मंगलवार, अगस्त 09, 2011

छुआछूत का मूल कारण अज्ञान है

छुआछूत का मूल कारण अज्ञान है

छुआछूत वैदिक, रामायण और महाभारत काल में नहीं थी. यह उन्होंने ठीक कहा, क्योंकि हिन्दू समाज में शूद्रों को अछूत नहीं समझा जाता था.
1.वैदिक कालः
वैदिक काल में सभी का दर्जा समान था. ऋग्वेद में लिखा हैः-
“सं गच्छध्वं सं वदध्वं वो मनासि जानताम” (ऋ.1-19-2)
“समानी प्रपा सह वोन्न भागः समाने योक्त्रे सह वो यूनज्मि सम्यंचोअग्निम् समर्यतारा नाभिभिवाभितः” (अ. 3-30-6)

अर्थात्‌:-हे मनुष्यो, मिलकर चलो, मिलकर बोलो, तुम सबका मन एक हो, तुम्हारा खानपान इकट्‌ठा हो, मैं तुमको एकता के सूत्र में बाँधता हूँ. जिस प्रकार रथ की नाभि में आरे जुड़े रहते हैं, उस प्रकार एक परमेश्वर की पूजा में तुम सब इकट्‌ठे मिले रहो.
इस वेद मंत्र से यह सिद्ध होता है कि उस समय कोई जाति या वर्ण भेदभाव नहीं था. सभी मानव जाति एक थी और एकता के भाव को रखते हुए सबके लिए सुख शांति की कामना करते थे. वैदिक काल में आध्यात्मिकता सिखलाई जाती थी जिसे हासिल कर के स्वाभाविक ही शारीरिक और मानसिक सभी भेदभाव नहीं पाये जाते थे.

2. रामायण कालः
रामायण काल में भगवान राम ने भीलनी के जूठे बेर खाए और वानरों की सेना बनाकर लंका पर चढ़ाई की. रावण पर विजय पाकर सीता को ले आए. ऋषि वाल्मीकि से ऊँची और श्रेष्ठ जाति वालों ने ब्रह्मज्ञान हासिल किया. माता सीता बनवास मिलने पर वाल्मीकि आश्रम में रहीं और वहाँ ही लव और कुश को जन्म दिया.

3. महाभारत कालः
महाभारत काल में सुपच चंडाल के बिना पाण्डवों का यज्ञ संपूर्ण न हुआ. जब महाभारत की लड़ाई खत्म हुई तो श्री कृष्ण भगवान ने पाण्डवों को बुला कर कहा कि अश्वमेध यज्ञ कराओ, प्रायश्चित करो, नहीं तो नरकों में जाओगे और तुम्हारा यज्ञ तब सम्पूर्ण होगा जब आकाश में घंटा बजेगा. पाण्डवों ने यज्ञ किया, सारे भारतवर्ष के साधु-महात्मा बुलाये. सब खा चुके पर घंटा न बजा. सोचा कि भगवान को नहीं खिलाया. भगवान कृष्ण ने भी भोजन किया, परन्तु फिर भी घंटा न बजा. आखिर कहने लगे कि भगवन आप योगदृष्टि से देखो, कोई रह तो नहीं गया है. भगवान ने कहा कि एक निम्न जाति का साधु है, नाम सुपच है. उसको बुलाओ तब आपका यज्ञ सम्पूर्ण होगा. पाण्डव वहाँ गए कि महात्मा जी! हमारे यहाँ यज्ञ है आप चलकर सम्पूर्ण करो. महात्मा ने कहा कि मैं उसके घर जाता हूँ जो मुझे एक सौ एक अश्वमेध यज्ञ का फल दे. वे कहने लगे कि हमारा तो एक यज्ञ भी सम्पूर्ण नहीं हो रहा है और तुम एक सौ एक यज्ञ का फल माँग रहे हो. वह बोला कि मेरी तो शर्त यही है. पाँचों पाण्डव बारी-बारी गए लेकिन महात्मा ने अपनी शर्त नहीं बदली. हार कर वापिस आ गए. पाण्डव निराश हो बैठे थे कि द्रौपदी ने कहा, “आप उदास क्यों बैठे हो? मैं सुपच को लाती हूँ, यह भी कोई बड़ी बात है?” उठी, नंगे पैरों पानी लाई, अपने हाथों से प्यार के साथ खाना बनाया. फिर नंगे पैर चल कर महात्मा के पास गई और अर्ज  की, “महात्मा जी! हमारे यहाँ यज्ञ है. आप चल कर सम्पूर्ण करें.” महात्मा ने कहा कि तुम्हें पाण्डवों ने बताया होगा कि मेरी क्या शर्त है? कहने लगी कि महाराज मुझे पता है. महात्मा ने कहा, लाओ फिर एक सौ एक यज्ञों का फल. द्रौपदी ने कहा, “महात्मा जी, मैंने आप जैसे सन्तों से सुना है कि जब सन्तों की ओर जाते हैं तो एक-एक कदम पर अश्वमेध का फल होता है. इसलिए मैं जितने कदम आप के पास चल कर आई हूँ, उसमें से एक सौ एक अश्वमेध यज्ञों का फल आप ले लें और बाकी मुझे दे दें. यह सुनकर सुपच चुपचाप द्रौपदी के साथ चल पड़ा. जब खाना परोसा तो महात्मा ने सब प्रकार के व्यंजनों को एक में मिला दिया, यह दिखाने के लिए कि एकता में विजय है. द्रौपदी दिल में कहने लगी कि आखिर नीच जाति ही निकला. अगर अलग-अलग खाता तो इसको पता लग जाता कि द्रौपदी के खाने में क्या स्वाद है. जब खा चुका तब भी घंटा न बजा. श्री कृष्ण जी से पूछा गया कि अब क्या कसर है? भगवान ने कहा द्रौपदी से पूछो, उसके मन की कसर (कमी) है. जैसा उसने ख्याल किया, वैसा हो गया. जब द्रोपदी ने अपना मन शुद्ध कर लिया, तो घंटा बजा. इसलिए सिद्ध हुआ कि इन तीनों कालों में छुआछूत नहीं थी.

क्या शूद्र अछूत थे? चारों वर्णों के गोत्र ऋषियों के नाम पर प्रचलित थे. पहले ये सात ही गोत्र थे, फिर बाद में ज्यादा हो गए. (1) विश्वामित्र (2) जमदग्नि (3) भरद्वाज (4) गौतम (5) अत्रि (6) वशिष्ठ (7) कश्यप. अब भी अगर सरकारी जाति कोष पढ़े जाएँ तो पता चलेगा कि हिन्दुओं में बहुत सी उपजातियाँ और गोत्र समान हैं. कई उपजातियाँ और गोत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में अब भी मिलते हैं.
1. जब जातिवाद या वर्णवाद प्रचलित था, इतिहास सिद्ध करता है कि चारों वर्ण एकता और समानता का जीवन गुजारा करते थे. आपस में सब मिलकर खाया करते थे. आपस में सब सम्बन्ध रखते थे.

2. लड़के लड़कियों की शादियाँ आपस में हो जाती थीं. मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता मगर बड़े-बड़े ऋषि शूद्र स्त्रियों से पैदा हुए.

3. रंग-ढंग में फर्क नहीं था. चारों वर्णों में लोगों के रंग काले भी थे और गोरे भी थे. सब अपना-अपना काम करते हुए एक दूसरे का सत्कार करते थे. यदि हम महाभारत के शान्ति पर्व और वन पर्व को पढ़ें तो पता चलता है कि ब्राह्मण और शूद्र कर्म और संस्कार से बनते हैं, किसी जाति विशेष के पुरुष के वीर्य से नहीं.
नाना प्रकार की जातियाँ कैसे बन गईं?

1. अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि छुआछूत वैदिक, रामायण और महाभारत काल में नहीं थी तो कब आरम्भ हुई. अधिकतर पुराणों और स्मृतियों में इसका उल्लेख है. ये ग्रन्थ भी सन्तों-ऋषियों द्वारा लिखे गये जिसमें उन्होंने अपने विचार इस ढंग से प्रकट किए जिसके अनेक अर्थ निकलते हैं. यह उनकी वर्णन शैली का चमत्कार था. उन्होंने अपने अन्तर के अनुभव, जिसे उन्होंने बड़े-बड़े साधन करके, अनुष्ठान करके प्राप्त किया, कथा-कहानी के रोचक रूप में समय की मांग के मुताबिक ग्रन्थों में भर दिया. समय व्यतीत होने पर लोगों ने उनके असली भाव को न समझ कर उलटे अर्थ लगा लिए जो हिन्दू समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हुए. ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में एक श्लोक में आता :-

विश्वकर्मा च शुद्रायां वीर्याधान चकार ह।
ततो बभूवः पुत्रास्ते नवैते शिल्पकारिणः ।।
मालकारः कर्मकारः शंखकारः कुविन्दकः।
कुम्भकारः कांसकारः षडेते शिल्पिनां वराः ।।
सूत्रधारश्चित्रकारः स्वर्णकारस्तथैव च।
पतितास्ते ब्रह्मशपाद्‌ अजात्या वर्णसंकराः ।।
क्षत्रावीर्येण शूद्रायामृतुदोषेण पापत।
बलवत्योदुरन्ताश्चबभूवुर्म्लेच्छजातयः


इसका अर्थ इस समय के या बीते समय, जब अज्ञानता बढ़ी, तो लोगों ने इसका जो बाह्य अर्थ समझा वो निम्नलिखित हैः-

‘विश्वकर्मा ने शूद्रा के गर्भ से नौ शिल्पकार पुत्र उत्पन्न किये थेः माली, लुहार, शंखकार, कुविन्द, कुम्हार, कंसेरा, बढ़ई, चित्रकार और सुनार. क्षत्रिय पिता और शूद्रा माता के संयोग से म्लेच्छ की उत्पत्ति हुई.‘
विश्वकर्मा कोई विशेष व्यक्ति नहीं हुआ. विश्वकर्मा ब्रह्म या हमारी उस आंतरिक दिव्य शक्ति का नाम है जो हमें कर्म में प्रवृत्त करती है अर्थात्‌ एक ख्याल है जो हमें अपनी इच्छापूर्ति के लिए कर्म करने पर  विवश करता है. जिस नियम के अनुसार हमारे शरीर पर बाह्य प्रभावों से हमारा मस्तिष्क प्रभावित होता है, उसी नियमानुसार जैसी-जैसी माँग तथा आवश्यकता संसार में होती है, ऊपर के लोकों से एक शक्ति आकर उस माँग तथा आवश्यकता की पूर्ति करती है. जो शक्ति हमें शारीरिक श्रम व उद्योग में प्रवृत्त करती है, उसका नाम विश्वकर्मा है. समाज चाहे तो किसी समय के ऐसे व्यक्ति जो हमें उद्योगों में लगने की प्रेरणा करता है उसको अवतार का नाम दे दे. इसी प्रकार जिस शूद्रा का उल्लेख इस ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में किया गया है वह शूद्रा कोई विशेष स्त्री या महिला नहीं थी. वो हमारे अन्दर वासना या इच्छा के रूप में आकर उस इच्छा की पूर्ति के लिए हमें गति में लाती है, हरकत करने के लिए विवश करती है या कर्म करवाती है. क्योंकि वो इच्छा हमारे अंतर से प्रकाश स्वरूपी आत्मा की शक्ति से आती है इसलिए आत्मा का सम्बन्ध इस स्थूल या सबल देह के साथ हो जाने से हमारा विश्व बन जाता है. तो जिस शक्ति ने अन्तर यह सब कराया, उसको ऊपर व्यक्त किया गया है. उस शक्ति का नाम विश्वकर्मा रखा गया है और उस चाह, इच्छा या वासना का नाम बाहरी रूप में शूद्रा रखा गया है.

चाह चूहड़ी चाह चमारी चाह नीचन ते नीच
मैं तो शुद्ध ब्राह्मण था जो यह न होती बीच
                                          -कबीर

जब रजोगुण वृत्तियाँ रखने वाले मनुष्य जिसको क्षत्रिय कहा गया है, के अन्तर मलिन वासना या इच्छा पैदा होती है और उन वासनाओं के अधीन जो बुरे अशुद्ध विचार पैदा हो जाते हैं, उन विचारों का नाम म्लेच्छ है और बाह्य रूप में ऐसे विचार रखने वाले व्यक्ति को भी म्लेच्छ कहते हैं. जिसके अन्दर मलिन वासनाएँ उठती हैं वास्तव में वही म्लेच्छ है. इसमें कोई जाति पाँति का प्रश्न नहीं हैं. तो सिद्ध हुआ कि ऋषियों ने जिन्होंने ये पुराण आदि ग्रन्थ लिखे उनके असली भाव को न समझते हुए अज्ञानवश छुआछूत चल पड़ी. सिद्ध हो गया कि संसार की उत्पत्ति या हम मानव जाति आशा या इच्छा ही की उत्पत्ति हैं. इसी तरह जब उन महापुरुषों, जो ये नौ प्रकार की सेवाएँ करते थे, में जब यह चाह पैदा हुई कि यह सेवा भविष्य में भी चलती रहे तो उनकी इस चाह ने अपनी जाति या अस्तित्व को आगे बढ़ाया और नौ प्रकार की जातियां चल पड़ीं. उसको पुराण के शाब्दिक अर्थों में ‘विश्वकर्मा ने शूद्रा द्वारा नौ प्रकार की जातियाँ उत्पन्न कीं’ कहा गया है. बात क्या थी और हमने अज्ञानवश क्या समझ लिया.

नाना प्रकार की जातियाँ कैसे बन गईं?

1. अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि छुआछूत वैदिक, रामायण और महाभारत काल में नहीं थी तो कब आरम्भ हुई. अधिकतर पुराणों और स्मृतियों में इसका उल्लेख है. ये ग्रन्थ भी सन्तों-ऋषियों द्वारा लिखे गये जिसमें उन्होंने अपने विचार इस ढंग से प्रकट किए जिसके अनेक अर्थ निकलते हैं. यह उनकी वर्णन शैली का चमत्कार था. उन्होंने अपने अन्तर के अनुभव, जिसे उन्होंने बड़े-बड़े साधन करके, अनुष्ठान करके प्राप्त किया, कथा-कहानी के रोचक रूप में समय की मांग के मुताबिक ग्रन्थों में भर दिया. समय व्यतीत होने पर लोगों ने उनके असली भाव को न समझ कर उलटे अर्थ लगा लिए जो हिन्दू समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हुए. ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में एक श्लोक में आता :-

विश्वकर्मा च शुद्रायां वीर्याधान चकार ह।
ततो बभूवः पुत्रास्ते नवैते शिल्पकारिणः ।।
मालकारः कर्मकारः शंखकारः कुविन्दकः।
कुम्भकारः कांसकारः षडेते शिल्पिनां वराः ।।
सूत्रधारश्चित्रकारः स्वर्णकारस्तथैव च।
पतितास्ते ब्रह्मशपाद्‌ अजात्या वर्णसंकराः ।।
क्षत्रावीर्येण शूद्रायामृतुदोषेण पापत।
बलवत्योदुरन्ताश्चबभूवुर्म्लेच्छजातयः


इसका अर्थ इस समय के या बीते समय, जब अज्ञानता बढ़ी, तो लोगों ने इसका जो बाह्य अर्थ समझा वो निम्नलिखित हैः-

‘विश्वकर्मा ने शूद्रा के गर्भ से नौ शिल्पकार पुत्र उत्पन्न किये थेः माली, लुहार, शंखकार, कुविन्द, कुम्हार, कंसेरा, बढ़ई, चित्रकार और सुनार. क्षत्रिय पिता और शूद्रा माता के संयोग से म्लेच्छ की उत्पत्ति हुई.‘
विश्वकर्मा कोई विशेष व्यक्ति नहीं हुआ. विश्वकर्मा ब्रह्म या हमारी उस आंतरिक दिव्य शक्ति का नाम है जो हमें कर्म में प्रवृत्त करती है अर्थात्‌ एक ख्याल है जो हमें अपनी इच्छापूर्ति के लिए कर्म करने पर  विवश करता है. जिस नियम के अनुसार हमारे शरीर पर बाह्य प्रभावों से हमारा मस्तिष्क प्रभावित होता है, उसी नियमानुसार जैसी-जैसी माँग तथा आवश्यकता संसार में होती है, ऊपर के लोकों से एक शक्ति आकर उस माँग तथा आवश्यकता की पूर्ति करती है. जो शक्ति हमें शारीरिक श्रम व उद्योग में प्रवृत्त करती है, उसका नाम विश्वकर्मा है. समाज चाहे तो किसी समय के ऐसे व्यक्ति जो हमें उद्योगों में लगने की प्रेरणा करता है उसको अवतार का नाम दे दे. इसी प्रकार जिस शूद्रा का उल्लेख इस ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में किया गया है वह शूद्रा कोई विशेष स्त्री या महिला नहीं थी. वो हमारे अन्दर वासना या इच्छा के रूप में आकर उस इच्छा की पूर्ति के लिए हमें गति में लाती है, हरकत करने के लिए विवश करती है या कर्म करवाती है. क्योंकि वो इच्छा हमारे अंतर से प्रकाश स्वरूपी आत्मा की शक्ति से आती है इसलिए आत्मा का सम्बन्ध इस स्थूल या सबल देह के साथ हो जाने से हमारा विश्व बन जाता है. तो जिस शक्ति ने अन्तर यह सब कराया, उसको ऊपर व्यक्त किया गया है. उस शक्ति का नाम विश्वकर्मा रखा गया है और उस चाह, इच्छा या वासना का नाम बाहरी रूप में शूद्रा रखा गया है.

चाह चूहड़ी चाह चमारी चाह नीचन ते नीच
मैं तो शुद्ध ब्राह्मण था जो यह न होती बीच
                                          -कबीर
इस सिलसिले में मैं आपको संतों की वाणी सुनाता हूँ. हुजूर दाता दयाल महर्षि शिवव्रत लाल जी महाराज का शब्द हैः-
आसा इस भव के कारागार में, सचमुच जम की फांसी है।
आसा का बन्धन काटे वह, गुरमुख है गुर विश्वासी है ।।
आसा वाले को चैन कहां, आसा के साथ है त्रास घनी।
मंगल आनन्द का भागी वह, संसार से जिस को उदासी है ।।
जैसी आसा वैसी वासा, जब लग आसा तब लग बासा।
जो आसा का बन्धन काटे, सत मत का वह अभ्यासी है ।।
आसा है जन्म मरण प्यारे, आसा तज दे फिर मुक्ति है।
आसा को सोच विचार ले तू, जड़ चेतन ग्रन्थि की गांसी है ।।
आसा में दुविधा दुचिताई, आसा में भय लज्जा रहते।
यह तीनों पाप अवस्था हैं, तज इनको फिर सुखरासी है ।।
आसा त्रिगुण की खानी है, यह सत रज तम की रासी है।
रज ब्रह्म सत है विष्णुबली, तम शिव शम्भू कैलाशी है ।।
आशा है काम क्रोध लालच, आसा मद मोह द्वेष की जड़ ।
क्यों आस में पड़ के निराश हुआ, तेरा रूप अजर अविनाशी है ।।
सत्संगत में सतगुर के जा, सुन हित चित से गुर की वानी।
बानी सुन सुन निर्बानी हो, गुरू बानी सर्व प्रकाशी है ।।
राधास्वामी ने समझाया, घट ही में है तेरे सब कुछ।
घट में धँस आपा अपना परख, जल में क्यों मीन प्यासी है ।।

जब रजोगुण वृत्तियाँ रखने वाले मनुष्य जिसको क्षत्रिय कहा गया है, के अन्तर मलिन वासना या इच्छा पैदा होती है और उन वासनाओं के अधीन जो बुरे अशुद्ध विचार पैदा हो जाते हैं, उन विचारों का नाम म्लेच्छ है और बाह्य रूप में ऐसे विचार रखने वाले व्यक्ति को भी म्लेच्छ कहते हैं. जिसके अन्दर मलिन वासनाएँ उठती हैं वास्तव में वही म्लेच्छ है. इसमें कोई जाति पाँति का प्रश्न नहीं हैं. तो सिद्ध हुआ कि ऋषियों ने जिन्होंने ये पुराण आदि ग्रन्थ लिखे उनके असली भाव को न समझते हुए अज्ञानवश छुआछूत चल पड़ी. सिद्ध हो गया कि संसार की उत्पत्ति या हम मानव जाति आशा या इच्छा ही की उत्पत्ति हैं. इसी तरह जब उन महापुरुषों, जो ये नौ प्रकार की सेवाएँ करते थे, में जब यह चाह पैदा हुई कि यह सेवा भविष्य में भी चलती रहे तो उनकी इस चाह ने अपनी जाति या अस्तित्व को आगे बढ़ाया और नौ प्रकार की जातियां चल पड़ीं. उसको पुराण के शाब्दिक अर्थों में ‘विश्वकर्मा ने शूद्रा द्वारा नौ प्रकार की जातियाँ उत्पन्न कीं’ कहा गया है. बात क्या थी और हमने अज्ञानवश क्या समझ लिया.

इसलिए स्त्रियों की पवित्रता पर संशय करके उनकी सन्तान का बहिष्कार जो किसी समय हुआ वो अज्ञान था जिसके कारण नाना प्रकार की जातियाँ बन गईं.
1. किसी खास प्रदेश या गाँव में बसने से उसी प्रदेश या गाँव के नाम पर जातियाँ बनीं. यह प्रथा इस वक्त भी है. कई हिन्दू जातियाँ ऐसी हैं जो ब्राह्मण तो नहीं, मगर वो अपनी जाति में विवाह आदि, यज्ञ आदि कराने वाले को ब्राह्मण मान लेती हैं और उसको पंडित जी कहते हैं.
2. भिन्न-भिन्न गुण कर्म स्वभाव सेः पिछले समय में यज्ञ आदि करने की रीति प्रचलित थी. जब ऋषि मुनि साधन-अभ्यास में बैठते थे तो अपने अन्तर सावित्री या प्रकाश को पैदा करते थे. पहले अपनी तमोगुणी वृत्तियों की आहुति देते थे. जब तमोगुणी गुण से छुटकारा मिल जाता था तो फिर रजोगुणी वृत्तियों की अपने अन्तर में आहुति देते थे. अन्त में सतोगुणी वत्तियों की भी आहुति देकर शुद्ध प्रकाश स्वरूप अवस्था में चले जाते थे. जब वह समय आया कि लोग इस असली यज्ञ को करने में असमर्थ हो गए तो लोगों ने अज्ञानवश बाहर की कुरबानियाँ अर्थात्‌ त्याग बना लिए और बकरे, घोड़े और बैलों को मारना यज्ञ समझ लिया. जिन लोगों ने पहले पहल ये कुरबानियां दीं उन लोगों को भी नीच अछूत निश्चित करके उनका समाज से बहिष्कार कर दिया.

3. खाने पीने के लिहाज से भी जातियाँ बन गईं. यह भी अज्ञानता थी. भोजन से ही हमारे अन्तर तरह-तरह की हालतें पैदा होती हैं. जैसा खाओ अन्न वैसा बने मन. इसमें कोई जाति विशेष का सवाल नहीं.

4. पत्थरों पर खुदे साहित्य में तब्दीली के कारण जो कि आसानी से बदला जा सकता था.
6. हिन्दू जाति ऐसी बलवान थी, जिसने धार्मिक स्वतन्त्रता सबको दी थी, मगर व्यावहारिक स्वतन्त्रता नहीं दी. जहाँ किसी ने व्यवहार तोड़ा उसको बिरादरी से खारिज कर दिया.
6. किसी संन्यासी के फिर से गृहस्थ में प्रवेश करने पर उसकी सन्तानें अस्पृश्य होकर नई जाति बन जाती थी.

छुआछूत कब और क्यों?

1. इस बात का पता कि छुआछूत क्यों और कब बनी, हतिहास से नहीं मिला, मगर युक्ति से सिद्ध होता है कि समय के अनुसार इसी जाति, वर्ण, समाज, भाव का प्रयोग धीरे-धीरे अज्ञानवश अपनी श्रेष्ठता कायम रखने के लिए, कुछ धन सम्पत्ति बढ़ाने के लिए किया गया.  अपने को ऊँचा बनाया गया और दूसरों को नीच और अछूत कहा गया. साधारण मानव यह चाहता है कि मैं सत्ता का स्वामी बन जाऊँ, धन इकट्‌ठा कर लूँ और उसका भी कोई अंत नहीं. उसकी इस कामना का अंत नहीं होता. वो चाहता है कि ये सब चीजें मेरी आने वाली पीढियाँ भोगें. मेरी जाति, मेरा वर्ण इन सब चीजों का मालिक होवे. अब पहले राजनीति में ले लें. बड़े-बड़े नेता चाहते हैं कि हमारे बाल बच्चे भी हमारी तरह ऊँचे पदों पर आएँ. धर्म, पंथ और सम्प्रदाय के गुरु लोग भी अपने मरने के पश्चात्‌ अपने बच्चों को गदि्‌दयाँ दे जाते हैं. यह भावना अपने आप को उभारने और दूसरों को दबाने का ज़रिया बनती है. यहाँ तक कि दूसरों को अछूत बना कर हमेशा के लिए दलित बना दिया ताकि लोग उनकी आने वाली पीढियों की समानता न कर सकें.

2. किसी देश में राष्ट्रीयता न होने के कारणः-अपनी जाति, अपनी भाषा और अपना प्रदेश बनाकर कमजोर वर्ग के लोगों को उन्नति करने के साधनों से वंचित रखा जाता था. भारत पर जब बाहर से आक्रमण हुए तो अनेक जातियाँ और अनेक उपजातियाँ और वर्ण होने के कारण मुकाबला न हो सका और हार कर सदियों के लिए गुलाम और असहाय बने रहे.

4. लम्बे समय तक एक काम करने के कारणः- हिन्दुओं ने वर्णव्यवस्था बनाई. उस समय इसकी आवश्यकता होगी. हर एक आदमी के गुण, कर्म और स्वभाव के मुताबिक अलग-अलग काम बाँटे गए. शूद्रों ने समाज की सेवा के कार्य अपने जिम्मे लिए. लम्बे समय तक जो काम किया जाए आदमी उसी का रूप बन जाता है. जैसा काम वैसा नाम, जैसा नाम वैसा रूप. यह सारी सृष्टि नामरूप की है. कर्मों के संस्कारों द्वारा जो काम कोई करता है, उसकी वही जाति बन गई. मैं सब का नाम तो नहीं लेना चाहता क्योंकि अब समय बदल रहा है. कोई शूद्र कहलाना नहीं चाहता क्योंकि यह शब्द घृणा सूचक हो गया है. अगर तमाम शूद्र जातियों के नाम दिये जाएँ तो सम्भव है कि किसी के मन का ठेस पहुँचे. मगर इशारे के तौर पर लिखना जरूरी है. कपड़े धोने वाले का काम करने वाले धोबी बन गए. हजामत का काम करने वाले हज्जाम बन गए. कृषि का काम करने वाले कृषक बन गए. इस तरह और भी समझिये. जिन जातियों की सेवाएँ कुछ घटिया किस्म की थीं वो अछूत बन गईं और जिनकी सेवाएँ कुछ अच्छी थीं और उनके बगैर गुजारा नहीं था वो छूत बन गई.

5. विवेक न होने के कारणः- इस सिलसिले में कबीर साहिब का एक शब्द हैः-

पंडित सुनहु मनहिं चित लाई ।

पंडित के कई अर्थ हैं. एक अर्थ तो यह है कि आत्मविषयक बुद्धि पंडा है और वह पंडा बुद्धि जिसमें हो वह पंडित है. दूसरे जो ब्राह्मण या पंडित के घर पैदा हो, उसको पंडित कहते हैं. तीसरे जो कर्मकाण्ड का अनुयायी है और प्रचार करता है. मगर इस शब्द में कबीर साहिब ने उस व्यक्ति को सम्बोधित किया है जो विद्वान हो, पुस्तकीय ज्ञान रखता हो, विवेकहीन हो और लोगों को उपदेश करता है. ऐसे लोगों को संत कबीर कहते हैं कि भाई छुआछूत सब मन का खेल है.

जोई सूत के बन्यो जनेऊ, ताकि पाग बनाई।
धोती पहर के भोजन कीन्हा, पगरी में छूत लगाई ।।

कबीर साहिब कहते हैं कि तमाम वस्त्र सूत के बनते हैं. एक ही सूत सब में है. जनेऊ, धोती, पगड़ी आदि सभी सूत से बने मगर भोजन खाते समय पगड़ी निषेध कर दी जाती है या पगड़ी को अछूत समझने लग जाना यह ठीक नहीं. जिस तरह तमाम वस्त्र एक सूत से बने हैं, उसी तरह सब जीव जन्तु एक ही मालिक और पाँच तत्त्वों से बने हैं, किसी को नीच कह देना ठीक नहीं.

रक्त मांस को दूध बनो है, चमड़ा धरी दुराई।
सोई दूध से पुरखा तरिगे, चमड़ा में छूत लगाई ।।

दूध रक्त मांस से बनता है और यह सब चमड़े के अन्दर होता है. दूध पीने से सभी प्रसन्न चित्त हो जाते हैं, मगर चमड़े और चमड़े का काम करने वाले के साथ घृणा करते हैं. चमड़ा, रक्त, मांस और दूध सब एक ही तत्त्व से बने हैं. किसी को बुरा भला कहना विवेक हीनता है.

जन्म लेत उढ़री अबला के लै मुख छीर पियाई। 
जब पंडित तुम भये ज्ञानी चालत पंथ बड़ाई ।।
हम सब माता के पेट से पैदा हुए हैं. माता के पेट में एक न दिखाई देने वाला स्पर्मेटोरिया जर्म पिता के वीर्य से आया. पिता का वीर्य और  माता का रज, जो उन्होंने अन्न खाया, उससे बना. अन्न पृथ्वी से पैदा हुआ. पृथ्वी में अन्न तब तक नहीं उत्पन्न हो सकता जब तक चांद, सूरज और सितारों की किरणें उन पर न पड़ें अर्थात्‌ यह सारी सृष्टि, यह प्रकृति और उनके तत्त्व प्रकाश से बने हैं. इसीलिए हम लोग धरती को माता और सूर्य को पिता कहते हैं. अब उढ़री अबला से कबीर साहिब का क्या भाव है, पता नहीं. बीते समय में उपपत्नियों, दासियों या असहाय अबला नारियों के सन्तान उत्पन्न हो जाती थी. ऐसी माताओं के गर्भ से पैदा होकर, उसका दूध पीकर जब बड़े हो जाते थे और जब बुद्धि बढ़ जाती थी तब वैसी माताओं के दोष देखने लग जाते थे. ये दोष चाहे शारीरिक हों, मानसिक हों या सामाजिक कुरीतियों की वजह से, ज्ञान और विवेक न होने के कारण उनको अछूत बना लेते थे. यह भूल जाते थे कि वास्तव में हमारा जीवन एक ही प्रकाश, उससे बनी प्रकृति और तत्त्वों से बना है. तो कबीर साहिब फरमाते हैं:-

कहे कबीर सुनो हो पंडित नाहक जग में आई।
बिना विवेक ठौर न कतहूँ, विरथा जन्म गंवाई ।।

आखिर में कबीर साहिब फरमाते हैं कि अगर इस संसार में आकर हमें सत-असत, गलत और ठीक का ज्ञान नहीं हुआ, निश्चयात्मक बुद्धि नहीं मिली तो हमारा जन्म व्यर्थ जाता है. एक मालिक की सन्तान हैं. यहाँ रंगरूप में भिन्नता आ गई और हम विवेक के खो जाने के कारण अपने दुखों को दूर करने के लिए कोई न कोई सामाजिक सिद्धांत बनाते हैं. कुछ समय के लिए वो सिद्धांत काम करते हैं. मगर फिर व्यवस्था बिगड़ जाती है और उसी का परिणाम छुआछूत है. वह वर्ण व्यवस्था अर्थात्‌ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के काम करने की शक्तियाँ स्वाभाविक ही प्रत्येक मानव के अन्तर हैं, किसी में थोड़ी किसी में ज्यादा. उनमें संस्कारों के कारण परिवर्तन भी आता रहता है. इसलिए जातिवाद वर्ण व्यवस्था द्वारा छुआछूत सर्वदा असंगत है. इसलिए विवेक की जरूरत है लेकिन विवेक कैसे प्राप्त हो.
हमारे समाज में कई ऋषि, मुनि, साधु संत हुए हैं जो आध्यात्मिकता के मार्ग पर चल कर अपना जीवन व्यतीत करते रहे हैं. ऐसे महापुरुषों के सत्संग द्वारा इन्सान में विवेक आता है. सन्त तुलसीदास जी ने लिखा हैः-
बिन सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिन सुलभ न सोई।
संत महात्माओं के सत्संग के द्वारा हमें समाज में सुखी रहने का रास्ता मिलता है. वो सच्ची शिक्षा देते हैं जिसका सम्बन्ध आध्यात्मिकता से होता है. उनका मार्ग अपने अन्तर के साधन द्वारा प्राप्त की गई अवस्थाओं से होता है. उस पर विशेष आदमी अन्तर का साधन करके उस ज्ञान को प्राप्त कर सकता है. सर्वसाधारण के लिए उनके कहे हुए वचनों पर विश्वास करके अपना जीवन सफल बनाना है.
इस जाति वर्ण भेद या छुआछूत के सिलसिले में मैं आपको धनी धर्मदास जी का एक शब्द सुनाता हूँ जिससे हमको पता लग जाता है कि छुआछूत का असली कारण क्या है. कब और कैसे चली? इस विषय में धनी धर्मदास का एक शब्द हैः-

कैसे मैं आरति करूँ तुम्हारी, महा मलिन साहब देह हमारी।।

धनी धर्मदास जी फरमाते हैं कि ऐ मालिक, मैं तुम्हारी आरती कैसे करूँ? आरती करते समय स्वयं आरत बनकर हम अपने इष्ट को बाहरी रूप में सजाते हैं. सुन्दर भूषण, वस्त्र पहनाते हैं और इष्ट से प्रेम-प्रीति लाते हैं. थाली में दिया धूप आदि रखकर उसके सुन्दर मुखड़े के इर्द गिर्द घुमाते हैं. फिर कई अमूल्य वस्तुएँ भेंट करते हैं. फिर अपने शब्दों में या दूसरे किसी महापुरुष के गढ़े हुए शब्दों में गाना गाया जाता है. मगर हुजूर धर्मदास जी कह रहे हैं कि ऐ मालिक, मैं तेरी आरती कैसे करूँ, क्योंकि मेरा तन-मन महामलीन है. सच्चे साधक जब अपने इष्ट की आरती करते हैं तो सखियाँ या इन्द्रियां भी साथ गाती हैं. मगर मलिन तन-मन से, सखियों का भी मलिन रूप से आरती का होना धनी धर्मदास कठिन समझते हैं. सभी सन्तों ने आरतियाँ लिखी हैं, कितने प्रेम और उमंग के साथ लिखीं. आरती एक तो एहसान के जज़्बे में की जाती है, दूसरे देखा-देखी असलियत की नकल की जाती है. एहसान का जज़्बा उस समय पैदा होता है जब सत्गुरु से शक्ति हासिल करके उसकी दया से जब हम इस मलिन या अछूत शरीर और मन से ऊपर जा कर अपने रूप में ठहर जाते हैं. असली आरती अपने मालिक से सदा के लिए मिल जाना है. धर्मदास जी का भी यही अभिप्राय है. ऐ मालिक मैं तुमसे कैसे मिलूँ? मलिन देह के कारण मिलना मुश्किल है.
देह की मलीनता तो सब जानते हैं. हमारी देह हाड़, मांस, रक्त, नस नाडियाँ और चमड़े से बनी है. इसमें से मल, मूत्र, नाक, थूक, गीध कान का बहना, पसीना आदि निकलते रहते हैं उसको साफ रखने के लिए हमें प्रत्येक दिन नहाना धोना पड़ता है. नए वस्त्र डालें तो कुछ दिनों के बाद वस्त्र गंदे हो जाते हैं. फिर धोने पड़ते हैं. इसी तरह मन में अच्छे और बुरे विचार भी उठते रहते हैं. साइंस कहती है कि आदमी का शरीर एक रेडियो स्टेशन की भांति है. इसमें से रेडियेशन निकलती है और हमारे सम्पर्क में आने वाले पर असर करती है. हमारे अच्छे-बुरे विचार ब्रह्मांड में रहते हैं और लोगों पर असर करते हैं. इस देही में आने पर बड़े-बड़े सन्तों ने अपने आपको पतित, नीच कहा. गुरु नानक साहिब ने अपने आपको ‘मैं नीचन ते नीच’ कहा. सन्त तुलसीदास जी ने अपने आपको ‘अधम’ और पुरातन पतित कहा. भगत सूरदास जी का शब्द हैः-

मो सम कौन कुटिल खल कामी।
जिन तन दियो ताहि बिसरायो ऐसो निमक हरामी ।।
भर भर उदर विषय को धावों जैसे सूकर ग्रामी।
हरिजन छांड हरिविमुखन की निसी दिन करत गुलामी ।।
पापी कौन बड़ो है मो ते, सब पतितन में नामी।
सूर पतित को ठौर कहाँ है, सुनिए श्रीपति स्वामी ।।

छूते से उपजा संसारा, मैं छुतिया गुन गाऊँ तुम्हारा।।
इस देह और मन से संसार की उत्पत्ति होती है क्योंकि इस देह और मन से चौरासी में घूमने की व्यवस्था की गई है. जितने भी संसार के प्राणी हैं जो देह और मन रखते हैं, इसी मलिन देह द्वारा पैदा होते रहते हैं और आगे अनगिनत देहधारी इस संसार में आते, कुछ दिन रहते और अंत में नाश को प्राप्त होते हैं. मगर छुआछूत का ज़माना कैसे आया. लोग अपनी हस्ती को भूल गए. एक ‘मैं पना’ आ जाने के कारण अपने आपको ऊँचा और दूसरे देहधारियों को नीचा समझने लग गए. जितने हमारे मन के विचार हैं, यही संसार है. आगे धनी धर्मदास जी कहते हैं –‘मैं छुतिया गुन गाऊँ तुम्हारा’- जब हमारी सुरत उस देह मन में आ जाती है, हम जीव रूप हो जाते हैं, तो फिर मालिक के गुण गाते हैं. हे मालिक, आपने मुझे जीव रूप बना दिया, आप दया के सागर हैं, पतित उद्धारनहार हैं. मुझ छुतिया को अपने साथ मिला लो. हम इस देह-मन से छुटकारा चाहते हैं, क्यों कि ये छूत हैं. इसमें रहने से हम नीच बन जाते हैं, पतित और अछूत बन जाते हैं. हमारी सुरत के सामने यह शरीर और मन के खेल या अहसासात, बोध-भान ऐसे आते हैं जिनको सत्य मानना पड़ता है, सार मानना पड़ता है. इस मलिन और अछूत अवस्था का हमारे सामने सार बन कर आना ही संसार कहलाता है. अगर सुरत इनमें न हो, तो कोई संसार नहीं. सत्गुरु की आरती हम इसलिए  करते हैं कि वो हमारे दुखदायी मलिन और अछूत संसार को लोप कर देता है और धर्मदास जी ने ठीक कहा है कि मेरा इस मलिन देह जो वास्तव में अछूत है, छू जाने से मेरा संसार बन जाता है और हमारी सुरत ‘छुतिया’ हो जाती है, भ्रष्ट महसूस करती है, पतित या गिरी हुई महसूस करती है.

गुरु रविदास जी महाराज के अमृतवचन सुनें उनका शब्द हैः-

बेग़मपुरा शहर को नाऊँ, दुख अंदोह नहीं तिस ठाऊँ।
गुरु रविदास जी महाराज इस शब्द में लिखते हैं कि देह-मन की संगत छोड़ कर मेरी एक ऐसे देश में रहनी बन गई जो बेग़मपुरा है. उस बेग़म देश में कोई दुख अंदेशा नहीं है, अचिंत देश है.

ना तसवीस खिराज न माल, खौफ़ न ख़ता न तरस जवाल।

वहाँ पर हमारे पास कोई माल नहीं होता जिस पर वहाँ जाने वाले को महसूल लग सके. जिसके पास कुछ भी न हो, उसको मसूल का क्या डर.  न वहाँ पाप-पुण्य है, न वहाँ डर है. न पतित होने का या गिरने का डर है. ये सब बातें उस वक्त तक रहती हैं जब तक इस शरीर और मन के कर्मक्षेत्र में हम कार्य करते हैं. किसी इच्छा को लेकर करते हैं, कोई पूरी हो जाती है, कोई नहीं होती. दुख-सुख पैदा हो जाते हैं. उस बेग़मपुरे में ये बातें नहीं.

अब मोहि खूब वतनगाह पाई, उहां खैर सदा मेरे भाई।

वो रहनी आश्चर्यजनक है, वहाँ सदा ही कुशल है.

हर आन हँसी हर आन खुशी, हर वक्त अमीरी है बाबा।
जब आशिक मस्त फ़कीर हुआ, फिर क्या दिलगीरी है बाबा।

वतनगाह हमारी रहनी की अवस्था है जिसका गुरु रविदास जी वर्णन कर रहे हैं:-
कायम दायम सदा पातशाही, दोम न सोम एक सो आही ।

उस बेग़म वतनगाह में अर्थात्‌ उस रहनी की अवस्था में इन्सान बादशाह हो जाता है और वो अवस्था सदा के लिए मिल जाती है, फिर उससे आदमी गिरता नहीं. वहाँ पर उस रहनी में रहने वाले के लिए कोई ऊँच-नीच नहीं, कोई जाति-वर्ण-भेद नहीं. यह जो भेदभाव, नीच-ऊँच, दोम-सोम का प्रश्न है, ये मन के राज्य में है. ज्योंहि इस छूत को छोड़ कर उस रहनी में चला जाता है, अटल राज्य मिल जाता है.
अबादान सदा मशहूर। उहाँ ग़नी बसे मामूर।
वो देश हमेशा ही आबा

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