गुरुवार, नवंबर 03, 2011

इस्लाम और राजनीतिः कुछ सुभाषित

इस्लाम और राजनीतिः कुछ सुभाषित


इस्लाम और राजनीतिः कुछ सुभाषित

समस्या को आँख मिला कर देख लेना भी उपयोगी है। उसमें समाधान की जो माँग है, वही समाधान उत्पन्न करेगी। ( स.ही. वात्स्यायन ‘अज्ञेय’)

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पाकिस्तान और बंगलादेश इस्लामी खाते का एकाधिकार है। वहाँ और किसी का दावा नहीं। किन्तु भारत संयुक्त खाता है, इसलिए इस का जितना दोहन हो सके, करो(शिव प्रसाद राय, एक बंगला लेखक)

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हमारी शिक्षा डेढ़ सौ वर्षों से सेक्यूलर व्यवस्था के दुष्प्रभाव में रही। छात्रों को विरोध करना चाहिए और अपने राष्ट्रपति से चिल्लाकर पूछना चाहिए कि क्यों आज भी कुछ सेक्यूलर प्रोफेसर हमारे विश्वविद्यालयों में जमे हुए हैं। (ईरानी राष्ट्रपति अहमदीनेजाद, युवा वैज्ञानिकों को संबोधित करते हुए, तेहरान, 6 सितंबर 2006)

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भारत सेक्यूलर केवल इसलिए है क्योंकि हिन्दू बहुमत में हैं, न कि किसी कथित सेक्यूलर पार्टी या नेताओं के कारण। (शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी, नवंबर 2006 में एक बयान में)

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भारत में यह एक सचमुच गंभीर समस्या है। बहुत कम हिंदू जानते हैं कि इस्लाम क्या है। बहुत कम हिंदुओं ने इस का अध्ययन किया है या इस पर कभी सोचा है (सर वी. एस. नॉयपाल)

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तुम किसी ऐसे धर्म के साथ सौमनस्य से रह सकते हो जिसका सिद्धांत सहिष्णुता है। किंतु ऐसे धर्म के साथ शांति से रहना कैसे संभव है जिसका सिद्धांत है “मैं तुम्हें बर्दाश्त नहीं करूँगा”? तुम वैसे लोगों के साथ कैसे एकता रख सकते हो? निश्चय ही, हिन्दू-मुस्लिम एकता इस आधार पर तो नहीं बन सकती कि मुसलमान तो हिन्दुओं को धर्मांतरित कराते रहेंगे जब कि हिन्दू किसी मुसलमान को धर्मांतरित नहीं कराएंगे।… मुसलमानों को हानिरहित बनाने का एक मात्र उपाय संभवतः यही है कि वे अपने मजहब पर उन्मादी विश्वास छोड़ दें। (श्रीअरविंद, 23 जुलाई 1923, सांध्य वार्ताओं में)

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अमेरिका और यूरोप को मालूम नहीं है कि हम अरब लोग अभी बस शुरुआत के भी शुरु में हैं। सबसे शानदार चीज तो होनी बाकी है। अब पश्चिम के लिए कोई शांति नहीं रहेगी।… हम बढ़ेंगे कदम दर कदम। मिलीमीटर दर मिलीमीटर। साल दर साल। दशक दर दशक। कटिबद्ध, अनम्य, धीरज के साथ। यही हमारी रणनीति है। यह रणनीति कि हम समूची पृथ्वी पर फैल जाएंगे(अल-हकीम, फिलीस्तीनी आतंकी नेता जो यासिर अराफात का प्रतिद्वंदी था, 1972 में, ओरियाना फलासी से इंटरव्यू में)

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सेक्यूलरिज्म के प्रश्न पर भारतीय मुसलमान मोटे तौर पर दो हिस्सों में बँटे हैं। एक छोटा तबका है जिसे तिरस्कार से सेक्यूलरिस्ट कहा जाता है, जिनका मानना है कि एक आस्था के रूप में मजहब का सेक्यूलरिज्म के साथ सहअस्तित्व संभव है। दूसरे समूह का नेतृत्व उलेमा करते हैं जिनका दृढ़ विश्वास है कि मजहब केवल आस्था ही नहीं, शरीयत भी है। और शरीयत का सेक्यूलरिज्म के साथ सह-अस्तित्व संभव नहीं। (प्रो. मुशीर-उल-हक, श्रीनगर विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति, 1977 में)

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मुस्लिम सांप्रदायिकता का फिर उभार हुआ है। वस्तुतः यह वही मजहबी सांप्रदायिकता है जो 1947 से पहले शुरू हुई थी, और विभाजन के बाद अस्थाई तौर पर दब गई थी और आज फिर सिर उठा रही है। इसे कुछ मजहबी नेताओं ने शुरू करवाया है किंतु जो मध्यवर्ग और कुछ हद तक छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय हो रहा है(सैयद आबिद हुसैन, जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के पूर्व उपकुलपति, 1965 में)

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मुसलमान लोग इस दृष्टि से सबसे अधिक संकुचित और संप्रदायवादी हैं। उन का घोष-वाक्य है, “अल्लाह केवल एक है और मुहम्म्द उस का पैगंबर है।” उस के अतिरिक्त जो कुछ है वह न केवल बुरा है, अपितु नष्ट हो जाना चाहिए। इस घोष-वाक्य पर आस्था न रखने वालों को तुरन्त ध्वस्त कर देना चाहिए। जो पुस्तक उन से भिन्न उपदेश देती है उसे जला देना चाहिए। पाँच सौ वर्षों तक प्रशान्त महासागर से अटलांटिक महासागर तक रक्त की धारा बहाई गई, यही है इस्लामवाद(स्वामी विवेकानंद, 1900 में, पसेडेना, कैलिफोर्निया में एक व्याख्यान में)

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आतंकवादियों ने मुझे ‘काफिर’ कहा,

भारत सरकार ने मुझे ‘माइग्रेंट’ कहा,

मेरे बंधुओं ने मुझे ‘शरणार्थी’ कहा।

आखिर, क्या हूँ मैं? (ललित कौल, विस्थापित कश्मीरी हिन्दू कवि)

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इस से इंकार करना विवेक विरुद्ध है कि इस्लाम एक तालाब है जिस में हम सब डूब रहे हैं। अपनी जमीन की रक्षा न करना, अपने घर, अपने बच्चों, अपना आत्मसम्मान, अपने सारतत्व की रक्षा न करना विवेक विरुद्ध है। मूर्खतापूर्ण या बेईमानी भरे झूठ को स्वीकार करना, जो सूप में आर्सेनिक की तरह हमें परोसे जा रहे हैं, विवेक विरुद्ध है। कायरता या आलस्य के कारण हार मान लेना, आत्मसमर्पण कर देना विवेक विरुद्ध हैयह सोचना भी विवेक विरुद्ध है कि ट्रॉय की आग अपने-आप या मैडोना के चमत्कार से बुझ जाएगी। इसलिए सुनो मेरी बात, मैं तुमसे विनती करती हूँ! मेरी बात सुनो, क्योंकि मैं मजे के लिए या पैसे के लिए नहीं लिखती। मैं कर्तव्य के रूप में लिख रही हूँ। ऐसा कर्तव्य जो मेरी जिंदगी की कीमत पर हो रहा है। और कर्तव्यवश ही मैंने इस ट्रेजेडी पर इतना विचारा है। पिछले चार वर्षों से मैंने इस्लाम और पश्चिम का, उन के अपराध और हमारी भूलों का विश्लेषण करने के सिवा कुछ नहीं किया है। अर्थात्, वह युद्ध लड़ना जिससे हम अब और नहीं बच सकते। उसके लिए, मैंने अपना वह उपन्यास लिखना तक किनारे कर दिया, वह पुस्तक जिसे मैं ‘मेरा बच्चा’ कहती थी। इस से भी बुरा यह कि मैंने अपनी परवाह छोड़ दी, अपना जीवन। उस विंदु पर जब मेरा जीवन बहुत कम शेष बचा है। और मैं यह सोचते हुए मरना चाहूँगी कि यह बलिदान कुछ काम का रहा। (ओरियाना फलासी, 2003 में लिखित पुस्तक ‘फोर्स ऑफ रीजन’ में। उन का निधन 16 सितंबर 2006 को हुआ।)

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