शुक्रवार, अक्टूबर 06, 2017

किताबों में मेवाड़ को जगह क्यों नहीं मिलती

Anand Kumar
एक आम लोकभाषा की कहावत होती थी “जहाँ ना पहुंचे रेलगाड़ी, वहां पहुंचे मारवाड़ी” ! दूर-दराज के क्षेत्रों तक जा पहुँचने और अपनी कर्मठता से अपने व्यवसायों को स्थापित करने के कारण मारवाड़ी, भारत भर में जाने जाते हैं। उनके हर जगह फैलने का नतीजा ये हुआ कि राजस्थान और मेवाड़ की कहानियां भी जनमानस में प्रचलित हैं। किताबों में मेवाड़ को जगह क्यों नहीं मिलती इसपर बाद में आयेंगे, पहले इनकी शुरुआत के दौर पर आते हैं। दिल्ली सल्तनत के अक्र्मणकारियों के कब्जे में जाने के करीब करीब सात-साथ ये कहानी शुरू हो जाती।
तेरहवीं शताब्दी के दौर में जब अल्लाउदीन खिलजी ने मेवाड़ पर हमला किया तो वहां गहलौत वंश के रावत रतन सिंह का शासन था। खिलजी की काम-पिपासा को रोकने के लिए हुए इस युद्ध में रावल रतन सिंह के साथ और भी कई आस पास के लोग आये जिनमें से एक थे लक्ष्मण सिंह या ‘लक्षा’। अपने सात बेटों के साथ उन्होंने चित्तौड़ के दुर्ग को बचाते हुए साका किया। कुछ कहानियां आठ या नौ बेटे भी बताती हैं, लेकिन वो सभी चित्तौड़ को भूखे कुत्तों से बचाते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे लेकिन लोककथाओं के विख्यात बप्पा रावल का ये वंश इस युद्ध में पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ था।
नाथद्वार के पास के एक गाँव के नाम पर इन्हें सिसोदिया कहा जाने लगा। लक्षा के सबसे बड़े बेटे का नाम अरी था और उनकी शादी पड़ोस के ही एक गाँव, उन्नावा, के साधारण राजपूत परिवार की लड़की उर्मिला से हुई थी। खिलजी के दुराचार को रोकते अरी और उनका पूरा परिवार जब वीरगति को प्राप्त हुआ तो अरी का एक दुधमुंहा बेटा भी था। परिवार का ये एक बच्चा जौहर और साका के बाद भी बचा रहा। इसी युद्ध में घायल होकर बच गए योद्धाओं में से एक उसके चाचा अजय सिंह थे, लक्ष्मण सिंह के दुसरे सुपुत्र जिन्होंने बच्चे को पाला, चलना-बोलना-लड़ना सिखाया। इस तरह ये बच्चा विपन्नता में, शासन विहीन इलाके में, पूर्वजों की छोड़ी सिर्फ तलवारों के बीच बड़ा होने लगा।
हमीर नाम के इस बच्चे की बहादुरी और नेतृत्व के गुणों का पता चलने में ज्यादा दिन भी नहीं लगे। किशोरावस्था में कदम रखते ही पड़ोस के एक हमलावर, लुटेरे किस्म के राजा मुंजा बलेचा को इसने जबरन की लूट-पाट से रोका। इस बात पर लड़ाई हुई और तलवार चलाने में सिद्धहस्त मुंजा बलेचा, एक किशोर के हाथों मार गिराया गया ! इस घटना से प्रभावित अजय सिंह ने उसी वक्त वंश के आगे के सभी अधिकार इस बालक को सौंप दिए। ये वो दौर था जब खिलजी ने इन इलाकों में अपना प्रभाव जमाने में मदद करने वाले जलोर के राजा मालदेव को इस इलाके का शासन सौंप दिया था।
हमीर के नाम में राणा लगाना शुरू हो गया और राजनैतिक प्रभावों में राजा मालदेव ने अपनी बेटी की शादी भी उनसे की। यहाँ से राणा हमीर के प्रभाव का और सिसोदिया राजवंश के उदय का समय शुरू हुआ। मेवाड़ राज्य को उन्होंने 1326 में फिर से स्थापित कर दिया। जाहिर है दिल्ली सल्तनत राजपूताना की गुलामी ना करने की आदत से वाकिफ़ थी। शुरू में ही उठते हुए इस नए सर को इस्लामिक हुकूमत ने कुचलने की सोची। मुहम्मद बिन तुगलक अपनी तुर्क फौजों के साथ राजपूताना पर चढ़ दौड़ा। राणा हमीर टेढ़ी खीर साबित हुए और तुगलक की पूरी फौज़ को साफ़ करके उन्होंने तुगलक को गिरफ्तार भी कर लिया। आखिर जब उसने राजपूताना को एक अलग साम्राज्य मान लिया तो उसे कैद से रिहा किया गया। https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10159470759820581&id=634930580&refid=28&ref=opera_speed_dial&_ft_=qid.6473763292503195169%3Amf_story_key.2604634415489639140%3Atop_level_post_id.10159470759820581&__tn__=%2As-Rराजपूतों से मिली इस तगड़ी हार के ही दौर में दक्षिण भारत में हरिहर और बुक्का का उदय हो रहा था। तुर्कों द्वारा स्थापित शासन को उन्होंने, प्रलय वर्मा रेड्डी के साथ मिलकर उखाड़ फेंका। इस तरह 1193 या करीब 1200 में मुहम्मद घोरी द्वाhttps://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10159470759820581&id=634930580&refid=28&ref=opera_speed_dial&_ft_=qid.6473763292503195169%3Amf_story_key.2604634415489639140%3Atop_level_post_id.10159470759820581&__tn__=%2As-Rरा स्थापित साम्राज्य करीब डेढ़ सौ साल में पूरी तरह ख़त्म होकर 1350 में एक दिल्ली के किले तक सिमट गया। राजपूत विजय का नतीजा ये हुआ कि आगे राणा हमीर के वंशज अपने नाम में राणा लगाते रहे। राणा कुम्भा इसी सिसोदिया वंश से थे, राणा सांगा भी, और बाद के महाराणा प्रताप भी। भारत में प्रिंसली स्टेट के ख़त्म होने के समय इस वंश के अंतिम राजा भूपाल सिंह (1930-1955) थे।
अब सवाल उठता है कि डेढ़ सौ वर्ष (1200 से 1350 के आस पास) तक शासन करने वाले खिलजी-तुगलक के वंश का नाम किताबों में हो तो फिर चार गुना यानि छह सौ साल (1350 से 1950 के लगभग) के राजवंश का नाम किताबों में क्यों नहीं दिखता ? दरअसल ये स्थापित सेक्युलर इतिहास के किस्सों के खिलाफ चला जाएगा। अगर इनकी कहानियां सुनाई गई तो घोरी से लेकर तुगलक तक के जबरन धर्म परिवर्तन करवाने, असैनिक-नागरिकों का कत्लेआम करने और लूट के किस्से बखान करने पड़ेंगे। सबसे बड़ी समस्या कि ये कहानी शुरू ही स्त्रियों की वीरता यानि जौहर पर होती है। उसे लिखने पर मुस्लिम आक्रमणकारियों को नेकदिल-इंसाफपसंद कहने में और दिक्कत होती।
सबसे बड़ी दिक्कत कि सती को एक परंपरा के तौर पर इतिहास में स्थापित कर पाना बड़ा मुश्किल होता। राणा हमीर से राजा मालदेव ने अपनी जिस पुत्री का विवाह करवाया था उनका नाम सोंगरी (या सोनगरी) था। ये विधवा पुनःविवाह था। सिर्फ इस एक किस्से भर से सतीप्रथा को परंपरा के तौर पर स्थापित करने में समस्या आ जायेगी। जब आप इस लम्बे से लेख को पढ़कर यहाँ तक पहुँच गए हैं तो एक मशहूर अफ़्रीकी लेखक का कहा भी याद आता है। वो कहते थे जब तक शेर अपनी कहानी खुद नहीं लिखता, शिकार की कहानियों में हमेशा शिकारी को महान घोषित किया जाता रहेगा।
बाकी मेरे लिखने पर सहमती हो या आपत्ति हो, ये याद रखिये कि अगर आपने खुद नहीं लिखा तो कोई भी आपके बारे में कुछ भी लिख जाने को स्वतंत्र है। सहमती-आपत्ति दोनों स्थितियों में अपनी कलम उठा के खुद लिखना सीखिए।

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