बुधवार, मई 23, 2018

मंदिरों का चढ़ावा सिर्फ उनकी सुव्यवस्था और सनातन प्रचार में ही खर्च हो।

Swami Rishiraj Anand मंदिरों का चढ़ावा सिर्फ उनकी सुव्यवस्था और धर्म-प्रचार में ही खर्च हो --- ============================== =============== प्राचीन काल से ही यह परम्परा थी कि मंदिरों का उपयोग एक साधना स्थल के रूप में ही होता था| मंदिरों की वास्तु शैली और दिनचर्या ऐसी होती थी साधकों की साधना के दिव्य स्पंदन वहाँ सुरक्षित रहते और वहाँ आने वाले श्रद्धालुओं के हृदयों को दिव्य भावों और पवित्रता से भर देते| . मंदिरों के साथ एक गौशाला, पाठशाला, अन्नक्षेत्र और सदावर्त भी होते थे| मंदिरों का धन सिर्फ वहाँ की सुव्यवस्था और धर्मप्रचार के लिए ही होता था| गौशाला में गौसंवर्धन का कार्य होता| भारत की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित व गायों पर निर्भर थी| पाठशाला में बच्चों को आरम्भिक रूप से लौकिक, नैतिक और धार्मिक शिक्षा दी जाती थी| वहाँ से पढ़े विद्द्यार्थी बड़े चरित्रवान होते थे| अन्नक्षेत्र से ब्रह्मचारी विद्यार्थियों को अन्नदान दिया जाता था| सदावर्त से साधू सन्यासियों को उनकी आवश्यकता के सामान की पूर्ती की जाती थी| . कालांतर में विदेशी आक्रमणों के कारण यह व्यवस्था नष्ट हो गयी| मंदिर भी वे ही बचे जिन्हें प्रत्यक्ष रूप से हिन्दू शासकों का संरक्षण प्राप्त था| हिन्दू शासकों व हिन्दू सेठ साहूकारों द्वारा संचालित मन्दिर ही सुव्यवस्थित रहे| पर राजा महाराजाओं का राज्य समाप्त होने पर हिन्दू मंदिरों की लूट खसोट आरम्भ हो गयी| अधिकांश मंदिर भारत की धर्मनिरपेक्ष (अधर्मसापेक्ष) सरकार ने अपने अधिकार में कर लिए| उनके धन का दुरुपयोग अपने स्वार्थ के लिए करना शुरू कर दिया| . इस धर्मनिरपेक्ष सरकार ने किसी दरगाह, मस्जिद या चर्च को अपने अधिकार में नहीं लिया, सिर्फ मंदिरों को ही लिया कयोंकि इसकी योजना धीरे धीरे हिन्दू धर्म को नष्ट करने की थी| बाकि बचे मंदिरों पर जिनकी चली उन्होंने अपना निजी अधिकार कर लिया और घर बना लिए| . भोले भाले हिन्दू, मंदिरों में रूपया चढाते रहे यही सोचकर कि वे भगवान को चढ़ा रहे हैं, पर आज तक क्या किसी ने भगवान को या किसी देवी-देवता को रुपया उठाते या स्वीकार करते हुए देखा है क्या? उनका क्या उपयोग होता है यह कोई नहीं सोचता| पैसा वहीं चढ़ाना चाहिए जहाँ उसका सदुपयोग होता हो| जहां पर पाठशाला योगशाला सदावर्त गौशाला न हो वह मंदिर मंदिर नही सिर्फ दुकान है । दान की उपयोगिता इसी में है इन्ही सेवाओं लिए दान करना चाहिए । बाकी दान करना व्यर्थ है द्धान्त का दुरूपयोग होता है जिसका अभिशाप दानकर्ता को ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भोगना पड़ता है । दान के भी नियम है नियम का पालन करने से ही लाभ की आशा करनी चाहिए ।

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