रविवार, अगस्त 26, 2018

हाइफा का युद्ध

।। ॐ जय श्रीराम ।। #हाइफा_का_युद्ध: जिसका अहसान आज भी इजरायल मानता है.. आज बेशक हमारे अपने ही देश में राजनैतिक षड्यंत्रों को चलते हमारे अद्वित्य इतिहास को झुठलाने की कोशिशें की जा रही हों,हमें हाशिये पे धकेलने के प्रयत्न किए जा रहे हों, लेकिन हमारा डी.एन.ए. हमेशा वीरता से लड़ने,जीतने और सबकी रक्षा करने का रहा है और इसे विदेशी आज भी स्वीकार करते हैं। प्रथम विश्व युद्ध की जिसमे जोधपुर रियासत की सेना ने भी हिस्सा लिया। इतिहास में इस लड़ाई को हाइफा की लड़ाई के नाम से जाना जाता है।हाइफा की लड़ाई 23 सितंबर 1918 को लड़ी गयी। इस लड़ाई में राजपूताने की सेना का नेतृत्व जोधपुर रियासत के सेनापति #सेनापति_दलपत_सिंह_शेखावत ने किया। अंग्रेजो ने जोधपुर रियासत की सेना को हाइफा पर कब्जा करने के कहा, संदेश मिलते ही जोधपुर रियासत के सेनापति दलपत सिंह ने अपनी सेना को दुश्मन पर टूट पड़ने के लिए निर्देश दिया। जिसके बाद यह राजस्थानी रणबांकुरो की सेना दुश्मन को खत्म करने और हाइफा पर कब्जा करने के लिए आगे की ओर बढ़ी। 

लेकिन तभी अंग्रेजो को यह मालूम चला की दुश्मन के पास बंदूके और मशीन गन है जबकि जोधपुर रियासत की सेना घोड़ो पर तलवार और भालो से लड़ने वाली थी। इसी वजह से अंग्रेजो ने जोधपुर रियासत की सेना वापस लौटने को बोला लेकिन जोधपुर रियासत के सेनापति दलपत सिंह शेखावत ने कहा की #हमारे_यहाँ_वापस_लौटने_का_कोई_रिवाज_नहीं_है। हम रणबाँकुरे जो रण भूमि में उतरने के बाद या तो जीत हासिल करते है या फिर #वीरगति को प्राप्त हो जाते है। दूसरी ओर यह सेना को दुश्मन पर विजय प्राप्त करने के लिए बंदूके, तोपों और मशीन गन के सामने अपने छाती अड़ाकर अपनी परम्परागत युद्ध शैली से बड़ी बहादुरी के लड़ रही थी। इस लड़ाई में जोधपुर की सेना के करीब नो सौ सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। 

 युद्ध का परिणाम ने एक अमर इतिहास लिख डाला। जो आज तक पुरे विश्व में कही नहीं देखने को मिला था। क्युकी यह युद्ध दुनिया के मात्र ऐसा युद्ध था जो की तलवारो और बंदूकों के बीच हुआ। लेकिन अंतत : विजयश्री राजपुतों को मिली और उन्होंने हाइफा पर कब्जा कर लिया और चार सौ साल पुराने ओटोमैन साम्राज्य का अंत हो गया। रणबाँका राठौड़ो की इस बहादुरी के प्रभावित होकर भारत में ब्रिटिश सेना के कमांडर-इन-चीफ़ ने फ़्लैग-स्टाफ़ हाउस के नाम से अपने लिए एक रिहायसी भवन का निर्माण करवाया। भवन एक चौराहे से लगा हुआ बना है, इस चौराहे के मध्य में गोल चक्कर के बीचों बीच एक स्तंभ के किनारे तीन दिशाओं में मुंह किये हुए तीन सैनिकों की मूर्तियाँ लगी हुई हैं। जो की रणबाँका राठौड़ो की बहादुरी को यादगार बनाने के लिए बनाई गई। #जागो_क्षत्रियों_जागो ।। जय क्षात्र धर्म ।। ।। कुँवर अमित सिंह ।।✍

रक्षाबंधन इतिहास घोटाला

र पाठ्यक्रम और सच्चाई रक्षाबंधन के नाम पर सेक्युलर घोटाला डॉ विवेक आर्य बचपन में हमें अपने पाठयक्रम में पढ़ाया जाता रहा है कि रक्षाबंधन के त्योहार पर बहने अपने भाई को राखी बांध कर उनकी लम्बी आयु की कामना करती है। रक्षा बंधन का सबसे प्रचलित उदहारण चित्तोड़ की रानी कर्णावती और मुगल बादशाह हुमायूँ का दिया जाता है। कहा जाता है कि जब गुजरात के शासक बहादुर शाह ने चित्तोड़ पर हमला किया तब चित्तोड़ की रानी कर्णावती ने मुगल बादशाह हुमायूँ को पत्र लिख कर सहायता करने का निवेदन किया। पत्र के साथ रानी ने भाई समझ कर राखी भी भेजी थी। हुमायूँ रानी की रक्षा के लिए आया मगर तब तक देर हो चुकी थी। रानी ने जौहर कर आत्महत्या कर ली थी। इस इतिहास को हिन्दू-मुस्लिम एकता तोर पर पढ़ाया जाता हैं। अब सेक्युलर खोटाला पढ़िए हमारे देश का इतिहास सेक्युलर इतिहासकारों ने लिखा है। भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल कलाम थे। जिन्हें साम्यवादी विचारधारा के नेहरू ने सख्त हिदायत देकर यह कहा था कि जो भी इतिहास पाठयक्रम में शामिल किया जाये। उस इतिहास में यह न पढ़ाया जाये कि मुस्लिम हमलावरों ने हिन्दू मंदिरों को तोड़ा, हिन्दुओं को जबरन धर्मान्तरित किया, उन पर अनेक अत्याचार किये। मौलाना ने नेहरू की सलाह को मानते हुए न केवल सत्य इतिहास को छुपाया अपितु उसे विकृत भी कर दिया। रानी कर्णावती और मुगल बादशाह हुमायूँ के किस्से के साथ भी यही अत्याचार हुआ। जब रानी को पता चला की बहादुर शाह उस पर हमला करने वाला है तो उसने हुमायूँ को पत्र तो लिखा। मगर हुमायूँ को पत्र लिखे जाने का बहादुर खान को पता चल गया। बहादुर खान ने हुमायूँ को पत्र लिख कर इस्लाम की दुहाई दी और एक काफिर की सहायता करने से रोका। मिरात-ए-सिकंदरी में गुजरात विषय से पृष्ठ संख्या 382 पर लिखा मिलता है- सुल्तान के पत्र का हुमायूँ पर बुरा प्रभाव हुआ। वह आगरे से चित्तोड़ के लिए निकल गया था। अभी वह गवालियर ही पहुंचा था। उसे विचार आया, "सुलतान चित्तोड़ पर हमला करने जा रहा है। अगर मैंने चित्तोड़ की मदद की तो मैं एक प्रकार से एक काफिर की मदद करूँगा। इस्लाम के अनुसार काफिर की मदद करना हराम है। इसलिए देरी करना सबसे सही रहेगा। " यह विचार कर हुमायूँ गवालियर में ही रुक गया और आगे नहीं सरका। इधर बहादुर शाह ने जब चित्तोड़ को घेर लिया। रानी ने पूरी वीरता से उसका सामना किया। हुमायूँ का कोई नामोनिशान नहीं था। अंत में जौहर करने का फैसला हुआ। किले के दरवाजे खोल दिए गए। केसरिया बाना पहनकर पुरुष युद्ध के लिए उतर गए। पीछे से राजपूत औरतें जौहर की आग में कूद गई। रानी कर्णावती 13000 स्त्रियों के साथ जौहर में कूद गई। 3000 छोटे बच्चों को कुँए और खाई में फेंक दिया गया। ताकि वे मुसलमानों के हाथ न लगे। कुल मिलकर 32000 निर्दोष लोगों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। बहादुर शाह किले में लूटपाट कर वापिस चला गया। हुमायूँ चित्तोड़ आया। मगर पुरे एक वर्ष के बाद आया।परन्तु किसलिए आया? अपने वार्षिक लगान को इकठ्ठा करने आया। ध्यान दीजिये यही हुमायूँ जब शेरशाह सूरी के डर से रेगिस्तान की धूल छानता फिर रहा था। तब उमरकोट सिंध के हिन्दू राजपूत राणा ने हुमायूँ को आश्रय दिया था। यही उमरकोट में अकबर का जन्म हुआ था। एक काफ़िर का आश्रय लेते हुमायूँ को कभी इस्लाम याद नहीं आया। और धिक्कार है ऐसे राणा पर जिसने अपने हिन्दू राजपूत रियासत चित्तोड़ से दगा करने वाले हुमायूँ को आश्रय दिया। अगर हुमायूँ यही रेगिस्तान में मर जाता। तो भारत से मुग़लों का अंत तभी हो जाता। न आगे चलकर अकबर से लेकर औरंगज़ेब के अत्याचार हिन्दुओं को सहने पड़ते। इरफ़ान हबीब, रोमिला थापर सरीखे इतिहासकारों ने इतिहास का केवल विकृतिकरण ही नहीं किया अपितु उसका पूरा बलात्कार ही कर दिया। हुमायूँ द्वारा इस्लाम के नाम पर की गई दगाबाजी को हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे और रक्षाबंधन का नाम दे दिया। हमारे पाठयक्रम में पढ़ा पढ़ा कर हिन्दू बच्चों को इतना भ्रमित किया गया कि उन्हें कभी सत्य का ज्ञान ही न हो। इसीलिए आज हिन्दुओं के बच्चे दिल्ली में हुमायूँ के मकबरे के दर्शन करने जाते हैं। जहाँ पर गाइड उन्हें हुमायूँ को हिन्दूमुस्लिम भाईचारे के प्रतीक के रूप में बताते हैं। विवेक आर्य जी की फेसबुक वॉल से साभार

मंगलवार, अगस्त 21, 2018

भारतीय शिक्षा का विकृतीकरण नेहरू की एक मुख्य देन

Vivek Arya
भारतीय शिक्षा का विकृतीकरण नेहरू की एक मुख्य देन है. आइए इसपर विचार करें...
नेहरु के शिक्षा मंत्री -
11 नवम्बर 1888 को पैदा हुए मक्का में, वालिद का नाम था " मोहम्मद खैरुद्दीन" और अम्मी मदीना (अरब) की थीं। नाना शेख मोहम्मद ज़ैर वत्री ,मदीना के बहुत बड़े विद्वान थे। मौलाना आज़ाद अफग़ान उलेमाओं के ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे जो बाबर के समय हेरात से भारत आए थे। ये सज्जन जब दो साल के थे तो इनके वालिद कलकत्ता आ गए। सब कुछ घर में पढ़ा और कभी स्कूल कॉलेज नहीं गए। बहुत ज़हीन मुसलमान थे। इतने ज़हीन कि इन्हे मृत्युपर्यन्त "भारत रत्न " से भी नवाज़ा गया। इतने काबिल कि कभी स्कूल कॉलेज का मुंह नहीं देखा और बना दिए गए भारत के पहले केंद्रीय शिक्षा मंत्री। इस शख्स का नाम था "मौलाना अबुल कलम आज़ाद "।
इन्होने इस बात का ध्यान रखा कि विद्यालय हो या विश्वविद्यालय कहीं भी इस्लामिक अत्याचार को ना पढ़ाया जाए. इन्होने भारत के इतिहास को ही नहीं अन्य पुस्तकों को भी इस तरह लिखवाया कि उनमे भारत के गौरवशाली अतीत की कोई बात ना आए. आज भी इतिहास का विद्यार्थी भारत के अतीत को गलत ढंग से समझता है.
हमारे विश्वविद्यालयों में - गुरु तेग बहादुर, गुरु गोबिंद सिंह, बन्दा बैरागी, हरी सिंह नलवा, राजा सुहेल देव पासी, दुर्गा दास राठौर के बारे में कुछ नहीं बताया जाता..
आज की तारीख में इतिहास हैं। 1 ) हिन्दू सदैव असहिष्णु थे 2) मुस्लिम इतिहास की साम्प्रदायिकता को सहानुभूति की नज़र से देखा जाये।
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भारतीय संस्कृति की रीढ़ की हड्डी तोड़ने तथा लम्बे समय तक भारत पर राज करने के लिए 1835 में ब्रिटिश संसद में भारतीय शिक्षा प्रणाली को ध्वस्त करने के लिए मैकाले ने क्या रणनीति सुझायी थी तथा उसी के तहत Indian Education Act- 1858 लागु कर दिया गया।
अंग्रेज़ों ने " Aryan Invasion Theory" द्वारा भारतीय इतिहास को इसलिए इतना तोडा मरोड़ा कि भारतियों कि नज़र में उनकी संस्कृति निकृष्ट नज़र आये और आने वाली पीढ़ियां यही समझें कि अँगरेज़ बहुत उत्कृष्ट प्रशासक थे।
आज जो पढाया जा रहा है उसका सार है -
1) हिन्दू आर्यों की संतान हैं और वे भारत के रहने वाले नहीं हैं। वे कहीं बाहर से आये हैं और यहाँ के आदिवासियों को मार मार कर तथा उनको जंगलों में भगाकर उनके नगरों और सुन्दर हरे-भरे मैदानों में स्वयं रहते हैं।
2) हिन्दुओं के देवी देवता राम, कृष्ण आदि की बातें झूठे किस्से कहानियां हैं। हिन्दू महामूर्ख और अनपढ़ हैं।
3) हिन्दुओं का कोई इतिहास नहीं है और यह इतिहास अशोक के काल से आरम्भ होता है।
4) हमारे पूर्वज जातिवादी थे. मानवता तो उनमे थी ही नहीं..
5) वेद, जो हिन्दुओं की सर्व मान्य पूज्य पुस्तकें हैं ,गड़रियों के गीतों से भरी पड़ी हैं।
6) हिन्दू सदा से दास रहे हैं --कभी शकों के, कभी हूणों के, कभी कुषाणों के और कभी पठानों तुर्कों और मुगलों के।
7) रामायण तथा महाभारत काल्पनिक किस्से कहानियां हैं।
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15 अगस्त 1947, को आज़ादी मिली, क्या बदला ????? रंगमंच से सिर्फ अंग्रेज़ बदले बाकि सब तो वही चला। अंग्रेज़ गए तो सत्ता उन्ही की मानसिकता को पोषित करने वाली कांग्रेस और नेहरू के हाथ में आ गयी। नेहरू के कृत्यों पर तो किताबें लिखी जा चुकी हैं पर सार यही है की वो धर्मनिरपेक्ष कम और मुस्लिम हितैषी ज्यादा था। न मैकाले की शिक्षा नीति बदली और न ही शिक्षा प्रणाली। शिक्षा प्रणाली जस की तस चल रही है और इसका श्रेय स्वतंत्र भारत के प्रथम और दस वर्षों (1947-58) तक रहे शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल कलम आज़ाद को दे ही देना चाहिए बाकि जो कसर बची थी वो नेहरू की बिटिया इन्दिरा गाँधी ने तो आपातकाल में विद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला इतिहास भी बदल कर पूरी कर दी ।
जिस आज़ादी के समय भारत की 18.73% जनता साक्षर थी उस भारत के प्रधानमंत्री ने अपना पहला भाषण "tryst With Destiny" अंग्रेजी में दिया था आज का युवा भी यही मानता है कि यदि अंग्रेजी न होती तो भारत इतनी तरक्की नहीं कर पाता। और हम यह सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि पता नहीं जर्मनी, जापान,चीन इजराइल ने अपनी मातृभाषाओं में इतनी तरक्की कैसे कर ली।
आज तक हम इससे उबर नही सके हैं. 2018 में NCERT की वे किताबें हैं जो 2005 का संस्करण हैं.--
यह पढाया जा रहा है विद्यार्थियों को --
ICSE एक सरकारी परीक्षा संस्थान है जो CBSE की तरह पूरे भारत में मान्य है. संयोग से इसकी 2016 की इतिहास की पुस्तकें देखी.
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नमूना देखें --
कक्षा 6 -
1-
इतिहास की घटनाओं के समय का माप केवल ईसा के जन्म से पूर्व (BC बिफोर क्राईस्ट) या ईसा के बाद (AC आफ्टर क्राईस्ट) ! जैसे भारत का तो कोई समय था ही नहीं ?
2-
सिंधु घाटी में एक महान सभ्यता अस्तित्व में थी, जिसे आक्रान्ता आर्यों ने तहस नहस कर दिया.
३-
आक्रमण के बाद आर्य भ्रमित थे कि वे अपने वेदों के साथ यहाँ बसें या यहाँ से चले जाएँ ।
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4- उसके बाद सम्राट अशोक आते हैं है !! हर जगह बौद्ध धर्म का उल्लेख । उस समय तक मानो हिन्दू थे ही नहीं !
5-
गुप्तकाल। मानो समुद्रगुप्त पहला हिंदू शासक हो । क्योंकि वह सहिष्णु था और वह भी अपवादस्वरुप ।
पल्लव, चोल, चेर या तो वैष्णव थे अथवा शैव, हिन्दू नहीं । पूरी किताब में हिंदुओं का उल्लेख सिर्फ तीन बार ।
6-
मुखपृष्ठ से अंतिम पृष्ठ तक छठवीं क्लास के आईसीएसई के इतिहास में हिन्दू कहीं मौजूद ही नहीं है।
कुछ है तो आर्यों द्वारा किया गया सभ्यताओं का सफाया तथा बौद्धों पर जाति थोपने का उल्लेख ।
इन 40 पृष्ठों में 5000 से अधिक वर्षों पुरानी धार्मिक सभ्यता का उल्लेख तक नहीं है । पूरे 300 वर्ष के राजवंशों का इतिहास एक पैरा में निबटा दिया गया ।
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कक्षा 7 संक्षेप में --
कक्षा 7 की इतिहास की पुस्तक में ईसामसीह का प्रचार है और वह केवल इसी के लिए ही लिखी गई है ।
दुनिया भर में इस्लाम का खूनी विजय अभियान, अरबों द्वारा किया गया "एकीकरण" का प्रयास था, जिसने अनेक लेखक, विचारक और वैज्ञानिक दिए ।
तुर्की के आक्रमण से पहले भारत क्या था, इसका उल्लेख केवल दो पृष्ठों में हैं । जबकि हर क्रूर मुग़ल बादशाह पर पूरा अध्याय है।
भारत पर अरब आक्रमण एक अच्छी बात थी, उन्होंने हमें सांस्कृतिक पहचान दी । महमूद लुटने इसलिए आया क्योंकि उसे पैसे की जरूरत थी !
जिस कट्टरपंथी कुतबुद्दीन ऐबक ने 27 मंदिरों को नष्ट कर कुतुब मीनार बनबाई वह एक दयालु और उदार आदमी था !
बाबर ने अपने शासनकाल में धार्मिक सहिष्णुता की प्रवृत्ति शुरू की !
औरंगजेब एक रूढ़िवादी और भगवान से डरने वाला मुस्लिम संत था जो अपने जीवन यापन के लिए टोपियां सिलता था। वह अदूरदर्शी शासक अवश्य था ।
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कक्षा 8 से 10 तक संक्षेप में
संक्षेप में बताया जाता है कि मराठा साम्राज्य अस्तित्व में आने के पूर्व ही समाप्त हो गया ।
यहाँ भी ईसाई उत्पीड़न घुसाने का प्रयास, बाइबल पढ़ने वाले गुलामों को निर्दयतापूर्वक दंडित किया जाता था !
सिखाया जाता है कि गोरों का राष्ट्रवाद एक अच्छी बात है, किन्तु जब भारतीय राष्ट्रवादी हों तो वे अतिवादी हैं ।
जाटों का उल्लेख महज सात लाइनों में, और राजपूतों का 12 में मिलता है ! पंजाब का उल्लेख सीधे गुरु गोबिंद सिंह से शुरू होता है ।
उम्मीद के मुताबिक़ हैदर अली और टीपू सुल्तान को बेहतर दिखाया गया है । मैसूर किंगडम की शुरूआत हैदर अली से !
मराठाओं को बस एक पेज में लपेट दिया, शिवाजी को महज एक पंक्ति में । संभाजी कौन ? तो बस एक कमजोर उत्तराधिकारी!
मराठों सिर्फ एक क्षेत्रीय शक्ति थे, जबकि मुगलों और ब्रिटिश साम्राज्य थे।
मुगल साम्राज्य के पतन से अराजकता और अव्यवस्था फैली !
जिन महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य पंजाब, कश्मीर और पार तक था, उनका उल्लेख केवल 4 लाइनों में हो गया ।
कसाई टीपू को मैसूर का टाइगर बताया गया गया । एक प्रबुद्ध शासक जो अपने समय से आगे का विचार करता था!
तो औरंगजेब एक संत था और कुतबुद्दीन ऐबक एक दयालु, उदार व्यक्ति ! और टीपू तो निश्चित रूप से धर्मनिरपेक्ष, उदार और सहिष्णु था ही !!
मुरदान खान और खलील जैसे ठग देवी काली के उपासक थे जिन्होंने 2 लाख से अधिक लोगों की हत्याएं कीं !!
भारतीय समाज गड्ढे में पड़ा हुआ था इसलिए दमनकारी था। 1843 में अंग्रेजों ने यहाँ गुलामी को अवैध घोषित किया ! (है ना हैरत की बात ? उन्होंने भारत में गुलामी को अवैध घोषित किया अफ्रीका में नहीं !!)
भारतीय शिक्षा? मिशनरियों के आने के पूर्व केवल कुछ गिने चुने शिक्षक अपने घर में ही पढाया करते थे ।
जबकि सचाई यह है कि अकेले बिहार में ब्रिटेन से कहीं ज्यादा स्कूल और विश्वविद्यालय थे । बिटिश ने अपनी स्वयं की शिक्षा प्रणाली भारत के अनुसार बनाई ।
हिंदू धर्म को पुनर्जीवित करने वाली सुधारक केवल एनी बेसेंट थीं !!
संयोग से एक सच्चाई जरूर सामने आ गई, वह यह कि ह्यूम ने कांग्रेस का गठन 1857 जैसी घटनाएँ रोकने के लिए किया था, और यह काम कांग्रेस ने बहुत अच्छी तरह से किया भी !
युवाओं ने अभिनव भारत जैसी गुप्त गतिविधियों का संचालन किया, जिन्होंने भारत के बाहर काम किया, यहाँ भी वीर सावरकर का उल्लेख नहीं।
क्रांतिकारी आंदोलन का उल्लेख केवल एक पेज से भी कम में किया गया है। क्योंकि असली नायकों (गांधी, नेहरू) को ज्यादा स्थान की जरूरत है ।
नेहरू - गांधी को स्वतंत्रता का पूरा श्रेय दिया गया है !
गांधी-इरविन समझौते को इतना महत्व दिया गया है कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का बलिदान पूरी तरह गौण हो गया है ।
नेताजी और आजाद हिंद फौज का उल्लेख मात्र एक चौथाई पृष्ठ में मिलता है !
तो यह है हमारी आज की इतिहास शिक्षा का कच्चा चिट्ठा ! नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और उनकी सेना को एक चौथाई पेज, शिवाजी को एक लाइन, लेकिन चाचा जी का स्तवन भरपूर ।
और हाँ क्रिकेट तो भूल ही गए । इस औपनिवेशिक खेल को पूरे दो पृष्ठ, आखिर बोस, भगत सिंह और मराठा साम्राज्य की तुलना में यह अधिक महत्वपूर्ण जो हैं

शनिवार, अगस्त 11, 2018

आपने आजतक इस ब्लॉग की कितनी पोस्ट भिन्न भिन्न सोशल मीडिया पर शेयर की?

जवाब आप टिप्पणी से लिखे , स्वान्त सुखाय से काम नही चलेगा, दुसरो को भी इस ब्लॉग से अवगत कराओ । इतनी पोस्ट में से 10 तो आपने विचारो से मिलती ही होगी। 

गुरुवार, अगस्त 09, 2018

आज के खटिक कल के ब्राह्मण थे

आज के खटिक कल के ब्राह्मण थे
खटिक जाति मूल रूप से वो ब्राह्मण जाति है, जिनका काम आदि काल में याज्ञिक पशु बलि देना होता था | आदि काल में यज्ञ में बकरे की बलि दी जाती थी | संस्कृत में इनके लिए शब्द है, 'खटिटक' |
===मध्यकाल में जब क्रूर इस्लामी अक्रांताओं ने हिंदू मंदिरों पर हमला किया तो सबसे पहले खटिक जाति के ब्राह्मणों ने ही उनका प्रतिकार किया | राजा व उनकी सेना तो बाद में आती थी | मंदिर परिसर में रहने वाले खटिक ही सर्वप्रथम उनका सामना करते थे |
=====तैमूरलंग को दीपालपुर व अजोधन में खटिक योद्धाओं ने ही रोका था और सिकंदर को भारत में प्रवेश से रोकने वाली सेना में भी सबसे अधिक खटिक जाति के ही योद्धा थे | तैमूर खटिकों के प्रतिरोध से इतना भयाक्रांत हुआ कि उसने सोते हुए हजारों खटिक सैनिकों की हत्या करवा दी और एक लाख सैनिकों के सिर का ढेर लगवाकर उस पर रमजान की तेरहवीं तारीख पर नमाज अदा की
====मध्यकालीन बर्बर दिल्ली सल्तनत में गुलाम, तुर्क, लोदी वंश और मुगल शासनकाल में जब अत्याचारों की मारी हिंदू जाति मौत या इस्लाम का चुनाव कर रही थी तो खटिक जाति ने अपने धर्म की रक्षा और बहू बेटियों को मुगलों की गंदी नजर से बचाने के लिए अपने घर के आसपास सूअर बांधना शुरू किया |
=====इस्लाम में सूअर को हराम माना गया है। मुगल तो इसे देखना भी हराम समझते थे | और खटिकों ने मुस्लिम शासकों से बचाव के लिए सूअर पालन शुरू कर दिया | उसे उन्होंने हिंदू के देवता विष्णु के वराह (सूअर) अवतार के रूप में लिया | मुस्लिमों की गौहत्या के जवाब में खटिकों ने सूअर का मांस बेचना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे यह स्थिति आई कि वह अपने ही हिंदू समाज में पददलित होते चले गए | कल के शूरवीर ब्राह्मण अछूत और दलित श्रेणी में हैं |
===1857 की लडाई में मेरठ व उसके आसपास अंग्रेजों के पूरे के पूरे परिवारों को मौत के घाट उतारने वालों में खटिक समाज सबसे आगे था | इससे गुस्साए अंग्रेजों ने 1891 में पूरी खटिक जाति को ही वांटेड और अपराधी जाति घोषित कर दिया |
======जब आप मेरठ से लेकर कानपुर तक 1857 के विद्रोह की कहानी पढेंगे तो रोंगटे खडे हो जाए्ंगे | जैसे को तैसा पर चलते हुए खटिक जाति ने न केवल अंग्रेज अधिकारियों, बल्कि उनकी पत्नी बच्चों को इस निर्दयता से मारा कि अंग्रेज थर्रा उठे | क्रांति को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने खटिकों के गाँव के गाँव को सामूहिक रूप से फांसी दे दिया गया और बाद में उन्हें अपराधि जाति घोषित कर समाज के एक कोने में ढकेल दिया |
=======स्वतंत्रता से पूर्व जब मोहम्मद अली जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन की घोषणा की थी तो मुस्लिमों ने कोलकाता शहर में हिंदुओं का नरसंहार शुरू किया, लेकिन एक दो दिन में ही पासा पलट गया और खटिक जाति ने मुस्लिमों का इतना भयंकर नरसंहार किया कि बंगाल के मुस्लिम लीग के मंत्री ने सार्वजनिक रूप से कहा कि हमसे भूल हो गई | बाद में इसी का बदला मुसलमानों ने बंग्लादेश में स्थित नोआखाली में लिया | आज हम आप खटिकों को अछूत मानते हैं, क्योंकि हमें उनका सही इतिहास नहीं बताया गया है, उसे दबा दिया गया है |
======आप यह जान लीजिए कि दलित शब्द का सबसे पहले प्रयोग अंग्रेजों ने 1931 की जनगणना में 'डिप्रेस्ड क्लास' के रूप में किया था | उसे ही बाबा साहब अंबेडकर ने अछूत के स्थान पर दलित शब्द में तब्दील कर दिया | इससे पूर्व पूरे भारतीय इतिहास व साहित्य में 'दलित' शब्द का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है | ==========मुस्लिमों के डर से अपना धर्म नहीं छोड़ने वाले, हिंसा और सूअर पालन के जरिए इस्लामी आक्रांताओं का कठोर प्रतिकार करने वाले एक शूरवीर ब्राहमण खटिक जाति को आज दलित वर्ग में रखकर अछूत की तरह व्यवहार किया है और आज भी कर रहे हैं ====भारत में 1000 ईस्वी में केवल एक फीसदी अछूत जाति थी, लेकिन मुगल वंश की समाप्ति होते-होते इनकी संख्या चौदह फीसदी हो गई | आखिर कैसे ?
=======सबसे अधिक इन अनुसूचित जातियों के लोग आज के उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य भारत में है, जहाँ मुगलों के शासन का सीधा हस्तक्षेप था और जहाँ सबसे अधिक धर्मांतरण हुआ | आज सबसे अधिक मुस्लिम आबादी भी इन्हीं प्रदेशों में है, जो धर्मांतरित हो गये थे |
========डॉ सुब्रहमनियन स्वामी लिखते हैं, ''अनुसूचित जाति उन्हीं बहादुर ब्राह्मण व क्षत्रियों के वंशज है, जिन्होंने जाति से बाहर होना स्वीकार किया, लेकिन मुगलों के जबरन धर्म परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया | आज के हिंदू समाज को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए, उन्हें कोटिश: प्रणाम करना चाहिए, क्योंकि उन लोगों ने हिंदू के भगवा ध्वज को कभी झुकने नहीं दिया, भले ही स्वयं अपमान व दमन झेला |''
=======प्रोफेसर शेरिंग ने भी अपनी पुस्तक 'हिंदू कास्ट एंड टाईव्स' में स्पष्ट रूप से लिखा है कि भारत के निम्न जाति के लोग कोई और नहीं, बल्कि ब्राह्मण और क्षत्रिय ही हैं | स्टेनले राइस ने अपनी पुस्तक "हिन्दू कस्टम्स एण्ड देयर ओरिजिन्स" में यह भी लिखा है कि अछूत मानी जाने वाली जातियों में प्रायः वे बहादुर जातियां भी हैं, जो मुगलों से हारीं तथा उन्हें अपमानित करने के लिए मुसलमानों ने अपने मनमाने काम करवाए थे |
====यदि आज हम बचे हुए हैं तो अपने इन्हीं अनुसूचित जाति के भाईयों के कारण जिन्होंने नीच कर्म करना तो स्वीकार किया, लेकिन इस्लाम को नहीं अपनाया |
====धन्य हैं हमारे ये भाई जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी अत्याचार और अपमान सहकर भी हिन्दुत्व का गौरव बचाये रखा और स्वयं अपमानित और गरीब रहकर भी हर प्रकार से भारतवासियों की सेवा की | हमारे अनुसूचित जाति के भाइयों को पूरे देश का प्रणाम |
साभार : ======-
1. हिंदू खटिक जाति: एक धर्माभिमानी समाज की उत्पत्ति, उत्थान एवं पतन का इतिहास, लेखक- डॉ विजय सोनकर शास्त्री, प्रभात प्रकाशन
2. आजादी से पूर्व कोलकाता में हुए हिंदू मुस्लिम दंगे में खटिक जाति का जिक्र, पुस्तक 'अप्रतिम नायक :- श्यामाप्रसाद मुखर्जी' में आया है | यह पुस्तक भी प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है।
साभार-कॉपीड-अज्ञात

मंगलवार, अगस्त 07, 2018

अमेरिका हो या पाकिस्तान, मॉरिशस हो या सुरीनाम, भोजपुरी की है अपनी एक अलग पहचान

भोजपुरी भाषा का इतिहास 7वीं सदी से शुरू होता है - 1000 से अधिक साल पुरानी! गुरु गोरख नाथ 1100 वर्ष में गोरख बानी लिखा था। संत कबीर दास (1297) का जन्मदिवस भोजपुरी दिवस के रूप में भारत में स्वीकार किया गया है 
 "हल्लो! आदाब! नमस्कार! रउआ पढ़त बानी ग़ज़बपोस्ट, पेस बा देस अउर दुनिया के तमाम खबर." क्या आपको ये लाइन समझ में आई? 'तू लगावे लू जब लिपिस्टिक, हिलेला आरा डिस्टिक' अब ये समझ में आया? अब आप कहेंगे- अरे ये तो भोजपुरी है. जी हां! ये भोजपुरी ही है. कई विद्वानों का मानना है कि भोजपुरी दुनिया की सबसे मीठी बोली है. दुनिया की एकमात्र बोली, जिसे कई देशों में बोला जाता है. भोजपुरी की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसे नहीं समझने वाले भी इसकी मिठास से दूर नहीं रह पाते हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार, हिन्दुस्तान की 5 करोड़ और विश्व की कुल 7 करोड़ आबादी भोजपुरी बोलती है. इसका मतलब ये हुआ कि विश्व की कुल 12 करोड़ आबादी भोजपुरी बोलती है. संख्या के हिसाब से भोजपुरी विश्व की 10वीं सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है. ये सुनने में थोड़ा रोचक लग सकता है. लेकिन इसके पीछे कई कहानियां भी छिपी हैं. हम आपके लिए भोजपुरी के बारे में कुछ ऐसे ही तथ्य लेकर आए हैं, जिनके बारे में जान कर आप भी हिन्दुस्तानी होने पर गर्व करेंगे.
भोजपुरी बोली से कैसे बनी?

दरअसल, बिहार के आरा जिले से भोजपुरी भाषा का विकास हुआ. मध्य काल में मध्य प्रदेश के उज्जैन से भोजवंशी परमार राजा आकर आरा में बस गए. उन्होंने अपनी इस राजधानी को अपने पूर्वज राजा भोज के नाम पर रखा था. इसी वजह से यहां बोले जाने वाली भाषा का नाम "भोजपुरी" पड़ गया.
Source: Newsgram
हिन्दुस्तान में भोजपुरी




पिछले दिनों एक संस्था ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा कि भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में न शामिल किया जाये. दूसरी तरफ बनारस में कुछ भोजपुरी भाषाप्रेमियों ने ‘भोजपुरी माई’ की प्रतिमा स्थापित की. किसी भी भाषा के संवर्द्धन के लिए दूसरी भाषा को कमतर करके आंंकने से ज्यादा जरूरी है कि उस भाषा में अपने समय का बेहतरीन रचनाएं रची जाएं. इतना ही जरूरी है कि भाषा को धार्मिक पहचान से न जोड़ा जाये. पढ़िए एक जरूरी टिप्पणी.
पिछले कुछ दिनों से भाषा की दुनिया में ‘कुछ-कुछ’ चल रहा है. विशेषकर हिंदी और हिंदीभाषी इलाके की सर्वाधिक लोकप्रिय भाषा भोजपुरी के इलाके में. पिछले दिनों ‘हिंदी बचाओ मंच’ नामक एक संस्था के 110 विद्वानों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर आग्रह किया कि भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं कीजिए. यह भाषा शामिल करने योग्य नहीं है, कसौटी पर फिट नहीं है. भोजपुरी के खिलाफ उनके तथ्य और तर्क की बात छोड़ भी दें तो मजेदार कहें या कि दुखदायी, वह यह रहा कि ‘हिंदी बचाओ मंच’ जैसी कोई संस्था चलती है, यह भी हिंदी के लोगों ने पहली बार जाना. खैर! इस मंच ने जो किया वह तो अलग प्रसंग रहा. इन दिनों भोजपुरी में नये किस्म के शुभचिंतक दिखे हैं. वह भी भोजपुरी के राजधानी शहर बनारस में. उन्होंने आनन-फानन में भोजपुरी माई की प्रतिमा स्थापित कर दी और विधिवत फूल-रोड़ी-अक्षत आदि से पूजा-अर्चना शुरू कर दी.

 सुनने में आ रहा है कि भोजपुरी माई की विशाल प्रतिमा स्थापित करने की योजना है. प्रतिमा के जरिये कीर्तिमान स्थापित करने की तैयारी है. ये कौन लोग हैं भोजपुरी के और कैसे ​शुभेच्छु हैं भोजपुरी के, खुदा जाने. जिन्हें इतना भी ज्ञान नहीं कि भाषा माई होती है, मातृभाषा कहते हैं, माईभाषा कहते हैं तो वह देवी-देवता वाली मां से तुलना नहीं करते, सगी मां, जनम देनेवाली मां का भाव छुपा होता है उसमें. ये कौन लोग हैं, जो भोजपुरी का मूल मर्म तक नहीं जानते. इन्हें यही नहीं मालूम कि कि कोई भी भाषा धर्म से बहुत आगे की चीज होती है.

 भाषा कभी धर्म पर निर्भर नहीं रहती, वह अपना विस्तार धर्म, जाति, संप्रदाय का बंधन तोड़ समुदाय मात्र से रिश्ता जोड़ कर करती है. पता नहीं कैसे शुभेच्छु हैं, जिन्हें भोजपुरी के बारे में ककहरा तक की जानकारी नहीं, नहीं तो ऐसी बचकाना हरकत तो कभी नहीं करते.

इन्हें नहीं मालूम कि आज अगर भोजपुरी देश के 24 जिले, अनेकानेक शहरों, दुनिया के सात देशों के दायरे को तोड़ अपना अपार विस्तार करते हुए उत्तर और पूर्वी भारत की एक प्रमुख भाषा बन गयी है तो अपने स्वभाव के कारण ही.

भोजपुरी एक ऐसी भाषा है, जिसके नायकों पर गौर करेंगे तो पायेंगे कि आरंभ से ही भोजपुरी भाषी समाज ने धर्म, जाति, संप्रदाय की परिधि में भाषा को नहीं बंधने दिया है. गुरु गोरखनाथ को पुरखा माना तो कबीर को आदिकवि. भिखारी ठाकुर जाति के नाई थे. सामाजिक-राजनीतिक गलियारे में भले ही जाति को लेकर बहस चलती रही, लेकिन भोजपुरी समाज ने अपने इस नायक को दुनिया भर में फैलाया, स्थापित करवाया. यह सब किसी सरकारी प्रयास या मठ-सठ की वजह से नहीं हुआ, भोजपुरिया जमात के साझा प्रयास से हुआ. हीरा डोम ने 103 साल पहले कविता लिखी थी भोजपुरी में- अछूत की शिकायत. जाति से डोम थे. भोजपुरी समाज ने उन्हें नायक माना. रसूल मियां का नाम नहीं जानते होंगे ये लोग, जिन्होंने भोजपुरी को मार्इ बनाने की कोशिश की है.

रसूल मियां ने भोजपुरी भाषा को औजार और ह​थियार बना कर जनता को गोलबंद किया था, आजादी के परवाने थे महान सर्जक रसूल मियां. तेग अली तेग की रचनाओं से नहीं गुजरे होंगे ये लोग, जिन्होंने भोजपुरी को देवी माई बनाने की कोशिश की है. जिस बनारस में इस प्रतिमा को स्थापित कर रहे हैं, उस बनारस के संत-फकीर बिस्मिल्लाह खान को नहीं जानते होंगे ये लोग! जिंदगी भर ठेठ बनारसी और भोजपुरिया बने रहनेवाले बिस्मिल्ला खान के व्यक्तित्व-कृतित्व की दुनिया तो जानते कम से कम, तब भाषा को देवी माई नहीं बनाते. नामालूम मोहम्मद खलील का नाम सुना भी है या नहीं इनलोगों ने. मोहम्मद खलील अपने जमाने के मशहूर गायक हुए.

नजीर हुसैन का भी नाम तो सुने ही होंगे, पहली भोजपुरी फिल्म ' हे गंगा मइया तोहे पीयरी चढ़ईबो' बनवाने के सूत्रधार. इन्हें तो यह भी नहीं मालूम होगा कि तैयब हुसैन पीड़ित हैं कोई, जिन्होंने भिखारी ठाकुर पर पहला शोध शुरू किया और उसके बाद निरंतर भोजपुरी की सेवा की. इन्हें जौहर शफियाबादी के बारे में भी शायद ही मालूम होगा, जो संत-पीर-फकीर हैं और आज भोजपुरी के बड़े सेवी, बड़े विद्वान, जिन्होंने महेंदर मिसिर के जीवनी पर भोजपुरी में किताब लिखी- ‘पुरबी के धाह’ और ‘रंगमहल’ नाम से भोजपुरी गजलों का संग्रह लाया. युवा रचनाकारों में मोतिहारी में रहनेवाले गुलरेज शहजाद का नाम भी नहीं सुने होंगे. गुलरेज चंपारण के इलाके में ही नहीं, भोजपुरी इलाके में भोजपुरी संस्कृति के एक बड़े जागरूक कर्मी हैं रचनाकार भी.

जिन्होंने बनारस में भोजपुरी माई की प्रतिमा स्थापित कर अब विशाल प्रतिमा के नाम पर प्रचार अभियान शुरू किया है, वे दरअसल भोजपुरी जैसी उदार, सहज और जाति-संप्रदाय-धर्म मुक्त भाषा के दुश्मन हैं. उन्हें तुरंत अपना नाम चाहिए. अखबार में फोटो चाहिए. सस्ती लोकप्रियता चाहिए, इसलिए बनारस, जो सभी देवी-देवताओं का वास स्थल है, जहां हर गली में मंदिर है, हर घर में मंदिर है, वहां एक और हिंदू स्वरूप में देवी को स्थापित कर देना चाहते हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)


वैसे तो हिन्दुस्तान में भोजपुरी बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में प्रमुखता से बोली जाती है. श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश के सभी हिस्सों में भोजपुरी बोलने वाले मिल जाएंगे.
Source: Youtube
भोजपुरी और हिन्दुस्तान

हिन्दुस्तान में भोजपुरी महज एक बोली नहीं, बल्कि एक इंडस्ट्री है. व्यवसाय, मनोरंजन और साहित्य में भोजपुरी ने पूरे हिन्दुस्तान में अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है. आज भोजपुरी सिनेमा करीब 20,000 करोड़ रुपये की हो गई है. टीवी के 52 चैनल सिर्फ़ भोजपुरी के ही हैं. इस आधार पर हम कह सकते हैं कि भोजपुरी के बिना हिन्दुस्तानी बोली की कल्पना ही नहीं की जा सकती है.
Source: torna
अंतर्राष्ट्रीय होती भोजपुरी

विश्व में करीब 8 देश ऐसे हैं, जहां भोजपुरी धड़ल्ले से बोली जाती है और सुनी भी जाती है. ये सुनने में भले थोड़ा अजीब लगे, लेकिन ये बिल्कुल सच है. परिस्थितियों के कारण बिहार के लोगों को अन्य देशों में जाना पड़ा. ऐसे में वे वहीं के हो गए, मगर अपनी बोली को अपने साथ सदैव बनाए रखा.

सोमवार, अगस्त 06, 2018

वैदिक अस्त्र शस्त्र

शनीस आर्य
वंदे भारतभूमि
मंत्रों से संचालित होने वाले दिव्यास्त्र....
वेदों में 18 युद्ध कलाओं के विषयों पर मौलिक ज्ञान अर्जित है। प्राचीन वैदिक काल में आज के सभी तरह के आधुनिक अस्त्र-शस्त्र थे। इसका उल्लेख वेदों में मिलता है। उस काल की तकनीक आज के काल से भिन्न थी लेकिन अस्त्रों की मारक क्षमता उतनी ही थी जितनी कि आज के काल के अस्त्रों की है। हालांकि ये किस तकनीक से संचालित होते थे, यह शोध का विषय हो सकता है, लेकिन यह तो तय था कि वे सभी दिव्यास्त्र मंत्रों की शक्ति से ही संचालित होते थे। अब सवाल यह उठता है कि कैसे?
दो प्रकार के संहारक होते हैं:- अस्त्र और शस्त्र।
1.अस्त्र : 'अस्त्र' उसे कहते थे, जो किसी मंत्र या किसी यंत्र द्वारा संचालित होते थे। मंत्र और यंत्र द्वारा फेंके जाने वाले अस्त्र बहुत ही भयानक होते थे। इनसे चारों तरफ हाहाकार मच जाता था। जैसे वर्तमान में यंत्र से फेंके जाने वाले अस्त्र तोप होती है। मंत्र से जैसे ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, पर्जन्यास्त्र आदि।
2.शस्त्र : शस्त्र : हाथों से चलाए जाने के कारण इन्हें शस्त्र कहते हैं। शस्त्र दो प्रकार के होते थे यंत्र शस्त्र और हस्त शस्त्र। यंत्र शस्त्र के अंतर्गत शक्ति, तोमर, पाश, बाण सायक, शण, तीर, परिघ, भिन्दिपाल, नाराच आदि होते थे। हस्त शस्त्र के अंतर्गत ऋष्टि, गदा, चक्र, वज्र, त्रिशूल, असि, खंजर, खप्पर, खड्ग, चन्द्रहास, फरसा, मुशल, परशु, कुण्टा, शंकु, पट्टिश, वशि, तलवार, बरछा, बरछी, कुल्हाड़ा, चाकू, भुशुण्डी आदि। उक्त सभी से युद्ध लड़ा जाता था।
दिव्यास्त्रों की जानकारी :
मंत्र द्वारा संचालित अस्त्रों को दिव्यास्त्र कहा जाता है। प्राचीनकाल में दिव्यास्त्र चलाने की विद्या कुछ खास लोगों को ही सिखायी जाती थी। कर्ण ने ब्रह्मास्त्र चलाने के लिए परशुराम से शिक्षा ली थी। इस तरह द्रोणाचार्य ने कौरवों सहित पांचों पांडवों को शिक्षा दी थी।
अस्त्रों के प्रमुख प्रकार : 1. दिव्यास्त्र और 2. यांत्रिकास्त्र।
1. दिव्यास्त्र : वे अस्त्र जो मंत्रों से चलाए जाते थे, उन्हें दिव्यास्त्र कहते हैं। प्रत्येक अस्त्र पर भिन्न-भिन्न देव या देवी का अधिकार होता है और मंत्र-तंत्र द्वारा उसका संचालन होता है। वस्तुत: इन्हें दिव्य तथा मांत्रिक-अस्त्र कहते हैं।
दिव्यास्त्रों के नाम : 1. आग्नेयास्त्र, 2. पर्जन्य, 3. वायव्य, 4. पन्नग, 5. गरूड़, 6. नारायणास्त्र, 7. पाशुपत, 8. ब्रह्मशिरा, 9. एकागिन्न 10. अमोघास्त्र और 11. ब्रह्मास्त्र। इसके अलावा कुछ ऐसे भयानक अस्त्र थे जो यंत्र या तंत्र से संचालित होते थे।
दिव्यास्त्रों का प्रभाव : कहते हैं कि आग्नेयास्त्र से आसमान से अग्नि बरसती है तो पर्जन्य से भारी बारिश। इसी तरह वायव्य से आंधी और तूफान शुरू हो जाते थे। सभी अस्त्र शस्त्रों का प्रभाव इतना घातक था कि संपूर्ण युद्ध स्थल का वातावरण भयावह हो जाता था। इनसे बचना मुश्किल ही होता था। जो इन अस्त्रों की काट जानता था वही बच सकता था।
कैसे दिव्यास्त्रों को साधा जा सकता है?
इसके लिए बहुत कठिन तप करना होता है। सर्वप्रथम पर व्रत, उपवास, ध्यान आदि करके मन को काबू में करने पांचों इंद्रियों को संचालित करने की शक्ति अर्जित की जाती है। जो व्यक्ति एकचित्त हो जाता है वही दिव्यास्त्र को प्राप्त करने की क्षमता रखता है। प्रत्येक शस्त्र पर भिन्न-भिन्न देव या देवी का अधिकार होता है और मंत्र, तंत्र और यंत्र के द्वारा उसका संचालन होता है। मंत्रों के बारे मे महादेवेन कीलितम में लिखा है कि आपके अन्दर योग्यता ,पात्रता और पवित्रता है तो मंत्र का प्रयोग आप कर सकते हैं अन्यथा नहीं।
ब्रह्मास्त्र क्या है?
ब्रह्मास्त्र अचूक अस्त्र है, जो शत्रु और उसके पक्ष का नाश करके ही छोड़ता है। इसका प्रतिकार दूसरे ब्रह्मास्त्र से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। महर्षि वेदव्यास लिखते हैं कि जहां ब्रह्मास्त्र छोड़ा जाता है वहां 12 वर्षों तक पर्जन्य वृष्टि (जीव-जंतु, पेड़-पौधे आदि की उत्पत्ति) नहीं हो पाती।' इसका मतलब यह कि यह परमाणु बम जैसे है। रामायण काल में भी परमाणु अस्त्र छोड़ा गया था और महाभारत काल में भी। ब्रह्मास्त्र का प्रयोग महाभारत में अर्जुन और अश्वत्थामा के अलावा कर्ण जानता था। परन्तु अपने गुरु परशुराम के शाप के कारण कर्ण अपने अंत समय में इसके प्रयोग करने की विद्या भूल गया था।
ब्रह्मशिरा : इसकी शक्ति ब्रह्मास्त्र जैसी ही थी। यह एक महाविनाशकारी अस्त्र था। ब्रह्मशिरा का अर्थ होता है ब्रह्माजी के सिर। इसका प्रयोग महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण, गुरु द्रोण और अर्जुन ही जानते ते। अश्वत्थामा भी इसका प्रयोग करना जानता था लेकिन वह इसको वापस लेना नहीं जानता था। युद्ध के अंत में उसने क्रोधवश यह चला दिया था। जवाब में अर्जुन ने भी अश्वत्थामा पर ब्रह्मशिरा का प्रयोग कर दिया।
परन्तु बाद में जब ऋषि मुनियों ने अर्जुन एवं अश्व्थामा को समझाया की इन दो महाविनाशकारी अस्त्रों के आपस में टकराने से पृथ्वी में प्रलय आ जाएगी तब अर्जुन ने इसे वापस ले लिया कुंति अश्वत्थामा ऐसा नहीं कर पाया और उसने इस अस्त्र को अर्जुन की पुत्रवधु उत्तरा के गर्भ की ओर मोड़ दिया। इससे उत्तरा का गर्भ मृत हो गया। भगवान श्री कृष्ण को अश्वत्थामा के इस कृत्य पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने अश्वत्थामा तीन हजार वर्षों बीमारियों के साथ भटकने का शाप दे दिया। बाद में उन्होंने उत्तरा के गर्भ को फिर से जीवित भी कर दिया था।
वासवी शक्ति:- इसे अमोघ अस्त्र भी कहा जाता है। यह महाविनाशकारी अस्त्र इंद्र के पास था। इस अस्त्र की खासियत यह थी कि इसे एक बार ही प्रयोग किया जा सकता था और यह अचूक था। कर्ण को यह अस्त्र इंद्र ने कवच कुंडल के एवज में दिया था। कर्ण इस अस्त्र का प्रयोग अर्जुन पर करना चाहता था। परन्तु कर्ण को वासवी शक्ति अस्त्र का प्रयोग न चाहते हुई भी अपने मित्र दुर्योधन के कहने पर अति शक्तिशाली योद्धा घटोत्कच पर करना पड़ा।
पाशुपत अस्त्र :- महादेव शिव का पाशुपत अस्त्र महाविनाशकारी अस्त्र है। इससे सम्पूर्ण विश्व का नाश कुछ ही पलो में हो सकता है। इस अस्त्र की खासियत यह है कि इसका प्रयोग केवल दुष्टों के वध के लिए ही किया जाता है अन्यथा यह अस्त्र पलटकर प्रयोग करने वाले को मार देता है।
नारायणास्त्र:- यह अस्त्र भी पाशुपतास्त्र के समान ही महाविनाशकारी है। नारायण अस्त्र से बचने का कोई उपाय नहीं है। यदि इस अस्त्र का प्रयोग एक बार किया जाता है तो समूर्ण संसार में कोई ऐसी शक्ति नहीं जो इसे रोक सके। इस अस्त्र को सिर्फ एक ही तरीके से रोका जा सकता है और वह है अपने सभी अस्त्र त्याग कर नर्मतापूर्वक अपने आप को समर्पित कर देना। क्योंकि यदि शत्रु कहीं भी होगा तो नारायणास्त्र उसे ढूढ़कर उसका वध कर ही देता है। केवल इसके सामने खुद को समर्पित कर देना ही इसके प्रभाव से बचने का उपाय है।
इस तरह हमने देखा की दिव्यास्त्र कई तरह के होते हैं परन्तु इन्हें साधने के लिए खुद को तप में तपाना होता है। प्रत्येक दिव्यास्त्र को साधने के लिए वेदों में मंत्र दिए गए हैं। वेदों के वे मंत्र यहां नहीं दिए जा रहे हैं। यदि आप चाहते हैं कि आप भी दिव्यास्त्रों की शक्ति से संपन्न हो जाएं तो इसके लिए आपको वेद और उपनिषदों का गहन अध्ययन करना होगा।
शस्त्र क्या होते हैं?
शस्त्र : हाथों से चलाए जाने के कारण इन्हें शस्त्र कहते हैं। शस्त्र दो प्रकार के होते थे यंत्र शस्त्र और हस्त शस्त्र। उस काल में युद्ध के दौरान शरीर के विभिन्न अंगों की रक्षा का उल्लेख भी मिलता है। उदाहरणार्थ शरीर के लिए चर्म तथा कवच का, सिर के लिए शिरस्त्राण और गले के लिए कंठत्राण इत्यादि का।
शस्त्र के सामान्य भाग:
1. काटने वाले शस्त्र, जैसे तलवार, परशु आदि।
2. भोंकने वाले शस्त्र, जैसे बरछा, त्रिशूल आदि।
3. कुंद शस्त्र, जैसे गदा, लट्ठ आदि।
*यंत्र शस्त्र : यंत्र शस्त्र के अंतर्गत शक्ति, तोमर, पाश, बाण सायक, शण, तीर, परिघ, भिन्दिपाल, नाराच आदि होते थे।>
*हस्त्र शस्त्र : हस्त शस्त्र के अंतर्गत ऋष्टि, गदा, चक्र, वज्र, त्रिशूल, असि, खंजर, खप्पर, खड्ग, चन्द्रहास, फरसा, मुशल, परशु, कुण्टा, शंकु, पट्टिश, वशि, तलवार, बरछा, बरछी, कुल्हाड़ा, चाकू, भुशुण्डी आदि। उक्त सभी से युद्ध लड़ा जाता था।
अस्त्र क्या होते हैं?
'अस्त्र' उसे कहते थे, जो किसी मंत्र या किसी यंत्र द्वारा संचालित होते थे। मंत्र और यंत्र द्वारा फेंके जाने वाले अस्त्र बहुत ही भयानक होते थे। इनसे चारों तरफ हाहाकार मच जाता था। जैसे वर्तमान में यंत्र से फेंके जाने वाले अस्त्र तोप होती है।
अस्त्र के सामान्य भाग:-
1. हाथ से फेंके जाने वाले अस्त्र, जैसे भाला, त्रिशुल आदि।
2. वे अस्त्र जो यंत्र द्वारा फेंके जाते हैं, जैसे बाण, गुलेल आदि।
3. वे अस्त्र जो मंत्र या तंत्र द्वारा फेंके जाते हैं, जैसे नारायाणास्त्र, पाशुपत ब्रह्मास्त्र आदि।
यजुर्वेद के उपवेद धनुर्वेद में अस्त्र और शस्त्रों के संबंध में विस्तार से बताया गया है। अस्त्र शस्त्रों के संबंध में धनुर्वेद, धनुष-चन्द्रोदय और धनुष-प्रदीप इन 3 प्राचीन ग्रंथों का अक्सर जिक्र होता है। अग्नि पुराण में धनुर्वेद के विषय में उल्लेख किया गया है कि उसमें अस्त्रों के प्रमुख 4 भाग बताए गए हैं- 1. अमुक्ता, 2. मुक्ता, 3. मुक्तामुक्त और 4. मुक्तसंनिवृत्ती।
*अमुक्ता : अमुक्ता को शस्त्रों की श्रेणी में रखा गया है। ये वे शस्त्र होते थे, जो फेंके नहीं जा सकते थे। अमुक्ता के 2 प्रकार हैं- 1. हस्त-शस्त्र : हाथ में पकड़कर आघात करने वाले हथियार जैसे तलवार, गदा आदि। 2. बाहू-युद्ध : नि:शस्त्र होकर युद्ध करना।
* मुक्ता : मुक्ता को अस्त्रों की श्रेणी में रखा गया, जो फेंके जा सकते थे। मुक्ता के 2 प्रकार हैं:- 1. पाणिमुक्ता : अर्थात हाथ से फेंके जाने वाले अस्त्र जैसे भाला और 2. यंत्रमुक्ता : अर्थात यंत्र द्वारा फेंके जाने वाले अस्त्र जैसे बाण, जो धनुष से फेंका जाता है।
*मुक्तामुक्त : हाथ में पकड़कर किंतु अस्त्र की तरह प्रहार करने वाले शस्त्र जैसे कि बर्छी, त्रिशूल आदि। अर्थात वे शस्त्र जो फेंककर या बिना फेंके दोनों प्रकार से प्रयोग किए जाते थे।
*मुक्तसंनिवृत्ती : वे शस्त्र जो फेंककर लौटाए जा सकते थे, जैसे चक्र आदि।