सोमवार, अक्टूबर 16, 2017

पदमावती फिल्म देखने के पहले जान लीजिए

कला के कारोबारी संजय लीला भंसाली की कुछ फिल्मंे मैंने देखी हैं। इतिहास के पसंदीदा टुकड़ों को अपनी आजाद ख्याली से जोड़कर ढाई घंटे की एक कहानी में परोसने में वे वैसे ही कुशल हैं, जैसा सिनेमा के एक कामयाब कारोबारी को होना चाहिए। इन दिनों उनकी नई फिल्म पदमावती सुर्खी में है। इतिहास का एक विद्यार्थी होने के नाते मेरी दिलचस्पी इसमें है कि संजय सिनेमा के परदे की लीला में सुलतान अलाउद्दीन खिलजी को किस तरह पेश करने वाले हैं।
मेरी दिलचस्पी रानी पद्मिनी में नहीं है। वह भारत के इतिहास की राख और धुएं की कहानी में एक दर्दनाक किरदार है। एक भारतीय होने के नाते मैं पद्मिनी के हश्र का एक हिस्सेदार और जिम्मेदार खुद को महसूस करता हूं। पद्मिनी चित्तौड़ के अासमान से गंूजी आंसुओं से भीगी एक पुकार है। सदियों बाद भी उस चिता की आग की गरमाहट अब तक मेरे विचारों में तपती है, जिसमें चित्तौड़ की हजारों राजपूत औरतें जिंदा जल मरने के लिए उतर गई थीं। उस दिन चित्तौड़गढ़ के किले पर अलाउद्दीन खिलजी की आहट थी।
सदियों तक इस्लाम का परचम फहराते हुए आए हमलावरों को हिंदुस्तान माले-गनीमत में मिला था। मुस्लिम सुलतानों और बादशाहों की फौजों से हारने पर बेहिसाब लूट, मंदिरों की तोड़फोड़, जुल्म, गुलामी और जबरन धर्म परिवर्तन के किस्से इतिहास में बिखरे हुए हैं। तब युद्ध हारने की हालत में राजपूत औरतों की सामूहिक आत्महत्याएं इतिहास में जौहर के नाम से लिखी गई हैं। ऐसे अनगिनत जौहर हुए हैं। राजस्थान के आसमान पर जौहरों का गाढ़ा काला धुआं सदियों तक देखा गया है। मेरे मध्यप्रदेश के चंदेरी और रायसेन में भी जौहर हुए हैं। हमारी आज की पीढ़ी की याददाश्त से यह सब गुम है। आखिरकार अलाउद्दीन खिलजी के करीब 225 साल बाद अकबर के समय राजस्थान की ज्यादातर रियासतों ने मध्यमार्ग अपनाया। यह शांति और समझाैते का रास्ता था। एकतरफा रिश्तों की शक्ल में एक ऐसा समझौता, जिसमें राजपूत राजाओं ने अपनी बहन-बेटियों को दिल्ली के बादशाहों के हरम में भेजा और अपनी रियासतों को बार-बार के हमलों, लूट और बरबादी से बचाने में कुछ हद तक कामयाब हुए।
मुझे जयपुर में इतिहास के एक जानकार ने बताया था कि सिर्फ अकबर के हरम में राजस्थान के करीब 40 राजघरानों की लड़कियां भेजी गईं थीं। आमेर राजघराने की जोधाबाई इनमें से एक थीं। हालांकि अकबर तो दोतरफा रिश्ते चाहता था। यानी मुस्लिम शाही वंश की लड़कियांें को भी राजपूत अपनाएं। मगर धर्म के अंधे राजपूतों को यह मंजूर नहीं था। वे खुश होकर एक हाथ से ताली बजाते रहे। यानी अपनी लड़कियों के डोले दिल्ली भेजते रहे। तब भी चित्तौड़ अकेला था, जो नहीं झुका। चित्तौड़गढ़ ने इसे अपमानजनक माना और कभी बादशाही ताकत के आगे घुटने नहीं टेके। अपनी अडिग नीति के कारण ही पूरे देश के मानस में आज भी चित्तौड़गढ़ नसों में लहू का प्रवाह तेज कर देता है, जहां सबसे पहले पद्मिनी को अलाउद्दीन के हाथों में पड़ने बेहतर यह लगा कि वे धधकती आग में जलकर मर जाएं। जयपुर में बसे चित्तौड़गढ़ के लोग आज भी गर्दन ऊँची करके बात करते हैं। वे आपको अपने दिल में राज करने वाले महाराणा प्रताप और अकबर के सेनापति बने जयपुर के राजा मानसिंह का फर्क बताएंगे।
मैंने भारत के मुस्लिम शासकों के बारे में काफी कुछ पढ़ा है। मेरे अपने संग्रह में ढेरों किताबें हैं। खासकर दिल्ली में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद शुरू हुए सुलतानों और बादशाहों के दुर्गम दौर का इतिहास, जो 1193 से शुरू होता है और अंग्रेजों के काबिज होने तक चलता है। दिल्ली में आप इसे बहादुरशाह जफर तक गिन सकते हैं, लेकिन औरंगजेब के बाद यानी 1707 के बाद से ही उनका सितारा डूबने लगा था।
यहां मैं अपनी बात सिर्फ अलाउद्दीन खिलजी पर केंद्रित रखूंगा, जिसने कुलजमा 21 साल दिल्ली में सुलतानी की। वह 1296 में अपने चाचा-ससुर जलालुद्दीन खिलजी को धोखे से कत्ल करके दिल्ली पर कब्जा करने आया। इसके पहले जलालुद्दीन ने उसे इलाहाबाद के पास कड़ा का हाकिम बनाया था। कड़ा की जागीर में रहते हुए जलालुद्दीन की इजाजत के बिना उसने पहली बार विदिशा पर हमला किया। मंदिर तोड़े और जमकर लूट की। विदिशा में ही उसे किसी ने देवगिरी का पता यह कहकर बताया कि यहां तो कुछ भी नहीं है। माल तो देवगिरी में है। दूसरी दफा वह जलालुद्दीन को बरगलाकर देवगिरी को लूटने में कामयाब हुआ। यहां उसे बेहिसाब दौलत मिली। अब उसने दिल्ली का सुलतान बनने का ख्वाब देखा। तब तक जलालुद्दीन को भी अपने धोखेबाज भतीजे के इरादों का पता चला। फिर भी उसे भरोसा था कि उसका दामाद अलाउद्दीन, जो उसका सगा भतीजा भी है हुकूमत के लालच में नहीं पड़ेगा। मान जाएगा।
दोनों के बीच समझौते की बातचीत गंगा नदी के किनारे एक शिविर में तय हुई। वह घात लगाए ही था। उसने बूढ़े और निहत्थे जलालुद्दीन का कत्ल धोखे से रमजान महीने में इफ्तारी के वक्त किया। बेरहमी से उसका सिर काटकर अलग किया गया और एक भाले पर टांगकर कड़ा-मानिकपुर के अलावा अवध में घुमाया गया। उस दौर में दुश्मनों के सिर काटकर इस तरह बेइज्जत करना कोई नहीं बात नहीं थी मगर जिस चाचा-ससुर और सुलतान ने उसकी बचपन से परवरिश की और अपनी बेटी दी, उसके इस तरह कत्ल किए जाने पर कई लेखकों ने भी अलाउद्दीन को बुरा-भला कहा। जियाउद्दीन बरनी का चचा अलाउलमुल्क अलाउद्दीन के समय दिल्ली का कोतवाल था। बरनी ने इस घटना का ब्यौरा विस्तार से लिखा है। अलाउद्दीन यहीं नहीं रुका। उसने जलालुद्दीन के दो बेटों अरकली खां और रुकनुद्दीन को अंधा करने के बाद कत्ल किया।
जब अलाउद्दीन दिल्ली में दाखिल हुआ तो उसे मालूम था कि लोग सुलतान की हत्या से बेहद नाराज हैं। अलाउद्दीन ने अपना जलवा दिखाने के लिए देवगिरी से लूटा गया सोना और जवाहरात सड़कों पर लुटाए। उसने हर पड़ाव पर हर दिन पांच मन सोने के सितारे लुटवाए। जलालुद्दीन के सारे भरोसेमंद दरबारियों को मुंह बंद रखने की मोटी कीमत चुकाई। सबको बीस-बीस मन सोना दिया गया। सबने उसकी सरपरस्ती चाहे-अनचाहे कुबूल की। 1296 में वह दिल्ली का सुलतान बना। उसके समकालीन इतिहासकार बताते हैं कि वह निहायत ही अनपढ़ था। उसे कुछ नहीं आता था। मगर वह कट्‌टर मुसलमान था। उसकी दाढ़ में भारत के राजघरानों की पीढ़ियों से जमा दौलत का खून विदिशा और देवगिरी में लग चुका था। आखिर उसे देवगिरि में मिला क्या था? देवगिरी की उस पहली लूट का हिसाब जियाउद्दीन बरनी ने यह लिखा है-देवगिरी के घेरे के 25 वें दिन रामदेव ने 600 मन सोना, सात मन मोती, दो मन जवाहरात, लाल, याकूत, हीरे, पन्ने, एक हजार मन चांदी, चार हजार रेशमी कपड़ों के थान और कई ऐसी चीजें जिन पर अक्ल को भरोसा न आए, अलाउद्दीन को देने का प्रस्ताव रखा।
यहां से खुलेआम लूट और कत्लेआम का एक ऐसा सिलसिला शुरू होता है, जो 1316 में अलाउद्दीन के कब्र में जाने तक पूरे भारत में लगातार चलता रहा। अलाउ्दीन खिलजी के करीब 340 साल बाद औरंगजेब ने भी सन् 1656 में ऐसी ही एक खूंरेज लड़ाई में अपने सगे भाइयों का कत्ल और बाप को कैद करके हिंदुस्तान की हुकूमत पर कब्जा किया था। जब आप पहले से कोई राय कायम किए बिना तफसील से अलाउद्दीन और आैरंगजेब के इतिहास को पढ़ेंगे तो पाएंगे दोनों एक जैसे धोखेबाज, क्रूर और कट्‌टर थे। औरंगजेब ने 50 साल तक राज किया। अलाउद्दीन ने 20 साल। भारत की तबाही में अलाउद्दीन औरंगजेब से काफी आगे और भारी दिखाई देगा। अलाउद्दीन के हमलों ने भारत की आत्मा को आहत किया।
सुलतान बनने के बाद उसने एक बार उलुग खां को गुजरात पर हमला करने का हुक्म दिया। तब गुजरात का राजा करण था। अलाउद्दीन के इतिहासकार लिखते हैं कि करण हार के डर से देवगिरी चला गया। उलुग खां के हाथ करण का खजाना और रानी कमलादी लगी। कमलादी को दिल्ली लाया गया और सुलतान के सामने पेश किया गया। अब कमलादी सुलतान की संपत्ति थी। कमलादी की दो बेटियां थीं। एक मर चुकी थी अौर छह महीने की दूसरी बेटी गुजरात में ही छूट गई थी। उसका नाम था देवलदी। उसे दिवल रानी भी कहा गया है। एक बार मौका देखकर कमलादी ने सुलतान को खुश करते हुए अपनी बिछुड़ी हुई बेटी से मिलने की ख्वाहिश की। नन्हीं देवलदी को दिल्ली लाया गया। उसकी परवरिश सुलतान के ही महल में कमलादी के साथ हुई।
जब अलाउद्दीन के महलों में यह सब चल रहा था तब उसका एक बेटा खिज्र खां 11 साल का था। दिल्ली में बड़ी धूमधाम से उसकी शादी अलाउद्दीन खिलजी के ही एक करीबी सिपहसालार अलप खां की बेटी से हो चुकी थी। मगर वह देवलदी को भी चाहता था। दोनों साथ ही पले-बढ़े थे। आखिरकार एक दिन चुपचाप देवलदी से भी उसकी शादी हो गई। न कोई जश्न हुआ। न शादी जैसा कुछ। आप सोचिए-सुलतान अलाउद्दीन ने कमलादी को रखा। उसकी बेटी को अपने बेटे के साथ रख दिया! अमीर खुसरो ने खिज्र खां और देवलदी के बारे में खूब लिखा है! वह अपने समय की इन घटनाओं का चश्मदीद था।
भारत को लगातार लूटने की अलाउद्दीन की हवस की अपनी वजहें थीं। 1311 में दक्षिण भारत की लूट का हिसाब देखिए-मलिक नायब 612 हाथी, 20 हजार घोड़े और इन पर लदा 96 हजार मन सोना, मोती और जवाहरात के संदूक लेकर दिल्ली पहुंचा। सीरी के राजमहल में मलिक नायब ने सुलतान के सामने लूट का माल पेश किया। खुश होकर सुलतान ने दो-दो, चार-चार, एक-एक और अाधा-आधा मन सोना मलिकों और अमीरों को बांटा। दिल्ली के तजुर्बेकार लोग इस बात पर एकमत थे कि इतना और तरह-तरह का लूट का सामान इतने हाथी और सोने के साथ दिल्ली आया है, इतना माल इसके पहले किसी समय कभी नहीं आया। अलाउद्दीन खिलजी के हर हमले और लूट के ऐसे ही ब्यौरे हैं। इनमें बेकसूर हिंदुओं की अनगिनत हत्याओं के विवरण रोंगटे खड़े करने वाले हैं, जब नृशंस खिलजी के सैनिक हारे हुए हिंदुओं के कटे हुए सिरों को गेंद बनाकर चौगान खेला करते थे।
अलाउद्दीन खिलजी ने जो बोया, वह जनवरी 1316 में उसकी मौत के कुछ ही महीनों के भीतर उसकी औलादों ने अपने खून की हर बूंद के साथ काटा। सुलतान के ही भरोसेमंद नायब मलिक काफूर ने हिसाब बराबर किया। खिलजी की फौज को लेकर कफूर ने कई बड़ी दिल दहलाने वाली फतहें हासिल की थीं। सुलतान की मौत के पहले ही मलिक कफूर ने सुलतान के कई भरोसेमंद लोगांे को मरवाना शुरू कर दिया था। इसमें अलप खां भी शामिल था। खिज्र खां को उसने ग्वालियर के किले में कैद किया, जहां देवलदी भी उसके साथ थी। जब सुलतान मरा ताे मलिक काफूर ने सुंबुल नाम के एक गुलाम को ग्वालियर भेजकर खिज्र खां को अंधा करा दिया। सुलतान के दूसरे बेटे शहाबुद्दीन को भी मरवा दिया गया। शहाबुद्दीन सुलतान अलाउद्दीन खिलजी और देवगिरी के राजा रामदेव की बेटी झिताई का बेटा था। रामदेव को भी उसने कई बार लूटा और बेइज्जत किया था। मलिक कफूर सिर्फ 35 दिन जिंदा रह सका, अलाउद्दीन के लोगों ने उसे भी खत्म कर दिया।
फिल्म देखने के पहले जान लीजिए कि जियाउद्दीन बरनी ने बताया है कि खिलजी के आदेश लागू होने के बाद हिंदुओं के पास सोना, चांदी, तनके, जीतल और धन-संपत्ति का नामोनिशान नहीं रह गया था। वह घोर गरीबी में आ गए थे। बड़े घरों की औरतों को भी मुसलमानों के घरों में काम के लिए मजबूर होना पड़ा। उनकी हालत ऐसी बना दी गई थी कि वे घोड़े पर न बैठ सकें, हथियार न रख सकें, अच्छे कपड़े न पहन सकें और बेफिक्र से जिंदगी न जी सकें।
अब मैं इत्मीनान से संजय लीला भंसाली की फिल्म को देखना चाहंूगा। और आप भी इस रोशनी में देखिएगा कि अगर सिनेमा एक कला है तो इस कला का इस्तेमाल भंसाली क्या बताने के लिए कर रहे हैं?
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खिलजी की 21 साल की हुकूमत: हमले, लूट, खूनखराबा, कत्लोगारत...
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-25 फरवरी 1296 : सुलतान बनने से पहले देवगिरी पर हमला और लूट
-18 जुलाई 1316 को देवगिरी से लौटकर उसने जलालुद्दीन की हत्या की।
-21 अक्टूबर 1396 को दिल्ली पहुंचा और जमकर लूट का सोना लुटाया।
-23 फरवरी 1299 को सोमनाथ पर हमले का हुक्म। फौज ने रास्ते में मार्च से जुलाई तक राजस्थान में रणथंभौर को लूटा। हिंदुओं का कत्ल। यहां भी राजपूत औरतों ने जौहर किया। गुजरात में सोमनाथ का मंदिर तोड़ा गया।
-28 जनवरी 1303: चित्तौड़ पर हमले का फैसला। इसी साल अगस्त में हमला। 30 हजार हिंदुओं का कत्ल। चित्तौड़ का नाम अपने बेटे खिज्र खां के नाम पर खिज्राबाद किया। खिज्र खां की ताजपोशी।
-23 नवंबर 1305: पूरा मालवा और मांडू रौंद डाला।
-24 मार्च 1307: एक बार फिर देवगिरी पर हमला।
-3 जुलाई 1308: सिवाना को घेरकर फतह।
-31 अक्टूबर 1309: तेलंगाना के लिए कूच। इस एक ही बार के अभियान के बाद खिलजी की फौजें 23 जून 1310 को लूट के बेहिसाब माल के साथ दिल्ली लौटीं।
-18 नवंबर 1310: माबर के लिए कूच। यह दक्षिण भारत का जबर्दस्त अभियान था। अमीर खुसरो ने इसे दिल्ली से एक साल की दूरी पर बताया है। पहली बार इन इलाकों में कोई मुस्लिम हमलावर गया। इसी धावे में फरवरी 1311 देवगिरी भी पहुंचा। अक्टूबर 1311 में फौजें कई रियासतों को रौंदते हुए दिल्ली लौटीं।
-4 जनवरी 1316 :अलाउद्दीन खिलजी की मौत।
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ये सारे विवरण खिलजी के समय के लेखकों के दस्तावेजों में हैं। इनमें जियाउद्दीन बरनी, अमीर खुसरो और उनके बाद के फरिश्ता के नाम उल्लेखनीय हैं।

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