी की लडाई में सिराज-उद-दौल को पराजित करके भारत पर कब्जा कर लिया और दक्षिण एशिया में ईस्ट ईन्डिया कम्पनी की स्थापना की ।

जगत सेठ, ओमीचन्द और द्वारकानाथ ठाकुर ( रबिन्द्रनाथ ठाकुर के दादा) को `बंगाल के रोथ्चाईल्ड’ का नाम दिया गया था (द्वारकानाथ ठाकुर, भारत के `ड्रग लार्ड’ की गाथा अलग से एक लेख में लिखी जाएगी)
१७८० – चीन के साथ नशीली पदार्थों का व्यापार करने का खयाल सर्वप्रथम भारत के पहले गवर्नर जेनरल वारेन हेस्टिंग्स को आया ।

सन् १७९० — ईस्ट इन्डिया कम्पनी ने अफीम के व्यापार पर एकाधिकार बनाया और खस खस उत्पादकों को अपनी उपज सिर्फ ईस्ट इन्डिया कम्पनी को बेचने की छूट थी । हजारों की संख्या में बंगाली, बिहारी और मालवा के किसानों से जबरन अफीम की खेती करवायी जाती थी ।

उस दौरान योरोप में व्यापार में मन्दी और स्थिरता चल रही थी । कम्पनी के संचालक ने पार्लियामेन्ट से आर्थिक सहायता मांगकर दिवालियापन से बचने की कोशिश की । इसके लिये `टी ऐक्ट’ बनाया गया जिससे चाय और तेल के निर्यात पर शुल्क लगना बन्द हो गया । ईस्ट इन्डिया कम्पनी की करमुक्त चाय दुनिया के हर ब्रिटिश कोलोनी में बेची जाने लगी, जिससे देशी व्यापारियों का कारोबार रुक गया । अमेरिका में इसके कारण जो विरोध शुरु हुआ, उसका समापन मस्साचुसेट्स में `बोस्टन टी पार्टी ‘ से हुआ जब विरोधियों के झुन्ड ने जहाजों में रखी चाय की पेटियों को समुद्र में फेंक दिया | इसके पश्चात् बगावत बढती गयी और अमेरिकन रेवोल्युशन का जन्म हुआ जिसके कारण १७६५ से १७८३ के बीच तेरह अमरीकी उपनिवेश ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतन्त्र (नाम के स्वतंत्र ,जैसे भारत को नकली आज़ादी मिली ,आज भी नागरिको पर कंट्रोल पावर इल्लुमिनाती की है )हो गये ।

ब्रिटेन अब चाँदी देकर चीन से चाय खरीदने में समर्थ नहीं रहा । अफीम जो कि आसानी से और मुफ्त में हासिल था, अब उनके व्यापार का माध्यम बन गया ।

उन्नीसवीं सदी — ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया नशीले पदार्थों की सबसे बडी व्यापारी थीं । वह खुद भी अफीम ( लौडनम, जो कि अफीम को शराब में मिलाकर बनाया जाता है) का सेवन करती थीं । इस बात के रिकार्ड बाल्मोरल पैलेस के शाही औषधखाने में हैं कि कितनी बार अफीम शाही घराने में पहुँचाया गया । कई ब्रिटिश कुलीन जन समुदाय के लोग भी अफीम का सेवन करते थे ।

अब कुछ जरूरी बातें …

ईस्ट इन्डिया कम्पनी के मालिक कौन थे ?

यह सभी को मालूम है कि इस कम्पनी ने भारत से भारी मात्रा में सोना और हीरे – जवाहरात लूटे थे । उसका क्या हुआ ???

सच तो यह है कि भारत से लूटा गया यह खजाना आज तक बैंक आफ इंगलैन्ड के तहखाने में रखा है | यह खजाना अप्रत्यक्ष रूप से भारत में लगभग सभी बैंकिन्ग संस्थानो के निर्माण के लिये इस्तेमाल किया गया, साथ ही विश्व में और भी कई बैंकों की स्थापना का आधार बना ।

१७०८ — मोसेस मोन्टेफियोर और नेथन मेयर रोथ्स्चाइल्ड ने ब्रिटिश राजकोष को ३,२००,००० ब्रिटिश पाऊन्ड कर्ज दिया (जिसे रोथ्स्चाइल्ड के निजी बैन्क ओफ इंगलैन्ड का ऋण चुकाने के लिये इस्तेमाल किया गया) । यह कर्ज रोथ्स्चाइल्ड ने अपनी ईस्ट इन्डिया कम्पनी को (जिसके वह गुप्त रूप से मालिक थे) केप होर्न और केप आफ गुड होप के बीच स्थित इन्डियन और पैसेफिक महासागर के सभी देशों के साथ व्यापार करने के विशिष्ट अधिकार दिलाने के लिये दिया – अर्थात् रिश्वत्खोरी की सहायता ली ।

रोथ्स्चाइल्ड हमेशा संयुक्त पूँजी द्वारा स्थापित संस्थाओं के जरिये काम करते हैं ताकि उनका स्वामित्व गुप्त रहे और वह निजी जिम्मेदारी से बचे रहें ।

नेथन रोथ्स्चाइल्ड ने कहा, ` तब ईस्ट ईंडिया कम्पनी के पास बेचने के लिये आठ लाख पाउन्ड का सोना था । मैंने नीलामी में सारा सोना खरीद लिया । मुझे पता था कि वेलिंग्टन के ड्यूक के पास वह जरूर होगा, चूंकि मैंने उनके ज्यादातर बिल सस्ते दाम पर खरीद लिये थे। सरकार से मुझे बुलावा आया और यह कहा गया कि इस सोने की (उन दिनों चल रही लडाईयों की आर्थिक सहयता के लिये ) उन्हें जरूरत है । जब वह उनके पास पहुँच गया तो उन्हें समझ नहीं आया कि उसे पुर्तगाल कैसे पहुँचाया जाए । मैंने सारी जिम्मेवारी ली और फ्रान्स के जरिये भिजवाया । यह मेरा सबसे बढिया व्यापार था । ‘

इस प्रकार नेथन रोथ्स्चाइल्ड ब्रिटिश सरकार के विश्वसनीय बन गये जो कि उनके लिये मुद्रा क्षेत्र में अपना कारोबार और हुकूमत बढाने में फायदेमन्द साबित हुआ, जैसा कि आप आगे पढेंगे ।

यह ध्यान रहे कि वह रोथ्स्चाइल्ड घराना ही था जिसने आदम वाईशौप के जरिये इलुमिनाटी ग्रूप की शुरुआत की । योजना यह थी कि खुद को संसार में सबसे ज्यादा सुशिक्षित मानने वाले इस वर्ग के लोग अपने शिष्यों के जरिये मानव समाज के सभी महत्वपूर्ण सन्स्थाओं में मुख्य स्थानों पर अधिकार जमाकर `न्यु वर्ल्ड आर्डर’ अर्थात् `नयी सुनियोजित दुनिया’ की स्थापना करेंगे जिसके नियम वह बनाएँगे ।
१८४४ – राबर्ट पील के शासन में बैन्क चार्टर ऐक्ट पास हुआ जिससे ब्रिटिश बैंकों की ताकत कम कर दी गयी और सेन्ट्रल बैंक आफ इंगलैंड (जो कि रोथ्स्चाइल्ड के अधीन था) को नोट प्रचलित करने का एकमात्र अधिकार दिया गया । इससे यह हुआ कि रोथ्स्चाइल्ड अब और भी शक्तिशाली हो गये चूँकि अब कोई भी बैंक अपने नोट नहीं बना सकता था, उन्हें जबरन रोथ्स्चाइल्ड नियन्त्रित बैंक के नोट स्वीकार करने पडते थे ।
और आज यह स्थिति है कि संसार में मात्र तीन देश बच गये हैं जहाँ के बैंक रोथ्स्चाइल्ड के कब्जे में नहीं हैं

दुनिया मे हो रही लडाइयों का लक्ष्य है उन देशों के सेन्ट्रल बैंक पर कब्जा । मेयर ऐम्शेल रोथ्स्चाइल्द ने बिल्कुल सच कहा था जब उन्होंने यह कहा था कि `मुझे बस देश के धन/पैसों के सप्लाई पर नियन्त्रण चाहिये, उस देश के नियम कौन बनाता है इसकी मुझे परवाह नहीं।

जार्ज वार्ड नोर्मन १८२१ से १८७२ तक बैंक आफ इंगलैन्ड के निदेशक थे और १८४४ के बैंक चार्टर ऐक्ट के निर्माण में उनकी बडी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी । उनका सोंचना था कि रेवेन्यू सिस्टम को पूरी तरह से बदल उसे बहुग्राही सम्पत्ति टैक्स (कंप्रिहेन्सिव प्रापर्टी टैक्स) सिस्टम बनाकर मानव के आनन्द को बढाया जा सकता है ।

१८५१ – १८५३ – महारानी विक्टोरिया से शाही अधिकार पत्र मिलने के पश्चात् जेम्स विल्सन ने लन्दन में चार्टर्ड बैंक आफ इन्डिया, औस्ट्रेलिया और चाइना की स्थापना की ।

यह बैंक मुख्य रूप से अफीम और कपास के दामों पर छूट दिलाने का कार्य करते थे । हालाँकि चीन में अफीम की खेती में वृद्धि होती गयी, फिर भी आयात में बढोतरी हुई थी ।

अफीम के व्यापार से चार्टर्ड बैंक को अत्यधिक मुनाफा हुआ ।

उसी वर्ष (१८५३) कुछ पारसी लोगों के द्वारा (जो कि अफीम के व्यापारी थे और ईस्ट ईंडिया कम्पनी के दलाल थे) मुम्बई में मर्केन्टाइल बैंक आफ ईन्डिया, लन्दन और चाईना की स्थापना हुई ।

कुछ समय बाद यही बैंक शांघाई (चीन) में विदेशी मुद्रा जारी करने की प्रमुख संस्था बन गया । आज हम उसे एच-एस-बी-सी बैंक के नाम से जानते हैं ।

१९६९ में चार्टर्ड बैंक आफ ईन्डिया और स्टैन्डर्ड बैंक का विलय हो गया और इन दोनों के मिलने से स्टैन्डर्ड चार्टर्ड बैंक बना । उसी वर्ष भारत की सरकार ने इलाहाबाद बैंक का राष्ट्रीयकरण किया । .

स्टेट बैंक आफ ईन्डिया

एस-बी-आई की शुरुआत कोलकाता ( ब्रिटिश इन्डिया के समय में भारत की राजधानी ) में हुई , जब उसका जन्म २ जून १८०६ को बैंक आफ कल्कत्ता के नाम से हुआ। इसकी शुरुआत का मुख्य कारण था टीपू सुल्तान और मराठाओं से युद्ध कर रहे जेनेरल वेलेस्ली को आर्थिक सहयता पहुँचाना । जनवरी २, १८०९ को इस बैंक को बैंक आफ बंगाल का नया नाम दिया गया । इसी तरह के मिश्रित पूँजी (जोइन्ट स्टौक ) के अन्य बैंक यानि बैंक आफ बम्बई और बैंक आफ मद्रास की शुरुआत १८४० और १८४३ में हुई ।
१९२१ में इन सभी बैंकों और उनकी ७० शाखाओं को मिलाकर इम्पीरियल बैंक आफ ईन्डिया का निर्माण किया गया । आजादी के पश्चात् कई राज्य नियन्त्रित बैंकों को भी इम्पीरियल बैंक आफ ईन्डिया के साथ मिला दिया गया और इसे स्टेट बैंक आफ ईन्डिया का नाम दिया गया । आज भी वह इसी नाम से जाना जाता है ।

१८५९ – १८५७ की बगावत के पश्चात् जेम्स विल्सन (चार्टर्ड बैंक आफ इन्डिया, औस्ट्रेलिया और चाइना के निर्माता ) को टैक्स योजना और नयी कागजी मुद्रा की स्थापना और भारत के वित्तीय प्रणाली (फाईनान्स सिस्टम) का पुनः निर्माण करने के लिये भारत भेजा गया ।

उन्हें भारतीय टैक्स सिस्टम के पितामह का दर्जा दिया गया है ।

रिजर्व बैंक आफ इन्डिया

आर –बी-आई की नींव हिल्टन यंग कमीशन के समक्ष डाक्टर अम्बेड्कर के बताये निदेशक सिद्धान्त और सन्चालन रीति पर रखी गयी ( जैसा के हमें बताया जाता है, मगर असली प्रारम्भ कहीं और ही हुआ, जिसके बारे एक दूसरा लेख हम प्रस्तुत करेंगे ) । जब यह कमीशन `रायल कमीशन आन इन्डियन करेन्सी एन्ड फाईनान्स’ के नाम से भारत आयी तब उसके हरेक सदस्य के पास डाक्टर अम्बेड्कर की किताब ` द प्राब्लेम आफ द रुपी- इट्स ओरिजिन एन्ड इट्स सोल्यूशन ‘ मौजूद थी ।

डाक्टर अम्बेड्कर की किताब ` द प्रोब्लेम आफ द रुपी- इट्स ओरिजिन एन्ड इट्स सोल्यूशन ‘ से उद्धृत –

अध्याय ५ – स्वर्ण मान से स्वर्ण विनिमय तक (from a Gold Standard To a Gold Exchange Standard)

` जब तक मूल्यांकन धातु मुद्रा से किया जाता है तब तक अत्यधिक मुद्रा स्फीति (इन्फ्लेशन) सम्भव नहीं है क्योंकि उत्पादन लागत उसपर रोक लगाती है । जब मूल्यांकन रुपयों (पेपर मनी) से होता है तो प्रतिबन्ध से इसको काबू में रखा जा सकता है । लेकिन जब मूल्यांकन वैसे रुपयों से होता है जिसका मोल उसकी अपनी कीमत से ज्यादा है और वह अपरिवर्तनीय है, तो उसमें असीमित स्फीति की सम्भावना है , जिसका अर्थ है मूल्य मे कमी और दामों मे बढोतरी । इसलिये यह नहीं कहा जा सकता है कि बैंक चार्टर ऐक्ट ने बैंक रेस्ट्रिक्शन ऐक्ट से बेहतर नहीं था । वाकई वह बेहतर था क्योंकि उस ऐक्ट से ऐसी मुद्रा जारी की गयी जिसमें मुद्रा स्फीति की सम्भावना कम थी । अब रुपया एक अपरिवर्तनीय अपमिश्रित ( डीबेस्ड) सिक्का और असीमित वैध मुद्रा (लीगल टेन्डर) है । इस रूप में वह अब उस वर्ग में है जिसमें असीमित मुद्रा स्फीति की क्षमता है । इससे बचाव के लिये निःसन्देह पहली योजना इससे बेहरत थी जिसमें रुपयों का वितरण सीमित था । इससे भारतीय मुद्रा प्रणाली १८४४ के बैंक चार्टर ऐक्ट के अधीन ब्रिटिश प्रणाली के अनुरूप था ।

यदि उपर्युक्त तर्कसंगत विचारों में बल है, तो फिर चेम्बर्लेन कमीशन आफ एक्स्चेन्ज स्टैंडर्ड के विचारों से सहमत होने में आपत्ति होती है । इससे यह प्रश्न उठता है कि कमीशन ने जो भी कहा उसके बावजूद उस प्रणाली में कहीं कोई कमजोरी तो नहीं जो कभी उसके पतन का कारण बन सकती है । ऐसी अवस्था में उस मान्य की नींव को नये द्रिष्टिकोण से जाँचना जरूरी हो जाता है ।

क्या डाक्टर अम्बेड्कर को भिन्न आरक्षन प्रणाली (फ्रैक्शनल रिजर्व बैंकिंग) और खन्ड मुद्रा (फिआत करेंसी) के खतरों का (जिसका असर आज समस्त सन्सार पर हो रहा है ) सही अनुमान हो चुका था ?

इस विषय पर रिसर्च और चर्चा की जरूरत है जिससे हकीकत सामने आ सके !

नशीले पदार्थों की तस्करी और भारत, पुर्तगाल, ब्राजील, चीन, बर्मा और अन्य देशों से लूटे गये सोने से आज के मुद्रा प्रणाली (मोनेटरी सिस्टम ) की नींव रखी गयी ।

लेकिन क्या यह अब समाप्त हो चुका ?

यह जानने के लिये कि ओबामा ने अपने द्वितीय कार्यकाल में भारत के लिये क्या सोंच रखा है कृपया पढें – Unlocking the full potential of the US-India Relationship 2013

सार्वभौमिकता (Globalisation) सर्वव्यापी धर्मनिर्पेक्ष जीवन शैली नहीं है ….
यह उपनिवेशवाद (Colonialism) का नया रूप है जिसके जरिये समस्त संसार को एक बडा उपनिवेश (कोलोनी) बनाने की चेष्टा की जा रही है ।

अपने दिनों में कम्पनी नें सही अर्थों में सार्वभौमिक अर्थव्यवस्था में मौजूद कमजोरियों का धूर्तता से अपने फायदे के लिये शोषण किया । चीन की चाय भारत के अफीम से खरीदी गयी । भारत मे उपजे कपास से बने भारतीय और बाद में ब्रिटिश कपडों से पश्चिम अफ्रीका के गुलाम खरीदे गये , जिन्हें अमेरिका में सोने और चाँदी के लिये बेचा गया , जिसे इंगलैंड में निवेशित किया गया जहाँ गुलामों द्वारा बनाई चीनी के कारण चायना से आयात चाय की लोकप्रियता मर्केट में बनी रही । विजेता विश्व के सबसे महत्वपूर्ण वित्तीय केन्द्र अर्थात् फाईनेन्शियल सेन्टर `सिटी आफ लन्दन’ में विराजमान थे और भारी संख्या में असफल व्यक्तिगण संसार के हर कोने में मौजूद थे ।

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रिजर्व बैंक आफ इन्डिया

आर –बी-आई की नींव हिल्टन यंग कमीशन के समक्ष डाक्टर अम्बेड्कर के बताये निदेशक सिद्धान्त और सन्चालन रीति पर रखी गयी ( जैसा के हमें बताया जाता है, मगर असली प्रारम्भ कहीं और ही हुआ, जिसके बारे एक दूसरा लेख हम प्रस्तुत करेंगे ) । जब
यह कमीशन `रायल कमीशन आन इन्डियन करेन्सी एन्ड फाईनान्स’ के नाम से भारत आयी तब उसके हरेक सदस्य के पास डाक्टर अम्बेड्कर की किताब ` द प्राब्लेम आफ द रुपी- इट्स ओरिजिन एन्ड इट्स सोल्यूशन ‘ मौजूद थी ।

डाक्टर अम्बेड्कर की किताब ` द प्रोब्लेम आफ द रुपी- इट्स ओरिजिन एन्ड इट्स सोल्यूशन ‘ से उद्धृत –

अध्याय ५ – स्वर्ण मान से स्वर्ण विनिमय तक (from a Gold Standard To a Gold Exchange Standard)

` जब तक मूल्यांकन धातु मुद्रा से किया जाता है तब तक अत्यधिक मुद्रा स्फीति (इन्फ्लेशन) सम्भव नहीं है क्योंकि उत्पादन लागत उसपर रोक लगाती है । जब मूल्यांकन रुपयों (पेपर मनी) से होता है तो प्रतिबन्ध से इसको काबू में रखा जा सकता है । लेकिन जब मूल्यांकन वैसे रुपयों से होता है जिसका मोल उसकी अपनी कीमत से ज्यादा है और वह अपरिवर्तनीय है, तो उसमें असीमित स्फीति की सम्भावना है , जिसका अर्थ है मूल्य मे कमी और दामों मे बढोतरी । इसलिये यह नहीं कहा जा सकता है कि बैंक चार्टर ऐक्ट ने बैंक रेस्ट्रिक्शन ऐक्ट से बेहतर नहीं था । वाकई वह बेहतर था क्योंकि उस ऐक्ट से ऐसी मुद्रा जारी की गयी जिसमें मुद्रा स्फीति की सम्भावना कम थी । अब रुपया एक अपरिवर्तनीय अपमिश्रित ( डीबेस्ड) सिक्का और असीमित वैध मुद्रा (लीगल टेन्डर) है । इस रूप में वह अब उस वर्ग में है जिसमें असीमित मुद्रा स्फीति की क्षमता है । इससे बचाव के लिये निःसन्देह पहली योजना इससे बेहरत थी जिसमें रुपयों का वितरण सीमित था । इससे भारतीय मुद्रा प्रणाली १८४४ के बैंक चार्टर ऐक्ट के अधीन ब्रिटिश प्रणाली के अनुरूप था ।

यदि उपर्युक्त तर्कसंगत विचारों में बल है, तो फिर चेम्बर्लेन कमीशन आफ एक्स्चेन्ज स्टैंडर्ड के विचारों से सहमत होने में आपत्ति होती है । इससे यह प्रश्न उठता है कि कमीशन ने जो भी कहा उसके बावजूद उस प्रणाली में कहीं कोई कमजोरी तो नहीं जो कभी उसके पतन का कारण बन सकती है । ऐसी अवस्था में उस मान्य की नींव को नये द्रिष्टिकोण से जाँचना जरूरी हो जाता है ।

क्या डाक्टर अम्बेड्कर को भिन्न आरक्षन प्रणाली (फ्रैक्शनल रिजर्व बैंकिंग) और खन्ड मुद्रा (फिआत करेंसी) के खतरों का (जिसका असर आज समस्त सन्सार पर हो रहा है ) सही अनुमान हो चुका था ?

इस विषय पर रिसर्च और चर्चा की जरूरत है जिससे हकीकत सामने आ सके !

मुहम्मद मरे नहीं थे, भारत के महाकवि कालिदास के हाथों मारे गए थे :?


मुहम्मद मरे नहीं थे, भारत के महाकवि कालिदास के हाथों मारे गए थे :

इतिहास का एक अत्यंत रोचक तथ्य है कि इस्लाम के पैगम्बर (रसूल) मुहम्मद साहब सन ६३२ में अपनी स्वाभाविक मौत नहीं मरे थे, अपितु भारत के महान साहित्यकार कालिदास के हाथों मारे गए थे. मदीना में दफनाए गए (?) मुहम्मद की कब्र की जांच की जाए तो रहस्य से पर्दा उठ सकता है कि कब्र में मुहम्मद का कंकाल है या लोटा ।

भविष्यमहापुराण (प्रतिसर्गपर्व) में सेमेटिक मजहबों के सभी पैगम्बरों का इतिहास उनके नाम के साथ वर्णित है. नामों का संस्कृतकरण हुआ है I इस पुराण में मुहम्मद और ईसामसीह का भी वर्णन आया है. मुहम्मद का नाम "महामद" आया है. मक्केश्वर शिवलिंग का भी उल्लेख आया है. वहीं वर्णन आया है कि सिंधु नहीं के तट पर मुहम्मद और कालिदास की भिड़ंत हुई थी और कालिदास ने मुहम्मद को जलाकर भस्म कर दिया. ईसा को सलीब पर टांग दिया गया और मुहम्मद भी जलाकर मार दिए गए- सेमेटिक मजहब के ये दो रसूल किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे. शर्म के मारे मुसलमान किसी को नहीं बताते कि मुहम्मद जलाकर मार दिए गए, बल्कि वह यह बताते हैं कि उनकी मौत कुदरती हुई थीI

भविष्यमहापुराण (प्रतिसर्गपर्व, 3.3.1-27) में उल्लेख है कि ‘शालिवाहन के वंश में १० राजाओं ने जन्म लेकर क्रमश: ५०० वर्ष तक राज्य किया. अन्तिम दसवें राजा भोजराज हुए । उन्होंने देश की मर्यादा क्षीण होती देख दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया । उनकी सेना दस हज़ार थी और उनके साथ कालिदास एवं अन्य विद्वान्-ब्राह्मण भी थे । उन्होंने सिंधु नदी को पार करके गान्धार, म्लेच्छ और काश्मीर के शठ राजाओं को परास्त किया और उनका कोश छीनकर उन्हें दण्डित किया । उसी प्रसंग में मरुभूमि मक्का पहुँचने पर आचार्य एवं शिष्यमण्डल के साथ म्लेच्छ महामद (मुहम्मद) नाम व्यक्ति उपस्थित हुआ । राजा भोज ने मरुस्थल (मक्का) में विद्यमान महादेव जी का दर्शन किया । महादेवजी को पंचगव्यमिश्रित गंगाजल से स्नान कराकर चन्दनादि से भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया और उनकी स्तुति की: “हे मरुस्थल में निवास करनेवाले तथा म्लेच्छों से गुप्त शुद्ध सच्चिदानन्दरूपवाले गिरिजापते ! आप त्रिपुरासुर के विनाशक तथा नानाविध मायाशक्ति के प्रवर्तक हैं । मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे अपना दास समझें । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।” इस स्तुति को सुनकर भगवान् शिव ने राजा से कहा- “हे भोजराज ! तुम्हें महाकालेश्वर तीर्थ (उज्जयिनी) में जाना चाहिए । यह ‘वाह्लीक’ नाम की भूमि है, पर अब म्लेच्छों से दूषित हो गयी है । इस दारुण प्रदेश में आर्य-धर्म है ही नहीं । महामायावी त्रिपुरासुर यहाँ दैत्यराज बलि द्वारा प्रेषित किया गया है ।

वह मानवेतर, दैत्यस्वरूप मेरे द्वारा वरदान पाकर मदमत्त हो उठा है और पैशाचिक कृत्य में संलग्न होकर महामद (मुहम्मद) के नाम से प्रसिद्ध हुआ है । पिशाचों और धूर्तों से भरे इस देश में हे राजन् ! तुम्हें नहीं आना चाहिए । हे राजा ! मेरी कृपा से तुम विशुद्ध हो । भगवान् शिव के इन वचनों को सुनकर राजा भोज सेना सहित पुनः अपने देश में वापस आ गये । उनके साथ महामद भी सिंधु तीर पर पहुँच गया । अतिशय मायावी महामद ने प्रेमपूर्वक राजा से कहा- ”आपके देवता ने मेरा दासत्व स्वीकार कर लिया है ।” राजा यह सुनकर बहुत विस्मित हुए। और उनका झुकाव उस भयंकर म्लेच्छ के प्रति हुआ । उसे सुनकर कालिदास ने रोषपूर्वक महामद से कहा- “अरे धूर्त ! तुमने राजा को वश में करने के लिए माया की सृष्टि की है । तुम्हारे जैसे दुराचारी अधम पुरुष को मैं मार डालूँगा ।“ यह कहकर कालिदास नवार्ण मन्त्र (ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे) के जप में संलग्न हो गये । उन्होंने (नवार्ण मन्त्र का) दस सहस्र जप करके उसका दशांश (एक सहस्र) हवन किया । उससे वह मायावी भस्म होकर म्लेच्छ-देवता बन गया । इससे भयभीत होकर उसके शिष्य वाह्लीक देश वापस आ गये और अपने गुरु का भस्म लेकर मदहीनपुर (मदीना) चले गए और वहां उसे स्थापित कर दिया जिससे वह स्थान तीर्थ के समान बन गया। एक समय रात में अतिशय देवरूप महामद ने पिशाच का देह धारणकर राजा भोज से कहा- ”हे राजन् ! आपका आर्यधर्म सभी धर्मों में उत्तम है, लेकिन मैं उसे दारुण पैशाचधर्म में बदल दूँगा । उस धर्म में लिंगच्छेदी (सुन्नत/खतना करानेवाले), शिखाहीन, दढि़यल, दूषित आचरण करनेवाले, उच्च स्वर में बोलनेवाले (अज़ान देनेवाले), सर्वभक्षी मेरे अनुयायी होंगे । कौलतंत्र के बिना ही पशुओं का भक्षण करेंगे. उनका सारा संस्कार मूसल एवं कुश से होगा । इसलिये ये जाति से धर्म को दूषित करनेवाले ‘मुसलमान’ होंगे । इस प्रकार का पैशाच धर्म मैं विस्तृत करूंगा I”

‘एतस्मिन्नन्तरे म्लेच्छ आचार्येण समन्वितः ।
महामद इति ख्यातः शिष्यशाखा समन्वितः ।। 5 ।।
नृपश्चैव महादेवं मरुस्थलनिवासिनम् ।
गंगाजलैश्च संस्नाप्य पंचगव्यसमन्वितैः ।
चन्दनादिभिरभ्यच्र्य तुष्टाव मनसा हरम् ।। 6 ।।

भोजराज उवाच
नमस्ते गिरिजानाथ मरुस्थलनिवासिने ।
त्रिपुरासुरनाशाय बहुमायाप्रवर्तिने ।। 7 ।।
म्लेच्छैर्मुप्ताय शुद्धाय सच्चिदानन्दरूपिणे ।
त्वं मां हि किंकरं विद्धि शरणार्थमुपागतम् ।। 8 ।।

सूत उवाच
इति श्रुत्वा स्तवं देवः शब्दमाह नृपाय तम् ।
गंतव्यं भोजराजेन महाकालेश्वरस्थले ।। 9 ।।
म्लेच्छैस्सुदूषिता भूमिर्वाहीका नाम विश्रुता ।
आर्यधर्मो हि नैवात्र वाहीके देशदारुणे ।। 10 ।।
वामूवात्र महामायो योऽसौ दग्धो मया पुरा ।
त्रिपुरो बलिदैत्येन प्रेषितः पुनरागतः ।। 11 ।।
अयोनिः स वरो मत्तः प्राप्तवान्दैत्यवर्द्धनः ।
महामद इति ख्यातः पैशाचकृतितत्परः ।। 12 ।।
नागन्तव्यं त्वया भूप पैशाचे देशधूर्तके ।
मत्प्रसादेन भूपाल तव शुद्धि प्रजायते ।। 13 ।।
इति श्रुत्वा नृपश्चैव स्वदेशान्पु नरागमतः ।
महामदश्च तैः साद्धै सिंधुतीरमुपाययौ ।। 14 ।।
उवाच भूपतिं प्रेम्णा मायामदविशारदः ।
तव देवो महाराजा मम दासत्वमागतः ।। 15 ।।
इति श्रुत्वा तथा परं विस्मयमागतः ।। 16 ।।
म्लेच्छधनें मतिश्चासीत्तस्य भूपस्य दारुणे ।। 17 ।।
तच्छ्रुत्वा कालिदासस्तु रुषा प्राह महामदम् ।
माया ते निर्मिता धूर्त नृपमोहनहेतवे ।। 18 ।।
हनिष्यामिदुराचारं वाहीकं पुरुषाधनम् ।
इत्युक्त् वा स जिद्वः श्रीमान्नवार्णजपतत्परः ।। 19 ।।
जप्त्वा दशसहस्रंच तदृशांश जुहाव सः ।
भस्म भूत्वा स मायावी म्लेच्छदेवत्वमागतः ।। 20 ।।
मयभीतास्तु तच्छिष्या देशं वाहीकमाययुः ।
गृहीत्वा स्वगुरोर्भस्म मदहीनत्वामागतम् ।। 21 ।।
स्थापितं तैश्च भूमध्येतत्रोषुर्मदतत्पराः ।
मदहीनं पुरं जातं तेषां तीर्थं समं स्मृतम् ।। 22 ।।
रात्रौ स देवरूपश्च बहुमायाविशारदः ।
पैशाचं देहमास्थाय भोजराजं हि सोऽब्रवीत् ।। 23 ।।
आर्यधर्मो हि ते राजन्सर्वधर्मोत्तमः स्मृतः ।
ईशाख्या करिष्यामि पैशाचं धर्मदारुणम् ।। 24 ।।
लिंगच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रु धारी स दूषकः ।
उच्चालापी सर्वभक्षी भविष्यति जनो मम ।। 25 ।।
विना कौलं च पशवस्तेषां भक्षया मता मम ।
मुसलेनेव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति ।। 26 ।।
तस्मान्मुसलवन्तो हि जातयो धर्मदूषकाः ।
इति पैशाचधर्मश्च भविष्यति मया कृतः ।। 27 ।।’

(भविष्यमहापुराणम् (मूलपाठ एवं हिंदी-अनुवाद सहित), अनुवादक: बाबूराम उपाध्याय, प्रकाशक: हिंदी-साहित्य-सम्मेलन, प्रयाग; ‘कल्याण’ (संक्षिप्त भविष्यपुराणांक), प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर, जनवरी, 1992 ई.)

कुछ विद्वान कह सकते हैं कि महाकवि कालिदास तो प्रथम शताब्दी के शकारि विक्रमादित्य के समय हुए थे और उनके नवरत्नों में से एक थे, तो हमें ऐसा लगता है कि कालिदास नाम के एक नहीं बल्कि अनेक व्यक्तित्व हुए हैं, बल्कि यूं कहा जाए की कालिदास एक ज्ञानपीठ का नाम है, जैसे वेदव्यास, शंकराचार्य इत्यादि. विक्रम के बाद भोज के समय भी कोई कालिदास अवश्य हुए थे. इतिहास तो कालिदास को छठी-सातवी शती (मुहम्मद के समकालीन) में ही रखता है.

कुछ विद्वान "सरस्वतीकंठाभरण", समरांगणसूत्रधार", "युक्तिकल्पतरु"-जैसे ग्रंथों के रचयिता राजा भोज को भी ९वी से ११वी शताब्दी में रखते हैं जो गलत है. भविष्यमहापुराण में परमार राजाओं की वंशावली दी हुई है. इस वंशावली से भोज विक्रम की छठी पीढ़ी में आते हैं और इस प्रकार छठी-सातवी शताब्दी (मुहम्मद के समकालीन) में ही सिद्ध होते हैं.
कालिदासत्रयी-

एकोऽपि जीयते हन्त कालिदासो न केनचित्।

शृङ्गारे ललितोद्गारे कालिदास त्रयी किमु॥

(राजशेखर का श्लोक-जल्हण की सूक्ति मुक्तावली तथा हरि कवि की सुभाषितावली में)
इनमें प्रथम नाटककार कालिदास थे जो अग्निमित्र या उसके कुछ बाद शूद्रक के समय हुये। द्वितीय महाकवि कालिदस थे, जो उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य के राजकवि थे। इन्होंने रघुवंश, मेघदूत तथा कुमारसम्भव-ये ३ महाकाव्य लिखकर ज्योतिर्विदाभरण नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा। इसमें विक्रमादित्य तथा उनके समकालीन सभी विद्वानों का वर्णन है। अन्तिम कालिदास विक्रमादित्य के ११ पीढ़ी बाद के भोजराज के समय थे तथा आशुकवि और तान्त्रिक थे-इनकी चिद्गगन चन्द्रिका है तथा कालिदास और भोज के नाम से विख्यात काव्य इनके हैं।