मंगलवार, दिसंबर 28, 2021

#जीसस_की_कब्र_भारत_में_है

 

#जीसस_की_कब्र_भारत_में_है

यह संयोग मात्र ही नहीं है कि जब भी कोई सत्य के लिए प्यासा होता है, अनायास ही वह भारत में उत्सुक हो उठता हे, अचानक वह पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं यह उतनी ही प्राचीन बात है जितने पुराने प्रमाण और उल्लेख मौजूद हैं। आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व, सत्य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था। #ईसामसीह भी भारत आए थे।

ईसामसीह की तेरह से तीस वर्ष की उम्र के बीच का #बाइबिल में कोई उल्लेख नहीं है। और यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्योंकि तैंतीस की उम्र में तो उन्हें सूली पर ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से तीस तक के सत्रह सालों का हिसाब गायब है। इतने समय वे कहां रहे, और बाइबिल में उन सालों को क्यों नहीं रिकार्ड किया गया? उन्हें जान-बूझकर छोड़ा गया है, कि वह एक मौलिक धर्म नहीं है, कि ईसामसीह जो भी कर रहे हैं वे उसे सनातन भारत से लाए हैं।

यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्में, #यहूदी की तरह जिए, और यहूदी की तरह मरे। स्मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्होंने तो-ईसा और ईसाई ये शब्द भी नहीं सुने थे। फिर क्यों यहूदी उनके इतने खिलाफ थे? यह सोचने जैसी बात है, आखिर क्यों? न तो ईसाइयों के पास इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब है, न ही यहूदियों के पास। क्योंकि इस व्यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुचाया। वे उतने ही निर्दोष थे, जितनी कि कल्पना की जा सकती है।

...पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्म था। पढे़-लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्पष्ट देख लिया कि वे पूरब से विचार ला रहे हैं, जो कि गैर-यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ला रहे हैं। और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्हें समझ आएगा कि क्यों वे बार-बार कहते हैं- "अतीत के पैगम्बरों ने तुमसे कहा था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे, तो आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार रहना। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है, तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।" यह पृर्णतः गैर-यहूदी बात है। उन्होंने ये बातें भारत में  गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से सीखी थीं।

वे जब भारत आए थे-तब सनातन बौद्ध पंथ  बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए, पर बुद्ध ने इतना विराट आंदोलन, इतना बडा तूफान खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्क उसमें डूबा हुआ था। उनकी करुणा, क्षमा, प्रेम के उपदेशों को पिए हुआ था। जीसस कहते हैं कि "अतीत के पैंराम्बरों द्वारा यह कहा गया था"- कौन हैं ये पुराने पैगम्बर? वे सभी प्राचीन यहूदी पैगम्बर हैंः इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस,-"कि ईश्वर बहुत ही हिंसक है, और वह कभी क्षमा नहीं करता।?"

यहां तक कि उन्होंने ईश्वर के मुंह से भी ये शब्द कहलवा दिए हैं। पुराने टेस्टामेंट के ईश्वर के वचन हैं, " मैं कोई सज्जन पुरुष नहीं हूं, तुम्हारा चाचा नहीं हूं। मैं बहुत क्रोधी और ईष्र्यालु हूं, और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं हैं वे सब मेरे शत्रु हैं।"

और ईसामसीह कहते हैं कि "मैं तुमसे कहता हूंः परमात्मा प्रेम है।" यह ख्याल उन्हें कहां से आया कि परमात्मा प्रेम है? गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के सिवाय दुनिया में कहीं भी परमात्मा को प्रेम कहने का कोई और उल्लेख नहीं है।

उन सत्रह वर्षों में जीसस इजिप्त, भारत, लद्दाख और तिब्बत की यात्रा करते रहे। और यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परंपरा में बिल्कुल अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूंदी धारणाओं से एकदम विपरीत थीं।

तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि अंततः उनकी मृत्यु भी भारत में हुई। और #ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्य को नजरअंदाज करते रहे हैं। यदि उनकी बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे, तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका क्या हुआ? आजकल वे कहा हैं? क्योंकि उनकी मृत्यु का तो कोई उल्लेख है ही नहीं!

सच्चाई यह है कि वे कभी पुनर्जीवित नहीं हुए। वास्तव में वे सूली पर कभी मरे ही नहीं थे। क्योंकि यहूदियों की सूली आदमी को मारने की सर्वाधिक बेहूदी तरकीब है। उसमें आदमी को मरने में करीब-करीब अड़तालीस घंटे लग जाते हैं। चूंकि हाथों में और पैरों में कीलें ठोंक दी जाती हैं, तो बूंद-बूंद करके उनसे खून टपकता रहता है। यदि आदमी स्वस्थ है तो साठ घंटे से भी ज्यादा लोग जीवित रहे ऐसे उल्लेख हैं। औसत अड़तालीस घंटे तो लग ही जाते हैं। और जीसस को तो सिर्फ छः घंटे बाद ही सूली से उतार दिया गया था। यहूदी सूली पर कोई भी छः घंटे में कभी नहीं मरा है, कोई मर ही नहीं सकता है।

यह एक मिलीभगत थी (जीसस के शिष्यों की) पोंटियस पॅायलट के साथ। पोंटियस यहूदी नहीं था, वह रोमन वायसरॉय था। क्योंकि जूडिया उन दिनों रोमन साम्राज्य के आधीन था, और इस निर्दोष युवक की हत्या में उसे कोई रुचि नहीं थी। उसके दस्तखत के बगैर यह हत्या नहीं हो सकती थी, और उसे अपराध भाव अनुभव हो रहा था कि वह इस भद्दे और क्रूर नाटक में भाग ले रहा है। चूंकि पूरी यहूदी भीड़ पीछे पड़ी थी कि जीसस को सूली लगनी चाहिए, वह एक जीसस मुद्दा बन चुका था। पोंटियस पॅायलट दुविधा में था; यदि वह जीसस को छोड़ देता है, तो वह पूरी जूडिया को, जो कि यहूदी है, अपना दुश्मन बना लेता है। यह कूटनीतिक नहीं होगा। और यदि वह इस व्यक्ति को सूली देता है तो उसे सारे देश का समर्थन तो मिल जाएगा मगर उसके स्वयं के अंतःकरण में एक घाव छूट जाएगा कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण एक निरपराध व्यक्ति की हत्या की गई, जिसने कुछ भी गलत नहीं किया था।

तो उसने शिष्यों के साथ यह व्यवस्था की कि शुक्रवार को, जितनी संभव तो सके उतनी देर से सूली दी जाए। चूंकि सूर्यास्त होते ही शुक्रवार की शाम को यहूदी सब प्रकार के कामधाम बंद कर देते हैं; फिर शनिवार को कुछ भी काम नहीं होता, वह उनका पवित्र दिन है। यद्यपि सूली दी जानी थी शुक्रवार की सुबह, पर उसे स्थगित किया जाता रहा; ब्यूरोक्रेसो तो किसी भी कार्य में देर लगा सकती है। अतः जीसस को दोपहर के बाद सूली पर चढ़ाया, और सूर्यास्त के पूर्व ही उन्हें जीवित उतार लिया गया, यद्यपि वे बेहोश थे, क्योंकि शरीर से रक्त स्राव हुआ था, और कमजोरी आ गई थी। फिर जिस गुफा में उनकी देह को रखा गया वहां का चैकीदार... पवित्र दिन के पश्वात् यहूदी उन्हें पुनः सूली पर चढ़ाने वाले थे, मगर वह चैकीदार, गुफा का रक्षक रोमन था...इसीलिए यह संभव हो सका कि शिष्यगण जीसस को बाहर निकाल लिए और फिर जूडिया के भी बाहर गए।

#जीसस ने भारत में जाना क्यों पसंद किया? क्योंकि अपनी युवावस्था में भी वे वर्षों तक भारत में रह चुके थे। उन्होंने अध्यात्म का और ब्रह्म का परम स्वाद इतनी निकटता से चखा था, कि उन्होंने वहीं लौटना चाहा। तो जैसे ही स्वस्थ हुए, वे वापस भारत आए, और फिर एक सौ बारह साल की उम्र तक जिए।

#कश्मीर में अभी भी उनकी कब्र/ समाधि है। उस पर जो लिखा है, वह हिब्रु भाषा में है...स्मस्ण रहे भारत में कोई यहूदी नहीं रहते। उस शिलालेख पर खुदा है ‘जोशुआ’- वह हिब्रू भाषा में ईसामसीह का नाम है। ‘जीसस’ जोशुआ का ग्रीक रूपांतरण है। "जोशुआ यहां आए"- समय, तारीख वगैरह सब दी हैं। "एक महान सद्गुरु, जो स्वयं को भेड़ों का गडरिया पुकारते थे, अपने शिष्यों के साथ शांतिपूर्वक एक सौ बारह साल की दीर्घायु तक यहां रहे" इसी वजह से वह स्थान "भेडों के चरवाहे का गांव" कहलाने लगा। तुम वहाँ जा सकते हो, वह शहर अभी भी है- ‘पहलगाम’, उसका कश्मीरी में वही अर्थ है- ‘गड़रिए का गांव।’

वे यहाँ रहना चाहते थे, ताकि और अधिक आत्मिक विकास कर सके। एक छोटे से शिष्य समूह के साथ वे रहना चाहते थे ताकि वे सभी शांति में, मौन में डूबकर आध्यात्मिक प्रगति कर सकें। और उन्होंने मरना भी यहीं चाहा, क्योंकि यदि तुम जीने की कला जानते हो तो यहाँ जीवन एक सौंदर्य है, और यदि तुम मरने की कला जानते हो तो यहाँ मरना भी अत्यंत अर्थपूर्ण है।

केवल #भारत में ही मृत्यु की कला खोजी गई है, ठीक वैसे ही जैसे जीने की कला खोजी गई है। वस्तुतः तो वे एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं।

इससे भी अधिक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि मूसा ने भी भारत में आकर देह त्यागी। उनकी और जीसस की समाधियां एक ही स्थान में बनी है। शायद जीसस ने ही महान सदगुरु मूसा के बगल वाला स्थान स्वयं के लिए चुना होगा। पर मूसा ने क्यों काश्मीर में आकर मृत्यु में प्रवेश किया।

#मूसा ईश्वर के देश "इजराइल" की खोज में यहूदियों को इजिप्त के बाहर ले गए थे। उन्हें चालीस वर्ष लगे, जब इजराइल पहुंचकर उन्होंने घोषणा की कि "यही है वह जमीन, परमात्मा की जमीन, जिसका वादा किया गया था। और मैं अब वृद्ध हो गया हूं तथा अवकाश लेना चाहता हूं। हे नई पीढ़ी वालो, अब तुम संभालो।"

क्योंकि जब उन्होंने इजिप्त से यात्रा प्रारंभ की थी, तब की पीढ़ी लगभग समाप्त हो चुकी थी। बूढ़े मरते गये, जवान बूढ़े हो गये, नए बच्चे पैदा होते रहे। जिस मूल समूह ने मूसा के साथ शुरूआत की थी, वह अब बचा ही नहीं था। मूसा करीब-करीब एक अजनबी की भांति अनुभव कर रहे थे। उन्होंने युवा लोगों को शासन और व्यवस्था का कार्यभार सौंपा और इजराइल से विदा हो लिए।

यह अजीब बात है कि यहूदी धर्मशास्त्रों में भी, उनकी मृत्यु के संबंध में, उनका क्या हुआ इस बारे में कोई उल्लेख नहीं है। हमारे यहां (काश्मीर में) उनकी कब्र है। उस समाधि पर भी जो शिलालेख है, वह हिबु्र भाषा में ही है। और पिछले चार हजार सालों से एक यहूदी परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी उन दोनों समाधियों की देखभाल कर रहा है।

मूसा भारत आना क्यों चाहते थे? केवल मृत्यु के लिए? हां, कई रहस्यों में से एक रहस्य यह भी है कि यदि तुम्हारी मृत्यु एक बुद्धक्षेत्र में हो सके, जहां केवल मानवीय ही नहीं वरन् भगवत्ता की ऊर्जा-तरंगें हों, तो तुम्हारी मृत्यु भी एक उत्सव और निर्वाण बन जाती है।

सदियों से, सारी दुनिया से साधक इस धरती पर आते रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ भी नहीं, पर जो संवेदनाशील हैं; उनके लिए सबसे अधिक समृद्ध कौम इस पृथ्वी पर कहीं और नहीं है। लेकिन यह समृद्धि आंतरिक है।

– ओशो

मेरा स्वर्णिम भारत
परिशिष्ट-१
भारत: एक अनूठी संपदा

शनिवार, दिसंबर 25, 2021

सेंटा का गिफ्ट... (आज सेंटा सेंटा चिल्लाने वाले बेशर्म, बेवकूफों के लिए)

 


सन 1510
गोआ के तात्कालिक मुश्लिम शासक यूसुफ आदिल शाह को पराजित कर पुर्तगालियों ने गोआ में अपनी सत्ता स्थापित की। अगले पच्चीस तीस वर्षों में गोआ पर पुर्तगाली पूरी तरह स्थापित हो गए। फिर शुरू हुआ गोआ का ईसाईकरण। कुछ लोग उनकी कथा के प्रभाव में आ कर धर्म बदल लिए और ईसाई हुए। जो धन ले कर बदले उन्हें धन दिया गया, जो भय से बदल सकते थे उन्हें भयभीत कर बदला गया। और जो नहीं बदले?

गांव के बीच मे एक हिन्दू को खड़ा करा कर उसे आरा से चीरा जाता, हिन्दू युवतियों को नग्न कर सँड़सी से उनके स्तन नोंचे जाते... स्त्रियों को नग्न कर उनकी दोनों टांगो में दो रस्सी बाँध दी जाती और दोनों रस्सियां दो घोड़ों से जोड़ दी जातीं। दोनों घोड़े दो ओर दौड़ाये जाते और पल भर में एक शरीर दो भाग में बंट जाता। अरे रुकिए! यह कार्य केवल पुर्तगाली सैनिक नहीं करते थे, उनके साथ एक पादरी रहता था जो बाइबल पढ़ कर अपनी देख-रेख में कार्य प्रारम्भ कराता था। पुर्तगाली ईसाइयों को किसी गाँव मे यह खेल दो बार खेलने की आवश्यकता नहीं हुई, क्योंकि जिस गाँव मे एक बार यह आयोजन हो जाता, उस गाँव की सारी प्रजा उसी दिन ईसाई हो जाती थी।

पर भारत तो भारत है न! यहाँ के हिन्दू इतनी जल्दी कैसे हार मान लेते? ऊपर से सारा गोआ ईसाई हो गया था, पर अंदर ही अंदर फिर अधिकांश जन हिन्दू हो गए थे। घर में मिट्टी के नीचे दबा कर सनातन धर्मग्रंथ रखे जाने लगे। बच्चों को धर्म का ज्ञान दिया जाने लगा। रामायण-महाभारत, वेद-पुराण पढ़े-पढ़ाने जाने लगे।

पर ईसाई भी तो ईसाई थे न! वे भी इतनी शीघ्रता से कैसे पराजय स्वीकार कर लेते? तो सन 1560...

गोआ के बीचोबीच एक चिता तैयार की गई थी। लकड़ी की नहीं, हिन्दू धर्मग्रंथों की। पिछले छह महीने में हर हिन्दू के घर का कोना कोना छान कर,मिट्टी कोड़ कोड़ कर इन धर्मग्रंथों को निकाला गया था। मराठी और संस्कृत भाषा में लिखे गए इन महत्वपूर्ण धर्मग्रन्थों की चिता, और उसके ऊपर हाथ पैर बाँध कर डाले गए हिन्दू... कुछ किताबें कहती हैं पाँच सौ लोग थे, कुछ कहती हैं हजार... कुछ किवदन्तियां कई हजार बताती हैं। ईश्वर जाने कितने थे।

निकट खड़े पादरी ने अपनी पवित्र (अपवित्र) पुस्तक पढ़ी, और फिर सैनिक की ओर संकेत किया। सैनिक ने चिता में अग्नि प्रवाहित की और भारत धू-धू कर जल उठा। अग्नि की लपटें बढ़ीं, और उनके साथ ही बढ़ती गयीं दो प्रकार की ध्वनियां... एक जीवित जल रहे हिंदुओं के चीत्कार की ध्वनि, और दूसरी निकट खड़े ईसाइयों के अट्ठहास की ध्वनि...
सनातन जल रहा था, और अग्नि की लपटों के साथ ऊपर उठता जा रहा था चर्च! और वहाँ से हजारों कोस दूर रोम में बैठा सेंटा-क्लॉज मुस्कुरा उठा था।
यह भारत मे ईसाई धर्म के प्रारम्भ का सत्य था।
अपने बच्चों को सेंटा क्लॉज की पोशाक पहना कर खुश होने वाले हिन्दुओं! तुम्हारा सेंटा जब मुस्कुराता है तो लगता है कि वह गोआ की बेटियों की नोची गयी छातियों पर मुस्कुरा रहा है, एक वहशी दैत्य की तरह! तुम नहीं जानते कि क्रिसमस का जो केक तुम खा रहे हो वह गोआ की उन माओं के रक्त से सना हुआ है जिनके नग्न शरीर को घोड़े से चीरवा दिया गया था। क्रिसमस की तुम्हारी शुभकामनाओं में मुझे अपने उन पूर्वजों की चीखें सुनाई देती हैं जिन्हें उनके धर्मग्रन्थों के साथ जीवित ही जला दिया गया था। क्यों? केवल इसी लिए कि वे हिन्दू थे।
गोआ एक उदाहरण मात्र है। भारत मे अंग्रेजी सत्ता के काल मे हिंदुओं-मुसलमानों पर ऐसे असंख्य अत्याचार ईसाइयों ने किए हैं। गिनने लगेंगे तो घृणा अपने चरम पर पहुँच जाएगी।
सेंटा क्लॉज गिफ्ट नहीं देता। सेंटा ने जब भी दिया, भारत को नरसंहार, अत्याचार, शोषण का ही गिफ्ट दिया है। सेंटा क्लॉज भारत पर हुए अत्याचार का प्रतीक है। इसका सम्मान करना, इसका त्योहार मनाना अपने पूर्वजों के अपमान जैसा है।
तुम इसे धर्मनिरपेक्षता कहते हो? शत्रु-परम्पराओं का सम्मान धर्मनिरपेक्षता नहीं, मूर्खता है मित्र! वे झारखण्ड के जंगलों में तुम्हारे देवी-देवताओं को गाली देते हैं और तुम उनके पर्वों को उत्साह से मनाते हो? वे तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, गोआ, केरल में तुम्हारे पूर्वजों को गाली देते हैं और तुम उनका सम्मान करते हो? वे आसाम, मेघालय, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश में सनातन धर्म का लगभग-लगभग नाश कर चुके और तुम इससे अनभिज्ञ प्रेम के गीत गा रहे हो? तनिक सोचो तो, क्या हो तुम? मित्र! तुम अनजाने में अपनी संस्कृति, अपने धर्म, अपने राष्ट्र, अपनी परम्पराओं, अपने पूर्वजों की प्रतिष्ठा की हत्या में सहयोग कर रहे हो। मित्र! तुम हत्या कर रहे हो...
और सेक्युलरिज्म? इसे भारत को क्या ईसाइयों से सीखना होगा? एक उदाहरण देता हूँ, सातवीं शताब्दी में भारत के एक हिन्दू शासक अनंगपाल ने राय पिथौरा किले के पास एक ही प्रांगण में 'हिन्दू,बौद्ध और जैन' तीनो धर्मों के सत्ताईस मन्दिरों का निर्माण कराया था। यहाँ जाने वाला हर श्रद्धालु तीन धर्मों के आराध्यों की एक ही साथ पूजा करता था। भारत का वह मन्दिर कुतुबुद्दीन ऐबक ने तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही तोड़ दिया, पर क्या कोई आज भी मुझे पूरी दुनिया मे ऐसा कोई दूसरा स्थान दिखा सकता है? क्या कोई ऐसा स्थान है जहाँ किसी ईसाई ने किसी दूसरे धर्म का धर्मस्थल बनवाया हो? नहीं न?
मित्र! इस धरा पर धर्मनिरपेक्षता हमसे ही प्रारम्भ हो कर हम पर ही समाप्त हो जाती है। पर यह याद रहे, धर्मनिरपेक्षता के भ्रम में आत्महंता बनना केवल और केवल मूर्खता है।
स्वतन्त्रता के बाद वामपंथियों द्वारा थोपी गयी षड्यंत्रपूर्ण परिभाषा के अनुसार मेरी बातें साम्प्रदायिक दिख रही होंगी, पर मुझे गर्व है अपने साम्प्रदायिक होने पर.. मैं अपने पूर्वजों के हत्यारों को क्षमा नहीं कर सकता। मेरे अंदर यदि किसी को घृणा भरी हुई दिखती है तो गर्व है मुझे अपनी घृणा पर। अपने शत्रुओं के प्रति इसी घृणा ने भारत की रक्षा की है, नहीं तो यूनान, मिस्र, रोम कबके मिट गए। साभार सर्वेश कुमार तिवारी