गुरुवार, जनवरी 25, 2018

अपराधियों को सरकारी लाइसेंस की जरूरत नहीं होती

Saurabh Bhaarat
उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू जी ने आज लखनऊ में ज्ञान दिया कि यूपी में कानून व्यवस्था में और सुधार करने के लिए सभी लाइसेंसी हथियार वापस ले लेने चाहिए। बिना जमीनी सच्चाई जाने ज्ञान का ओवरफ्लो ऐसे ही होता है। कानून व्यवस्था के लिए समस्या अपराधी प्रवृत्ति के लोग उत्पन्न करते हैं और अपराधियों को सरकारी लाइसेंस की जरूरत नहीं होती। देश में आज भी अगर मजहबी उन्मादी भीड़ ठान ले तो आपको घेरकर मार सकती है और कोई कानून-पुलिस उस समय आपको नहीं बचा सकता। दिल्ली में डॉ नारंग की बर्बर हत्या को भूले नहीं होंगे आप। राष्ट्रवादी सरकार के पुलिसिया इलाके में दिन दहाड़े डॉ नारंग अपने बच्चे के सामने ही मार डाले गए। उनके पास अगर बन्दूक होती तो निश्चय ही ऐसा न होता। 5 लाख कश्मीरी पण्डितों में 50 ने भी बन्दूकें चलाई होतीं तो सैकड़ों आतंकियों की लाशें बिछ जातीं। पुलिस ने तो वैसे भी मदद नहीं करना था। कोई पुलिस गोधरा कांड नहीं रोक पाई। वह तो गुजरात में हिंदुओं ने खुद ही प्रतिक्रिया कर जब जिहादी दंगाईयों को जवाब देना शुरू किया तब पुलिस सक्रिय हुई और ढाई सौ हिन्दू ही एनकाउंटर में उड़ा दिये गए। हिंदुओं को यह घुट्टी पिला दी गयी है और हिंदुओं ने पी भी ली है कि हमारी जान माल की सुरक्षा पुलिस कर लेगी, हमें खुद उसके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं। जबकि शास्त्र के साथ शस्त्र भी रखना हमारे धर्म-संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। हमारे विद्रोह को रोकने के लिए ही अंग्रेजों ने शस्त्रों को नियंत्रित करना जरूरी समझा और आर्म्स एक्ट का कानून बनाया। अब अंग्रेज नहीं है लेकिन सेकुलर स्टेट की अपनी सीमाएं हैं। चाहे किसी की सरकार रही हो न्यायोचित आक्रमण और आत्मरक्षा के प्रति उदासीन हिन्दू प्रताड़ित हुए हैं। आत्मरक्षा को लेकर जागरूकता लाई जानी चाहिए। अगर राज्य ये गारन्टी दे कि एक भी अवैध हथियार किसी के हाथ में नहीं होगा तब तो शस्त्रविहीन समाज को आदर्श बताने का भाषण सुना जा सकता है लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता तब तक शस्त्र छीनने के बजाय लाइसेंस प्रक्रिया और आसान बनाई जानी चाहिए ताकि हिन्दू मध्यम वर्ग भी अपनी आत्मरक्षा की एक वैध व्यवस्था कर पाए।

डाॅ. सत्यपालसिंहजी :मनुष्य की उत्पत्ति बन्दर से नहीं हुई

संसारभर के विकासवादियों से प्रश्न
अभी हाल में केन्द्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री माननीय डाॅ. सत्यपालसिंहजी के इस कथन कि मनुष्य की उत्पत्ति बन्दर से नहीं हुई, सम्पूर्ण भारत के बुद्धिजीवियों में हलचल मच रही है। कुछ वैज्ञानिक सोच के महानुभाव इसे साम्प्रदायिक संकीर्णताजन्य रूढ़िवादी सोच की संज्ञा दे रहे हैं। मैं उन महानुभावों से निवेदन करता हूँ कि मंत्रीजी का यह विचार रूढ़िवादी नहीं बल्कि सुदृढ़ तर्कों पर आधारित वैदिक विज्ञान का ही पक्ष है। ऐसा नहीं है कि विकासवाद का विरोध कुछ भारतीय विद्वान् ही करते हैं अपितु अनेक यूरोपियन वैज्ञानिक भी इसे नकारते आये हैं। मैं इसका विरोध करने वाले संसारभर के विकासवादियों से प्रश्न करना चाहता हूँ। ये प्रश्न प्रारम्भिक हैं, इनका उत्तर मिलने पर और प्रश्न किये जायेंगे :-
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शारीरिक विकास
१. विकासवादी अमीबा से लेकर विकसित होकर बन्दर पुनः शनैः-२ मनुष्य की उत्पत्ति मानते हैं। वे बताएं कि अमीबा की उत्पत्ति कैसे हुई?
२. यदि किसी अन्य ग्रह से जीवन आया, तो वहाँ उत्पत्ति कैसे हुई? जब वहाँ उत्पत्ति हो सकती है, तब इस पृथ्वी पर क्यों नहीं हो सकती?
३. यदि अमीबा की उत्पत्ति रासायनिक क्रियाओं से किसी ग्रह पर हुई, तब मनुष्य के शुक्राणु व अण्डाणु की उत्पत्ति इसी प्रकार क्यों नहीं हो सकती?
४. उड़ने की आवश्यकता होने पर प्राणियों के पंख आने की बात कही जाती है परन्तु मनुष्य जब से उत्पन्न हुआ, उड़ने हेतु हवाई जहाज बनाने का प्रयत्न करता रहा है, परन्तु उसके पंख क्यों नहीं उगे? यदि ऐसा होता, तो हवाई जहाज के अविष्कार की आवश्यकता नहीं होती।
५. शीत प्रदेशों में शरीर पर लम्बे बाल विकसित होने की बात कही जाती है, तब शीत प्रधान देशों में होने वाले मनुष्यों के रीछ जैसे बाल क्यों नहीं उगे? उसे कम्बल आदि की आवश्यकता क्यों पड़ी?
६. जिराफ की गर्दन इसलिए लम्बी हुई कि वह धरती पर घास सूख जाने पर ऊपर पेड़ों की पत्तियां गर्दन ऊँची करके खाता था। जरा बताएं कि कितने वर्ष तक नीचे सूखा और पेड़ों की पत्तियां हरी रहीं? फिर बकरी आज भी पेड़ों पर दो पैर रखकर पत्तियां खाती है, उसकी गर्दन लम्बी क्यों नहीं हुई?
७. बंदर के पूंछ गायब होकर मनुष्य बन गया। जरा कोई बताये कि बंदर की पूंछ कैसे गायब हुई? क्या उसने पूंछ का उपयोग करना बंद कर दिया? कोई बताये कि बन्दर पूंछ का क्या उपयोग करता है और वह उपयोग उसने क्यों बंद किया? यदि ऐसा ही है तो मनुष्य के भी नाक, कान गायब होकर छिद्र ही रह सकते थे। मनुष्य लाखों वर्षोंसे से बाल और नाखून काटता आ रहा है, तब भी बराबर वापिस उगते आ रहे हैं, ऐसा क्यों?
८. सभी बंदरों का विकास होकर मानव क्यों नहीं बने? कुछ तो अमीबा के रूप में ही अब तक चले आ रहे हैं, और हम मनुष्य बन गये, यह क्या है?
९. कहते हैं कि सांपों के पहले पैर होते थे, धीरे-२ वे घिस कर गायब हो गये। जरा विचारों कि पैर कैसे गायब हुए, जबकि अन्य सभी पैर वाले प्राणियों के पैर बिल्कुल नहीं घिसे।
१०. बिना अस्थि वाले जानवरों से अस्थि वाले जानवर कैसे बने? उन्हें अस्थियों की क्या आवश्यकता पड़ी?
११. बंदर व मनुष्य के बीच बनने वाले प्राणियों की श्रंखला कहाँ गई?
१२. विकास मनुष्य पर जाकर क्यों रुक गया? किसने इसे विराम दिया? क्या उसे विकास की कोई
आवश्यकता नहीं है?
बौद्धिक व भाषा सम्बन्धी विकास
1. कहते हैं कि मानव ने धीरे-2 बुद्धि का विकास कर लिया, तब प्रश्न है कि बन्दर व अन्य प्राणियों में बौद्धिक विकास क्यों नहीं हुआ?
2. मानव के जन्म के समय इस धरती पर केवल पशु पक्षी ही थे, तब उसने उनका ही व्यवहार क्यों नहीं सीखा? मानवीय व्यवहार का विकास कैसे हुआ? करोड़ों वनवासियों में अब तक विशेष बौद्धिक विकास क्यों नहीं हुआ?
3. गाय, भैंस, घोड़ा, भेड़, बकरी, ऊंट, हाथी करोड़ों वर्षों से मनुष्य के पालतू पशु रहे हैं पुनरपि उन्होंने न मानवीय भाषा सीखी और न मानवीय व्यवहार, तब मनुष्य में ही यह विकास कहाँ से हुआ?
4. दीपक से जलता पतंगा करोड़ों वर्षों में इतना भी बौद्धिक विकास नहीं कर सका कि स्वयं को जलने से रोक ले, और मानव बन्दर से इतना बुद्धिमान् बन गया कि मंगल की यात्रा करने को तैयार है? क्या इतना जानने की बुद्धि भी विकासवादियों में विकसित नहीं हुई ? पहले सपेरा सांप को बीन बजाकर पकड़ लेता था और आज भी वैसा ही करता है परन्तु सांप में इतने ज्ञान का विकास भी नहीं हुआ कि वह सपेरे की पकड़ में नहीं आये।
5. पहले मनुष्य बल, स्मरण शक्ति एवं शारीरिक प्रतिरोधी क्षमता की दृष्टी से वर्तमान की अपेक्षा बहुत अधिक समृद्ध था, आज यह ह्रास क्यों हुआ, जबकि विकास होना चाहिए था?
6. संस्कृत भाषा, जो सर्वाधिक प्राचीन भाषा है, उस का व्याकरण वर्तमान विश्व की सभी भाषाओं की अपेक्षा अतीव समृद्ध व व्यवस्थित है, तब भाषा की दृष्टी से विकास के स्थान पर ह्रास क्यों हुआ?
7. प्राचीन ऋषियों के ग्रन्थों में भरे विज्ञान के सम्मुख वर्तमान विज्ञान अनेक दृष्टी से पीछे है, यह मैं अभी सिद्ध करने वाला हूँ, तब यह विज्ञान का ह्रास कैसे हुआ? पहले केवल अन्तःप्रज्ञा से सृष्टि का ज्ञान ऋषि कर लेते थे, तब आज वह ज्ञान अनेकों संसाधनों के द्वारा भी नहीं होता। यह यह उलटा क्रम कैसे हुआ?
भला विचारें कि यदि पशु पक्षियों में बौद्धिक विकास हो जाता, तो एक भी पशु पक्षी मनष्य के वश में नहीं आता। यह कैसी अज्ञानता भरी सोच है, जो यह मानती है कि पशु पक्षियों में बौद्धिक विकास नहीं होता परन्तु शारीरिक विकास होकर उन्हें मनुष्य में बदल देता है और मनुष्यों में शारीरिक विकास नहीं होकर केवल भाषा व बौद्धिक विकास ही होता है। इसका कारण क्या विकासवादी मुझे बताएंगे।
आज विकासवाद की भाषा बोलने वाले अथवा पौराणिक बन्धु श्री हनुमान् जी को बन्दर बताएं, उन्हें वाल्मीकीय रामायण का गम्भीर ज्ञान नहीं है। वस्तुतः वानर, ऋक्ष, गृध, किन्नर, असुर, देव, नाग आदि मनुष्य जाति के ही नाना वर्ग थे। ऐतिहासिक ग्रन्थों में प्रक्षेपों (मिलावट) को पहचानना परिश्रम साध्य व बुद्धिगम्य कार्य है।
ऊधर जो प्रबुद्धजन किसी वैज्ञानिक पत्रिका में पेपर प्रकाशित होने को ही प्रामाणिकता की कसौटी मानते हैं, उनसे मेरा अति संक्षिप्त विनम्र निवेदन है-
1. बिग बैंग थ्योरी व इसके विरुद्ध अनादि ब्रह्माण्ड थ्योरी, दोनों ही पक्षों के पत्र इन पत्रिकाओं में छपते हैं, तब कौनसी थ्योरी को सत्य मानें?
2. ब्लैक होल व इसके विरुद्ध ब्लैक होल न होने की थ्योरीज् इन पत्रिकाओं में प्रकाषित हैं, तब किसे सत्य मानें?
3. ब्रह्माण्ड का प्रसार व इसके प्रसार न होने की थ्योरीज् दोनों ही प्रकाषित हैं, तब किसे सत्य मानें?
ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। इस कारण यह आवश्यक नहीं है कि हमें एक वर्गविषेश से सत्यता का प्रमाण लेना अनिवार्य हो? हमारी वैदिक एवं भारतीय दृष्टी में उचित तर्क, पवित्र गम्भीर ऊहा एवं योगसाधना (व्यायाम नहीं) से प्राप्त निष्कर्ष वर्तमान संसाधनों के द्वारा किये गये प्रयोगों, प्रक्षेपणों व गणित से अधिक प्रामाणिक होते हैं। यदि प्रयोग, प्रेक्षण व गणित के साथ सुतर्क, ऊहा का साथ न हो, तो वैज्ञानिकों का सम्पूर्ण श्रम व्यर्थ हो सकता है। यही कारण है कि प्रयोग, परीक्षणों, प्रेक्षणों व गणित को आधार मानने वाले तथा इन संसाधनों पर प्रतिवर्ष खरबों डाॅलर खर्च करने वाले विज्ञान के क्षेत्र में नाना विरोधी थ्योरीज् मनमाने ढंग से फूल-फल रही हैं और सभी अपने को ही सत्य कह रही हैं। यदि विज्ञान सर्वत्र गणित व प्रयोगों को आधार मानता है, तब क्या कोई विकासवाद पर गणित व प्रयोगों का आश्रय लेकर दिखाएगा?
इस कारण मेरा सम्मान के योग्य वैज्ञानिकों एवं देश व संसार के प्रबुद्ध जनों से अनुरोध है कि प्रत्येक प्राचीन ज्ञान का अन्धविरोध तथा वर्तमान पद्धति का अन्धानुकरण कर बौद्धिक दासत्व का परिचय न दें। तार्किक दृष्टी का सहारा लेकर ही सत्य का ग्रहण व असत्य का परित्याग करने का प्रयास करें। हाँ, अपने साम्प्रदायिक रूढ़िवादी सोच को विज्ञान के समक्ष खड़े करने का प्रयास करना अवश्य आपत्तिजनक है।
- आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक, वैदिक वैज्ञानिक
अध्यक्ष, श्री वैदिक स्वस्ति पन्था न्यास

रविवार, जनवरी 21, 2018

सारे धर्म एक ही शिक्षा देते हैं? : ताबिश सिद्दीकी

Tabish Siddiqui
एक स्टेटमेंट, जो लगभग हर धर्म जाति का आम इंसान आपको कहता हुवा मिलेगा कि "सारे धर्म एक ही शिक्षा देते हैं, सभी धर्मों का मूल एक है, सारे अवतारों, पैगम्बरों और संतों की शिक्षा एक ही है.. ईश्वर अल्लाह तेरे नाम".. ये मेरे हिसाब से ऐसा स्टेटमेंट होता है जिसका सत्य से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है.. मगर ये स्टेटमेंट इतना आम है और हमारे स्कूलों की दीवारों और पब्लिक प्लेस में इतनी बहुतायत से लिखा मिलता है कि धीरे धीरे हमारा अवचेतन इस पर बिना कोई सवाल उठाए स्वीकार कर लेता है
पहली बात तो ये कि अगर ये सच होता कि सारे धर्मों की शिक्षा एक है तो फिर इतने धर्म दुनिया मे होते ही न.. इतने अलग अलग धर्मों का होना अपने आप मे ऊपर के स्टेटमेंट का विरोधाभास है
जो कहते हैं कि ईश्वर अल्लाह एक है तो उनसे पूछिये कि वो मंदिर में कभी अल्लाह अल्लाह जप लिया करें और मस्जिद में कभी राम राम.. जपेंगे वो?? जो बात मुहम्मद साहब ने कही वही बुद्ध भी कहते हैं तो फिर वो लोग क्यूं नहीं क़ुरआन छोड़ के धम्मपद पढ़ते हैं? जब सब कुछ आप लोगों के हिसाब से इतना सीधा और साफ़ है तो फिर झगड़ा किस बात का है आप लोगों के बीच?
ये बिल्कुल ग़लत बात है अगर आप कहें कि बुद्ध ने जो कहा वही सारे पैगम्बरों और अवतारों ने कहा है.. ये एकदम गलत स्टेटमेंट है.. और इस भ्रम से छुटकारा पाना होगा सभी को.. एक दो उदाहरणों से मैं आपको इस घातक स्टेटमेंट की असलियत समझाना चाहूंगा.. ये घातक इसलिए है क्योंकि बरसों से इसी चक्कर में हमारे युवा अपनी खोज बन्द किये बैठे हैं.. जब एक मुसलमान युवक से आप ये कह देते हैं कि जो मुहम्मद ने कहा वही बुद्ध ने और जो तुम्हारा अल्लाह है वही ईश्वर है तो आप उसके खोज की संभावना ख़त्म कर देते हैं.. क्यूंकि जब सब एक ही हैं तो फिर अब किसी को क्या पढ़ना.. बस क़ुरआन पढ़ लो.. यही चालाकी ज़ाकिर नायक जैसे करते हैं.. वो वेदों को क़ुरआन सम्मत साबित करने की जी तोड़ कोशिश करते हैं ताकि सब कुछ क़ुरआन सम्मत हो जाय और क़ुरआन के मानने वालों का अहंकार और चरम पर पहुंच जाए और वो उसी को पकड़े बैठे रहें.. उनकी कोशिश ये रहती है कि चालाकी से ऐसा दिखाया जाए कि सब कुछ क़ुरआन में है और मुसलमानो के खोज की सारी संभावनाओं पर लगाम लगा दी जाय
छोटा सा उदाहरण लीजिये.. एक धार्मिक मुसलमान दाढ़ी रखता है.. एक हिन्दू संत भी दाढ़ी रखता है.. एक सिख भी दाढ़ी रखता है.. अब ऊपर ऊपर से आप देखेंगे तो आपको सबकी दाढ़ी एक जैसी लगेगी.. और आपके उस स्टेटमेंट के हिसाब के अनुसार कि "ईश्वर अल्लाह एक है", के हिसाब से ये सारी दाढ़ियां एक होनी चाहिए.. मगर इन सारी दाढ़ियों के पीछे का मूल एकदम अलग है
मुसलमानो में दाढ़ी रखने की शुरुवात अरबों की देन है.. ज़्यादातर अरब पहले भी दाढ़ी रखते थे और उसकी मूल वजह थी वहां का शुष्क वातावरण और धूल.. दाढ़ी रेत के फ़िल्टर का काम करती थी.. फिर जब इस्लाम आया और धार्मिक खींचतान शुरू हुई तो मुसलमानो को ये समझ आया कि धार्मिक यहूदी तो पहले से दाढ़ी रखता है तो एक धार्मिक यहूदी और धार्मिक मुसलमान के बीच भेद कैसे किया जाय? तो मुसलमानो ने मूछ हटा दी.. बिना मूंछ की दाढ़ी ने मुसलमानो को यहूदियों से अलग कर दिया.. और फिर आगे के नए इस्लाम के अनुयायियों ने बिना मूंछ के दाढ़ी रखना शुरू किया.. और उन्होंने ये दाढ़ी सिर्फ इसलिए रखी क्यूंकि मुहम्मद साहब भी दाढ़ी रखे हुए थे और बाद के ख़लीफ़ाओं ने भी दाढ़ी रखी हुई थी.. तो मुसलमानो की दाढ़ी नक़ल होती है मुहम्मद की और उनके साथियों की.. दाढ़ी रखकर मुसलमान अपने पैग़म्बर की सुन्नत (कार्य) अदा करता है.. इस्लाम मे दाढ़ी ले पीछे की सिर्फ यही एक अवधारणा है बस.. मुसलमान अपने पैग़म्बर के जैसा बनना चाहता है दाढ़ी रखा कर.. इस भेद पर ध्यान दीजियेगा
एक हिन्दू संत जब सन्यास के मार्ग पर निकलता है तो उसकी पहली शिक्षा होती है प्रकृति से अपने सारे विरोध को ख़त्म करना.. प्रकृति से एकाकार होना हिन्दू संत का पहला कर्तव्य होता है.. जो कुछ भी प्राकृतिक है वो सब स्वीकार्य है और अब उसका कोई भी विरोध नहीं होगा.. पुरुषों की दाढ़ी प्राकृतिक रूप से स्वयं उगती है और उसे हम जब काट देते हैं तो एक तरह से हम प्रकृति को ये बताते हैं कि तुम्हारे द्वारा दिये गए ये बाल हमे स्वीकार्य नहीं हैं.. तो एक सनातनी संत इस विरोध को पहले ही दिन से ख़त्म कर देता है और वो दाढ़ी और मूछों के बालों को भी प्राकृतिक रूप से स्वीकार कर लेता है.. आप ग़ौर किजियेगा तो देखिएगा कि संत सिर्फ़ दाढ़ी ही नहीं सिर के बाल भी नहीं काटता है.. क्यूंकि समूचा विरोध उसे ख़तम करना होता है प्रकृति के साथ.. तो हिंदुओं में सन्यास की इस अवधारणा के साथ दाढ़ी का जन्म होता है.. कोई संत, राम या कृष्ण की नकल करने के लिए दाढ़ी नहीं रखता है.. राम और कृष्ण वैसे भी ज़्यादातर बिना दाढ़ी के ही दिखाए जाते हैं..इसलिए दाढ़ी की अवधारणा सनातन में इस्लाम से एकदम भिन्न है
अब जब कोई सिख अपने बाल और दाढ़ी बढ़ाता है तो उसके पीछे न तो सनातन के प्राकृतिक विरोध की शिक्षा होती है और न ही अरब की कोई संस्कृति.. जब सिख केश और कृपाण धारण करता है तो उसके पीछे उनके गुरु की दीक्षा होती है.. एक दृढ़ता और एक जूझने का भाव जो उस समय की परिस्थितियों के अनुसार पैदा हुआ.. इसलिए सिख को धार्मिक सिख होना होता है तो दाढ़ी और केश रखने होते हैं
तो देखिए सिर्फ़ एक छोटी सी धार्मिक रीति, दाढ़ी और मूछ के पीछे कितनी भिन्न मान्यता है.. इसलिए क्या आप ये कहेंगे कि "सबकी दाढ़ी एक समान, चाहे हिन्दू हो या मुसलमान"??
इसलिए अपने युवकों को कंफ्यूज मत कीजिये ऐसे स्टेटमेंट दे कर कि "सारे धर्म एक ही शिक्षा देते हैं".. युवकों से कहिये की सब अलग अलग हैं और सबको पढ़ो और जानो कि कौन क्या शिक्षा देता है.. यहां कुछ भी एक नहीं है.. इसीलिये इतनी मारकाट है हमारे बीच.. हम सब एक नहीं हैं.. और ये कटु सत्य है
ऐसे ही अन्य बातें भी हैं.. लेख बड़ा हो रहा है वरना मैं ईश्वर, अल्लाह और क़ुरआन, गीता और वेद की शिक्षा में भी भिन्नता बताता.. इसलिए वो फिर कभी किसी अन्य लेख में.. अभी के लिए इतना ही.. धन्यवाद
~ताबिश

*छद्म धर्म निरपेक्षता*

अफ्रीका में एक देश है गाम्बिया। बेहद गरीब और पिछड़े क्षेत्रों में आता है, कभी ये इलाका बेहद हरा भरा हुआ करता था और यहाँ धरती ही माँ बन कर यहाँ के निवासियों का भरण पोषण किया करती थी लेकिन अचानक ही उस पर अंग्रेजों की नजर गयी और विश्व विजयी बनने के उन्मादी अंग्रेजों ने वहां धीरे धीरे जड़ें जमानी शुरू की। आख़िरकार अंग्रेज इसमें सफल भी रहे और उन्होंने जाम्बिया को जीत लिया और अपना गुलाम बना लिया। उन्हें यहाँ के बलिष्ठ लोग अपने लिए एक सस्ते गुलाम के रूप में दिखने लगे और धीरे धीरे सारा गाम्बिया उनकी गिरफ्त में आ गया। लेकिन जहाँ दमन होता है वहां क्रान्ति जरूर होती है और गाम्बिया में भी कुछ ऐसा ही हुआ। गाम्बिया में जनजातियाँ थी और उन्होंने अंग्रेजों से लोहा लेना शुरू किया। चरखे और बिना खड्ग बिना ढाल नहीं बल्कि सीधे सीधे तीर और तलवारों से। आख़िरकार काफी लम्बे संघर्ष के बाद वहां के लोगों ने स्वतंत्र गाम्बिया के दर्शन 1965 में किये। जाते जाते अंग्रेज गाम्बिया में भी धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत थोप कर चले गये और गाम्बिया के मूल लोग 1965 से खुद को धर्मनिरपेक्षता के रंग में रंग लिए, इस आशा के साथ कि उनके साथ सभी लोग धर्म निरपेक्ष हैं।
लेकिन वहां मुस्लिम आबादी धीरे धीरे बढती गयी। कुछ लोगों के धर्मांतरण हुए तो दूसरी तरफ जनसंख्या वृद्धि में अन्य काफी पिछड़ गये और धीरे धीरे वहां मुस्लिम आबादी बढ़ कर इस हालत में आ गयी की वहां इस्लामिक कानून की मांग और शरिया आदि की चर्चाएँ शुरू हो गयीं। यद्यपि बाकी अन्य इस बात को ले कर खुश थे कि वहां का सिद्धांत और कानून धर्म निरपेक्ष है और वो वहां बना रहेगा। लेकिन धीरे धीरे जब वहां मुस्लिम आबादी 90% पार हो गयी तो अचानक ही 2015 में धर्मनिरपेक्षता के सभी सिद्धांत अचानक ही टूट गये और राष्ट्रपति के तौर पर इस्लामिक चेहरा याहया ने पद सम्भाला। आबादी 90% हो जाने के कारण उन्हें प्रचंड जीत मिली और विपक्षी धर्मनिरपेक्ष की जमानत जब्त होने की नौबत आ गयी और वो नाम मात्र के विपक्ष बन कर रह गये।
अचानक ही वहां के राष्ट्रपति ने 11 दिसम्बर 2015 को विधिवत घोषणा कर दी कि अब गाम्बिया कोई सेकुलर मुल्क नहीं बल्कि एक इस्लामिक देश है और सभी को वहां के नियम और कायदे पालन करने होंगे। जो भी इस नियम और कायदे को पालन करेगा उसको उस देश में रहने का अधिकार है। इस फैसले से अचानक ही धर्मनिरपेक्ष बन कर जीने वालों के पैरों तले जमीन खिसक गयी और उन्होंने खुद को ठगा सा पाया। लेकिन तब तक संसद , सरकार, अदालत, फ़ौज, पुलिस सब कुछ राष्ट्रपति के अधीनस्थ था और वहां के लोगों को इस कानून को मानने पर बाध्य होना पड़ा।
आज वहां के अल्पसंख्यक हो चुके गैर इस्लामिक लोग मात्र दोयम दर्जे के नागरिक बन कर रह गये हैं जिनका शायद ही कोई ध्यान रखने वाला हो। गाम्बिया के राष्ट्रपति याहया को इस फैसले के लिए किसी भी मानवाधिकार, अन्तराष्ट्रीय अदालत, संयुक्त राष्ट्र, नाटो आदि की सहमित लेने की जरूरत नहीं हुई और अब गाम्बिया एक शुद्ध इस्लामिक मुल्क बन चुका है जहाँ धर्म निरपेक्षता की बात भी करना गुनाह के समान है। जागो और जगाओ कुछ वर्षों के बाद भारत मे भी ऐसा ही होने वाला है ।।
*छद्म धर्म निरपेक्षता*

सोमवार, जनवरी 15, 2018

सच्चा मुसलमान किसी के साथ नहीं रह सकता।

सच्चा मुसलमान किसी के साथ नहीं रह सकता। सहजीवन उसके डिक्शनरी के बाहर का शब्द है। मुसलमान जैसे तैसे सहजीवन में जीना सीखे भी तो सच्चा इस्लाम उसके रास्ते का रोड़ा बनता है। अचानक से किसी दिन कोई लीडर उनके बीच से निकलता है और कहता है कि गैर मुस्लिमों के साथ रहना गैर इस्लामिक है। कुरान और हदीस हमें इसकी इजाजत नहीं देते। और देखते ही देखते पूरी जमात उस लीडर के पीछे चल देती है। दो चार तर्क वितर्क करें भी तो उनकी आवाज नक्कारखानें में तूती से ज्यादा अहमियत नहीं रखती।
इसीलिए इकबाल ने मुसलमानों के लिए अलग राज्य मांगा। बाद में जिन्ना ने इसी अलग राज्य को पाकिस्तान बना दिया। क्या तर्क था उनका? हम हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते। हमारा मजहब इसकी इजाजत नहीं देता। हमारे उनके बीच कुछ भी कॉमन नहीं है, तो फिर हम उनके साथ कैसे रह सकते हैं?
यह ऐसा अकाट्य तर्क था जिसे कोई नहीं काट सकता था। खान अब्दुल गफ्फार खान, मौलाना अबुल कलाम आजाद या फिर दारुल उलूम देओबंद इसके खिलाफ थे तो उनके कारण अलग अलग थे। खान साहब पंजाबियों के चंगुल में नहीं फंसना चाहते थे। आजाद इसे मुसलमानों की बेहतरी के खिलाफ मानते थे और दारुल उलूम देओबंद को आशंका थी कि इससे मुसलमानों की ताकत कमजोर हो जाएगी। बहुत उदार से उदार मुसलमान भी ऐसी संकट की घड़ी में गैर मुस्लिमों की बात नहीं कर रहा था। सहजीवन का कोई तर्क उस समय नहीं दिया गया क्योंकि उसे चिंता थी तो सिर्फ मुसलमानों की।
लेकिन आजादी के बाद और देश के तीन टुकड़ों में बांट देने के बाद मुसलमानों को गंगा जमुना याद आ गयी। लंगड़ा लूला सेकुलरिज्म याद आ गया जिसमें सेकुलरिज्म तो हो लेकिन पर्सनल लॉ की पूरी आजादी हो। पर्सनल लॉ के जो भी कानून बने वो सिर्फ गैर मुस्लिमों के लिए बने। इस्लाम को “संविधान के मुताबिक” अपने धर्म के पालन और विस्तार की आजादी दी जाए। साथ रहने के हर वो तर्क जो सैंतालिस में कुतर्क नजर आते थे सैंतालिस के बाद मुसलमानों की जबान के पान हो गये। तो क्या यह पान की कोई ऐसी गिलौरी है जिसे समय मिलने पर फिर से मुसलमान थूक देने वाला है?
हां। बिल्कुल। कश्मीर में सहजीवन और गंगा जमुना का वह पान नापदान में थूका जा चुका है। जहां जहां मुसलमान बहुसंख्यक होता है वहां वह सहजीवन का पान नापदान में थूक देता है। उसका सहजीवन उसका आदर्श नहीं, उसकी मजबूरी है। योजना है। रणनीति है। वरना नक्शे पर आज पंजाब के हरे भरे खेतों के बीचोबीच सफेद रेखा नजर नहीं आती। मुसलमानों के भीतर से अगर सहजीवन की कोई आवाज उठे भी तो इस्लाम के नाम पर मुसलमान ही उसके विरोध में खड़ा हो जाता है।
मुसलमानों के सहजीवन में सबसे बड़ी बाधा है मदरसे और कुरान की शिक्षाएं जो किसी गैर मुस्लिम को दोयम दर्जे का इंसान बताती हैं। जो मुस्लिम को गैर मुस्लिम से अलग करती हैं। उन्हें यह समझाती हैं कि अब वो पाक हैं, इसलिए नापाक काफिरों के साथ रहना उनके लिए तौहीन की बात होगी। हर मदरसा अपने यहां बच्चों को शरीयत के नाम पर जब यह समझाएगा कि गैर मुस्लिम का शासन कुफ्र है, और हमें इस कुफ्र को खत्म करना है तो उन बच्चों की क्या समझ बनेगी? इसलिए एक पाबंद मुसलमान के सामने दो ही रास्ता रहता है। या तो गैर मुस्लिम को इस्लाम स्वीकार करवा लें, या फिर अपने लिए अलग जमीन मांग लें। जैसे उन्होंने १९४७ में मांग लिया था।
बदलते समय के साथ इस्लाम में इस सोच को खत्म करके नयी सोच और शिक्षा विकसित करने की जरूरत है कि अब बदलती दुनिया में इस सोच के साथ जिन्दा रह पाना मुश्किल है। लेकिन कमाल की बात तो ये है कि आज इस इक्कीसवीं सदी में सोच और शिक्षाओं में सुधार करने की बजाय मुसलमान मजहबी तौर पर अपनी मान्यताओं के प्रति और अधिक कट्टर होता जा रहा है।
इससे गैर मुस्लिमों का अब कुछ नहीं बिगड़ेगा। हां, इस्लाम जरूर अप्रासंगिक होता चला जाएगा। दुनिया के इस भूमंडलीकरण के युग में सहजीवन जरूरी हो न हो, मजबूरी जरूर बनता जा रहा है। अब हर धर्म और मान्यता को सहजीवन सीखना होगा। जो सीखेगा वो बच जाएगा, जो नहीं सीखेगा वह खत्म हो जाएगा। अब अगर मुसलमानों को ये लगता है कि पूरी दुनिया उनके खिलाफ लामबंद हो रही है तो यह भी उनकी भूल है। उन्होंने ही इस्लामिक और गैर इस्लामिक का ध्रुवीकरण कर दिया है। उन्हें ही सोचना है कि अपने भीतर वो कौन से बदलाव लायें कि इस्लामिक और गैर इस्लामिक का यह भेदभाव उनके भीतर से खत्म हो। जितना इस्लाम दूसरे धर्मों की स्वीकार्यता अपने भीतर पैदा करेगा उतना ही दूसरे धर्म उसे स्वीकार करेंगे। अगर आज भी वह यही मानता रहेगा कि दुनिया से कुफ्र खत्म करना उसका काम है तो आज नहीं तो कल पूरी दुनिया मिलकर इस वैचारिक आतंकवाद को खत्म कर देगी।
आमीन।
साभार विस्फोट डॉट कॉम

*फतवा मदरसों कट्टरपंथी में गुमनाम होता मुसलमान*

*फतवा मदरसों कट्टरपंथी में गुमनाम होता मुसलमान*
मैंने भारतीय मुसलमानों को कभी कोई यूनिवर्सिटी स्कूल या कॉलेज मांगते हुए नहीं देखा और ना ही कभी वो अपने इलाके में अस्पताल के लिए आंदोलन चलाते हैं और ना ही बिजली-पानी के लिए ना ही उनसे शिक्षा प्राप्त रोजगार, सड़के, एक भी ऐसी चीज नही जो जरूरत को पूरी करती हो जिसका फायदा देश को हो हिन्दुओ को भी हो वो चीज तो मांगनी ही नही...?? खेर अब तो योगी सरकार बिन मांगे सब कुछ दे रही है पर ये मुसलमानो की नियति है। इनका विकास से कोई सरोकार नही इनको तो मौलाना मौलवियों के क़दमो पर चलना है।
उनको तो चाहिए बस...? औरतो की बर्बादी, कब्रिस्तान, मदरसा, हज सब्सिडी, बुर्का, हलाल, तीन तलाक, खाने में मीट, अनगिनत बच्चें, बड़े भाई का कुर्ता, छोटे भाई का ऊंचा पैजामा, बड़ा सा दहाड़ा, , खुली चप्पल, दर्जी की दुकान, टायर पंचर लगाने का सामान, चारपाई के नीचे थाली भर मांस, और शहादत किया स्वाभाविक मौत के बाद जन्नत की हुर्रे...?? और न जाने क्या क्या ?? तौबा तौबा।
पहले तो इनको दुसरे देशो की फ़िक्र छोड़नी चाहिए जहाँ जो हो रहा होने दे बस अपने देश से मतलब रखे। हमको क्या लेना रोहंगिया, येरुशलम, अरब, पाकिस्तान, फिलिस्तान से। अपने देश के लिए सोचे अपने देश को विकसित करे अपने देश के लिए जिये और मरे। ये सपना दिल में संजोए रखे।
और ये हालत तुम्हारी तब तक रहने वाली है जब तक तुम मौलाना मौलवियों इस्लामिक संस्थाओ कट्टर पन्थियों के बहकावे में आकर मोदी भाजपा को हराने का ख़्वाब पालते रहोगे। मोदी जी योगी जी मुस्लिमो के लिए बहुत बेहतरीन शानदार कार्य कर रहे है पर कुछ कठमुल्लों को तो विकास से ज्यादा मोदी जी योगी जी की हार जरुरी है।
अब मैं ये कहूँ की मुसलमान बिजली, पानी, सड़क और रोजगार के लिए वोट नहीं देते बल्कि वो सिर्फ बीजेपी को रोकने के लिए वोट देते है तो कुछ भी गलत नही होगा। आखिर मौलानाओं मौलवियों के हाथो की कठपुतली जो बने पड़े है।
शायद कठमुल्लों को लगता है कि बीजेपी के जीतने से इस्लाम का विस्तार रुक जाएगा और इस्लाम खतरे में आ जायेगा जबकि ये सरासर झूठ है। मोदी राज में मुसलमान सबसे ज्यादा खुश है अच्छे से जिंदगी जी रहे है कुछ सिर्फ दाढ़ी वालो को छोड़कर। उनको तो डर लगेगा और लगना भी चाहिए।
सेकुलर और कठमुल्ले मेरी पोस्ट से दूर रहे। मुल्ले यहाँ इस्लामिक स्टेट बनाये और कुछ न लिखूं मैं ऐसी गद्दार नहीं।
जय हिन्द, जय भारत
भारत माता की जय
वंदे मातरम्
*रूमाना सिद्दीक़ी भारतीय मुसलमान*

शुक्रवार, जनवरी 12, 2018

प्राण जाय पर धर्म ना जाए

प्राण जाए पर धर्म न जाए! वह दलित-कन्या थी दुःख है यह सब स्वतंत्र भारत में हुआ।कांग्रेस यही करवा रही थी अपने शासन में। 23 फरवरी 1981 का दिन था वह, जब तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में डाॅक्टर नसरुद्दीन कमाल अपने साथियों के साथ एक दलित परिवार को बंधक बनाए हुए थे। घर के सभी लोगों ने इस्लाम कबूल लिया था, घर के लोग ही क्यों लगभग एक हजार दलित धर्मांतरण करके जबरन मुस्लिम बनाए चुके थे। इसलिए मीनाक्षीपुरम का नाम बदलकर रहमतनगर रख दिया गया था।यह दलित गिने चमार के घर की कहानी है। उसकी 8 वर्ष की पोत्री थी वैदेही...वह किसी भी कीमत पर मुस्लिम बनने को तैयार नहीं हुई, ‘‘मै मर जाऊंगी लेकिन कलमा नहीं पढ़ूंगी,’’ उसने अपने दादा से कहा था, ‘‘बाबा आपने ही तो मुझे गायत्री मंत्र सिखाया था ना...आपने ही तो बताया था कि यह परमेश्वर की वाणी वेदों का सबसे सुंदर मंत्र है, इससे सब मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं, फिर मैं उन लोगों का कलमा कैसे पढ़ सकती हूं, जिन्होंने मेरे सहपाठियों का कत्ल कर दिया, क्योंकि वे भी मुस्लिम नहीं बनना चाहते थे। हम ऐसे मजहब को कैसे अपना सकते हैं?, जिसे न अपनाने पर कत्ल का भय हो, मुझे तो गायत्री मंत्र प्रिय है जो मुझे निर्भय बनाता है।’’ ''बेटी जीवन रहेगा तो ही धर्म रहेगा ना...जिद छोड दे और कबूल कर ले इस्लाम।'' बाबा ने अंतिम प्रयास किया था। उसने बाबा से सवाल किया था, ''बाबा आपने एक दिन बताया था कि गुरु गोबिंद सिंह के दो बच्चे दीवार में जिंदा चिनवा दिए थे, लेकिन उन्होंने इस्लाम नहीं कबूला था, क्या मैं उन सिख भाइयो की छोटी बहन नहीं? जब वे धर्म से नहीं डिगे तो मैं कैसे डिग सकती हूं?''‘‘दो टके की लौंडी, कलमा पढ़ने से इंकार करती है,’ डाॅक्टर नसरूद्दीन कमाल के साथ खड़े मौलाना नुरूद्दीन खान ने उसके बाल पकड़ते हुए चूल्हे पर गर्म हो रहे पानी के टब में उसका मुंह डूबा दिया था। पानी भभक रहा था, इतना गर्म था कि बनती भाप धुंए के समान नजर आ रही थी। बालिका के चेहरे की चमड़ी निकल गई थी एक बार ही डुबोते, चीख पड़ी थी, ‘‘भगवान मुझे बचा लो?’’ ‘‘तेरा पत्थर का भगवान तुझे बचाने नहीं आएगा, अब तो इस्लाम कबूल ले लड़की, नहीं तो इस बार तुझे इस खोलते पानी में डुबा दिया जाएगा।’’ मौलवी ने कहा था, फिर उसके दादा ने भी कहा, ‘‘कबूल कर ले बेटी इस्लाम, हम भी सब मुसलमान बन चुके, तू जिंदा रहेगी तो तेरे सहारे मेरा भी बुढ़ापा भी कट जाएगा।’’ मौलवी ने चूल्हे के पास से मिर्च पाउडर उठाकर उसकी आंखों में भरते हुए और चेहरे पर मलते हुए कहा, ‘‘दूध के दांत टूटे नहीं, और इस्लाम नहीं कबूलेगी।’’एक बार फिर तड़प उठी थी वह मासूम, पर इस बार भी यही कह रही थी, ‘‘नहीं मैं इस्लाम नहीं कबूल करूंगी।’’ मौलवी को भी क्रोध आ गया था, इस बार तो उसका सिर जलते हुए चूल्हें में ही दे डाला था। परंतु प्राण त्यागते हुए भी उस बालिका के मुख से यही निकल रहा था, ‘‘मैं इस्लाम नहीं कबूल करूंगी।’’ अंतिम बार डाॅक्टर नसरूद्दीन कमाल की ओर आशा भरी दृष्टि से देखा था, ‘‘मेरा धर्म बचा लो...डाॅक्टर साहब...पत्थर के भगवान नहीं आएंगे, आज से मैंने तुझे भगवान मान लिया...’’।अब उसमें कुछ नहीं रहा था, वह तो मिट्टी बन चुकी थी, डाॅक्टर नसरूद्दीन कमाल भी तो धर्मांतरण करने वाले लोगों की मंडली में ही शामिल था, लेकिन उस बालिका ने पता नहीं उसमें क्या देखा कि विधर्मी से ही धर्म बचाने की गुहार लगा बैठी थी, उस असहाय बालिका का धर्म के प्रति दृढ़ निश्चय देखकर हृदय चीत्कार कर उठा था नसरूद्दीन कमाल का, ‘‘या अल्लाह ऐसे इस्लाम के ठेकेदारों से तो मर जाना अच्छा है।’’ वह घर की ओर भाग लिया था और डाॅक्टर नसरूद्दीन कमाल पूरे दस दिन अपने घर से नहीं निकला, कुछ खाया पीया नहीं, बस उस बालिका का ध्यान बराबर करता और आंखों में आंसू भर आते उसके...गायत्री मंत्र का अर्थ जानने के लिए उसने एक किताब खरीदी। गलती से वह नूरे हकीकत यानी सत्यार्थ प्रकाश थी। उसने उसका गहराई से अध्ययन किया और 11 नवंबर 1981 को एक जनसमूह के सामने विश्व हिन्दू परिषद और आर्य समाज के तत्वावधान में अपने पूरे परिवार के साथ वैदिक धर्म अंगीकार कर लिया। डाॅक्टर नसरूद्दीन ने अब अपना नाम रखा था आचार्य मित्रजीवन, पत्नी का नाम बेगम नुसरत जहां से श्रीमती श्रद्धादेवी और तीन पुत्रियों शमीम, शबनम और शीरीन का नाम क्रमशः आम्रपाली, अर्चना और अपराजिता रखा गया। 15 नवंबर 1981 को आर्य समाज सांताक्रुज, मुंबई में उनका जोरदार स्वागत हुआ, जहां उन्होंने केवल एक ही बात कही, ‘‘मैं वैदेही को तो वापस नहीं ला सकता, लेकिन हिन्दू समाज से मेरी विनती है, मेरी बेटियों को वह अपनाए, वे हिन्दू परिवारों की बहू बनेंगी तो समझूंगा कि उस पाप का प्रायश्चित कर लिया, जो मेरी आंखों के सामने हुआ। हालांकि वह मैंने नहीं किया, लेकिन मैं भी दोषी था, क्योंकि मेरी आंखों के सामने एक मासूम बालिका की निर्मम हत्या कर दी गई।’’आचार्य मित्रजीवन ने अपना शेष जीवन वेदों के प्रचार-प्रसार में लगा दिया, इसलिए उन्हें आज बहुत से लोग जानते हैं, उनकी पुस्तकें पढ़ते हैं, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि वे जन्म से मुस्लिम थे और यह तो कोई जानता ही नहीं कि वैदेही कौन थी? वेद वृक्ष की छाया तले, पुस्तक का एक अंश, लेखिका फरहाना ताज -----------स्रोत : वैदेही के संदर्भ के लिए देखें 24 फरवरी 1981 इंडियन एक्सप्रेस वैदिक गर्जना, मासिक पत्रिका 1982 साभार