उर्दू प्रेम होने पर व्यक्ति कच्ची पक्की शायरी बनाने लगता है और शायरों से जुड़ने लगता है। उर्दू ने हिंदी सिनेमा को जकड़ लिया और परिणाम ये हुआ कि राम कृष्ण के स्थान पर अली मौला शब्द सामान्य हो गए। धीरे धीरे हम मुस्लिम संस्कृत के अभ्यस्त होते गए।
हमारी कंडीशनिंग ही ऐसी की गई है कि उर्दू और इसके शायरों के प्रति जो घृणा होनी चाहिए वो अंदर आ ही नहीं पाती। उर्दू को बहुत धीरे धीरे हमारे जनमानस में बिठाया गया है। साथ ही शुद्ध हिंदी और संस्कृत को हास्यास्पद बनाया गया है।
जब छायावादी लेखक जयशंकर प्रसाद तत्सम हिंदी में लिख रहे थे। उस समय प्रेमचंद ने जयशंकर प्रसाद की आलोचना करते हुए कहा कि तुम लोकभाषा में नहीं लिखते। हिंदी में उर्दू घुसेड़ने का कार्य प्रेमचंद ने किया। हिंदी अब एक तरह से उर्दू ही है, संस्कृत को राष्ट्रभाषा का स्थान मिलना चाहिए था। प्रेमचंद अपने आरम्भिक समय में उर्दू लेखक ही थे। अतः स्वाभाविक ही था कि वो उर्दू को अपनाए रहे। प्रेमचंद हिंदी सिनेमा के लिए भी पटकथा लेखन के लिए आये थे और असफल होकर वापस लौट गए।
ये बिडम्बना ही है कि आज अधिकांश हिंदी पट्टी के जन शायरी तो समझ लेते हैं किंतु जयशंकर प्रसाद या सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी की रचना नहीं समझ पाते।
मैं कई वर्षों से अपने लेखन में उर्दू शब्दों के प्रयोग से यथाशक्ति बचता रहा हूँ।
वास्तव में जब हम किसी की भाषा अपनाते हैं तो अपरोक्ष रूप से उसकी संस्कृति को भी अपनाते जाते हैं। यही स्थिति अंग्रेजी के साथ हुई और यही स्थिति उर्दू के साथ हुई। अंग्रेजी आज वैश्विक भाषा बन चुकी है। उसके बिना आज जीविकोपार्जन कठिन है किंतु उर्दू के साथ ऐसी बाध्यता नहीं है और हम इससे बच सकते हैं।
जैसे ही आपका उर्दू प्रेम समाप्त होगा, वैसे ही आप इन धूर्त शायरों के प्रभाव से मुक्त होते जायेंगे। मैं यहाँ अधिकाँश लोगों से कहीं अधिक उर्दू को समझता हूँ, उर्दू में शायरी भी की है। किंतु जबसे इसके प्रभाव को जाना है, इससे दूरी बना ली है।
जब आप अपनी भाषा से कट जायेंगे तो अपने पुरातन शास्त्रों आख्यानों आदि से भी कट जायेंगे। आज हिन्दू काफिर शब्द को इतने सामान्य रूप से लेता है कि उसे पता ही नहीं है कि काफिर इस्लाम में वाजेबुल-कत्ल है। उसे पता ही नहीं चल पाता कि वो बुतपरस्त है और बुतशिकनों के हाथों उसका कत्ल जन्नत के दरवाजे खोल देता है।
तुर्की भाषा में उर्दू का अर्थ सेना होता है। मुस्लिम सेना के विदेशी सैनिक जब अपनी भाषा के साथ भारतीय सैनिकों से टूटी फूटी हिंदी में बात करते थे तो उस भाषा को उर्दू कहा गया जो उस समय के सैनिकों की भाषा थी। अजित वडनेरकर सर के अनुसार उस समय सैनिक छावनी के पास जो हाट लगते थे, उसे उर्दू बाजार कहते थे।
यहाँ फेसबुक पर कुछ जन अपने लेख में नाटकीयता लाने के लिए उर्दू, हिंदी और संस्कृत का घालमेल करते हुए लिखते हैं। उनसे अनुरोध है कि उर्दू का प्रयोग बंद करें और हिंदी एवं लोकभाषा को बढ़ावा दें।
Uday Singh भाई की अनुकरणीय लेख
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