बुधवार, जून 27, 2012

Sleuths on drive to track Rahul-baiting on net

Sleuths on drive to track Rahul-baiting on net
T.R. VIVEK  NEW DELHI | 24th Jun
Congress general secretary Rahul Gandhi
ndian investigating authorities are unhappy with their US counterparts for not providing details of users of internet protocol (IP) addresses that were used to spread calumny against Congress general secretary Rahul Gandhi. There are nearly a dozen IP addresses traced back to the United States, which Indian investigators want to track down. The Sunday Guardian has learnt that of those eight pertain to individuals who have posted highly defamatory comments on Rahul Gandhi on assorted social media sites. In October last year, a page titled "Know the reality about Rahul And Sonia Gandhi" containing questionable and defamatory comments about members of the Nehru-Gandhi family surfaced on Orkut, a social media network owned by Google.
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Indian investigating authorities want the United States to provide information on IP addresses that were used to spread canards against the Congress general secretary.
Other IP tracing requests from India involve the serial bomb blasts in Delhi's Gaffar Market, a fraudulent internet banking transaction, an online lottery scam case, and an online employment fraud. But the National Crime Bureau (NCB) in Washington has so far refused to provide information about the physical addresses and locations of these IP addresses. Concerned with this lack of co-operation, the Indian agencies want to sign a more binding bilateral agreement between India and the US to expeditiously share such vital information. There is a Mutual Legal Assistance Treaty (MLAT) between the two nations since 2005, but agencies such as CBI feel that the execution of request under MLAT takes so much time that crucial evidence is often lost.
A draft framework of this proposed information exchange treaty prepared by the Indian side advocates much heavy-handedness against cyber miscreants. It calls for the right to search and seizure of information processing systems, and computer data; rendering illegal material inaccessible; directing service providers to comply with special obligations, taking into account the problems caused by encryption; and interception of content data. Under the treaty India wants the US to provide subscriber information from any service provider. The subscriber details would also include the user's identity, postal address, telephone number, and billing and payment information of the suspects. Some analysts however point out that the US is unlikely to be party to a treaty that is skewed against freedom of speech and individual privacy.

http://www.sunday-guardian.com/news/sleuths-on-drive-to-track-rahul-baiting-on-net

भारत का आज ऐसा हाल क्यों ???

कृपया समय निकाल कर एक बार पुरा पढ़े और शेयर करे और अन्य लोगों को भी बताए
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मित्रों मेरा आपसे आग्रह है कि कृपया एक बार मेरे इस लेख को ध्यान से अवश्य पढ़ें। लेख शायद जरूरत से ज्यादा लम्बा हो जाये किन्तु जो बात आपको कहना चाहता हूँ उसके लिये आपके कुछ मिनट चाहूँगा।
मित्रों जैसा कि आप सब लोग जानते ही होंगे कि विश्व में इस समय करीब २०० देश हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के पिछले वर्ष के एक सर्वेक्षण के अनुसार विश्व में ८६ महा दरिद्र देश हैं और उनमे भारत १७वे स्थान पर आता है। अर्थात ६९ महा दरिद्र देश भारत से ज्यादा अमीर हैं। केवल १६ महा दरिद्र देश विश्व में ऐसे हैं जो भारत के बाद आते हैं। दुनिया का सबसे अमीर देश इसके अनुसार स्वीटजरलैंड है। मित्रों अब प्रश्न यहाँ से उठता है कि स्वीटजरलैंड सबसे अमीर कैसे है? मेरे एक परीचित एवं अग्रज तुल्य देश के एक वैज्ञानिक श्री राजिव दीक्षित से मिली एक जानकारी के अनुसार स्वीटजरलैंड में कुछ भी नहीं होता। कुछ भी का मतलब कुछ भी नहीं। वहां किसी प्रकार का कोई व्यापार नहीं है, कोई खेती नहीं, कोई छोटा मोटा उद्योग भी नहीं है। फिर क्या कारण है कि स्वीटजरलैंड दुनिया का सबसे अमीर देश है?
मित्रों श्री राजीव दीक्षित के एक व्याक्यान में उन्होंने बताया था कि वे एक बार जर्मनी गए थे और वहां एक प्रोफेसर से उनका विवाद हो गया। विवाद का विषय था ”भारत महान या जर्मनी?” जब कोई निर्णय नहीं निकला तो उन्होंने एक रास्ता बनाया कि दोनों जन एक दूसरे से उसके देश के बारे में कुछ सवाल पूछेंगे और जिसके जवाब में सबसे ज्यादा हाँ का उत्तर होगा वही जीतेगा और उसी का देश महान। अब राजीव भाई ने प्रश्न पूछना शुरू किया। उनका पहला प्रश्न था-
प्र-क्या तुम्हारे देश में गन्ना होता है?
उ-नहीं।
प्र-क्या तुम्हारे देश में केला होता है?
उ-नहीं।
प्र-क्या तुम्हारे देश में आम, सेब, लीची या संतरा जैसा कोई फल होता है?
उ-(बौखलाहट के साथ) हमारे देश में तो क्या पूरे यूरोप में मीठे फल नहीं लगते, आप कुछ और पूछिए।
प्र-क्या तुम्हारे देश में पालक होता है?
उ-नहीं।
प्र-क्या तुम्हारे देश में मूली होती है?
उ-नहीं।
प्र-क्या तुम्हारे देश में पुदीना, धनिया या मैथी जैसी कोई चीज होती है?
उ-(फिर बौखलाहट के साथ) पूरे यूरोप में पत्तेदार सब्जियां नहीं होती, आप कुछ और पूछिए।
इस पर राजीव भाई ने कहा कि मैंने तो तुम्हारे यहाँ के डिपार्टमेंटल स्टोर में सब देखा है, ये सब कहाँ से आया? तो इस पर उसने कहा कि ये सब हम भारत या उसके आस पास के देशों से मंगवाते हैं। तो राजीव भाई ने कहा कि अब आप ही मुझसे कुछ पूछिए। तो उन्होंने और कूछ नहीं पूछा बस इतना पूछा कि भारत में क्या ये सब कूछ होता है? तो उन्होंने बताया कि बिलकुल ये सब होता है। भारत में करीब ३५०० प्रजाति का गन्ना होता है, करीब ५००० प्रजाति के आम होते हैं। और यदि आप दिल्ली को केंद्र मान कर १०० किमी की त्रिज्या का एक वृत बनाएं तो इस करीब ३१४०० वर्ग किमी के वृत में आपको आमों की करीब ५०० प्रजातियाँ बाज़ार में बिकती मिल जाएंगी। इन सब सवालों के बाद प्रोफेसर ने कहा कि इतना सब कूछ होने के बाद भी आप इतने गरीब और हम इतने अमीर क्यों हैं? ऐसा क्या कारण है कि आज आपकी भारत सरकार हम यूरोपीय या अमरीकी देशों के सामने कर्ज मांगने खड़ी हो जाती है? प्राकृतिक रूप से इतने अमीर होने के बाद भी आप भिखारी और हम कर्ज़दार क्यों हैं?
तो मित्रों शंका यही है कि प्राकृतिक रूप से इतने अमीर होने के बाद भी हम इतने गरीब क्यों हैं? और यूरोप जहाँ प्रकृति की कोई कृपा नहीं है फिर भी इतना अमीर कैसे?
मित्रों भारत को विश्व में सोने की चिड़िया कहा गया किन्तु एक बात सोचने वाली है कि यहाँ तो कोई सोने की खाने नहीं हैं फिर यहाँ विश्व का सबसे बड़ा सोने का भण्डार बना कैसे? यहाँ प्रश्न जरूर पैदा होते हैं किन्तु एक उत्तर यह मिलता है कि हम हमेशा से गरीब नहीं थे। अब जब भारत में सोना नहीं होता तो साफ़ है कि भारत में सोना आया विदेशों से। किन्तु हमने तो कभी किसी देश को नहीं लूटा। इतिहास में ऐसा कोई भी साक्ष्य नहीं है जिससे भारत पर ऐसा आरोप लगाया जा सके कि भारत ने अमुक देश को लूटा, भारत ने अमुक देश को गुलाम बनाया, न ही भारत ने आज कि तरह किसी देश से कोई क़र्ज़ लिया फिर यह सोना आया कहाँ से? तो यहाँ जानकारी लेने पर आपको कूछ ऐसे सबूत मिलेंगे जिससे पता चलता है कि कालान्तर में भारत का निर्यात विश्व का ३३% था। अर्थात विश्व भर में होने वाले कुल निर्यात का ३३% निर्यात भारत से होता था। हम ३५०० वर्षों तक दुनिया में कपडा निर्यात करते रहे क्यों की भारत में उत्तम कोटी का कपास पैदा होता था। तो दुनिता को सबसे पहले कपडा पहनाने वाला देश भारत ही रहा है। कपडे के बाद खान पान की अनेक वस्तुएं भारत दुनिया में निर्यात करता था क्यों कि खेती का सबसे पहले जन्म भारत में ही हुआ है। खान पान के बाद भारत में करीब ९० अलग अलग प्रकार के खनीज भारत भूमी से निकलते है जिनमे लोहा, ताम्बा, अभ्रक, जस्ता, बौक् साईट, एल्यूमीनियम और न जाने क्या क्या होता था। भारत में सबसे पहले इस्पात बनाया और इतना उत्तम कोटी का बनाया कि उससे बने जहाज सैकड़ों वर्षों तक पानी पर तैरते रहते किन्तु जंग नहीं खाते थे। क्यों की भारत में पैदा होने वाला लौह अयस्क इतनी उत्तम कोटी का था कि उससे उत्तम कोटी का इस्पात बनाया गया। लोहे को गलाने के लिये भट्टी लगानी पड़ती है और करीब १५०० डिग्री ताप की जरूरत पड़ती है और उस समय केवल लकड़ी ही एक मात्र माध्यम थी जिसे जलाया जा सके। और लकड़ी अधिकतम ७०० डिग्री ताप दे सकती है फिर हम १५०० डिग्री तापमान कहा से लाते थे वो भी बिना बिजली के? तो पता चलता है कि भारत वासी उस समय कूछ विशिष्ट रसायनों का उपयोग करते थे अर्थात रसायन शास्त्र की खोज भी भारत ने ही की। खनीज के बाद चिकत्सा के क्षेत्र में भी भारत का ही सिक्का चलता था क्यों कि भारत की औषधियां पूरी दुनिया खाती थी। और इन सब वस्तुओं के बदले अफ्रीका जैसे स्वर्ण उत्पादक देश भारत को सोना देते थे। तराजू के एक पलड़े में सोना होता था और दूसरे में कपडा। इस प्रकार भारत में सोने का भण्डार बना। एक ऐसा देश जहाँ गाँव गाँव में दैनिक जीवन की लगभग सभी वस्तुएं लोगों को अपने ही आस पास मिल जाती थी केवल एक नमक के लिये उन्हें भारत के बंदरगाहों की तरफ जाना पड़ता था क्यों कि नमक केवल समुद्र से ही पैदा होता है। तो विश्व का एक इ तना स्वावलंबी देश भारत रहा है और हज़ारों वर्षों से रहा है और आज भी भारत की प्रकृती इतनी ही दयालु है, इतनी ही अमीर है और अब तो भारत में राजस्थान में बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर में पेट्रोलियम भी मिल गया है तो आज भारत गरीब क्यों है और प्रकृति की कोई दया नहीं होने के बाद यूरोप इतना अमीर क्यों?
तो मित्रो इसका उत्तर यहाँ से मिलता है। उस समय अफ्रीका और लैटिन अमरीका तक व्यापार का काम दो देशों चीन और भारत से होता था। आप सब जानते ही होंगे कि अफ्रीका दुनिया का सबसे बड़ा स्वर्ण उत्पादक क्षेत्र रहा है और आज भी है। इसके अलावा अफ्रीका की चिकित्सा पद्धति भी अद्भुत रही है। सबसे ज्यादा स्वर्ण उत्पादन के कारण अफ्रीका भी एक बहुत अमीर देश रहा है। अंग्रेजों द्वारा दी गयी ४५० साल की गुलामी भी इस देश से वह गुण नहीं छीन पायी जो गुण प्रकृति ने अफ्रीका को दिया। अंग्रेजों ने अफ्रीका को न केवल लूटा बल्कि बर्बरता से उसका दोहन किया। भारत और अफ्रीका का करीब ३००० साल से व्यापारिक सम्बन्ध रहा है। भौगोलिक दृष्टि से समुद्र के रास्ते दक्षिण एशिया से अफ्रीका या लैटिन अमरीका जाने के लिये इंग्लैण्ड के पास से निकलना पड़ता था। तब इंग्लैण्ड वासियों की नज़र इन जहाज़ों पर पड़ गयी। और आप जानते होंगे कि इंग्लैण्ड में कूछ नही था, लोगों का काम लूटना और मार के खाना ही था, ऐसे में जब इन्होने देखा कि माल और सोने भरे जहाज़ भारत जा रहे हैं तो इन्होने जहाज़ों को लूटना शुरू किया। किन्तु अब उन्होंने सोचा कि क्यों न भारत जा कर उसे लूटा जाए।।। तब कूछ लोगों ने मिल कर एक संगठन खड़ा किया और वे इंग्लैण्ड के राजा रानी से मिले और उनसे कहा कि हम भारत में व्यापार करना चाहते हैं हमें लाइसेंस की आवश् यकता है। अब राज परिवार ने कहा कि भारत से कमाया गया धन राज परिवार, मंत्रिमंडल, संसद और अधीकारियों में भी बंटेगा। इस समझौते के साथ सन १७५० में थॉमस रो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम से जहांगीर के दरबार में पहुंचा और व्यापार करने की आज्ञा मांगी। और तब से १९४७ तक क्या हुआ है वह तो आप भी जानते है।
थॉमस रो ने सबसे पहले सूरत के एक महल नुमा घर को लूटा जो आज भी मौजूद है। फिर पड़ोस के गाँव में और फिर और आगे। खाली हाथ आये इन अंग्रजों के पास जब करोड़ों की संपत्ति आई तो इन्होने अपनी खुद की सेना बनायी। उसके बाद सन १७५७ में रोबर्ट क्लाइव बंगाल के रास्ते भारत आया उस समय बंगाल का राजा सिराजुद्योला था। उसने अंग्रेजों से संधि करने से मना कर दिया तो रोबर्ट क्लाइव ने युद्ध की धमकी दी और केवल ३५० अंग्रेज सैनिकों के साथ युद्ध के लिये गया। बदले में सिराजुद्योला ने १८००० की सेना भेजी और सेनापति बनाया मीर जाफर को। तब रोबर्ट क्लाइव ने मीर जाफर को पत्र भेज कर उसे बंगाल की राज गद्दी का लालच देकर उससे संधि कर ली। रोबर्ट क्लाइव ने अपनी डायरी में लिखा था कि बंगाल की राजधानी जाते हुए मै और मीर जाफर सबसे आगे, हमारे पीछे मेरी ३५० की अंग्रेज सेना और उनके पीछे बंगाल की १८००० की सेना। और रास्‍ते में जितने भी भारतीय हमें मिले उन्होंने हमारा कोई विरोध नहीं किया, उस समय यदि सभी भारतीयों ने मिल कर हमारा विरोध किया होता या हम पर पत्थर फैंके होते तो शायद हम कभी भारत में अपना साम्राज्य नहीं बना पाते। वो डायरी आज भी इंग्लैण्ड में है। मीर जाफर को राजा बनवाने के बाद धोखे से उसे मार कर मीर कासिम को राजा बनाया और फिर उसे मरवाकर खुद बंगाल का राजा बना। ६ साल लूटने के बाद उसका स्थानातरण इंग्लैण्ड हुआ और वहां जा कर जब उससे पूछा गया कि कितना माल लाये हो तो उसने कहा कि मै सोने के सिक्के, चांदी के सिक्के और बेश कीमती हीरे जवाहरात लाया हूँ। मैंने उन्हें गिना तो नहीं किन्तु इन्हें भारत से इंग्लैण्ड लाने के लिये मुझे ९०० पानी के जहाज़ किराये पर लेने पड़े। अब सोचो एक अकेला रोबर्ट क्लाइव ने इतना लूटा तो भारत में उसके जैसे ८४ ब्रीटिश अधीकारी आये जिन्होंने भारत को लूटा। रोबर्ट क्लाइव के बाद वॉरेन हेस्टिंग्स नामक अंग्रेज अधीकारी आया उसने भी लूटा, उसके बाद विलियम पिट, उसके बाद कर्जन, लौरेंस, विलियम मेल्टिन और न जाने कौन कौन से लुटेरों ने लूटा। और इन सभी ने अपने अपने वाक्यों में भारत की जो व्याख्या की उनमे एक बात सबमे सामान है। सबने अपने अपने शब्दों में कहा कि भारत सोने की चिड़िया नहीं सोने का महासागर है। इनका लूटने का प्रारम्भिक तरीका यह था कि ये किसी धनवान व्यक्ति को एक चिट्ठी भेजते थे जिसमे एक करोड़, दो करोड़ या पांच करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की मांग करते थे और न देने पर घर में घुस कर लूटने की धमकी देते थे। ऐसे में एक भारतीय सोचता कि अभी नहीं दिया तो घर से दस गुना लूट के ले जाएगा अत: वे उनकी मांग पूरी करते गए। धनवानों के बाद बारी आई देश के अन्य राज्यों के राजाओं की। वे अन्य राज परीवारों को भी ऐसे ही पत्र भेजते थे। कूछ राज परिवार जो कायर थे उनकी मांग मान लेते थे किन्तु कूछ साहसी लोग ऐसे भी थे जो उन्हें युद्ध के लिये ललकारते थे। फिर अंग्रेजों ने राजाओं से संधि करना शुरू कर दिया।
अंग्रेजों ने भारत के एक भी राज्य पर शासन खुद युद्ध जीत कर नहीं जमाया। महारानी झांसी के विरुद्ध १७ युद्ध लड़ने के बाद भी उन्हें हार का मूंह देखना पड़ा। हैदर अली से ५ युद्धों में अंग्रेजों ने हार ही देखी। किन्तु अपने ही देश के कूछ कायरों ने लालच में आकर अंग्रेजों का साथ दिया और अपने बंधुओं पर शस्त्र उठाया।
सन १८३४ में अंग्रेज अधिकारी मैकॉले का भारत में आगमन हुआ। उसने अपनी डायरी में लिखा है कि ”भारत भ्रमण करते हुए मैंने भारत में एक भी भिखारी और एक भी चोर नहीं देखा। क्यों कि भारत के लोग आज भी इतने अमीर हैं कि उन्हें भीख मांगने और चोरी करने की जरूरत नहीं है और ये भारत वासी आज भी अपना घर खुला छोड़ कर कहीं भी चले जाते हैं इन्हें तालों की भी जरूरत नहीं है।” तब उसने इंग्लैण्ड जा कर कहा कि भार त को तो हम लूट ही रहे हैं किन्तु अब हमें कानूनन भारत को लूटने की नीति बनानी होगी और फिर मैकॉले के सुझाव पर भारत में टैक्स सिस्टम अंग्रेजों द्वारा लगाया गया। सबसे पहले उत्पादन पर ३५०%, फिर उसे बेचने पर ९०% । और जब और कूछ नहीं बचा तो मुनाफे पर भी टैक्स लगाया गया। इस प्रकार अंग्रजों ने भारत पर २३ प्रकार के टैक्स लगाए।
और इसी लूट मार से परेशान भारतीयों ने पहली बार एकत्र होकर सब १८५७ में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति छेड़ दी। इस क्रांती की शुरुआत करने वाले सबसे पहले वीर मंगल पाण्डे थे और अंग्रेजों से भारत की स्वतंत्रता के लिये शहीद होने वाले सबसे पहले शहीद भी मंगल पांडे ही थे। देखते ही देखते इस क्रान्ति ने एक विशाल रूप धारण किया। और इस समय भारत में करीब ३ लाख २५ हज़ार अंग्रेज़ थे जिनमे से ९०% इस क्रांति में मारे गए। किन्तु इस बार भी कूछ कायरों ने ही इस क्रान्ति को विफल किया और अंग्रेजों द्वारा सहायता मांगने पर उन्होंने फिर से अपने बंधुओं पर प्रहार किया।
उसके बाद १८७० में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति छेड़ी हमारे देश के गौरव स्वामी दयानंद सरस्वती ने, उनके बाद लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय, वीर सावरकर जैसे वीरों ने। फिर गांधी जी, भगत सिंह, उधम सिंह, चंद्रशेखर जैसे बीरों ने। अंतिम लड़ाई लड़ने वालों में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस रहे हैं। सन १९३९ में द्वितीय विश्व युद्ध के समय जब हिटलर इंग्लैण्ड को मारने के लिये तैयार खड़ा था तो अंग्रेज साकार ने भारत से एक हज़ार ७३२ करोड़ रुपये ले जा कर युद्ध लड़ने का निश्चय किया और भारत वासियों को वचन दिया कि युद्ध के बाद भारत को आज़ाद कर दिया जाएगा और यह राशि भारत को लौटा दी जाएगी। किन्तु अंग्रेज अपने वचन से मुकर गए।
आज़ादी मिलने से कूछ समय पहले एक बीबीसी पत्रकार ने गांधी जी से पूछा कि अब तो अंग्रेज जाने वाले हैं, आज़ादी आने वाली है, अब आप पहला काम क्या करेंगे? तो गांधी जी ने कहा कि केवल अंग्रेजों के जाने से आज़ादी नहीं आएगी, आज़ादी तो तब आएगी जब अंग्रेजो द्वारा बनाया गया पूरा सिस्टम हम बदल देंगे अर्थात उनके द्वारा बनाया गया एक एक कानून बदलने की आवश्यकता है क्यों कि ये क़ानून अंग्रेजों ने भारत को लूटने के लिये बनाए थे, किन्तु अब भारत के आज़ाद होने के बाद इन सभी व्यर्थ के कानूनों को हटाना होगा और एक नया संविधान भारत के लिये बनाना होगा। हमें हमारी शिक्षा पद्धति को बदलना होगा जो कि अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाए रखने के लिये बनाई थी। जिसमे हमें हमारा इतिहास भुला कर अंग्रेजों का कथित महान इतिहास पढ़ाया जा रहा है। अंग्रेजों कि शिक्षा पद्धति में अंग्रजों को महान और भारत को नीचा और गरीब देश बता कर भारत वासियों को हीन भावना से ग्रसित किया जा रहा है। इस सब को बदलना होगा तभी सही अर्थों में आजादी आएगी।
किन्तु आज भी अंग्रेजों के बनाए सभी क़ानून यथावत चल रहे हैं अंग्रेजों की चिकित्सा पद्धति यथावत चल रही है। और कूछ काम तो हमारे देश के नेताओं ने अंग्रेजों से भी बढ़कर किये। अंग्रेजों ने भारत को लूटने के लिये २३ प्रकार के टैक्स लगाए किन्तु इन काले अंग्रेजों ने ६४ प्रकार के टैक्स हम भारत वासियों पर थोप दिए। और इसी टैक्स को बचाने के लिये देश के लोगों ने टैक्स की चोरी शुरू की जिससे काला बाजारी जैसी समस्या सामने आई। मंत्रियों ने इतने घोटाले किये कि देश की जनता भूखी मरने लगी। भारत की आज़ादी के बाद जब पहली बार संसद बैठी और चर्चा चल रही थी राष्ट्र निर्माण की तो कई सांसदों ने नेहरु से कहा कि वह इंग्लैण्ड से वह उधार की राशी मांगे जो द्वितीय विश्व युद्ध के समय अंग्रेजों ने भारत से उधार के तौर पर ली थी और उसे राष्ट्र निर्माण में लगाए। किन्तु नेहरु ने कहा कि अब वह राशि भूल जाओ। तब सांसदों का कहना था कि इन्होने जो २०० साल तक हम पर जो अत्याचार किया है क्या उसे भी भूल जाना चाहिए? तब नेहरु ने कहा कि हाँ भूलना पड़ेगा, क्यों कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में सब कूछ भुलाना पड़ता है। और तब यही से शुरुआत हुई सता की लड़ाई की और राष्ट्र निर्माण तो बहुत पीछे छूट गया था।
तो मित्रों अब मुझे समझ आया कि भारत इतना गरीब कैसे हुआ, किन्तु एक प्रश्न अभी भी सामने है कि स्वीटजरलैंड जैसा देश आज इतना अमीर कैसे है जो आज भी किसी भी प्रकार का कार्य न करने पर भी मज़े कर रहा है। तो मित्रों यहाँ आप जानते होंगे कि स्वीटजरलैंड में स्विस बैंक नामक संस्था है, केवल यही एक काम है जो स्वीटजरलैंड को सबसे अमीर देश बनाए बैठा है। स्विस बैंक एक ऐसा बैंक है जो किसी भी व्यक्ति का कित ना भी पैसा कभी भी किसी भी समय जमा कर लेता है। रात के दो बजे भी यहाँ काम चलता मिलेगा। आपसे पूछा भी नहीं जाएगा कि यह पैसा आपके पास कहाँ से आया? और उसपर आपको एक रुपये का भी ब्याज नहीं मिलेगा। और ये बैंक आपसे पैसा लेकर भारी ब्याज पर लोगों को क़र्ज़ देता है। खाताधारी यदि अपना पैसा निकालने से पहले यदि मर जाए तो उस पैसा का मालिक स्विस बैंक होगा, क्यों कि यहाँ उत्तराधिकार जैसी कोई परम्परा नहीं है। और स्वीटजरलैंड अकेला नहीं है, ऐसे ७० देश और हैं जहाँ काला धन जमा होता है इनमे पनामा और टोबैको जैसे देश हैं।
मित्रों आज़ादी के बाद भारत में भ्रष्टाचार तो इतना बढ़ा कि मधु कौड़ा जैसे मुख्यमंत्री ने झारखंड का मुख्यमंत्री बनकर केवल दो साल में ५६०० करोड़ की संपत्ति स्विस बैंक में जमा करवा दी। जब मधु कौड़ा जैसा मुख्यमंत्री केवल दो साल में ५६०० करोड़ रुपये भारत के एक गरीब राज्य से लूट सकता है तो ६३ सालों से सत्ता में बैठे काले अंग्रेजों ने इस अमीर देश से कितना लूटा होगा? ऐसे ही थोड़े ही राजीव गांधी ने कहा था कि जब मै एक रूपया देश की जनता को देता हूँ तो जनता तक केवल १५ पैसे पहुँचते हैं। कूछ समय पहले उत्तर प्रदेश के एक आईएएस अधिकारी अखंड प्रताप सिंह के घर जब इन्कम टैक्स का छापा पड़ा तो उनके घर से ४८० करोड़ रुपये मिले। पूछताछ में अखंड प्रताप सिंह ने बताया कि ऐसे मेरे १९ घर और हैं। और इस प्रकार से ये पैसा पहुंचता है स्विस बैंक।
तो मित्रों अब यहाँ से पता चलता है कि भारत आज़ादी के ६३ साल बाद भी इतना गरीब देश क्यों है और स्वीटजरलैंड इतना अमीर क्यों है? इसका उत्तर यह है कि १५ अगस्त १९४७ को भारत आज़ाद नहीं हुआ था केवल सत्ता का हस्तांतरण हुआ था। सत्ता गोरे अंग्रेजों के हाथ से निकल कर काले अंग्रेजों के हाथ में आ गयी थी।

14 अगस्त 1947 की रात्रि को जो कुछ हुआ था वो वास्तव में स्वतंत्रता नहीं आई थी अपितु ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर का एग्रीमेंट हुआ था पंडित नेहरु और लोर्ड माउन्ट बेटन के बीच में. आप लोगों में से बहुतों ने देखा होगा, तो जिस रजिस्टर पर आने वाला प्रधानमन्त्री हस्ताक्षर करता है, उसी रजिस्टर को 'ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर' की बुक कहते हैं तथा उस पर हस्ताक्षर के पश्चात पुराना प्रधानमन्त्री नए प्रधानमन्त्री को सत्ता सौंप देता है एवं पुराना प्रधानमंत्री निकल कर बाहर चला जाता है. यही नाटक हुआ था 14 अगस्त 1947 की रात्रि को 12 बजे.लार्ड माउन्ट बेटन ने अपनी सत्ता पंडित नेहरु के हाथ में सौंपी थी, और हमने कह दिया कि स्वराज्य आ गया | कैसा स्वराज्य और काहे का स्वराज्य ? अंग्रेजो के लिए स्वराज्य का अर्थ क्या था ? और हमारे लिए स्वराज्य का आशय क्या था ? ये भी समझ लीजिये | अंग्रेज कहते थे क़ि हमने स्वराज्य दिया, अर्थात अंग्रेजों ने अपना राज आपको सौंपा है जिससे कि आप लोग कुछ दिन इसे चला लो जब आवश्यकता पड़ेगी तो हम पुनः आ जायेंगे | ये अंग्रेजो की व्याख्या (interpretation) थी एवं भारतीय लोगों की व्याख्या क्या थी कि हमने स्वराज्य ले लिया तथा इस संधि के अनुसार ही भारत के दो टुकड़े किये गए एवं भारत और पाकिस्तान नामक दो Dominion States बनाये गए हैं | ये Dominion State का अर्थ हिंदी में होता है एक बड़े राज्य के अधीन एक छोटा राज्य, ये शाब्दिक अर्थ है और भारत के सन्दर्भ में इसका वास्तविक अर्थ भी यही है. अंग्रेजी में इसका एक अर्थ है "One of the self-governing nations in the British Commonwealth" तथा दूसरा "Dominance or power through legal authority "| Dominion State और Independent Nation में जमीन आसमान का अंतर होता है | मतलब सीधा है क़ि हम (भारत और पाकिस्तान) आज भी अंग्रेजों के अधीन ही हैं. दुःख तो ये होता है कि उस समय के सत्ता के लालची लोगों ने बिना सोचे समझे अथवा आप कह सकते हैं क़ि पूरी मानसिक जागृत अवस्था में इस संधि को मान लिया अथवा कहें सब कुछ समझ कर ये सब स्वीकार कर लिया एवं ये जो तथाकथित स्वतंत्रता प्राप्त हुई इसका कानून अंग्रेजों के संसद में बनाया गया और इसका नाम रखा गया Indian Independence Act अर्थात भारत के स्वतंत्रता का कानून तथा ऐसे कपट पूर्ण और धूर्तता से यदि इस देश को स्वतंत्रता मिली हो तो वो स्वतंत्रता, स्वतंत्रता है कहाँ ? और इसीलिए गाँधी जी (महात्मा गाँधी) 14 अगस्त 1947 की रात को दिल्ली में नहीं आये थे. वो नोआखाली में थे और कोंग्रेस के बड़े नेता गाँधी जी को बुलाने के लिए गए थेकि बापू चलिए आप.गाँधी जी ने मना कर दिया था. क्यों ? गाँधी जी कहते थे कि मै मानता नहीं कि कोई स्वतंत्रता मिल रही है एवं गाँधी जी ने स्पष्ट कह दिया था कि ये स्वतंत्रता नहीं आ रही है सत्ता के हस्तांतरण का समझौता हो रहा है और गाँधी जी ने नोआखाली से प्रेस विज्ञप्ति जारी की थी | उस प्रेस स्टेटमेंट के पहले ही वाक्य में गाँधी जी ने ये कहाकि मैं भारत के उन करोड़ों लोगों को ये सन्देश देना चाहता हूँ कि ये जो तथाकथित स्वतंत्रता (So Called Freedom) आ रही है ये मै नहीं लाया | ये सत्ता के लालची लोग सत्ता के हस्तांतरण के चक्कर में फंस कर लाये है | मै मानता नहीं कि इस देश में कोई आजादी आई है | और 14 अगस्त 1947 की रात को गाँधी जी दिल्ली में नहीं थे नोआखाली में थे | माने भारत की राजनीति का सबसे बड़ा पुरोधा जिसने हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई की नीव रखी हो वो आदमी 14 अगस्त 1947 की रात को दिल्ली में मौजूद नहीं था | क्यों ? इसका अर्थ है कि गाँधी जी इससे सहमत नहीं थे | (नोआखाली के दंगे तो एक बहाना था वास्तव में बात तो ये सत्ता का हस्तांतरण ही थी) और 14 अगस्त 1947 की रात्रि को जो कुछ हुआ है वो स्वतंत्रता नहीं आई .... ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर का एग्रीमेंट लागू हुआ था
और आज इन्ही काले अंग्रेजों की संताने आज हम पर शाशन कर रही हैं। वरना क्या वजह है कि मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में नयी दुनिया नामक एक अखबार की पुस्तक का विमोचन करने पहुंचे चिताम्बरम ने यह कहा कि भारत तो हज़ारों वर्षों से भयंकर गरीब देश है। और इन्ही काले अंग्रेजों की एक और संतान हमारे प्रधान मंत्री जी हैं। जब ये प्रधान मंत्री बनने के बाद पहली बार ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय गए तो वहां उन्होने कहा कि भारत तो सदियों से गरीब देश रहा है, ये तो भला हो अंग्रेजों का जिन्होंने आकर हमें अँधेरे से बाहर निकाला, हमारे देश में ज्ञान का सूरज लेकर आये, हमारे देश का विकास किया आदि आदि। अगले दिन लन्दन के सभी बड़े बड़े अखबारों में हैडलाइन छपी थी की भारत शायद आज भी मानसिक रूप से हमारा गुलाम है।


गल्ती से हमने एक ईस्ट इंडिया कंपनी को बुला लिया था और 250 के लिये अपनी आजादी गवा बैठे थे ।

फ़िर आजादी पाने के लिये
(भगत,सिहं उधम सिहं , सुभाष चंद्र बोस, लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र पाल,नाना सहिब पेश्व,) और ऐसे 7 लाख 32 हजार क्रतिंकरियो को अपना बलिदान देना पड़ा तब जाकर
आजादी मिली ।

लिकेन आज तो 5000 विदेशी कंपनिया हो गई हैं । क्या ये हमारे देश कि आजादी के
लिये दुबारा खतरा नहीं है ??

जब ये सवाल भारत सरकार से
पूछा जाता हैं तो भारत सरकार
विदेशी कंपनियों को भारत में
बुलाने के लिये 4 तर्क देती हैं.

1)विदेशी कंपनिया पुजीं लाती है। 2)विदेशी कंपनिया तकनीकी लाती हैं
3) विदेशी कंपनिया ऐकस पोर्ट
बढ़ाती है ।
4) विदेशी कंपनिया रोजगार
बढ़ाती हैं |

ये 4 तर्क कितने झूठे हैं
उनका पुरा खुलासा राजीव दिक्षित जी ने पुरे दस्तावेजो और सबूतो के साथ इस विडियो में किया हैं । कृपया पुस
विडिशी देखें और इसे भारत के अंतिम आदमी व्यकित तक पहुँचाये

http://www.youtube.com/watch?v=uKNDernoIAk&sns=fb

(काफ़ी भाग... श्री राजीव दिक्षित जी के व्याख्यान से लिया गया है)
(सहयोग: दिवस दिनेश गौड़ जी)

कैसी थी पारंपरिक भारतीय शिक्षा पद्धति::


कैसी थी पारंपरिक भारतीय शिक्षा पद्धति::

इस समय हमारे देश में एक ऐसा वर्ग है जिसकी भ्रमपूर्ण सोच के अनुसार अंग्रेजों के आने से पहले देश में शिक्षा का कोई स्वरूप नहीं था तथा देशवासी असभ्य, गंवार और अशिक्षित थे। अपने लगभग दो शताब्दियों के शासनकाल में उन्होंने हमें सुसभ्य और शिक्षित बनाया। यहां इस तथ्य को क्यों नजरअन्दाज किया जाता है कि असभ्य, गंवार और अशिक्षित लोगों से कोई समाज या राष्ट्र ‘सोने की चिड़िया’ नहीं बन सकता। यदि अतीत में सब कुछ बुरा और बिगड़ा था तो साहित्य, संगीत, कला (शिल्प), दर्शन, खगोल आदि क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति कैसे हुई?

शिक्षा को व्यवस्थित रूप देने के क्रम में दो प्रश्न उभरे। प्रथम ‘क्या’ सिखाया जाए तथा द्वितीय ‘कैसे’ सिखाया जाए? क्या के अन्तर्गत उन विषयों का समावेश हुआ जिनके ज्ञान से मानव समाज में उपयोगी (उत्पादक) भूमिका निभाने में सक्षम हो सके तथा उत्पादक प्रतिभा के सदुपयोग के लिये आवश्यक मानवीय चरित्र का विकास हो। अर्थात् पेशेगत कौशल की शिक्षा तथा चरित्र की शिक्षा। कैसे? का समाधान शिक्षा को गुरु या शिक्षक (अध्यापक) से जोड़कर किया गया। समय के साथ सीखने के विषय तो बदलते रहे पर गुरु या शिक्षक का महत्व नहीं बदला।

वैदिक वांर्घैंमय का विशाल ज्ञान भण्डार, पीढ़ी-दर-पीढ़ी, गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम से सम्प्रेषित होता रहा तथा आज भी इसका पूर्णतया लोप नहीं हुआ है। इस सन्दर्भ में आरोप लगता है कि ऐसी शिक्षा मात्र उच्च वर्ण को उपलब्ध थी तथा शूद्र इससे वंचित थे। इस बारे में यहां मेरे एक व्यक्तिगत संस्मरण का उल्लेख आवश्यक लगता है। लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व, उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के एक गांव में ठहरा था। वहां ‘बांठे’ नाम के एक मध्यम आयु के हरिजन (चमार) ने मुझे ढोलक की थाप पर अपने सुरीले स्वर में स्थानीय लोक-भाषा में सम्पूर्ण रामायण गाकर सुनाई थी। इससे यह स्पष्ट है कि ज्ञान, उच्च वर्ण तक सीमित नहीं था, वरन् अन्य वर्णों को भी वह सुलभ था।

समाज के हर स्तर पर ज्ञान का सम्प्रेषण श्रुति (श्रवण) परम्परा के माध्यम से बहुत समय तक होता रहा। लोग भले पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे पर उनमें कृषि, शिल्प, वास्तु आदि का ज्ञान भरपूर था। परम्परागत शिक्षा में सुनना, समझना तथा करने का प्रयास शिष्य का कर्तव्य तथा सुनाना, समझाना तथा करके दिखाना गुरु का कर्तव्य था। शिक्षा में लिखने-पढ़ने का प्रयोग महाभारत काल में (लगभग पांच हजार वर्ष) हुआ। उस समय महर्षि वेदव्यास जी ने भविष्य में श्रुति परम्परा का लोप देखकर, सम्पूर्ण वैदिक वार्घैंमय को लिपिबद्ध किया और कराया। अवश्य ही लिखने-पढ़ने से जुड़ी यह शिक्षा उच्च-वर्ण तक सीमित थी। परन्तु लोक-भाषा, लोक-कला, लोकगीत संगीत, लोक-नृत्य तथा लोक साहित्य के माध्यम से ज्ञान का सम्प्रेषण चलता ही रहा। आज भी ज्ञान सम्प्रेषण की इन विधाओं का बहुत बड़ा भाग अलिखित और अपठित है। मात्र श्रवण-परम्परा के माध्यम ये इन सभी विधाओं का आज भी अस्तित्व बना हुआ है।

परम्परागत शिक्षा में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध अत्यन्त संवेदनशील तथा आत्मीय था। शिष्य के प्रति स्नेह गुरु का तथा गुरु के प्रति श्रद्धा शिष्य का आवश्यक गुण था। क्योंकि, गुरु से जीवन को सफल एवं विकासोन्मुख बनाने का ज्ञान मिलता था। ज्ञानार्जन के लिए गुरु-शिष्य के बीच किसी अन्य की कोई भूमिका नहीं थी। शिष्य सीधे गुरु से मिलकर ज्ञान की याचना कर सकता था तथा गुरु, शिष्य की जिज्ञासा तथा योग्यता को परखकर उसे स्वीकार करते थे। इसीलिये अतीत में ज्ञान के हर क्षेत्र में शिष्य की पहचान गुरु के माध्यम से होती थी। भले ही विश्वविद्यालय थे पर प्रवेश के लिये गुरु की स्वीकृति सर्वोपरि थी। गुरु के सन्दर्भ में यह आरोप भी लगता है कि यह गरिमामय पद मात्र ब्राह्मणों के लिये सुरक्षित था।
किन्तु वास्तविकता कुछ भिन्न है। ब्राह्मण वैदिक ज्ञान राशि के भंडार थे तथा उसी के शिक्षक होने के अधिकारी थे। ज्ञान की अन्य लौकिक धारायें
जैसे- शिल्प, वास्तु, संगीत, नृत्य, कला आदि पर कभी ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं रहा। इन क्षेत्रों में अन्य वर्णों के लोग भी गुरु के गरिमामय पद पर बैठने के अधिकारी थे। आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में तो शूद्रों को भी गुरु के आसन पर बैठने का पर्याप्त अवसर मिला। पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास में सबसे अधिक संख्या शूद्र सन्तों की रही जिनको तत्कालीन समाज के सभी वर्णों से मान्यता मिली तथा भरपूर सम्मान भी। मीरा बाई क्षत्राणी थी और शिष्य बनी सन्त रविदास की। सन्त कबीर जुलाहे थे और बहुत सारे ब्राह्मण-क्षत्रियों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।
शिक्षा व्यवस्था पर दोहरा दायित्व होता है। प्रथम मानव को ऐसा ज्ञान प्रदान करना जिससे मानव के रूप में वह अपनी भूमिका का सफलतापूर्वक निर्वाह कर सके तथा द्वितीय ऐसा ज्ञान भी प्रदान करे जिससे वह समाज में उत्पादक भूमिका का निर्वाह कर परिवार का भरण-पोषण कर सके। चूंकि पारम्परिक समाज में कर्म का अधिकार, वर्ण के अधिकार पर सुरक्षित था इसलिये उत्पादक भूमिका के निर्वाह की योग्यता पिता के माध्यम से हर व्यक्ति को मिल जाती थी। दूसरी ओर मानव को मानव बनाने की शिक्षा सन्तों, आचार्यों, विद्वानों तथा परिवार-समाज के बड़े बुजुर्गों से मिल जाती थी। अंग्रेजों के आगमन के पूर्व तक भारतीय समाज में शिक्षा के इस पारम्परिक स्वरूप में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।
वर्ण-व्यवस्था में मानव के कर्म का निर्णय वर्ण के आधार पर हुआ। हर व्यक्ति अपने वर्णानुसार कर्म करने के लिये जन्म से अधिकृत हुआ। इस व्यवस्था में कभी बेकारी की समस्या जन्म नहीं लेती। वर्णानुसार कर्म का अधिकार तथा योग्यतानुसार कर्म का अवसर, वर्ण व्यवस्था की विशेषता बनी। यदि कोई शूद्र पहलवान, संगीतकार, प्रबन्धक आदि बनने की योग्यता रखता तो विकल्प खुले हुए थे। क्योंकि, भारतीय समाज में कर्म के अनुसार जातियां तो थीं। पर जातिवाद नहीं था। जातिवाद का जन्म अंग्रेजों की कुटिल राजनीति के कारण हुआ।
वर्ण-व्यवस्था में शिक्षा प्रायोगिक थी। इसमें लिखने-पढ़ने की आवश्यकता कम और समझने-करने की अधिक थी। पेशेगत योग्यता तो परिवार से मिल जाती थी। पर अन्य क्षेत्रों जैसे नृत्य-संगीत, शिल्प, वास्तु आदि में निपुणता के लिए तद्-तद् विषयों के गुरुओं के शिष्य बनकर शिक्षा लेनी पड़ती थी।
वर्ण व्यवस्था में शिक्षा की एक और विशेषता थी। इसमें हर व्यक्ति के अन्त:करण में अपने वर्णाश्रित कर्म के प्रति श्रद्धा एवं गर्व का भाव विकसित होता था। अर्थात् हर वर्ण का नागरिक अपने कर्म को आदरणीय एवं श्रेष्ठ समझता था। इसमें कर्म, मात्र उदरपूर्ति का माध्यम ही नहीं था वरन् आध्यात्मिक उन्नति का साधन भी था।
उपरोक्त विश्लेषण का यह निष्कर्ष निकला कि भारतीय शिक्षा में गुरु का स्थान सर्वोपरि था।
गुरु-शिष्य के बीच आत्मीय एवं भावनात्मक सम्बन्ध था। किसी भी विद्या की शिक्षा के लिये कोई निर्धारित शुल्क नहीं था। शिष्य गुरु-दक्षिणा अपनी सामर्थ्य के अनुसार देते थे। मानवीय चरित्र का विकास शिक्षा का प्रमुख प्रयोजन था। वर्णाश्रित कर्म के प्रति श्रद्धा, शिक्षा का प्रेरक तत्व था। विद्यार्थी जीवन में सात्विक आहार (शाकाहारी) अनिवार्य था।
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चरण स्पर्श की वैज्ञानिकता


चरण स्पर्श की वैज्ञानिकता :
विज्ञान में न्यूटन ने एक नियम का उल्लेख किया है कि इस भौतिक संसार में सभी वस्तुएँ "गुरूत्वाकर्षण" के नियम से बंधी हैं और गुरूत्व भार सदैव आकर्षित करने वाले की तरफ जाता है। हमारे शरीर में भी यही नियम है। सिर को उत्तरी ध्रुव और पैरों को दक्षिणी ध्रुव माना जाता है अर्थात् गुरूत्व ऊर्जा या चुंबकीय ऊर्जा या विद्युत चुंबकीय ऊर्जा (grantational force, magnetic or eleobomognetic force) सदैव उत्तरी ध्रुव से प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव की ओर प्रवाहित होकर अपना चक्र (cycle) पूरा करती है।
इसका आशय यह हुआ कि मनुष्य के शरीर में उत्तरी ध्रुव (सिर) से सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव (पैरों) की ओर प्रवाहित होती है और दक्षिणी ध्रुव पर यह ऊर्जा असीमित मात्रा मे स्थिर हो जाती है, यहाँ ऊर्जा का केंद्र बन जाता है, यही कारण है कि व्यक्ति हजारों मील चलने के पश्चात् भी चलने की इच्छा रखता है।
पैरों में संग्रहित इस ऊर्जा के कारण ही ऎसा हो पाता है। शरीर क्रिया विज्ञानियों ने यह सिद्ध कर लिया है कि हाथों और पैरों की अंगुलियों और अंगूठों के पोरों (अंतिम सिरा) में यह ऊर्जा सर्वाधिक रूप से विद्यमान रहती है तथा यहीं से आपूर्ति और मांग की प्रक्रिया पूर्ण होती है। पैरों से हाथों द्वारा इस ऊर्जा के ग्रहण करने की प्रक्रिया को ही हम "चरण स्पर्श" करना कहते हैं। यहां एक और महत्वपूर्ण प्राचीन परंपरा की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जाता है कि प्राचीनकाल में जब ऋषि, मुनि, योगी या संतजन किसी राज दरबार में आते थे तो राजा पहले शुद्ध जल से उनके चरण धोता (चरण पखारना) था, तत्पश्चात् चरण स्पर्श की परंपरा पूर्ण करता था।
चरण स्पर्श से पहले चरण धोने के पीछे संभवत: यह वैज्ञानिक कारण रहा होगा कि चरणों में एकत्रित विद्युत-चुंबकीय ऊर्जा चलकर आने से अत्यधिक तीव्रता से प्रवाहित है और गर्म है, धोने से यह सामान्य अवस्था में आ जाती है और जो व्यक्ति चलकर आता है, उसकी मानसिक और शारीरिक थकान/बेचैनी के कारण वह एकाएक शुभाशिर्वाद देने की स्थिति में नहीं होता है, जल से उसका संपर्क आने से वह भी सामान्य स्थिति में आ जाता है, अब चरण स्पर्श पूर्णत: सकारात्मक स्थिति में होगा। इन प्रयोगों को आज भी यदि किसी प्रकार से किया जाए तो व्यावहारिक परिणाम मिलते हैं, देखा जा सकता है। आज भी इस परंपरा (चरण धोना और चरण स्पर्श करना) का निर्वाह पूर्ण श्रद्धा के साथ किया जाता है।
यहां एक और भी वैज्ञानिक पहलू का उल्लेख करना उचित होगा कि यदि स्त्री पात्र, स्त्री का और पुरूष पात्र, पुरूष का चरण स्पर्श या चरण पखवारे तो परिणाम और भी अनुकूल मिलते हैं। लिंग भेद के इस रहस्य की विशद व्याख्या की आवश्यकता नहीं है, यह विज्ञान का ही नियम है कि xyy = y2 तथा yxy = y2 परंतु xxy = xy हो जाता है। ऊर्जा का द्विगुणित होना महत्वपूर्ण बात है अत: चरण स्पर्श की इस वैज्ञानिकता को परंपरा या रूढि़वादिता, अंध-विश्वास कहकर नकार देने मात्र से हमारा भला नहीं हो सकता। चरण स्पर्श की इस प्रक्रिया का उल्लेख करना भी समीचीन होगा। चरण स्पर्श करते समय यदि बायें हाथ से बायें पैर और दायें हाथ से दायें पैर का स्पर्श किया जाए तो सजातीय ऊर्जा का प्रवेश, सजातीय अंग से तेजी से और पूर्णरूप से होता है जबकि इसके विपरीत करने से ऊर्जा प्रवाह अवरोध या रूकावट के साथ होता है। एक और पहलू यह है कि जब व्यक्ति चरण स्पर्श करता है तो जिस व्यक्ति के चरण स्पर्श किए जाते हैं, उसके हाथ सहज ही चरण स्पर्श करने वाले व्यक्ति के सिर पर जाते हैं और उसके सहस्रार चक्र से स्पर्श होते हैं। सहस्रार चक्र में सक्रियता उत्पन्न होती है जिससे ज्ञान, बुद्धि और विवेक का विकास सहज ही होने लगता है।
अभिवादन की परंपराओं में नमस्कार से अधिक चरण स्पर्श मानी जाती है। हमने "चरणोदक" या "चरणामृत" का स्वाद चखा है। प्रत्येक मंदिर में चरणामृत प्रसाद के रूप में मिलता है जिसका आशय है कि अप्रत्यक्ष रूप से आपने परम पिता परमात्मा के चरण स्पर्श कर लिए हैं, उनके चरणों से नि:सृज जल आपके शरीर में चला गया है। चरण सेवा, चरण वंदना, चरण पखारन, चरण स्मृति का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है कि प्रत्येक भारतीय चरणामृत पूर्ण श्रद्धा के साथ ग्रहण करता है। चरणों से निकले या धोए हुए जल को अमृत की संज्ञा दी जाती है। अमृत वह तत्व है जो ऊर्जा, उत्साह, शक्ति और दीर्घायु प्रदान करता है।
चरणामृत की चर्चा के अंतर्गत यह भी प्रासंगिक होगा। चरणामृत को "अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशमन्" कहा गया है। इस चरणामृत में तुलसी पत्र, केशर, चंदन, कस्तूरी, गंगाजल आदि को मिलाकर ताम्रपात्र में रखा जाता है। ये सभी वस्तुएँ एवं ताम्रपात्र व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक हैं, कई अधिव्याधियों का नाश करती हैं अत: चरणामृत हमारे लिए अमृत का कार्य करता है। इन सभी कारणों से चरण स्पर्श की महिमा का मंडन हुआ है, भारत में रची-बसी परंपरा है।

सरस्वती नदी गुप्त क्यों हुई ?


सरस्वती नदी गुप्त क्यों हुई ?
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सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष दर्शनलाल जैन के मुताबिक सैटेलाइट चित्रों से प्राचीन सरस्वती नदी के ज़मीन के नीचे जलप्रवाह की जानकारी मिलती है। साथ ही यह भी पता चलता है कि यह सिंधु नदी से भी ज्यादा बड़ी और तीव्रगामी थी। चेन्नई स्थित सरस्वती सिंधु शोध संस्थान के अधिकारियों के मुताबिक इस दिशा में पहली परियोजना हरियाणा के यमुनानगर जिले में सरस्वती के उद्गम माने जाने वाले आदिबद्री से पिहोवा तक उस प्राचीन धारा के मार्ग की खोज है। दूसरी परियोजना का संबंध भाखड़ा की मुख्य नहर के जल को पिहोवा तक पहुंचाना है। इसके लिए कैलाश शिखर पर स्थित मान सरोवर से आने वाली सतलुज जलधारा का इस्तेमाल किया जाएगा। सर्वे ऑफ इंडिया के मानचित्रों में आदिबद्री से पिहोवा तक के नदी मार्ग को सरस्वती मार्ग दर्शाया गया है। तीसरी परियोजना सरस्वती नदी के प्राचीन जलमार्ग को खोलने और भू-जल स्त्रोतों का पता लगाना है।तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी ) राजस्थान के थार रेगिस्तान में सरस्वती नदी की खोज का काम कर रहा है। निगम के अधिकारियों का कहना है कि सरस्वती की खोज के लिए पहले भी कई संस्थाओं ने काम किया है और कई स्थानों पर खुदाई भी की गई है, लेकिन 250 मीटर से ज्यादा गहरी खुदाई नहीं की गई थी। निगम जलमार्ग की खोज के लिए कम से कम एक हजार मीटर तक खुदाई करने पर जोर दे रहा है। दुनिया के अन्य हिस्सों में रेगिस्तान में एक हजार मीटर से भी ज्यादा नीचे स्वच्छ जल के स्त्रोत मिले हैं

पूर्व केन्द्रीय संस्कृति और पर्यटन मंत्री जगमोहन ने राजग सरकार के कार्यकाल में सरस्वती नदी के प्रवाह मार्ग की खुदाई और सिंधु-सरस्वती सभ्यता के अनुसंधान की एक महत्वपूर्ण परियोजना शुरु की थी। लेकिन संप्रग सरकार के सत्ता में आने के बाद उसे "भाजपा का गुप्त एजेंडा" कहकर रोक दिया गया।आज तक किसी बड़ी नदी के अचानक विलुप्त होने के बारे में नहीं सूना सिवाय सरस्वती नदी के . इसके पीछे अवश्य ही कोई बड़ा कारण रहा होगा . कहते है इसके विलुप्त होने से ही राजस्थान मरुस्थल बना .जैसलमेर के अत्यंत रेगिस्तानी क्षेत्र में सरस्वती नदी का छूटा प्रवाह क्षेत्र खोजा गया है। रेगिस्तान के सुदूर पश्चिमी भाग में जलोढ़ मिट्टी पाए जाने के पीछे सरस्वती नदी का योगदान है और रेगिस्तान के पश्चिमी भाग में सतह के नीचे का पानी सरस्वती के पुराने प्रवाह के कारण है। ईसा पूर्व 4-5 सहस्राब्दि में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान सरस्वती के कारण कहीं ज्यादा हरा-भरा था।11 मई 1998 को परमाणु परीक्षण के बाद भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र ने विस्फोटों का प्रभाव मापने के लिए कई परीक्षण उस क्षेत्र के जल में किए थे। ये परीक्षण बताते थे कि इस क्षेत्र में पानी 8 हजार से 14 हजार साल पुराना और पीने योग्य था। यह हिमालय के ग्लेशियरों से आया था और बारिश की कमी के बावजूद उत्तर में कहीं से इसमें जल आता रहता था। ये खोजें "लुप्त" सरस्वती के बारे में उपरोक्त मतों को बल प्रदान करती हैं। इससे अलग, बहुउद्देशीय अध्ययन के अंतर्गत केंद्रीय भूमि जल आयोग ने सूखी नदी सतह के साथ-साथ कई कुएं खोदे। खोदे गए 24 कुओं में से 23 में पीने योग्य पानी मिला।
सरस्वती एक विशाल नदी थी। पहाड़ों को तोड़ती हुई निकलती थी और मैदानों से होती हुई समुद्र में जाकर विलीन हो जाती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में बार-बार आता है। कई मंडलों में इसका वर्णन है। ऋग्वेद वैदिक काल में इसमें हमेशा जल रहता था। सरस्वती आज की गंगा की तरह उस समय की विशाल नदियों में से एक थी। उत्तर वैदिक काल और महाभारत काल में यह नदी बहुत कुछ सूख चुकी थी। ऋषि यहां तक कहते हैं कि अब तो उसमें मछली भी जीवित नहीं रह सकती। तब सरस्वती नदी में पानी बहुत कम था। लेकिन बरसात के मौसम में इसमें पानी आ जाता था। तो ऋग्वैदिक काल, उत्तर वैदिक काल और महाभारत काल में प्रमाण मिलते हैं कि एक नदी, जो सदानीरा थी, धीरे-धीरे विलुप्त हो गई।
महाभारत में मिले वर्णन के अनुसार सरस्वती हरियाणा में यमुनानगर से थोड़ा ऊपर और शिवालिक पहाड़ियों से थोड़ा सा नीचे आदि बद्री नामक स्थान से निकलती थी। आज भी लोग इस स्थान को तीर्थस्थल के रूप में मानते हैं और वहां जाते हैं। किन्तु आज आदि बद्री नामक स्थान से बहने वाली नदी बहुत दूर तक नहीं जाती एक पतली धारा की तरह जगह-जगह दिखाई देने वाली इस नदी को लोग सरस्वती कह देते हैं। वैदिक और महाभारत कालीन वर्णन के अनुसार इसी नदी के किनारे ब्रह्मावर्त था, कुरुक्षेत्र था, लेकिन आज वहां जलाशय हैं। अब प्रश्न उठता है कि ये जलाशय क्या हैं, क्यों हैं? उन जलाशयों में भी पानी नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो किसी नदी के सूखने की प्रक्रिया एक दिन में तो होती नहीं, यह कोई घटना नहीं एक प्रक्रिया है, जिसमें सैकड़ों वर्ष लगते हैं। जब नदी सूखती है तो जहां-जहां पानी गहरा होता है, वहां-वहां तालाब या झीलें रह जाती हैं। ये तालाब और झीलें अर्ध्दचन्द्राकार शक्ल में पायी जाती हैं। आज भी कुरुक्षेत्र में ब्रह्मसरोवर या पेहवा में इस प्रकार के अर्ध्दचन्द्राकार सरोवर देखने को मिलते हैं, लेकिन ये भी सूख गए हैं। लेकिन ये सरोवर प्रमाण हैं कि उस स्थान पर कभी कोई विशाल नदी बहती थी और उसके सूखने के बाद वहां विशाल झीलें बन गयीं। यदि वहां से नदी नहीं बहती थी तो इतनी बड़ी झीलें वहां कैसे होतीं? इन झीलों की स्थिति यही दर्शाती है कि किसी समय यहां विशाल नदी बहती थी।
तमाम वैज्ञानिक और भूगर्भीय खोजों से पता चला है कि किसी समय इस क्षेत्र में भीषण भूकम्प आए, जिसके कारण जमीन के नीचे के पहाड़ ऊपर उठ गए और सरस्वती नदी का जल पीछे की ओर चला गया। वैदिक काल में एक और नदी का जिक्र आता है, वह नदी थी दृषद्वती। यह सरस्वती की, सहायक नदी थी। यह भी हरियाणा से होकर बहती थी। कालांतर में जब भीषण भूकम्प आए और हरियाणा तथा राजस्थान की धरती के नीचे पहाड़ ऊपर उठे, तो नदियों के बहाव की दिशा बदल गई। और दृषद्वती नदी, जो सरस्वती नदी की सहायक नदी थी, उत्तर और पूर्व की ओर बहने लगी। इसी दृषद्वती को अब यमुना कहा जाता है, इसका इतिहास 4,000 वर्ष पूर्व माना जाता है। यमुना पहले चम्बल की सहायक नदी थी। बहुत बाद में यह इलाहाबाद में गंगा से जाकर मिली। यही वह काल था जब सरस्वती का जल भी यमुना में मिल गया। ऋग्वेद काल में सरस्वती समुद्र में गिरती थी। प्रयाग में सरस्वती कभी नहीं पहुंची। भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया। इसलिए यमुना में यमुना के साथ सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम माना गया जबकि यथार्थ में वहां तीन नदियों का संगम नहीं है। वहां केवल दो नदियां हैं। सरस्वती कभी भी इलाहाबाद तक नहीं पहुंची।
इससे भी पौराणिक मान्यता यही जुड़ी है कि जब सरस्वती के रास्ता देने से इंकार करने पर भीम ने गुस्से से जमीन पर अपनी गदा से प्रहार किया तो, नदी पाताल लोक में चली गई।

वैदिक धर्म ग्रन्थों के अनुसार धरती पर नदियों की कहानी सरस्वती से शुरू होती है । सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती सर्वप्रथम पुष्कर में ब्रह्‍म सरोवर से प्रकट हुई, पितामहस्य सरसः प्रवृतासि- सरस्वती । सरोवर से प्रकट होने के कारण महात्माओं ने प्रकृति के इस रूप को सरस्वती कहा । प्रजापति ब्रह्‍मा ने लोक कल्याण हेतु पुष्कर में प्रथम यज्ञ करते हुए सरस्वती का आवाहन किया था, “पितामहेन यजता आह्‍वता पुष्करेषु वै” । भगवान्‌ ब्रह्‍मा जी के आवाहन करने पर सरस्वती “सुप्रभा” नाम से प्रकट हुईं । तपोबल संपन्‍न महात्माओं के द्वारा भी विभिन्‍न अवसरों पर सरस्वती का आवाहन किया गया । नैमिषारण्य में यज्ञ करते हुए मुनि-महात्माओं के द्वारा आवाहन करने पर सरस्वती “कांचनाक्षी” नाम से प्रकट हुईं । ब्रहमर्शि उद्दालक के द्वारा यज्ञ करते हुए आवाहन करने पर सरस्वती “मनोरमा” नाम से प्रकट हुईं । गंगाद्वार में दक्ष प्रजापति के द्वारा आवाहन करने पर “सुरेणु” , कुरूक्षेत्र ब्रह्‍मर्षि वशिष्ठ के द्वारा आवाहन करने पर “ओधवती” नाम से सरस्वती प्रकट हुईं । भगवान ब्रह्‍मा जी के द्वारा हिमालय पर पुनः यज्ञ करते समय सरस्वती का आवाहन करने पर “विमलोदका” नाम से सरस्वती प्रकट हुईं । सरस्वती की सातवीं धारा सिन्धुमाता है|इस तरह सरस्वती सात धाराओं में इस धरती पर उतरीं ।सरस्वती की सात धाराएं जहाँ से एक होकर हिमालय से उस स्थान को “सौगन्धिक वन” कहा गया है । उस सौगन्धिक वन में “प्लक्षस्रवण” नामक तीर्थ है जो सरस्वती तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है ।
उतथ्य मुनि कीपत्‍नी का वरूण देवता ने अपहरण कर लिया था । जल देवता को नष्ट करने के लिए उन्होंने समुद्र को ही सुखाना प्रारंभ कर दिया । पृथ्वी से एक भयंकर वैद्युतिक ऊर्जा को ग्रहण कर उतथ्य मुनि ने समुद्र को सुखाकर रेगिस्तान कर दिया जहाँ कल-कल करती हुई सरस्वती समुद्र से मिलती थी । अतिक्रोध करते हुए उतथ्यमुनि ने सरस्वती से कहा-तुम इस देश में विलीन होकर धरती के गर्भ में समा जाओ । जल देवता वरूण से भारी बैर के चलते ही सरस्वती भूगर्भित हो गईं । उतथ्य एवं वरूण के कटु संबंधों के कारण अदृश्य हुई सरस्वती एक वृक्ष से रीसने लगी । उतथ्य मुनि के शाप से भूगर्भित होकर सरस्वती “मेरा पृष्टा” हो गई और पर्वतों पर ही बहने लगीं । सरस्वती पश्‍चिम से पूरब की ओर बहती हुई सुदूर पूर्व नैमिषारण्य पहुँची ।अपनी सात धाराओं के साथ सरस्वती कुंज पहुँचने के कारण नैमिषारण्य का वह क्षेत्र “सप्त सारस्वत” कहलाया । सप्त सारस्वत क्षेत्र में मुनियों के एक दल द्वारा पुनः सरस्वती का आवाहन किया गया । मुनियों के आवाहन करने पर सरस्वती अरूणा नाम से प्रकट हुई । अरूणा सरस्वती की आठवीं धारा बनकर धरती पर उतरीं । अरूणा प्रकट होकर कौशिकी ( आज की कोसी नदी )से मिल गई ।
सरस्वती पथ
सरस्वती नदी भारत की वर्तमान नदियों सतलज और साबरमती का संयुक्त रूप थी. सतलज तिब्बत से निकलती है और साबरमती गुजरात के बाद खम्भात की खादी में गिरती है. इस नदी की धारा को पजाब के लुधियाना नगर से उत्तर-पश्चिम में लगभग ६ किलोमीटर दूर स्थित सिधवान नामक स्थान पर मोड़ देकर बिआस नदी में मिला दिया गया जिससे आगे की धारा सूख गयी.

यह धारा आगे चलकर चम्बल नदी की शाखा नदी बनास से पुष्ट होती है और वहीं अरावली पहाड़ियों से अब साबरमती नदी का आरम्भ माना जाता है.मूल धारा तिब्बत से आरम्भ होकर हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरयाणा, राजस्थान और गुजरात होती हुई अरब सागर में खम्भात की खाड़ी में गिरती थी जो अब सतलज तट पर सिधवान तथा साबरमती के वर्तमान उद्गम स्थल के मध्य सूख चुकी है. यह नदी सिधवान से जगराओं होती हुई हरियाणा के सिरसा पहुँचती थी, जहां से यह नोहर, सरदार शहर के पश्चिम से होती हुई श्री डूंगर गढ़ होकर राजस्थान के अलवर जनपद में प्रवेश करती थी. राजस्थान के अलवर जनपद के पराशर आश्रम, जयपुर के पास उत्तर में आम्बेर के पास से होती हुई साम्भर झील पहुँचती थी जहां से अजमेर पूर्व से होती हुई देवगढ होकर साबरमती के उद्गम क्षेत्र में पहुँचती थी. इस क्षेत्र की टोपोग्राफी से इस नदी का मार्ग स्पष्ट हो जाता है जहां की भूमि का तल अभी भी कुछ नीचा है.
पीछे से जल का आगमन बंद होने पर साम्भर क्षेत्र का तल न्यून होने के कारण वहां समुद्र का जल भरा रहने लगा जिससे वहां का भू जल खारा हो गया. कालांतर में इस क्षेत्र का सम्बन्ध समुद्र से कट गया और साम्भर में खारे पानी की झील बन गयी. आज इस क्षेत्र में नमक की खेती होती है, तथा शुद्ध पेय जल कहीं-कहीं ही पाया जाता है.
प्राचीन विश्व की एक बहुत महत्वपूर्ण सभ्यता के विभिन्न पहलुओं को खोजने के लिए अभी काफी काम किए जाने की जरूरत है। हरियाणा में आदि बद्री से लेकर गुजरात में धौलावीरा तक आज विलुप्त सरस्वती घाटी में सैकड़ों स्थलों की खुदाई किए जाने की जरूरत है। यह महत्वपूर्ण है और ये विशेष परियोजना इसी उद्देश्य की पूर्ति करने वाली है।

रविवार, जून 24, 2012

Govt sponsored loot of Hindu Temples Foreign writer opens our eyes


Govt sponsored loot of Hindu Temples Foreign writer opens our eyes

Dr Kailash Chandra 
The Hindu Religious and Charitable Endowment Act of 1951 allows the State Governments to take over Hindu Temples and maintain complete control over their properties. It is claimed that they can sell the temple assets and properties and use the money in any way they choose. 
A charge has been made by a foreign writer, Stephen Knapp, in a book, Crimes Against India and the Need to Protect Ancient Vedic Tradition published in the United States and it makes shocking reading. 
Hundreds of temples in centuries past have been built in India by devout rulers and the donations given by devotees have been used for the benefit of the (other) people. This letter is what has been happening currently under an intrusive law. 
It would seem, for instance, that under a Temple Empowerment Act, about 43,000 temples in Andhra Pradesh have come under government control and only 18 per cent of the revenue of these temples have been returned for temple purposes, the remaining 82 per cent being used for purposes unstated. 
Even the world famous Tirupati Tirumala Temple has not been spared. According to Knapp, the temple collects over Rs 3,100 crore every year. The author tells that as much as 85 per cent of this is transferred to the State Exchequer, much of which goes to causes that are not connected with the Hindu community. Was it for that reason that devotees make their offerings to the temples? 
Another charge that has been made is that the Andhra Government has also allowed the demolition of at least ten temples for the construction of a golf course. Imagine the outcry, writes Knapp, if ten mosques had been demolished. 
It would seem that in Karanataka, Rs 79 crore were collected from about two lakh temples and from that amount temples received only Rs seven crores for their maintenance. Muslim madrassas and Haj subsidy of Rs 59 crore and churches about Rs 13 crore were given. Because of this, Knapp writes, 25 per cent of the two lakh temples or about 50,000 temples in Karnataka will be closed down for lack of resources, and he adds: The government continues to do this is because people have not stood up to stop it. 
Knapp then refers to Kerala where, funds from the Guruvayur Temple are diverted to other government projects denying improvement to 45 Hindu temples. Land belonging to the Ayyappa Temple, apparently has been grabbed and church encroaches are occupying huge areas of forest land, running into thousands of acres, near Sabarimala. 
And to top it all, Knapp says that in Orissa, the state government intends to sell over 70,000 acres of endowment lands from the Jagannath Temple, the proceeds of which would solve a huge financial crunch brought about by its own mismanagement. 
Says Knapp: Why such occurrences are so often not known is that the Indian media, especially the English television and press, are often anti-Hindu in their approach, and thus not inclined to give much coverage, and certainly no sympathy, for anything that may affect the Hindu community. Therefore, such government actions that play against the Hindu community go on without any attention attracted to them. 
Says Knapp: Nowhere in the free, democratic world are the religious institutions managed, maligned and controlled by the government, thus denying the religious freedom to the people of the country. But it is happening in India. Government officials have taken control of Hindu temples because they recognise the indifference of Hindus, they are aware of the unlimited patience and tolerance of Hindus. 
Many Hindus are sitting and watching the demise of their culture. They need to express their views loud and clear. It is time someone asked the Government to lay down all the facts on the table so that the public would know what is happening behind its back. Temples are not for looting under any name. 
(The writer can be contacted at  drkailashchandra@rediffmail.com)

शुक्रवार, जून 22, 2012

चंपारण में बनेगा दुनिया का सबसे बड़ा राम मंदिर

पटना।। बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के केसरिया ब्लॉक में महावीर मंदिर ट्रस्ट की ओर से बनने वाले दुनिया के सबसे बड़े राम मंदिर का भूमि पूजन गुरुवार को संपन्न हो गया।

ट्रस्ट के अध्यक्ष आचार्य किशोर कुणाल ने बताया कि केसरिया से पांच किलोमीटर दूर चकिया मार्ग पर 100 एकड़ क्षेत्र में इस मंदिर का निर्माण होगा। बहुआरा कठवलिया गांव में 200 करोड़ रुपए खर्च कर भूखंड का अधिग्रहण किया गया है। उन्होंने बताया कि विधि-विधान से बनारस से आए पांच और पटना के तीन पुरोहितों ने भूमि पूजन अनुष्ठान संपन्न कराया। इस अवसर पर मंदिर के ट्रस्टी और अन्य सदस्य मौजूद थे।

आचार्य कुणाल ने बताया कि मंदिर की वास्तुकला कंबोडिया के अंकोरवाट मंदिर और तमिलनाडु के मदुरै मंदिर से प्रेरित होगी। प्रस्तावित मंदिर दुनिया का सबसे बड़ा राम मंदिर होगा। इसमें 18 शिखर और 18 गर्भगृह होंगे। 2800 फुट लंबा और 1500 फुट चौड़ा होगा, जबकि इसकी ऊंचाई 270 फुट होगी। इस राम मंदिर का नाम 'विराट रामायण मंदिर' होगा और इसमें राम, सीता, लव-कुश तथा महर्षि वाल्मीकि की प्रतिमाएं स्थापित होंगी।

मंदिर के वास्तुविद् पीयूष सोमपुरा हैं। सोमपुरा के अनुसार, मंदिर परियोजना का खर्च करीब 300 करोड़ रुपए है और सात से आठ साल की अवधि में पूरा होगा। मंदिर ट्रस्ट ने पहले विराट रामायण मंदिर का निर्माण वैशाली जिले में करने का निर्णय किया था, लेकिन विवाद के कारण इसका निर्माण अब पूर्वी चंपारण जिले में किया जा रहा है। महावीर मंदिर ट्रस्ट द्वारा संचालित पटना का महावीर मंदिर दान और भेंट के कारण पूर्वी भारत के सबसे अधिक आय वाले मंदिरों में शुमार है। मंदिर द्वारा कल्याणकारी कार्य के तहत एक चैरिटेबल अस्पताल और स्कूल का संचालन किया जाता है।

पानी को बोतल में बंद करने की साजिश.............

पानी को बोतल में बंद करने की साजिश............. :(
उदारीकरण ने भले ही मोबाइल-बाइक को घर-घर तक पहुंचाया, लेकिन महज दो दशकों में ही इसने लाखों कुओं और बावडि़यों को इतिहास के पन्नों में दफन कर दिया। इसी का नतीजा है कि कभी विलासिता की सामग्री समझी जाने वाली पानी की बोतल अब गुमटी से लेकर झुग्गी-झोपड़ी तक में अपनी पहुंच बना चुकी है। यह बोतलबंद पानी भारत के बारे में प्रचलित कहावत कोस-कोस पर बदले पानी, चार-कोस पर बदले बानी को झुठला रहा है। कभी हर जगह मुफ्त में मिलने वाला पानी आज कारोबार का रूप ले चुका है तो इसके लिए बढ़ती बीमारियों, जल प्रदूषण, शहरीकरण के साथ-साथ रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, पर्यटन केंद्रों आदि पर दुर्लभ होता पानी भी जिम्मेदार है। सबसे बड़ी समस्या है पानी की गुणवत्ता में आ रही तेज गिरावट। एक अध्ययन के मुताबिक, भारत पानी की गुणवत्ता के मामले में 122 देशों में से 120वें स्थान पर है।
निजी कंपनियां बेइमानी का खेल खेलते हुए मुफ्त में मिलने वाले पानी को बेचकर अकूत मुनाफा कमा रही हैं। इसके लिए देश की नीतियां भी जिम्मेदार हैं, जिसके तहत जमीन पर अधिकार रखने वाले को भूजल दोहन का अधिकार स्वत: मिल जाता है। इसका मतलब है कि यदि कोई व्यक्ति एक वर्ग मीटर जमीन खरीदता है तो वह उसके नीचे मिलने वाले समस्त पानी का दोहन कर सकता है। इसी कानून का लाभ कंपनियां उठा रही हैं। उदाहरण के लिए जयपुर के समीप काला डेरा स्थित कोका कोला प्लांट को जमीन खरीदते ही मुफ्त में पानी मिल गया। बस, उसे प्रदूषित पानी बहाने के लिए राजस्थान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को कुछ पैसे देने थे। यह दर भी नाम मात्र की थी यानी 14 पैसे प्रति हजार लीटर।कोका कोला के वाराणसी के निकट मेहदीगंज स्थित प्लांट का ग्रामीण विरोध कर रहे हैं, क्योंकि इससे आसपास का भूजल नीचे गिरता जा रहा है। देखा जाए तो बोतलबंद पानी की सफलता नल के पानी को बदनाम करने की साजिश में निहित है। जैसे-जैसे यह साजिश परवान चढ़ रही है, बोतलबंद पानी की खपत बढ़ती जा रही है।
शुद्धता और स्वच्छता के नाम पर बोतलों में भरकर बेचा जा रहा पानी भी सेहत के लिए किसी भी दृष्टि से खरा नहीं उतरता है। यह बात कई अध्ययनों में उभरकर सामने आई है। अमेरिका की एक संस्था नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउंसिल ने अपने अध्ययन के आधार पर यह नतीजा निकाला है कि बोतलबंद पानी और नल के पानी में कोई खास फर्क नहीं है। मिनरल वाटर के नाम पर बेचे जाने वाले बोतलबंद पानी की बोतलों को बनाने के दौरान एक खास रसायन पैथलेट्स का इस्तेमाल किया जाता है, जिसकी वजह से प्रजनन क्षमता पर नकारात्मक असर पड़ता है। यह रसायन उस वक्त बोतल के पानी में घुलने लगता है, जब बोतल सामान्य से थोड़ा अधिक तापमान पर रखा जाता है। ऐसी स्थिति में बोतल में से खतरनाक रसायन पानी मिलते हैं और उसे जहरीला बनाने का काम करते हैं। इसी प्रकार बोतल बनाने में एंटीमनी नामक रसायन का भी इस्तेमाल किया जाता है। विशेषज्ञों के मुताबिक, बोतलबंद पानी जितना पुराना होता जाता है, उसमें एंटीमनी की मात्रा उतनी ही बढ़ती जाती है। यदि यह रसायन किसी व्यक्ति के शरीर में जाता है तो उसे जी मिचलाने, उल्टी और डायरिया जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। सेहत का बंटाधार करने के साथ-साथ बोतलबंद पानी पर्यावरण का भी दुश्मन है। पानी की बोतल बनाने के लिए सामान्यत: पॉलिथिलीन टेरेफ्थलेट (पीईटी) का इस्तेमाल किया जाता है, जो कच्चे तेल से मिलता है। अकेले अमेरिका में पानी की बोतल बनाने के लिए 17 करोड़ बैरल तेल की खपत होती है। यह तेल 10 लाख कारों को साल भर चलाने के लिए पर्याप्त है। तेल खपत के अलावा हर साल अरबों बोतल जमींदोज होकर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती हैं, क्योंकि 20 फीसदी बोतलें ही रिसाइकिल हो पाती हैं। बाकी 80 फीसद समुद्र, नदी, कचराघर आदि में ठिकाना पाती हैं।
बोतलबंद पानी के बढ़ते आधिपत्य को देखते हुए यही लगता है कि यदि इस पर लगाम न लगाई गई तो आज जो दशा तेल की है, वही भविष्य में पानी की होगी। आज कच्चे तेल के उत्खनन-परिष्करण से लेकर उसकी बिक्री तक पर बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां आधिपत्य जमा चुकी हैं। ये कंपनियां अकूत मुनाफा कमा रही हैं और संबंधित देशों के हिस्से उसका अल्पांश ही आ रहा है। स्पष्ट है, अगर हम अब भी नहीं चेते तो बहुत देर हो जाएगी।



 

बुधवार, जून 20, 2012

हिन्दु बहुसँख्यक कैसे हो रहे है अल्पसँख्यक क्या आप जानते है

हिन्दु बहुसँख्यक कैसे हो रहे है अल्पसँख्यक
क्या आप जानते है

पूर्वोत्तर में “शांति स्थापित करने के प्रयासों” के लिए गुवाहाटी के आर्चबिशप थॉमस मेनमपरामपिल को एक लोकप्रिय “इटालियन मैग्जीन” “बोलेटिनो सेल्सिआनो” ने नोबल शांति पुरस्कार के लिए “नामांकित” किया था और इनके लिए ४ पेज का एक आर्टिकल भी लिखा था जिसका शीर्षक था ’A Bishop for Nobel Prize’। पत्रिका में बताया गया था कि उन्होंने पूर्वोत्तर में विभिन्न जातीय समुदायों के बीच शांतिबनाए रखने के लिए कई बार पहल की।

उल्लेखनीय है कि कोई पत्रिका कभी नोबल पुरस्कार के उम्मीदवार नहींचुनती । खबर में जानबूझकर “नामांकित” शब्द का उपयोग किया गया था ताकि भ्रम फ़ैलाया जा सके। इन आर्चबिशप महोदय ने पूर्वोत्तर के किन जातीय समुदायों में अशांति हटाने की कोशिश की इसकी कोई तफ़सील नहीं दी गई (यह बताने का तोसवाल ही नहीं उठता कि इन आर्चबिशप महोदय ने कितने धर्मान्तरण करवाए)।

ध्यान रहे कि आज़ादी के समय मिज़ोरम, मेघालय और नागालैंड की आबादी हिन्दू बहुल थी, जो कि अब 60 साल में ईसाई बहुसंख्यक बन चुकी है और हिन्दू वह अल्पसंख्यक बन कर रह गए हैं। ज़ाहिर है कि “इटली” की किसी पत्रिका की ऐसी ‘फ़र्जी अनुशंसा’ उस क्षेत्र में धर्मांतरण के गोरखधंधे में लगे चर्च के पक्ष में हवा बांधने और देश के अन्य हिस्सों में सहानुभूति प्राप्त करने की भद्दी कोशिश ही है पर इसके परिणाम दूरगामी और भयावह होने वाले हैं या होंगे।

इस पुरस्कार की खुशी में आर्चबिशप महोदय ये बोल गए की ROME जहा वह मई २०११ में गए थे उस वक़्त ये बात उनको कही गई थी की ऐसा कुछ हो सकता है। अब यहाँ एक और सवाल उठता है की आखिर ROME को भारत के आर्चबिशप में ऐसी क्या बात दिखी की वो इनको पुरस्कार देने के पीछे पड़ गए पर वही अगर कोई हिन्दू सन्यासी अपने धर्म की बात करता है तो सेकुलर कीड़े उसको जाहिल, गंवार और देशद्रोही तक बना देते हैं। पर क्यों?
इससे पहले भी मदर टेरेसा को शांति का नोबल और “संत” की उपाधि से नवाज़ा जा चुका है, बिनायक सेन को कोरिया का “शांति पुरस्कार” दिया गया, अब इन आर्चबिशप महोदय का नामांकन भी कर दिया गया है…। मैगसेसे हो, नोबल हो याकोई अन्य शांति पुरस्कार हो… इनके कर्ताधर्ताओं के अनुसार सिर्फ़ “सेकुलर” व्यक्ति ही “सेवा” और “शांति” के लिए काम करते हैं, एक भी हिन्दू धर्माचार्य, हिन्दू संगठन, हिन्दू स्वयंसेवी संस्थाएं कुछ कामधाम ही नहीं करतीं। असली पेंच यहीं पर है, कि धर्मान्तरण के लिये विश्व भर में काम करने वाले “अपनेकर्मठ कार्यकर्ताओं” को पुरस्कार के रूप में “सुपारी” और “मेहनताना” पहुँचाने के लिये ही इन पुरस्कारों का गठन किया जाता है, जब “कार्यकर्ता” अपना काम करके दिखाता है, तो उसे पहले मीडिया के जरिये “चढ़ाया” जाता है, “हीरो” बनायाजाता है, और मौका पाते ही “पुरस्कार” दे दिया जाता है, तात्पर्य यह कि इस प्रकार के सभी पुरस्कार एक बड़े मिशनरी अन्तर्राष्ट्रीय षडयन्त्र के तहत ही दिये जाते हैं… इन्हें अधिक “सम्मान” से देखने या “भाव” देने की कोई जरुरत नहीं है। मीडिया तो इन व्यक्तियों और पुरस्कारों का “गुणगान” करेगा ही, क्योंकि विभिन्न NGOs के जरिये बड़े मीडिया हाउसों में चर्च का ही पैसा लगा हुआ है।
अब अगर मै १९९१ तक के सूरते हाल पर बातकरू तो मुझे कुछ ऐसा दीखता है भारत का परिदृश्य धर्म के अधर पर-यहाँ इस गणना में साफ-साफ दिख रहा है की क्रिस्चियन की संख्या भारत में १९,६५१,००० रही। पर वही अगर मै मौजूदा सूरते हाल देखता हु वो भी २००१ इस टेबल से १० साल बाद की तो मुझे कुछ ही और दिखाई देता है।
जो राज्य कभी हिन्दू और मुस्लमान बहुल हुआ करते थे वो राज्य अब ईसाई बहुल कैसे हो गए? ऐसी कौन सी जड़ी बूटी पिलाई गई की १० सालो में ही वो राज्य ईसाई बन गए और हमें कानो कान कोई खबर नहीं हुई। आज भी इन राज्यों में धर्मान्तरण जारी है पर इन राज्यों की शायद ही कोई खबर हम तक मीडिया के द्वारा पहुचाई जाती है।
“द विन्ची कोड” जो की पुरे विश्व में चली कही उस पर कोई केस दर्ज नहीं हुआ लेकिन भारत में कैथोलिक ईसाई पादरियों ने इस पर केस दर्ज किया इसे बैन करने के लिए भारत में। कैथोलिक इसाइयो की बात करे तो इनको सबसे ज्यादाइनको ही धर्मपरिवर्तन करने की पड़ी रहती है और सबसे ज्यादा बर्बर ये रहे हैं लेकिन यहाँ भारत में धर्म परिवर्तन करने में लगे हुए हैं।
किसी भी जगह पर एक भी परिवार भले वो गरीब हो अगर ईसाई बन जाता है तो तुरंत किसी जमीन को अधिगृहित करके उस पर एक भव्य चर्च का निर्माण किया जाता है। उस गरीब के पास तो इतना पैसा नहीं होता की वो अपनी रोटी ला सके फिर ये चर्च कैसे बन जाता है वहा।
कुछ जगहों पर ऐसा भी पाया गया है की अगर वहा के स्थानीय लोग अगर भूमि अधिग्रहण का विरोध करते हैं तो सीधा उस मिसनरी से सम्बंधित देश के सर्वोच्च पदासीन पदाधिकारी चाहे वो वहा का प्रधानमंत्री हो या राष्ट्रपति उसका फ़ोन आता है उस राज्य के मुख्या मंत्री के पास और मुख्या मंत्री से उस जिले के DM के पास ताकि उसी भूमि का अधिग्रहण हो और वहा चर्च बने।
अब मै एक और न्यूज़ को आपके संज्ञान में लाना चाहूँगा-
एक वेबसाइट हैं http://www.dalitnetwork.org/ जो की एक अमेरिकी ईसाई की मिशनरी है जो २००२ में USA में बनी और इसके प्रेसिडेंट का नाम है DR. JOSEPH D’SOUZAजो की भारत के क्रिस्चियन कॉउन्सिल के भी प्रेसिडेंट हैं| ये हैं तो एक ईसाई पर इनको चिंता है दलितों की। ऐसा क्या दिखा इस ईसाई को दलितों में। क्यों ये दलित फ्रीडम नेटवर्क चला रहा है एक ईसाई हो कर भी इसका मतलब साफ़ है की ये धर्मान्तरण कर रहा है
और आपकी सोनिया का हाथ पुरी तरह इनके साथ है .........||

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रविवार, जून 10, 2012

सावन के महीने में शिवलिंग पर दूध चढाने का वैज्ञानिक महत्व--



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---सावन के महीने में शिवलिंग पर दूध चढाने का वैज्ञानिक महत्व--
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यहाँ दो पात्र हैं : एक है भारतीय और एक है इंडियन ! आइए देखते हैं दोनों क्या बतिया रहे हैं :

इंडियन : ये सावन के महीनो में पर जो तुम इतना दूध चढाते हो शिवलिंग पर, इस से अच्छा तो ये हो कि ये दूध जो बहकर नालियों में बर्बाद हो जाता है, उसकी बजाए गरीबों मे बाँट दिया जाना चाहिए ! तुम्हारे शिव जी से ज्यादा उस दूध की जरुरत देश के गरीब लोगों को है. दूध बर्बा...द करने की ये कैसी आस्था है ?

भारतीय : सीता को ही हमेशा अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है, कभी रावण पर प्रश्न चिन्ह क्यूँ नहीं लगाते तुम ?

इंडियन : देखा ! अब अपने दाग दिखने लगे तो दूसरों पर ऊँगली उठा रहे हो ! जब अपने बचाव मे कोई उत्तर नहीं होता, तभी लोग दूसरों को दोष देते हैं. सीधे-सीधे क्यूँ नहीं मान लेते कि ये दूध चढाना और नालियों मे बहा देना एक बेवकूफी से ज्यादा कुछ नहीं है !

भारतीय : अगर मैं आपको सिद्ध कर दूँ की सावन के महीनो शिवलिंग पर दूध चढाना बेवकूफी नहीं समझदारी है तो ?

इंडियन : हाँ बताओ कैसे ? अब ये मत कह देना कि फलां वेद मे ऐसा लिखा है इसलिए हम ऐसा ही करेंगे, मुझे वैज्ञानिक तर्क चाहिएं.

भारतीय : ओ अच्छा, तो आप विज्ञान भी जानते हैं ? कितना पढ़े हैं आप ?

इंडियन : जी, मैं ज्यादा तो नहीं लेकिन काफी कुछ जानता हूँ, एम् टेक किया है, नौकरी करता हूँ. और मैं अंध विशवास मे बिलकुल भी विशवास नहीं करता, लेकिन भगवान को मानता हूँ.

भारतीय : आप भगवान को मानते तो हैं लेकिन भगवान के बारे में जानते नहीं कुछ भी. अगर जानते होते, तो ऐसा प्रश्न ही न करते ! आप ये तो जानते ही होंगे कि हम लोग त्रिदेवों को मुख्य रूप से मानते हैं : ब्रह्मा जी, विष्णु जी और शिव जी (ब्रह्मा विष्णु महेश) ?

इंडियन : हाँ बिलकुल मानता हूँ.

भारतीय : अपने भारत मे भगवान के दो रूपों की विशेष पूजा होती है : विष्णु जी की और शिव जी की ! ये शिव जी जो हैं, इनको हम क्या कहते हैं - भोलेनाथ, तो भगवान के एक रूप को हमने भोला कहा है तो दूसरा रूप क्या हुआ ?

इंडियन (हँसते हुए) : चतुर्नाथ !

भारतीय : बिलकुल सही ! देखो, देवताओं के जब प्राण संकट मे आए तो वो भागे विष्णु जी के पास, बोले "भगवान बचाओ ! ये असुर मार देंगे हमें". तो विष्णु जी बोले अमृत पियो. देवता बोले अमृत कहाँ मिलेगा ? विष्णु जी बोले इसके लिए समुद्र मंथन करो !

तो समुद्र मंथन शुरू हुआ, अब इस समुद्र मंथन में कितनी दिक्कतें आई ये तो तुमको पता ही होगा, मंथन शुरू किया तो अमृत निकलना तो दूर विष निकल आया, और वो भी सामान्य विष नहीं हलाहल विष !
भागे विष्णु जी के पास सब के सब ! बोले बचाओ बचाओ !
तो चतुर्नाथ जी, मतलब विष्णु जी बोले, ये अपना डिपार्टमेंट नहीं है, अपना तो अमृत का डिपार्टमेंट है और भेज दिया भोलेनाथ के पास !
भोलेनाथ के पास गए तो उनसे भक्तों का दुःख देखा नहीं गया, भोले तो वो हैं ही, कलश उठाया और विष पीना शुरू कर दिया !
ये तो धन्यवाद देना चाहिए पार्वती जी का कि वो पास में बैठी थी, उनका गला दबाया तो ज़हर नीचे नहीं गया और नीलकंठ बनके रह गए.

इंडियन : क्यूँ पार्वती जी ने गला क्यूँ दबाया ?

भारतीय : पत्नी हैं ना, पत्नियों को तो अधिकार होता है ..:P किसी गण की हिम्मत होती क्या जो शिव जी का गला दबाए......अब आगे सुनो
फिर बाद मे अमृत निकला ! अब विष्णु जी को किसी ने invite किया था ???? मोहिनी रूप धारण करके आए और अमृत लेकर चलते बने.
और सुनो -
तुलसी स्वास्थ्य के लिए अच्छी होती है, स्वादिष्ट भी, तो चढाई जाती है कृष्ण जी को (विष्णु अवतार).
लेकिन बेलपत्र कड़वे होते हैं, तो चढाए जाते हैं भगवान भोलेनाथ को !

हमारे कृष्ण कन्हैया को 56 भोग लगते हैं, कभी नहीं सुना कि 55 या 53 भोग लगे हों, हमेशा 56 भोग !
और हमारे शिव जी को ? राख , धतुरा ये सब चढाते हैं, तो भी भोलेनाथ प्रसन्न !

कोई भी नई चीज़ बनी तो सबसे पहले विष्णु जी को भोग !
दूसरी तरफ शिव रात्रि आने पर हमारी बची हुई गाजरें शिव जी को चढ़ा दी जाती हैं......

अब मुद्दे पर आते हैं........इन सबका मतलब क्या हुआ ?
विष्णु जी हमारे पालनकर्ता हैं, इसलिए जिन चीज़ों से हमारे प्राणों का रक्षण-पोषण होता है वो विष्णु जी को भोग लगाई जाती हैं !
और शिव जी ?
शिव जी संहारकर्ता हैं, इसलिए जिन चीज़ों से हमारे प्राणों का नाश होता है, मतलब जो विष है, वो सब कुछ शिव जी को भोग लगता है !

इंडियन : ओके ओके, समझा !

भारतीय : आयुर्वेद कहता है कि वात-पित्त-कफ इनके असंतुलन से बीमारियाँ होती हैं और श्रावण के महीने में वात की बीमारियाँ सबसे ज्यादा होती हैं. श्रावण के महीने में ऋतू परिवर्तन के कारण शरीर मे वात बढ़ता है. इस वात को कम करने के लिए क्या करना पड़ता है ?
ऐसी चीज़ें नहीं खानी चाहिएं जिनसे वात बढे, इसलिए पत्ते वाली सब्जियां नहीं खानी चाहिएं !
और उस समय पशु क्या खाते हैं ?

इंडियन : क्या ?

भारतीय : सब घास और पत्तियां ही तो खाते हैं. इस कारण उनका दूध भी वात को बढाता है ! इसलिए आयुर्वेद कहता है कि श्रावण के महीने में दूध नहीं पीना चाहिए.
इसलिए श्रावण मास में जब हर जगह शिव रात्रि पर दूध चढ़ता था तो लोग समझ जाया करते थे कि इस महीने मे दूध विष के सामान है, स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है, इस समय दूध पिएंगे तो वाइरल इन्फेक्शन से बरसात की बीमारियाँ फैलेंगी और वो दूध नहीं पिया करते थे !
इस तरह हर जगह शिव रात्रि मनाने से पूरा देश वाइरल की बीमारियों से बच जाता था ! समझे कुछ ?

इंडियन : omgggggg !!!! यार फिर तो हर गाँव हर शहर मे शिव रात्रि मनानी चाहिए, इसको तो राष्ट्रीय पर्व घोषित होना चाहिए !

भारतीय : हम्म....लेकिन ऐसा नहीं होगा भाई कुछ लोग साम्प्रदायिकता देखते हैं, विज्ञान नहीं ! और सुनो. बरसात में भी बहुत सारी चीज़ें होती हैं लेकिन हम उनको दीवाली के बाद अन्नकूट में कृष्ण भोग लगाने के बाद ही खाते थे (क्यूंकि तब वर्षा ऋतू समाप्त हो चुकी होती थी). एलोपैथ कहता है कि गाजर मे विटामिन ए होता है आयरन होता है लेकिन आयुर्वेद कहता है कि शिव रात्रि के बाद गाजर नहीं खाना चाहिए इस ऋतू में खाया गाजर पित्त को बढाता है !
तो बताओ अब तो मानोगे ना कि वो शिव रात्रि पर दूध चढाना समझदारी है ?

इंडियन : बिलकुल भाई, निःसंदेह ! ऋतुओं के खाद्य पदार्थों पर पड़ने वाले प्रभाव को ignore करना तो बेवकूफी होगी.

भारतीय : ज़रा गौर करो, हमारी परम्पराओं के पीछे कितना गहन विज्ञान छिपा हुआ है ! ये इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारी परम्पराओं को समझने के लिए जिस विज्ञान की आवश्यकता है वो हमें पढ़ाया नहीं जाता और विज्ञान के नाम पर जो हमें पढ़ाया जा रहा है उस से हम अपनी परम्पराओं को समझ नहीं सकते !

जिस संस्कृति की कोख से मैंने जन्म लिया है वो सनातन (=eternal) है, विज्ञान को परम्पराओं का जामा इसलिए पहनाया गया है ताकि वो प्रचलन बन जाए और हम भारतवासी सदा वैज्ञानिक जीवन जीते रहें
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