वर्ण और जाति में भेद
भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में वर्ण व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वर्ण का शब्दिक अर्थ है - वरण करना, रंग, एवं वृत्ति के अनुरूप। वरण का अर्थ है - चुनना अथवा व्यवसाय का निर्धारण। इस अर्थ के अनुसार विद्वान ‘वर्ण’ को व्यक्तियों का समूह मानते हैं। ऋग्वेद में ‘आर्य’ तथा दस्यु’ में अन्तर स्पष्ट करने के लिए ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग हुआ है। जो विद्वान वर्ण का अर्थ ‘वृत्ति’ मानते हैं, उनके अनुसार जिन व्यक्तियों का स्वभाव समान होता है उनसे ही एक ‘वर्ण’ का निर्माण हुआ। किन्तु इन सब धारणाओं से वर्ण के ‘वर्ण व्यवस्था’ वाले अर्थ का स्पष्टीकरण नहीं होता।
‘गीता’ में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है कि ‘मैंने गुण और कर्म के आधार पर चार वर्णो का निर्माण किया है। पुराणों में भी अनेक स्थानों पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र को क्रमशः शुक्ल, रक्त, पीत और कृष्ण कहा है। ‘वर्ण’ शब्द का अर्थ इस प्रकार विवादस्पद है। किन्तु यह निश्चित है कि प्राचीन सामाजिक विभाजन ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों में था जिसका अन्तर्निहित उद्देश्य सामाजिक संगठन, समृद्धि, सुव्यवस्था को बनाये रखना था।
‘वर्ण की उत्पत्ति’
हमारे धर्म ग्रन्थों ने वर्ण की उत्पत्ति की विस्तार से व्याख्या की है।
प्राचीन आदर्श वर्ण व्यवस्था यद्यपि आज पूर्णतया विकृत हो चुकी है और आज इसका समाज में कोई अस्तित्व नहीं है। वर्ण व्यवस्था के सम्बन्ध में ऋग्वेद के ‘पुरुषसूक्त’ में निम्नलिखित श्लोक मिलता है -
“ब्राह्मणों स्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरु तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।” 1
अर्थात् ईश्वर ने स्वयं चार वर्णों की सृष्टि की। इन वर्णों का जन्म उसके शरीर के विभिन्न अंगों से हुआ, मुख से ब्राह्मण की, बाहु से क्षत्रिय की, ऊरु से वैश्य की और पैंरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई। मुख शरीरांगों में सर्वोच्च है तथा उसका काम बोलना मनन, चिन्तन है, तद्हेतु ब्राह्मण वर्ण का कार्य भी पठन-पाठन, कथा-वाचन व प्रवचन नियत किया गया। बाहु भौतिक बल की प्रतीक है। इनके द्वारा ही रक्षण, भरण-पोषण, आदि कार्य होता है। अतएव क्षत्रिय का प्रथम धर्म प्रजा रक्षण माना गया है। आक्रमण, आप्ति आदि से रकषा करना उसका कर्तव्य है। इन्द्रिय संयम, यज्ञानुष्ठान, सत्य भाषण, न्याय का रक्षण, सेवकों का भरण-पोषण, अपराधी को दण्ड देना, धार्मिक कार्यों का सम्पादन आदि कर्म क्षत्रिय का धर्म माने गए। इसी हेतु वे समाज रक्षक बने और उन्हें प्रजा पालन का काम सौंपा गया। ऊरु उत्पादन की द्योतक है। तद्हेतु वाणिज्य व्यापार द्वारा उत्पादन वैश्यों का प्रमुख कर्तव्य माना गया। व्यापार, ब्याज लेना, पशुपालन, खेती, ये सब वैश्यों के सनातन धर्म माने गए। पैर का स्थान सबसे नीचे है और वह सेवा का प्रतीक है। इसलिए ही शूद्रों का समाज में निम्न स्थान माना गया और द्विजों की सेवा-पूजा उनका कर्तव्य।
महाभारत में भी शूद्र का परम कर्तव्य तीनों वर्णों की सेवा करना बताया गया। इसी प्रकार ‘मनु’ ने ‘मनुस्मृति’ में लिखा है कि शूद्रों का कार्य तीनों वर्णों के लोगों की बिना किसी ईर्ष्या भाव से सेवा करना है। स्पष्ट है कि चारों वर्णों में ब्राह्मण और क्षत्रिय को लगभग समान महत्व दिया गया, ब्राह्मण को ज्ञानी, क्षत्रिय को शूरवीर, वैश्यों को धन का स्वामी, व शूद्रों को सर्वसेवक कहा गया। चिन्तक ‘श्री अरविन्द’ के अनुसार “समाज में मनन, चिन्तन, पठन-पाठन में संलग्न ब्राह्मणों का सर्वोच्च स्थान माना गया, तदनन्तर प्रजा रक्षण व राज्य की देख भाल करने वाले क्षत्रियों का द्वितीय तथा सबसे अन्तिम किन्तु आदृत स्थान वाणिज्य व्यापार करने वाले वैश्यों को माना गया।” 2
महाभारत में भी विभिन्न वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख इस प्रकार किया गया है कि “उस पुरुष को हमारा प्रणाम है जो ब्राह्मणों को मुख में, क्षत्रियों को बाहुओं में, वैश्यों को ऊरु में, तथा शूद्रों को पैरों में धारण किये है।“
ब्राह्मण ग्रन्थों में गायत्री के भिन्न-भिन्न मंत्र भिन्न-भिन्न वर्णों के लिए बताए गए तथा ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों के लिए बलि की अलग-अलग पद्धतियों का विधान बताया गया है। बसन्त ऋतु में ब्राह्मणों, ग्रीष्म में क्षत्रियों और शरद ऋतु में वैश्यों के लिए यज्ञ जैसा पावन कर्म निषिद्ध बताया गया है।
“बृहदारण्यकोपनिषद” में मानव जाति के चारों वर्णों की उत्पत्ति का आधार ब्रह्मा द्वारा रचित देवताओं के चार वर्ण बताए गए हैं। इन्द्र, वरुण, सोम, यम आदि क्षत्रिय देवताओं, रुद्र, वसु, आदित्य, मरुत आदि वैश्य देवताओं, पुशान आदि शूद्र वर्ण के देवताओं की सृष्टि ईश्वर द्वारा की गई और इन सबसे पूर्व ब्राह्मणों की सृष्टि हो ही चुकी थी। इस वर्ण व्यवस्था के आधार पर ही मानव जाति में भी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों की सृष्टि की गई।
‘भृगु संहिता’ में भी चारों वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख इस प्रकार है कि सर्वप्रथम ब्राह्मण वर्ण था, उसके बाद कर्मों और गुणों के अनुसार ब्राह्मण ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण वाले बने तथा इन वर्णों के रंग भी क्रमशः श्वेत, रक्तिम, पीत और कृष्ण थे। बाद कें तीनों वर्ण ब्राह्मण वर्ण से ही विकसित हुए। यह विकास अति रोचक है जो ब्राह्मण कठोर, शक्तिशाली, क्रोधी स्वभाव के थे, वे रजोगुण की प्रधानता के कारण क्षत्रिय बन गए। जिनमें तमोगुण की प्रधानता हुई, वे शूद्र बने। जिनमें पीत गुण अर्थात् तमो मिश्रित रजो गुण की प्रधानता रही, वे वैश्य कहलाये तथा जो अपने धर्म पर दृढ़ रहे तथा सतोगुण की जिनमें प्रधानता रही वे ब्राह्मण ही रहे। इस प्रकार ब्राह्मणों से चार वर्णो का गुण और कर्म के आधार पर विकास हुआ।
गीता में श्रीकृष्ण ने भी चारों वर्णो का विभाजन गुण और कर्मो के आधार पर ही बताया है। याज्ञवक्य, बौधायन, वशिष्ठ आदि ने भी चार वर्णो को स्वीकार किया है।
‘वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म अथवा कर्म’ - यह एक बड़ा ही विवादस्पद विषय है। इस विषय में विद्वानों के तीन वर्ग हैं - पहला वर्ग वह जो वर्ण व्यवस्था का आधार ‘जन्म’ मानता है। दूसरा वर्ग वह जो ‘कर्म’ को ही वर्ण विभाजन का आधार बताता है तथा तीसरा वर्ग वह जो समन्वयवादी सिद्धान्त का प्रतिपादक है अर्थात् जो जन्म और कर्म दोनों को वर्ण व्यवस्था का आधार मानता है।
‘वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म है’ - ‘वी.के.चटोपाध्याय’ ने वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म बताया है। इसके लिए उन्होंने कुछ प्रमुख व्यक्तियों के उदाहरण दिए हैं -यथा-युधिष्ठिर ब्राह्मणोचित गुणों से युक्त थे, लेकिन जन्म से क्योंकि वे क्षत्रिय वर्ण के थे, अतएव क्षत्रिय ही कहलाए। इसी प्रकार द्रोणाचार्य रणनीति के कुशल ज्ञाता थे तथा युद्ध करना उनका कर्म था, लेकिन जन्म के वर्ण के आधार पर वे ब्राह्मण ही माने गये। निःसन्देह व्यक्ति के गुण उसे जन्म से ही प्राप्त होते हैं, पूर्व जन्म में जो कर्म किए गए हों उन्हीं के अनुसार उसके गुणों का निश्चय होता है। ‘वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म है’ - हिन्दू धर्म के अनुसार मनुष्य का वर्ण निर्धारण कर्म और गुणों के आधार पर ही होता है जैसा कि‘मनु’ने ‘मनुस्मृति’ में बताया है –
“शूद्रो बा्रह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जात्मेवन्तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च।।” 3
अर्थात् शूद्र कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय के समान गुण, कर्म स्वभाव वाला हो, तो वह शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाता है। वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो, उसके गुण व कर्म शूद्र के समान हो, तो वह शूद्र हो जाता है, वैसे ही क्षत्रिय या वैश्य कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण व शूद्र के समान होने पर, ब्राह्मण व शूद्र हो जाता है। ऋग्वेद में भी वर्ण विभाजन का आधार कर्म ही है। निःसन्देह गुणों और कर्मो का प्रभाव इतना प्रबल होता है कि वह सहज ही वर्ण परिवर्तन कर देता है; यथा विश्वामित्र जन्मना क्षत्रिय थे, लेकिन उनके कर्मो और गुणों ने उन्हें ब्राह्मण की पदवी दी। राजा युधिष्ठिर ने नहुष से ब्राह्मण के गुण - यथा, दान, क्षमा, दया, शील चरित्र आदि बताए। उनके अनुसार यदि कोई शूद्र वर्ण का व्यक्ति इन उत्कृष्ट गुणों से युक्त हो तो वह ब्राह्मण माना जाएगा।
‘भागवत पुराण’ भी गुणों को ही वर्ण निर्धारण का प्रमुख आधार घोषित करता है। प्रख्यात दार्शनिक ‘राधा कृष्णन’ भी गुण और कर्म के आधार पर वर्ण विभाजन मानते हैं। वर्ण व्यवस्था को वे कर्म प्रधान व्यवस्था कहते हैं। ‘डा.धुरिये’ के अनुसार वर्ण, मानव रंग से संबंधित है। प्राचीनकाल में मानव समाज में ‘आर्य तथा दस्यु’ दो वर्ण थे। द्रविड़ों को पराजित करने वाले आर्य शनैः शनैः स्वयं की द्विज कहने लगे। बाद में आर्यो तथा द्विजों की वृद्धि होने पर उनके कर्म भी विविध प्रकार के हो गए। तभी उनके विविध कर्मो के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन चार वर्णो की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार ‘आपस्तम्ब सूत्रों’ में भी यही बात कही गई है कि वर्ण ‘जन्मना’ न होकर वास्तव में ‘कर्मणा’ हता है -
“धर्मचर्ययाजधन्योवर्णः पूर्वपूर्ववर्णमापद्यतेजातिपरिव ृत्तौ।
अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जधन्यं जधन्यं वर्णमापद्यते जाति परिवृत्तौ।।”4
अर्थात् धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाता है - जिस-जिस के वह योग्य होता है । वैसे ही अधर्म आचरण से पूर्व अर्थात् उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वाले वर्ण को प्राप्त होता है और उसी वर्ण में गिना जाता है।
वर्णाश्रम व्यवस्था के विषय में गाँधी जी के विचार उल्लेखनीय है -
“मेरी सम्मति में वर्णाश्रम मानवीय स्वभाव में अन्तर्ग्रथित है। हिन्दू धर्म ने केवल इसे एक वैज्ञानिक रूप दे दिया है। ये चार वर्ण तो मनुष्य के पेशों की परिभाषा करते हैं। वे सामाजिक पारस्परिक सम्बन्धों को निर्बाधित या नियमित नहीं करते।” 5
निःसन्देह व्यक्ति के गुण उसे जन्म से ही प्राप्त होते हैं। पूर्व जन्म में जो कर्म किए गए हैं, उन्हीं के अनुसार उसके गुणों का निश्चय होता है। वे गुण उसके वर्तमान जीवन को प्रभावित करते हैं। इन्हीं गुणों के आधार पर वह उच्च से निम्न व निम्न से उच्च वर्ण को प्राप्त हो जाता है। जैसे बाल्मीकि जाति के शूद्र थे, किन्तु अपने आचार- व्यवहार तथा गुणों के बल से ब्राह्मण कहलाए।
‘समन्वयवादी दृष्टिकोण’ - वर्ण व्यवस्था का सर्वोत्कृष्ट दृष्टिकोण है समन्वयवादी दृष्टिकोण। इसके अनुसार वर्ण व्यवस्था का व्यवहारिक आधार जन्म और कर्म दोनों हैं। क्योंकि वर्ण निर्धारण में केवल जन्म या केवल कर्म को ही आधार मान लेना न्याय संगत नहीं। व्यक्ति पहले तो जन्म के अनुसार ही ब्राह्मण या वैश्य आदि कहलाता है। लेकिन बाद में उसके कर्मों और गुणों को देखकर उसका वर्ण परिवर्तन आवश्यक हो जाता है। अतएव जन्म और कर्म दोनों के आधार पर वर्ण निर्धारण करना अधिक वैज्ञानिक और व्यवहारिक है।
‘जाति का अर्थ और परिभाषा’- ---
जहाँ वर्ण का संबंध जन्म के साथ-साथ कर्म और गुणों से होता है, वहाँ जाति का संबंध केवल जन्म से ही होता है। वर्ण व्यवस्था यदि एक आदर्श विचार है, तो जाति व्यवस्था एक संकीर्ण एवं निकृष्ट विचार है। वर्ण व्यवस्था यदि एक बृहत नैतिक व्यवस्था है जो समाज को सन्तुलित और संगठित करती है, तो वहाँ जाति व्यवस्था समाज को टुकड़ों में बाँट देने वाली व्यवस्था है, जिसमें जन्म से ही व्यक्ति ऊँचा या नीचा मान लिया जाता है। अतएव वर्ण व्यवस्था संगठन को जन्म देने वाली है तथा जाति व्यवस्था विघटन को। जाति की विभिन्न विद्वानों के अनुसार विभिन्न परिभाषाएँ उल्लेखनीय हैं -
‘सरसिजले’ के अनुसार - “जाति उन परिवारों अथवा परिवार समूहों का एक संकलन है, जो एक सामान्य नाम धारण किए हुए है, जो किसी काल्पनिक पूर्वज, मनुष्य या देवता से एक सामान्य वंश परम्परा या उत्पति का दावा करते हैं, जो एक ही परम्परागत व्यवसाय अपनाये जाने पर बल देते हैं और एक सजातीय समुदाय के रूप में मान्य होते हैं तथा जो अपना ऐसा मत व्यक्त करने योग्य हैं।” 6
‘ब्लण्ट’ के अनुसार - “जाति एक अन्तर्विवाही समूह या अन्तर्विवाही समूहों का संकलन है, जो एक सामान्य नाम धारण किए होता है, जिसकी सदस्यता वंशानुगत होती है। वह सामाजिक सहवास के क्षेत्र में अपने सदस्यों पर कुछ प्रतिबन्ध लगाता है। उसके सदस्य एक सामान्य परम्परागत व्यवसाय करते हैं अथवा किसी सामान्य आधार पर अपनी उत्पत्ति का दावा करता हैं और इस प्रकार एक समरूप समुदाय के रूप में मान्य समझा जाता हैं।” 7
‘हट्टन’ के अनुसार - “ जाति वह व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण समाज अनेक आत्मकेन्द्रित तथा एक दूसरे से पृथक-पृथक इकाईयों में विभाजित होता है। इन इकाईयों के आपसी संबंध ऊँच-नीच के आधार पर सांस्कृतिक रूप से निश्चित होते हैं।” 8
‘स्मिथ’ के अनुसार - “जाति परिवारों के उस समूह को कहते हैं, जो विवाह, खान-पान सम्बन्धी कुछ संस्कारों की पवित्रता का पालन करने के लिए बनाए गए नियमों से बँधा हो।” 9
ये सभी परिभाषाएँ अनेक दृष्टियों से अपूर्ण हैं। किसी में जाति को एक समुदाय बताया गया है, जो बिल्कुल त्रुटिपूर्ण है; तो किसी परिभाषा में जाति और गोत्र को एक ही मान लिया गया है। जाति के सांस्कृतिक पक्षों की ओर भी कोई संकेत नहीं दिया गया है। वैसे उपर्युक्त सभी परिभाषाओं में ‘हट्टन’ की परिभाषा सर्वाधिक उचित प्रतीत होती है। वस्तुतः समस्त तत्वों को समेटते हुए जाति की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है - “जाति एक ऐसी संकीर्ण व्यवस्था है, जो समाज का खण्डात्मक विभाजन कर देती है। जिसके कारण व्यक्तियों पर खान-पान और सामाजिक सहवास संबंधी कुछ प्रतिबन्ध लगे होते हैं; जिनका पालन आवश्यक होता है तथा उन प्रतिबन्धों व नियमों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति जाति से अलग भी माना जा सकता है। जाति प्रथा में छुआछूत के आधार पर उच्च तथा निम्न जातियों को सामाजिक और धार्मिक विशेषाधिकार दिए जाते हैं तथा विवाह संस्था को नियमित बनाने के लिए विवाह संबंधी नियम और निषेध भी सभी व्यक्तियों द्वारा मान्य होते हैं।”
इस प्रकार जाति प्रथा की निम्नलिखित विशेषताएँ लक्षित होती हैं। -
प्रथम, स्थिति, पद, कार्य के आधार पर जाति समाज का खण्डात्मक विभाजन कर देती है। प्रत्येक जातिगत खण्ड अपनी जाति के नियमों व रीतिरिवाजों का पालन करने के लिए बाध्य होता है।
द्वितीय, यह एक ऐसी संकीर्ण व्यवस्था है, जो व्यक्तियों के, समाज में ऊँचे-नीचे स्तरों की सृष्टि कर उनमें भेदभाव को जन्म देती है। यथा समाज में इसी जातिगत भावना के कारण ब्राह्मण को सर्वोच्च माना जाता है तथा शूद्र को सबसे निम्न व तिरस्कृत जाति वाला समझा जाता है। व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य इस प्रकार का भेदभाव उनमें प्रतिस्पर्धा को जन्म देता है।
तृतीय, जातियाँ अपने-अपने खण्डों पर कुछ विशेष नियमों, बन्धनों को आरोपित करती हैं, जो खान-पान, रहन-सहन से सम्बन्धित होते हैं। कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में तो इस प्रकार के नियम बन्धन सबसे अधिक जटिल हैं। सामाजिक सहवास संबंधी नियमों के आधार पर निम्न जाति वालों के लिए उच्च जाति वालों का संसर्ग निषिद्ध होता है।
चतुर्थ, छुआछूत के कारण तथा समाज के उच्च-निम्न, खण्डात्मक विभाजन के कारण ब्राह्मण जाति क्योंकि सबसे पवित्र और पूजनीय है, अतएव उसे समस्त सार्वजनिक स्थलों में जाने का अधिकार है। लेकिन शूद्र क्योंकि अपवित्र निम्न जाति है, अतएव वह प्रत्येक सामाजिक स्थलों में प्रवेश पाने की अधिकारी नहीं है।
पंचम, जाति प्रथा के अनुसार प्रत्येक जाति का जातिगत व्यवसाय होता है,जिसे अपनाए रखना नैतिक और धार्मिक रूप से अनिवार्य माना जाता है। वही व्यवसाय जीविकोपार्जन का आधार होता है।
षण्ठ, जाति व्यवस्था ने विवाह जैसे भावनात्मक और पवित्र संबंध को भी नियमों में बाँधने से नहीं छोड़ा। जाति प्रथा के अनुसार व्यक्ति अपनी ही जाति में विवाह कर सकता है। जाति से बाहर किए गए विवाह अस्थिर और शीघ्र ही समाप्त होते देखे गए हैं। इसलिए विवाह सम्बन्ध की नियमितता व स्थिरता के लिए जाति प्रथा के अनुसार जाति से बाहर विवाह निषिद्ध होता है।
लेकिन आधुनिक काल में जाति और वर्ण सम्बन्धी मान्यताओं में बहुत अधिक परिवर्तन आ रहा है। रुढवादिता और संकीर्णता शनैः शनैः दूर हो रही है। जातिगत बन्धन और नियमों का अतिक्रमण सामान्य रूपेण लक्षित होता है। जाति प्रथा शिथिल होती जा रही है तथा भारतीय सामाजिक जीवन में प्रगतिसूचक परिर्वतन आते जा रहे हैं...............
भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में वर्ण व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वर्ण का शब्दिक अर्थ है - वरण करना, रंग, एवं वृत्ति के अनुरूप। वरण का अर्थ है - चुनना अथवा व्यवसाय का निर्धारण। इस अर्थ के अनुसार विद्वान ‘वर्ण’ को व्यक्तियों का समूह मानते हैं। ऋग्वेद में ‘आर्य’ तथा दस्यु’ में अन्तर स्पष्ट करने के लिए ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग हुआ है। जो विद्वान वर्ण का अर्थ ‘वृत्ति’ मानते हैं, उनके अनुसार जिन व्यक्तियों का स्वभाव समान होता है उनसे ही एक ‘वर्ण’ का निर्माण हुआ। किन्तु इन सब धारणाओं से वर्ण के ‘वर्ण व्यवस्था’ वाले अर्थ का स्पष्टीकरण नहीं होता।
‘गीता’ में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है कि ‘मैंने गुण और कर्म के आधार पर चार वर्णो का निर्माण किया है। पुराणों में भी अनेक स्थानों पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र को क्रमशः शुक्ल, रक्त, पीत और कृष्ण कहा है। ‘वर्ण’ शब्द का अर्थ इस प्रकार विवादस्पद है। किन्तु यह निश्चित है कि प्राचीन सामाजिक विभाजन ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों में था जिसका अन्तर्निहित उद्देश्य सामाजिक संगठन, समृद्धि, सुव्यवस्था को बनाये रखना था।
‘वर्ण की उत्पत्ति’
हमारे धर्म ग्रन्थों ने वर्ण की उत्पत्ति की विस्तार से व्याख्या की है।
प्राचीन आदर्श वर्ण व्यवस्था यद्यपि आज पूर्णतया विकृत हो चुकी है और आज इसका समाज में कोई अस्तित्व नहीं है। वर्ण व्यवस्था के सम्बन्ध में ऋग्वेद के ‘पुरुषसूक्त’ में निम्नलिखित श्लोक मिलता है -
“ब्राह्मणों स्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरु तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।” 1
अर्थात् ईश्वर ने स्वयं चार वर्णों की सृष्टि की। इन वर्णों का जन्म उसके शरीर के विभिन्न अंगों से हुआ, मुख से ब्राह्मण की, बाहु से क्षत्रिय की, ऊरु से वैश्य की और पैंरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई। मुख शरीरांगों में सर्वोच्च है तथा उसका काम बोलना मनन, चिन्तन है, तद्हेतु ब्राह्मण वर्ण का कार्य भी पठन-पाठन, कथा-वाचन व प्रवचन नियत किया गया। बाहु भौतिक बल की प्रतीक है। इनके द्वारा ही रक्षण, भरण-पोषण, आदि कार्य होता है। अतएव क्षत्रिय का प्रथम धर्म प्रजा रक्षण माना गया है। आक्रमण, आप्ति आदि से रकषा करना उसका कर्तव्य है। इन्द्रिय संयम, यज्ञानुष्ठान, सत्य भाषण, न्याय का रक्षण, सेवकों का भरण-पोषण, अपराधी को दण्ड देना, धार्मिक कार्यों का सम्पादन आदि कर्म क्षत्रिय का धर्म माने गए। इसी हेतु वे समाज रक्षक बने और उन्हें प्रजा पालन का काम सौंपा गया। ऊरु उत्पादन की द्योतक है। तद्हेतु वाणिज्य व्यापार द्वारा उत्पादन वैश्यों का प्रमुख कर्तव्य माना गया। व्यापार, ब्याज लेना, पशुपालन, खेती, ये सब वैश्यों के सनातन धर्म माने गए। पैर का स्थान सबसे नीचे है और वह सेवा का प्रतीक है। इसलिए ही शूद्रों का समाज में निम्न स्थान माना गया और द्विजों की सेवा-पूजा उनका कर्तव्य।
महाभारत में भी शूद्र का परम कर्तव्य तीनों वर्णों की सेवा करना बताया गया। इसी प्रकार ‘मनु’ ने ‘मनुस्मृति’ में लिखा है कि शूद्रों का कार्य तीनों वर्णों के लोगों की बिना किसी ईर्ष्या भाव से सेवा करना है। स्पष्ट है कि चारों वर्णों में ब्राह्मण और क्षत्रिय को लगभग समान महत्व दिया गया, ब्राह्मण को ज्ञानी, क्षत्रिय को शूरवीर, वैश्यों को धन का स्वामी, व शूद्रों को सर्वसेवक कहा गया। चिन्तक ‘श्री अरविन्द’ के अनुसार “समाज में मनन, चिन्तन, पठन-पाठन में संलग्न ब्राह्मणों का सर्वोच्च स्थान माना गया, तदनन्तर प्रजा रक्षण व राज्य की देख भाल करने वाले क्षत्रियों का द्वितीय तथा सबसे अन्तिम किन्तु आदृत स्थान वाणिज्य व्यापार करने वाले वैश्यों को माना गया।” 2
महाभारत में भी विभिन्न वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख इस प्रकार किया गया है कि “उस पुरुष को हमारा प्रणाम है जो ब्राह्मणों को मुख में, क्षत्रियों को बाहुओं में, वैश्यों को ऊरु में, तथा शूद्रों को पैरों में धारण किये है।“
ब्राह्मण ग्रन्थों में गायत्री के भिन्न-भिन्न मंत्र भिन्न-भिन्न वर्णों के लिए बताए गए तथा ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों के लिए बलि की अलग-अलग पद्धतियों का विधान बताया गया है। बसन्त ऋतु में ब्राह्मणों, ग्रीष्म में क्षत्रियों और शरद ऋतु में वैश्यों के लिए यज्ञ जैसा पावन कर्म निषिद्ध बताया गया है।
“बृहदारण्यकोपनिषद” में मानव जाति के चारों वर्णों की उत्पत्ति का आधार ब्रह्मा द्वारा रचित देवताओं के चार वर्ण बताए गए हैं। इन्द्र, वरुण, सोम, यम आदि क्षत्रिय देवताओं, रुद्र, वसु, आदित्य, मरुत आदि वैश्य देवताओं, पुशान आदि शूद्र वर्ण के देवताओं की सृष्टि ईश्वर द्वारा की गई और इन सबसे पूर्व ब्राह्मणों की सृष्टि हो ही चुकी थी। इस वर्ण व्यवस्था के आधार पर ही मानव जाति में भी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों की सृष्टि की गई।
‘भृगु संहिता’ में भी चारों वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख इस प्रकार है कि सर्वप्रथम ब्राह्मण वर्ण था, उसके बाद कर्मों और गुणों के अनुसार ब्राह्मण ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण वाले बने तथा इन वर्णों के रंग भी क्रमशः श्वेत, रक्तिम, पीत और कृष्ण थे। बाद कें तीनों वर्ण ब्राह्मण वर्ण से ही विकसित हुए। यह विकास अति रोचक है जो ब्राह्मण कठोर, शक्तिशाली, क्रोधी स्वभाव के थे, वे रजोगुण की प्रधानता के कारण क्षत्रिय बन गए। जिनमें तमोगुण की प्रधानता हुई, वे शूद्र बने। जिनमें पीत गुण अर्थात् तमो मिश्रित रजो गुण की प्रधानता रही, वे वैश्य कहलाये तथा जो अपने धर्म पर दृढ़ रहे तथा सतोगुण की जिनमें प्रधानता रही वे ब्राह्मण ही रहे। इस प्रकार ब्राह्मणों से चार वर्णो का गुण और कर्म के आधार पर विकास हुआ।
गीता में श्रीकृष्ण ने भी चारों वर्णो का विभाजन गुण और कर्मो के आधार पर ही बताया है। याज्ञवक्य, बौधायन, वशिष्ठ आदि ने भी चार वर्णो को स्वीकार किया है।
‘वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म अथवा कर्म’ - यह एक बड़ा ही विवादस्पद विषय है। इस विषय में विद्वानों के तीन वर्ग हैं - पहला वर्ग वह जो वर्ण व्यवस्था का आधार ‘जन्म’ मानता है। दूसरा वर्ग वह जो ‘कर्म’ को ही वर्ण विभाजन का आधार बताता है तथा तीसरा वर्ग वह जो समन्वयवादी सिद्धान्त का प्रतिपादक है अर्थात् जो जन्म और कर्म दोनों को वर्ण व्यवस्था का आधार मानता है।
‘वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म है’ - ‘वी.के.चटोपाध्याय’ ने वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म बताया है। इसके लिए उन्होंने कुछ प्रमुख व्यक्तियों के उदाहरण दिए हैं -यथा-युधिष्ठिर ब्राह्मणोचित गुणों से युक्त थे, लेकिन जन्म से क्योंकि वे क्षत्रिय वर्ण के थे, अतएव क्षत्रिय ही कहलाए। इसी प्रकार द्रोणाचार्य रणनीति के कुशल ज्ञाता थे तथा युद्ध करना उनका कर्म था, लेकिन जन्म के वर्ण के आधार पर वे ब्राह्मण ही माने गये। निःसन्देह व्यक्ति के गुण उसे जन्म से ही प्राप्त होते हैं, पूर्व जन्म में जो कर्म किए गए हों उन्हीं के अनुसार उसके गुणों का निश्चय होता है। ‘वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म है’ - हिन्दू धर्म के अनुसार मनुष्य का वर्ण निर्धारण कर्म और गुणों के आधार पर ही होता है जैसा कि‘मनु’ने ‘मनुस्मृति’ में बताया है –
“शूद्रो बा्रह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जात्मेवन्तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च।।” 3
अर्थात् शूद्र कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय के समान गुण, कर्म स्वभाव वाला हो, तो वह शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाता है। वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो, उसके गुण व कर्म शूद्र के समान हो, तो वह शूद्र हो जाता है, वैसे ही क्षत्रिय या वैश्य कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण व शूद्र के समान होने पर, ब्राह्मण व शूद्र हो जाता है। ऋग्वेद में भी वर्ण विभाजन का आधार कर्म ही है। निःसन्देह गुणों और कर्मो का प्रभाव इतना प्रबल होता है कि वह सहज ही वर्ण परिवर्तन कर देता है; यथा विश्वामित्र जन्मना क्षत्रिय थे, लेकिन उनके कर्मो और गुणों ने उन्हें ब्राह्मण की पदवी दी। राजा युधिष्ठिर ने नहुष से ब्राह्मण के गुण - यथा, दान, क्षमा, दया, शील चरित्र आदि बताए। उनके अनुसार यदि कोई शूद्र वर्ण का व्यक्ति इन उत्कृष्ट गुणों से युक्त हो तो वह ब्राह्मण माना जाएगा।
‘भागवत पुराण’ भी गुणों को ही वर्ण निर्धारण का प्रमुख आधार घोषित करता है। प्रख्यात दार्शनिक ‘राधा कृष्णन’ भी गुण और कर्म के आधार पर वर्ण विभाजन मानते हैं। वर्ण व्यवस्था को वे कर्म प्रधान व्यवस्था कहते हैं। ‘डा.धुरिये’ के अनुसार वर्ण, मानव रंग से संबंधित है। प्राचीनकाल में मानव समाज में ‘आर्य तथा दस्यु’ दो वर्ण थे। द्रविड़ों को पराजित करने वाले आर्य शनैः शनैः स्वयं की द्विज कहने लगे। बाद में आर्यो तथा द्विजों की वृद्धि होने पर उनके कर्म भी विविध प्रकार के हो गए। तभी उनके विविध कर्मो के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन चार वर्णो की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार ‘आपस्तम्ब सूत्रों’ में भी यही बात कही गई है कि वर्ण ‘जन्मना’ न होकर वास्तव में ‘कर्मणा’ हता है -
“धर्मचर्ययाजधन्योवर्णः पूर्वपूर्ववर्णमापद्यतेजातिपरिव
अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जधन्यं जधन्यं वर्णमापद्यते जाति परिवृत्तौ।।”4
अर्थात् धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाता है - जिस-जिस के वह योग्य होता है । वैसे ही अधर्म आचरण से पूर्व अर्थात् उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वाले वर्ण को प्राप्त होता है और उसी वर्ण में गिना जाता है।
वर्णाश्रम व्यवस्था के विषय में गाँधी जी के विचार उल्लेखनीय है -
“मेरी सम्मति में वर्णाश्रम मानवीय स्वभाव में अन्तर्ग्रथित है। हिन्दू धर्म ने केवल इसे एक वैज्ञानिक रूप दे दिया है। ये चार वर्ण तो मनुष्य के पेशों की परिभाषा करते हैं। वे सामाजिक पारस्परिक सम्बन्धों को निर्बाधित या नियमित नहीं करते।” 5
निःसन्देह व्यक्ति के गुण उसे जन्म से ही प्राप्त होते हैं। पूर्व जन्म में जो कर्म किए गए हैं, उन्हीं के अनुसार उसके गुणों का निश्चय होता है। वे गुण उसके वर्तमान जीवन को प्रभावित करते हैं। इन्हीं गुणों के आधार पर वह उच्च से निम्न व निम्न से उच्च वर्ण को प्राप्त हो जाता है। जैसे बाल्मीकि जाति के शूद्र थे, किन्तु अपने आचार- व्यवहार तथा गुणों के बल से ब्राह्मण कहलाए।
‘समन्वयवादी दृष्टिकोण’ - वर्ण व्यवस्था का सर्वोत्कृष्ट दृष्टिकोण है समन्वयवादी दृष्टिकोण। इसके अनुसार वर्ण व्यवस्था का व्यवहारिक आधार जन्म और कर्म दोनों हैं। क्योंकि वर्ण निर्धारण में केवल जन्म या केवल कर्म को ही आधार मान लेना न्याय संगत नहीं। व्यक्ति पहले तो जन्म के अनुसार ही ब्राह्मण या वैश्य आदि कहलाता है। लेकिन बाद में उसके कर्मों और गुणों को देखकर उसका वर्ण परिवर्तन आवश्यक हो जाता है। अतएव जन्म और कर्म दोनों के आधार पर वर्ण निर्धारण करना अधिक वैज्ञानिक और व्यवहारिक है।
‘जाति का अर्थ और परिभाषा’- ---
जहाँ वर्ण का संबंध जन्म के साथ-साथ कर्म और गुणों से होता है, वहाँ जाति का संबंध केवल जन्म से ही होता है। वर्ण व्यवस्था यदि एक आदर्श विचार है, तो जाति व्यवस्था एक संकीर्ण एवं निकृष्ट विचार है। वर्ण व्यवस्था यदि एक बृहत नैतिक व्यवस्था है जो समाज को सन्तुलित और संगठित करती है, तो वहाँ जाति व्यवस्था समाज को टुकड़ों में बाँट देने वाली व्यवस्था है, जिसमें जन्म से ही व्यक्ति ऊँचा या नीचा मान लिया जाता है। अतएव वर्ण व्यवस्था संगठन को जन्म देने वाली है तथा जाति व्यवस्था विघटन को। जाति की विभिन्न विद्वानों के अनुसार विभिन्न परिभाषाएँ उल्लेखनीय हैं -
‘सरसिजले’ के अनुसार - “जाति उन परिवारों अथवा परिवार समूहों का एक संकलन है, जो एक सामान्य नाम धारण किए हुए है, जो किसी काल्पनिक पूर्वज, मनुष्य या देवता से एक सामान्य वंश परम्परा या उत्पति का दावा करते हैं, जो एक ही परम्परागत व्यवसाय अपनाये जाने पर बल देते हैं और एक सजातीय समुदाय के रूप में मान्य होते हैं तथा जो अपना ऐसा मत व्यक्त करने योग्य हैं।” 6
‘ब्लण्ट’ के अनुसार - “जाति एक अन्तर्विवाही समूह या अन्तर्विवाही समूहों का संकलन है, जो एक सामान्य नाम धारण किए होता है, जिसकी सदस्यता वंशानुगत होती है। वह सामाजिक सहवास के क्षेत्र में अपने सदस्यों पर कुछ प्रतिबन्ध लगाता है। उसके सदस्य एक सामान्य परम्परागत व्यवसाय करते हैं अथवा किसी सामान्य आधार पर अपनी उत्पत्ति का दावा करता हैं और इस प्रकार एक समरूप समुदाय के रूप में मान्य समझा जाता हैं।” 7
‘हट्टन’ के अनुसार - “ जाति वह व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण समाज अनेक आत्मकेन्द्रित तथा एक दूसरे से पृथक-पृथक इकाईयों में विभाजित होता है। इन इकाईयों के आपसी संबंध ऊँच-नीच के आधार पर सांस्कृतिक रूप से निश्चित होते हैं।” 8
‘स्मिथ’ के अनुसार - “जाति परिवारों के उस समूह को कहते हैं, जो विवाह, खान-पान सम्बन्धी कुछ संस्कारों की पवित्रता का पालन करने के लिए बनाए गए नियमों से बँधा हो।” 9
ये सभी परिभाषाएँ अनेक दृष्टियों से अपूर्ण हैं। किसी में जाति को एक समुदाय बताया गया है, जो बिल्कुल त्रुटिपूर्ण है; तो किसी परिभाषा में जाति और गोत्र को एक ही मान लिया गया है। जाति के सांस्कृतिक पक्षों की ओर भी कोई संकेत नहीं दिया गया है। वैसे उपर्युक्त सभी परिभाषाओं में ‘हट्टन’ की परिभाषा सर्वाधिक उचित प्रतीत होती है। वस्तुतः समस्त तत्वों को समेटते हुए जाति की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है - “जाति एक ऐसी संकीर्ण व्यवस्था है, जो समाज का खण्डात्मक विभाजन कर देती है। जिसके कारण व्यक्तियों पर खान-पान और सामाजिक सहवास संबंधी कुछ प्रतिबन्ध लगे होते हैं; जिनका पालन आवश्यक होता है तथा उन प्रतिबन्धों व नियमों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति जाति से अलग भी माना जा सकता है। जाति प्रथा में छुआछूत के आधार पर उच्च तथा निम्न जातियों को सामाजिक और धार्मिक विशेषाधिकार दिए जाते हैं तथा विवाह संस्था को नियमित बनाने के लिए विवाह संबंधी नियम और निषेध भी सभी व्यक्तियों द्वारा मान्य होते हैं।”
इस प्रकार जाति प्रथा की निम्नलिखित विशेषताएँ लक्षित होती हैं। -
प्रथम, स्थिति, पद, कार्य के आधार पर जाति समाज का खण्डात्मक विभाजन कर देती है। प्रत्येक जातिगत खण्ड अपनी जाति के नियमों व रीतिरिवाजों का पालन करने के लिए बाध्य होता है।
द्वितीय, यह एक ऐसी संकीर्ण व्यवस्था है, जो व्यक्तियों के, समाज में ऊँचे-नीचे स्तरों की सृष्टि कर उनमें भेदभाव को जन्म देती है। यथा समाज में इसी जातिगत भावना के कारण ब्राह्मण को सर्वोच्च माना जाता है तथा शूद्र को सबसे निम्न व तिरस्कृत जाति वाला समझा जाता है। व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य इस प्रकार का भेदभाव उनमें प्रतिस्पर्धा को जन्म देता है।
तृतीय, जातियाँ अपने-अपने खण्डों पर कुछ विशेष नियमों, बन्धनों को आरोपित करती हैं, जो खान-पान, रहन-सहन से सम्बन्धित होते हैं। कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में तो इस प्रकार के नियम बन्धन सबसे अधिक जटिल हैं। सामाजिक सहवास संबंधी नियमों के आधार पर निम्न जाति वालों के लिए उच्च जाति वालों का संसर्ग निषिद्ध होता है।
चतुर्थ, छुआछूत के कारण तथा समाज के उच्च-निम्न, खण्डात्मक विभाजन के कारण ब्राह्मण जाति क्योंकि सबसे पवित्र और पूजनीय है, अतएव उसे समस्त सार्वजनिक स्थलों में जाने का अधिकार है। लेकिन शूद्र क्योंकि अपवित्र निम्न जाति है, अतएव वह प्रत्येक सामाजिक स्थलों में प्रवेश पाने की अधिकारी नहीं है।
पंचम, जाति प्रथा के अनुसार प्रत्येक जाति का जातिगत व्यवसाय होता है,जिसे अपनाए रखना नैतिक और धार्मिक रूप से अनिवार्य माना जाता है। वही व्यवसाय जीविकोपार्जन का आधार होता है।
षण्ठ, जाति व्यवस्था ने विवाह जैसे भावनात्मक और पवित्र संबंध को भी नियमों में बाँधने से नहीं छोड़ा। जाति प्रथा के अनुसार व्यक्ति अपनी ही जाति में विवाह कर सकता है। जाति से बाहर किए गए विवाह अस्थिर और शीघ्र ही समाप्त होते देखे गए हैं। इसलिए विवाह सम्बन्ध की नियमितता व स्थिरता के लिए जाति प्रथा के अनुसार जाति से बाहर विवाह निषिद्ध होता है।
लेकिन आधुनिक काल में जाति और वर्ण सम्बन्धी मान्यताओं में बहुत अधिक परिवर्तन आ रहा है। रुढवादिता और संकीर्णता शनैः शनैः दूर हो रही है। जातिगत बन्धन और नियमों का अतिक्रमण सामान्य रूपेण लक्षित होता है। जाति प्रथा शिथिल होती जा रही है तथा भारतीय सामाजिक जीवन में प्रगतिसूचक परिर्वतन आते जा रहे हैं...............
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