बुधवार, अगस्त 30, 2017

ब्रह्माकुमारी मत,हंसा मत आदि का प्रचार ईसाईयों के योजना-बद्ध षडयन्त्र का ही परिणाम है।

ब्रह्माकुमारी संस्था क्या है ? जानें सच्चाई। भाई दिपक कुमार योगी जी की वॉल से , अवश्य पढ़ें-- ************** 🌷🌷🌷ओ३म्🌷🌷🌷 🌷ब्रह्माकुमारी मत 🌷 ब्रह्माकुमारी सम्प्रदाय के प्रवर्तक का नाम श्री लेखराज जी जिनको प्रायः दादा के नाम से ही पुकारते हैं।दादा एक सम्पन्न धनाढ्य परिवार के व्यक्ति थे,बम्बई में इनकी हीरज,जवाहरात कई दुकान रही।ये स्वभाव से ही रंगीले और विलासप्रिय थे।बम्बई में इनकी सर आगाखाँ के साथ मैत्री थी।सम्भवतः उन्हीं से दादा जी ने यह प्रेरणा प्राप्त की कि किस प्रकार अन्धविश्वास में फंसी भोली-भाली जनता को अपने वश में किया जाए और बिना किसी तप-त्याग और संयम के एक महान् धार्मिक नेत बना जाए।अतः दादाजी ने किसी हठयोगी गुरु के द्वारा शिक्षा ग्रहण करनी आरम्भ कर दी,और त्राटक की साधना का पूरा-२ अभ्यास किया,जिसके द्वारा सम्पर्क में आने वाले निर्बल-मस्तिष्क पुरुषों को तथा भावना प्रधान युवतियों को अपने वश में किया जा सके।इस प्रकार दादाजी सम्मोहन एवं उच्चाटन नामक हठयोग की सिद्धियों से युक्त होकर कार्यक्षेत्र में उतरे। बम्बई में अपना कारोबार बन्द कर इन्होंने करांची में डेरा जा जमाया और ओ३म् मण्डली की स्थापना की,साथ ही तथाकथित ब्रह्मज्ञान और योग की शिक्षा के बहाने चेला-चेली बनाना आरम्भ कर दिया।इनका विषेश प्रयत्न चेली बनाने की और ही रहा।अनेक अविवाहित कुमारियाँ दीक्षित होने के लिए आने लगीं।कुछ विवाहित देवियाँ भी अपने-२ पतियों को त्याग कर आश्रम में रहने लगीं,और दादाजी द्वारा हठयोग की क्रियाएँ सीखने लगीं।इस समय दादाजी की आयु ४० वर्ष के लगभग थी। ओ३म् मण्डली की स्थापना के कुछ काल उपरान्त जनता में उसके प्रति घृणा और रोष उत्पन्न हो गया।प्रतिष्ठित परिवारों की देवियाँ अपने पतियों और पुत्रों का त्याग कर तथा अविवाहित युवतियाँ अपने माता-पिता को त्यागकर जब दादा लेखराज की चेली बन उनके केलिसदन में रहने लगीं,तो रोष व घृणा का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था।आर्यसमाज करांची ने अन्य नागरिकों के सहयोग से ओ३म् मण्डली के विरुद्ध आन्दोलन खड़ा किया।स्थान-स्थान पर विरोध सभाएँ होने लगीं।करांची के अनेक मान्य नेताओं का सहयोग प्राप्त किया गया।आर्यसमाज के अनेक प्रमुख कार्यकर्त्ताओं का शिष्ट-मण्डल श्री साधु टी० एल० वास्वानी जी से भी मिला और इस आन्दोलन में उनका सहयोग उपलब्ध किया।साधु वास्वानी ने सहर्ष ओ३म् मंडली के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन में अपना सहयोग प्रदान किया।कानून का दरवाजा भी खटखटाया गया।परिणाम स्वरुप ओ३म्-मण्डली पर प्रतिबन्ध लगा और दादाजी को करांची छोड़नी पड़ी और अपना डेरा तम्बू उखाड़ना पड़ा। भारत विभाजन के उपरान्त श्रीमान जी ने अपनी लगभग १५० चेलियों के साथ भारत में पदार्पण किया।यहाँ आकर इस मंडली का नया नाम ब्रह्माकुमारी रखा और आबू में आकर दादाजी ने अपना डेरा जमाया।वहाँ की जनता ने भी अपना विरोध प्रदर्शित किया तो कुछ वर्षों के लिए दादाजी ने मौन साध लिया।तदुपरान्त आबू पर्वत पर एक अच्छी कोठी किराये पर लेकर जा बसे और कार्यक्रम पुनः चालू कर दिया। सिन्ध से साथ लाई अपनी चेलियों को भारत के कुछ प्रमुख नगरों में भेजा और क्षेत्र तैयार करना आरम्भ किया। 🌷नाम व्याख्या🌷 इस ब्रह्माकुमारी नाम के सम्बन्ध में ऐसा अनुमान होता है कि दादाजी जो अपने को ब्रह्मा कहते थे और हर ५००० वर्षों में एक बार अपनी तथाकथित चतुर्युग की समाप्ति बेला में ब्रह्मलोक को त्यागकर पृथिवी तल पर मानव शरीर में आने का दावा करते थे,उनके प्रति आत्म-समर्पण करने वाली देवियाँ ब्रह्माकुमारी एवं पुरुष ब्रह्माकुमार कहाते हैं।स्त्री विवाहित हो या अविवाहित,पति को त्यागकर आई हो वा परित्यक्ता हो सब इस पन्थ में दीक्षित होने पर ब्रह्माकुमारी ही कहाती हैं।इसी प्रकार युवा एवं वृद्ध पुरुष ब्रह्माकुमार नाम से पुकारे जाते हैं। 🌷भाई-बहन का नाता🌷 इस सम्प्रदाय में दीक्षित होने के उपरान्त पति-पत्नी परस्पर एक दूसरे को भी बहन-भाई कहने लगते हैं।प्रश्न है यह पति-पत्नि का आपस में भाई-बहन का नाता कैसा?क्या पति-पत्नि आपस में संयम एवं ब्रह्मचर्य का जीवन नहीं बिता सकते?आश्रम के अन्दर शाखा में भाई-बहन और आश्रम से बाहर जाकर ज्यों के त्यों पति-पत्नि बन जाते हैं।आश्रम में स्थाई रुप से निवास करने वाली देवियाँ भी छुट्टी लेकर घर जाती और अपने पति के साथ विलास करती हैं।और क्या इन आश्रमों में भी यह भाई-बहन संयम से ही सदा रहते हैं?देर रात्रि गये तक इन आश्रमों में भाई लोगों का कारों में बैठकर आना-जाना क्या रहस्य पूर्ण नहीं है? 🌷ब्रह्माकुमारियाँ और ईसाईयत🌷 ब्रह्माकुमारियों के अनेक विचार एवं व्यवहार ईसाइयों से मिलते जुलते हैं।जिससे यह भी आशंका होती है कि यह कहीं प्रच्छन्न ईसाई अथवा ईसाई मिशन से सहायता प्राप्त तो नहीं? आज भारत के कोने-कोने में ईसाइयों का यह प्रचार है कि कयामत शीघ्र आने वाली है और यह सारा संसार नष्ट हो जाने वाला है और जो लोग ईसा मसीह की शरण में आ जावेंगे केवल वही बच सकेंगे,शेष सब मिट जाने वाले हैं। इसी प्रकार यह ब्रह्माकुमारी प्रचारिकायें अपनी शाखाओं में यह प्रचार करती हैं कि चतुर्युगी का अन्त सन्निकट है।संसार के मानवों की रक्षा हेतु स्वयं ब्रह्मा जी ब्रह्मलोक त्यागकर वृद्ध मानव शरीर में अर्थात् दादा लेखराज के शरीर में अलतरित हुए हैं,तथा जो इनकी शरण में आवेगा उनको वह प्रलय उपस्थित होने पर सकुशल अपने धाम ब्रह्मलोक में पहुंचा देंगे और शेष सब नष्ट हो जावेंगे।(पर दादा बेचारे स्वयं ही चल बसे!) दादाजी को ब्रह्माकुमारियाँ परम पिता अर्थात् होली फादर कहती हैं,इसी प्रकार ईसाईयों की भांति परस्पर ब्रदर्स एवं सिस्टर्स शब्द का हिन्दी में प्रयोग करती हैं। दादाजी द्वारा आबू के पाण्डु-भवन में तथा सर्वत्र जहाँ-जहाँ वह पदार्पण करते थे,ब्रह्माकुमारियों का मुख चुम्बन किया जाना एव़ गोदी में उनका लिटाना ईसाईयों की विकृत सभ्यता का प्रचार करना नहीं तो क्या है?भारतीय मर्यादाओं की दृष्टि से यह सब व्यवहार पाप है और व्यभिचार रुप है। इसी प्रकार ब्रह्माकुमारियाँ भी योग साधना ढोंग रचकर पर-पुरुषों और विशेषकर नवयुवकों के साथ आँख से आँख मिलाकर बैठती हैं।हमारी संस्कृति की दृष्टि से यह सर्वथा पाप कर्म है,और काम चेष्टा को जागृत करने वाला निन्दित व्यापार है।हमारे यहाँ तो पर नारी के मुख की और ताकना तक भी अशिष्टता मानी जाती है। विश्वस्त सूत्र से यह पता चला है कि सन् १९५० में जब दादाजी सहारनपुर पधारे थे तो अपने उतारे की कोठी में उनके उदर को मेज बनाकर ब्रह्माकुमारियों ने ताश तक खेले और दादाजी लेटे-लेटे रस लेते रहे।दादाजी को भक्त बतलाने का कष्ट करें कि यह कौन-सी यौगिक साधना थी। 🌷भारतीय संस्कृति से द्रोह🌷 आर्य संस्कृति विश्वासी भारत के प्रायः सब ही सम्प्रदायों तक ने अर्थात् शैव,शाक्त,वैष्णव,बौद्ध,सिख आदि ने वेद को विश्व का प्राचीन ज्ञान ग्रन्थ माना है,किन्तु इस ब्रह्माकुमारी सम्प्रदाय ने सबको धता बताई है। भारत में आकर वह ब्रह्माकुमारियों को अपनी पुत्रियाँ कहने लगे किन्तु उनके साथ व्यवहार वह गोपियों के साथ जैसा ही करते रहे। 🌷ब्रह्माकुमारियों का ईश्वरीय ज्ञान🌷 दादाजी द्वारा पाण्डु भवन से जो समय समय पर विज्ञप्तियाँ प्रकाशित होती हैं और शाखाओं में दादाजी के गोप-गोपी भक्ति भाव से उन्हें पढ़कर सुनाते हैं वह मुरलियां कहाती है। समय-समय पर प्रसारित इन मुरलियों में से छांटकर ८८ मुरलियाँ पृथक एक सच्ची गीता पुस्तक के नाम से प्रकाशित की गई है।मुरलियों की मूल भाषा अत्यन्त अशुद्ध एवं निम्न कोटि की है।जिससे यह पता चलता है कि दादाजी का भाषा सम्बन्धी ज्ञान अत्यन्त ही अल्प था।सम्भवतः उनको केवल लिखना और पढ़ना मात्र आता था।दादाजी वेद शास्त्र के विषय में नितान्त शून्य थे।धर्म की दुनिया में यदि आये ही थे तो कुछ अध्ययन,मनन आदि कर लेते,किन्तु उनको तो धर्म और योग की आड़ में कुछ और ही प्रसार करना था तथा बुद्धिवाद एव़ मानवता के स्थान पर अन्धविश्वास एवं संकीर्ण मतवाद का प्रसार करना ही अभीष्ट था। इन मुरलियों की संहिता को सच्ची गीता के नाम से पुकारनि आपत्तिजनक है।उस नाम से यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि योगीराज कृष्ण की गीता झूठी है। अब इस सच्ची गीता की बानगी देखें मुरली सं० ५७ के अन्त में लिखा है कि- "श्रीकृष्ण जी राम से पूर्व सत्युग में हुए हैं।सूर्यवंशी श्री नारायण ही का स्वयंवर से पहले का नाम कृष्ण है।श्रीकृष्ण ने गीता ज्ञान दिया ही नहीं,बल्कि अपने पूर्व जन्म में ब्रह्मा के रुप में मुझ (लेखराज) से गीता ज्ञान लिया।" इनके इस लेख से यह स्पष्ट है कि महाभारत का सारा इतिहिस झूठा है।इनके मत में द्वापर की सन्धि बेला में योगीराज कृष्ण हुए ही नहीं।चन्द्रवंश में इस विभूति ने जन्म ही नहीं धारण किया।तात्पर्य यह है कि ब्रह्माकुमारियों के आचार्य के मत से महाभारत के रचयिता वेद व्यास झूठे हैं।केवल इनके दादाजी सच्चे हैं जिन्होंने युक्ति तर्क प्रमाण शून्य यह गपोड़ा घड़ा है कि सूर्यवंशी नारायण नाम का कृष्ण था।कृष्ण नाम का कोई ऐतिहासिक युगपुरुष धरती पर जन्मा ही नहीं है।भारत के इतिहास को इस निर्लज्जतापूर्ण ढंग से झुठलाना,कृष्ण के अस्तित्व से इंकार करना अक्षम्य राष्ट्रीय एवं जातीय महापाप है। 🌷माता सीता का अपमान🌷 मुरली सं० ६५ में लेखराज लिखते हैं कि राम का इतिहास केवल काल्पनिक है।नाटककार ने एक आध्यात्मिक पहेली को केवल मूर्तरुप प्रदान किया है।राम नाम शिव का ही है।रावण नाम माया का है।मन उसकी लंका है और विकार ग्रस्त्र मनुष्य की आत्मा का नाम सीता है।इस प्रकार की प्रलापपूर्ण दादाजी की मान्यताएँ हैं।इसी मुरली में लिखा है कि- "रावण (माया) ने सीता(आत्मा) से भीख मांगी और जब सीता ने राम(मुझ परमात्मा) द्वारा लगाई गयी लकीर (मर्यादा) को लांघा तो रावण(माया) ने सीता का हरण कर लिया और आत्मा रुपी सीता रावण के कारागार में जीवन-बद्ध अवस्था में कैदी हो गई।" दादाजी (लेखराज) ने यदि रामायण पढ़ी होती तो लकीर लगाने वाले को राम(मुझ परमात्मा) न लिखकर लक्ष्मण (मुझ परमात्मा के भैया) लिखते।इस मुरली में ब्रह्माकुमारियों के दादाजी ने अपने को ब्रह्मा से ऊपर साक्षात् परमात्मा माना है,और अपने को ही राम भी कहा है।बिल्मीकि के राम को केवल काल्पनिक प्रतिपादित किया है। "सीता को धर्म की मर्यादा उल्लंघन करने वाली विषय वासना रत जीव कल्पित किया है।इस कल्पना के पीछे,जिसका कोई आधार नहीं दादाजी की नीच कलुषित मनोवृत्ति कार्य कर रही है। दादाजी का इस प्रकार सीता माता के सतीत्व पर चोट करना हिन्दू जाति की भावनाओं को आघात पहुँचाना है।राम एवं सीता के पवित्र इतिहास को इस प्रकार झुठलाना महान् राष्ट्र-द्रोह है।राम भारत का महान् राष्ट्र पुरुष है और मातेश्वरी सीता तप,त्याग,संयम और सदाचार की देदीप्यमयी प्रतिमा।यूरोपीय ईसाई लेखकों ने राम कृष्ण आदि के पावन इतिहास को मिटाने के लिए और हिन्दू जनता को पथ-भ्रष्ट करने के लिए महान् कुचक्र रचा है।और ब्रह्माकुमारी मत जब इस प्रकार उस कुचक्र का समर्थन करते हैं,तो क्यों न हम इस ब्रह्माकुमारी पन्थ को ईसाईयों का एजेन्ट और एजेन्सी कह सकते हैं।(और यह एक सच्चाई है।ब्रह्माकुमारी मत,हंसा मत आदि का प्रचार ईसाईयों के योजना-बद्ध षडयन्त्र का ही परिणाम है।

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