क्या मनमोहनसिंह भारत के प्रधानमंत्री हैं ?
Posted on मार्च 14, 2011 by surenderachaturvedi
जब जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दिखते हैं तो उनकी भाव भंगिमा देखकर एक ही प्रश्न परेशान करता है कि क्या मनमोहन सिंह अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ या फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस जरकोजी या रूसी राष्ट्रपति दिमित्र मेदेवदेव या इंग्लैंड के प्रधानमंत्री डेविड केमरुन जितने असरदार और चमकदार राजनेता हैं? और क्या विनम्र और धीमी आवाज वाले विद्वान मनमोहन सिंह कहीं से भी पूरे विश्व को और भारत के नागरिकों को भारत का प्रधानमंत्री होने का आभास दे पा रहे हैं हैं ।
प्रश्न यह भी है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के स्वाभिमान का उत्कट और चमकता हुआ चेहरा हैं, और उसी तरह पूरे विश्व में भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं जैसा कि पूर्व में नेहरू, इंदिरा, राजीव, नरसिंहराव, चंद्रशेखर या अटलबिहारी वाजपेयी करते थे या मनमोहन सिंह किसी राज्य सरकार के मुख्य सचिव या ऐसे ही किसी नौकरशाह की तरह दिखते हैं, जिसकी जिम्मेदारी अपने बॉस के आदेशों को पूरा करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। चाहे देश की आवाज कुछ भी हो और बॉस कितना ही पथभ्रष्ट क्यों ना हो?
तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ खड़ा होता है कि भारत का प्रधानमंत्री कैसा होना चाहिये? क्या हमें ऐसा प्रधानमंत्री चाहिये जो एक बार भी लोकसभा से चुनकर नहीं आया हो, और ना ही लोकसभा चुनाव लड़कर सदन में आने की इच्छा रखता हो। और यह भी कि वह व्यक्ति भारत के नागरिकों द्वारा चुनी गई लोकसभा का कभी सदस्य ही नहीं रहा और प्रधानमंत्री बनने के बावजूद उसने कभी लोकसभा में जाने और उसका नेतृत्व करने की चुनौती को स्वीकार नहीं किया। यह प्रश्न उस व्यक्ति के लिए आश्चर्यजनक लग सकता है जो विगत 7 सालों से देश के प्रधानमंत्री के रूप में काम कर रहा हो, और जरा यह भी सोचने की बात यह भी है कि इन 7 सालों में उस प्रधानमंत्री से जनता से सीधे संवाद के लिए कितनी जनसभाओं को संबोधित किया है?
क्या संविधान के निर्माताओं ने इसी दिन के लिए राज्यसभा की रचना की थी कि देश की बागडोर संभालने वाला व्यक्ति लोकसभा में आने के लिए निर्धारित चुनाव प्रक्रिया का पालन नहीं करे और संविधान में प्रदत्त इस छूट का इस्तेमाल पद पर बने रहने के लिए करे? यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी जगह सही हैं तो फिर प्रश्न यह भी उठता है कि नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक जितने भी प्रधानमंत्री इस देश में हुए हैं, उन्होंने लोकसभा का चुनाव ही क्यों लड़ा? क्या उनके लिए राज्यसभा में निर्वाचित होना दुरूह कार्य था?
1991 में नरसिंहराव मंत्री मंडल में वित्त मंत्री के रूप में शामिल हुए मनमोहन सिंह ने राज्यसभा के जरिये देश की सर्वोच्च नियामक संस्था संसद में प्रवेश किया। उनका पहला कार्यकाल 4 वर्ष के लिए था। उसके बाद से लेकर आज तक वे 3 बार संसद में पहुंचते रहे हैं और हर बार वे जनता द्वारा चुने जाने की अपेक्षा पार्टी के प्रतिनिधि बनकर राज्यसभा में ही पहुंचते हैं। तो क्या ये माना जाना चाहिये कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जवाबदेही देश की जनता के प्रति नहीं अपितु पार्टी के पदाधिकारियों के प्रति है, जो उनका राज्यसभा में जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। क्या यह प्रश्न भी नहीं पूछा जाना चाहिये कि हमारे प्रधानमंत्री लोकसभा चुनावों से क्यों कतराते हैं? 1991 से लेकर आज तक 4 बार आम चुनाव हो चुके हैं और 1998 के लोकसभा चुनावों में नई दिल्ली से चुनाव लड़ने (जिसमें वे पराजित हो गये थे) के अलावा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कभी कोई और चुनाव लड़ने का प्रयास ही नहीं किया।
बात सिर्फ राजनीतिक व्यवस्था के तहत एक पद को भरे जाने की नहीं है। यह प्रश्न सांस्कुतिक और भाषाई विविधता वाले दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र के नेतृत्व का है। यदि पद ही भरना होता तो सोनिया गांधी भी भर सकती थीं, लेकिन उनका विरोध राजनीतिक दलों ने इस आधार पर किया कि वे सम्पूर्ण विश्व में भारत का चेहरा नहीं हो सकती ? वे स्व0 राजीव गांधी की पत्नी हो सकती हैं लेकिन इंदिरा नहीं हो सकती। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले ही ईमानदार और बुद्धिमान व्यक्ति की तरह जाने जाते हैं लेकिन वे भारत के गौरवशाली अतीत और उसके आत्म स्वाभिमान को प्रकट नहीं करते। उनकी छवि एक ऐसे प्रशासक के रूप में उभरकर सामने आ रही है जो बेबस और बेचारा है। जिसका इकबाल ना तो उसके मंत्री मंडलीय सहयोगी ही मानते हैं और ना ही उनका राजनीतिक दल। वे तो एक ऐसे बडे बाबू की तरह दिख रहे हैं जिनकी नाक के नीचे 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो जाता है, और वे कुछ नहीं कर पाते। एक मंत्री क्रिकेट मैच में अपनी हिस्सेदारी तय करता है और उन्हैं पता नहीं चलता, एक मंत्री अपनी गलत नीतियों के कारण महंगाई को बढ़ाकर मुनाफाखोरी को बढ़ावा दे रहा है और वे बेबस हैं। पूरा देश चीख चीख कर भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ सड़कों पर आ रहा है और वे मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर भ्रष्ट आचरण के दोषी व्यक्ति को ’अज्ञानवश‘ नियुक्त कर देते हैं।
वे पाकिस्तान के साथ परदे के पीछे ना जाने क्या बात करते हैं जिसका पता मंत्री मंडलीय सहयोगियों को भी नहीं होता है, विपक्ष की बात तो बहुत दूर की रही। वे कहने को तो सरकारी खजाने से एक रूपये का वेतन लेते हैं लेकिन उन्हीं के नेतृत्व में चल रही सरकार की अनियमितताओं पर वे कोई जवाब दे नहीं पाते।
इसलिये जब हम सांस्कृतिक और भाषाई विविधता और विशाल लोकतंत्र वाले भारत के नेतृत्व की बात करते हैं तो निश्चित ही सरदार मनमोहन सिंह बौने नजर आते हैं। स्वतंत्र भारत में इतना कमजोर प्रधानमंत्री कार्यालय उस समय भी नहीं हुआ, जब गुलजारी लाल नंदा, एच डी देवगौडा या इंद्र कुमार गुजराल मजबूरी में प्रधानमंत्री बनाए गए थे। हो सकता है कि मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बने रहने की कोई मजबूरी हो, यह भी संभव है कि उनकी पार्टी के नेताओं के पास मनमोहन सिंह से ज्यादा योग्य व्यक्ति इस पद के लिए ना हो, लेकिन भारत की 118 करोड़ की जनता ऐसे किसी भी व्यक्ति को प्रधानमंत्री के पद नहीं देखना चाहती जो बेबस और लाचार हो तथा उसको अपने हर कार्य की मंजूरी लेने के लिए एक नौकरशाह की तरह भाग दौड़ करनी पड़ती हो और वो जनता के प्रति अपनी जवाबदेही समझने की बजाय अपने बॉस के प्रति निष्ठां रखता हो .
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)
Posted on मार्च 14, 2011 by surenderachaturvedi
जब जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दिखते हैं तो उनकी भाव भंगिमा देखकर एक ही प्रश्न परेशान करता है कि क्या मनमोहन सिंह अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ या फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस जरकोजी या रूसी राष्ट्रपति दिमित्र मेदेवदेव या इंग्लैंड के प्रधानमंत्री डेविड केमरुन जितने असरदार और चमकदार राजनेता हैं? और क्या विनम्र और धीमी आवाज वाले विद्वान मनमोहन सिंह कहीं से भी पूरे विश्व को और भारत के नागरिकों को भारत का प्रधानमंत्री होने का आभास दे पा रहे हैं हैं ।
प्रश्न यह भी है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के स्वाभिमान का उत्कट और चमकता हुआ चेहरा हैं, और उसी तरह पूरे विश्व में भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं जैसा कि पूर्व में नेहरू, इंदिरा, राजीव, नरसिंहराव, चंद्रशेखर या अटलबिहारी वाजपेयी करते थे या मनमोहन सिंह किसी राज्य सरकार के मुख्य सचिव या ऐसे ही किसी नौकरशाह की तरह दिखते हैं, जिसकी जिम्मेदारी अपने बॉस के आदेशों को पूरा करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। चाहे देश की आवाज कुछ भी हो और बॉस कितना ही पथभ्रष्ट क्यों ना हो?
तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ खड़ा होता है कि भारत का प्रधानमंत्री कैसा होना चाहिये? क्या हमें ऐसा प्रधानमंत्री चाहिये जो एक बार भी लोकसभा से चुनकर नहीं आया हो, और ना ही लोकसभा चुनाव लड़कर सदन में आने की इच्छा रखता हो। और यह भी कि वह व्यक्ति भारत के नागरिकों द्वारा चुनी गई लोकसभा का कभी सदस्य ही नहीं रहा और प्रधानमंत्री बनने के बावजूद उसने कभी लोकसभा में जाने और उसका नेतृत्व करने की चुनौती को स्वीकार नहीं किया। यह प्रश्न उस व्यक्ति के लिए आश्चर्यजनक लग सकता है जो विगत 7 सालों से देश के प्रधानमंत्री के रूप में काम कर रहा हो, और जरा यह भी सोचने की बात यह भी है कि इन 7 सालों में उस प्रधानमंत्री से जनता से सीधे संवाद के लिए कितनी जनसभाओं को संबोधित किया है?
क्या संविधान के निर्माताओं ने इसी दिन के लिए राज्यसभा की रचना की थी कि देश की बागडोर संभालने वाला व्यक्ति लोकसभा में आने के लिए निर्धारित चुनाव प्रक्रिया का पालन नहीं करे और संविधान में प्रदत्त इस छूट का इस्तेमाल पद पर बने रहने के लिए करे? यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी जगह सही हैं तो फिर प्रश्न यह भी उठता है कि नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक जितने भी प्रधानमंत्री इस देश में हुए हैं, उन्होंने लोकसभा का चुनाव ही क्यों लड़ा? क्या उनके लिए राज्यसभा में निर्वाचित होना दुरूह कार्य था?
1991 में नरसिंहराव मंत्री मंडल में वित्त मंत्री के रूप में शामिल हुए मनमोहन सिंह ने राज्यसभा के जरिये देश की सर्वोच्च नियामक संस्था संसद में प्रवेश किया। उनका पहला कार्यकाल 4 वर्ष के लिए था। उसके बाद से लेकर आज तक वे 3 बार संसद में पहुंचते रहे हैं और हर बार वे जनता द्वारा चुने जाने की अपेक्षा पार्टी के प्रतिनिधि बनकर राज्यसभा में ही पहुंचते हैं। तो क्या ये माना जाना चाहिये कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जवाबदेही देश की जनता के प्रति नहीं अपितु पार्टी के पदाधिकारियों के प्रति है, जो उनका राज्यसभा में जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। क्या यह प्रश्न भी नहीं पूछा जाना चाहिये कि हमारे प्रधानमंत्री लोकसभा चुनावों से क्यों कतराते हैं? 1991 से लेकर आज तक 4 बार आम चुनाव हो चुके हैं और 1998 के लोकसभा चुनावों में नई दिल्ली से चुनाव लड़ने (जिसमें वे पराजित हो गये थे) के अलावा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कभी कोई और चुनाव लड़ने का प्रयास ही नहीं किया।
बात सिर्फ राजनीतिक व्यवस्था के तहत एक पद को भरे जाने की नहीं है। यह प्रश्न सांस्कुतिक और भाषाई विविधता वाले दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र के नेतृत्व का है। यदि पद ही भरना होता तो सोनिया गांधी भी भर सकती थीं, लेकिन उनका विरोध राजनीतिक दलों ने इस आधार पर किया कि वे सम्पूर्ण विश्व में भारत का चेहरा नहीं हो सकती ? वे स्व0 राजीव गांधी की पत्नी हो सकती हैं लेकिन इंदिरा नहीं हो सकती। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले ही ईमानदार और बुद्धिमान व्यक्ति की तरह जाने जाते हैं लेकिन वे भारत के गौरवशाली अतीत और उसके आत्म स्वाभिमान को प्रकट नहीं करते। उनकी छवि एक ऐसे प्रशासक के रूप में उभरकर सामने आ रही है जो बेबस और बेचारा है। जिसका इकबाल ना तो उसके मंत्री मंडलीय सहयोगी ही मानते हैं और ना ही उनका राजनीतिक दल। वे तो एक ऐसे बडे बाबू की तरह दिख रहे हैं जिनकी नाक के नीचे 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो जाता है, और वे कुछ नहीं कर पाते। एक मंत्री क्रिकेट मैच में अपनी हिस्सेदारी तय करता है और उन्हैं पता नहीं चलता, एक मंत्री अपनी गलत नीतियों के कारण महंगाई को बढ़ाकर मुनाफाखोरी को बढ़ावा दे रहा है और वे बेबस हैं। पूरा देश चीख चीख कर भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ सड़कों पर आ रहा है और वे मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर भ्रष्ट आचरण के दोषी व्यक्ति को ’अज्ञानवश‘ नियुक्त कर देते हैं।
वे पाकिस्तान के साथ परदे के पीछे ना जाने क्या बात करते हैं जिसका पता मंत्री मंडलीय सहयोगियों को भी नहीं होता है, विपक्ष की बात तो बहुत दूर की रही। वे कहने को तो सरकारी खजाने से एक रूपये का वेतन लेते हैं लेकिन उन्हीं के नेतृत्व में चल रही सरकार की अनियमितताओं पर वे कोई जवाब दे नहीं पाते।
इसलिये जब हम सांस्कृतिक और भाषाई विविधता और विशाल लोकतंत्र वाले भारत के नेतृत्व की बात करते हैं तो निश्चित ही सरदार मनमोहन सिंह बौने नजर आते हैं। स्वतंत्र भारत में इतना कमजोर प्रधानमंत्री कार्यालय उस समय भी नहीं हुआ, जब गुलजारी लाल नंदा, एच डी देवगौडा या इंद्र कुमार गुजराल मजबूरी में प्रधानमंत्री बनाए गए थे। हो सकता है कि मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बने रहने की कोई मजबूरी हो, यह भी संभव है कि उनकी पार्टी के नेताओं के पास मनमोहन सिंह से ज्यादा योग्य व्यक्ति इस पद के लिए ना हो, लेकिन भारत की 118 करोड़ की जनता ऐसे किसी भी व्यक्ति को प्रधानमंत्री के पद नहीं देखना चाहती जो बेबस और लाचार हो तथा उसको अपने हर कार्य की मंजूरी लेने के लिए एक नौकरशाह की तरह भाग दौड़ करनी पड़ती हो और वो जनता के प्रति अपनी जवाबदेही समझने की बजाय अपने बॉस के प्रति निष्ठां रखता हो .
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें