मॅक्स मूलर का पत्र और संस्कृत की प्रेरणा -डॉ. मधुसूदन
मॅक्स मूलर ने, I C S ( Indian Civil Service) की परीक्षा के हेतु तैय्यार होने वाले युवाओं के सामने १८८० के आस पास, केम्ब्रिज युनीवर्सीटी में ७ भाषण दिए थे।उन भाषणों के उपलक्ष्य़ में जो पत्र व्यवहार हुआ था, उसका अंश प्रस्तुत है। सभी भारतीय संस्कृत प्रेमी और अन्य भारतियों को यह जानकारी, संस्कृत अध्ययन की प्रेरणा ही दे कर रहेगी।
जब मॅक्स मूलर अंग...
मॅक्स मूलर ने, I C S ( Indian Civil Service) की परीक्षा के हेतु तैय्यार होने वाले युवाओं के सामने १८८० के आस पास, केम्ब्रिज युनीवर्सीटी में ७ भाषण दिए थे।उन भाषणों के उपलक्ष्य़ में जो पत्र व्यवहार हुआ था, उसका अंश प्रस्तुत है। सभी भारतीय संस्कृत प्रेमी और अन्य भारतियों को यह जानकारी, संस्कृत अध्ययन की प्रेरणा ही दे कर रहेगी।
जब मॅक्स मूलर अंग...
्रेज़ युवा छात्रों को संस्कृत अध्ययन के लिए प्रेरित करते हैं,, जो उन छात्रों के लिए अवश्य अधिक कठिन ही होगा, तो हमारे युवा ऐसे आह्वान से कैसे मुह चुराएंगे, जिनके लिए निश्चित रूपसे संस्कृत अध्ययन अंग्रेज़ो की अपेक्षा कमसे कम तीनगुना तो सरल ही होगा।
(१) एक हमारी सभी भाषाएँ ७० से ८० प्रतिशत (तत्सम और तद्भव) संस्कृतजन्य शब्द रखती है।
अपवाद केवल तमिल है, जिसमें ४० से ५० प्रतिशत संस्कृतजन्य शब्द होते हैं।
पर अचरज यह है, कि, तमिलनाडु में ही वेद्पाठी गुरूकुल शालाएं आज भी अबाधित रूप से चल रही है।
(२) हमारी ६०-६५ प्रतिशत भाषी जनता देवनागरी जानती है। उपरान्त ३० प्रतिशत भारतियों की भाषाएँ, देवनागरी की ही भाँति ध्वन्यानुसारी रूप से व्यवस्थित और अनुक्रमित है।
(१) प्रोफेसर कॉवेल — युनीवर्सीटी ऑफ़ केम्ब्रिज मॅक्स मूलर, प्रोफेसर कॉवेल को, जो उस समय, युनीवर्सीटी ऑफ़ केम्ब्रिज में संस्कृत पढाते थे,लिखते हैं; …..”पर आप भी जानते हैं कि अभी तो संस्कृत साहित्य के विशाल-काय महाद्वीप की एक छोटी पट्टी (strip) भर ही खोजी गयी है, और कितना अज्ञात धरातल अभी भी बचा हुआ है।” टिप्पणी:{बस एक विशाल हिम शैल की शिखामात्र खोजी गयी थी।} जिन्हों ने ’PRIDE OF INDIA’– A glimpse into India’s scientific heritage,(2006), पढी होगी, उन्हें सहमत होने में कठिनाई नहीं होगी
(२) कठिन कष्टदायक काम मॅक्स मूलर कहते हैं: निःसंदेह, यह काम कठिन है, कष्टदायक भी, और बहुत बार हताश करने वाला भी है, पर युवा छात्रों को वे वचन जो डॉ. बर्नेल ने कहे थे, ध्यान में रखने चाहिए, —”जिस काम को करने से, अन्यों को (हमारी बाद की पीढियों को) सुविधा होगी, ऐसा कोई कठिन काम त्यागना नहीं चाहिए।” टिप्पणी: क्या हमें यह कठिन काम त्यागना चाहिए? और क्या हमारे लिए उनसे भी कठिन माना जाए? आप, टिप्पणी दीजिए।
) कठिन परिश्रमी युवा चाहिए (३)आगे, मॅक्स मूलर लिखते हैं: हमें ऐसे युवा चाहिए, जो कठिन परिश्रम करेंगे, जिनके परिश्रम का कोई पुरस्कार भी उन्हें शायद ही मिले, हमें ऐसे पुरूषार्थी और निडर युवाओं की आवश्यकता है, जो आँधी, बवंडरों से डरते नहीं है, समुद्री टीलों पर नौका की टक्कर से जिनकी नाव टूटती है, पर हताश होते नहीं है। वे नाविक बुरे नहीं होते, जिनकी नौका पथरीले टिलोंपर टकरा कर टूटती है, पर वें हैं, जो छोटे छोटे डबरों में नाव तैराकर उसी किचड में लोट कर ही संतोष मान लेते हैं। टिप्पणी: हमारे युवा, और युवामानस रखने वाले इन शब्दों पर विचार कर, अपनी टिप्पणी दें।
(४)आलोचना करना बंद करो:आगे, मॅक्स मूलर अंग्रेज़ युवाओं को लक्षित कर लिखते हैं: बहुत सरल है, आज, विलियम जोन्स, थॉमस कोलब्रुक, और एच. एच. विलसन इत्यादि विद्वानों के परिश्रम की आलोचना करना, पर संस्कृत के विद्वत्ता प्रचुर अगाध ग्यान का क्या होता, यदि इस क्षेत्र में, वे विद्वान आगे बढे न होते, जहाँ पग रख कर प्रवेश करने में भी आप सारे इतने डरते हो?
(५)संस्कृत में भरी पडी, विपुल जानकारी, आगे, मॅक्स मूलर लिखते हैं: और संस्कृत में भरी पडी, विपुल जानकारी का क्या होगा, यदि इस क्षेत्र की उपलब्धि के लिए, हम सदा के लिए इस विषय में हमारी मर्यादा में ही बँधे रह जाएँ? लेखक: क्या यह वाक्य हमारे लिए भी, लागू नहीं होता? शायद अंग्रेज़ों से भी अधिक ही होता है। लेखक: फिरसे जिन्हों ने ’PRIDE OF INDIA’– A glimpse into India’s scientific heritage,(2006), पढी होगी, उन्हें सहमत होने में कठिनाई नहीं होगी
(६) विशाल ज्ञान का भंडार आगे, मॅक्स मूलर लिखते हैं: आप निश्चितरूपसे जानते हैं, कि संस्कृत साहित्य और धर्म ग्रंथों में, में नल दमयन्ती और शाकुन्तल के नाटकों से बढकर भी बहुत विशाल ज्ञान का भंडार भरा पडा है, जो कई अधिक खोजने की आवश्यकता है; और जानने योग्य भी है। और अवश्य जो युवा प्रति वर्ष भारत जाते हैं, उनकी ऐसा साहस करने की क्षमता नहीं है; ऐसा मैं नहीं मान सकता। लेखक :तो क्या भारत का युवा, अंग्रेज़ युवा से कम क्षमता रखता है?
(७)लेखक: इस सुभाषित से भी हमारे युवा सीख ले सकते हैं।
योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका।
आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति॥
संधि विच्छेद कर:
योजनानां सहस्रं तु शनैः गच्छेत् पिपीलिका।
आगच्छन वैनतेयः अपि पदम् एकम् न गच्छति॥
अर्थ: यदि चींटी भी यदि चले, तो धीरे धीरे हज़ारों योजन (मील) काट सकती है। पर गरूड यदि अपनी जगह से ना हीला तो एक पग भी आगे नहीं बढ सकता।
पिपीलिका: यह चींटी का एक पर्यायवाची नाम है। पीपल के वृक्ष पर पायी जाती है, इससे पिपीलिका कहलाती है। और गरूड विनता की सन्तान होने से उसे वैनतेय कहते हैं। यह प्रत्ययों का जादु है। कभी आगे विशद किया जाएगा।
कविता
जब चींटी चले धीरे धीरे, हजारों योजन कटे।
गरूड हिले न, अपनी जगह , एक भी पग ना बढे॥
चींटी की भाँति ही संस्कृत के ज्ञान में आगे बढें।
संस्कृत भारती का सम्पर्क कीजिए।
http://www.pravakta.com/ maxmuller-letter-and-sanskr it
See More(१) एक हमारी सभी भाषाएँ ७० से ८० प्रतिशत (तत्सम और तद्भव) संस्कृतजन्य शब्द रखती है।
अपवाद केवल तमिल है, जिसमें ४० से ५० प्रतिशत संस्कृतजन्य शब्द होते हैं।
पर अचरज यह है, कि, तमिलनाडु में ही वेद्पाठी गुरूकुल शालाएं आज भी अबाधित रूप से चल रही है।
(२) हमारी ६०-६५ प्रतिशत भाषी जनता देवनागरी जानती है। उपरान्त ३० प्रतिशत भारतियों की भाषाएँ, देवनागरी की ही भाँति ध्वन्यानुसारी रूप से व्यवस्थित और अनुक्रमित है।
(१) प्रोफेसर कॉवेल — युनीवर्सीटी ऑफ़ केम्ब्रिज मॅक्स मूलर, प्रोफेसर कॉवेल को, जो उस समय, युनीवर्सीटी ऑफ़ केम्ब्रिज में संस्कृत पढाते थे,लिखते हैं; …..”पर आप भी जानते हैं कि अभी तो संस्कृत साहित्य के विशाल-काय महाद्वीप की एक छोटी पट्टी (strip) भर ही खोजी गयी है, और कितना अज्ञात धरातल अभी भी बचा हुआ है।” टिप्पणी:{बस एक विशाल हिम शैल की शिखामात्र खोजी गयी थी।} जिन्हों ने ’PRIDE OF INDIA’– A glimpse into India’s scientific heritage,(2006), पढी होगी, उन्हें सहमत होने में कठिनाई नहीं होगी
(२) कठिन कष्टदायक काम मॅक्स मूलर कहते हैं: निःसंदेह, यह काम कठिन है, कष्टदायक भी, और बहुत बार हताश करने वाला भी है, पर युवा छात्रों को वे वचन जो डॉ. बर्नेल ने कहे थे, ध्यान में रखने चाहिए, —”जिस काम को करने से, अन्यों को (हमारी बाद की पीढियों को) सुविधा होगी, ऐसा कोई कठिन काम त्यागना नहीं चाहिए।” टिप्पणी: क्या हमें यह कठिन काम त्यागना चाहिए? और क्या हमारे लिए उनसे भी कठिन माना जाए? आप, टिप्पणी दीजिए।
) कठिन परिश्रमी युवा चाहिए (३)आगे, मॅक्स मूलर लिखते हैं: हमें ऐसे युवा चाहिए, जो कठिन परिश्रम करेंगे, जिनके परिश्रम का कोई पुरस्कार भी उन्हें शायद ही मिले, हमें ऐसे पुरूषार्थी और निडर युवाओं की आवश्यकता है, जो आँधी, बवंडरों से डरते नहीं है, समुद्री टीलों पर नौका की टक्कर से जिनकी नाव टूटती है, पर हताश होते नहीं है। वे नाविक बुरे नहीं होते, जिनकी नौका पथरीले टिलोंपर टकरा कर टूटती है, पर वें हैं, जो छोटे छोटे डबरों में नाव तैराकर उसी किचड में लोट कर ही संतोष मान लेते हैं। टिप्पणी: हमारे युवा, और युवामानस रखने वाले इन शब्दों पर विचार कर, अपनी टिप्पणी दें।
(४)आलोचना करना बंद करो:आगे, मॅक्स मूलर अंग्रेज़ युवाओं को लक्षित कर लिखते हैं: बहुत सरल है, आज, विलियम जोन्स, थॉमस कोलब्रुक, और एच. एच. विलसन इत्यादि विद्वानों के परिश्रम की आलोचना करना, पर संस्कृत के विद्वत्ता प्रचुर अगाध ग्यान का क्या होता, यदि इस क्षेत्र में, वे विद्वान आगे बढे न होते, जहाँ पग रख कर प्रवेश करने में भी आप सारे इतने डरते हो?
(५)संस्कृत में भरी पडी, विपुल जानकारी, आगे, मॅक्स मूलर लिखते हैं: और संस्कृत में भरी पडी, विपुल जानकारी का क्या होगा, यदि इस क्षेत्र की उपलब्धि के लिए, हम सदा के लिए इस विषय में हमारी मर्यादा में ही बँधे रह जाएँ? लेखक: क्या यह वाक्य हमारे लिए भी, लागू नहीं होता? शायद अंग्रेज़ों से भी अधिक ही होता है। लेखक: फिरसे जिन्हों ने ’PRIDE OF INDIA’– A glimpse into India’s scientific heritage,(2006), पढी होगी, उन्हें सहमत होने में कठिनाई नहीं होगी
(६) विशाल ज्ञान का भंडार आगे, मॅक्स मूलर लिखते हैं: आप निश्चितरूपसे जानते हैं, कि संस्कृत साहित्य और धर्म ग्रंथों में, में नल दमयन्ती और शाकुन्तल के नाटकों से बढकर भी बहुत विशाल ज्ञान का भंडार भरा पडा है, जो कई अधिक खोजने की आवश्यकता है; और जानने योग्य भी है। और अवश्य जो युवा प्रति वर्ष भारत जाते हैं, उनकी ऐसा साहस करने की क्षमता नहीं है; ऐसा मैं नहीं मान सकता। लेखक :तो क्या भारत का युवा, अंग्रेज़ युवा से कम क्षमता रखता है?
(७)लेखक: इस सुभाषित से भी हमारे युवा सीख ले सकते हैं।
योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका।
आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति॥
संधि विच्छेद कर:
योजनानां सहस्रं तु शनैः गच्छेत् पिपीलिका।
आगच्छन वैनतेयः अपि पदम् एकम् न गच्छति॥
अर्थ: यदि चींटी भी यदि चले, तो धीरे धीरे हज़ारों योजन (मील) काट सकती है। पर गरूड यदि अपनी जगह से ना हीला तो एक पग भी आगे नहीं बढ सकता।
पिपीलिका: यह चींटी का एक पर्यायवाची नाम है। पीपल के वृक्ष पर पायी जाती है, इससे पिपीलिका कहलाती है। और गरूड विनता की सन्तान होने से उसे वैनतेय कहते हैं। यह प्रत्ययों का जादु है। कभी आगे विशद किया जाएगा।
कविता
जब चींटी चले धीरे धीरे, हजारों योजन कटे।
गरूड हिले न, अपनी जगह , एक भी पग ना बढे॥
चींटी की भाँति ही संस्कृत के ज्ञान में आगे बढें।
संस्कृत भारती का सम्पर्क कीजिए।
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