पत्रकारिता
के जिन सिद्धान्तों के कारण, तथा लोकतंत्र में प्रहरी की भूमिका को ध्यान
में रखकर जो छूट संविधान में दी गई थी, वह भूमिका लक्ष्मी की गोद में समा
गई। मीडिया ने अपने-आप को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ घोषित कर दिया और
संविधान प्रदत्त तीनों पायों के साथ बैठने की हिमाकत कर बैठा। न प्रहरी
रहा, न ही सेतु। जनता से इसका संवेदना का, विकास का, शिक्षा का रिश्ता टूट
गया। जन समस्याओं की अभिव्यक्ति पीछे छूट गई। सार्वजनिक बहस किसी कानून या
सरकारी नीति पर छिड़ती ही नहीं। सबसे बड़ा आघात मीडिया को, विशेषकर
समाचार-पत्रों को यह लगा कि इन्होंने भारतीय संस्कृति का धरातल छोड़ दिया।
शुद्ध उद्योगपति बन गए। किसी प्रकार के पत्रकारिता के सिद्धान्तों से
चिपकने की जरूरत भी समाप्त हो गई।
अब तो बड़ा प्रश्न यह हो गया कि
क्यों न इनको उद्योगों का दर्जा दे दिया जाए! क्या जरूरत है इनको
“अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” की? सही पूछो तो उस स्वतंत्रता के लिए इनका
संघर्ष ही समाप्त हो गया। अधिकार चाहिए तो हर एक को भारतीय लोकतंत्र के
प्रहरी के रूप में भूमिका निभाने का संकल्प-पत्र भरना होगा। धन
के बदले पाठकों का विश्वास नहीं बेचेंगे। दोगलापन करते रहे तो एक दिन पाठक
घर से निकाल भी देगा। नया युवा लिहाज नहीं करेगा। तब जाकर लोकतंत्र पुन:
प्रतिष्ठित होगा। यदि अपने संकल्प पर टिके रहो तो सशक्त मीडिया के आगे
भ्रष्टाचार के भूत भागते नजर आएंगे।
मीडिया के व्यापारिक
दृष्टिकोण ने उसे काफी हद तक जनता के प्रति उदासीन बना दिया। समाचार-पत्र
तो कभी नैतिकता के संदेश वाहक माने जाने जाते थे। आज ऎसे-ऎसे अनैतिक
विज्ञापन छाप देते हैं, जिनकी भाषा सभ्य समाज की नहीं हो सकती।
नीति-सिद्धान्त गौण हो गए, क्योंकि विदेशी निवेश के कारण इनमें व्यवसाय
प्राथमिक हो गया। विदेशी निवेशक को मेरे राष्ट्रहित की पड़ी है। अश्लीलता
और अनैतिकता उनके सभ्य समाज में मान्य है। इस व्यावसायिक दौड़ में अखबार
इतने कमजोर हो गए कि उनमें पाठक, समाज या देश को सही और सच बताने का साहस
ही नहीं रहा। कश्मीर, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे मुद्दों पर 65 साल से
अनभिज्ञ बने बैठे हैं।
या फिर जो खरीद ले उसके भौंपू बनने को
तैयार हो जाते हैं। उनके राज्यों के समाचार-पत्र यह स्वरूप धारण कर चुके
हैं। चुनावी “पैकेज” भी इसकी पुष्टि ही हैं। यही वह कारण भी है कि मीडिया
पाठकों के बजाए व्यापारियों तथा उद्योगपतियों का हित चिन्तक अधिक हो गया।
नीरा राडिया प्रकरण में तो मीडिया के तेज तर्रार, राष्ट्रीय स्तर पर
सम्मानित पत्रकार जिस प्रकार नंगे नजर आए, ऎसा दिन मीडिया जगत में ईश्वर
करे वापस नहीं आए।
इतना ही नहीं आज बड़े-बड़े व्यवसायी घराने एक
के बाद एक मीडिया समूहों का अधिग्रहण करते जा रहे हैं। मीडिया के माध्यम से
अपनी शक्ति, व्यावसायिक हित और राजनीति में भागीदारी बढ़ाना ही उद्देश्य
है। पाठक उनके सामने नहीं होता। कई व्यावसायिक समूह इसी उद्देश्य से अपने
ही अखबार निकालने लगे हैं। व्यवसाय से ऊपर उठकर पत्रकारिता के मूल्यों पर
विश्वास करने वाले मीडिया समूह तो इने-गिने रह गए। जनता का यह स्वार्थ होना
चाहिए कि खोटे प्रत्याशी की तरह खोटे मीडिया का चयन भी नहीं करे।
गुलाब कोठारी
प्रधान सम्पादक पत्रिका समूह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें