गुरुवार, अगस्त 24, 2017

मद्रास हाईकोर्ट द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि यदि दो बालिग अपनी मर्जी से शारीरिक संबंध बनाते है तो उन्हें पति-पत्नी माना जायगा।

विवाह
प्रसंग – मद्रास हाई कोर्ट का लिव-इन-रिलेशन पर एक फैसला
अब पुरूष, स्त्री को यूज एण्ड थ्रो नहीं समझ सकते, लिव-इन-रिलेशन पर मद्रास हाईकोर्ट के फैसले से मिली महिलाओं को नई ताकत।
भारतीय समाज में विवाह एक पवित्र संस्कार और परिवार एक मजबूत संस्था है। ये दोनों ही हमारी संस्कृति के आधार हैं। किन्तु पुरूष प्रधान समाज में स्त्री का शोषण इसके बावजूद भी बदस्तूर जारी है। यह शोषण आर्थिक, मानसिक, शारीरिक एवं सबसे ज्यादा यौन शोषण के रूप में स्त्री को कमजोर बनाता हैं।
आयशा बनाम उजेर हसन मामले में मद्रास हाईकोर्ट के फैसले पर बहस छिड़ी हुई है। कुछ लोग इसे उचित मान रहे है और कई लोग अनुचित। किन्तु यह तय है कि इस फैसले से बड़ी संख्या में उन महिलाओं को कानूनी मदद मिलेगी जो लिव-इन-रिलेशन में कई वर्षों तक रहने के बाद इस उपेक्षा के साथ छोड़ दी जाती है कि हमारे बीच कोई वैवाहिक बंधन तो है नहीं। यह फैसला इन स्त्रीयों को वैवाहिक दर्जा ना होने के बावजूद आश्वस्त करता है कि उनका भी पत्नी की तरह अधिकार है।
हाल ही में मद्रास हाईकोर्ट द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि यदि दो बालिग अपनी मर्जी से शारीरिक संबंध बनाते है तो उन्हें पति-पत्नी माना जायगा। शादी और यौन संबंधों की इस व्याख्या ने विवाद खड़ा कर दिया है। यह फैसला पुरूषों पर लगाम लगा सकता हैं कि किसी स्त्री के साथ लम्बे समय तक दैहिक संबंधों एवं संतान उत्पन्न करने के बाद आप अपनी जिम्मेदारियों से आसानी से यह कह कर पीछा नहीं छुड़ा सकते कि विवाह नहीं हुआ है।
जस्टिस सी.एस. कर्णन ने 2006 के आदेश में बदलाव करते हुए यह व्यवस्था दी। हाई कोर्ट के मुताबिक मंगलसूत्र बांधना, वरमालाएं पहनाना या अंगूठी बदलने जैसे धार्मिक रीति-रिवाज केवल इन नियमों को पूरा करने और समाज को संतुष्ट करने के लिए हैं। कोर्ट का कहना है कि अगर किसी कुंवारे युवक की उम्र 21 साल से ज्यादा है और युवती 18 साल की उम्र पार कर चुकी है तो उन्हें संविधान को ओर से मिली चुनने की आजादी हासिल है। अगर ऐसा कोई जोड़ा यौन इच्छाओं को पूरा करने लिए कदम बढ़ाता है तो इसके नतीजों को स्वीकार करते हुए यह पूर्ण प्रतिबद्धता माना जाएगा। हालांकि कुछ मामलों में अपवाद जरूर हो सकता है। उसने यह भी कहा कि ऐसे रिश्ते में शामिल कोई भी पक्ष फैमिली कोर्ट जाकर यौन संबंध होने से जुड़ा दस्तावेज जमा कर शादी का दर्जा हासिल कर सकता है। ऐसी घोषणा के बाद कोई भी युवती सरकारी रिकार्ड में खुद को उस व्यक्ति की पत्नी करार दे सकती है। अगर ऐसा कोई रिश्ता टूटता है, तो पुरुष को महिला से तलाक की डिक्री हासिल करनी होगी। इसके बाद ही वह दूसरी शादी कर सकता है।
उक्त प्रकरण में आयशा का आरोप है कि उसका 1994 में उजेर हसन से निकाह हुआ था। आयशा के हसन से दो बच्चे भी हैं। हसन ने पाँच साल बाद आयशा को छोड़ दिया। आयशा ने 2000 में कोयम्बटूर फैमिली कोर्ट में गुजारा भत्ता माँगा। फैमिली कोर्ट ने पाँच सौ रूपये देने का आदेश दिया। चूँकि महिला के पास विवाह का कोई प्रमाण नहीं था जिसका फायदा उठाते हुए हसन ने मद्रास हाईकोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी। हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीश कर्णन ने फैमिली कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए ऐसी स्त्रियों एवं इस तरह के संबंधों से जन्मे बच्चों के गुजारा- भत्ता संबंधी हक पर कानूनी मुहर लगाई है।
महिलाओं द्वारा इस फैसले का स्वागत होना चाहिए। क्योंकि यह लिव-इन-रिलेशन के बाद उपेक्षित और परित्यक्त जीवन की कुण्ठा झेल रही स्त्रियों को संबल प्रदान कर सकता है।
भारतीय समाज विवाह के अलावा ऐसे किसी रिश्ते को मान्यता नहीं देता, बावजूद इसके इसी समाज में गंधर्व विवाह, चुपचाप माला डाल कर मंदिरों में किए विवाह भी होते हैं और बड़ी संख्या में अनैतिक संबंधों को भी देखा-सुना जाता है।
आठवें दशक के आरम्भ में ऐसे ही रिश्तों के लिए एक ’मैत्री करार’ चलन में आया था। गुजराती पत्रिका ‘आस-पास’ के अगस्त 1981 के अंक के अनुसार केवल अहमदाबाद में ही मैत्री करार की संख्या साढ़े तीन हजार बताई गई थी। पूरे गुजरात में इसके ढाई गुना करार हुए होंगे। ’मैत्री- करार’ स्त्री-पुरूष संबंधों का कोई नया आयाम नहीं था बल्कि यह माना गया कि अनुचित संबंधों की कानूनी ढाल है। अन्ततः गुजरात सरकार ने तत्काल एक अधिसूचना जारी कर ’मैत्री- करार’ को अनैतिक घोषित कर दिया था। भारतीय दंड संहिता की धारा-494 के अनुसार ऐसे रिश्ते विवाह की श्रेणी में नहीं गिने जाते है। ’मैत्री करार’ करके उत्पन्न बच्चों की भी समस्या थी। भारतीय दंड संहिता की धारा 125 के अनुसार इन्हें अपना भरण-पोषण माँगने का भी अधिकार नहीं है। हिन्दू मैरिज एक्ट के तहत मैत्री करार गैरकानूनी माना गया है। इसके बाद विवाहेत्तर संबंध चाहने वाले पुरूषों ने ’सेवा-करार’(सर्विस काट्रेक्ट) जैसे तरीके अपनाएँ।
मैत्री-करार हो चाहे सेवा-करार, ये सभी ’लिव-इन-रिलेशन’ के पर्यायवाची शब्द ही है। रिलेशन के चलते इन्हें भले ही कुछ भी कहा जाय पर ये रिश्ते पीठ पीछे सोसायटी में स्त्री को ही अपमानित करने वाले सम्बोधनों से नवाजे जाते रहे है। जैसे- रखैल, द्विपत्नी आदि।
मद्रास हाईकोर्ट का यह फैसला इस तरह के रिश्तों एवं इनसे पीडि़त महिलाओं के लिए एक कानूनी ताकत हो सकता है एवं सोसायटी में एक माहौल बना सकता है कि कानून आपको इसकी इजाजत नहीं देता है कि आप स्त्री को यूज एंड थ्रो के सिद्धान्तों पर चलते हुए छोड़ दें और अपनी जिम्मेदारी से बच निकले।
जस्टिस कर्णन ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि अगर आप वयस्क है और सहमति से संबंध स्थापित करते है और ऐसे संबंध से स्त्री यदि गर्भवती हो जाती है या नहीं भी होती है तो भी युवक को उसे पत्नी की तरह ही ट्रीट करना होगा और विवाह की औपचारिकता हुई हो या नहीं, वे पति-पत्नी ही माने जायेंगे। यह फैसला यौन संबंधों के बाद की प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है। विचारणीय यह है कि आज की युवा पीढ़ी जो यौन स्वायत्तता की पक्षधर होती जा रही है – क्या उनके लिए यह एक मुसीबत जैसा बंधन होगा? क्या वे इसे स्वीकारेंगे?
इस तरह के रिश्तों में परित्यक्त होने वाली महिलाओं की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण फैसला हैं क्योंकि उन्हें गुजारा भत्ता समस्या का सामना करना पड़ता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह फैसला समाज में सुधार एवं मानसिकता के बदलाव का आधार बने और ऐसे रिश्तों में एक भय पैदा हो। दरअसल यह फैसला एक सकारात्मक विचार पर केन्द्रित है जो सामाजिक रिश्तों की गरिमा और मर्यादाओं के साथ हमारी परिवार संस्था को मजबूती प्रदान करता है।
एक लम्बी लड़ाई स्त्री की अपने आपसे और समाज से रही है, उसके अस्तित्व व अस्मिता को लेकर उसके चलते भले ही कछुए की चाल से ही सही पर लैगिंक पूर्वाग्रह टूटे है और कानूनों में भी संशोधन हुए है जो स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में सार्थक कदम कहे जा सकते है।
(लेखिका समाजशास्त्री एवं साहित्यकार है)
- डा. स्वाति तिवारी

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