सोमवार, सितंबर 14, 2020

हिंदी के संदर्भ में ये मिथक भी टूटता चले कि ये पूरे भारत की भाषा है । बल्कि इस राष्ट्र में हिंदी विरोधी ..हिंदी बोलने और समझने वालों से ज्यादा है ।

 

चीन का तुम आदर किया करो बे ! क्यूँकि वो महाकमीन होकर भी फैमलीयर है ,

उनके पुरखे जिन लकड़ियों की टुंटीयों से खाते थे चीन ने आज भी अपनी उसी संस्कृति को सहेजे रखा है ।

मजाल नही कि कोई इससे कम्प्रोमाइज कर ले ..जिस जुबान के दम पर उन्होंने अपना ढलता सूरज देखा आज वो उसी जुबान के दम पर वैश्विक शक्ति बनकर उभर रहें हैं ।

और हम चमन चूतिये जो हाथ मे चम्मच पकड़कर इतराते हुए जय हिंद बोलते हैं असल में हमें पता नही कि हमने अपने पुरखों की सभ्यताओं पर किस बेरहमी से घोड़े दौड़ाये हैं ...

भारतेंदु हरिश्चंद्र नव पीढ़ी के लिए हड़प्पा -मोहनजोदड़ो से भी अज्ञात और रहस्यमयी है । वो हमें हमारी औकात का आईना सही वक्त पर दिखा गये थे । लेकिन हमने ब्रिटिश मिरर में अपने सिकुड़ते हुए एस हॉल को देखा और गर्व से कहा वी आर प्रोगेसिव ।

हमने नारे -नक्कारे कूटे कि हम भारतीय हर जुबान और भाषा का सम्मान करते है और पराई लुगाई को सम्मान देने के चक्कर में हमने अपनी ही वैधानिक सगी लुगाई को रखैल बना दिया ।

दुनिया के किसी भी मुल्क ने कभी उद्घोष नही किया कि वो हर जुबान को अपनी जुबान से ज्यादा तरजीह देंगे । लेकिन एक हमारी जुबानी और मानसिक बवाशीर ने अपनी जुबान को मिटाने की ऐसी ठानी कि हम अपनी ही जमीन पर दोयम दर्जे के नागरिक बन गये ।

हिंदी के अतिरिक्त आप इस मुल्क में कोई भी जुबान बोल लो तो आप इंटेलेक्चुवल कहलाओगे आंग्ल भाषा का प्रभाव तो इतना व्यापक है कि आप इसमें " Fuck " भी कहोगे तो आप कम से टीवी जर्नलिज्म रिपोर्टर लायक योग्यताधारक तो माने ही जाओगे ।

एक चलती बस में मैंने एक ठेठ सांवले हिदुस्तानी को बताया कि मैं हिंदी और संस्कृत से एम .ए. हूँ उसने मेरी योग्यता से ज्यादा तरजीह उस चरसी लौंडे को दी जो एक लौंडिया पर इम्प्रेशन मारने के लिए अंग्रेजी का अखबार पढ़ रहा था ।

आप धोती कुर्ते और कुर्ता पायजामे में फिट होकर इस राष्ट्र में किसी भी स्त्री का मन नही मोह सकते । मेरी ये टिप्प्णी स्त्री विवेक के संदर्भ में नही है बल्कि मैं सीधे आपको बॉलीवुड ले जाता हूँ जिसने हिंदी की चिता जलाने में एक अदृश्य गम्भीर भूमिका का निर्वहन किया है ।

ब्लैक एंड वाइट जमाने से ही .. हिंदुस्तानी बेटियों को प्यानो बजाने वाले लौंडे का दीवाना दिखाया गया और इसे ही शहरीकरण की पहचान बताया गया । शहरीकरण मतलब पढ़े -लिखे प्रोग्रेसिव लोगों का समूह । और जब भी भारतीय वाद्य यंत्र बजता दिखाई दिया तो वो गाँव के परिपेक्ष्य में ..जहाँ मोहन या सरजू नाम का नायक अपनी प्रेयसी को रिझाने हेतु किसी पत्थर या पेड़ की डाल पर बैठा बाँसुरी बजाता है और उस मोहन या सरजू को अत्यंत दयनीय अथवा शोषित या जाहिल दिखाया गया ।

सिगार , थ्री पीस , बीच -बीच मे अंग्रेजी की लफ्फाजी ये हमें ब्लैक एंड वाइट जमाने से प्राप्त हुई ।

और नाइंटीज के सिनेमा ने फिर गिटार , सेक्सोफोन से शमा लूटा , वायलियन के आते ही सितार मरा और सेक्सोफोन ने बाँसुरी और शहनाई की कब्र खोदी ।
ऐसे ही रिप्लेसमेंट ने भारतीय वाद्य यंत्र को दूरदर्शन तक समेट दिया । वो पक्का ठेठ और प्रभावी चैनल जो पहले भारत की पहचान था । और जो आज सबसे ज्यादा पिछड़ा और उपेक्षित नजर आता है ।

आज के युग ने साड़ी और सलवार कमीज के चिथड़े मचाये तो वेस्टर्न चुम्बक ने वोडका और बेड सीन में उछलने वाली सभ्यता को हमारी नस्लों को सौंप दिया ।

लेकिन तब से आज तक जो बिका उसके खरीदार हम ही थे , हम ही आज का युग लेकर आये हैं .. या यूँ कहूँ हमने ही अपना आज बनाया है ।

लेकिन हम हिंदुस्तानियों ने जैसा अपना कल रौंदा है इतिहास इसका उदाहरण विरले ही देता है । हमने इस राष्ट्र में रहकर हर जुबान अपनाई लेकिन हमारी औकात नही कि हमने किसी देश को हिंदी सौंपी हो ।

सौंपते तो तब जब हम हिंदी से प्यार करते , चीन अगर अपना डेलिगेशन यू . एन .ओ में भेजता है तो वहाँ भी मंडारिन में अपनी बात रखता है, लेकिन हमने इस कल्चर को अडॉप्ट किया कि हमें अपनी जुबान ही वैश्विक मंच में अपनी शर्म लगने लगी ।

दरअसल हम शर्म के मामले सिर्फ राजनीति , धार्मिक मुद्दों और आपसी भड़ास में इस्तेमाल करते हैं । मैंने तो महान हिंदी प्रचारकों की औलादों को भी इंग्लिश मीडियम के दरवाजों से अन्दर -बाहर आते देखा है ।

हमारा डी. एन. ए.... यू ट्यूब की हिंदी डब्ड मूवीज पर भी अंग्रेजी कमेंट्स से क्या खूब छलकता है ।

मैं कतई अंग्रेजी के खिलाफ नही मैं तो पंगु होती उस मनासिक और उधमी सोच से त्रस्त हूँ जो अपनी भाषा को ही अपना पिछड़ापन मान चुके हैं ।

हिंदी दिवस की बधाइयाँ देने वाले उन महापुरुषों को भी मेरा नमन रहेगा जिनकी औलादें " 14 सेप वर्ल्ड फर्स्ट एड डे " के रूप में मना रहीं हैं ।

हिंदी के संदर्भ में ये मिथक भी टूटता चले कि ये पूरे भारत की भाषा है । बल्कि इस राष्ट्र में हिंदी विरोधी ..हिंदी बोलने और समझने वालों से ज्यादा है ।

उत्तर भारत के सीमित प्रदेशों में हिंदी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है । कोई कहेगा कि आप को दिखता नही कि पूरा फेसबुक देवनागिरी लिपि से सुशोभित हो चला है ...कुँए का मेढ़क सिर्फ कुँए को ही सृष्टि समझ लेता है अपनी फ्रेंड लिस्ट में सिर्फ हिंदी भाषियों को जगह देकर आप बाहर के परिवेश से किस प्रकार अवगत नही कारण आप स्वतः ही समझ सकते हों ।

लेकिन जो इंसान अपनी मिट्टी , अपनी जुबान, अपनी संस्कृति को अपनी आँखों के सामने मरते देखता है विश्वास कीजियेगा आने वाला वैश्विक इतिहास उसे अवश्य भारतीय ही कहेगा ।

अभी भी अपनी जुबान और कल्चर को बचा सकते हो वरना एक दिन सिर्फ हिंदी के नाम पर इस देश में सिर्फ एक इंडिया हेरिटेज न्यूज पेपर ही छपा मिलेगा । जो सरकारी होगा और जो पढ़ने के लिए नही सिर्फ प्रदर्शनी के लिए छपेगा ।

हिंदी भाषी न्यूज टी .वी डिबेट एंकर्स की तरफ इशारा न किजिएगा क्यूँकि ये किसी के सगे नही .. जिस जुबान को कैमरे के आगे बोलकर ये करोड़ों कमा रहें हैं उसी जुबान को बोलते वक्त इनके वेस्टर्न परिधान पर आप की नजर क्यों नही जाती ये चिंता का विषय है ।

खैर मेरी तो आदत ही बकबक करने की है .....

नवाज़िश

✍️ Junaid Royal Pathan

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