बुधवार, सितंबर 26, 2018

हिन्दू युवा तेजी से नास्तिक क्यों हो रहे है?

हिन्दू युवा तेजी से नास्तिक क्यों हो रहे है?
मेरे मित्र ने एक प्रश्न पूछा। हमारे देश के हिन्दू युवा बड़ी तेजी से नास्तिक क्यों बनते जा रहे है? इसका मुख्य कारण क्या है? उनकी हिन्दू धर्म की प्रगति में क्यों कोई विशेष रूचि नहीं दिखती?
यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न था। भारत के महानगरों से लेकर छोटे गांवों तक मुझे यह समस्या दिखी। इस प्रश्न के उत्तर में हिन्दू समाज का हित छिपा है। अगर इसका समाधान किया जाये तो भारत भूमि को संसार का आध्यात्मिक गुरु बनने से दोबारा कोई नहीं रोक सकता।
हिन्दू युवाओं के नास्तिक बनने के मुख्य चार कारण है।
1. हिन्दू समाज के धर्मगुरु में दूरदृष्टि की कमी होना है।
2. दूसरा कारण मीडिया में हिन्दू धर्मगुरुओं को नकारात्मक रूप से प्रदर्शित करना है।
3. हिन्दू विरोधी ताकतों द्वारा प्रचंड प्रचार है।
4. हिंदुओं में संगठन का अभाव
1. हिन्दू समाज के धर्मगुरु में दूरदृष्टि की कमी होना है।
हिन्दू समाज के धर्मगुरु अपने मठ बनाने में, धन जोड़ने में, पाखंड और अन्धविश्वास फैलाने में अधिक रूचि रखते है। हिन्दू समाज के युवाओं में ईसाई धर्मान्तरण,लव जिहाद, नशा, भोगवाद,चरित्रहीनता, नास्तिकता,अपने धर्मग्रंथों के प्रति अरुचि आदि समस्याएं दिख रही हैं। शायद ही कोई हिन्दू धर्मगुरु इन समस्याओं के निवारण पर ध्यान देता हैं। युवाओं की धर्म के प्रति बेरुखी का एक अन्य कारण उन्हें किसी भी धर्मगुरु द्वारा उचित मार्गदर्शन नहीं मिलना हैं। हिन्दू धर्मगुरु ज्यादा से ज्यादा करोड़ो एकत्र कर कोई बड़ा मंदिर बने लेंगे , अथवा कोई सत्संग कर लेंगे। इससे आगे समाज को दिशा निर्देश देने में उनकी कोई योजना नहीं दिखती।
2. दूसरा कारण मीडिया में हिन्दू धर्मगुरुओं को नकारात्मक रूप से प्रदर्शित करना है।
मीडिया की भूमिका भी इस समस्या को बढ़ाने में बहुत हद तक जिम्मेदार है। आशाराम बापू, शंकराचार्य का जेल भेजना, नित्यानंद की अश्लील सीडी, निर्मल बाबा और राधे माँ जैसे तथाकथित धर्मगुरुओं के कारनामों को मीडिया प्राइम टाइम, ब्रेकिंग न्यूज़, पैनल डिबेट आदि में घंटों, बार-बार, अनेक दिनों तक दिखाता हैं। जबकि मुस्लिम मौलवियों और ईसाई पादरियों के मदरसे में यौन शोषण, बलात्कार, मुस्लिम कब्रों पर अन्धविश्वास, चर्च में समलेंगिकता एवं ननों का शोषण, प्रार्थना से चंगाई आदि अन्धविश्वास आदि पर कभी कोई चर्चा नहीं दिखाता। इसके ठीक विपरीत मीडिया वाले ईसाई पादरियों को शांत, समझदार, शिक्षित, बुद्धिजीवी के रूप में प्रदर्शित करते हैं। मुस्लिम मौलवियों को शांति का दूत और मानवता का पैगाम देने वाले के रूप में मीडिया में दिखाया जाता है।
मीडिया के इस दोहरे मापदंड के कारण हिन्दू युवाओं में हिन्दू धर्म और धर्मगुरुओं के प्रति एक अरुचि की भावना बढ़ने लगती हैं। ईसाई और मुस्लिम धर्म के प्रति उनके मन में श्रद्धाभाव पनपने लगता हैं। इसका दूरगामी परिणाम अत्यंत चिंताजनक है। हिन्दू युवा आज गौरक्षा, संस्कृत, वेद, धर्मान्तरण जैसे विषयों पर सकल हिन्दू समाज के साथ खड़े नहीं दीखते। क्योंकि उनकी सोच विकृत हो चुकी है। वे केवल नाममात्र के हिन्दू बचे हैं। हिन्दू समाज जब भी विधर्मियों के विरोध में कोई कदम उठाता है तो हिन्दू परिवारों के युवा हिंदुओं का साथ देने के स्थान पर विधर्मियों के साथ अधिक खड़े दिखाई देते हैं। हम उन्हें साम्यवादी, नास्तिक, भोगवादी, cool dude कहकर अपना पिंड छुड़ा लेते है। मगर यह बहुत विकराल समस्या है जो तेजी से बढ़ रही है। इस समस्या को खाद देने का कार्य निश्चित रूप से मीडिया ने किया है।
3. हिन्दू विरोधी ताकतों द्वारा प्रचंड प्रचार है।
भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश होगा जहाँ पर इस देश के बहुसंख्यक हिंदुओं से अधिक अधिकार अल्पसंख्यक के नाम पर मुसलमानों और ईसाईयों को मि;मिले हुए हैं। इसका मुख्य कारण जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद आदि के नाम पर आपस में लड़ना है। इस आपसी मतभेद का फायदा अन्य लोग उठाते है। एक मुश्त वोट डाल कर पहले सत्ता को अपना पक्षधर बनाया गया। फिर अपने हित में सरकारी नियम बनाये गए। इस सुनियोजित सोच का परिणाम यह निकला कि सरकारी तंत्र से लेकर अन्य क्षेत्रों में विधर्मियों को मनाने ,उनकी उचित-अनुचित मांगों को मानने की एक प्रकार से होड़ ही लग गई। परिणम की हिंदुओं के देश में हिंदुओं के अराध्य, परंपरा, मान्यताओं पर तो कोई भी टिका-टिप्पणी आसानी से कर सकता है। जबकि अन्य विधर्मियों पर कोई टिप्पणी कर दे तो उसे सजा देने के लिए सभी संगठित हो जाते है। इस संगठित शक्ति, विदेशी पैसे के बल पर हिंदुओं के प्रति नकारात्मक माहौल देश में बनाया जा रहा है। ईसाई धर्मान्तरण सही और शुद्धि/घर वापसी को गलत बताया जा रहा है। मांसाहार को सही और गोरक्षा को गलत बताया जा रहा है। बाइबिल/क़ुरान को सही और वेद-गीता को पुरानी सोच बताया जा रहा है।
विदेशी आक्रांता गौरी-गजनी को महान और आर्यों को विदेशी बताया जा रहा है। इस षड़यंत्र का मुख्य उद्देश्य हिन्दू युवाओं को भ्रमित करना और नास्तिक बनाना है। इससे हिन्दू युवाओं अपने प्राचीन इतिहास पर गर्व करने के स्थान पर शर्म करने लगे। ऐसा उन्हें प्रतीत करवाया जाता है। हिन्दू समाज के विरुद्ध इस प्रचंड प्रचार के प्रतिकार में हिंदुओं के पास न कोई योजना है और न कोई नीति है।
4. हिंदुओं में संगठन का अभाव
हिन्दू समाज में संगठन का अभाव होना एक बड़ी समस्या है। इसका मुख्य कारण एक धार्मिक ग्रन्थ वेद, एक भाषा हिंदी, एक संस्कृति वैदिक संस्कृति और एक अराध्य ईश्वर में विश्वास न होना है। जब तक हिन्दू समाज इन विषयों पर एक नहीं होगा तब तक एकता स्थापित नहीं हो सकती। यही संगठन के अभाव का मूल कारण है। स्वामी दयानंद ने अपने अनुभव से भारत का भ्रमण कर हिंदुओं की धार्मिक अवनति की समस्या के मूल बीमारी की पहचान की और उस बीमारी की चिकित्सा भी बताई। मगर हिन्दू समाज उनकी बात को अपनाने के स्थान पर एक नासमझ बालक के समान उन्हीं का विरोध करने लग गया। इसका परिणाम अत्यंत विभित्स निकला। मुझे यह कहते हुए दुःख होता है कि जिन हिंदुओं के पूर्वजों ने मुस्लिम आक्रांताओं को लड़ते हुए युद्ध में यमलोक पंहुचा दिया था उन्हीं वीर पूर्वजों की मुर्ख सनातन आज अपनी कायरता का प्रदर्शन उन्हीं मुसलमानों की कब्रों पर सर पटक कर करती हैं।
राम और कृष्ण की नामलेवा संतान आज उन्हें छोड़कर साईं बाबा और चाँद मुहम्मद की कब्रों पर शिरडी जाकर सर पटकती है। चमत्कार की कुछ काल्पनिक कहानिया और मीडिया मार्केटिंग के अतिरिक्त साईं बाबा में मुझे कुछ नहीं दीखता। मगर हिन्दू है कि मूर्खों के समान भेड़ के पीछे भेड़ के रूप में उसके पीछे चले जाते हैं। जो विचारशील हिन्दू है वो इस मूर्खता को देखकर नास्तिक हो जाते हैं। जो अन्धविश्वासी हिन्दू है वो भीड़ में शामिल होकर भेड़ बन जाते हैं। मगर हिंदुओं को संगठित करने और हिन्दू समाज के समक्ष विकराल हो रही समस्यों को सुलझाने में उनकी कोई रूचि नहीं है। अगर हिन्दू समाज संगठित होता तो हिन्दू युवाओं को ऐसी मूर्खता करने से रोकता। मगर संगठन के अभाव में समस्या ऐसे की ऐसी बनी रही।
इस उत्तर को पढ़कर पाठक अपने चारों और भ्रमित हो रहे हिन्दू युवाओं को बचाने का प्रयास करेगे। ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है।
साभार व्हाट्सएप

सोमवार, सितंबर 24, 2018

सिखों और हिन्दुओ में अलगाववाद ??

हिंदु और सिखों में अलगांव वाद पैदा करनेवाले जरा एक बार बज्जर सिंह का चरित्र पढ़ ले -
सरदार बज्जर सिंह राठौड़ के विषय में, जिनका देश के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान है बहुत कम लोग इससे परिचित हैँ।
सरदार बज्जर सिंह राठौड सिक्खो के दसवे गुरू श्री गोविंद सिंह जी के गुरू थे ,जिन्होने उनको अस्त्र शस्त्र चलाने मे निपुण बनाया था। बज्जर सिंह जी ने गुरू गोविंद सिंह जी को ना केवल युद्ध की कला सिखाई बल्कि उनको बिना शस्त्र के द्वंद युद्ध, घुड़सवारी, तीरंदाजी मे भी निपुण किया। उन्हे राजपूत -मुगल युद्धो का भी अनुभव था और प्राचीन भारतीय युद्ध कला मे भी पारंगत थे। वो बहुत से खूंखार जानवरो के साथ अपने शिष्यों को लडवाकर उनकी परिक्षा लेते थे। गुरू गोविंद सिंह जी ने अपने ग्रन्थ बिचित्तर नाटक मे इनका वर्णन किया है। उनके द्वारा आम सिक्खो का सैन्यिकरण किया गया जो पहले ज्यादातर किसान और व्यापारी ही थे और भारतीय martial art गटखा का प्रशिक्षण भी दिया, ये केवल सिक्ख ही नही बल्की पूरे देश मे क्रांतिकारी परिवर्तन साबित हुआ।
बज्जर सिंह राठौड जी की इस विशेषता की तारीफ ये कहकर की जाती है कि जो कला सिर्फ राजपूतों तक सीमित थी उन्होंने मुग़लो से मुकाबले के लिये उसे खत्री सिक्ख गुरूओ को भी सिखाया, जिससे पंजाब में हिन्दुओ की बड़ी आबादी जिसमे आम किसान, मजदूर, व्यापारी आदि शामिल थे, इनका सैन्यकरण करना संभव हो सका।
===पारिवारिक पृष्टभूमि===
बज्जर सिंह जी सूर्यवंशी राठौड राजपूत वंश के शासक वर्ग से संबंध रखते थे। वो मारवाड के राठौड राजवंश के वंशंज थे --
वंशावली--
राव सीहा जी
राव अस्थान
राव दुहड
राव रायपाल
राव कान्हापाल
राव जलांसी
राव चंदा
राव टीडा
राव सल्खो
राव वीरम देव
राव चंदा
राव रीढमल
राव जोधा
राव लाखा
राव जोना
राव रामसिंह प्रथम
राव साल्हा
राव नत्थू
राव उडा ( उडाने राठौड इनसे निकले 1583 मे मारवाड के पतंन के बाद पंजाब आए)
राव मंदन
राव सुखराज
राव रामसिंह द्वितीय
सरदार बज्जर सिंह ( अपने वंश मे सरदार की उपाधि लिखने वाले प्रथम व्यक्ति) इनकी पुत्री भीका देवी का विवाह आलम सिंह चौहान (नचणा) से हुआ जिन्होंने गुरू गोविंद सिंह जी के पुत्रो को शस्त्र विधा सिखाई--।
1710 ईस्वी के चॉपरचिरी के युद्ध में इन्होंने भी बुजुर्ग अवस्था में बन्दा सिंह बहादुर के साथ मिलकर वजीर खान के विरुद्ध युद्ध किया और अपने प्राणों की आहुति दे दी।
स्त्रोत : गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा कृत-बिचित्तर नाटक
साभार विवेक आर्य

शनिवार, सितंबर 15, 2018

सिख पंथ हिन्दू समाज का अंग क्यों है?

सिख पंथ हिन्दू समाज का अंग क्यों है?
(सिख पंथ में अलगाववाद का विचार सन 1920 के दशक में अंग्रेजों द्वारा पोषित किया गया। आज इसे पाकिस्तान बढ़ावा दे रहा हैं। उससे पहले के सिख विचारक अलगाववाद के विपरीत हिन्दू समाज एक अंग के रूप में सिख पंथ मानते थे। श्री आनन्दपुर साहिब के तत्कालीन गद्दीनशीन टिक्का साहिब सोढी नारायण सिंह की रचना ख़ालसा धर्मशास्त्र पूर्वमीमांसा, श्री गुरमत प्रेस, अमृतसर, १९७० विक्रमी ,१९१३ ईसवी के प्रमुख अंश का हिन्दी अनुवाद यहाँ दिया जा रहा हैं। इसके अनुवादक स्वर्गीय श्री राजेन्द्र सिंह जी हैं।)
सारे हिन्दू-सम्प्रदायों की एकता की प्रतीक
गोमाता और उसकी रक्षा
साधारण रूप से ऐसे लोगों को ही हिन्दू कहा जाता है जो वेदों को इष्ट मानते हुए देवी, देवताओं और अव-तारों की मूर्तियां पूजते हैं, यज्ञोपवीत धारण करते और तिलक लगाते हैं तथा ब्राह्मणों के कर्मकाण्डों के प्रभाव-अधीन आए हुए लोग हैं। परन्तु वास्तव में केवल इन को ही हिन्दू मान लेना ठीक नहीं है क्योंकि चारों वर्ण और चारों आश्रमों के सारे लोग यज्ञोपवीत धारण करने वाले नहीं हैं, इस पर भी सारे ही हिन्दू हैं।
आर्यसमाजी लोग वेदों को तो इष्ट मानते हैं परन्तु ब्राह्मणों के प्रभावाधीन नहीं हैं। वे न तो ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड को मानते हैं और न ही पुराणों, अवतारों, देवी-देवताओं और तीर्थों-पितरों को मानते है, फिर भी वे हिन्दू हैं।
उसी प्रकार जैनमतावलम्बी और बौद्धमतावलम्बी, जो वेदों का खण्डन करते हैं, भी हिन्दू ही हैं। इसी प्रकार चारवाकी और आज के देवसमाजी इत्यादि भी, जो ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते और न ही परलोक को मानते हैं, हिन्दू ही हैं।
ब्रह्मसमाजी, जो वेदों को अन्य मज़हबों की मान्य पुस्तकों से विशिष्ट नहीं मानते, भी हिन्दू कहलाने के ही दावेदार हैं।
इसी प्रकार अन्यान्य मत-मतान्तरों के सारे लोग, जो ब्राह्मणों के मत से मतभिन्नता रखते हैं, भी हिन्दू ही कहलाते हैं।
इससे सिद्ध है कि केवल ब्राह्मणों के पीछे चलने वाले लोगों को, जो अपने-आपको सनातनधर्मी कहलवाते हैं, हिन्दू मानना भूल है। हां, इनका समुदाय हिन्दुओं की एक बड़ी शाखा होने से प्रमुख है।
वास्तव में हिन्दू कोई मज़हब, पन्थ अथवा सम्प्रदाय नहीं है। हिन्दू एक क़ौम है जिसमें हिन्दुस्तान देश के सारे स्वदेशी पन्थों, सम्प्रदायों और मत-मतान्तरों के जत्थे सम्मिलित हैं।
हिन्दू पद वैदिक नहीं वरन् लौकिक पद है। लौकिक भाषा में कई बोलियों के पद मिले होते हैं। हिंसा से दूर रहने वालों का नाम हिन्दू है। हिंसा पद से "हिं" और दूर पद से "दू" अक्षर लेकर "हिन्दू" पद बना है। इस स्थान पर हिंसा पद से गोहिंसा का प्रयोजन है। तात्पर्य यह है कि गो-हिंसा से दूर रहने वालों का नाम हिन्दू प्रसिद्घ हुआ है।
गो-हिंसा से दूर रहने के साथ दो गुण और भी हिन्दू होने के लिए आवश्यक हैं।
पहला यह कि परम्परा से हिन्दुस्तान की स्वदेशी सन्तान होना, चाहे उच्च से उच्च और नीच से नीच ब्राह्मणों से लेकर चाण्डालों तक हों, वर्ण-आश्रम अथवा वर्ण-आश्रम-विहीन हों तथा जातों, जमातों, गोत्रों के जितने भी जत्थों के लोग देसी सन्तान के हों।
और दूसरा गुण यह कि वे मूसाई, ईसाई, मुहम्मदी इत्यादी विदेशी मज़हबों की धारणा वाले न हों, स्वदेशी पन्थ ही की धारणा वाले हों; भले ही वैदिक, अवैदिक, आस्तिक, नास्तिक किसी प्रदेशीय मत-मतान्तर की धारणा वाले हों।
तात्पर्य यह है कि जितने लोग गो-हिंसा से दूर रहने वाले अर्थात् परहेज़ करने वाले स्वदेशी सन्तान के और स्वदेशी पन्थ रखने वाले हैं, इन सब की एक हिन्दू क़ौम है। जातों, जमातों और पन्थों के सम्प्रदायों को सन्मुख रखकर हिन्दू क़ौम अनगिनत जत्थों में बिखरी हुई है। परन्तु सबको एक क़ौमियत का विचार ही एक सूत्र में बांधने वाला है जिसका नाम हिन्दू क़ौम है और जिस देश के ये हिन्दू हैं, उस देश का नाम हिन्दुस्तान है और अहिंसक होने से यह हिन्दू पद पवित्र शब्द है।
अतः इस अर्थ में सिक्ख भी हिन्दू हैं, वे भी गो-हिंसा से दूर रहने वाले और स्वदेशी सन्तान के लोग हैं तथा सिक्ख-पन्थ भी स्वदेशी है अर्थात् इसी हिन्दुस्तान में ही प्रकट हुआ है। हिन्दू होने के ये तीन लक्षण सिक्खों में में बराबर पाये जाते हैं।
इससे भी बढ़ कर सिक्खों का हिन्दुओं के बीच होने का यह प्रमाण भी है कि हिन्दुओं की ऐतिहासिक और पौराणिक साखियां सिक्ख साहित्य में प्रयोग की जाती हैं। और भी अनेक गुण-कर्म-स्वभाव, खान-पान तथा पहनावे इत्यादि, आवागमन इत्यादि मान्यताएं, दिन- रात-महीने इत्यादि, हिन्दुओं के राष्ट्रीय त्यौहार तथा गो-हिंसकों से खान-पान में छुआछूत रखने के नियम इत्यादि हिन्दुओं वाली अनगिनत बातें सिक्खों के पन्थ में हैं, जो ईसाइओं और मुसलमानों में नहीं।
यह मानो हिन्दुओं की क़ौमियत रूपी सराय के आंगन की सांझ है। यदि ईसाइयों और मुसलमानों की भांति श्रीगुरु जी ने सिक्खों की क़ौम अलग बनाई होती तो सारी ही बातें पृथक् रूप से नयी बनतीं, परन्तु श्रीगुरु जी ने हिन्दुओं का सुधार किया है। सुधार में सभी बातों का उलट-पलट नहीं हुआ करता, जो-जो बातें बिगड़ी-तिगड़ी हों उन्हीं का सुधार होता है, शेष बातें यथावत् ही रहती हैं। ०

सोमवार, सितंबर 10, 2018

जानिए कैसे मुग़ल करते थे हिंदूओ की महिलाओ पर अत्याचार, खून खौल जायेगा पूरा सच जानकर!

जानिए कैसे मुग़ल करते थे हिंदूओ की महिलाओ पर अत्याचार, खून खौल जायेगा पूरा सच जानकर!
आतंकी संगठन आईएसआईएसआई के बारे में जब हम पढ़ते हैं कि वह अल्पसंख्यक यजीदी महिलाओं को यौन गुलाम बना रहा है तो हमें आश्चर्य होता है, लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों व मुगल बादशाहों ने भी बहुसंख्यक हिंदू महिलाओं को बड़े पैमाने पर यौन दास यानी सेक्स सेल्व्स बनाया था।
इसमें मुगल बादशाह शाहजहां का हरम सबसे अधिक बदनाम रहा, जिसके कारण दिल्ली का रेड लाइट एरिया जी.बी.रोड बसा। इतिहासकार वी. स्मिथ ने लिखा है, “शाहजहाँ के हरम में 8000 रखैलें थीं जो उसे उसके पिता जहाँगीर से विरासत में मिली थी। उसने बाप की सम्पत्ति को और बढ़ाया। उसने हरम की महिलाओं की व्यापक छाँट की तथा बुढ़ियाओं को भगा कर और अन्य हिन्दू परिवारों से बलात लाकर हरम को बढ़ाता ही रहा।”
-(अकबर दी ग्रेट मुगल : वी स्मिथ, पृष्ठ 359)
कहते हैं कि उन्हीं भगायी गयी महिलाओं से दिल्ली का रेडलाइट एरिया जी.बी. रोड गुलजार हुआ था और वहाँ इस धंधे की शुरूआत हुई थी। जबरन अगवा की हुई हिन्दू महिलाओं की यौन-गुलामी और यौन व्यापार को शाहजहाँ प्रश्रय देता था, और अक्सर अपने मंत्रियों और सम्बन्धियों को पुरस्कार स्वरूप अनेकों हिन्दू महिलाओं को उपहार में दिया करता था। यह नर पशु, यौनाचार के प्रति इतना आकर्षित और उत्साही था|
कि हिन्दू महिलाओं का मीना बाजार लगाया करता था, यहाँ तक कि अपने महल में भी। सुप्रसिद्ध यूरोपीय यात्री फ्रांकोइस बर्नियर ने इस विषय में टिप्पणी की थी कि, “महल में बार-बार लगने वाले मीना बाजार, जहाँ अगवा कर लाई हुई सैकड़ों हिन्दू महिलाओं का, क्रय-विक्रय हुआ करता था, राज्य द्वारा बड़ी संख्या में नाचने वाली लड़कियों की व्यवस्था, और नपुसंक बनाये गये सैकड़ों लड़कों की हरमों में उपस्थिती, शाहजहाँ की अनंत वासना के समाधान के लिए ही थी।”
-(ट्रेविल्स इन दी मुगल ऐम्पायर- फ्रान्कोइस बर्नियर :पुनः लिखित वी. स्मिथ, ऑक्सफोर्ड, 1934)
शाहजहाँ को प्रेम की मिसाल के रूप पेश किया जाता रहा है और किया भी क्यों न जाए , आठ हजार औरतों को अपने हरम में रखने वाला अगर किसी एक में ज्यादा रुचि दिखाए तो वो उसका प्यार ही कहा जाएगा। आप यह जानकर हैरान हो जायेंगे कि मुमताज का नाम मुमताज महल था ही नहीं बल्कि उसका असली नाम “अर्जुमंद-बानो-बेगम“ था और तो और जिस शाहजहाँ और मुमताज के प्यार की इतनी डींगे हांकी जाती है वो शाहजहाँ की ना तो पहली पत्नी थी ना ही आखिरी ।
मुमताज शाहजहाँ की सात बीबियों में चौथी थी । इसका मतलब है कि शाहजहाँ ने मुमताज से पहले 3 शादियाँ कर रखी थी और, मुमताज से शादी करने के बाद भी उसका मन नहीं भरा तथा उसके बाद भी उस ने 3 शादियाँ और की यहाँ तक कि मुमताज के मरने के एक हफ्ते के अन्दर ही उसकी बहन फरजाना से शादी कर ली थी। जिसे उसने रखैल बना कर रखा था जिससे शादी करने से पहले ही शाहजहाँ को एक बेटा भी था। अगर शाहजहाँ को मुमताज से इतना ही प्यार था तो मुमताज से शादी के बाद भी शाहजहाँ ने 3 और शादियाँ क्यों की?
शाहजहाँ की सातों बीबियों में सबसे सुन्दर मुमताज नहीं बल्कि इशरत बानो थी जो कि उसकी पहली पत्नी थी । शाहजहाँ से शादी करते समय मुमताज कोई कुंवारी लड़की नहीं थी बल्कि वो भी शादीशुदा थी और उसका पति शाहजहाँ की सेना में सूबेदार था जिसका नाम “शेर अफगान खान“ था। शाहजहाँ ने शेर अफगान खान की हत्या कर मुमताज से शादी की थी।
गौर करने लायक बात यह भी है कि 38 वर्षीय मुमताज की मौत कोई बीमारी या एक्सीडेंट से नहीं बल्कि चौदहवें बच्चे को जन्म देने के दौरान अत्यधिक कमजोरी के कारण हुई थी। यानी शाहजहाँ ने उसे बच्चे पैदा करने की मशीन ही नहीं बल्कि फैक्ट्री बनाकर मार डाला था। शाहजहाँ कामुकता के लिए इतना कुख्यात था, की कई इतिहासकारों ने उसे उसकी अपनी सगी बेटी जहाँआरा के साथ सम्भोग करने का दोषी तक कहा है।
शाहजहाँ और मुमताज महल की बड़ी बेटी जहाँआरा बिल्कुल अपनी माँ की तरह लगती थी इसीलिए मुमताज की मृत्यु के बाद उसकी याद में शाहजहाँ ने अपनी ही बेटी जहाँआरा को भोगना शुरू कर दिया था। जहाँआरा को शाहजहाँ इतना प्यार करता था कि उसने उसका निकाह तक होने न दिया। बाप-बेटी के इस प्यार को देखकर जब महल में चर्चा शुरू हुई, तो मुल्ला-मौलवियों की एक बैठक बुलाई गयी और उन्होंने इस पाप को जायज ठहराने के लिए एक हदीस का उद्धरण दिया और कहा कि – “माली को अपने द्वारा लगाये पेड़ का फल खाने का हक़ है|”
इतना ही नहीं जहाँआरा के किसी भी आशिक को वह उसके पास फटकने नहीं देता था। कहा जाता है की एकबार जहाँआरा जब अपने एक आशिक के साथ इश्क लड़ा रही थी तो शाहजहाँ आ गया जिससे डरकर वह हरम के तंदूर में छिप गया, शाहजहाँ ने तंदूर में आग लगवा दी और उसे जिन्दा जला दिया।
दरअसल अकबर ने यह नियम बना दिया था कि मुगलिया खानदान की बेटियों की शादी नहीं होगी। इतिहासकार इसके लिए कई कारण बताते हैं। इसका परिणाम यह होता था कि मुग़ल खानदान की लड़कियां अपने जिस्मानी भूख मिटाने के लिए अवैध तरीके से दरबारी, नौकर के साथ साथ, रिश्तेदार यहाँ तक की सगे सम्बन्धियों का भी सहारा लेती थी।कहा जाता है कि जहाँआरा अपने बाप के लिए लड़कियाँ भी फंसाकर लाती थी।
जहाँआरा की मदद से शाहजहाँ ने मुमताज के भाई शाइस्ता खान की बीबी से कई बार बलात्कार किया था। शाहजहाँ के राज ज्योतिष की 13 वर्षीय ब्राह्मण लडकी को जहाँआरा ने अपने महल में बुलाकर धोखे से नशा देकर बाप के हवाले कर दिया था, जिससे शाहजहाँ ने अपनी उम्र के 58 वें वर्ष में उस 13 बर्ष की ब्राह्मण कन्या से निकाह किया था। बाद में इसी ब्राहम्ण कन्या ने शाहजहाँ के कैद होने के बाद औरंगजेब से बचने और एक बार फिर से हवस की सामग्री बनने से खुद को बचाने के लिए अपने ही हाथों अपने चेहरे पर तेजाब डाल लिया था।
शाहजहाँ शेखी मारा करता था कि वह तिमूर (तैमूरलंग) का वंशज है जो भारत में तलवार और अग्नि लाया था। उस उजबेकिस्तान के जंगली जानवर तिमूर से और उसकी हिन्दुओं के रक्तपात की उपलब्धि से वह इतना प्रभावित था कि उसने अपना नाम तिमूर द्वितीय रख लिया था।
(दी लीगेसी ऑफ मुस्लिम रूल इन इण्डिया- डॉ. के.एस. लाल, 1992 पृष्ठ- 132)
बहुत प्रारम्भिक अवस्था से ही शाहजहाँ ने काफिरों (हिन्दुओं) के प्रति युद्ध के लिए साहस व रुचि दिखाई थी। अलग-अलग इतिहासकारों ने लिखा था कि, “शहजादे के रूप में ही शाहजहाँ ने फतेहपुर सीकरी पर अधिकार कर लिया था और आगरा शहर में हिन्दुओं का भीषण नरसंहार किया था।” भारत यात्रा पर आये देला वैले (इटली के एक धनी व्यक्ति) के अुनसार शाहजहाँ की सेना ने भयानक बर्बरता का परिचय दिया। हिन्दू नागरिकों को घोर यातनाओं द्वारा अपने संचित धन को दे देने के लिए विवश किया गया, और अनेकों उच्च कुल की कुलीन हिन्दू महिलाओं का शील भंग किया गया।
बुक फौर विजिटर्स टू आगरा एण्ड इट्स नेबरहुड, पृष्ठ 25)
हमारे वामपंथी इतिहासकारों ने शाहजहाँ को एक महान निर्माता के रूप में चित्रित किया है। किन्तु इस मुजाहिद ने अनेकों कला के प्रतीक सुन्दर हिन्दू मन्दिरों और अनेकों हिन्दू भवन निर्माण कला के केन्द्रों का बड़ी लगन और जोश से विध्वंस किया था। अब्दुल हमीद ने, ’बादशाहनामा’ में लिखा था- ’’महामहिम शहंशाह महोदय की सूचना में लाया गया कि हिन्दुओं के एक प्रमुख केन्द्र, बनारस में उनके अब्बा हुजूर के शासनकाल में अनेकों मन्दिरों के पुनः निर्माण का काम प्रारम्भ हुआ था और काफिर हिन्दू अब उन्हें पूर्ण कर देने के निकट आ पहुँचे हैं। इस्लाम पंथ के रक्षक, शहंशाह ने आदेश दिया कि बनारस में और उनके सारे राज्य में अन्यत्र सभी स्थानों पर जिन मन्दिरों का निर्माण कार्य आरम्भ है,उन सभी का विध्वंस कर दिया जाए। इलाहाबाद प्रदेश से सूचना प्राप्त हो गई कि जिला बनारस के छिहत्तर मन्दिरों का ध्वंस कर दिया गया था।’’-(बादशाहनामा : अब्दुल हमीद लाहौरी, अनुवाद एलियट और डाउसन, खण्ड VII, पृष्ठ 36)हिन्दू मंदिरों को अपवित्र करने और उन्हें ध्वस्त करने की प्रथा ने शाहजहाँ के काल में एक व्यवस्थित विकराल रूप धारण कर लिया था।
-(मध्यकालीन भारत – हरीश्चंद्र वर्मा – पेज-141)
कश्मीर से लौटते समय 1632 में शाहजहाँ को बताया गया कि अनेकों मुस्लिम बनायी गयी महिलायें फिर से हिन्दू हो गईं हैं और उन्होंने हिन्दू परिवारों में शादी कर ली है। शहंशाह के आदेश पर इन सभी हिन्दुओं को बन्दी बना लिया गया। उन सभी पर इतना आर्थिक दण्ड थोपा गया कि उनमें से कोई भुगतान नहीं कर सका। तब इस्लाम स्वीकार कर लेने और मृत्यु में से एक को चुन लेने का विकल्प दिया गया। जिन्होनें धर्मान्तरण स्वीकार नहीं किया, उन सभी पुरूषों का सर काट दिया गया। लगभग चार हजार पाँच सौं महिलाओं को बलात मुसलमान बना लिया गया और उन्हें सिपहसालारों, अफसरों और शहंशाह के नजदीकी लोगों और रिश्तेदारों के हरम में भेज दिया गया।-(हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल : आर.सी. मजूमदार, भारतीय विद्या भवन, पृष्ठ 312)
1657 में शाहजहाँ बीमार पड़ा और उसी के बेटे औरंगजेब ने उसे उसकी बेटी जहाँआरा के साथ आगरा के किले में बंद कर दिया । परन्तु औरंगजेब ने अपने बाप की अय्याशी का पूरा इंतजाम रखा। अपने बाप की कामुकता को समझते हुए उसे अपने साथ 40 रखैलें (शाही वेश्याएँ) रखने की इजाजत दे दी और दिल्ली आकर उसने बाप के हजारों रखैलों में से कुछ गिनी चुनी औरतों को अपने हरम में डालकर बाकी सभी को किले से बाहर निकाल दिया। उन हजारों महिलाओं को भी दिल्ली के उसी हिस्से में पनाह मिली जिसे आज दिल्ली का रेड लाईट एरिया जीबी रोड कहा जाता है। जो उसके अब्बा शाहजहाँ की मेहरबानी से ही बसा और गुलजार हुआ था ।शाहजहाँ की मृत्यु आगरे के किले में ही 22 जनवरी 1666 ईस्वी में 74 साल में हुई। ’द हिस्ट्री चैनल’ के अनुसार अत्यधिक कामोत्तेजक दवाएँ खा लेने का कारण उसकी मौत हुई थी। यानी जिन्दगी के आखिरी वक्त तक वो अय्याशी ही करता रहा था। अब आप खुद ही सोचें कि क्यों ऐसे बदचलन और दुश्चरित्र इंसान को प्यार की निशानी समझा कर महान बताया जाता है?
क्या ऐसा बदचलन इंसान कभी किसी से प्यार कर सकता है? क्या ऐसे वहशी और क्रूर व्यक्ति की अय्याशी की कसमें खाकर लोग अपने प्यार को बे-इज्जत नही करते हैं?दरअसल ताजमहल और प्यार की कहानी इसीलिए गढ़ी गयी है कि लोगों को गुमराह किया जा सके और लोगों खास कर हिन्दुओं से छुपायी जा सके कि ताजमहल कोई प्यार की निशानी नहीं बल्कि महाराज जय सिंह द्वारा बनवाया गया भगवान् शिव का मंदिर तेजो महालय है! इतिहासकार पी.एन.ओक ने पुरातात्विक साक्ष्घ्यों के जरिए बकायदा इसे साबित किया है और इस पर पुस्तकें भी लिखी हैं।असलियत में मुगल इस देश में धर्मान्तरण, लूट-खसोट और अय्याशी ही करते रहे परन्तु नेहरू के आदेश पर हमारे इतिहासकारों नें इन्हें जबरदस्ती महान बनाया और ये सब हुआ झूठी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर।

शनिवार, सितंबर 08, 2018

सदाचार बनाम समलेंगिकता

सदाचार बनाम समलेंगिकता
डॉ विवेक आर्य
सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैगिंकता को धारा 377 के अंतर्गत अपराध की श्रेणी से हटा दिया है। अपने आपको सामाजिक कार्यकर्ता कहने वाले, आधुनिकता का दामन थामने वाले एक विशेष बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा सुप्रीम कोर्ट क निर्णय पर बहुत प्रसन्न हो रहे है। उनका कहना है कि अंग्रेजों द्वारा 1861 में बनाया गया कानून आज अप्रासंगिक है। धारा 377 को यह जमात सामाजिक अधिकारों में भेदभाव और मौलिक अधिकारों का हनन बताती है। समलैगिंकता का समर्थन करने वालो का पक्ष का कहना है कि इससे HIV कि रोकथाम करने में रुकावट होगी क्यूंकि समलैगिंक समाज के लोग रोक लगने पर खुलकर सामने नहीं आते।
अधिकतर धार्मिक संगठन धारा 377 के हटाने के विरोध में हैं। उनका कहना है कि यह करोड़ो भारतीयों का जो नैतिकता में विश्वास रखते हैं उनकी भावनाओं का आदर हैं। आईये समलेंगिकता को प्रोत्साहन देना क्यों गलत है इस विषयकी तार्किक विवेचना करें।
हमें इस तथ्य पर विचार करने की आवश्यकता है कि अप्राकृतिक सम्बन्ध समाज के लिए क्यों अहितकारक है। अपने आपको आधुनिक बनाने की हौड़ में स्वछन्द सम्बन्ध की पैरवी भी आधुनिकता का परिचायक बन गया हैं। सत्य यह हैं कि इसका समर्थन करने वाले इसके दूरगामी परिणामों की अनदेखी कर देते हैं। प्रकृति ने मानव को केवल और केवल स्त्री-पुरुष के मध्य सम्बन्ध बनाने के लिए बनाया है। इससे अलग किसी भी प्रकार का सम्बन्ध अप्राकृतिक एवं निरर्थक है। चाहे वह पुरुष-पुरुष के मध्य हो, स्त्री स्त्री के मध्य हो। वह विकृत मानसिकता को जन्म देता है। उस विकृत मानसिकता कि कोई सीमा नहीं है। उसके परिणाम आगे चलकर बलात्कार (Rape) , सरेआम नग्न होना (Exhibitionism), पशु सम्भोग (Bestiality), छोटे बच्चों और बच्चियों से दुष्कर्म (Pedophilia), हत्या कर लाश से दुष्कर्म (Necrophilia), मार पीट करने के बाद दुष्कर्म (Sadomasochism) , मनुष्य के शौच से प्रेम (Coprophilia) और न जाने किस-किस रूप में निकलता हैं। अप्राकृतिक सम्बन्ध से संतान न उत्पन्न हो सकना क्या दर्शाता है? सत्य यह है कि प्रकृति ने पुरुष और नारी के मध्य सम्बन्ध का नियम केवल और केवल संतान की उत्पत्ति के लिए बनाया था। आज मनुष्य ने अपने आपको उन नियमों से ऊपर समझने लगा है। जिसे वह स्वछंदता समझ रहा है। वह दरअसल अज्ञानता है। भोगवाद मनुष्य के मस्तिष्क पर ताला लगाने के समान है। भोगी व्यक्ति कभी भी सदाचारी नहीं हो सकता। वह तो केवल और केवल स्वार्थी होता है। इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य को सामाजिक हितकारक नियम पालन का करने के लिए बाध्य होना चाहिए। जैसे आप अगर सड़क पर गाड़ी चलाते है। तब आप उसे अपनी इच्छा से नहीं अपितु ट्रैफिक के नियमों को ध्यान में रखकर चलाता है। वहाँ पर क्यों स्वछंदता के मौलिक अधिकार का प्रयोग नहीं करता? अगर करेगा तो दुर्घटना हो जायेगी। जब सड़क पर चलने में स्वेच्छा की स्वतंत्रता नहीं है। तब स्त्री पुरुष के मध्य संतान उत्पत्ति करने के लिए विवाह व्यवस्था जैसी उच्च सोच को नकारने में कैसी बुद्धिमत्ता है?
कुछ लोगो द्वारा समलेंगिकता के समर्थन में खजुराओ की नग्न मूर्तियाँ अथवा वात्सायन का कामसूत्र को भारतीय संस्कृति और परम्परा का नाम दिया जा रहा है। जबकि सत्य यह है कि भारतीय संस्कृति का मूल सन्देश वेदों में वर्णित संयम विज्ञान पर आधारित शुद्ध आस्तिक विचारधारा हैं।
भौतिकवाद अर्थ और काम पर ज्यादा बल देता हैं। जबकि अध्यातम धर्म और मुक्ति पर ज्यादा बल देता हैं । वैदिक जीवन में दोनों का समन्वय हैं। एक ओर वेदों में पवित्र धनार्जन करने का उपदेश है। दूसरी ओर उसे श्रेष्ठ कार्यों में दान देने का उपदेश है। एक ओर वेद में सम्बन्ध केवल और केवल संतान उत्पत्ति के लिए है। दूसरी तरफ संयम से जीवन को पवित्र बनाये रखने की कामना है । एक ओर वेद में बुद्धि की शांति के लिए धर्म की और दूसरी ओर आत्मा की शांति के लिए मोक्ष (मुक्ति) की कामना है। धर्म का मूल सदाचार है। अत: कहाँ गया है कि आचार परमो धर्म: अर्थात सदाचार परम धर्म है। आचारहीन न पुनन्ति वेदा: अर्थात दुराचारी व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते। अत: वेदों में सदाचार, पाप से बचने, चरित्र निर्माण, ब्रहमचर्य आदि पर बहुत बल दिया गया है
जैसे-
यजुर्वेद ४/२८ – हे ज्ञान स्वरुप प्रभु मुझे दुश्चरित्र या पाप के आचरण से सर्वथा दूर करो तथा मुझे पूर्ण सदाचार में स्थिर करो।
ऋग्वेद ८/४८/५-६ – वे मुझे चरित्र से भ्रष्ट न होने दे।
यजुर्वेद ३/४५- ग्राम, वन, सभा और वैयक्तिक इन्द्रिय व्यवहार में हमने जो पाप किया हैं उसको हम अपने से अब सर्वथा दूर कर देते हैं।
यजुर्वेद २०/१५-१६- दिन, रात्रि, जागृत और स्वपन में हमारे अपराध और दुष्ट व्यसन से हमारे अध्यापक, आप्त विद्वान, धार्मिक उपदेशक और परमात्मा हमें बचाए।
ऋग्वेद १०/५/६- ऋषियों ने सात मर्यादाएं बनाई हैं. उनमे से जो एक को भी प्राप्त होता हैं, वह पापी हैं. चोरी, व्यभिचार, श्रेष्ठ जनों की हत्या, भ्रूण हत्या, सुरापान, दुष्ट कर्म को बार बार करना और पाप करने के बाद छिपाने के लिए झूठ बोलना।
अथर्ववेद ६/४५/१- हे मेरे मन के पाप! मुझसे बुरी बातें क्यों करते हो? दूर हटों. मैं तुझे नहीं चाहता।
अथर्ववेद ११/५/१०- ब्रहमचर्य और तप से राजा राष्ट्र की विशेष रक्षा कर सकता हैं।
अथर्ववेद११/५/१९- देवताओं (श्रेष्ठ पुरुषों) ने ब्रहमचर्य और तप से मृत्यु (दुःख) का नष्ट कर दिया हैं।
ऋग्वेद ७/२१/५- दुराचारी व्यक्ति कभी भी प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता।
इस प्रकार अनेक वेद मन्त्रों में संयम और सदाचार का उपदेश हैं।
खजुराओ आदि की व्यभिचार को प्रदर्शित करने वाली मूर्तियाँ , वात्सायन आदि के अश्लील ग्रन्थ एक समय में भारत वर्ष में प्रचलित हुए वाममार्ग का परिणाम हैं। जिसके अनुसार मांसाहार, मदिरा एवं व्यभिचार से ईश्वर प्राप्ति है। कालांतर में वेदों का फिर से प्रचार होने से यह मत समाप्त हो गया पर अभी भी भोगवाद के रूप में हमारे सामने आता रहता है।
मनु स्मृति में समलेंगिकता के लिए दंड एवं प्रायश्चित का विधान होना स्पष्ट रूप से यही दिखाता है कि हमारे प्राचीन समाज में समलेंगिकता किसी भी रूप में मान्य नहीं थी। कुछ कुतर्की यह भी कह रहे है कि मनुस्मृति में अत्यंत थोडा सा दंड है। उनके लिए मेरी सलाह हैं कि उसी मनुस्मृति में ब्रह्मचर्य व्रत का नाश करने वाले के लिए मनु स्मृति में दंड का क्या विधान हैं, जरा देख ले।
इसके अतिरिक्त बाइबिल, क़ुरान दोनों में इस सम्बन्ध को अनैतिक, अवाँछनीय, अवमूल्यन का प्रतीक बताया गया हैं।
जो लोग यह कुतर्क देते हैं कि समलेंगिकता पर रोक से AIDS कि रोकथाम होती हैं। उनके लिए विशेष रूप से यह कहना चाहूँगा कि समाज में जितना सदाचार बढ़ेगा, उतना समाज में अनैतिक सम्बन्धो पर रोकथाम होगी। आप लोगो का तर्क कुछ ऐसा है कि आग लगने पर पानी कि व्यवस्था करने में रोक लगने के कारण दिक्कत होगी, हम कह रहे है कि आग को लगने ही क्यूँ देते हो? भोग रूपी आग लगेगी तो नुकसान तो होगा ही होगा। कहीं पर बलात्कार होगे, कहीं पर पशुओं के समान व्यभिचार होगा , कहीं पर बच्चों को भी नहीं बक्शा जायेगा। इसलिए सदाचारी बनो नाकि व्यभिचारी।
एक कुतर्क यह भी दिया जा रहा है कि समलेंगिक समुदाय अल्पसंख्यक है, उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए उन्हें अपनी बात रखने का मौका मिलना चाहिए। मेरा इस कुतर्क को देने वाले सज्जन से प्रश्न है कि भारत भूमि में तो अब अखंड ब्रह्मचारी भी अल्प संख्यक हो चले है। उनकी भावनाओं का सम्मान रखने के लिए मीडिया द्वारा जो अश्लीलता फैलाई जा रही हैं उनपर लगाम लगाना भी तो अल्पसंख्यक के हितों कि रक्षा के समान हैं।
एक अन्य कुतर्की ने कहा कि पशुओं में भी समलेंगिकता देखने को मिलती हैं। मेरा उस बंधू से एक ही प्रश्न हैं कि अनेक पशु बिना हाथों के केवल जिव्हा से खाते हैं, आप उनका अनुसरण क्यूँ नहीं करते? अनेक पशु केवल धरती पर रेंग कर चलते है आप उनका अनुसरण क्यूँ नहीं करते ? चकवा चकवी नामक पक्षी अपने साथी कि मृत्यु होने पर होने प्राण त्याग देता हैं, आप उसका अनुसरण क्यूँ नहीं करते?
ऐसे अनेक कुतर्क हमारे समक्ष आ रहे हैं जो केवल भ्रामक सोच का परिणाम हैं।
जो लोग भारतीय संस्कृति और प्राचीन परम्पराओं को दकियानूसी और पुराने ज़माने कि बात कहते हैं वे वैदिक विवाह व्यवस्था के आदर्शों और मूलभूत सिद्धांतों से अनभिज्ञ हैं। चारों वेदों में वर-वधु को महान वचनों द्वारा व्यभिचार से परे पवित्र सम्बन्ध स्थापित करने का आदेश हैं। ऋग्वेद के मंत्र के स्वामी दयानंद कृत भाष्य में वर वधु से कहता हैं। हे स्त्री ! मैं सौभाग्य अर्थात् गृहाश्रम में सुख के लिए तेरा हस्त ग्रहण करता हूँ और इस बात की प्रतिज्ञा करता हूँ की जो काम तुझको अप्रिय होगा उसको मैं कभी ना करूँगा। ऐसे ही स्त्री भी पुरुष से कहती हैं की जो कार्य आपको अप्रिय होगा वो मैं कभी न करूँगी और हम दोनों व्यभिचारआदि दोषरहित होके वृद्ध अवस्था पर्यन्त परस्पर आनंद के व्यवहार करेगे। परमेश्वर और विद्वानों ने मुझको तेरे लिए और तुझको मेरे लिए दिया हैं , हम दोनों परस्पर प्रीती करेंगे तथा उद्योगी हो कर घर का काम अच्छी तरह और मिथ्याभाषण से बचकर सदा धर्म में ही वर्तेंगे। सब जगत का उपकार करने के लिए सत्यविद्या का प्रचार करेंगे और धर्म से संतान को उत्पन्न करके उनको सुशिक्षित करेंगे। हम दूसरे स्त्री और दूसरे पुरुष से मन से भी व्यभिचार ना करेगे।
एक और गृहस्थ आश्रम में इतने उच्च आचार और विचार का पालन करने का मर्यादित उपदेश हैं , दूसरी ओर पशु के समान स्वछन्द अमर्यादित सोच हैं। पाठक स्वयं विचार करे कि मनुष्य जाति कि उन्नति उत्तम गृहस्थी बनकर समाज को संस्कारवान संतान देने में हैं अथवा पशुओं के समान कभी इधर कभी उधर मुँह मारने में हैं।
समलेंगिकता एक विकृत सोच है , मनोरोग है, बीमारी है। इसका समाधान इसका विधिवत उपचार है। नाकि इसे प्रोत्साहन देकर सामाजिक व्यवस्था को भंग करना है। इसका समर्थन करने वाले स्वयं अँधेरे में है औरो को भला क्या प्रकाश दिखायेंगे। कभी समलेंगिकता का समर्थन करने वालो ने भला यह सोचा है कि अगर सभी समलेंगिक बन जायेगे तो अगली पीढ़ी कहा से आयेगी? सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलेंगिकता को दंड की श्रेणी से बाहर निकालने का हम पुरजोर असमर्थन करते है।

मेरे परदादा


मेरे परदादा,
संस्कृत और हिंदी जानते थे।
माथे पे तिलक,
और सर पर पगड़ी बाँधते थे।।
फिर मेरे दादा जी का,
दौर आया।
उन्होंने पगड़ी उतारी,
पर जनेऊ बचाया।।
मेरे दादा जी,
अंग्रेजी बिलकुल नहीं जानते थे।
जानना तो दूर,
अंग्रेजी के नाम से कन्नी काटते थे।।
मेरे पिताजी को अंग्रेजी,
थोड़ी थोड़ी समझ में आई।
कुछ खुद समझे,
कुछ अर्थ चक्र ने समझाई।।
पर वो अंग्रेजी का प्रयोग,
मज़बूरी में करते थे।
यानि सभी सरकारी फार्म,
हिन्दी में ही भरते थे।।
जनेऊ उनका भी,
अक्षुण्य था।
पर संस्कृत का प्रयोग,
नगण्य था।।
वही दौर था, जब संस्कृत के साथ,
संस्कृति खो रही थी।
इसीलिए संस्कृत,
मृत भाषा घोषित हो रही थी।।
धीरे धीरे समय बदला,
और नया दौर आया।
मैंने अंग्रेजी को पढ़ा ही नहीं,
अच्छे से चबाया।।
मैंने खुद को,
हिन्दी से अंग्रेजी में लिफ्ट किया।
साथ ही जनेऊ को,
पूजा घर में सिफ्ट किया।।
मै बेवजह ही दो चार वाक्य,
अंग्रेजी में झाड जाता हूँ।
शायद इसीलिए समाज में,
पढ़ा लिखा कहलाता हूँ।।
और तो और,
मैंने बदल लिए कई रिश्ते नाते हैं।
मामा, चाचा, फूफा,
अब अंकल नाम से जाने जाते हैं।।
मै टोन बदल कर वेद को वेदा,
और राम को रामा कहता हूँ।
और अपनी इस तथा कथित,
सफलता पर गर्वित रहता हूँ।।
मेरे बच्चे,
और भी आगे जा रहे हैं।
मैंने संस्कार चबाया था,
वो अंग्रेजी में पचा रहे हैं।।
यानि उन्हें दादी का मतलब,
ग्रैनी बताया जाता है।
रामा वाज ए हिन्दू गॉड,
गर्व से सिखाया जाता है।।
जब श्रीमती जी उन्हें,
पानी मतलब वाटर बताती हैं।
और अपनी इस प्रगति पर,
मंद मंद मुस्काती हैं।।
जाने क्यों मेरे पूजा घर की,
जीर्ण जनेऊ चिल्लाती है।
और मंद मंद,
कुछ मन्त्र यूँ ही बुदबुदाती है।।
कहती है - ये विकास,
भारत को कहाँ ले जा रहा है।
संस्कार तो गल गए,
अब भाषा को भी पचा रहा है।।
संस्कृत की तरह हिन्दी भी,
एक दिन मृत घोषित हो जाएगी ।
शायद उस दिन भारत भूमि,
पूर्ण विकसित हो जाएगी॥
_इसके दोषी सिर्फ हम और हम ही हैं_

अब स्कुलो में होगा समलैंगिकता का प्रचार। सहज स्वीकार्य बनाने का कम्युनिस्ट एजेंडा ।

समलैंगिकता पर कोर्ट के निर्णय के साथ ही लोगबाग जाग गए. हमने प्रतिक्रियाएँ देनी शुरू कर दीं क्योंकि हम किस बात पर प्रतिक्रिया देंगे यह हमेशा दूसरे खेमे से तय किया जाता है.
एक सामान्य प्रतिक्रिया है कि लोगों को पप्पू याद आएगा ही आएगा. कुछ हँसी मजाक होगा. समलैंगिकता की उससे ज्यादा प्रासंगिकता हमारे समाज में कभी नहीं थी. अगर कोई समलैंगिक निकल आता है तो हमारे देश में यह थोड़े मजाक और थोड़े कटाक्ष से ज्यादा बड़ा विषय कभी नहीं बनता. आपने किसी को जेल जाते तो नहीं सुना होगा.
पर पश्चिम की बात कुछ और है. यहाँ यह सचमुच दंडनीय अपराध था. ऑस्कर वाइल्ड ने कई साल जेल में गुजारे थे. पर वह तो था ही मोटी चमड़ी वाला. उससे ज्यादा दुखद कहानी है कंप्यूटर के आविष्कारक गणितज्ञ एलन ट्यूरिंग की. ट्यूरिंग बेचारा शर्मीला सा आदमी था. उसे बेइज्जती झेलने की आदत नहीं थी. उसे सजा के तौर पर कुछ साल हॉर्मोन थेरेपी दी गई, फिर उसने आत्महत्या कर ली.
इन दुखद कहानियों का बहुत बड़ा बाजार है. भारतीयों का कोमल हृदय ऐसी ट्रैजिक कहानियों के लिए बहुत ही उर्वर मिट्टी है. तो आज मुझे भी एक-दो सहानुभूति से भरी हुई पोस्ट्स मिलीं, जिनमें समलैंगिकों की व्यक्तिगत पसंद और जीवन शैली के प्रति सम्मान और स्वीकार्यता के स्वर थे.
पर यहाँ किसी के लिए भी समलैंगिक व्यक्तियों के सेक्सुअल ओरिएंटेशन की पसंद और निजता का विषय विमर्श का केंद्र नहीं है. भारत में यूँ ही सेक्स एक ऐसा टैबू है कि कोई सामान्यतः सेक्स की बात नहीं करता. सेक्स टीनएजर्स के बीच एक कौतूहल और जोक्स के अलावा किसी गंभीर चर्चा में कोई स्थान नहीं पाता. इसलिए अगर आप अपने व्यक्तिगत जीवन में समलैंगिक हों तो कोई यूँ भी आपकी निजता में झाँकने नहीं आने वाला.
पर यह कम्युनिस्ट्स के लिए एक बड़ा विषय है. क्यों? क्योंकि इसमें कम्युनिस्ट उद्देश्यों की पूर्ति का बहुत स्कोप है. पहली तो कि इसमें आइडेंटिटी पॉलिटिक्स जुड़ी है. आप आज इसे महत्वपूर्ण नहीं समझते, पर 15-20 सालों में यह एक बड़ा विषय हो जाएगा. जितने समलैंगिक होंगे, उनके लिए यह उनकी पहचान का सबसे बड़ा भाग होगा. उन्हें हर समय हर किसी को यह बताना बहुत जरूरी लगेगा कि वे गे/लेस्बियन हैं.
फिर अगला पक्ष आएगा अधिकारों का - गे/लेस्बियन के अधिकार परिभाषित किये जायेंगे, और जब वे परिभाषित कर दिए जाएंगे तो जाहिर है कि उनका हनन हो रहा होगा, जो कि वामपंथी संदर्भ में हर समाज में होता है. वामपंथी शब्दकोश में समाज की परिभाषा ही यह है, कि वह इकाई जहाँ आपके अधिकार छीने जाते हैं उसे समाज कहते हैं.
फिर एट्रोसिटी लिटरेचर की बाढ़ आएगी. आपको जरा जरा सी बात पर होमोफोबिक करार दिया जाएगा. कोई यह थ्योरी लेकर आएगा कि हिन्दू सभ्यता में सदियों से समलैंगिकों का शोषण होता आ रहा है. राम ने बाली और रावण को इसलिए मार दिया था क्योंकि दोनों गे थे, और इसी वजह से कृष्ण ने शिशुपाल को मार दिया था.
यहाँ तक आप इसे नुइसन्स समझ कर झेल लोगे. लेकिन तब यह समस्या बन के आपके बच्चों की तरफ बढ़ेगा. क्योंकि उन्हें रिक्रूट चाहिए. समाज के 2-3% समलैंगिक सामाजिक संघर्ष के लिए अच्छा मटेरियल नहीं हैं. बढ़िया संघर्ष के लिए इन्हें 10-15% होना चाहिए. तो ये स्कूलों में समलैंगिकता को प्रचारित करेंगे, उसे प्राकृतिक और फिर श्रेष्ठ बताएंगे. समलैंगिक खिलाड़ियों और फ़िल्म स्टार्स की कहानियाँ बच्चों तक पहुंचने लगेंगी. इसे ग्लैमराइज किया जाएगा.
मुझे कैसे पता? क्योंकि यह सब हो चुका है. यह सारा ड्रामा 1950-60 के दशक में अमेरिका में और 70-80 के दशक में इंग्लैंड और यूरोप में खेला जा चुका है. समाज में परिवार नाम की संस्था इनके निशाने पर है, इसलिए ये एक समलैंगिक परिवार की कहानी चलाने में लगे हुए हैं. समलैंगिक शादियाँ, उनके गोद लिए हुए बच्चे...परिवार के समानांतर एक संस्था खड़ी की जा रही है. साथ ही यह वर्ग नशे के लिए भी बहुत अच्छा बाजार है, डिप्रेशन का भी शिकार औसत से ज्यादा है और इस वजह से सोशल सिक्योरिटी सिस्टम यानी मुफ्तखोरी की व्यवस्था का भी अच्छा ग्राहक है.
जो चीज सबसे ज्यादा चुभेगी आपको, वह है उनका समलैंगिकता का विज्ञापन. जैसे कि धूप में आप काले हो रहे हैं...बोल कर आपको फेयरनेस क्रीम बेच दी जाती है. युवाओं और किशोरों को बताया जाएगा कि उनके जीवन में जो कुछ खालीपन है, जो कूलत्व घट रहा है उसकी भरपाई सिर्फ समलैंगिकता से हो सकती है. बहुत से टीनएजर्स सिर्फ पीअर प्रेशर में, कूल बनने के लिए समलैंगिकता के प्रयोग करते हैं. इसे यहाँ कहते हैं "एक्सप्लोरिंग योर सेक्सुअलिटी".
हर शहर में हर साल गे-प्राइड परेड के आयोजन होंगे, जिनमें लड़के पिंक रिबन बाँध कर और लिपस्टिक लगा कर और लड़कियाँ सर मुंड़ा कर LGBT की फ्लैग लेकर दारू पीते और सड़कों पर चूमते मिलेंगे. यह विज्ञापन और रिक्रूटमेंट इस परिवर्तन का सबसे घिनौना पक्ष है. आज जो बात इससे शुरू हुई है कि अपने बेडरूम में कोई क्या करता है यह उसका निजी मामला है, तो मामला वह निजी रह क्यों नहीं जाता, उसे पूरे शहर को प्रदर्शित करने और पब्लिक का मामला बनाने की क्या मजबूरी हो जाती है? कैसे एक व्यक्ति का सेक्सुअल ओरिएंटेशन उसकी पूरी आइडेंटिटी बन जाता है?
इसकी हद सुनेंगे? मेरे बच्चों के स्कूल में एक महिला को बुलाया गया एनुअल डे में चीफ गेस्ट के रूप में. उनकी तारीफ यह थी कि वे LGBT के लिए एक चैरिटी चलाती थीं. यह चैरिटी बच्चों को समलैंगिकता को प्राकृतिक रूप से स्वीकार्य बनाने का काम करता है. उन महिला ने बच्चों को सेमलैंगिकता की महिमा बताई. फिर अपनी चैरिटी आर्गेनाईजेशन के बारे में बताया, बीच में दबी जुबान में डोनाल्ड ट्रम्प को गालियाँ भी दीं. उसने अपनी लिखी और छपवाई हुई नर्सरी बच्चों की एक तस्वीरों वाली कहानियों की किताब भी दिखाई. उसमें बतख, बंदर, हिरण की कहानियाँ थीं...खास बात यह थी कि उन कहानियों में सभी पात्र समलैंगिक थे...
सोच सकते हैं आप? स्कूल समलैंगिकता का प्रचार कुछ ऐसे कर रहे हैं कि 2-3 साल के बच्चों को भी समलैंगिकता के बारे में बताया जा रहा है...
समलैंगिकता पर यह आंदोलन सिर्फ उन कुछ लोगों को निजता और यौन-प्राथमिकताओं के अधिकार का प्रश्न भर नहीं है जो नैसर्गिक रूप से समलैंगिक हैं (अगर समलैंगिकता को आप यौन-विकृति ना भी मानें...). समझें यह कम्युनिस्ट का एक और रिक्रूटमेंट काउंटर भर खुला है.

Navneet Kumar
तुम हमारा योग लो , हम तुम्हारा भोग (रोग) लेंगें
# AnujAgarwal
जी हाँ, कुछ इसी तर्ज पर भारत मे मोदी सरकार ने समलेंगिकता पर अपनी सहमति दी और अंततः सुप्रीम कोर्ट ने इसे वैधानिक कर दिया। अपनी स्थापना से ही इस अप्राकृतिक कृत्य का विरोध करने वाले संघ के एक वर्ग को भी मोदी-जेटली की जोड़ी ने तोड़ लिया और तभी सन 2016 में संघ के सहकार्यवाह दत्तात्रेय हौसले ने व्यक्तव्य दिया कि संघ समलेंगिकता को अपराध नहीं मानता मगर अप्राकृतिक मानता है। पश्चिमी ताकतों से पर्दे के पीछे लेनदेन के इस खेल में संघ परिवार ने योग के बदले भोग व रोग को आंतरिक स्वीकृति दे डाली। मजदूरों, किसानों, एफ़ डी आई व स्वदेशी के बाद संघ परिवार की यह सबसे बड़ी उलटबांसी है जिसने संघ परिवार के कार्यकर्ताओं, स्वयंसेवको, प्रचारकों व सनातनधर्मी लोगों को अंदर से हिला दिया है। हर मोर्चे पर समझौता करने को आतुर संघ परिवार जिस भगवे को विश्व गुरू बनाने के लिए संघर्षरत है रातोंरात उसका रंग सतरंगी हो चला है। अंततः वह भी देश मे खुले बाजार की उन नीतियों की विकृतियों का शिकार हो गया जिनकी नींव कांग्रेस पार्टी की नरसिम्हा राव सरकार ने सन 1991 में डाली थी। अटल बिहारी वाजपेयी ने तो वैसे भी काफी पहले गोविंदाचार्य जी से कहा ही था कि हममें व कांग्रेसियों में कोई अंतर नहीं। वे कांग्रेसी हैं और हम भगवा कांग्रेसी। बस जनता को यह अब अच्छे से समझ आ गया।
बिना किसी जनगणना, सामाजिक बहस व सर्वसम्मति के देश की 135 करोड़ आबादी को तथाकथित 25 लाख बीमार लोगों (कोई जनगणना नहीं बस अनुमान) की विकृति को न्यायोचित करने के नाम पर दांव पर लगा दिया गया। बीमारी के इलाज की जगह बीमारी को ही सही ठहराने का यह खेल बाज़ार और व्यापक लेनदेन के बिना संभव नहीं। दुनिया में बड़ी मात्रा में समलैंगिक एड्स आदि यौन बीमारियों का शिकार हैं। अपनी विकृत यौन पिपासा की पूर्ति के लिए ड्रग्स लेते हैं व अपने अतिरिक्त खर्चो की पूर्ति के लिए पोर्नोग्राफी के व्यवसाय में भी लग जाते हैं। दुनिया का मेडिकल माफिया और जीडीपी बढ़ाने वाली सरकारें व न्यायायल और उनका भोंपू मीडिया व फ़िल्म जगत इनका प्रवक्ता बन जाता है और ये सब एक सिंडिकेट की शक्ल लेकर चंद रुपयों की खातिर पूरे समाज को दांव पर लगा देते हैं।
समलैंगिकता को मान्यता पूर्णतः बाजार के दवाब में दी गयी है। जब सामान्य युवक व युवती इस प्रकार के जोड़ो को देखेंगे तो ऐसा करने को प्रेरित हो सकते हैं। इसी के साथ ही इस खेल का बाजार बढ़ता जाता है । अनेको रोगों व उनके उपचारों का बाजार। हम कुछ लोगों के अधिकारों के नाम पर पूरे समाज को दांव पर नहीं लगा सकते। अभी देश मे पेडमेंन और टॉयलेट एक प्रेमकथा जैसी फिल्में बनाने की जरूरत पड़ रही है और सुप्रीम कोर्ट को ट्रांसजेंडर की ज्यादा फिक्र हो गयी। क्यो करोड़ो आध्यात्मिक व धर्मिक जीवन जीने वालो के आराध्य राम का मंदिर सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता में नहीं?
जब आपके घर परिवार इस विकृति का शिकार होंगे और आपके परिजन ऑन लाईन शॉपिंग करेंगे घटिया सामानों की, करेंगे ड्रग्स का इस्तेमाल तब गहराई से समझेंगे इसे। यह मकड़जाल है और सबको फंसा लिया गया है इसमें। जिस मजबूर लड़की को वेश्यावृत्ति में धकेला जाता है,कुछ समय बाद वह भी अपनी नियति को स्वीकार कर लेती है, क्या इससे हम वेश्यावृत्ति को न्यायोचित ठहरा सकते हैं? यूरोप व अमेरिका में पोर्न, ड्रग्स व होमोसेक्सुअलटी के प्रोडक्ट व बीमारियों का बाज़ार हथियारों के बाद सबसे बड़ा बाजार है। अगर कोई समलैंगिकता से पीड़ित है तो उसके प्रति पूरी सहानुभूति होनी चाहिए व सरकार उसके इलाज व पुनर्वास के पूरे प्रबंध करे मगर उनके अधिकारों के संरक्षण के नाम पर पूरे समाज को दांव पर न लगाए। भारत को भारतीय मानसिकता वाले न्यायधीशो की आवश्यकता है, मगर दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हमारा संविधान व संविधानविद अपनी प्रेरणा व प्रशिक्षण ब्रिटेन से लेते हैं और उनकी नज़र से देखते व सोचते हैं। भारत को भारत के संदर्भो में देखने व चलाने की जरूरत है मगर वैश्वीकरण की आड़ में हम विकृत व्यवस्थाओं को अपनाते जा रहे हैं जो बहुत ही घातक है। अगर किसी को प्राकृतिक नियमों व पशुता से इतना ही लगाव है तो उसे कानून व संविधान भी समाप्ति का पक्षधर हो जाना चाहिए। आजादी के नज़्म पर बाज़ार के एजेंट हमें गर्त के गड्ढे में धकेल रहे हैं जहाँ कीचड़ व अंधेरों के सिवा कुछ नहीं।
॥अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते॥

शुक्रवार, सितंबर 07, 2018

रोज़ रोज़ की खिचखिच खत्म किजिए एक ही हमले मे कुरआन और इस्लाम को खत्म कर दिजीए।


Mahender Pal Arya
|| अल्लाह ने कहा कुरान का नकल नही बना सकते = देखें यह नकल ||
अली रज़ा पंडित जी आपको एक सुझाव दिया था मैने कि आप कुरआन और अल्लाह को मानते नही हो तो यह रोज़ रोज़ की खिचखिच खत्म किजिए एक ही हमले मे कुरआन और इस्लाम को खत्म कर दिजीए। कुरआन 1400+ सालों से चैलेंज कर रहा है कि "सब लोग मिलकर कुरआन के जैसी सिर्फ एक आयत ही बना कर दिखा दो" । आपने इतने विद्वान पंडित क्यों नही एक आयत कुरआन जैसी बनाकर कुरआन को झूठा साबित कर देते? या अभी भी अंदर से मुसलमान हो ऐसा करने की हिम्मत नही और सिर्फ घर चलाने के लिए यह सब कर रहे हो? जब एक झटके मे कुरआन का अस्तित्व खत्म हो सकता है तो आप एक एक करके डिबेट कर के क्यों अपनी ऊर्जा और समय व्यस्त कर रहे हो। दुनिया को छोड़ो सीधे अल्लाह से मुकाबला करो जो आपके अनुसार है भी नही। या डर लगता है पंडित जी एक सूरह कुरआन जैसा बनाने से?|
Mahendra Pal Arya यह लो मुयाँ किस दुनिया में रहते हो ? अरबी में लिखूं तुम पढ़ पावगे या नहीं ? हिंदी में ही लिखता हूँ कुरान जसी अरबी अर्थ समझ लेना अगर पढ़े लिखे हो तो | { काला रब्बिल मुसलेमीन, व खालेकुश्शायातीं , फी किताबिहिल कुरआन , लिन्ना सिल आ लमीन, फातु बे सुरतिम मिम मिस्लेही वदयु शुहदयाकुम मिन्दुनिल्लाहे इन कुन्तुम सादेकिन, फज़र्रेबू बिल ईमान वला तकुनु मिनल काफेरिन व ओम यशहदु अन्नी मिनास्सदेकिन, व इन कुन्तुम फी शक्किम मिम्मा आतैना खालिफतेना फातु बुर्हंकुम व अस्यलुकुम रब्बीकम इन कुंतुम मोमेनीन || मियां अली रज़ा यह देखो 10 आयत मेरे द्वारा बनाया गया | इसका अर्थ तुम्हें बनाकर देना है आ जाव मैदान में |
अर्थ भी लिख देता हूँ ले पकड़ मजबूती के साथ | अर्थ :-कहा मुसलमानों के रब ने | शैतान के पैदा करने वाले ने | अपनी कुरान में की तुम नकल नहीं बना सकते | यह लाया हूँ मैं नकल कुरान का | बुला अपने अल्लाह को और अपनी हिमायती को भी | मुझे झुठला कर देख मेरा ओम साक्षी है मैं सच बोलने वालों में हूँ | महेन्द्रपाल आर्य =7 /9 /18 =

मंगलवार, सितंबर 04, 2018

कृष्ण की कितनी पत्नियाँ ?

कृष्ण की कितनी पत्नियाँ ?
( एक, दो या १६००० ? )
लेखक - डॉ० भवानीलाल भारतीय
[ पाठक ध्यान देवे , यह लेख डॉ० भवानीलाल भारतीय जी की पुस्तक “श्री कृष्ण चरित्र” के दो अध्याय (रुक्मिणी-परिणय व बहुविवाह का आरोप और उसकी असत्यता ) को जोड़ कर बनाया जा रहा है । ताकि आप योगेश्वर कृष्ण की विवाह के बारे उठ रही शंकाओ का समाधान आसानी से प्राप्त कर पाए। आप इस पुस्तक को पढ़ कर योगेश्वर कृष्ण के बारे में ओर भी शंकाओ का समाधान पा सकते है - आर्य मिलन ]
रुक्मिणी
पुराण-लेखकों ने श्री कृष्ण पर बहुविवाह के जो मिथ्या आरोप लगाये हैं वे सब कपोल-कल्पित हैं। वस्तुतः रुक्मिणी ही कृष्ण की एकमात्र विवाहिता पत्नी थी । यह विदर्भराज भीष्मक की पुत्री थी । ‘भागवत' में लिखा है कि राजा भीष्मक भी अपनी पुत्री का विवाह श्री कृष्ण के ही साथ करना चाहते थे, परन्तु उनके पुत्र रुक्मी की इसमें सम्मति नहीं थी। वह चेदिराज दमघोष के पुत्र शिशुपाल के साथ रुक्मिणी का विवाह करना चाहता था।(भागवत १०, अध्याय ५२) अन्त में पुत्र की इच्छा की ही विजय हुई और शिशुपाल के साथ रुक्मिणी के विवाह का निश्चय हो गया ।
रुक्मिणी स्वय कृष्ण के अपूर्व रूप एवं गुणों की चर्चा सुन चुकी थी । उसे यह समाचार सुनकर बड़ा खेद हुआ कि उसका विवाह उसकी इच्छा के प्रतिकूल हो रहा है। उसने एक वृद्ध ब्राह्मण द्वारा अपना प्रणय-संदेश श्री कृष्ण के पास द्वारिका भेजा। रुक्मिणी के सन्देश का अभिप्राय यह था कि अमुक दिन शिशुपाल मेरा परिणय करने के लिए आयगा परन्तु मैंने तो अपने को आपके प्रति समर्पित कर दिया है। आप मेरे उद्धारार्थ आयें, मैं नगर के बाहर निश्चित समय पर आपकी प्रतीक्षा करूंगी।
रुक्मिणी का उपर्युक्त संदेश पाकर कृष्ण बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने सारथी को रथ तैयार करने और विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर चलने का आदेश दिया। नियत समय पर रथारूढ़ होकर उन्होंने विदर्भ की ओर प्रस्थान किया। उधर शिशुपाल को भी यह समाचार मिल गया कि कृष्ण रुक्मिणी-हरण का प्रयत्न अवश्य करेंगे । इसलिये वह भी विवाह के अवसर पर अपने मित्र राजाओं को सेना-सहित लेकर कुण्डिनपुर पहुँचा । नियत समय पर रुक्मिणी नगर के बाहर उद्यान में भ्रमणार्थ आई और वहाँ पहले से ही उपस्थित कृष्ण ने उसके द्वारा दिये संकेत को समझकर उसे अपने रथ पर बिठाया और द्वारिका के लिए प्रस्थान किया। रुक्मिणी को इस प्रकार आसानी से कृष्ण के द्वारा अपहृत होता देखकर शिशुपाल के क्रोध का पार न रहा। उसने कृष्ण पर आक्रमण किया, किन्तु बलराम अपने यादव-दल के साथ कृष्ण की सहायता हेतु वहाँ पर उपस्थित थे। उन्होंने शिशुपाल की सेना को मार भगाया। जब रुक्मिणी के हरण का समाचार रुक्मी को मिला तो उसने श्री कृष्ण का पीछा किया, किन्तु वह कृष्ण के हाथों परास्त हुआ और कृष्ण ने दण्डस्वरूप अपने शस्त्र से उसके सिर का मुण्डन कर उसे विरूप कर दिया। अन्त में रुक्मिणी और बलराम के कहने से वे अपने साले को छोड़ देने पर राजी हुए। इस प्रकार विरोधी को पराजित कर वे सकुशल द्वारिका पहुँचे। वहाँ वैदिक विधि से उन्होंने रुक्मिणी का पाणिग्रहण किया।(भागवत, दशम स्कन्ध, उत्तराद्ध, अध्याय ५२,५३,५४)
‘मनुस्मृति' में वर्णित आठ प्रकार के विवाहों में एक प्रकार राक्षसविवाह का भी है।(अध्याय ६।२१) इसके अनुसार कन्या का बलात् हरण कर उससे विवाह किया जाता है। उक्त स्मृति ने राक्षस-विवाह को क्षत्रियों के लिए प्रशस्त बताया है। इस विवाह के अच्छे-बुरे दोनों पहलू हैं । यदि कन्या की इच्छा के प्रतिकूल उसका अपहरण किया जाता है तब तो यह स्पष्ट ही अधर्म-कृत्य है। परन्तु एक परिस्थिति ऐसी आ सकती है जबकि कन्या तो वर को पसन्द करे किन्तु उसके माता-पिता की सम्मति उसे इच्छुक वर के साथ ब्याह देने की नहीं होती। ऐसी स्थिति में प्राचीन काल में कन्या-हरण के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रहता था। अतः, यह कहना कि राक्षस-विवाह निश्चित रूप से अन्यायपूर्ण, अत्याचारयुक्त अथवा बलात्कार का प्रतीक है, अनुचित होगा । यहाँ रुक्मिणी-हरण के प्रसंग में भी जो कुछ घटनायें घटीं, वे रुक्मिणी की इच्छा के अनुकूल ही थीं। कृष्ण के साथ सम्बन्ध होने से रुक्मिणी को प्रसन्नता ही हुई क्योंकि रूप, गुण और योग्यता की दृष्टि से कृष्ण ही उसके अनुकूल पति हो सकते थे। आज चाहे राक्षसविवाह का विधान विद्यमान सामाजिक मूल्यों की दृष्टि से कितना ही अनुचित अथवा आपत्तिजनक क्यों न दीख पड़े, परन्तु कृष्ण के युग में परिस्थितियाँ भिन्न थीं । उस युग में राक्षस-विवाह को अनुचित नहीं माना जाता था, अतः तत्कालीन आचार-शास्त्र के मापदण्डों से ही हमें रुक्मिणी-हरण की घटना की आलोचना करनी चाहिए। जब हम 'महाभारत'-युग की सामाजिक मान्यताओं के आधार पर इस घटना की समीक्षा करते हैं तब हमें उसमें कुछ भी अनौचित्य नहीं दीखता।
महाभारतोक्त शिशुपाल-वध प्रकरण में भी इस घटना की चर्चा हुई है। श्री कृष्ण कहते हैं
रुक्मिण्यमस्य मूढस्य प्रार्थनासोन्मुमूर्षतः।
न च तां प्राप्तवान् मूढः शूद्रो वेद श्रुतीमिव ॥ (सभापर्व, ४५॥१५)
अर्थात् ‘इस मूढ़ (शिशुपाल) ने मृत्यु का अभिलाषी बनकर रुक्मिणी के साथ विवाह के लिए प्रार्थना की थी, परन्तु शूद्र के वेद न सुन सकने की भाँति वह उसे प्राप्त नहीं कर सका।' शिशुपाल ने इस आक्षेप का उत्तर इस प्रकार दिया ।
मत्पूर्वा रुक्मिणीं कृष्ण संसत्सु परिकीर्तयन् ।
विशेषतः पर्थीवेषु वीडां न कुरुषे कथम् ॥
मन्यमानो हि कः सत्सु पुरुषः परिकीर्तयेत् ।
अन्यपूर्वा स्त्रियां जातु त्वदन्यो मधुसूदन ॥ (सभापर्व, ४५।१८-१९)
‘अजी कृष्ण, पहले से ही मेरे लिए निर्दिष्ट रुक्मिणी की बात इस सभा में, विशेषतः राजाओं के समक्ष कहते तुम्हें लज्जा नहीं आई ? अजी मधुसूदन, तुम्हारे अतिरिक्त दूसरा कौन अपने को पुरुष कहकर अपनी स्त्री को 'अन्यपूर्वा' कह सकता है ?'
‘महाभारत के इस प्रसंग को उद्धृत करने के अनन्तर बंकिम ने तो यहाँ तक सिद्ध करने का प्रयास किया है कि रुक्मिणी का हरण हुआ ही नहीं । शिशुपाल ने उससे विवाह करने की इच्छा अवश्य व्यक्त की थी, किन्तु भीष्मक ने उसे कृष्ण से ब्याह दिया। अपने कथन के प्रमाण में बंकिम इस तथ्य का उल्लेख करते हैं कि कृष्ण के लिए अपशब्दों और कुवाच्यों का प्रयोग करते समय भी शिशुपाल ने कृष्ण पर रुक्मिणी के हरण का आरोप नहीं लगाया, जबकि भीष्म की निंदा करते समय उसने पितामह पर काशिराज की कन्याओं के हरण का आरोप लगाया था।(सभापर्व, ४१।२२) कुछ भी हो, यह तो निर्विवाद है कि रुक्मिणी ही कृष्ण की एकमात्र पत्नी थी; अन्य स्त्रियों के साथ उनका कभी विवाह हुआ ही नहीं, यह आगे प्रमाण-पुरस्सर सिद्ध किया जायगा।
सन्तान-रुक्मिणी से कृष्ण को प्रद्युम्न-जैसा सौन्दर्य, शील एवं गुणों में पिता के सर्वथा अनुरूप पुत्र हुआ। ऐसी उत्तम सन्तान प्राप्त करने के पूर्व कृष्ण ने स्वपत्नी-सहित १२ वर्ष पर्यन्त प्रखर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया था तथा हिमालय पर्वत पर रहकर तपस्या की थी।( ब्रह्मचर्यं महद्घोरं चीत्व द्वादश वर्षकम् । हिमवत् पाश्र्वमभ्येत्य यो मया तपसाजितः ॥ --सौप्तिक पर्व, १२।३०) जो लोग कृष्ण को लम्पट और दुराचारी कहने से बाज नहीं आते उन्हें इस कथन को आँखें खोलकर पढ़ना चाहिए। कृष्ण-जैसा संयमी, तपस्वी तथा सदाचारी उन्हें संसार के इतिहास में अन्यत्र नहीं मिलेगा।
कृष्ण पर बहुविवाह का आरोप और उसकी असत्यता
पुराण-लेखकों को कृष्ण के एकपत्नी-व्रत से संतोष नहीं हुआ। वे कृष्ण को बहुपत्नी-गामी के रूप में चित्रित करना चाहते थे, अतः उन्होंने कृष्ण की आठ पटरानियों की कहानी गढ़ी, और जब उन्हें आठ से भी सन्तोष नहीं हुआ तो एक कदम आगे बढ़कर कहने लगे कि कृरण के १६ सहस्र रानियाँ थीं ।(१) ‘भागवत' में रुक्मिणी के अतिरिक्त कृष्ण की निम्न सात रानियों के नाम आये हैं-(१) सत्यभाभा, (२) जाम्बवन्ती (‘विष्णुपुराण' में रोहिणी), (३) कालिन्दी, (४) सत्या, (५) लक्ष्मणा, (६) मित्रवृन्दा, (७) भद्रा।।
इन रानियों से कृष्ण के विवाह होने की कथायें भी पुराण-लेखकों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से उद्धृत की हैं, जिनमें से कुछ पर यहाँ विचार किया जायगा। रुक्मिणी को कृष्ण की मुख्य महिषी कहा गया है। उसके अनन्तर सत्यभाभी का नाम आता है । सत्यभाभा और कृष्ण के विवाह की पृष्ठभूमि के रूप में भागवतकार ने एक कथा निम्न प्रकार कल्पित की है--सत्राजित नामक द्वारिकावासी एक यादव को भगवान् सूर्य से एक मणि प्राप्त हुई। कृष्ण ने उसे परामर्श दिया कि वह इस मणि को यादवपति महाराज उग्रसेन को भेंट-रूप में दे दे । सत्राजित ने कृष्ण के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेन उक्त मणि को धारण कर जंगल में शिकार खेलने चला गया । वहाँ एक सिंह ने उसे मार डाला और मणि छीन ली। सिंह की इसी बीच त्रेता काल के रीछ जाम्बवान् से मुठभेड़ हो गई और उसने सिंह को मारकर मणि अपने पास रख ली। इधर प्रसेन के मारे जाने और मणि के न मिलने पर लोगों ने कृष्ण पर ही संदेह किया कि हो न हो, इन्होंने ही प्रसेन को मारकर उससे मणि छीन ली है । कृष्ण ने अपने पर लगाये गये चोरी या साहस के कलंक से बचने के लिए जब स्वयं जाकर जंगल में खोज की तो उन्हें सिंह के पाँवों के चिह्न मिले, जिनके आधार पर वे रीछ की गुफा तक पहुँच गये। वहाँ उन्होंने देखा कि सूर्य-प्रदत्त मणि जाम्बवान् की पुत्री के पास है। मणि को प्राप्त करने के लिए कृष्ण और जाम्बवान् के बीच घोर युद्ध हुआ । अन्त में जाम्बवान् परास्त हो गया और उसने मणि तो कृष्ण को दी ही, साथ में अपनी कन्या का विवाह भी उनके साथ कर दिया। कृष्ण नवपरिणीता पत्नी तथा मणि के साथ स्वनगर में लौटे तथा मणि सत्राजित को लौटा दी । सत्राजित को कृष्ण के प्रति किये गये अपने आचरण से भय और खेद की प्रतीति हुई और उसने कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वकन्या सत्यभामा का विवाह उनके साथ कर दिया तथा यौतक रूप में मणि भी उनके अर्पण कर दी।(२)
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१. 🔥 बहवस्ते भविष्यन्ति पुत्राः शत्रुसूदन ।
स्त्रीणां षोडश साहस्र भत्रिष्यन्ति शताधिक ॥ (देवीभागवत, ४॥२५॥५७)
🔥 ददर्श कन्यास्तत्रस्था सहस्राणां च षोडशः ।
समेक्षणे च तासां च पाणि जग्राह माधवः ।।
ताभिः सार्धं से रेमे क्रमेण च शुभेक्षणे ।।
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, खण्ड ४, अ० ११२)
२. भागवत, दशम स्कन्ध, उ०, अध्याय ५६
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इस मणि को लेकर आगे क्या-क्या काण्ड घटित हुए, उन्हें न लिखकर इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि ये सब घटनायें भागवतकार की ही कल्पनायें हैं । ‘महाभारत में इन कथाओं का कोई संकेत तक नहीं है। बंकिम ने इसपर टिप्पणी करते हुए लिखा है - "इस स्यमन्तक मणि की कथा में भी कृष्ण की न्यायपरता, सत्यप्रतिज्ञता, और कार्यदक्षता ही अच्छी तरह से प्रकट होती है, पर यह सत्यमूलक नहीं जान पड़ती।'' (कृष्ण-चरित्र, प० २२९) राम का समकालीन जाम्बवान कृष्ण के समय में भी विद्यमान था, इसे कोई भी विचारशील व्यक्ति स्वीकार नहीं करेगा। यदि दुर्जन-तोष-न्याय से यह मान भी लिया जाय कि जाम्बवान् नामक रीछ कृष्ण के समय में भी था, तो निश्चय ही उसकी पुत्री जाम्बवन्ती भी रीछनी ही होगी, मानवी नहीं । फिर रीछनी से कृष्ण का विवाह कैसे हुआ ? अतः जाम्बवन्ती से कृष्ण का विवाह और उसी के कारण आगे चलकर सत्यभामा के साथ हुआ कृष्ण का विवाह भी पुराणकार की कल्पना ही है ।
कृष्ण के अन्य विवाहों के वर्णन के लिए भागवतकार ने एक पृथक अध्याय ही लिखा है।(भागवत, दशम स्कन्ध, उ०, अध्याय ५८) इन कथाओं की विस्तृत आलोचना की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे भी सत्यभामा-जाम्बव
न्ती की कथाओं जैसी ही हैं । स्थालीपुलाक-न्याय से उनकी असत्यता का भी ज्ञान हो सकता है।
कृष्ण ने प्राग्ज्योतिषपुर के राजा नरकासुर (अपर नाम भौमासुर) को मारकर जिन १६ हज़ार कन्याओं से विवाह किया, उसका वर्णन ‘भागवत' के एक अन्य अध्याय में है।(अध्याय ५९) नरकासुर के अत्याचारों की शिकायत लेकर इन्द्र स्वयं कृष्ण की सेवा में द्वारिका आया। कृष्ण ने उसे वचन दिया कि वे स्वयं प्राग्ज्योतिषपुर जायेंगे और नरक का वध करेंगे। इस प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए कृष्ण सत्यभामा सहित वहाँ पहुँचे । सर्वप्रथम उनका युद्ध नरक के ‘मुर' नामक सेनापति से हुआ, जिसे मार डालने के कारण वे ‘मुरारि' नाम से विख्यात हुए। तत्पश्चात् नरकासुर को मारकर उन्होंने उसके अन्तःपुर में बंदी १६ हज़ार राजकुमारियों को मुक्त किया तथा उन्हें पत्नी-रूप में ग्रहण किया ।(३)
बंकिम के अनुसार यह सारी घटना अलौकिक और मिथ्या है। उनकी युक्ति यह है कि कृष्ण का समकालीन प्राग्ज्योतिषपुर का राजा नरकासुर नहीं, बल्कि भगदत्त था जो कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन के हाथों मारा गया। 'महाभारत' से इसकी पुष्टि भी होती है। कृष्ण का १६००० रानियों से विवाह तो सर्वथा चमत्कारपूर्ण मिथ्या कथा है।(४)
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३. विष्णुपुराण, ५॥३१; नरकासुर विष्णु का पृथिवी में उत्पन्न किया पुत्र था। उसकी १६००० स्त्रियों से विष्णु के अवतार कृष्ण का विवाह करना स्व पुत्र-वधुओं से विवाह के तुल्य ही है। -लेखक
४. कृष्ण-चरित्र, पृ० २२१
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पुराणों के नवीन व्याख्याकार कभी-कभी इन कपोल-कल्पित कथाओं का स्व-ऊहा के बल पर विचित्र समाधान तलाश करने का यत्न करते हैं। उदाहरणार्थ स्व० पं० श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने १६००० कन्याओं से विवाह करने के उल्लेख को एक विचित्र आयाम दिया है।(आर्यमित्र, २६ जून, १९५२ के अंक में प्रकाशित 'कृष्ण का चरित्र') उनके अनुसार, नरकासुर ने १६ हजार राजकन्याओं का विभिन्न राजकुलों से अपहरण किया था तथा अपनी वासना-पूति के लिए उन्हें अपने अन्तःपुर में लाकर रखा था । कृष्ण ने नरकासुर को मारकर उन राजकन्याओं को उस व्यभिचार-लम्पट के कारागार से मुक्त किया तथा एक दुराचारी व्यक्ति के अधिकार में रही इन नारियों को स्व-अन्तःपुर में स्थान देकर अबलाओं के उद्धार तथा संरक्षण का एक नवीन आदर्श उपस्थित किया। हम पूछ सकते हैं कि वह कौन-सा आदर्श था, जिसे कृष्ण ने १६००० कन्याओं को पत्नी-रूप में स्वीकार कर उपस्थित किया ? वादी कह सकता है कि कृष्ण ने अपने उस कृत्य के द्वारा बलात् अपहृत स्त्रियों को समाज में पुनः कैसे स्वीकार किया जा सकता है, इस प्रश्न का उत्तर स्व-उदाहरण देकर प्रस्तुत किया है। जिस समय पं० सातवलेकर जी ने कृष्ण के इस बहु-पत्नीवाद के औचित्य को सिद्ध करने के लिए कलम उठाई थी, उस समय देश का विभाजन हुआ ही था और पाकिस्तान में कुछ समय तक मुसलमानों के अधिकार में रहने के पश्चात् पुनः भारत में लाई गई उन हिन्दू स्त्रियों के भविष्य को लेकर विभिन्न अटकलें लगाई जा रही थीं । जो स्त्रियाँ स्वल्पकाल के लिए भी विधर्मियों के घर में रह चुकी थीं उन्हें कट्टरपंथी हिन्दू स्वपरिवार में ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं थे। ऐसी महिलाओं का भविष्य अंधकारपूर्ण ही था । संकीर्ण समाज उन्हें अपना अंग बनाने के लिए तत्पर नहीं था। ऐसी स्थिति में सातवलेकर जी के समक्ष कृष्ण के जीवन से सम्बन्धित नरकासुर द्वारा अपहृत १६ हज़ार राजकन्याओं के उद्धार का कथानक इस समस्या का समाधान करता हुआ-सा प्रतीत हुआ। वे मानो कृष्ण का ही दृष्टान्त देकर कहते हैं कि है कोई माई का लाल, जो सामने आये और विधर्मियों के घरों में रहीं तथा बलात् दूषित की गई इन नारियों से कृष्ण के समान ही विवाह कर ले ? अपहृताओं की समस्या का यह विचित्र समाधान है !
थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें कि नरकासुर के अत्याचारों से पीड़ित एवं सन्तप्त इन दुःखी नारियों को पुनः ग्रहण करनेवाला उस समय कोई नहीं था, परन्तु कृष्ण के इस तथाकथित कृत्य के औचित्य को भी कैसे सिद्ध किया जा सकता है कि अबलाओं को शरण देने और सुरक्षा प्रदान करने का एकमात्र तरीका यही है कि उन्हें अपनी पत्नी बना लिया जाय ? आर्य-जाति में एकपत्नी-व्रत को सदा ही आदर्श माना गया है । बहुपत्नी-प्रथा हमारी संस्कृति में हेय एवं त्याज्य समझी गई है। अतः कृष्ण का १६००० राजकुमारियों से विवाह कोई सुसंस्कृत आदर्श नहीं है। सातवलेकर जी की दृष्टि से ही यदि अपहृता कन्याओं की समस्या की गुरुता को सोचे तो उसका एक व्यावहारिक समाधान यह भी हो सकता है कि अत्याचारियों की कार से मुक्त की गई ऐसी नारियों को सामूहिक रूप से किसी आश्रम में रक्खा जा सकता है, परन्तु यह तो सर्वथा अव्यावहारिक तथा आचार-शास्त्र की सर्व-स्वीकृत मान्यताओं के विपरीत ही होता कि कोई व्यक्ति पाकिस्तान से लौटाकर लाई गई ३० हजार स्त्रियों को अपनी भोग्या बनाकर अपने घर में रखने की बात करे। हम नहीं समझते कि पुराणों की मिथ्या कथाओं को औचित्य-सिद्धि के लिए इस प्रकार की मनमानी कल्पनायें क्यों की जाती हैं। ऐसी व्याख्याओं से न तो व्याख्याकारों का ही गौरव बढ़ता है और न उन ग्रंथों की ही विश्वसनीयता प्रकट होती है, जिनमें ऐसी कथायें लिखी गई हैं।
इसी कथा से सम्बन्धित पारिजात-हरण की कथा है, जिसका उल्लेख ‘भागवत' तथा 'विष्णुपुराण' में है ।(भागवत, दशम स्कन्ध, उ०, अध्याय ५९; विष्णुपुराण, ५।३०) नरकासुर को मारकर जब कृष्ण सत्यभामा के साथ द्वारिका लौट रहे थे तो स्वर्ग के नन्दनकानन में खिले पारिजात वृक्ष को देखकर सत्यभामा का मन चंचल हो उठा । वह उसे पाने के लिए लालायित हुई। कृष्ण ने भी अपनी प्रियतमा की इच्छा पूरी करने के लिए उसे उखाड़ लिया । कृष्ण की इस धृष्टता को देखकर नंदन-कानन के स्वामी इन्द्र को बड़ा क्रोध आया और वह देवताओं की स्वत्व-रक्षा के निमित्त कृष्ण से भिड़ गया। खैर, युद्ध का तो जो अन्त होना था, वही हुआ। इन्द्र पराजित हुए तथा उन्होंने विवश होकर पारिजात वृक्ष कृष्ण को दे दिया। अब इस वृक्ष से द्वारिका की शोभा बढ़ेगी, यह जानकर कृष्ण उसे अपने नगर में ले आये । कथा में अलौकिक तत्त्वों की ही प्रधानता है, अतः वह हमारे विवेचन-क्षेत्र में नहीं आती।
कृष्ण पर लगाये जानेवाले बहु-विवाहों के आरोपों की समालोचना बंकिमचंद्र ने एक पृथक् अध्याय लिखकर अत्यन्त प्रामाणिक एवं युक्तिसंगत रूप में की है।(कृष्ण-चरित्र, पृ० २३०-२४५ ) ‘विष्णुपुराण’, ‘हरिवंश', 'महाभारत' आदि ग्रंथों में एतद्-विषयक जो-जो उल्लेख मिलते हैं उन सबको एकत्र किया है तथा बताया है कि ये वर्णन परस्पर-विरुद्ध होने के कारण अनैतिहासिक एवं मिथ्या हैं । विभिन्न पुराणों में जिन आठ पट्ट-महिषियों का नामोल्लेख हुआ है उनमें भी कोई संगति तथा समानता नहीं है। कहीं कोई नाम बढ़ गया है, कहीं कोई छूट गया है। नरकासुर के अन्तःपुर से छुड़ाई गई १६००० रानियों को भी बंकिम मनगढन्त मानते हैं।(कृष्ण-चरित्र, पृ० २३०) ‘विष्णुपुराण' (अंश ४, अध्याय १५, श्लोक १६) के अनुसार कृष्ण की सब स्त्रियों से १,८०,००० पुत्र हुए।(५) कृष्ण की आयु इसी पुराण में १२५ वर्ष बताई गई है। बंकिम ने गणित करके दिखाया है कि इस हिसाब से कृष्ण के साल-भर में १४४० तथा एक दिन में ४ लड़के जन्म लेते थे। यहाँ यही समझना होगा कि कृष्ण की इच्छा से ही उनकी पत्नियाँ पुत्र प्रसव करती थीं।(कृष्ण-चरित्र, पृ० २३१ )
—�—�—�—�—�—�ध्यान दें—�—�—�—�—�—
५. ब्रह्मपुराण के अनुसार कृष्ण के इन पुत्रों की संस्था ८८,८०० थी। पुराणों के परस्पर-विरोध का एक उदाहरण यह भी है।-लेखक
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जाम्बवन्ती, सत्यभामा, लक्ष्मणा आदि रानियों की कथाओं को मिथ्या सिद्ध करने के लिए बंकिम बाबू ने अत्यन्त परिश्रमपूर्वक अनेक नवीन तक की उद्भावना की है। इस समग्र विवेचन के पश्चात् उन्होंने जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । वे लिखते हैं “महाभारत के मौलिक अंश से तो यही प्रमाणित होता है कि रुक्मिणी के सिवा कृष्ण के और कोई स्त्री नहीं थी। रुक्मिणी की ही सन्तान राजगद्दी पर बैठी, और किसी के वंश का पता नहीं। इन कारणों से कृष्ण के एक से अधिक स्त्री होने में पूरा संदेह है।"(कृष्ण-चरित्, पृ० २४३)
इस प्रकार कृष्ण के बहुविवाहों का प्रमाण-पुरस्सर खण्डन करने पर भी बंकिम की स्थिति संदेहास्पद है क्योंकि वे एक-पत्नीव्रत के आदर्श को ईसाई आदर्श मानते हैं; परन्तु बहुविवाह के समर्थन में भी कोई दलील न दे सकना इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि वे अपने कथन से पूर्णतया संतुष्ट हैं। हाँ, इस सम्बन्ध में उनकी टिप्पणियाँ महत्त्वपूर्ण हैं, जिन्हें उद्धत करके ही हम इस प्रसंग को समाप्त करेंगे।
“कृष्ण ने एक से अधिक विवाह किये, इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिला । यदि किये ही हों तो क्यों किये, इसका भी विश्वास-योग्य वृत्तांत कहीं नहीं मिला । स्यमन्तक मणि के साथ जैसी स्त्रियाँ उन्हें मिलीं वह नानी की कहानी के उपयुक्त है। और नरकासुर की सोलह हजार रानियाँ तो नानी की कहानियों की भी नानी है। ये कहानियाँ सुनकर हम प्रसन्न हो सकते हैं, पर विश्वास नहीं कर सकते।''(कृष्ण-चरित्र, पृ० २४५)
✍🏻 लेखक - डॉ० भवानीलाल भारतीय (पुस्तक - श्री कृष्ण चरित्र)
॥ओ३म्॥
🔥वैचारिक क्रांति के लिए “सत्यार्थ प्रकाश” पढ़े🔥
🌻वेदों की ओर लौटें🌻
प्रस्तुति - 📚आर्य मिलन

सोमवार, सितंबर 03, 2018

अहमदिया और दलित

 हर साल सैकड़ों अहमदिया या कादियानी मुस्लिमों को सऊदी अरब मक्का और मदीना में पकड़ कर उन्हें डिपोर्ट करता है और उन्हें हज नहीं पढ़ने देता ...पूरे विश्व के किसी भी मुस्लिम देश में कादियानी या अहमदिया मुसलमानों को मुस्लिम का दर्जा नहीं है ...दूसरे मुसलमान उन से रोटी बेटी का रिश्ता नहीं रखते इनसे बिजनेस का रिश्ता नहीं रखते इन्हें अपनी मस्जिदों में नहीं आने देते ...लेकिन फिर भी किसी भी अहमदिया या कादियानी मुस्लिम ने इस्लाम त्याग कर ईसाई, बौद्ध, या हिंदू धर्म स्वीकार नहीं किया अहमदिया एक धार्मिक आंदोलन है, जो के 19वीं सदी के अंत में भारत में आरम्भ हुआ।इसका प्रारंभ मिर्जा गुलाम अहमद (1835-1908) की जीवन और शिक्षाओं से हुआ। अहमदिया आंदोलन के अनुयायी गुलाम अहमद (1835-1908) को मुहम्मद के बाद एक और पैगम्बर (दूत) मानते हैं जबकि अन्य मुसलमानों का विश्वास है कि पैगम्बर मोहम्मद ख़ुदा के भेजे हुए अन्तिम पैगम्बर हैं। अहमदिया इस्लाम का एक संप्रदाय है। मुसलमान इसे काफिर मानते हैं। इस्लाम यह मानता है कि मोहम्मद ही इस्लाम के पहले और अंतिम नबी यानी पैगंबर है लेकिन अहमदिया मुस्लिम इसके उलट यह मानते हैं इस्लाम में समय-समय पर और भी नबी या पैगंबर आते हैं और इस आंदोलन को मिर्जा गुलाम अहमद ने चलाया इसलिए इसे मानने वाले अहमदिया कहलाये .. क्योंकि मिर्जा गुलाम मोहम्मद का जन्म भारत के पंजाब के गुरदासपुर जिले के कदियानी कस्बे में हुआ था इसलिए अहमदिया मुसलमानों को कादियानी मुसलमान भी कहते हैं अहमदिया मुसलमान वही कुरान पढ़ते हैं ऐसे ही दाढ़ी रखते हैं ऐसे ही टोपी पहनते हैं पांचों वक्त नमाज पढ़ते हैं सिर्फ अहमदिया और दूसरे मुसलमानों में इतना ही फर्क है कि जहां दूसरे मुसलमान यह मानते हैं कि मोहम्मद साहब खुदा के भेजें अंतिम और पहले नबी हैं वहीं अहमदिया मुसलमान यह मानते हैं कि मोहम्मद साहब के बाद मिर्जा गुलाम अहमद को भी खुदा ने नबी या पैगंबर बनाकर भेजा था बस इसी छोटी सी बात पर अहमदिया मुसलमानों का जीवन नर्क बन चुका है पाकिस्तान इन्हें मुस्लिम नहीं मानता नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक डॉक्टर अब्दुस सलाम पाकिस्तान के पहले और अकेले वैज्ञानिक हैं जिन्हे फिज़िक्स के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया है। वह एक अहमदिया थे। लेकिन पाकिस्तान ने उन्हें कभी नहीं अपनाया और उनके नोबेल पुरस्कार जीतने पर जश्न तक नहीं हुआ था... महेरशला अली अभिनय के लिए ऑस्कर जीतने वाले पहले मुस्लिम अभिनेता थे ... उन्हें भी पाकिस्तान ने अपना नागरिक या मुस्लिम मानने से मना कर दिया था पाकिस्तान में लगभग 30 लाख अहमदिया रहते हैं। इस प्रकार विश्व में सर्वाधिक अहमदिया पाकिस्तान में ही रहते हैं। भारत मे 50 हजार अहमदिया है ... पाकिस्तानी पंजाब के रबवा में अहमदिया जमात का मुख्यालय हुआ करता था जो अब इंगलैण्ड में ले जाया गया है। पाकिस्तान में अहमदिया लोगों पर सुन्नी बहुसंख्यक अत्याचार करते रहते हैं। पाकिस्तान में उन्हें मुसलमान नहीं, अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया है। अहमदिया समुदाय के लोग स्वयं को मुसलमान कहते हैं लेकिन दूसरे मुसलमान इन्हें हरगिज़ अपनाने को तैयार नहीं है यहां तक कि हर मुसलमान की तरह अहमदिया भी हज यात्रा करना चाहते हैं और यह चोरी छुपे जानकारी छुपाकर सऊदी अरब जाते हैं लेकिन लेकिन कड़ी पूछताछ और जांच में जैसे ही पता चलता है कि यह अहमदिया मुसलमान है तो सऊदी अरब इन्हें 10 कोड़ों की सजा देकर डिपोर्ट कर देता है जनरल जिया उल हक के समय में एक अहमदिया इस्लामाबाद के किंग फहद मस्जिद में नमाज पढ़ने चला गया था तो उसे 25 साल की सजा सुनाई गई थी इतने जुल्मों सितम और तिरस्कार के बाद भी अहमदिया खुद को मुसलमान कहते हैं और इधर भारत में कुछ दलित लोग हजारों साल पहले के भेदभाव का मामला पकड़कर आज भी हिंदू धर्म से नफरत करते हैं

रविवार, सितंबर 02, 2018

क्यों हिन्दू उतावले हो , हितेषी नेताओ को अंधकार में धकेल देते हैं?

इतिहास गवाह है कि राजपूत सिर्फ अपनी मूछो के सम्मान में और राज्य की रक्षा के लिए लड़ते आये हैं कभी अखंड भारत का सपना लेकर नही लड़े। सबने समय समय पर दूसरे राजपूत शासको से नफरत में नोटा दबाया है। इतिहास गवाह है कि ब्राह्मणों ने दलित समाज को हमेशा हीन भावना से देखा है ,जो भारत के अखंड होने के सपने पर एक तमाचा है। ब्राह्मणों को अपने ज्ञान का गुरूर है और राजपूतो को अपनी ताकतों का क्या ब्राह्मण समाज अपने ज्ञान के दम पर भारत को विश्व विजयी बना पाया है??? क्या राजपूतानी शान ने इतिहास में अखंड भारत के लिए नोटा के सिवा कुछ और दबाया है??? आज आपको आरक्षण में खोट नजर आ रहा है , मैं मानता हूं आरक्षण इस देश पर एक कलंक की तरह हैं मगर क्या आरक्षण आज सवर्ण समाज को अपनी नाकामयाबी छुपाने के लिए एक पर्दे का कार्य नही कर रहा??? क्या आज के समय पर बेरोजगार बैठा हर सवर्ण अपनी बदत्तरी के लिए सिर्फ आरक्षण को जिम्मेदार ठहराकर अपनी कमियों को छुपाने की कोशिस नही कर रहा है??? देश में एक राजा आता है जो अखंड भारत का सपना लिये पूरे विश्व में आपकी जयकारे लगवा रहा है और आप उसे नोटा दबाने की धमकियां दे रहे हो?? क्यूं??? सिर्फ इसलिए क्योकि आप बेरोजगार हों और अपनी हर नाकामयाबी के लिए आरक्षण की आड़ ले रहे हो??? देश में एक राजा आता हैं जो अखंड भारत का सपना लिये पूरे विश्व में आपकी जयकारे लगवा रहा है और आप उसे नोटा दबाने की धमकी दे रहे हो??? क्यूं??? क्योकि उसने आपके भूतकाल का भतिभांति निरीक्षण करने के बाद दलितो का वोट एकजुट साधने की भरकस कोशिस कर ली है??? क्या हो आप??? राजपूत????? ब्राह्मण???? बनिया???? सवर्ण???? अरे कुछ नही हो आप। मूर्ख हो आप जो बड़ी आसानी से किसी के भी झांसे में आ जाते हो। क्या हो आप??? राजपूत??? ब्राह मण??? बनिया???? सवर्ण????? अरे कुछ नही हो आप। लालची हो आप जो चालीस रूपये प्याज और टमाटर के लिए अपनी खुद की सरकार गिरवा देते हो। आप मोदी से पूछ रहे हो कि मोदी ने चार सालो में हिदू हितो के लिए क्या किया??? आप बताओ की मस्जिद तोड़ने का कलेजा रखने वाले कल्याण सिंह के लिए आपने क्या किया??? क्या ब्राह्मण समाज को नेहरू गांधी परिवार ने 2014 से पहले तक अपनी रखैल बनाकर नही रखा??? क्या राजपूत समाज ने अपनी मूंछो के खातिर इस देश की अखंडता को जूते की नोक पर नही रखा???? अरे थू है हम पर जो चालीस पचास रूपये प्याज के लिए अपना गुरूर हिंदुत्व बेचते आये हो। अरे लानत है हम पर जो कल्याण सिंह जैसे राजपूत नेता आज गुमनामी की जिंदगी जीने को मजबूर है। वक्त है संभल जाओ क्यूंकि आज देश में मोदी को हराने और हिदुत्व को तोड़ने के लिए पिछले चार साल से जो कुचक्र रचे जा रहे है ना, अगर इस बार नोटा दबा दिया तो तुम्हारी आने वाली पीड़िया सिर्फ टोपियां पहनी दिखाई देगी । एक बात याद रखना , इस गफलत में मत रहना कि हस्ती मिटती नही हमारी। क्यूंकि बंगाल, कश्मीर केरला और अफगानिस्तान के ब्राहम्ण और राजपूत भी यही गाया करते थे। "कुछ तो बात है हम में, हस्ती मिटती नही हमारी" अभी भी वक्त है, संभल जाओ और एक हो जाओ। वरना ना बंदूक की धार से ना मुगलो की तलवार सें हिंदू हारा है तो बस नोटा के कुठाराघात से।

शनिवार, सितंबर 01, 2018

हिन्दू कौन.................?

हिन्दू कौन.................? "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं!" इस उद्घोष की घोषणा करने वाले सम्भवतया न जानते होंगे कि हिन्दू कौन हैं? और जाने भी कैसे? इस तथ्य को ना तो भारत सरकार जानती है ना उच्चतम न्यायालय और ना ही भारतीय संसद! और जाने भी कैसे! क्योंकि "हिन्दू" अपरिभाषेय है! जैसे परमात्मा का अशेषतः वर्णन नहीं किया जा सकता है वैसे ही हिन्दू का भी नहीं! ** ** ** ** ** एक सामाजिक कार्यकर्ता ने भारत सरकार के गृह मन्त्रालय से भारत के संविधान और कानून के अनुसार हिन्दू शब्द की परिभाषा पूछी। गृह मन्त्रालय के केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी ने कहा कि इसकी उनके पास कोई जानकारी नहीं है! यह १२ अक्टूबर २०१५ के दैनिक भास्कर के अजमेर संस्करण में प्रकाशित भी हुई थी। ** ** ** ** ** डा. धर्मवीर ने ऊपरोक्त परिपेक्ष्य में अपने लेख में लिखा था- "यह एक विडबना है कि दुनिया के सारे देशद्रोही मिलकर हिन्दू को समाप्त करने पर तुले हैं और इस देश में रहने वाले को पता तक नहीं है कि वह हिन्दू क्यों है? और वह हिन्दू नहीं तो हिन्दू कौन है? आज आप हिन्दू की परिभाषा करना चाहे तो आपके लिये असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। आज किसी एक बात को किसी भी हिन्दू पर घटा नहीं सकते! हिन्दू समाज की कोई मान्यता, कोई सिद्धान्त, कोई भगवान् कुछ भी ऐसा नहीं है, जो सभी हिन्दुओं पर घटता हो और सभी को स्वीकार्य हो। हिन्दू समाज की मान्यतायें परस्पर इतनी विरोधी हैं कि उनको एक स्वीकार करना संभव नहीं है। ईश्वर को एक ओर निराकार मानने वाला भी हिन्दू है, तो साकार मानने वाले भी हिन्दू हैं। वेद की पूजा करने वाले भी हिन्दू हैं, वेद की निन्दा करने वाले भी हिन्दू! इतने कट्टर शाकाहारी हिन्दू हैं कि वे लाल मसूर या लाल टमाटर को मांस से मिलता-जुलता समझकर अपनी पाकशाला से भी दूर रखते हैं, इसके विपरीत काली माता पर बकरे, मुर्गे, भैसों की बलि देकर भी ईश्वर को प्रसन्न करनेवाले भी हिन्दू हैं। केवल शरीर के अस्तित्व को ही समझने वाले हिन्दू हैं, तो दूसरे जीव को ब्रह्म का अंश मानने वाले भी हिन्दू हैं! ऐसी परिस्थिति में आप किन शब्दों में हिन्दू को परिभाषित करेंगे। आज के विधान से जहाँ अपने को सभी अल्पसंख्यक घोषित कराने की होड़ में लगे हैं! तो बौद्ध, जैन, सिक्ख, राम-कृष्ण मठ..... आदि अपने को हिन्दू से इतर भी बताने लगे हैं! फिर आप हिन्दू को कैसे परिभाषित करेंगे? परिभाषित करने का कोई न कोई आधार तो होना चाहिए।" ** ** ** ** ** डॉ धर्मवीर आगे लिखते हैं- "हिन्दू को परिभाषित करने के हमारे पास दो आधार बड़े और महत्त्वपूर्ण हैं- एक आधार हमारा भूगोल और दूसरा आधार हमारा इतिहास है। हमारा भूगोल तो परिवर्तित होता रहा है, कभी हिन्दुओं का शासन अफगानिस्तान, ईरान तक फैला था तो आज पाकिस्तान कहे जाने वाले भू-भाग को आप हिन्दू होने के कारण अपना नहीं कह सकते! परन्तु हिन्दू के इतिहास में आप उसे हिन्दू से बाहर नहीं कर सकते। भारत पाकिस्तान के विभाजन का आधार ही हिन्दू और मुसलमान था। फिर हिन्दू की परिभाषा में विभाजन को आधार तो मानना ही पड़ेगा। उस दिन जिसने अपने को हिन्दू कहा और भारत का नागरिक बना; उस दिन वह हिन्दू ही था, आज हो सकता है वह हिन्दू न रहा हो! हिन्दू कोई थोड़े समय की अवधारणा नहीं है। हिन्दू शब्द से जिस देश और जाति का इतिहास लिखा गया है, उसे आज आप किसी और के नाम से पढ़ सकते हैं। इस देश में जितने बड़े विशाल भू-भाग पर जिसका शासन रहा है और हजारों वर्ष के लम्बे काल खण्ड में जो विचार पुष्पित पल्लवित हुये! जिन विचारों को यहाँ के लोगों ने अपने जीवन में आदर्श बनाया, उनको जिया है, क्या उन्हें आप हिन्दू इतिहास से बाहर कर सकते हैं? उस परम्परा को अपना मानने वाला क्या अपने को हिन्दू नहीं कहेगा। हिन्दू इतिहास के नाम पर जिनका इतिहास लिखा गया, उन्हें हिन्दू ही समझा जायेगा, वे जिनके पूर्वज हैं, वे आज अपने को उस परंपरा से पृथक् कर पायेंगे? भारत की पराधीनता के समय को कौन अच्छा कहेगा! यह देश सात सौ वर्ष मुसलमानों के अधीन रहा, जो इस परिस्थिति को दुःख का कारण समझता है, वह हिन्दू है! यदि कोई व्यक्ति इस देश में औरंगजेब के शासन काल पर गर्व करे तो समझा जा सकता है वह हिन्दू नहीं है! इतिहास में शिवाजी, महाराणाप्रताप, गुरु गोविन्दसिंह जिससे लड़े वे हिन्दू नहीं थे और जिनके लिये लड़े थे वे हिन्दू हैं! क्या इसमें किसी को सन्देह हो सकता है? देश-विदेश के जिन इतिहासकारों ने जिस देश का व जाति का इतिहास लिखा, उन्होंने उसे हिन्दू ही कहा था। यही हिन्दू की पहचान और परिभाषा है। वीर सावरकर जी ने जो हिन्दू "आसिन्धु-सिन्धु-पर्यन्ता" कहकर सिन्धु प्रदेश को अपनी पुण्यभूमि-पितृभूमि के रूप में स्वीकार करते है, वह हिन्दू है, ऐसा कहकर हिन्दू को व्यापक अर्थ देने का प्रयास किया है। हिन्दू महासभा के प्रधान प्रो. रामसिंह जी से किसी ने प्रश्न किया- हिन्दू कौन है? तो उन्होंने कहा हिन्दू-मुस्लिम दंगों में मुसलमान जिसे अपना शत्रु मानता है वह हिन्दू है!" ** ** ** ** ** डा. धर्मवीर अपने उपर्युक्त लेख में आगे लिखते हैं- "मैक्समूलर ने भारत के विषय में इस प्रकार अपने विचार प्रकट किये हैं- ‘‘मानव मस्तिष्क के इतिहास का अध्ययन करते समय हमारे स्वयं के वास्तविक अध्ययन में भारत का स्थान विश्व के अन्य देशों की तुलना में अद्वितीय है। अपने विशेष अध्ययन के लिये मानव मन के किसी भी क्षेत्र का चयन करें, चाहे व भाषा हो, धर्म हो, पौराणिक गाथायें या दर्शनशास्त्र, चाहे विधि या प्रथायें हों, या प्रारंभिक कला या विज्ञान हो, प्रत्येक दशा में आपको भारत जाना पड़ेगा, चाहे आप इसे पसन्द करें या नहीं! क्योंकि मानव इतिहास के मूल्यवान् एवं ज्ञानवान् तथ्यों का कोष आपको भारत और केवल भारत में ही मिलेगा।’’ ** ** ** ** ** जब "हिन्दू-कोड-बिल" बनाया गया तो यही प्रश्न सामने आ खड़ा हुआ था कि यह किन पर लागू होगा। तब तत्कालीन विद्वानों ने हिन्दू की नकारात्मक परिभाषा की थी कि जो व्यक्ति मुसलमान, ईसाई, पारसी और यहूदी नहीं हैं उन पर यह बिल लागू होगा। अर्थात वे हिन्दू हैं। न्यायालयों में भी हिन्दू शब्द को एक जीवन पद्धति बताकर परिभाषित करने का यत्न किया था। यह भी एक अधूरा प्रयास है! ** ** ** ** ** वीर सावरकर ने हिन्दू एवं हिन्दुत्व शब्दों की एक परिभाषा दी थी जो हिन्दुत्ववादियों के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा- "आसिन्धु-सिन्धु पर्यन्ता यस्य भारत भूमिका। पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः।।" "हिन्दू वह व्यक्ति है जो भारत को अपनी पितृभूमि और अपनी पुण्यभूमि दोनों मानता है।" यद्यपि यह परिभाषा बहुत व्यापक और सटीक है तो भी यह भौगोलिक अधिक है। यदि कोई हिन्दू अमेरिका में रहता है और उसकी सन्तान वहां जन्म लेकर हिन्दू धर्म का पालन कर निष्ठावान हिन्दू का आचरण करता है तो वह भारत भूमि को अपनी पितृभूमि न मानते हुए भी हिन्दू तो माना ही जाएगा। जो अपने आपको हिन्दू परम्पराओं का पालनकर्त्ता समझता हो वह हिन्दू है। दूसरे शब्दों में कहें तो जो स्वयं को हिन्दू मानता है वह हिन्दू है। इसके लिए किसी की अनुमति, प्रमाणपत्र, पंजीकरण की आवश्यकता ही नहीं! ** ** ** ** ** राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने आपको हिन्दू समाज का संगठनकर्ता और संरक्षक मानता है। वह हिन्दू की परिभाषा कुछ इस प्रकार करता है- "जो भारतभूमि को अपनी मातृभूमि, पुण्यभूमि, महामंगला मानता है वह हिन्दू है।" वह इसे "हिन्दू-भूमि" के नाम से भी पुकारता है। हिन्दूभूमि और हिन्दुस्थान में कोई अन्तर नहीं है। कुछ विचारक भारत को हिन्दुस्थान तो कहते है पर हिन्दुभूमि नहीं कहना चाहते। वे हिन्दुओं का स्थान, हिन्दुस्थान तो कहते हैं परन्तु हिन्दूराष्ट्र, हिन्दुओं का राष्ट्र नहीं कहना चाहते! जो ऐसा नहीं चाहते वे ढोंगी और पाखण्डी हैं। वस्तुतः हिन्दुस्थान, हिन्दुभूमि और हिन्दुराष्ट्र समानार्थक शब्द हैं। इन सबका एक ही तात्पर्य है। संघ के स्वयंसेवक अपने आपको हिन्दुराष्ट्रांगभूत भी कहते हैं। वे कहते हैं- "प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्रांगभूता इमे सादरं त्वां नमामो वयम्।" हे, शक्तिमन् प्रभो! हम ये हिन्दुराष्ट्र के अंगभूत आपको सादर प्रणाम करते हैं। संघ का यह भी कहना है कि इस वाक्य को जो भी श्रद्धापूर्वक बोलता है वह हिन्दू है। भले ही उसकी उपासना पद्धति कुछ भी हो। चाहे वह पुराणी (हिन्दू), कुरानी (मुसलमान), ख्रिस्तानी (ईसाई) कुछ भी हो! हिन्दू अपने आपको आर्यों का वंशज मानते हैं। आज उनकी उपासना पद्धति आर्यों की उपासना पद्धति से कुछ भिन्न है तो भी वे अपना सम्बन्ध सगर्व आर्यों से जोड़े रखते हैं। भारत के मुसलमान भी आर्य हैं परन्तु वे इसकी सगर्व घोषणा नहीं करते! संघ के सरसंघचालक श्री बाला साहब देवरस ने कहा था कि भारत को हिन्दुओं का देश ही समझा और माना जाता है। जिसे वेद पढ़ना हो वह भारत आयेगा और जिसे बाईबिल पढ़ना हो वह वेटिकन सिटी जाएगा! ** ** ** ** ** महर्षि मनु ने धर्म के दश लक्षण गिनाते हुए कहा कि जिसमें ये पाये जाएं उसे धार्मिक व्यक्ति कहा जाएगा। उनका प्रसिद्ध श्लोक यह है- "धृतिः क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रय निग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।" धैर्य, क्षमा, दम, अचौर्य, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्ध, विद्या, सत्य और अक्रोध ये दस धर्म के लक्षण हैं। इनमें कहीं उपासना पद्धति यहां तक कि ईश्वर की आराधना करने या न करने का भी उल्लेख नहीं है। अर्थात स्पष्ट शब्दों में कहें तो, यदि कोई ललकार कर कहे कि "रे हिन्दू उठ" तो जो उठ कर खड़ा हो जाए वह हिन्दू है! ** ** ** ** ** "मन्यते कर्मसिद्धान्तं पुनर्जन्मनि वर्तते। बुद्धेःशरणमिच्छेति स हिन्दुर्नात्र संशयः।।" - गोवर्धन पटैरिया जो कर्म सिद्धान्त को मानता हो, पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार करता हो और बुद्धि की शरण में जाने की इच्छा (सभी मान्यताओं को बुद्धि से परखता हो - गायत्री मन्त्र) रखता हो वह निःसंदेह हिन्दू है। पुनः पटैरिया महोदय कहते है- "सृष्टेरादेर्प्रसूता या धारा वहति भारते। यस्तामाराधते नित्यं स हिन्दुर्नात्र संशयः।।" जो चिन्तन धारा सृष्टि के प्रारम्भ से ही भारत में प्रवाहित हो रही है उस धारा की आराधना जो करता है वह निस्संदेह हिन्दू है। ** ** ** ** ** दिसबर १८६१ के 'द कलकत्ता रिव्यू' का लेख भी पठनीय है- "आज अपमानित तथा अप्रतिष्ठित किये जाने पर भी हमें इसमें कोई सन्देह नहीं है कि एक समय था जब हिन्दू जाति, कला एवं शास्त्रों के क्षेत्र में निष्णात, राज्य व्यवस्था में कल्याणकारी, विधि निर्माण में कुशल एवं उत्कृष्ठ ज्ञान से भरपूर थी।" ** ** ** ** ** पाश्चात्य लेखक मि. पियरे लोती ने भारत के प्रति अपने विचार इन शब्दों में प्रकट किये हैं- ‘‘ऐ भारत! अब मैं तुहें आदर सम्मान के साथ प्रणाम करता हूँ। मैं उस प्राचीन भारत को प्रणाम करता हूँ! जिसका मैं विशेषज्ञ हूँ। मैं उस भारत का प्रशंसक हूँ, जिसे कला और दर्शन के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। ईश्वर करे तेरे उद्बोधन से प्रतिदिन ह्रासोन्मुख, पतित एवं क्षीणता को प्राप्त होता हुआ तथा राष्ट्रों, देवताओं एवं आत्माओं का हत्यारा पश्चिम आश्चर्य-चकित हो जाये। वह आज भी तेरे आदिम-कालीन महान् व्यक्तियों के सामने नतमस्तक है।’’ ** ** ** ** ** अक्टूबर १८७२ के 'द एडिनबर्ग रिव्यू' में लिखा है- "हिन्दू एक बहुत प्राचीन राष्ट्र है, जिसके मूल्यवान् अवशेष आज भी उपलब्ध हैं। अन्य कोई भी राष्ट्र आज भी सुरुचि और सभ्यता में इससे बढ़कर नहीं है, यद्यपि यह सुरुचि की पराकाष्ठा पर उस काल में पहुँच चुका था, जब वर्तमान सभ्य कहलाने वाले राष्ट्रों में सभ्यता का उदय भी नहीं हुआ था, जितना अधिक हमारी विस्तृत साहित्यिक खोंजें इस क्षेत्र में प्रविष्ट होती हैं, उतने ही अधिक विस्मयकारी एवं विस्तृत आयाम हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं।" ** ** ** ** ** पाश्चात्य लेखिका श्रीमती मैनिकग ने इस प्रकार लिखा है- ‘‘हिन्दुओं के पास मस्तिष्क का इतना व्यापक विस्तार था, जितनी किसी भी मानव में कल्पना की जा सकती है।’’ ** ** ** ** ** इतिहासकार काउण्ट जोर्न्स्ट जेरना ने भारत राष्ट्र प्राचीनता पर विचार करते हुए लिखा है- ‘‘विश्व का कोई भी राष्ट्र सभ्यता एवं धर्म की प्राचीनता की दृष्टि से भारत का सामना नहीं कर सकता।’’ ये पंक्तियाँ ऐसे ही नहीं लिखी गई हैं। इन लेखकों ने भारत की प्रतिभा को अलग-अलग क्षेत्रों में देखा और अनुभव किया। भारतीय विधि और नियमों को "मनुस्मृति" आदि स्मृति ग्रन्थों में, प्रशासन की योग्यता एवं मानव मनोविज्ञान का कौटिल्य अर्थशास्त्र जैसे प्रौढ़ ग्रन्थों में देखने को मिलता है। यह ज्ञान-विज्ञान हजारों वर्षों से भारत में प्रचलित है। ** ** ** ** ** महाभारत, रामायण जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थ पुराणों की कथाओं के माध्यम से इतिहास की परम्परा का होना हिन्दू समाज के गौरव के साक्षी हैं। मनु के द्वारा स्थापित वर्ण-व्यवस्था और दण्ड-विधान श्रेष्ठता में आज भी सर्वोपरि हैं। संस्कृति की उत्तमता में वैदिक संस्कृति की तुलना नहीं का जा सकती। यहा का प्रभाव संसार के अनेक देशों द्वीप-द्वीपान्तरों में आज भी देखने को मिलता है। यहाँ के दर्शन, विज्ञान, कला, साहित्य, धर्म, इतिहास, समाजशास्त्र ऐसा कौन सा क्षेत्र है, जिस पर हजारों वर्षों का गौरवपूर्ण चिन्तन ना हो! ऐसा गौरणपूर्ण विचार एवं चिंतन जिस देश के हैं, उसे हिन्दू राष्ट्र कहते हैं और इन विचारों को जो अपनी धरोहर समझता है, वही तो हिन्दू है। ** ** ** ** ** कोई भी लंगड़ा, लूला, अन्धा होने पर व्यक्ति नहीं रहता, ऐसा तो नहीं है। नाम भी बदल ले तो दूसरा नाम भी तो उसी व्यक्ति का होगा। वह वैदिक था, आर्य था, पौराणिक हो गया, बाद में हिन्दू बन गया, सारा इतिहास तो उसी व्यक्ति का है। जिसे केवल अपने विचार, कला, कृतित्व पर ही गर्व नहीं, उसे अपने चरित्र पर भी उतना ही गर्व है। तभी तो वह कह सकता है, यह विचार उन्ही हिन्दुओं का है जो इस श्लोक को पढ़ कर गर्व अनुभव करते हैं, यही हिन्दू होने की परिभाषा है- एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः" ** ** ** ** ** पुराणों में भारत, भारतवर्ष, हिन्दुस्थान आदि का स्पष्ट उल्लेख है- "ऋषभो मरुदेव्याश्च ऋषभात भरतो भवेत्। भरताद्भारतं वर्षं भरतात्सुमतिस्त्वभूत्।। -विष्णुपुराण मरुदेवी से ऋषभ हुए, ऋषभ से भरत हुए, भरत से भारतवर्ष बना और भरत से सुमति प्रादुर्भूत हुई। "ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषुगीयते। भरताय यत: पित्रा दत्तं प्रतिष्ठिता वनम्।।" -विष्णुपुराण जब से ही भरत के पिता ने उनको राज्य देकर वनगमन किया तब से संसार में इसका भारत नाम गाया जा रहा है। "उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः।।" - विष्णुपुराण जो देश समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में है उसका नाम भारत और उसकी सन्तान का नाम भारती है। "हिमालयसमारभ्य यावदिन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्ष्यते।।" - बार्हस्पत्यशास्त्र
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