हिन्दू-राष्ट्रव
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ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहा
‘अरे हिन्दुस्तान(उनक
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हिन्दू पक्ष को अयोध्या में राममंदिर बनाने की न्यायिक जीत के बाद भारत के मुसलमानों की आधिकारिक प्रतिनिधि संस्था ने एक ट्वीट किया जिसके महत्त्वपूर्ण निहितार्थ निम्नलिखित थे-
1. बाबरी मस्ज़िद एक मस्ज़िद थी और रहेगी।
2. हागिया-सोफ़िया की मस्ज़िद हमारे लिए एक आदर्श उदाहरण है।
3. हिन्दू जनमानस ने अपनी जनसंख्या के बल पर मुसलमानों से यह ज़मीन हथिया ली है। यह एक अन्यायपूर्ण, दमनात्मक, लज्जाजनक कर्म है तथा इसे बहुसंख्यक तुष्टीकरण के रूप में देखना चाहिए।
4. उन्होंने इसे एक किस्म के अपहरण की संज्ञा दी है।
5. और सबसे महत्त्वपूर्ण बात कि संस्था का कहना है कि यह स्थिति अर्थात् राममंदिर के बने रहने की ज़्यादा दिनों तक नहीं रहेगी।
और अब गिरफ्तारी से पहले डॉ कफील खान का एक सार्वजनिक सभा में दिया ललकार भरा बयान कि
‘तुम्हारी औकात नहीं कि तुम हमें डरा सको, तुम्हारी औकात नहीं जो हमें हटा सको। 25 करोड़ हैं। यह हमारा हिन्दुस्तान है। हम तुम्हें बताएँगे कि यह हिन्दुस्तान कैसे चलाया जाता है। तो, डरना आता नहीं हमें, चाहे जितना भी डरा लो, हर बार एक नई ताकत से उठेंगे चाहे जितना भी झुका लो। अल्लाह हाफिज।’
अगर आपसे कोई पूछे कि उपर्युक्त तीनों बयानों में क्या फर्क है, तो आप क्या कहेंगे ? मेरे ख्याल से आप भी वही कहेंगे जो मैं कहूँगा कि उपर्युक्त बयानों में बुनियादी तौर पर कोई फर्क नहीं है। ये तीनों ही बयान एक ही तरह के अवचेतन स्वप्न को मन में लिए, दिए गए हैं।
तीनों ही बयानों में आबादी को महत्त्वपूर्ण शस्त्र के रूप में चिन्हित किया गया है। तीनों ही बयानकर्ताओं के अवचेतन में यानी यह तथ्य है कि जिसदिन आबादी बढ़ी अथवा आबादी के बल पर(यानी शरीर बल पर) वे भारत,
नहीं भारत नहीं, हिन्दुस्तान(अपन
तो क्या बहुसंख्यक मुसलमान, जनसंख्या को आधार मानकर कोई छुपा स्वप्न देख रहे हैं अथवा उनका मस्तिष्क किसी विजय का सपना पाले आगे बढ़ रहा है।
तो क्या आरएसएस का जनसंख्या जिहाद या गजवा-ए-हिन्द पर सिर पीटना, चिल्लाना एक गंभीर चिंता का परिणाम है ? अबतक देश का ज्ञानजगत(एकेडेम
उसने आरएसएस की कही हर बात को दूषित और सांप्रदायिक सोच का परिणाम बताकर मुख्यधारा के मस्तिष्क में यह समझ विकसित करने की कोशिश की है कि भारत में कट्टर जिहादी सोच जैसी कोई अवधारणा है ही नहीं बल्कि अगर कुछ भी कट्टर है तो वह हिन्दू अतिवाद और हिन्दू कट्टरता है जो कि आरएसएस या भाजपा के माध्यम से फैल रहा है।
तो कमलेश तिवारी की हत्या से लेकर बैंगलुरु का भीड़ जिहाद तक और पश्चिम बंगाल के मालदा के भीड़ जिहाद से शाहीनबाग के भीड़ जिहाद तक की घटनाओं को कैसे देखा जाए। आतंकवादियों और याकूब मेनन तक के जनाजे में उमड़ी भीड़ हो अथवा अफजल गुरु जैसे आतंकियों जिन्होंने लोकतंत्र के मंदिर को अपनी घृणित हिंसात्मकता की भेंट चढ़ाने का कुत्सित लेकिन नाकाम कोशिश की, तक के जनाजे में उमड़े समर्थन और भीड़ को कैसे देखा जाए। आरएसएस द्वारा मुसलमानों की जनसंख्या को लेकर चिंता व्यक्त करने को उपर्यक्त घटनाएँ क्या सत्य साबित नहीं कर रही हैं ?
कहने का आशय है कि जो लोग जनसंख्या-जिहाद को आरएसएस की दिमागी उपज बताते हैं वे उपर्युक्त बयानों और घटनाओं के आलोक में सोचें उन्हें समझ में आ जाएगा कि आरएसएस की चिंता असल में आधारहीन नहीं है।
पिछले दिनों मजलिस के ही अकबरुद्दीन ओवैसी ने एक सार्वजनिक सभा में कहा कि मुसलमानों ने इस देश पर 800 सालों तक शासन किया है। अतः यानी यह देश उनका है। आपको इन बयानों के निहितार्थों को हँसी में उड़ाने से पहले इतिहास का गंभीरता से अध्ययन करना चाहिए। याद कीजिए जब देश आजादी की दहलीज़ पर था तब मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था मुस्लिम लीग ने अँग्रेज़ों से कहा था कि तुमलोगों ने भारत मुसलमानों से लिया था। अतः जब आज़ाद करके जा रहे हो तो मुसलमानों को ही ही देकर जाओ।
ध्यान रहे इसी एक लाइन ने, इसी एक स्टैंड ने, इसी एक दृष्टि ने, इसी एक बयान ने भारत में दंगों के द्वारा खून की नदियाँ बहाईं थीं, लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा था और सुंदर भव्य पवित्र अखंड भारत का विभाजन कर दिया था। एक बड़ा प्यारा सुंदर सा हिस्सा पाकिस्तान नाम से देश से अलग हो गया था।
क्या इन घटनाओं के आलोक में सोचने पर उपर्युक्त बयान और दृष्टिकोण आपको परेशान नहीं करते ? क्या इसे आरएसएस की दिमागी उपज और सांप्रदायिकता के नाम पर हिन्दू ध्रुवीकरण की कोशिश कहकर छुटकारा पाना कुंभकर्णी नींद में सो जाना अथवा शुतुरमुर्ग की तरह मनःस्थिति वाला होना नहीं होगा ?
मार्क्सवादी लेखिका तथा जेएनयू की पूर्व प्रोफेसर रोमिला थापर अपने लेख में भारत को हिन्दू राष्ट्रवादी देश कहती हैं। वे कहती हैं कि आरएसएस का राष्ट्रवाद देश को सांप्रदायिक तौर पर संकुचित कर देगा। वह राष्ट्रवाद नहीं असल में हिन्दू-राष्ट्रव
रोमिला थापर से मैं बताना चाहूँगा कि दुनिया की हर विचारधारा या हर राष्ट्रवाद का एक वैचारिक आधार और मज़बूत वैचारिकी होती है और अगर भारत के राष्ट्रवाद की वैचारिकी में उन्हें हिन्दू-संस्कृति
कि तो क्या भारत को सीरिया या इराक हो जाना चाहिए ? रोमिला थापर और भारत का ज्ञानजगत(एकेडेम
रोमिला थापर और उनके साथी हिन्दुत्त्वादिय
अगर भारत एक होता, जैसा कि हर हिन्दू अवचेतन सोचता है तब की स्थिति क्या होती, बात उसके आधार पर होनी चाहिए। भारत, बांग्लादेश,पाकि
1951 में अविभाजित भारत में 72% हिन्दू तथा 15% मुसलमान थे जो कि अब अविभाजित भारत(भारत-पाक-ब
भारत में मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि का दर अगर साल-दर-साल प्रतिशत में देखें तो वह लगातार आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ा है। 1951 में 9.9% तो 1961 10.7% , 1971 में 11.2%, तो 1981 में 11.4% , वहीं 1991 में 12.1% तो 2001 में 13.4% और 2011 के जनगणना के अनुसार 14.2% है।
इन आकांड़ों में अगर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की जनसंख्या बढ़ोत्तरी के पैटर्न पर ध्यान दें तो एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आता है कि जहाँ मुस्लिम बहुल क्षेत्र है वहाँ तो मुस्लिम आबादी बढ़ी है और हिन्दू घटे हैं लेकिन जहाँ हिन्दू आबादी में बहुसंख्यक हैं वहाँ भी मुस्लिमों की आबादी तुलनात्मक रूप से ज़्यादा बढ़ी है। यानी यहाँ भी हिन्दू आबादी संतुलित ही है। इसकी व्याख्या यह हुई कि यानी हिन्दू घटे हैं।
यानी लेख के शुरु में जिन लोगों को आबादी को शस्त्र की तरह देखने वालों की ओर इशारा किया है वह निर्मूल नहीं है। वे जनसंख्या को एक टूल की तरह, एक शस्त्र की तरह देख रहे हैं।
लेकिन ज्ञानजगत(एकेडेम
भारत को किन्हीं मजहबी सनकों की भेंट चढ़ने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। भारत की सच्ची उन्नति उसकी मूल आत्मा के साथ सामंजस्य बैठाने में है। पहले ही उसे योरोप आदि देशों के आइने में गढ़ने की कोशिशों ने उसके आत्म को बहुत छलनी किया है। अब समय आ चुका है जबकि उसे उसके मूल आत्मवादी बहुलतावादी संस्कृति के आलोक में गढ़ा जाए, गढ़ने का अवसर दिया जाए।
कफील खान जेल से रिहा हो गए हैं और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपनी माँ से मिलने जाता है तो वीडियो बनाता है, कहनेवाले-बच्चों
यह वीडियो पोस्ट कर यही नैरेटिव बनाया जा रहा है कि कफील खान शरीफ और ईमानदार हैं और भारत की हिन्दुत्त्वादी सरकार उन्हें केवल मुसलमान होने के कारण सता रही है। कफील की पढ़े-लिखे शरीफ शहरी की छवि के प्रोजेक्शन के क्रम में ही यह वीडियो कांड किया जा रहा है।
आप ध्यान दें आठ महीने जेल में रहकर आने के बाद हमेशा से सफाचट रहनेवाले कफील की दाढ़ी किसी मजहबी मुल्ले की तरह बड़ी-बड़ी हो गई है। आप कहेंगे यह तो जेल में रहने के कारण बढ़ गई दाढ़ी है लेकिन मैं आपसे पूढूँगा कि फिर सिर के बाल छोटे-छोटे और घुटे हुए कैसे हैं ? क्या यह अपनी मुसलमानी आइडेंटिटी को हाइलाइटेड करने की उनकी रणनीतिक कोशिश नहीं है ?
जींस और टीशर्ट पहनने वाले सलमान खान जब जेल जाते हैं तब नमाजी टोपी पहन लेते हैं, क्रिकेटर अजहरुद्दीन मैच-फिक्सिंग करते हैं और बदले में हवालात मिलती है तब अचनाक भारत मुसलमानों के लिए तंग समाज हो जाता है। जिस देश में रहकर सेलिब्रेटी बने, हिन्दू लड़की से शादी किए, टीम की कप्तानी मिली, इज्ज़त मिली, सम्मान मिला, शोहरत मिली वही देश अचानक मुसलमानों के लिए ख़तरनाक और अयोग्य हो जाता है।
भारत का कोई भी मुसलमान चाहे वह जिस तबके का हो जब-जब अपने किसी अपराध पर पर्दा डालना चाहता है, इस्लाम को सामने कर देता है और ज्ञानजगत इसमें उनका साथ देता है। वह बदले में हिन्दू-अतिवाद और आतंकवाद जैसे पदबंध गढ़कर उनके लिए डिफेंस तैयार करने लगता है।
कफील की रिहाई में उनकी परिवार से मिलने की, प्यार मुहब्बत से बातें करने के बहाने जो इमेज-बिल्डिंग हो रही है, उसके पीछे एक गहरी रणनीति है वह यह है कि कफील एक घरेलू और ईमानदार और पढ़े-लिखे और डॉक्टर नागरिक हैं तथा भारत की सरकार केवल मुसलमान होने के कारण उन्हें सता रही है।
यह इमेज मेकिंग के माध्यम से भारत की एक ख़तरनाक लेकिन संकट वाली छवि बनाने की कोशिश है। शाहीनबाग के आंदोलन(उपद्रव) का मुख्य उद्देश्य यही तो था कि भारत को मुस्लिम विरोध राष्ट्र घोषित कर दिया जाए, रिहाई के बाद बड़ी चालाकी से बहुत सॉफ्टली कफील और उनके लोग यही मज़बूती से कर रहे हैं।
कफील की सॉफ्ट इमेट असल में भारत की बहुलतावादी और ‘अन्य’ के स्पेस देनेवाली संस्कृति पर एक रणनीतिक और चालाक कोशिश है। भारत को इसे समझना होगा।
आलेख :
✍️ आदित्य कुमार गिरि भाई
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