गुरुवार, फ़रवरी 25, 2021

साई का इतिहास जैन मुनि से सुने

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भारत की दुर्दशा का कारण

 भारत की दुर्दशा का कारण समझो, मोदी जी...

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(डॉ. शंकर शरण का यह लेख पुराना है, पर आज भी प्रासंगिक है।)

भारत के दुश्मन जैश-ए-मुहम्मद और मसूद अजहर के बचाव में चीन का उतरना आश्चर्यजनक नहीं है। आश्चर्यजनक तो इस पर भारतीय नेताओं व पत्रकारों का चकित होना है! सैकड़ों प्रतिकूल अनुभवों के बाद भी हम कोई सबक नहीं सीख पाए। यह हमारे मानसिक खालीपन का प्रदर्शन है। स्वतंत्र भारत में आरंभ से ही पड़ोसियों द्वारा घुसपैठ, सीमा में घुस कर सैनिक चौकी बना लेने और विश्वासघात की घटनाएं होने लगीं। सन् 1954-55 में चीन द्वारा लद्दाख में चुपचाप कब्जे का पता चला तो ‘शांति के पुजारी’ प्रधानमंत्री नेहरू (जो तीन दशक से कांग्रेस के विदेश-नीति विशेषज्ञ और कम्युनिज्म-ज्ञाता भी माने जाते थे!) ने इसे छिपाए रखा। यानी, संदेश दिया कि किंकर्तव्यविमूढ़ भारतीय नेता प्रतिकार का कोई प्रयास तक नहीं करेंगे। इस तरह, लद्धाख का एक हिस्सा गया। यह स्वतंत्र भारत की विदेश-नीति की पहली देन थी।

जब मामला खुला तब संसद में नेहरू ने बयान दियाः "क्या हुआ यदि चीन ने उस इलाके पर कब्जा कर लिया। वहाँ तो घास तक नहीं उगती!" यह लज्जास्पद प्रसंग साठ वर्ष पहले का है। आज क्या बदला? इस पर हम कब खुल कर विचार करेंगे? लद्दाख ही नहीं, असम और बंगाल में भी भारतीय सीमा आज अंदर बड़ी दूर खिसक कर आ चुकी है, सभी नेता यह जानते हैं।

नेहरू के बयान कि ‘लद्दाख में घास तक नहीं उगती’ के कितने भयावह अर्थ थे? तब नए भारत की नीतियों का आरंभ ही हुआ था। यह थी हमारी शुरुआतः कि राष्ट्रीय सुरक्षा की पहली जिम्मेदारी जिस पर थी वही उस से भाग रहा था। यही नहीं, अपने भगोड़ेपन को सही ठहरा रहा था – वह भी सार्वजनिक रूप से! न केवल नेहरू में नीति-निर्माण की क्षमता व समझ नहीं थी, उन्हें इसका भान तक न था। इसके दुष्परिणामों की करुण-कथा कश्मीर, तिब्बत, चीन संबंधी नीतियों से आरंभ होकर पाकिस्तान द्वारा बार-बार ठगे जाने तक अनवरत चल रही है। हम इन सब को जोड़कर देखना और सबक कब सीखेंगे? केवल सेना, आधुनिक हथियार और प्रक्षेपास्त्र जमा कर लेने से कोई दुश्मन नहीं डरता, यह हम कब तक नहीं समझेंगे?
अंदर-बाहर हमारी लाचारी के मूल में वैचारिक गड्ड-मड्ड पन है। आरंभ से ही दुनिया को या अंदरूनी दुष्टों को उपदेश देना, देशी-विदेशी मंचों पर शांति व भाई-चारे के आत्म-तुष्ट बयान देना, कबूतर उड़ाते या हँसते फोटो खिंचवाना तथा व्यापार समझौते करके देश को तसल्ली देना हमारी आंतरिक-बाह्य सुरक्षा नीति का मानो आदि-अंत रहा है।

स्वतंत्र भारत की नीतियों में इस सभी दिग्भ्रम का मूल गाँधी-नेहरू के विचारों का दुष्प्रभाव है। इस से भाजपा भी सराबोर है। यह दो बार देखा जा चुका कि उसके पास नेहरूवादी लीक के सिवा अपना कोई विचार नहीं। जब तक इस कड़वी सच्चाई से बचने की कोशिश रहेगी, हमें अंदर-बाहर निरंतर छलित, अपमानित होते रहना पड़ेगा। हम अपनी ही बचकानी समझ के बंदी हैं। यह अंदरूनी और बाहरी, दोनों तरह के दुश्मन हमारे नेताओं, बुद्धिजीवियों से बेहतर जानते हैं!

इसीलिए आए-दिन भारत उस हट्टे-कट्टे आदमी सा दिखता है जो अस्त्र-शस्त्र सज्जित होकर भी अपने ऊपर किसी दुष्ट के आक्रमण को बेबस देखता, सदैव दूसरों से सहायता की अपेक्षा करता हो। यदि पठानकोट और मसूद अजहर जैसे अंतहीन अपमानों से हमें उबरना है तो पहले अपने वैचारिक जाले को झाड़ कर साफ करना होगा।
राज-काज शांति, अहिंसा, समाजवाद या ‘विकास’ की लफ्फाजी से नहीं चलता। सब से बड़ा व्यंग्य यह है कि शांति, सदभाव की रट पर निर्भर रहने से लाखों भारतवासियों की जानें गई, जबकि जो देश जैसे को तैसा अथवा शक्ति-आधारित नीति चलाते हैं, उन्हीं के नागरिक और सैनिक निरापद जीवन जीते हैं। चीन या ईरान पर आज तक किस ने आक्रमण किया? उसे कितनी बार ताशकंद, शिमला या कारगिल जैसा धोखा झेलना पड़ा? यह हम कब जानेंगे कि अपने अधिकार के लिए, लड़ने-मरने को तैयार रहने से ही कम लोग मरते हैं। इसके विपरीत, शांति और बंधुत्व के भजन पर निर्भरता से लाखों भारतवासी अंदर-बाहर शत्रु-ग्रास बनते रहे हैं।

पर हमें अभी तक यह बात समझ नहीं आई। विभाजन, कश्मीर, पंचशील, तिब्बत, 1962, 1965, लाहौर-बस यात्रा और कारगिल, पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद का निर्यात, बात से मुकरना और झूठे आरोप लगाना - यह सब हमारे एक ही भ्रम के नियमित दुष्परिणाम हैं। शत्रु अपनी कार्रवाई पर हमारी प्रतिक्रिया पहले से जानता है। जैसे, अंग्रेज अपने कदमों पर गाँधीजी की प्रतिक्रिया पहले से जानते हुए अपनी चाल चलते थे।

मगर हम गाँधी-नेहरू पर गर्व करते हैं। गाँधी ने हिटलर के आसन्न आक्रमण पर ब्रिटेन को सलाह दी थी कि विरोध न करें। हिटलर को खुशी-खुशी कब्जा करने दें। ‘हिटलर कोई बुरा आदमी नहीं है’, गाँधी ने ब्रिटिश प्रधान मंत्री को लिखा। नेहरू ने लद्दाख पर आंशिक चीनी कब्जा होने दिया। वी.पी. सिंह से लेकर वाजपेई तक, सब ने कश्मीर में हिन्दुओं का सफाया चुपचाप देखा। जम्मू और लद्दाख पर अन्याय भी। उसी तरह, अभी पश्चिम बंगाल में इस्लाम-पंथियों की हिंसा पर चुप्पी है। अंदर-बाहर नीतियों में बुनियादी रूप से कुछ नहीं बदला…
। हिंसकों की खुशामद कर काम निकालने की गाँधीवादी कल्पना बचकानी है। यह कोई शांति-प्रियता या कूटनीति नहीं, यह सारे विदेशी जानते हैं। सामान्य भारतवासी भी जानते हैं। हमारे सिपाही सीमा पर या संसद में प्राणों की आहुति दे-देकर जो भूमि और सम्मान जीतते हैं, उसे भी गाँधी-नेहरूवादी नीतियाँ खोती रही हैं

मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगीश्वर कृष्ण एवं कौटिल्य चाणक्य जैसे सनातन आदर्शों को भुलाकर हम ने बौने, दलीय आदर्श अपना लिए। अकर्मण्यता और परमुखापेक्षिता को बढ़ावा देने वाले सुविधाभोगी विचार ले लिये। समस्या की जड़ यहाँ है। इसे खत्म किए बिना भारत अपमानित होता रहेगा।

लेखक : डॉ० शंकर शरण

शनिवार, फ़रवरी 20, 2021

टीका Vaccination जो अंग्रेजो ने भारत मे 300 साल पहले देखा।

 

शीतला माता का इलाज, तीनसौ वर्ष पूर्व
कोरोनाके अवसरपर मेरी पुस्तक शीतला माताका कथ्य --
सन्‌ १८०२ में इंग्लंडके श्री जेनरने चेचकके लिए वैक्सीनेशन खोजा। यह गायपर आए चेचकके दानोंसे बनाया जाता था। लेकिन इससे दो सौ वर्ष पहलेसे भारतमें बच्चोंपर आए चेचकके दानोंसे वैक्सीन बनाकर दूसरे बच्चोंका बचाव करनेकी विधी थी। इस बाबत दसेक वर्ष पहले विस्तारसे खोजबीन और लेखन किया है इंग्लंडके श्री आरनॉल्ड ने। उसीकी यह संक्षिप्त प्रस्तुति है।
मेरा कथ्य ---
कुछ वर्षों पहले मुझे पुणेसे डॉ देवधरका फोन आया - यह बतानेके लिए कि वे American Journal for Health Sciences के लिए एक पुस्तककी समीक्षा कर रहे हैं। पुस्तक थी लंदन यूनिवर्सिटीके प्रोफेसर आरनॉल्ड लिखित Colonizing Body। पुस्तकका विषय है कि प्लासीकी लड़ाई अर्थात्‌ १७५६ से लेकर १९४७ तक अपने राजकालमें अंग्रेजी राज्यकर्ताओंने भारतमें प्रचलित कतिपय महामारियोंको रोकनेके लिए क्या-क्या किया। इसे लिखनेके लिए लेखकने अंग्रेजी अफसरोंके द्वारा दो सौ वर्षोंके दौरान लिखे गये कई सौ डिस्ट्रिक्ट गझेटियर और सरकारी फाइलोंकी पढ़ाई की और जो जो पढ़ा उसे ईमानदारीसे इस पुस्तकमें लिखा। पुस्तकके तीन अध्यायोंमें चेचक, प्लेग और कॉलरा जैसी तीन महामारियोंके विषयमें विस्तारसे लिखा गया है। अन्य अध्याय विश्लेषणात्मक हैं।

डॉ० देवधरकी सूचना थी कि मैं चेचकसे संबंधित अध्याय अवश्य पढूं और अपना मत लिखूं जो उनकी पुस्तक समीक्षामें मेरे नामके साथ शामिल किया जाएगा। बादमें अपनी समीक्षाके अन्तमें उन्होंने लिखा था - ''मेरा डॉक्टरी ज्ञान केवल ऍलोपैथीसे है। इस पुस्तकमें वर्णित कुछ घटनाएँ - जो शायद उस जमानेकी आयुर्वेदिक पद्धतियोंको उजागर करती है, मेरी समझसे बाहर है। इसलिय मैंने ऐसे व्यक्तिको पूरक समीक्षा लिखनेके लिए कहा जिसे आयुर्वेदकी समझके साथ यह भी ज्ञान है कि समाजके लिए स्वास्थ्य - विचार कैसे किया जाता है।'' इन शब्दोंके आगे मेरी समीक्षाको जोड़कर उसे जर्नलमें छापा गया।

मेरी समीक्षा केवल चेचकके अध्याय के लिए ही सीमित थी, लेकिन उस अध्यायमें लेखकने जो कुछ लिखा है वह इतना महत्वपूर्ण है कि मेरे कई मित्रोंने उसके विषयमें विस्तारके लिखनेका आग्रह किया है।

सत्रहवीं, अठारवीं और उन्नीसवीं सदीमें या शायद उससे कुछ सदियों पहले भी चेचककी महामारीसे बचनेके लिए हमारे समाजमें एक खास व्यवस्था थी। उसका विवरण देते हुए लेखकने काशी और बंगालकी सामाजिक व्यवस्थाओंके विषयमें अधिक जानकारी दी है। चेचकको शीतलाके नामसे जाना जाता था और यह माना जाता था कि शीतला माताका प्रकोप होनेसे बीमारी होती है। लेकिन इससे जूझनेके लिए जो समाज व्यवस्था बनाई गई थी उसमें धार्मिक भावनाओंका अच्छा खासा उपयोग किया गया था। शीतला माताको प्रेम और सम्मानसे आमंत्रित किया जाता था, उसकी पूजाका विधि विधान भी किया गया था। चैत्रके महीनेमें शीतला उत्सव भी मनाया जाता था। यही महीना है जब नई कोंपलें और फूल खिलते हैं, और यही महीना है जब शीतला बीमारी अर्थात्‌ चेचकका प्रकोप शुरू होने लगता है। शीतला माताको बंगालमें बसन्ती-चण्डीके नामसे भी जाना जाता है।

काशीके गुरूकुलोंसे गुरूका आशीर्वाद लेकर शिष्य निकलते थे और अपने-अपने सौंपे गये गाँवोंमें इस पूजा विधानके लिये जाते थे। चार-पांच शिष्योंकी टोली बनाकर उन्हें तीस-चालीस गांव सौंपे जाते थे। गुरूके आशीर्वादके साथ-साथ वे अन्य कुछ वस्तुएं भी ले जाते थे - चाँदी या लोहेके धारदार ब्लेड और सुईयाँ, और रुईके फाहोंमें लिपटी हुई ''कोई वस्तु''।

इन शिष्योंका गाँवमें अच्छा सम्मान होता था और उनकी बातें ध्यानसे सुनी व मानी जाती थीं। वे तीनसे पन्द्रह वर्षकी आयुके उन सभी बच्चों और बच्चियोंको इकट्ठा करते थे जिन्हें तब तक शीतलाका आशीर्वाद न मिला हो (यानि चेचककी बीमारी न हुई हो)। उनके हाथमें अपने ब्लेडसे धीमे धीमे कुरेदकर रक्तकी मात्र एकाध बूंद निकलने जितनी एक छोटीसी जख्म करते थे। फिर रूईका फाहा खोलकर उसमें लिपटी वस्तुको जख्म पर रगड़ते थे। थोड़ी ही देरमें दर्द खतम होनेपर बच्चा खेलने कूदनेको तैयार हो जाता। फिर उन बच्चोंपर निगरानी रख्खी जाती। उनके माँ-बापके साथ अलग मीटिंग करके उन्हें समझाया जाता कि बच्चेके शरीरमें शीतला माता आने वाली है, उनकी आवभगतके लिये बच्चेको क्या क्या खिलाया जाय। यह वास्तवमें पथ्य विचारके आधार पर तय किया जाता होगा।

एक दो दिनोंमें बच्चोंको चेचकके दाने निकलते थे और थोड़ा बुखार भी चढ़ता थ। इस समय बच्चेको प्यारसे रख्खा जाता और इच्छाएं पूरी की जाती। ब्राम्हण शिष्योंकी जिम्मेदारी होती थी कि वह पूजा पाठ करता रहे ताकि जो देवी आशीर्वादके रूपमें पधारी हैं, वह प्रकोपमें न बदल पाये। दाने बड़े होकर पकते थे और फिर सूख जाते थे - यह सारा चक्र आठ-दस दिनोंमें सम्पन्न होता था। फिर हर बच्चेको नीमके पत्तोंसे नहलाकर उसकी पूजा की जाती और उसे मिष्ठान दिये जाते। इस प्रकार दसेक दिनोंके निवासके बाद शीतला माता उस बच्चेके शरीसे विदा होती थीं और बच्चेको ''आशीर्वाद'' मिल जाता कि जीवन पर्यन्त उसपर शीतलाका प्रकोप कभी नहीं होगा।

उन्हीं आठ-दस दिनोंमें ब्राम्हण शिष्य चेचकके दानोंकी परीक्षा करके उनमेंसे कुछ मोटे-मोटे, पके दाने चुनता था। उन्हें सुई चुभाकर फोड़ता था और निकलने वाले पीबको साफ रुईके छोटे-छोटे फाहोंमें भरकर रख लेता था। बादमें काशी जाने पर ऐसे सारे फाहे गुरूके पास जमा करवाये जाते। वे अगले वर्ष काममें लाये जाते थे।

यह सारा वर्णन पढ़कर मैं दंग रह गई। थोड़े शब्दोंमें कहा जाय तो यह सारा पल्स इम्युनाइजेशन प्रोग्राम था जो बगैर अस्पतालोंके एक सामाजिक व्यवस्थाके रूपमें चलाया जा रहा था। ब्राह्मणोंके द्वारा किये जाने वाले विधि विधान या पथ्य एक तरहसे कण्ट्रोलके ही साधन थे। हालांकि पुस्तकमें सारा ब्यौरा बंगाल व बनारका है, लेकिन मैं जानती हूं कि महाराष्ट्र में, और देशके अन्य कई भागोंमें शीतला सप्तमीका व्रत मनया जाता है और हर गाँवके छोर पर कहीं एक शीतला माताका मंदिर भी होता है।

इससे अधिक चौंकाने वाली दो बातें इस अध्यायमें आगे लिखी गई थीं।

अंग्रेज जब यहाँ आये तो अंग्रेज अफसरों और सोल्जरोंको देसी बीमारियोंसे बचाये रखनेके लिए अलगसे कैण्टोनमेंट बने जो शहरसे थोड़ी दूर हटकर थे। लेकिन यदि महामारी फैली तो अलग कैण्टोंमें रहने वाले सोल्जरोंको भी खतरा होगा। अतः महामारीके साथ सख्तीसे निपटनेकी नीति थी। महामारीके मरीजोंको बस्तियोंसे अलग अस्पतालोंमें रखना पड़ता था। उन्हें वह दवाईयाँ देनी पड़ती थीं जो अंग्रेजी फार्मोकोपियामें लिखी हैं, क्योंकि देसी लोगोंकी दवाईयोंका ज्ञान तो अंगेजोंको था नहीं और उनपर विश्र्वास भी नहीं था। अंग्रेजोंके लिये यह भी जरूरी था कि कैन्टोंके चारों ओर भी एक बफर जोन हो - अर्थात्‌ वहाँ रहनेवाले भारतीय (प्रायः नौकर चाकर, धोबी, कर्मचारी इत्यादि) विदेशी टीके द्वारा संरक्षित हों।

वैसे देखा जाय तो ब्रिटानिका इनसाइक्लोपीडियामें जिक्र है कि अठारवीं सदीके आरंभमें चेचकसे बचनेके लिए टीका लगवानेकी एक प्रथा भारतसे आरंभ कर अफगानिस्तान व तुर्किस्तानके रास्ते यूरोप में - खासकर इंग्लैंडमें पहुँची थी। जिसे Variolation का नाम दिया गया था। अक्सर डॉक्टर लोग इसे ढकोसला मानते थे फिर भी ऐसे कई गणमान्य लोग इसके प्रचारमें जुटे थे जिन्हें इंग्लैंडके समाजमें अच्छा सम्मान प्राप्त था। सन्‌ १७६७ में हॉवेलने एक विस्तृत विवरण लिखकर इंग्लैण्डकी जनताको Variolation के संबंधमें आश्वस्त करानेका प्रयास किया। स्मरण रहे कि तबतक जेनरविधी जैसी कोई बात नही थी।

सन्‌ १७९६ में डाँ. जेनरने गायके चेचकके दानोंसे चेचकका वॅक्सिन बनानेकी खोज की। चूंकि यह एक अंग्रेज डॉक्टरका खोजा हुआ तरीका था, अतः इसपर तत्काल विश्वास किया गया और भारतमें उसे तत्काल लागू किये जानेकी सिफारिश की गई ताकि अंग्रेज सिपाहियोंकी स्वास्थ्य रक्षा हो सके। इन वॅक्सिनोंको बर्फके बक्सोंमें रखकर भारत लाया जाता था। फिर उससे भारतीयोंको चेचकके टीके लगवाये जाते थे। टीका लगानेका तरीका ठीक वही था जो हमारे ब्राह्मण इस्तेमाल करते थे लेकिन इस पद्धतिका नाम पडा वॅक्सिनेशन। इसके लिये बड़ी सख्ती करनी पड़ती थी क्योंकि यदि किसी भारतीयने अंग्रेजी टीका नहीं लगवाया तो अंग्रेज डॉक्टरोंका डर था कि आगे उसे चेचक निकलेंगे और वह महामारी फैलानेका एक माध्यम बनेगा। आरंभकालमें अंग्रेजी टीका लगानेके तरीके काफी दुखद होते थे। उनकी जख्में बड़ी होती थीं और बच्चे या बूढ़े उन्हें लगवानेसे डरते और रोते पीटते थे। जेनर विधिके अर्न्तगत वैक्सिनेशनका टीका लगवाने पर उस जगह घाव हो जाता था और बुखार भी निकलता था, लेकिन चेचकके दाने नहीं उभरते थे जैसा कि देसी वेरीओलेशनकी प्रणालीमें निकलते थे। कई बार टीकेका बुखार तीव्र होकर मृत्यु भी हो जाती जिस कारण भारतियोंका विरोध अधिक था।

ऐसा लगता है कि देशी विधासे इम्युनायझेशन कराने वाला कोई ब्राह्मण गुरू या शिष्य अंग्रेजोंको यह समझानेकी स्थितिमें नहीं था कि शीतलाके लिये वे जो कुछ करते हैं वह क्या है और न ही कोई खुद समझ पाया था कि अंग्रेजी डॉक्टर टीका लगाते हैं तो क्या करते हैं। लेखकका वर्णन पढनेसे ऐसा लगता है मानों दोनों ओरसे लोग अनभिज्ञ थे कि वे एक ही काम कर रहे हैं। फिर भी कहीं ना कहीं अंग्रेजोंको यह समझ थी कि जबतक काशीके ब्राह्मणोंके शिष्य अपना वेरिओलेशनका कार्यक्रम कर रहे हैं तबतक उनके लिये चुनौती कायम रहेगी। उसे रोकनेके लिए देशी तरीकेको अशास्त्रीय करार दिया गया और शीतलाका टीका लगाने वाले ब्राह्मणोंको जेल भिजवाया जाने लगा। तब ब्राह्मणोंने अपनी विद्या गाँव गाँवके सुनार और नाइयोंको सिखाई। इस प्रकार उनके माध्यमसे भी यह देसी पद्धतिसे टीके लगानेका काम कुछ वर्षोंतक चलता रहा। जिन सुनार या नाइयोंको यह विद्या सिखाई गई उनका नाम पडा टीकाकार और आज भी बंगाल व ओरिसामें टीकाकार नामसे कई परिवार पाये जाते हैं, जो मूलतः सुनार या नाई दोनों जातियोंसे हो सकते हैं। शायद उनके वंशज नहीं जानते थे कि यह नाम उनके हिस्सेमें कहाँसे आया।

हमारे पुराने सारे कर्मकाण्डोंमें यह पाया जाता है कि एक छोटीसी शास्त्रीय घटनाको केन्द्रमें रखकर ऊपरसे उत्सवोंका और कर्मकाण्डोंका भारी भरकम चोला पहनाया जाता था। वह चोला दिखाई पड़ता था, उसमें चमक-दमक होती थी। लोग उसे देखते, उन कर्मकाण्डोंको करते और सदियोंतक याद रखते।आज भी रखते हैं। लेकिन प्रायः उनकी आत्मा अर्थात्‌ वह छोटासा शास्त्रीय काम जिसके लिए यह सारा ताम झाम किया गया, कालके बहावमें लुप्त हो जाता क्योंकि उसके जानकार लोग कम रह जाते थे। आज भी महाराष्ट्र, कर्नाटक और आन्ध्रमें रिवाज हे कि चैत्र मासमें छोटे-छोटे बच्चे सिरपर तांबेका कलश लेकर नदीमें नहाने जाते हैं। कलशको नीमके पत्तोंसे सजाया जाता है। गीले बदन नदीसे देवीके मंदिरतक आकर कलशका पानी कुछ शीतला देवीपर चढ़ाते हैं और कुछ अपने सिरपर उंडेलते हैं। इसी प्रकार शीतला सप्तमीका व्रत भी प्रसिद्ध है जो श्रावण मासमें किया जाता है।

आरंभसे आयुर्वेदके प्रचार प्रसारमें विकेन्द्रीकरणका बड़ा महत्व रखा गया था जो आधुनिक केन्द्रीकरण और अस्पताल व्यवस्थाके बिल्कुल भिन्न है। आयुर्वेदके विभिन्न सिद्धान्तोंको अत्यन्त छोटे छोटे कर्मकाण्डों और रीति रिवाजोंमें बाँटकर घर घरतक पहुँचाया गया था। उन सिद्धान्तोंके अनुपालन में परिवारकी महिला सदस्योंका विशेष स्थान था। अतएव आयुर्वेदका ज्ञान महिलाओंके पास सुरक्षित रहता था और प्रायः उन्हींके द्वारा उपयोगमें लाया जाता। औरतोंको परिवारमें सम्मानका स्थान मिलनेके जो कई कारण थे उसमें स्वास्थ्य रक्षाका भी एक महत्वपूर्ण कारण था। यह आयुर्वेदका ज्ञान औरतों द्वारा परिवारके पास पडोसकी सेवाके लिये लगाया जाता। यदि कोई परिवार आर्थिक अडचनमें आए तभी यह ज्ञान परिवारके पुरुषोंके माध्यमसे आर्थिक आय जुटानेके काममें प्रयुक्त किया जाता। परिवारमें औरतोंका सम्मान घटनेका एक कारण यह भी रहा है कि आयुर्वेदके माध्यमसे स्वास्थ्य रक्षाका जो ज्ञान उनके पास था वह अब छिन चुका है।

विकेन्द्रीकरणका एक माध्यम यदि महिलाएं थीं तो दूसरा माध्यम था समाजके विभिन्न वर्ग। उदाहरणस्वरूप हम ब्राह्मण जातिको देखें। साधरणतया ब्राह्मण बच्चोंको छोटी आयुमें ही विद्याध्ययनके लिये गुरुके पास भेज दिया जाता था जहाँ उन्हें बिना आर्थिक भेदभावके करीब पन्द्रहसे बीस वर्ष गुरुके पास बिताने पड़ते । इस दौरान देश-प्रांत घूमकर वे सारे काम भी पूरा करने पड़ते थे जेसा गुरू आदेश दे, और इसीका नमूना था शीतलाके टीके लगाना जिसका पहले वर्णन किया गया है। इन पर्यटनशील ब्राह्मण शिष्योंके माध्यमसे वे सारी सामाजिक व्यवस्थाएं चलाई जातीं जिनमें बड़े पैमानेपर एक साथ क्रियान्वयनकी आवश्यकता होती थी जैसा कि शीतला माताके संबंधमें देखा जा सकता है। इसीलिये जो भी ब्राह्मण गृहस्थश्रममें न हो उसके लिये देश देशान्तरोंमें घूमना और अपरिग्रह जैसे नियम आवश्यक थे। इस विकेन्द्रीकृत सामाजिक व्यवस्था द्वारा आयुर्वेदके लिये आवश्यक विकेन्द्रीकरण संभव हुआ करता था।

यह भी सोचनेकी बात है कि यदि यह देशी व्यवस्था कारगर थी तो चेचककी महामारी इतनी भयावह क्यों थी? उन्नींसवी सदीमें चेचकके विषयमें सभी अंग्रेज डॉक्टरोंका मत था कि यह भारतकी सबसे खतरनाक बीमारी थी जिसके कारण हर वर्ष प्रायः लाख-एक लोगोंकी मृत्यु हो जाती थी और प्रायः दो लाखसे अधिक लोग चेचके दागों के साथ जीवन गुजारते जिनमेंसे कई अंधे भी हो जाते थे। इसके उत्तरके लिए अधिक रिसर्च आवश्यक है।

लेखकने अपनी पुस्तकमें Variolation तथा Vaccination दोनों प्रक्रियाओंके विषयमें लिखा है। दोनोंमें बहुत अंतर भी नहीं है। दोनों प्रक्रियायोंका उद्देश्यों था कि रोग हो ही नहीं। लेकिन रोग हो जानेपर टीका नहीं लगाया जा सकता। लेखक ने यह भी बताया है कि रोग होनेपर क्या किया जाता था। चेचक या मसूरिका रोगके विषयमें चरक या सुश्रुत संहितामें अत्यन्त कम वर्णन पाया जाता है जिससे प्रतीत होता है कि पॉचवीं सदीमें इस रोगकी भयावहता अधिक नहीं थी। किन्तु आठवीं सदीके प्रसिद्ध आयुर्वेदिक ग्रन्थ माधवनिदानमें इसका विस्तृत वर्णन है। एक बार रोग हो जाये तो इसकी कोई दवा नहीं थी, केवल पथ्य विचार था। माँस-मछली, दूध, तेल, घी और मसाले कुपथ्य माने जाते थे। केला, गन्ना, पके हुए चावल, भंग, तरबूजे आदि पथ्यकर थे। बीमारीकी पहचानके बाद वैद्य, ब्राम्हणों या कविराजकी कोई जरूरत नहीं रहती क्योंकि दवाई तो कोई होती नहीं थी। शीतला माताके मंदिरोंके पुजारी प्रायः माली समाजसे या बंगालमें मालाकार समाजसे होते थे। बीमारोंकी परिचर्याके लिए उन्हींको बुलाया जाता था ''माली '' आनेके बाद वह घरमें सारे माँसाहारी खाने बंद करवाता था। घी, तेल व मसाले भी बंद करवाये जाते। मरीजकी कलाईमें कुछ कौडियाँ, कुछ हल्दीके टुकडे और सोनेका कोई गहना बांधा जाता था। उसे केलेके पत्तेपर सुलाया जाता और केवल दूधका आहार दिया जाता। उसे नीमके पत्तोंसे हवा की जाती। उसके कमरेमें प्रवेश करने वालेको नहा धोकर आना पड़ता। शीतला माताकी पंचधातुकी मूर्तिका अभिषेक कर वही चरणोदक बीमारको पिलाया जाता। रातभर शीतला माताके गीत गाये जाते। लेखकने एक पूरे गीतका अंग्रेजी अनुवाद भी किया है जो माताकी प्रार्थना के लिये गाया जाता था। दानोंकी जलन कम करनेके लिए शरीर पर पिसी हुई हल्दी, मसूर दालका आटा या शंखभस्मका लेप किया जाता। सात दिनोंतक कलश पूजा भी होती जिसमें चावलकी खीर, नारियल, नीमके पत्ते इत्यादिका भोग लगता। चेचकके दाने पक चुकनेके बाद जलनको कम करनेकी आवश्यकता होने पर किसी तेज कांटेसे उन्हें फोड़कर पीब निकाल दिया जाता। इसके बादके एक सप्ताहतक बीमार व्यक्तिकी हर इच्छाको माताकी इच्छा मानकर पूरा किया जाता और माताको ससम्मान विदा किया जाता।''

लेखकके अनुसार शीतला माताका एक बड़ा मंदिर गुडगाँवामें था जिसमें बड़ी यात्रा लगती थी। लेकिन पूरे उत्तरी भारत, राजस्थान, बिहार, बंगाल व ओडिसामें छोटे-छोटे मंदिर थे, जहाँ चैत्र शीतला माताके पर्वके लिये यात्राएं और मेले लगते थे। बंगाल व पंजाबके कई मुस्लिम परिवारोंमें भी शीतला माताकी पूजाका रिवाज था जिसे समाप्त करनेके लिए फराइजी मुस्लिम संगठनके कार्यकर्ता कोशिश किया करते।

लेखकके अनुसार बीमारी न होनेका उपाय करना ब्राह्मणोंके जिम्मे था जो कि गाँव गाँव जाकर टीके लगवाते थे। बंगाल व ओरिसामें आज भी टीकाकार नामके कई परिवार हैं। इस विधिका भारतमें काफी प्रचार था। लेकिन बीमारी हो जाने पर रोगी की व्यवस्था देखनेका काम मालियोंके जिम्मे था।

इस प्रकार हम देखते हैं कि इम्युनाझेशनके लिये बीमार व्यक्तिको ही साधन बनानेका सिद्धान्त और चेचक जैसी बीमारीमें टीका लगानेका विधान भारतमें उपजा था।तेरहवींसे अठारवीं सदीतक यह उत्तरी भारतके सभी हिस्सोंमें प्रचलित था। १७६७ में डॉ हॉवेलने भारतीय टीकेकी पद्धतिका विस्तृत ब्यौरा लंडनके कॉलेजऑफ फिजिक्समें प्रस्तुत किया था और इसकी भारी प्रशंसाकी थी। यह पद्धति इंग्लैंडमें नई-नई आई थी और हॉवेल उन्हें इसके विषयमें आश्वस्त कराना चाहता था। हॉवेलने बताया कि टीका लगानेके लिये भारतीय टीकाकार पिछले वर्षके पीबका उपयोग करते थे, नयेका नहीं। साथ ही यह पीब उसी बच्चेसे लिया जाता जिसे टीकेके द्वारा शीतलाके दाने दिलवाये गये हों अर्थात जिसका कण्ट्रोल्ड एनवायर्नमेंट रहा हो। टीका लगानेसे पहले रुईमें स्थित दवाईको गंगाजल छिड़ककर पवित्र किया जाता था। बच्चोंके घर और पास पड़ोसके पर्यावरणका विशेष ध्यान रखा जाता था। बूढ़े व्यक्ति या गर्भवती महिलाओंको अलग घरोंमें रख्खा जाता ताकि उनतक बीमारीका संसर्ग न फैले। हॉवेलके मुताबिक इस पूरे कार्यक्रममें न तो किसी बच्चेको तीव्र बीमारी होती और न ही उसका संसर्ग अन्य व्यक्तियोंतक पहुँचता - यह पूर्णतया सुरक्षित कार्यक्रम था। सन्‌ १८३९ में राधाकान्त देवने भी इस टीके की पद्धति का विस्तृत ब्यौरा देने वाली पुस्तक लिखी है। आरनॉल्ड कहता है - ''हालॉकि हॉवेल या डॉ देव यह नहीं लिख पाये कि टीका देनेकी यह पद्धति समाजमें कितनी गहराई तक उतरी थी, लेकिन १८४८ से १८६७ के दौरान बंगालके सभी जेलोंके आँकड़े बताते हैं कि करीब अस्सी प्रतिशत कैदी भारतीय विधानसे टीका लगवा चुके थे। असम, बंगाल, बिहार और ओरिसामें कम से कम साठ प्रतिशत लोक टीके लगवाते थे। आरनॉल्डने वर्णन किया है कि बंगाल प्रेसिडेन्सीमें १८७० के दशकमें चेचकसे संबंधित कई जनगणनाएँ कराई गईं। ऐसी ही एक गणना १८७२-७३ में हुई। उसमें १७६९७ लोगोंकी गणनामें पाया गया कि करीब ६६ प्रतिशत लोग देसी विधानके टीके लगवा चुके थे, ५ प्रतिशतका Vaccination कराया गया था, १८ प्रतिशतको चेचक निकल चुका था और अन्य ११ प्रतिशतको अभी तक कोई सुरक्षा बहाल नहीं की गई थी। बंगाल प्रेसिडेन्सी के बाहर काशी, कुमाँऊ, पंजाब, रावलपिण्डी, राजस्थान, सिंध, कच्छ, गुजरात और महाराष्ट्रके कोंकण प्रान्तमें भी यह विधान प्रचलित था। लेकिन दिल्ली, अवध, नेपाल, हैदराबाद और मेसूरमें इसके चलनका कोई संकेत लेखकको नहीं मिल पाया। मद्रास प्रेसिडेन्सीके कुछ इलाकोंमें ओरिया ब्राह्मणों द्वारा टीके लगवाये जाते थे। टीके लगवानेके लिये अच्छी खासी फीस मिल जाती। लेकिन कई इलाकोंमें औरतोंको टीका लगानेपर केवल आधी फीस मिलती थी। राधाकान्त देवके अनुसार टीका लगानेका काम ब्राह्मणोंके अलावा, आचार्य, देबांग (ज्योतिषी), कुम्हार, सांकरिया (शंख वाले) तथा नाई जमातके लोग भी करते थे। बंगालमें माली समाजके लोग और बालासोरमें मस्तान समाजके तो बिहारमें पछानिया समाजके लोग, मुस्लिमोंमें बुनकर और सिंदूरिये वर्गके लोग टीका लगाते थे। कोंकणमें कुनबी समाज तो गोवामें कॅथोलिक चर्चोंके पादरी भी टीका लगाते थे। टीका लगानेके महीनोंमें अर्थात्‌ फाल्गुन, चैत्र, बैसाखमें हर महीने सौ सवा सौ रुपयेकी कमाई हो जाती जो उस जमानेमें अच्छी खासी सम्पत्ति थी। कई गाँवोंका अपना खास टीका लगवानेवाला होता था और कई परिवारोंमें यह पुश्तैनी कला चली आई थी। लेखकके मुताबिक ''चूँकि टीका लगवानेकी यह विधि ब्रिटेनमें भी धीरे-धीरे मान्य हो रही थी, अतः बंगालके कई अंग्रेज परिवार भी टीके लगवाने लगे थे। लेकिन सन्‌ 1798 में सर जेनरने गायके थनपर निकले चेचकके दानोंसे Vaccine बनानेकी विधि ढूँढ़ी तो इंग्लैंडमें उसका भारी स्वागत हुआ। ''अब उस जादू टोने वाले देशके टीकेकी बजाय हम अपने डॉक्टरकी विधिका प्रयोग करेंगे।'' जैसे ही जेनरकी विधि हाथमें आई अंग्रेजोंने मान लिया कि इसके सिवा जो भी विधि जहाँ भी हो, वह बकवास है और उसे रोकना पड़ेगा।

जेनरकी विधि सबसे पहले १८०२में मुम्बईमें लाई गई और १८०४ में बंगालमें। इसके बाद ब्रिटिश राजने हर तरहसे प्रयास किया कि भारतीयोंकी टीका लगानेकी विधि अर्थात्‌ Variolation को समाप्त किया जाए। इसका सबसे अच्छा उपाय यह था कि Variolation के द्वारा टीका लगवानेको गुनाह करार दिया गया और टीका लगवाने वालोंको जेल भेजा गया। करीब १८३० के बाद चेचकके विषयमें अंग्रेजोंके द्वारा लिखित जितने भी ब्यौरे मिलेंगे उनमें Variolation की विधिको बकवास बताया गया है और भारतीयोंकी तथा उनकी अंधश्रद्धाकी भरपूर निन्दा की गई ''जिसके कारण वे जेनर साहबके Vaccination जैसे अनमोल रत्नको ठुकरा रहे थे जो उन्हें अंग्रेज डॉक्टरोंकी दयासे मिल रहा था और जिसके प्रति कृतज्ञता दर्शाना भारतीयोंका कर्तव्य था।'' भारतीयों द्वारा देसी पद्धतिसे टीका लगवानेको ''मृत्युका व्यापार '' या "Murderous trade" कहा गया।

अन्य जगहोंपर आरनॉल्डने लिखा है -
''उत्तर पूर्व भारतसे अंग्रेजोंके द्वारा भारतीय टीकेके संबंधमें कई विवरण मिलते हैं जो काफी अलग अलग हैं क्योंकि कई बार ये विवरण लेखककी अपनी समझपर निर्भर हैं। फिर भी देखा जा सकता है कि सन्‌ १८०० से पहलेके रिपोर्ट प्रायः इस प्रणालीकी प्रशंसा करते थे।''-- आरनॉल्ड

''देशी टीका पद्धतिको दकियानूसी कहकर बंद करवानेके प्रयासके कारण देशी टीकाकार छिप-छिपाकर टीके लगाने लगे। अतएव अब वे पहले जितनी देखभाल या पथ्य विचार नहीं कर सकते थे। देशी टीका पद्धति यदि कहीं-कहीं अप्रभावी होने लगी, तो उसका एक कारण यह भी था।'' -- आरनॉल्ड

''जो अंग्रेज शासन अभी बंदूककी नोकके सहारे था, और मराठोंके साथ अभीतक लड़ाईयाँ लड़ रहा था, उसके लिए वॅक्सीनेशन एक ऐसा मुद्दा बन गया जिसके माध्यमसे नेटिवोंको एहसानमंद किया जा सकता था और कहा जा सकता था कि कंपनीका राज कितनी हमदर्दीसे चल रहा है।''-- आरनॉल्ड

''वैक्सीनेशनको भारतीयोंने शीघ्रता से सरआँखोंपर नहीं लिया इससे कई अंग्रेज अफसर रुष्ट थे। शूलब्रेडने उन्हें मूर्ख, अज्ञानी और हर नये अविष्कार का शत्रु कहा (१८०४) तो डंकन स्टेवार्टने अकृतज्ञ और मूढ कहा (१८४०) जबकि १८७८ में कलकत्ताके सॅनिटरी कमिश्नरने उन्हें अंधिविश्वासी, रूढ़िवादी और जातीयवादी कहा। भारतीयोंकी टीका पद्धतीको ही इस व्यवहारका कारण माना गया और कहा गया कि सारे भारतीय टीकाकार अपनी रोजी रोटी छिन जानेके डरसे वॅक्सिनेशनके बारेमें गलत बातें फैला रहे थे, जबकि भारतीय पद्धतिमें ही अधिक लोग मरते हैं।'' -- आरनॉल्ड

''खुद नियतिने यह विधान किया कि हम इस देशपर राज करें और यहाँ लाखों करोड़ों मूढ़ और अज्ञानी प्रजाजनोंको उस आत्मक्लेशसे बचायें जिसके कारण वे भारतीय टीका लगवाते हैं - शूलब्रेड।''

लेकिन शूलब्रेडके ही समकालीन बुचाननने इस पद्धतिमें कई अच्छाइयों का वर्णन किया है और १८६० में कलकत्ताके वॅक्सीनेशनके सुपरिटेंडेंट जनरल चार्लस्‌ ने लिखा है ''यदि सारे विधी विधानोंका ठीकसे पालन हो तो भारतीय पद्धतीमें चेचककी महामारी फैलनेकी कोई संभावना नहीं है। हालाँकि मैं स्वयं वॅक्सिनेशनको बेहतर समझता हूँ फिर भी मेरा सुझाव है कि भारतीय टीकादारोंपर पाबन्दी लगानेके बजाय उनका रजिस्ट्रेशन करके उन्हें उनकी अपनी प्रणालीसे टीके लगाने दिये जायें।'' जाहिर है कि यह सुझाव अंग्रेजी हुकूमतको पसंद नहीं आया।

अंग्रेजी पद्धतिके लोकप्रिय न होनेका एक कारण यह भी था कि काफी वर्षोंतक अंग्रेजी पद्धतीमें कई कठिनाईयाँ रही थीं। उन्नींसवीं सदीके अंततक यह पद्धती काफी क्लेशकारक भी थी। भारतवर्षमें गायोंको चेचककी बीमारी नहीं होती थी। अतः गायके चेचकका पीब (जिसे वॅक्सिन कहा गया) इंग्लैंडसे लाया जाता था। फिर बगदादसे बंबईतक इसे बच्चोंकी श्रृखंलाके द्वारा लाया जाता था - अर्थात्‌ किसी बच्चेको गा के वॅक्सीनसे टीका लगा कर उसे होने वाली जख्मके पकने पर उसमेंसे पीब निकालकर अगले बच्चेको टीका लगाया जाता था।''

बादमें गायके वॅक्सिनको शीशीमें बन्द करके भेजा जाने लगा। परंतु गर्मीसे या देरसे पहुँचनेपर उसका प्रभाव नष्ट हो जाता था। उसके कारण बड़े बड़े नासूर भी पैदा होते थे। गर्मियोंमें दिये जाने वाले टीके कारगर नहीं थे, अतएव छह महीनोंके बाद टीके बंद करने पड़ते थे और अगले वर्ष फिरसे बच्चोंकी श्रृखंला बनाकर ही टीकेका वॅक्सिन भारतमें लाया जा सकता था। यूरोप और भारतमें कुछ लोगोंने इसे बच्चोंके प्रति अन्याय बताया और यह भी माना जाता था कि इसी पद्धतिके कारण सिफिलस या कुष्ट रोग भी फैलते हैं।

सन्‌ १८५० में बम्बईमें वॅक्सिनेशन डिविजनने गायके बछड़ोंमें वॅक्सिनेशन कर उनके पीबसे टीके बनानेका प्रयास किया परंतु यह खर्चीला उपाय था।

सन्‌ १८९३ में बंगालके सॅनिटरी कमिश्नर डायसनने लिखा है - अंग्रेजी पद्धतिमें एक वर्षसे कम आयुके बच्चोंको टीका दिया जाता था। जिस बच्चेका घाव पक गया हो उसे दूसरे गाँवोंमें ले जाकर उसके घावोंका पीब निकालकर अन्य बच्चोंको टीका लगया जाता। कई बार घावको जोरसे दबा-दबाकर पीब निकाला जाता ताकि अधिक बच्चोंको टीका लगाया जा सके। बच्चे, उनकी माएं और अन्य परिवारवाले रोते कलपते थे। टीका लगवानेवाले परिवार भी रोते क्योंकि उनके बच्चोंको भी आगे इसी तरहसे प्रयुक्त किया जाता था। गाँव वाले मानते थे कि इन अंग्रेज टीकादारोंसे बचनेका एक ही रास्ता था - कि उन्हें चाँदीके सिक्के दिये जायें। यह सही है कि इस विधीमें बच्चे को कोई बीमारी नहीं होती थी या उसे चेचकके दाने नहीं निकलते थे जबकि भारतीय पद्धतिमें पचास से सौ तक दाने निकल आते थे। फिर भी कुल मिलाकर भारतीय पद्धतिमें तकलीफें कम थीं। जो भी थीं उन्हे शीतला माताकी इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया जाता था।

इस सारे विवरणको विस्तारसे पढ़नेके बाद कुछ प्रश्न खड़े होते हैं। सबसे पहला प्रश्न यह आता है कि शीतलाका टीका लगानेकी इस विधिके विषयमें हमारे आयुर्वेदके विद्वान क्या और कितना जानते हैं? आज भी काशी इत्यादि तीर्थ क्षेत्रोंमें पण्डोंके पास उनके यजमान कुटुंबोंके कई पीढ़ियोंके इतिहास या वंशावलियाँ सुरक्षित हैं। क्या इनमेंसे किसीके पास या आयुर्वेदकी पुरानी पोथियाँ संभाल कर रखनेवाले परिवारोंमें किसीके पास इस संबंधमें अधिक जानकारी मिल सकती है? दूसरा विचार यह है कि कभी हमारे समाजमें यह क्षमता थी कि इस प्रकारकी विकेंद्रित प्रणालीका आयोजन किया जा सकता था। आज वह क्षमता लुप्तसी होती दिखाई पड़ती है जोकि गहरी चिन्ताका विषय है। यह भी विचारणीय है कि जैसा गहन रिसर्च आरनॉल्डने यह पुस्तक लिखनेके लिये किया वैसा गहन रिसर्च हमारे ही देशकी स्वास्थ्य प्रणालीके विषयमें कितने लोग या कितने आयुर्वेदिक डॉक्टर कर पाते हैं? नकी क्षमता बढ़ानेके लिये सरकारके पास क्या नीतियाँ हैं और वे कितनी कारगर हैं?

सबसे पहले प्रयासके रूपमें इतना तो अवश्य किया जा सकता है कि हमारे आयुर्वेदके डॉक्टर और सरकारी अफसर इस पुस्तकको या कम से कम इस अध्यायको पढ़ लें।

--लीना मेहेंदळे
(2000 में कभी) -- देशबन्धु में प्रकाशित

रविवार, फ़रवरी 14, 2021

43 साल पुराना खूनी राजनीति का वही खेल आज फिर दोहराया जा रहा है...

 

#सुलगता_पंजाब

43 साल पुराना खूनी राजनीति का वही खेल आज फिर दोहराया जा रहा है...
1977 में देश की जनता कांग्रेस को सत्ता से बुरी तरह बेदखल कर दो तिहाई बहुमत के साथ जनता पार्टी को सत्ता सौंप चुकी थी। पंजाब में भी जनता पार्टी और अकाली दल के गठबंधन ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया था और कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री रहे ज्ञानी जैल सिंह द्वारा किये गए भयंकर भ्रष्टाचार की जांच के लिए गुरदयाल सिंह जांच आयोग बनाया था।

इस आयोग की जांच की शुरूआत के साथ ही जैल सिंह का जेल जाना तय होने लगा था। इन परिस्थितियों से पार पाने के लिए कांग्रेस ने एक योजना तैयार की थी। इस योजना के तहत संजय गांधी और जैल सिंह ने पंजाब से सिक्ख समुदाय के दो धार्मिक नेताओं को दिल्ली बुलाकर बात की थी। संजय गांधी और जैल सिंह की जोड़ी को उन दोनों में से एक काम का नहीं लगा था क्योंकि वो उतना उग्र आक्रामक उजड्ड नहीं था जिसकी अपेक्षा संजय गांधी और जैल सिंह की जोड़ी कर रही थी। लेकिन दूसरा धार्मिक नेता उनकी उम्मीद से भी बहुत ज्यादा उग्र आक्रामक और उजड्ड निकला था। अतः संजय गांधी और जैल सिंह की जोड़ी ने उस उजड्ड को अपने प्लान की कमान सौंप दी थी। अब यह भी जान लीजिए कि पंजाब से आए उस उग्र आक्रामक उजड्ड का नाम था जरनैल सिंह भिंडरावाले। उसने कांग्रेस की धुन पर पंजाब में धार्मिक आधार पर खून खराबे का नंगा नाच शुरू कर दिया था। संजय गांधी जैल सिंह की जोड़ी के साथ हुई भिंडरावाले की उस मुलाकात में जिस भयानक हिँसक खूनी राजनीतिक षड़यंत्र की जो चिंगारी सुलगाई गई थी उसे जरनैल सिंह भिंडरावाले-कांग्रेस गठबंधन ने अगले 3-4 वर्षों में बड़े जतन से देशव्यापी भयानक आतंकवाद की आग का रूप दे दिया था। कांग्रेसी फौज शायद यह सोचती है कि लोग सम्भवतः भूल गए होंगे कि उस दौर में भिंडरावाले को रूपया देने की बात संजय गांधी ने स्वयं स्वीकारी थी।
भिंडरावाले के आतंक के दम पर 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को पंजाब में भारी जीत मिली थी। लोकसभा के लिए हुए उस चुनाव में भिंडरावाले पंजाब में कांग्रेस के चुनावी प्रचार के लिए तूफ़ानी दौरे कर के कांग्रेस के लिए वोट मांग रहा था।

केन्द्र मेँ सरकार बनते ही कांग्रेस ने पंजाब में अकाली व जनता पार्टी की सरकार भंग कर के राष्ट्रपति शासन लगा दिया था और बाद में चुनाव करा के वहां जीत हासिल की थी। पंजाब में कांग्रेस की उस चुनावी जीत में भी जरनैल सिंह भिंडरवाले ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके परिणामस्वरूप पुरस्कार के रूप में उसे तत्कालीन कांग्रेसी सरकार का बेलगाम बेशर्म संरक्षण समर्थन किस प्रकार मिला था, इसे इन दो तथ्यों से समझ लीजिए। अकाली दल को राजनीतिक धार्मिक चुनौती देने के लिए भिंडरावाले ने दल खालसा नाम के अपने आतंकी गुट की जब स्थापना की थी उस समय चंडीगढ़ के पंचतारा होटल एरोमा में हुई उसकी प्रेस कॉन्फ्रेंस के खर्च का भुगतान तत्कालीन कांग्रेसी सरकार के गृहमंत्री जैल सिंह ने बाकायदा अपने चेक से किया था।

दूसरा तथ्य यह है कि 9 सितम्बर 1981 को जनरैल सिंह भिंडरावाले ने पंजाब नहीं बल्कि देश के प्रख्यात पत्रकार और पंजाब केसरी अखबार के संस्थापक सम्पादक लाला जगत नारायण की निर्मम हत्या दिन दहाड़े कर दी थी। लेकिन इस हत्याकांड में हुई उसकी गिरफ्तारी के बाद केन्द्र और पंजाब की तत्कालीन कांग्रेसी सरकार के हस्तक्षेप के कारण उसको थाने से ही जमानत पर छोड़ दिया गया था। अपनी रिहाई पर वो अपने सैकड़ों हथियारबंद गुर्गों के जुलूस के साथ किसी विजेता की तरह थाने से बाहर निकला था और सड़कों पर हवाई फायर करती राइफलों और बन्दूकों के आतंकी धमाकों की दहशत फैलाते हुए अपने डेरे पर चला गया था।

भिंडरावाले को तत्कालीन कांग्रेस सरकार के संरक्षण समर्थन का एक अन्य उदाहरण मार्च 1982 में तब सामने आया था जब बाल ठाकरे की चुनौती के जवाब में अपने हथियारबंद गुर्गों का 500 कारों मोटरसाइकिलों का काफिला लेकर भिंडरावाले मुम्बई पहुंच गया था। मुम्बई में वो उस दादर इलाके के गुरुद्वारे में 5 दिनों तक डेरा डाले रहा था जिस दादर इलाके में बाल ठाकरे का घर था। उन 5 दिनों के दौरान महाराष्ट्र पुलिस का भारी भरकम सुरक्षा घेरा भिंडरावाले के काफिले के साथ लगातार बना रहा था। बताने की जरूरत नहीं कि उस समय महाराष्ट्र में भी कांग्रेस की सरकार थी। उस समय अटल बिहारी बाजपेयी जी ने देश और महाराष्ट्र की कांग्रेसी सरकारों से बार बार मांग की थी कि भिंडरावाले को मुम्बई जाने से रोका जाए। लेकिन उनकी मांग को अनसुना कर दिया गया था।
संजय गांधी जैल सिंह की जोड़ी के साथ हुई भिंडरावाले की मुलाकात ने पंजाब में भयानक हिँसक खूनी राजनीतिक षड़यंत्र की जो चिंगारी सुलगाई थी उसके कारण पंजाब के साथ साथ पूरे देश में भड़की आतंकवाद की भयानक आग 1981 से 1995 तक लगातार देश को जलाती रही थी। इस आग में लगभग 20,000 से अधिक निर्दोष नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी।

कांग्रेस की उस आतंकी कठपुतली जरनैल सिंह भिंडरावाले की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं बाद में जाग गई थीं। कांग्रेस के लिए वो भस्मासुर बन गया था। अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए आवश्यक पैसों और हथियारों की भारी जरूरत पूरी करने के लिए जरनैल सिंह भिंडरावाले ने अपने तार पाकिस्तान से जोड़ लिए थे। परिणाम स्वरूप 1984 में सेना ने उसको उसके 300 हथियारबंद गुर्गों के साथ ढेर कर दिया था। उसके बचे हुए गुर्गों ने इंदिरा गांधी समेत कई कांग्रेसी नेताओं की हत्या की थी।

आज कांग्रेस 43 साल पुराना वही हिंसक खूनी राजनीतिक खेल फिर खेलने पर उतारू नजर आ रही है। फर्क बस इतना है कि 43 साल पहले उसने जरनैल सिंह भिंडरावाले को धार्मिक संत कह कर अपना संरक्षण समर्थन दिया था। आज 43 साल बाद लालकिले पर खालिस्तानी झंडा लहरा कर जिंदाबाद नारा लगाने वाले देशद्रोही गुंडों को किसान कह कर कांग्रेस अपना खुला संरक्षण समर्थन दे रही है।
अतः कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने आज संसद में यह कह कर क्या गलत कह दिया कि कांग्रेस खून से खेती कर रही है.?

अंत में यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि 30-35 साल पहले उस दौर में प्रख्यात अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार मार्क टुली और सतीश जैकब की जोड़ी ने अपनी किताब "अमृतसर: मिसेज गांधीज़ लास्ट बैटिल" में और देश के चरम परम् सेक्युलर पत्रकार रहे कुलदीप नैयर ने अपनी किताब "बियॉन्ड दी लाइंस" में उन सारे तथ्यों का बहुत विस्तार से वर्णन किया है जिनका उल्लेख मैंने अपनी इस पोस्ट में किया है।

आज पंजाब में नगर पालिका के चुनावों में कांग्रेस भाजपा के तमाम नेताओं और उम्मीदवारों के साथ यही खूनी खेल खेल रही है जिसका अंजाम पंजाब की शान्ति और भाईचारे के लिए अत्यंत घातक है।
#साभार #सतीश_चंद्र_मिश्र_जी

शनिवार, फ़रवरी 13, 2021

इन सबसे भी अधिक घृणा के पात्र यही "दोहरे, कायर, हिन्दू" हैं, जिन्होंने अपनी मूर्खता से अपने ही धर्म की जड़ें खोदने का दुस्साहस किया है

 Alok Sanatan:

पंकज जोशी जी की वॉल से


*साईं_चरित्र  पर ब्रिटिश गवर्नमेंट की खुफिया एजेंसी ( CIA ) सीआईए ने भी खुलासा किया था 1947 के आजादी के बाद*


साईं शब्द की उत्पत्ति फ़ारसी से है, जिसका अर्थ फ़कीर होता है।


साईं के पिता का नाम बहरुद्दीन था, जो कि अफगान का एक पिंडारी मुसलमान था। पिंडारियों का काम भारत में लूटपाट करना, और राहगीरों को धोखे से ठग कर उनकी निर्मम हत्या कर देना था। इन्हीं पिंडारियों के महिमा वर्णन का काम सलमान खान एंड गैंग ने फिल्म 'वीर' में किया था। जिनको पिंडारियों की असलियत न पता हो, वे अंग्रेजों द्वारा इनके समूलनाश की हठ ठानने वाले इतिहास को पढ़ें, जिसको कि मैं अंग्रेजों द्वारा कुछेक अच्छे कार्यों जैसे कि रेल, टेलीफोन आदि में योगदान है मानता हूँ।

           हिन्दुओं इतिहास की पुस्तकें उठाओ और उन्हें पढ़ो, सब अंकित है वहाँ।


स्वामी शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती (सोचिये कि हिन्दुओं के इतने बड़े शंकराचार्य) ने साईं के बारे बताया है कि उसका पिता अहमदनगर में एक वेश्या के पास जाता था, उसी वेश्या से चाँद मियाँ पैदा हुआ। इसको इसके पिता ने दस वर्ष की उम्र में पहले हिन्दू मुहल्लों में हरी चादर घुमा कर पैसा कमाने का काम सौंपा, जिससे यह आसानी से धनी घरों की रेकी कर उन्हें चिन्हित कर लेता था, तथा बाद में उसका पिता अपने लुटेरे साथियों के साथ लूट कर उन घरों के निवासियों को क्रूरता से मार देता था।


अंग्रेजों ने चाँद मियाँ को गिरफ्तार कर लिया और वह 8-10 साल तक जेल में रहा। उसको छुड़ाने की जब सारी कोशिशें बेकार हो गयीं तो थक हार कर बहरुद्दीन अंग्रेजों के साथ मिल गया और अंग्रेजों के लिए जासूसी करना स्वीकार कर लिया। अंग्रेजों ने उसको कहा कि, "हमें झाँसी चाहिए"। तो वो अपने सिपाहियों सहित जाकर किसी तरह झाँसी की सेना में शामिल हो गया। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए झाँसी को भी सेना चाहिए ही थी, इसलिए यह धोखा देना कतिपय आसान रहा। फिर जब अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई पर आक्रमण किया तब इन पिंडारियों ने रात में चुपके से किले का द्वार खोल दिया, जिससे अंग्रेजी सेना आसानी से किले में घुस गई और रानी को किला छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। बाद में अंग्रेजों द्वारा पीछा करने में 5 पिंडारी सैनिक भी अंग्रेजों के साथ थे।


उसके बाद बहरुद्दीन मर गया। कैसे और कब मरा यह मुझे ज्ञात नहीं है। 


लेकिन फिर चाँद मियाँ को अंग्रेजों ने बालगंगाधर तिलक के स्वराज अभियान में शामिल होकर जासूसी करने को कहा। तिलक पहचान गए उसको, और वहीं बम्बई की सड़कों पर इसको पटक पटक कर अपने जूतों से पीटा था। उसके बाद वह वहाँ से भागा और शिरडी गाँव पहुँच गया। वह संत ज्ञानेश्वर की पवित्र भूमि थी, जनता बहुत भोली तथा धार्मिक थी। वहाँ इसने फ़कीर का चोला पहना और साईं बन गया।


आगे की कहानी, खुद साईं ट्रस्ट द्वारा लिखी हुई "साईं सच्चरित" नामक पुस्तक से, ( इन्टरनेट में उपलब्ध है-)


-साईं ने यह कभी नहीं कहा कि "सबका मालिक एक"। साईं सच्चरित्र के अध्याय 4, 5, 7 में इस बात का उल्लेख है कि वो जीवनभर सिर्फ "अल्लाह मालिक है" यही बोलता रहा। कुछ लोगों ने उसको हिन्दू संत बनाने के लिए यह झूठ प्रचारित किया कि वे "सबका मालिक एक है" भी बोलते थे।


-कोई हिन्दू संत सिर पर कफन जैसा नहीं बांधता, ऐसा सिर्फ मुस्लिम फकीर ही बांधते हैं। जो पहनावा साईं का था, वह एक मुस्लिम फकीर का ही हो सकता है। हिन्दू धर्म में सिर पर सफेद कफन जैसा बांधना वर्जित है या तो पगड़ी या जटा रखी जाती है या किसी भी प्रकार से सिर पर बाल नहीं होते।


-साईं बाबा ने रहने के लिए मस्जिद का ही चयन क्यों किया? वहाँ और भी स्थान थे, लेकिन वह जिंदगी भर मस्जिद में ही रहा।


-मस्जिद से बर्तन मंगवाकर वह मौलवी से फातिहा पढ़ने के लिए कहता था। इसके बाद ही भोजन की शुरुआत होती थी।


-साईं का जन्म 1830 में हुआ, पर इसने आजादी की लड़ाई में भारतीयों की मदद करना जरूरी नहीं समझा, क्योंकि यह भारतीय था ही नहीं।                                                                                                1918 में मरा अगर यह देशभक्त होता तो 1811 में बंग भंग आंदोलन मे सम्मिलित होता जो बांग्लादेश 1947 मैं अलग हुआ उसे अंग्रेजों के समय में 1911 में ही अलग करने की मुहिम चल रही थी इस्लामी कट्टरपंथ की तरफ से देश के बड़े से बड़े क्रांतिकारी लोग भाग लिए थे जिसमें लोकमान्य तिलक वीर सावरकर आदि                                                                         साईं उर्फ चांद मोहम्मद मरने से पहले उसके हाथ में मार चोट लगने पर हाथ टूट गया तो लकड़ी की पट्टी के द्वारा हाथ पर प्लास्टर लगा था साईं सच्चरित्र बुक में इसका जिक्र है इतना बड़ा तांत्रिक विद्या इसके पास थी तो ठीक क्यों नहीं कर लिया


-"साईं भक्त साठे ने शिवरात्रि के अवसर पर बाबा से पूछा कि वे बाबा की पूजा महादेव या शिव की तरह कर सकते हैं? तो बाबा ने साफ इंकार कर दिया, क्योंकि वे मस्जिद में किसी भी तरह के हिन्दू तौर-तरीके का विरोध करते थे। फिर भी साठे साहेब और मेघा रात में फूल, बेलपत्र, चंदन लेकर मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठकर चुपचाप पूजा करने लगे। तब तात्या पाटिल ने उन्हें देखा तो पूजा करने के लिए मना किया। उसी वक्त साईं की नींद खुल गई और उन्होंने जोर-जोर से चिल्लाना और गालियां देना शुरू कर दिया।" फिर भी  मूर्ख हिन्दू उसके पहनावे से भ्रमित होते रहे।


-वह बाजार से खाद्य सामग्री में आटा, दाल, चावल, मिर्च, मसाला, मटन आदि सब मंगाता था। भिक्षा मांगना तो उसका ढोंग था। इसके पास घोड़ा भी था। शिर्डी के अमीर हिन्दुओं ने उसके लिए सभी तरह की सुविधाएं जुटा दी थीं।


-साईं अपने शिष्य मेघा की ओर देखकर कहने लगा, 'तुम तो एक उच्च कुलीन ब्राह्मण हो और मैं बस निम्न जाति का यवन (मुसलमान) इसलिए तुम्हारी जाति भ्रष्ट हो जाएगी इसलिए तुम यहां से बाहर निकलो। -साई सच्चरित्र।-(अध्याय 28)


-एक एकादशी को उसने पैसे देकर केलकर (ब्राह्मण) को मांस खरीद लाने को कहा और उस साईं ने उसी भक्त तथा ब्राह्मण केलकर को बलपूर्वक बिरयानी चखने को कहा।। -साईं सच्चरित्र (अध्याय 38)


-साईं सच्चरित्र अनुसार साईं जब गुस्से में आता था तब अपने ही भक्तों को गन्दी गन्दी गालियाँ बकता था। ज्यादा क्रोधित होने पर वह अपने भक्तों को पीट भी देता था। कभी पत्‍थर और कभी गालियां। -पढ़ें 6, 10, 23 और 41 साईं सच्चरित्र अध्याय।


-इसने स्वयं कभी उपवास नहीं किया और न ही किसी को करने दिया। साईं सच्चरित्र (अध्याय 32)


"मुझे इस झंझट से दूर ही रहने दो। मैं तो एक फकीर हूं, मुझे गंगाजल से क्या प्रयोजन?"- साई सच्चरित्र (अध्याय 28)

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साईं को भगवान् बनाने का यह सारा प्रपंच शुरू होता है 1971 के पहले खुर्द क़ब्र मज़ार होता था उसे पक्का करके समाधि बनाया गया मार्केटिंग शुरू किया 1977 में आई महानालायक की फिल्म "अमर अकबर एंथोनी" के गाने "शिरडी वाले साईं बाबा" से। जरा सोचिये कि फिल्म के केवल एक गीत ने पूरे भारत की मानसिकता पर क्या असर डाला! उसके पहले कहीं किसी पुस्तक, धर्म, शास्त्र आदि में इसका कहीं भी विवरण आया? हाँ, पर्चे में विवरण अवश्य आया कि साईं के नाम का 100 पर्चा छपवाओ, नहीं तो बहुत नुकसान होगा, और कुछ डरपोक हिन्दुओं ने छपवा डाला।


"मार्केट में कोई नया भगवान नहीं आया है बहुत समय से" क्या आपको फिल्म OMG का वह डायलॉग याद है?


हम आप "बस एक मनोरंजक फिल्म ही तो है" कहकर हँस देते हैं, लेकिन देखिये कि हमारी जड़ों में मट्ठा किस तरह चुपके से डाल दिया जाता है। आप में थोड़ी बहुत अभी चेतना बाकी है, तो आप बच जायेंगे लेकिन आपकी जो नई पीढ़ी आ रही है, उसको कैसे बचायेंगे?


जरा सोचिये, कि जिस साईं को हिन्दू मुसलमान एकता के नाम पर प्रायोजित किया जाता है, उस ट्रस्ट में सबसे ज्यादा पैसा किसका जा रहा है..? 99 प्रतिशत हिन्दुओं का। दुनिया भर के हिन्दू संस्थानों ने राम मंदिर के लिए चंदा दिया, लेकिन भारत के सर्वाधिक अमीर ट्रस्टों में शुमार इस शिरडी संस्थान ने " राम मंदिर" के लिए एक फूटी कौड़ी भी देने से इनकार कर दिया है। और आप इसको साईं राम, साईं कृष्ण, साईं शिव बनाकर पूज रहे हैं? इसको आरम्भ में प्रायोजित करने का सारा फंड इंडोनेशिया मुस्लिम जैसे देशों से आया है। अब जब इसकी चाँदी ही चाँदी है तो सोचिये कि सारा पैसा कहाँ जा रहा है और किसलिए खर्च किया जा रहा होगा।


आज कुछ लालची पुजारियों को खरीद कर हिन्दू मंदिरों में अन्य देवी देवताओं के साथ साईं की मूर्ति भी बिठवा दी जा रही है। शुरुआत होती है कोने में छोटी मूर्ति बिठाने से, और फिर धीरे धीरे यह मूर्ति बड़ी होती जाती है तथा हमारे आराध्य हनुमान जी इस मूर्ति के चरणों में हाथ जोड़े बिठा दिए जाते हैं।


क्या आपने किसी भी जैन, बौद्ध सिख आदि के मठों में इसकी मूर्ति देखी? आपने गिरजाघरों या मस्जिदों में इसका एक कैलेंडर तक टंगे देखा? कोई मुसलमान यदि साईं नाम का उपयोग भी करता है, तो वह बस हिन्दुओं को मूर्ख बनाकर चंदे के रूप में ठगने के लिए।


"साईं को मानने वालों में सर्वाधिक प्रतिशत पढ़े लिखे लोगों का है, जो अपने आपको तार्किक और आधुनिक समझते हैं। ये वही धिम्मी, कायर, तथा मूर्ख हिन्दू हैं जो मक्कारों के बहकावे "सबका मालिक एक है" में आकर अपने ही देवी-देवताओं, त्यौहारों, प्रतीकों का तो उपहास उड़ाते हैं, उसमें इन्हें जड़ता तथा अन्धविश्वास की बू आती है, लेकिन इस मांसाहारी व्यभिचारी साईं के लिए इनका सर श्रद्धा से झुक जाता है। मन्दिरों की दान पेटिका में एक सिक्का डालने पर भी इनका कलेजा धधकने लगता है और सारे पुजारी धन के लोभी लगने लगते हैं। लेकिन साईं ट्रस्ट के लिए हज़ारों रुपये की चैरिटी करने में इन्हें रत्ती भर


भी परेशानी नहीं होती।


वैसे लाख आप साईं को दोषी मान लें, इसे भारत में प्रतिष्ठित कराने में बाहरी षड़यन्त्रकारियों को गरिया लें, लेकिन इन सबसे भी अधिक घृणा के पात्र यही "दोहरे, कायर,  हिन्दू" हैं, जिन्होंने अपनी मूर्खता  से अपने ही धर्म की जड़ें खोदने का दुस्साहस किया है।" मांसाहारी, व्यभिचारी, मदिरापान करने वाला इनका भगवान्! "ऐसे म्लेच्छ को अपने देवालयों में स्थापित करने का महापाप किया है इन मूर्ख हिन्दुओं ने, जिसका प्रायश्चित शायद ही हो पाएगा।


चलते चलते,... गीता के नवें अध्याय के 25वें श्लोक में प्रभु कृष्ण कहतें हैं....


यान्ति देवव्रता देवान्, पितृन्यान्ति पितृव्रता:।

भूतानि यान्ति भूतेज्या, यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।


(देवताओं को पूजने वाले देवताओ को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं, और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसीलिये मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता।)

 "जय हिंद..!!"

शुक्रवार, फ़रवरी 05, 2021

यदि दुर्गादास न होते तो राजस्थान में सुन्नत हो जाती।

 जब औरंगजेब ने मथुरा का श्रीनाथ मंदिर तोड़ा तो मेवाड़ के नरेश राज सिंह 100 मस्जिद तुड़वा दिये थे।

अपने पुत्र भीम सिंह को गुजरात भेजा, कहा 'सब मस्जिद तोड़ दो तो भीम सिंह ने 300 मस्जिद तोड़ दी थी'।

वीर दुर्गादास राठौड़ ने औरंगजेब की नाक में दम कर दिया था और महाराज अजीत सिंह को राजा बनाकर ही दम लिया।

कहा जाता है कि दुर्गादास राठौड़ का भोजन, जल और शयन सब अश्व के पार्श्व पर ही होता था। वहाँ के लोकगीतों में ये गाया जाता है कि यदि दुर्गादास न होते तो राजस्थान में सुन्नत हो जाती।

वीर दुर्गादास राठौड़ भी शिवाजी के जैसे ही छापामार युद्ध की कला में विशेषज्ञ थे।

मध्यकाल का दुर्भाग्य बस इतना है कि हिन्दू संगठित होकर एक संघ के अंतर्गत नहीं लड़े, अपितु भिन्न भिन्न स्थानों पर स्थानीय रूप से प्रतिरोध करते रहे।

औरंगजेब के समय दक्षिण में शिवाजी, राजस्थान में दुर्गादास, पश्चिम में सिख गुरु गोविंद सिंह और पूर्व में लचित बुरफुकन, बुंदेलखंड में राजा छत्रसाल आदि ने भरपूर प्रतिरोध किया और इनके प्रतिरोध का ही परिणाम था कि औरंगजेब के मरते ही मुगलवंश का पतन हो गया।

इतिहास साक्षी रहा है कि जब जब आततायी अत्यधिक बर्बर हुए हैं, हिन्दू अधिक संगठित होकर प्रतिरोध किया है। हिन्दू स्वतंत्र चेतना के लिए ही बना है। हिंदुओं का धर्मांतरण सूफियों ने अधिक किया है। तलवार का प्रतिरोध तो उसने सदैव किया है, बस सूफियों और मिशनरियों से हार जाता है।
बाबर ने मुश्किल से कोई 4 वर्ष राज किया। हुमायूं को ठोक पीटकर भगा दिया। मुग़ल साम्राज्य की नींव अकबर ने डाली और जहाँगीर, शाहजहाँ से होते हुए औरंगजेब आते आते उखड़ गया।
कुल 100 वर्ष (अकबर 1556ई. से औरंगजेब 1658ई. तक) के समय के स्थिर शासन को मुग़ल काल नाम से इतिहास में एक पूरे पार्ट की तरह पढ़ाया जाता है....
मानो सृष्टि आरम्भ से आजतक के कालखण्ड में तीन भाग कर बीच के मध्यकाल तक इन्हीं का राज रहा....!

अब इस स्थिर (?) शासन की तीन चार पीढ़ी के लिए कई किताबें, पाठ्यक्रम, सामान्य ज्ञान, प्रतियोगिता परीक्षाओं में प्रश्न, विज्ञापनों में गीत, ....इतना हल्ला मचा रखा है, मानो पूरा मध्ययुग इन्हीं 100 वर्षों के इर्द गिर्द ही है।

जबकि उक्त समय में मेवाड़ इनके पास नहीं था। दक्षिण और पूर्व भी एक सपना ही था।
अब जरा विचार करें..... क्या भारत में अन्य तीन चार पीढ़ी और शताधिक वर्षों तक राज्य करने वाले वंशों को इतना महत्त्व या स्थान मिला है ?
*अकेला विजयनगर साम्राज्य ही 300 वर्षों तक टिका रहा।
हम्पी नगर में हीरे माणिक्य की मण्डियां लगती थीं।
महाभारत युद्ध के बाद 1006 वर्ष तक जरासन्ध वंश के 22 राजाओं ने,
5 प्रद्योत वंश के राजाओं ने 138 वर्ष ,
10 शैशुनागों ने 360 वर्षों तक ,
9 नन्दों ने 100 वर्षों तक ,
12 मौर्यों ने 316 वर्षों तक ,
10 शुंगों ने 300 वर्षों तक ,
4 कण्वों ने 85 वर्षों तक ,
33 आंध्रों ने 506 वर्षों तक ,
7 गुप्तों ने 245 वर्षों तक राज्य किया ।
और पाकिस्तान के सिंध, पंजाब से लेके अफ़ग़ानिस्तान के पर समरकन्द तक राज करने वाले रघुवंशी लोहाणा(लोहर-राणा) जिन्होने देश के सारे उत्तर-पश्चिम भारत वर्ष पर राज किया और सब से ज्यादा खून देकर इस देश को आक्रांताओ से बचाया, सिकंदर से युद्ध करने से लेकर मुहम्मद गजनी के बाप सुबुकटिगिन को इनके खुद के दरबार मे मारकर इनका सर लेके मूलतान मे लाके टाँगने वाले जसराज को भुला दिया।
कश्मीर मे करकोटक वंश के ललितादित्य मुक्तपीड ने आरबों को वो धूल चटाई की सदियो तक कश्मीर की तरफ आँख नहीं उठा सके। और कश्मीर की सबसे ताकतवर रानी दिद्दा लोहराणा(लोहर क्षत्रिय) ने सब से मजबूत तरीके से राज किया। और सारे दुश्मनों को मार दिया।
तारीखे हिंदवा सिंध और चचनामा पहला आरब मुस्लिम आक्रमण जिन मे कराची के पास देब्बल मे 700 बौद्ध साध्विओ का बलात्कार नहीं पढ़ाया जाता। और इन आरबों को मारते हुए इराक तक भेजने वाले बाप्पा रावल, नागभट प्रथम, पुलकेसीन जैसे वीर योद्धाओ के बारेमे नहीं पढ़ाया जाता।*
फिर विक्रमादित्य ने 100 वर्षों तक राज्य किया था । इतने महान सम्राट होने पर भी भारत के इतिहास में गुमनाम कर दिए गए ।

उनका वर्णन करते समय इतिहासकारों को मुँह का कैंसर हो जाता है। सामान्य ज्ञान की किताबों में पन्ने कम पड़ जाते है। पाठ्यक्रम के पृष्ठ सिकुड़ जाते है। प्रतियोगी परीक्षकों के हृदय पर हल चल जाते हैं।
वामपंथी इतिहासकारों ने नेहरूवाद का ........ भक्षण कर, जो उल्टियाँ की उसे ज्ञान समझ चाटने वाले चाटुकारों...!
तुम्हे धिक्कार है !!!

यह सब कैसे और किस उद्देश्य से किया गया ये अभी तक हम ठीक से समझ नहीं पाए हैं और ना हम समझने का प्रयास कर रहे हैं।

एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत हिन्दू योद्धाओं को इतिहास से बाहर कर सिर्फ मुगलों को महान बतलाने वाला नकली इतिहास पढ़ाया जाता है। महाराणा प्रताप के स्थान पर अत्याचारी व अय्याश अकबर को महान होना लिख दिया है।
ये इतिहास को ऐसा प्रस्तुत करने का जिम्मेवार सिर्फ एक व्यक्ति है वो है
मौलाना आजाद
भारत का पहला केंद्रीय शिक्षा मंत्री अब यदि इतिहास में उस समय के वास्तविक हिन्दू योद्धाओं को सम्मिलित करने का प्रयास किया जाता है तो विपक्ष शिक्षा के भगवा करण करने का आरोप लगाता है !

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