अब 20 करोड़ मुसलमानों को मारा थोड़े न जा सकता है!
जिन्हें इस्लामी शासन या शरीया चाहिए उन्होंने 1947 में पाकिस्तान बना ही लिया तो फिर अब हिन्दुस्तान में समान नागरिक क़ानून लागू करने की जगह शरीया कोर्ट स्थापित करने की माँग का क्या मतलब? यह तो छिपे रुस्तम एक और पाकिस्तान की माँग करने जैसा ही है।
इसके जवाब में लोग यह तर्क देते हैं कि 'अब 20 करोड़ मुसलमानों को मार तो सकते नहीं'। इसका सीधा अर्थ यह है कि संविधान जाए भाड़ में, जो करना है कर लो, हम तो वही करेंगे जो इस्लाम सम्मत है।
लेकिन मुद्दे को अगर इस्लामी इतिहास और मुसलमानों की दृष्टि से देखा जाए तो इसका बड़ा सीधा और प्रभावी हल निकलता है।
पहले इतिहास पर एक नज़र। इस्लाम के प्रचार के लिए 1300 सालों में 27 करोड़ से ज्यादा लोगों का नरसंहार हुआ। इस दौरान दुनिया की आबादी 100 से 200 करोड़ रही। यही काम ईसाइयों और साम्यवादियों ने किया। ईसाई तो 30 करोड़ का आँकड़ा पार कर गए। कम्युनिस्टों ने 100 वर्ष में ही 10 करोड़ लोगों का नरसंहार किया।
अब ज़रा इस मुद्दे को नरसंहारियों की नज़र से देखा जाए। जब नरसंहारी कहते हैं कि 20 करोड़ लोगों को थोड़े न मारा जा सकता है तब वे वस्तुतः अपना नहीं बल्कि अहिंसा में आस्था रखनेवाले काफ़िरों के मूल्यों का इस्तेमाल कर अपनी गैरवाजिब बात मनवाना चाहते हैं और वे इसमें सफल भी होते रहे हैं।
अगर काफ़िर यह सोच लें कि अहिंसा में आस्था ही उनके खिलाफ हिंसा के मूल में है तो फिर ऐसी अहिंसा किस काम की? दूसरे यह कि अपनी जान बचाने के लिए अगर एक व्यक्ति 5 हमलावरों की भी जान ले सकता है तो 100 करोड़ लोग अहिंसा-केंद्रित जीवनमूल्यों की रक्षा के लिए उन 20 करोड़ लोगों की आरती क्यों उतारें जो हिंसा पर उतारू हैं?
उत्तर साफ़ है 100 करोड़ लोग अपनी सुरक्षा के लिए 20 करोड़ तो क्या 500 करोड़ लोगों का भी काम तमाम कर सकते हैं। यह तो बहादुरी का काम होगा। करोड़ों की आबादी वाले दुश्मन मुस्लिम देशों से घिरा 80 लाख आबादी वाला इस्राइल क्या यही काम नहीं कर रहा?
तो मुद्दा 20 करोड़ लोगों के नरसंहार का नहीं बल्कि आत्मरक्षार्थ पूर्व-हिंसा और प्रतिहिंसा का है, चाहे इसमें जितनी जानें जाएँ।
डॉ वफ़ा सुल्तान कहती हैं कि क़ुरआन पढ़ने के बाद भी जो मुसलमान बना रहता है वह मनोरोगी है। इस दृष्टि से तो यह दुनिया आज 150 करोड़ से ज्यादा मनोरोगियों से अँटी पड़ी है। मतलब कि आत्मरक्षार्थ सक्रिय और रणनीतिक हिंसा सिर्फ भारत के काफ़िरों की जरुरत न होकर पूरी दुनिया के ग़ैर-मुसलमानों की मजबूरी बन गई है। ऐसे में सवाल 20 करोड़ बनाम 100 करोड़ की जगह 150 करोड़ बनाम 600 करोड़ का है। इस तरह विश्वयुद्ध से ज्यादा यह मुद्दा विश्वव्यापी गृहयुद्ध का होता जा रहा है और भारत से पहले इसके यूरोप में शुरू होने के आसार हैं।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
जिन्हें इस्लामी शासन या शरीया चाहिए उन्होंने 1947 में पाकिस्तान बना ही लिया तो फिर अब हिन्दुस्तान में समान नागरिक क़ानून लागू करने की जगह शरीया कोर्ट स्थापित करने की माँग का क्या मतलब? यह तो छिपे रुस्तम एक और पाकिस्तान की माँग करने जैसा ही है।
इसके जवाब में लोग यह तर्क देते हैं कि 'अब 20 करोड़ मुसलमानों को मार तो सकते नहीं'। इसका सीधा अर्थ यह है कि संविधान जाए भाड़ में, जो करना है कर लो, हम तो वही करेंगे जो इस्लाम सम्मत है।
लेकिन मुद्दे को अगर इस्लामी इतिहास और मुसलमानों की दृष्टि से देखा जाए तो इसका बड़ा सीधा और प्रभावी हल निकलता है।
पहले इतिहास पर एक नज़र। इस्लाम के प्रचार के लिए 1300 सालों में 27 करोड़ से ज्यादा लोगों का नरसंहार हुआ। इस दौरान दुनिया की आबादी 100 से 200 करोड़ रही। यही काम ईसाइयों और साम्यवादियों ने किया। ईसाई तो 30 करोड़ का आँकड़ा पार कर गए। कम्युनिस्टों ने 100 वर्ष में ही 10 करोड़ लोगों का नरसंहार किया।
अब ज़रा इस मुद्दे को नरसंहारियों की नज़र से देखा जाए। जब नरसंहारी कहते हैं कि 20 करोड़ लोगों को थोड़े न मारा जा सकता है तब वे वस्तुतः अपना नहीं बल्कि अहिंसा में आस्था रखनेवाले काफ़िरों के मूल्यों का इस्तेमाल कर अपनी गैरवाजिब बात मनवाना चाहते हैं और वे इसमें सफल भी होते रहे हैं।
अगर काफ़िर यह सोच लें कि अहिंसा में आस्था ही उनके खिलाफ हिंसा के मूल में है तो फिर ऐसी अहिंसा किस काम की? दूसरे यह कि अपनी जान बचाने के लिए अगर एक व्यक्ति 5 हमलावरों की भी जान ले सकता है तो 100 करोड़ लोग अहिंसा-केंद्रित जीवनमूल्यों की रक्षा के लिए उन 20 करोड़ लोगों की आरती क्यों उतारें जो हिंसा पर उतारू हैं?
उत्तर साफ़ है 100 करोड़ लोग अपनी सुरक्षा के लिए 20 करोड़ तो क्या 500 करोड़ लोगों का भी काम तमाम कर सकते हैं। यह तो बहादुरी का काम होगा। करोड़ों की आबादी वाले दुश्मन मुस्लिम देशों से घिरा 80 लाख आबादी वाला इस्राइल क्या यही काम नहीं कर रहा?
तो मुद्दा 20 करोड़ लोगों के नरसंहार का नहीं बल्कि आत्मरक्षार्थ पूर्व-हिंसा और प्रतिहिंसा का है, चाहे इसमें जितनी जानें जाएँ।
डॉ वफ़ा सुल्तान कहती हैं कि क़ुरआन पढ़ने के बाद भी जो मुसलमान बना रहता है वह मनोरोगी है। इस दृष्टि से तो यह दुनिया आज 150 करोड़ से ज्यादा मनोरोगियों से अँटी पड़ी है। मतलब कि आत्मरक्षार्थ सक्रिय और रणनीतिक हिंसा सिर्फ भारत के काफ़िरों की जरुरत न होकर पूरी दुनिया के ग़ैर-मुसलमानों की मजबूरी बन गई है। ऐसे में सवाल 20 करोड़ बनाम 100 करोड़ की जगह 150 करोड़ बनाम 600 करोड़ का है। इस तरह विश्वयुद्ध से ज्यादा यह मुद्दा विश्वव्यापी गृहयुद्ध का होता जा रहा है और भारत से पहले इसके यूरोप में शुरू होने के आसार हैं।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
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