शुक्रवार, दिसंबर 25, 2020

भारतीय संविधान की दृष्टि में देशी रियासतें- क्या हैं प्रिवी पर्स-

 

क्या हैं प्रिवी पर्स- भारत के राजाओं को दिया जाने वाला रुपया !
क्यों बन्द कर दिया ? 
जिस कोंग्रेस ने वचन दिया उसी ने वचन तोड़ दिया क्या यही कोंग्रेस की नीति हैं ?

©️डाँ. महेन्द्रसिंह तँवर

भाग -1

प्रीवी पर्स क्या हैं इसको जानना बहुत ज़रूरी हैं । 15 अगस्त 1947 को जब अंग्रेज़ो ने भारत को स्वतंत्र किया तब भारत दो भागो में स्वतंत्र हुवा था।

एक भाग जो अंग्रेज़ी सरकार के अधीन था वह जो 53 प्रतिशत था ओर दुसरा भाग वह जो राजाओं के अधीन था जो भारत के सम्पूर्ण भाग का 47 प्रतिशत था तथा जिसका क्षेत्रफल 5,87,949 वर्ग मिल में फैला था।

जण संख्या के दृष्टि से भी इन रियासतों का योगदान कम महतवपूर्ण नहीं था । विभाजन के बाद भारत अधिराज्य की जनसंख्या 31 करोड़ 90 लाख थी ( 1941 की जणगणना के अनुसार ) जिसमें 8 करोड़ 90 लाख लोग इन रियासतों में रहते थे । एक प्रकार से उस समय 28 प्रतिशत जनसंख्या रियासतों में निवास करती थी ।

क्षेत्रफल के हिसाब से जम्मू - कश्मीर का राज्य सबसे बड़ा था 84, 471 वर्ग मील , हैदराबाद 82,313 वर्ग मील अौर तीसरे स्थान पर मारवाड़ रियासत थी जिसका क्षेत्रफल 36100 वर्गमील था। उस समय दस हज़ार वर्ग मील क्षेत्र से बड़ी 15 रियासतें थी, एक हज़ार से दस हज़ार वर्गमील क्षेत्र के मध्य वाली 67 रियासतें थीं तथा एक हज़ार वर्गमील से कम की 202 रियासतें थी ।

26 जनवरी 1950 तक अर्थात गणतंत्र भारत के जन्म तक 554 रियासतें भारत में मिल चुकी थी।

हमारे देश की स्वतंत्रता से पूर्व अन्तराष्ट्रीय क़ानून के तहत भारत के सभी देशी रजवाड़ों को 3 जून 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त हो गयी । ब्रिटिश हुकूमत के साथ जो उनकी सन्धिया थी वे ख़त्म हो गयी अब वे पूरी तरह से स्वतंत्रत थे ।

ब्रिटिश सरकार के श्वेतपत्र के मुताबिक़ भारत का एक भाग जो उनके अधीन था वह कोंग्रेस के नेताओ को 15 अगस्त 1947 को सौंप दिया गया तथा रियासतों को पूर्व में ही उनकी सन्धियों से मुक्त करके स्वतंत्र कर दिया था। वे अब स्वतंत्र राष्ट्र थे ।

उस समय भारत वर्ष को अखण्ड बनाये रखने के लियें इन सभी रियासतों के साथ भारत सरकार ने एक सन्धि की जिसे संविलयन प्रालेखों ( इंस्ट्रुमेंटस ओफ एक्शेसन ) के तहत ये रियासतें भारत के साथ रहीं । इसके बाद संविलयन अनुबन्धों या प्रसंविदाओ ( मर्जर एगरिमेंट्स अौर कोवनेंट्स) पर हस्ताक्षर हुए । इन दोनो सन्धियों से 554 रियासतों को भारत से जोड़ा गया था ।

इन सन्धियों के तहत रियासतों ने तीन अधिकार भारत सरकार को सौंपे गये थे - प्रति रक्षा , परराष्ट्र सम्बंध , संचार - अधिराज्य सरकार को सौंपे इन अधिकारों के अलावा शेष विषयों में उनकी प्रभुता स्वतंत्र रही ।

संविलयन अनुबंधों अौर प्रसंविदाओ के अन्तर्गत भारतीय नरेशों को यह वचन दिया गया था की उनके व्यक्तिगत अधिकार एवं विशेषाधिकार यथावत रहेंगे तथा प्रीवी पर्स चालू रहेंगे ।

प्रीवी पर्स के तहत राजाओं को उनकी रियासतो के वार्षिक अौसत राजस्व के प्रतिशत के आधार पर देना तय किया गया था। सबसे अधिक मैसुर रियासत को 26 लाख अोर मारवाड़ को 17 लाख 50 हज़ार तथा सबसे कम 192 रुपए वार्षिक सौराष्ट्र स्थित कटौदिया के शासक मिलती थी । ये रक़म ना बढ़ाई ओर ना घटाई जा सकती थी । तत्कालीन राजाओं को जीवन पर्यन्त प्राप्त होती रहेगी तथा इसे आय कर से मुक्त रखा गया था । इसमें यह शर्त जोड़ दी गयी थी की तत्कालीन शासक के उतराधिकारी को जारी रखने का निर्णय भारत सरकार बाद में अवसर आने पर निर्णय करेगी।

1950 में प्रीवी पर्सो के रूप में दी जाने वाली धनराशि का योग लगभग 5.8 करोड़ था । उस समय भारत सरकार 279 शासकों को 4,81,59,714 रुपये देती थी । इसके विपरीत शासकों से प्राप्त धनराशि इतनी थी की उसके ब्याज से ही प्रीवी पर्स दिया जा सकता था ।

सविंधान सभा की बहस , खण्ड 10 , अंक 5, पृष्ठ 165-68 ; भारतीय रियासतों पर स्वेत पत्र में पन्मुद्रित पृष्ठ 120-25 के अनुसार -“ .....अब इन समझौतो के दूसरे भाग को पूरा करना हमारा कर्तव्य है अथार्त इस ओर से अास्वस्त होना की प्रीवी पर्स सम्बन्धी दी गई हमारी गारण्टी सच्ची उतरे। इस सम्बन्ध में असफल होना एक विश्वासघात होगा अौर नई व्यवस्था के सुस्थिरीकरण को काफ़ी आघात पहुँचाएगा ।”

आगे चलकर इसी कोंग्रेस ने अपने वचन को तोड़ के विश्वासघात करके संसद में क़ानून बना कर प्रीवी पर्स समाप्त कर दिए ।

क्रमश ...............

गतांक से आगे -

भाग - दो ..

अन्तराष्ट्रीय क़ानून की दृष्टि में - भारत के रजवाड़े :- 
©️डाँ. महेन्द्रसिंह तँवर

सार्वजनिक अन्तराष्ट्रीय क़ानून के अंतर्गत, जो कि भारत के साँविधानिक क़ानून या देश - विधि से भिन्न हैं , भारत सरकार अपनी गारण्टियों को पूरा करने , शासकों को प्रीवी पर्स देने तथा उनके व्यक्तिगत अधिकारो एवं विशेषाधिकारो को मान्यता देने के लिये बाध्य हैं ।

अन्तराष्ट्रीय क़ानून के लिए तो निर्णायक तथ्य यह हैं कि 15 अगस्त 1947 को जिस दिन ‘ भारतीय स्वाधीनता अधिनियम , 1947 लागु हुवा , भारतीय रियासतें अंग्रेज़ी प्रभुता से मुक्त हो कर स्वतंत्र एवं सम्पूर्ण - प्रभुत्व - सम्पन्न हो गई ।

इस तथ्य को कि 15 अगस्त 1947 के दिन भारतीय रियासतें पूर्णतः स्वतंत्र एवं सम्पूर्ण - प्रभुत्व सम्पन्न थी , सर्वोच्च अधिकारियों ने भी इसे स्वीकार किया था । कुछ महत्वपूर्ण उदबोधंन इस प्रकार हैं -

• ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में भेजे गए मंत्रिमंडलीय शिष्टमंडल का 12 मई 1946 को घोषित ज्ञापन -
“ इंग्लेंड के बादशाह से समझौता होने के फलस्वरूप भारतीय रियासतों को जो अधिकार मिले थे , अब वे समाप्त हो जायेंगे तथा भारतीय रियासतों ने जो अपने अधिकार सार्वभौम सत्ता को समर्पित कर दिए थे , अब वे उनको वापस मिल जायेंगे । इस प्रकार इंग्लेंड के बादशाह एवं ब्रिटिश भारत के साथ चल रहे भारतीय रियासतों के राजनीतिक सम्बंध समाप्त हो जाएँगे ।

इस शून्य को भरने के लिये भारतीय रियासतों को ब्रिटिश भारत की उतराधिकारी सरकार या सरकारों से संघीय सम्बंध स्थापित करने होंगे या उनके साथ विशिष्ट राजनीतिक सम्बंध स्थापित करने होंगे ।”

इसी शिष्टमंडल ने 16 मई 1946 को कहा था -
“ सार्वभौम सत्ता न तो इंग्लेंड के बादशाह के पास ही रह सकती हैं अौर न नयी सरकार को अंतरित की जा सकती हैं ।”

25 जुलाई 1947 को भारत के तत्कालीन वायसराय लोर्ड माउण्टबेटन ने शासक मंडल में यह कहा था - 
“ सार्वभौम सत्ता के हटने से रियासतें सम्पूर्ण - प्रभुत्व सम्पन्न हो जाएँगी…भारतीय स्वाधीनता अधिनियम के लागु होने से रियासतें इंग्लेंड के बादशाह के प्रभुत्व से मुक्त हो जाएँगी । रियासतों को पूरी स्वाधीनता हैं - तकनीकी एवं क़ानूनी दृष्टि से वे पूर्णतः स्वतंत्र हैं ।”

5 जुलाई 1947 को सरदार वल्लभभाई पटेल ने कहा था - “ इस मूल सिद्धांत को रियासतों ने पहले ही स्वीकार कर लिया हैं कि प्रतिरक्षा , परराष्ट्र सम्बंध तथा संचार की दृष्टि से वे भारतीय संघ में मिल जाएँगी । इन तीन विषयों के अतिरिक्त , जिनमे कि देश का सार्वहित निहित हैं , किसी अन्य विषय में हम उनसे समर्पण भी नहीं चाहते । दूसरे विषयों में हम उनके स्वतंत्र अस्तित्व का पूरी तरह सम्मान करेंगे ।”

सम्मान तो तब होगा जब सरदार वल्लभभाई पटेल के स्टैचू ओफ लिबर्टी में भारत के रजवाड़ों का संग्रहालय बनाया जाएँगा , जिसके संकेत देश के प्रधानमंत्रीजी श्री मोदीजी ने स्वयं अपने भाषण में दिए हैं।

15 अगस्त 1947 से पहले भारतीय संघ में मिलते समय भारतीय राजाओं ने सविलयन प्रालेख में हस्ताक्षर किए वहाँ यह लिखा था -“ इस प्रालेख में ऐसी कोई चीज़ नहीं हैं जिससे इस रियासत पर मेरी प्रभूता में किसी प्रकार का अन्तर पड़े । इस रियासत के शासक के रूप में जो सत्ता एवं अधिकार इस समय मुज़े प्राप्त हैं , वह इस प्रालेख पर हस्ताक्षर करने के बाद भी यथावत रहेगा ।”

ऊपर लिखे उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता हैं की किस प्रकार भारतीय राजाओं ने भारत देश कि एकता व अखंडता में अपना योगदान दिया । उन्होंने अपना सब कुछ गौरवशाली इतिहास परम्पराएँ देश एक करने के लिए त्याग कर दी । जबकि वे एक स्वतंत्र इकाई बनकर भी रह सकते थे ।

भले ही इसके पीछे अनेक कारण रहे हो लेकिन आज जो नई पीढ़ी हैं उसको यही सिखाया जाता हैं की आज़ादी व देश के एकीकरण में उनका (रियासतों) कोई योगदान नहीं था । यह उन सब राजाओं के प्रति विश्वासघात नहीं तो क्या हैं ?

1964 में गुजरात प्रदेश विरूद्ध वोरा फिद्दली तथा अन्य “ एक मुक़दमा हुवा जिस पर सर्वोच्च न्यायालय के सात न्यायाधीशों ने रियासतों को अन्तराष्ट्रीय क़ानून के तहत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्म्पन रियासत माना था “

यह कैसे सम्भव है कि भारत सरकार संविलयन का लाभ तो उठाती रहे अौर अपनी जिम्मेदारी से मुकर जाए ? प्रीवी पर्स देने एवं विशेषधिकारो के सम्बंध में भारत सरकार की एकतरफ़ा अस्वीकृति अन्तराष्ट्रीय क़ानून की दृष्टि में अपनी प्रतिज्ञा का निंदित उल्लंघन हैं ।

भारत सरकार ने ऐसा करके अन्तराष्ट्रीय प्रतिज्ञाओं का मूल्य काग़ज़ के टुकड़ों से अधिक नहीं माना । अब इसे किया कहा जाये यह तो जनता को निर्णय करना हैं कल ये चुने हुए प्रतिनिधि चन्द लाभ के लिये कुछ ऐसा कर जाए जो सदियों तक हमारे माथे पर कलंक बन जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । क्योंकि ऐसा करना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं हैं जो श्री नेहरुजी ओर श्री सरदार पटेल के वचन भंग कर सकते हैं वे ओर भी कुछ अनहोनी कर जाये इसमें कोई मीन मेख दिखाई नहीं देती ।

आगे ईश्वर की मर्ज़ी .......
क्रमस ..........


भारतीय संविधान की दृष्टि में देशी रियासतें-

©️डाँ. महेन्द्रसिंह तँवर

गतांक से आगे - भाग -3

भारतीय संघ में मिलते समय भारत के देशी रजवाड़ों के शासकों के साथ भारतीय संविधान में जिन धाराओं के माध्यम से वे जुड़े थे उन्हें आज जानना बहुत ज़रूरी हैं । वे क्या धाराएँ थी जिनके आधार पर शासकों प्रीवी पर्स , व्यक्तिगत अधिकार तथा विशेषधिकार प्राप्त थे ।

वे धाराएँ इस प्रकार हैं धारा 291, धारा 362, धारा 363 तथा धारा 366 ( खण्ड 15 एवं 22 ) । इनको विस्तार से समझने की आवश्यकता है ।

धारा 291 - शासकों के प्रीवी पर्स की राशि :- संविधान के लागु होने के पहले किसी भी भारतीय रियासत के शासक के साथ जो भी अनुबन्ध या प्रसंविदा हुआ हैं अौर उसके अंतर्गत भारतीय अधिराज्य की सरकार ने उस शासक को जो प्रीवी पर्स देने की गारण्टी दी हैं -
(अ ) उसकी राशि भारत की समेकित निधि से दी जायेगी , अौर 
( आ ) शासक को दी जाने वाली यह राशि सब प्रकार के आयकर से मुक्त होगी ।

धारा 362 भारतीय रियासतों के शासकों के अधिकार एवं विशेषाधिकार :- देश कि संसद या प्रदेश की विधान सभा द्वारा विधान बनाते समय तथा केंद्रीय या प्रादेशिक कार्यागं द्वारा उस विधान को लागु करते समय भारतीय रियासत के शासक के व्यक्तिगत अधिकारों, विशेषाधिकारों तथा उपाधि - सम्मान का पूरा ध्यान रखा जाएगा जिसकी कि धारा 291 में उल्लिखित प्रसविंदा या अनुबन्ध में गारण्टी दी गयी हैं ।

धारा 363 विशिष्ट सन्धियों , अनुबंधों आदि से सम्बन्धित विवादों में न्यायालयो द्वारा हस्तक्षेप किए जाने पर प्रतिबन्ध - 
इस धारा के तहत किसी भी प्रकार के विवाद होने पर हस्तक्षेप करने का कोई प्रावधान नही हैं । धारा 143 कहती हैं कि संविधान के लागु होने के पहले जो भी सन्धि या अनुबन्ध हुए हैं उस पर किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता । 
इसमें दो बातें स्पष्ट हैं एक तो भारतीय रियासत उसे माना गया जो संविधान के लागु होने से पहले इंग्लेंड के बादशाह द्वारा या अधिराज्य सरकार द्वारा रियासत एवं उस रियासत के राजा - महाराजा या सरदार को शासक स्वीकार किया गया हो ।

धारा 366 परिभाषाएँ :- इस सविंधान में , जब तक कि संदरभ में दुसरा अर्थ न लगता हो , निम्नलिखित अभिव्यक्तियों को इस अर्थ में प्रस्तुत किया गया हैं -
( 15 ) भारतीय रियासत से अभिप्राय उस प्रदेश से हैं जिसे भारतीय अधिराज्य ki सरकार ने मान्यता प्रदान की हो ;
( 22 ) शासक का अभिप्राय रियासत के संदरभ में अर्थ हैं राजा - महाराजा , सरदार या वह व्यक्ति जिसने धारा 291 के खण्ड ( 1 ) में उल्लिखित किसी प्रसंविदा या अनुबन्ध पर हस्ताक्षर किए हो तथा जो समय विशेष के लिए राष्ट्रपति द्वारा रियासत का शासक स्वीकार किया गया हो । इसने वह व्यक्ति भी सम्मिलित है जिसे राष्ट्रपति ने शासक का उत्तराधिकारी स्वीकार किया हो ।

अब ये धाराए संविधान में है जो मूल अधिकारो की श्रेणी में आती हैं इस पर संसद में संशोधन करने का अधिकार है ऐसा कही पर उल्लेखित नहीं है । सर्वोच्च न्यायालय के अनेक निर्णय है जिनमे स्पष्ट कहा गया हैं की मूल अधिकारों में संशोधन करने अधिकार नहीं हैं क्योंकि मूल अधिकार तो संविधान के अनिवार्य अवयव हैं । अनेक प्रश्न उठते हैं जिनका जवाब शायद ही मिल सके ।

धारा 363 शासकों को न्यायालय से मुक्त रखती हैं इसी लाभ उठाकर संसद में प्रीवी पर्स तथा रियासतों के साथ हुई सन्धियों को भारत सरकार ने तोड़ते हुए समाप्त करने का निर्णय लिया । क्योंकि रियासतों शासक न्यायालय में तो जा नहीं सकते थे तो अब उनका न्याय कोन करेगा ।

जबकि इस धारा को को संविधान में 16 अक्तोंबर 1949 में जोड़ा गया था तथा उद्देश्य था की रियासतों के अधिकारो की रक्षा हो सके इसलिए ये धारा जोड़ी गयी थी ताकि कोई न्यायालय में जाकर नाहक ही विवाद खड़ा ना करे । जबकि प्रीवी पर्स को समाप्त करने वालों ने इसे अपना हथियार बनाने के लिए इसका दुरुपयोग किया । चूँकि यह अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया की वह मध्यस्था करेंगे । उसी को ढाल बनाकर वह सब कर दिया गया जिसने पूर्वजों के वचन को तोड़ कर कट्टरता व निरंकुशता का परिचय दिया ।

चूँकि सभी शासकों को अन्तराष्ट्रीय न्यायालय में इस मुद्दे को ले जाना चाहिये था । लेकिन उन्होंने ऐसा कोई क़दम नहीं उठाया जिससे राष्ट्र कि एकता अौर अखण्डता को चोट पहुँचे क्योंकि सच्चे मायने से राष्ट्रभक्त हैं । निर्णय जनता जनार्दन को करना हैं कोन सही हैं कोन ग़लत हैं ।

ह्रदय के भीतर खाने तो सभी इस बात को भली भाँति जानते ही हैं ।

क्रमश ……

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