रविवार, अक्टूबर 29, 2017

मानो या ना मानो

*शयन विधान*
*सूर्यास्त के एक प्रहर (लगभग 3 घंटे) के बाद ही शयन करना।*
* सोने की मुद्रा:*
*उल्टा सोये भोगी,*
*सीधा सोये योगी,*
*डाबा सोये निरोगी,*
*जीमना सोये रोगी।*
* शास्त्रीय विधान भी है।*
*आयुर्वेद में ‘वामकुक्षि’ की बात आती हैं,*
*बायीं करवट सोना स्वास्थ्य के लिये हितकर हैं।*
*शरीर विज्ञान के अनुसार चित सोने से रीढ़ की हड्डी को नुकसान और औधा या ऊल्टा सोने से आँखे बिगडती है।*
*सोते समय कितने गायत्री मंन्त्र /नवकार मंन्त्र गिने जाए
*"सूतां सात, उठता आठ”सोते वक्त सात भय को दूर करने के लिए सात मंन्त्र गिनें और उठते वक्त आठ कर्मो को दूर करने के लिए आठ मंन्त्र गिनें।*
*"सात भय:-"*
*इहलोक,परलोक,आदान,*
*अकस्मात ,वेदना,मरण ,*
*अश्लोक (भय)*
* दिशा घ्यान:-*
*दक्षिणदिशा (South) में पाँव रखकर कभी सोना नहीं । यम और दुष्टदेवों का निवास है ।कान में हवा भरती है । मस्तिष्क में रक्त का संचार कम को जाता है स्मृति- भ्रंश,मौत व असंख्य बीमारियाँ होती है।*
* यह बात वैज्ञानिकों ने एवं वास्तुविदों ने भी जाहिर की है।*
*1:- पूर्व ( E ) दिशा में मस्तक रखकर सोने से विद्या की प्राप्ति होती है।*
*2:-दक्षिण ( S ) में मस्तक रखकर सोने से धनलाभ व आरोग्य लाभ होता है ।*
*3:-पश्चिम( W ) में मस्तक रखकर सोने से प्रबल चिंता होती है ।*
*4:-उत्तर ( N ) में मस्तक रखकर सोने से मृत्यु और हानि होती है ।*
*अन्य धर्गग्रंथों में शयनविधि में और भी बातें सावधानी के तौर पर बताई गई है ।*
*विशेष शयन की सावधानियाँ:-*
*1:-मस्तक और पाँव की तरफ दीपक रखना नहीं। दीपक बायीं या दायीं और कम से कम 5 हाथ दूर होना चाहिये।*
*2:-सोते समय मस्तक दिवार से कम से कम 3 हाथ दूर होना चाहिये।*
*3:-संध्याकाल में निद्रा नहीं लेनी।*
*4:-शय्या पर बैठे-बैठे निद्रा नहीं लेनी।*
*5:-द्वार के उंबरे/ देहरी/थलेटी/चौकट पर मस्तक रखकर नींद न लें।*
*6:-ह्रदय पर हाथ रखकर,छत के पाट या बीम के नीचें और पाँव पर पाँव चढ़ाकर निद्रा न लें।*
*7:-सूर्यास्त के पहले सोना नहीं।*
*7:-पाँव की और शय्या ऊँची हो तो अशुभ है। केवल चिकित्स उपचार हेतु छूट हैं ।*
*8:- शय्या पर बैठकर खाना-पीना अशुभ है। (बेड टी पीने वाले सावधान)*
*9:- सोते सोते पढना नहीं।*
*10:-सोते-सोते तंम्बाकू चबाना नहीं। (मुंह में गुटखा रखकर सोने वाले चेत जाएँ )*
*11:-ललाट पर तिलक रखकर सोना अशुभ है (इसलिये सोते वक्त तिलक मिटाने का कहा जाता है। )*
*12:-शय्या पर बैठकर सरोता से सुपारी के टुकड़े करना अशुभ हैं।*
* प्रत्येक व्यक्ति यह ज्ञान को प्राप्त कर सके इसलिए शेयर अवश्य करे |

बुधवार, अक्टूबर 25, 2017

1962 में हमारा राष्ट्रीय स्वाभिमान चकनाचूर हो गया था।


# ऐ मेरे वतन के लोगों जरा जान लो ये भी कहानी#
1962 में हमारा राष्ट्रीय स्वाभिमान चकनाचूर हो गया था। उस सतत स्मृति के आज 55 साल हो रहे हैं। बीस अक्तूबर को चीन ने धावा बोला और हमें लहूलुहान करने के बाद 20 नवंबर को अपनी मर्जी से, अपनी शर्तों पर युद्ध खत्म किया। इससे जुड़ी लगभग सारी चीजें अब भी गोपनीय फाइलों में हैं। ब्रूक्स हेंडरसन कमेटी की रिपोर्ट के कुछ हिस्से सार्वजनिक किए गए पर उतना ही जिससे दशकों की कड़ी मेहनत से गढ़े गए हमारे महान नेता की छवि दागदार न होने पाए। लेकिन इसकी पुनरावृत्ति से बचना है तो किसी की शेरवानी पर छींटे लगने की परवाह नहीं करनी होगी। बहुत से राज फाश हो चुके हैं बस हम और आप जानते नहीं।
युद्ध में लड़ती फौज है और नेतृत्व नागरिक सरकार करती है। और नेतृत्व अगर अपनी सेना से ही घृणा करने लगे तो देश माओ की कृपा पर ही रहेगा। माओ चाहें तो कब्जा की हुई जमीनें छोड़ दें या कलकत्ते तक आ पहुंचें। विजयी सेना को दोष देने का कोई औचित्य नहीं। हमें तो यह देखना होगा कि हमारी सरकार ने तैयारियां कैसी की और सेना को किस तरह से लैस किया, उसका मनोबल बढ़ाया। पर इसकी तफ्तीश करेंगे तो शायद क्रोध, घृणा के ज्वार मन में उठें। समस्या आपकी है, पत्रकार का काम बस तटस्थ भाव से बताने का है।
अपने शांतिकामी प्रधानमंत्री सकल विश्व के चाचा बनना चाहते थे। इतिहास में अमरत्व और यश-कीर्ति प्राप्त की उनकी जो उत्कट आकांक्षा थी, वह विरल है। वे गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता थे, एशिया के नेता थे, वैश्विक नेता थे, भारत का प्रधानमंत्री होना बस एक संयोग था या अपने कद को दुनिया में बढ़ाने का साधन, यहां आपकी राय मानी जाएगी। उनके चीनी समकक्ष झाऊ एन लाई ने कहीं कहा था कि दुनिया के जितने भी नेताओं से वे मिले हैं,उनमें नेहरू का अहंकारोन्माद (Megalomania) सबसे ज्यादा था।
शायद इसीलिए चच्चा को अपनी सेना से विकट घृणा थी, वे तो शांतिकामी ताकतों के वैश्विक अगुआ बनना चाहते थे। आजादी के तुरंत बाद भारतीय सेना के कमांडर इन चीफ जनरल राबर्ट लाकहार्ट ने जब पप्पू चच्चा से कहा कि हमें एक रक्षा योजना की जरूरत है तो उन्होंने सेनाध्यक्ष को डपट दिया। कहा, हमें किसी रक्षा योजना की जरूरत नहीं है। हमारी नीति अहिंसा की है। आप चाहें सेना को भंग कर सकते हैं। हमारी सुरक्षा जरूरतों के लिए पुलिस काफी है।
सेना को भंग करने की बहुत जल्दी थी चच्चा को। आजादी के ठीक एक महीने बाद 16 सितंबर को प्रधानमंत्री ने फरमान सुनाया कि सैनिकों की संख्या 280,000 से घटाकर डेढ़ लाख की जाए। 1950-51 में जब चीन तिब्बत पर कब्जा कर चुका था और तनाव बढ़ रहा था तब भी नेहरू ने सेना को भंग करने का सपना देखना नहीं छोड़ा। उस साल 50,000 सैनिकों को घर भेजा गया कि वीर सैनिक, अब जरूरत नहीं रही तुम्हारी। 47 में दिल्ली के नार्थ ब्लाक में सेना का एक छोटा सा दफ्तर होता था जहां गिनती के सैनिक थे। एक दिन चच्चा की नजर उन पर पड़ गई और उन्हें तत्क्षण गुस्सा आ गया- ये यहां क्या रहे हैं? फौरन हटाओ इन्हें यहां से। यूं दुत्कारे गए।
"लोकतंत्र के लिए चुनौती" यानी सेना अंदर से ही खोखली हो जाए इसलिए स्वतंत्रता के तुरंत बाद उन्होंने राष्ट्र और धर्मनिरपेक्षता के हित में बहुत बड़ा कदम उठाते हुए इसे थलसेना, वायुसेना और नौसेना में बांट दिया। तब से आज तक हम यूनीफाइड कमांड/थियेटर कमांड और सीडीएस (चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ) बनाने को जूझ रहे हैं। प्रधानमंत्री जी को शायद गंभीरता से लगता था कि भारतीय सेना को लड़ने नहीं आता। तभी तो 1948 के युद्ध में सैन्य कमांडरों को बताने लगे कि कैसे लड़ें। परिणाम यह कि एक तिहाई कश्मीर पाकिस्तान के हाथ चला गया। फील्डमार्शल केसी करियप्पा ने 1948 के युद्ध में उत्कृष्ट नेतृत्व करते हुए मोर्चे से सेना की अगुआई की। चच्चा कैसे खुश होते? उन्होंने जनरल करियप्पा को हटाने की ठान ली और उनकी जगह जनरल राजेंद्र सिंहजी जडेजा को फील्डमार्शल बनाने की कोशिश की। जनरल जडेजा मना नहीं करते तो ये भी हो जाता।
भारतीय सेना के निरंतर अपमान और मनोबल तोड़ने की परंपरा को आगे बढ़ाने में विलक्षण प्रतिभा के धनी कृष्ण मेनन ने पूरी ऊर्जा झोंक दी। मेनन ने सेना के पूरे चेन ऑफ कमांड को ध्वस्त कर दिया। कायदे से रक्षा मंत्री सिर्फ सेना प्रमुख से बात करता है लेकिन मेनन के क्या कहने। वे तो फोन उठा कर मेजर से भी बात कर लेते थे। सेनाप्रमुख की उनके लिए कोई विशेष हैसियत नहीं थी। के.सी. करियप्पा के बाद नेहरू-मेनन जोड़ी के निशाने पर जनरल कोडांडेरा सुबैय्या थिमैया यानी जनरल केएस थिमैया आए।। 1959 में सेना प्रमुख बने जनरल थिमैया का कद इतना बड़ा था कि नेहरू-मेनन को खतरा लगने लगा। दिखावे के लिए चच्चा सार्वजनिक रूप से उनकी प्रशंसा का कोई मौका नहीं चूकते थे। गर्वीले सैनिक जनरल थिमैया सेना से नेहरू-मेनन की चिढ़ से अंजान नहीं थे पर घुटने टेकने वालों मे से नहीं थे। 28 अगस्त, 1959 को उनकी नेहरू से तल्ख बहस हो गई। उसी रात पी के टल्ली रक्षा मंत्री मेनन ने जनरल साहब को धमकाया कि सीधे प्रधानमंत्री से कैसे बात कर लिए। नतीजा बुरा होगा। जनरल थिमैया ने अगले दिन इस्तीफा दे दिया। नेहरू ने उन्हें बुलाया और इस्तीफा नहीं देने के लिए मनाया। पर जैसे ही जनरल पीएमओ से निकले, चच्चा ने खबर लीक कर दी। दो सितंबर को नेहरू ने इस्तीफे के बाबत संसद में बयान दिया और ठीकरा थिमैया पर फोड़ दिया।
सेना प्रमुख को ठिकाने लगाने का यह उतावलापन तब जब अगस्त में ही चीनियों ने एक भारतीय को बंदी बना लिया था और एकाध जगह झड़पें भी हो चुकी थीं। इस्तीफा प्रकरण के ठीक दो महीने बाद चीनियों ने अक्साईचिन में भारतीय फ्रंटियर पुलिस के आठ सिपाहियों की घात लगाकर हत्या कर दी।
जिस सेना को दफन करने का सपना चच्चा ने पाल रखा था, जरूरत पड़ने पर उसी सेना के भरोसे वे फारवर्ड पालिसी अपनाने का भी मंसूबा रखे थे। 1961 में चच्चा के परमप्रिय जनरल बीएम कौल आर्मी चीफ ऑफ जनरल स्टाफ बने। उनका मानना था कि चीनी बिना लड़े ही भाग जाएंगे। पहले लद्दाख सेक्टर की सुरक्षा का जिम्मा संभाल रही वेस्टर्न कमांड ने फारवर्ड पालिसी के खिलाफ आगाह किया, फिर सेनाप्रमुख जनरल पीएन थापर ने। लेकिन चच्चा को लगता था कि सेना को उन्होंने कानी उंगली का बल दे दिया है। पर चच्चा न जामवंत थे और न ही जनरल कौल हनुमान। चीनियों ने रौंद दिया। लगा कि पूरा आसाम चला जाएगा और चच्चा ने रेडियो पर कहा- मेरा दिल आसाम के लिए रो रहा है।
चच्चा, आपने जो किया वो भुगता। अब भी समाजवाद और धर्मनिरेपक्षता की मुगली घुट्टी पी रहे सुधीजनों को यह ईशनिंदा लग सकता है। पर कर्मन की गति न्यारी!
पराजय से पूरा देश टूट चुका था। चच्चा का यशोगान मद्धिम पड़ गया था। कवि प्रदीप ने अंधेरे में एक दिया जलाया और अमर गीत लिखा, " ऐ मेरे वतन के लोगों।" दो महीने बाद 1963 में गणतंत्र दिवस के अगले दिन जब लता जी यह गाना गाईं तो नेहरू बिलख पड़े थे। हम कभी नहीं भूलेंगे ये बलिदान। पर ये जो कहानी आपने पढ़ी, उसे याद रखना और दूसरों तक पहुंचाना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। वो यह कि राजा अगर आत्ममुग्ध हो जाए तो राज्य रसातल में जाएगा। ऐ मेरे वतन के लोगों, 1962 का यही एकमात्र सबक है।
जय हिंद की सेना।
Adarsh Singh जी की समर्थ लेखनी से# ऐ मेरे वतन के लोगों जरा जान लो ये भी कहानी#
1962 में हमारा राष्ट्रीय स्वाभिमान चकनाचूर हो गया था। उस सतत स्मृति के आज 55 साल हो रहे हैं। बीस अक्तूबर को चीन ने धावा बोला और हमें लहूलुहान करने के बाद 20 नवंबर को अपनी मर्जी से, अपनी शर्तों पर युद्ध खत्म किया। इससे जुड़ी लगभग सारी चीजें अब भी गोपनीय फाइलों में हैं। ब्रूक्स हेंडरसन कमेटी की रिपोर्ट के कुछ हिस्से सार्वजनिक किए गए पर उतना ही जिससे दशकों की कड़ी मेहनत से गढ़े गए हमारे महान नेता की छवि दागदार न होने पाए। लेकिन इसकी पुनरावृत्ति से बचना है तो किसी की शेरवानी पर छींटे लगने की परवाह नहीं करनी होगी। बहुत से राज फाश हो चुके हैं बस हम और आप जानते नहीं।
युद्ध में लड़ती फौज है और नेतृत्व नागरिक सरकार करती है। और नेतृत्व अगर अपनी सेना से ही घृणा करने लगे तो देश माओ की कृपा पर ही रहेगा। माओ चाहें तो कब्जा की हुई जमीनें छोड़ दें या कलकत्ते तक आ पहुंचें। विजयी सेना को दोष देने का कोई औचित्य नहीं। हमें तो यह देखना होगा कि हमारी सरकार ने तैयारियां कैसी की और सेना को किस तरह से लैस किया, उसका मनोबल बढ़ाया। पर इसकी तफ्तीश करेंगे तो शायद क्रोध, घृणा के ज्वार मन में उठें। समस्या आपकी है, पत्रकार का काम बस तटस्थ भाव से बताने का है।
अपने शांतिकामी प्रधानमंत्री सकल विश्व के चाचा बनना चाहते थे। इतिहास में अमरत्व और यश-कीर्ति प्राप्त की उनकी जो उत्कट आकांक्षा थी, वह विरल है। वे गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता थे, एशिया के नेता थे, वैश्विक नेता थे, भारत का प्रधानमंत्री होना बस एक संयोग था या अपने कद को दुनिया में बढ़ाने का साधन, यहां आपकी राय मानी जाएगी। उनके चीनी समकक्ष झाऊ एन लाई ने कहीं कहा था कि दुनिया के जितने भी नेताओं से वे मिले हैं,उनमें नेहरू का अहंकारोन्माद (Megalomania) सबसे ज्यादा था।
शायद इसीलिए चच्चा को अपनी सेना से विकट घृणा थी, वे तो शांतिकामी ताकतों के वैश्विक अगुआ बनना चाहते थे। आजादी के तुरंत बाद भारतीय सेना के कमांडर इन चीफ जनरल राबर्ट लाकहार्ट ने जब पप्पू चच्चा से कहा कि हमें एक रक्षा योजना की जरूरत है तो उन्होंने सेनाध्यक्ष को डपट दिया। कहा, हमें किसी रक्षा योजना की जरूरत नहीं है। हमारी नीति अहिंसा की है। आप चाहें सेना को भंग कर सकते हैं। हमारी सुरक्षा जरूरतों के लिए पुलिस काफी है।
सेना को भंग करने की बहुत जल्दी थी चच्चा को। आजादी के ठीक एक महीने बाद 16 सितंबर को प्रधानमंत्री ने फरमान सुनाया कि सैनिकों की संख्या 280,000 से घटाकर डेढ़ लाख की जाए। 1950-51 में जब चीन तिब्बत पर कब्जा कर चुका था और तनाव बढ़ रहा था तब भी नेहरू ने सेना को भंग करने का सपना देखना नहीं छोड़ा। उस साल 50,000 सैनिकों को घर भेजा गया कि वीर सैनिक, अब जरूरत नहीं रही तुम्हारी। 47 में दिल्ली के नार्थ ब्लाक में सेना का एक छोटा सा दफ्तर होता था जहां गिनती के सैनिक थे। एक दिन चच्चा की नजर उन पर पड़ गई और उन्हें तत्क्षण गुस्सा आ गया- ये यहां क्या रहे हैं? फौरन हटाओ इन्हें यहां से। यूं दुत्कारे गए।
"लोकतंत्र के लिए चुनौती" यानी सेना अंदर से ही खोखली हो जाए इसलिए स्वतंत्रता के तुरंत बाद उन्होंने राष्ट्र और धर्मनिरपेक्षता के हित में बहुत बड़ा कदम उठाते हुए इसे थलसेना, वायुसेना और नौसेना में बांट दिया। तब से आज तक हम यूनीफाइड कमांड/थियेटर कमांड और सीडीएस (चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ) बनाने को जूझ रहे हैं। प्रधानमंत्री जी को शायद गंभीरता से लगता था कि भारतीय सेना को लड़ने नहीं आता। तभी तो 1948 के युद्ध में सैन्य कमांडरों को बताने लगे कि कैसे लड़ें। परिणाम यह कि एक तिहाई कश्मीर पाकिस्तान के हाथ चला गया। फील्डमार्शल केसी करियप्पा ने 1948 के युद्ध में उत्कृष्ट नेतृत्व करते हुए मोर्चे से सेना की अगुआई की। चच्चा कैसे खुश होते? उन्होंने जनरल करियप्पा को हटाने की ठान ली और उनकी जगह जनरल राजेंद्र सिंहजी जडेजा को फील्डमार्शल बनाने की कोशिश की। जनरल जडेजा मना नहीं करते तो ये भी हो जाता।
भारतीय सेना के निरंतर अपमान और मनोबल तोड़ने की परंपरा को आगे बढ़ाने में विलक्षण प्रतिभा के धनी कृष्ण मेनन ने पूरी ऊर्जा झोंक दी। मेनन ने सेना के पूरे चेन ऑफ कमांड को ध्वस्त कर दिया। कायदे से रक्षा मंत्री सिर्फ सेना प्रमुख से बात करता है लेकिन मेनन के क्या कहने। वे तो फोन उठा कर मेजर से भी बात कर लेते थे। सेनाप्रमुख की उनके लिए कोई विशेष हैसियत नहीं थी। के.सी. करियप्पा के बाद नेहरू-मेनन जोड़ी के निशाने पर जनरल कोडांडेरा सुबैय्या थिमैया यानी जनरल केएस थिमैया आए।। 1959 में सेना प्रमुख बने जनरल थिमैया का कद इतना बड़ा था कि नेहरू-मेनन को खतरा लगने लगा। दिखावे के लिए चच्चा सार्वजनिक रूप से उनकी प्रशंसा का कोई मौका नहीं चूकते थे। गर्वीले सैनिक जनरल थिमैया सेना से नेहरू-मेनन की चिढ़ से अंजान नहीं थे पर घुटने टेकने वालों मे से नहीं थे। 28 अगस्त, 1959 को उनकी नेहरू से तल्ख बहस हो गई। उसी रात पी के टल्ली रक्षा मंत्री मेनन ने जनरल साहब को धमकाया कि सीधे प्रधानमंत्री से कैसे बात कर लिए। नतीजा बुरा होगा। जनरल थिमैया ने अगले दिन इस्तीफा दे दिया। नेहरू ने उन्हें बुलाया और इस्तीफा नहीं देने के लिए मनाया। पर जैसे ही जनरल पीएमओ से निकले, चच्चा ने खबर लीक कर दी। दो सितंबर को नेहरू ने इस्तीफे के बाबत संसद में बयान दिया और ठीकरा थिमैया पर फोड़ दिया।
सेना प्रमुख को ठिकाने लगाने का यह उतावलापन तब जब अगस्त में ही चीनियों ने एक भारतीय को बंदी बना लिया था और एकाध जगह झड़पें भी हो चुकी थीं। इस्तीफा प्रकरण के ठीक दो महीने बाद चीनियों ने अक्साईचिन में भारतीय फ्रंटियर पुलिस के आठ सिपाहियों की घात लगाकर हत्या कर दी।
जिस सेना को दफन करने का सपना चच्चा ने पाल रखा था, जरूरत पड़ने पर उसी सेना के भरोसे वे फारवर्ड पालिसी अपनाने का भी मंसूबा रखे थे। 1961 में चच्चा के परमप्रिय जनरल बीएम कौल आर्मी चीफ ऑफ जनरल स्टाफ बने। उनका मानना था कि चीनी बिना लड़े ही भाग जाएंगे। पहले लद्दाख सेक्टर की सुरक्षा का जिम्मा संभाल रही वेस्टर्न कमांड ने फारवर्ड पालिसी के खिलाफ आगाह किया, फिर सेनाप्रमुख जनरल पीएन थापर ने। लेकिन चच्चा को लगता था कि सेना को उन्होंने कानी उंगली का बल दे दिया है। पर चच्चा न जामवंत थे और न ही जनरल कौल हनुमान। चीनियों ने रौंद दिया। लगा कि पूरा आसाम चला जाएगा और चच्चा ने रेडियो पर कहा- मेरा दिल आसाम के लिए रो रहा है।
चच्चा, आपने जो किया वो भुगता। अब भी समाजवाद और धर्मनिरेपक्षता की मुगली घुट्टी पी रहे सुधीजनों को यह ईशनिंदा लग सकता है। पर कर्मन की गति न्यारी!
पराजय से पूरा देश टूट चुका था। चच्चा का यशोगान मद्धिम पड़ गया था। कवि प्रदीप ने अंधेरे में एक दिया जलाया और अमर गीत लिखा, " ऐ मेरे वतन के लोगों।" दो महीने बाद 1963 में गणतंत्र दिवस के अगले दिन जब लता जी यह गाना गाईं तो नेहरू बिलख पड़े थे। हम कभी नहीं भूलेंगे ये बलिदान। पर ये जो कहानी आपने पढ़ी, उसे याद रखना और दूसरों तक पहुंचाना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। वो यह कि राजा अगर आत्ममुग्ध हो जाए तो राज्य रसातल में जाएगा। ऐ मेरे वतन के लोगों, 1962 का यही एकमात्र सबक है।
जय हिंद की सेना।
Adarsh Singh जी की समर्थ लेखनी से

अदालत ने जो रोहिंग्या वाला केस लटकाया हैं ये बात सामान्य दिख रही है जबकि ये सामान्य है नहीं, असल में ये भारत के खिलाफ बहुत बड़ी साजिश है,

अदालत ने जो रोहिंग्या वाला केस लटकाया हैं ये बात सामान्य दिख रही है जबकि ये सामान्य है नहीं, असल में ये भारत के खिलाफ बहुत बड़ी साजिश है, भारत को तबाह और बर्बाद करना चाहते हैं ये वामपंथी क्योंकि अब तक आपने शायद सुप्रीम कोर्ट का रोहिंग्यों पर फैसला और बाकि अन्य ख़बरों पर गौर नहीं किया, उन्हें लिंक करने की कोशिश नहीं की, अन्यथा आपके होश उड़ जाते कि आखिर ये हो क्या रहा है !
पहले आपको सरल भाषा में बताते है सुप्रीम कोर्ट ने रोहिंग्यों को लेकर क्या कहा है :---
सुप्रीम कोर्ट ने कहा की, हम रोहिंग्यों पर फैसला बाद में सुनाएंगे, और जबतक हम फैसला नहीं सुनाते सुनवाई पूरी नहीं करते, तब तक किसी भी रोहिंग्या को बाहर नहीं किया जा सकता
सुप्रीम कोर्ट ने कोई तारीख नहीं दी है की कबतक वो रोहिंग्यों पर सुनवाई को पूरी करेगा । बस यही काफी है ।
और देखिये देश में क्या हो रहा है :--
Hyderabad police arrested a rohingya Muslim with Aadhar car, pan card, election ID card
1:18 PM - Sep 12, 2017
15 154 94 Frustitute
@Frustitute
(हैदराबाद में पुलिस ने रोहिंग्या मुस्लिम पकड़ा, उसके पास जन्मप्रमाण पत्र, आधार, पैन कार्ड सब था )
और जरा इसपर गौर कीजिये :---
अब्दुल रहीम नाम के रोहिंग्या मुसलमान का जम्मू में आधार कार्ड भी बन गया
पुरे देश में रोहिंग्या मुसलमान अपना आधार, जन्म प्रमाण पत्र और बाकि तरह के कागज़ बनाने में जुट चुके है
और भारत में ये कोई मुश्किल काम नहीं
कोई भी भारतीय कट्टरपंथी, रोहिंग्या मुस्लिम को अपने घर का किरायेदार बताकर, और अन्य दस्तावेज देकर उसके प्रमाण पत्र बनवा सकता है
भारत में रोहिंग्या समर्थक बहुत है, रोहिंग्यों के लिए आधार, पैन कार्ड इत्यादि सब बनवाना कोई मुश्किल काम नहीं है
और जब सुप्रीम सपोर्ट में सुनवाई होगी तो भैया ये तो भारतीय नागरिक है जी, इनके पास सारे पुख्ता दस्तावेज है
और हमारी अदालत मामले को 15-20 और न जाने कितने साल तक टालती रहेगी
अब कभी सरकार बदल जाये तो फिर क्या दिक्कत है, सबको नागरिकता भी मिल जाएगी । और निकालेंगे हिन्दु से अपना वो ही पुराना बैर ।।
अब बड़ा प्रश्न ये है की, क्या सुप्रीम कोर्ट ने रोहिंग्या मुसलमानो पर सुनवाई को अनिश्चितकाल तक के लिए इसलिए टाल दिया है ताकि वो सब अपना दस्तावेज बनवा लें और फिर मामले को हमेशा के लिए लटका दिया जाये ? (Pushkar Vir Sinh Bhatia)

गुरुवार, अक्टूबर 19, 2017

अत्याचार जो हिंदू पूर्वजो पर किये

अत्याचार जो मुगलों, चंगेजों, तुर्कों आदि ने हमारे हिंदू पूर्वजो पर किये

1- मैं नहीं भूला उस कामपिपासु अलाउद्दिन को, जिससे अपने सतित्तव को बचाने के लिये रानी पद्ममिनी ने 14000 स्त्रियो के साथ जलते हुए अग्निकुंड में कूद गयी थीं।

2- मैं नहीं भूला उस जालिम औरंगजेब को, जिसने संभाजी महाराज को इस्लाम स्वीकारने से मना करने पर तडपा तडपा कर मारा था।

3- मैं नहीं भूला उस जिहादी टीपु सुल्तान को, जिसने एक एक दिन में लाखो हिंदुओ का नरसंहार किया था।

4- मैं नहीं भूला उस जल्लाद शाहजहाँ को, जिसने 14 बर्ष की एक ब्राह्मण बालिका के साथ अपने महल में जबरन बलात्कार किया था।

5- मैं नहीं भूला उस बर्बर बाबर को, जिसने मेरे श्री राम प्रभु का मंदिर तोडा और लाखों निर्दोष हिंदुओ का कत्ल किया था।

6- मैं नहीं भूला उस शैतान सिकन्दर लोदी को, जिसने नगरकोट के ज्वालामुखि मंदिर की माँ दुर्गा की मूर्ति के टुकडे कर उन्हे कसाइयो को मांस तोलने के लिये दे दिया था।

7- मैं नहीं भूला उस धूर्त ख्वाजा मोइन्निद्दिन चिस्ती को, जिसने संयोगीता को इस्लाम कबूल ना करने पर नग्न कर मुगल सैनिको के सामने फेंक दिया था।

8- मैं नहीं भूला उस निर्दयी बजीर खान को, जिसने गुरूगोविंद सिंह के दोनो मासूम फतेहसिंग और जोरावार को मात्र 7 साल और 5 बर्ष की उम्र में इस्लाम ना मानने पर दीवार में जिन्दा चुनवा दिया था।

9- मैं नहीं भूला उस जिहादी बजीर खान को, जिसने बन्दा बैरागी की चमडी को गर्म लोहे की सलाखो से तब तक जलाया जब तक उसकी हड्डियां ना दिखने लगी मगर उस बन्दा वैरागी ने इस्लाम स्वीकार नही किया

10- मैं नहीं भूला उस कसाई औरंगजेब को, जिसने पहले संभाजी महाराज की आँखों मे गरम लोहे के सलिए घुसाए, बाद मे उन्हीं गरम सलियों से पुरे शरीर की चमडी उधेडी, फिर भी संभाजी ने हिंदू धर्म नही छोड़ा था।

11- मैं नहीं भूला उस नापाक अकबर को, जिसने हेमू के 72 वर्षीय स्वाभिमानी बुजुर्ग पिता के इस्लाम कबूल ना करने पर उसके सिर को धड़ से अलग करवा दिया था।

12- मैं नहीं भूला उस वहशी दरिंदे औरंगजेब को, जिसने धर्मवीर भाई मतिदास के इस्लाम कबूल न करने पर बीच चौराहे पर आरे से चिरवा दिया था।

मंगलवार, अक्टूबर 17, 2017

सर सैयद अहमद ख़ान का मदरसा

सर सैयद अहमद ख़ान
मुसलमान क़ौम जब भी कभी पराजित होती है तो अपनी जड़ें तलाशती है । क़ुरान कहती है कि क़ुरान की रस्सी को मजबूती से पकड़े रहो तो संसार तुम्हारे कदमों पर होगा । मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद मुसलमानों की एक शाखा ने देवबंद में मदरसा स्थापित किया और एकदम शुद्ध इस्लामी शिक्षा प्रारंभ कर दी जहाँ क़ुरान , इस्लामी न्यायशास्त्र यानी फिका, और अरबी साहित्य , हदीस के ग्रंथ आदि की शिक्षा दी जाती है । यह संस्थान केवल मौलवी तैयार करने का काम करता है जो अपने ढंग के शुद्धतावादी सुन्नी दृष्टिकोण का प्रचार प्रसार करता है ।
सर सैयद अत्यंत दूरदर्शी थे । उन्होंने ताड़ लिया कि आधुनिक शिक्षा के बिना मुसलमानों का कल्याण संभव नहीं है । जब उन्होंने मोहमडन एंगलो ओरियंटल स्कूल की स्थापना की तो मुस्लिम समाज की ओर से इतना विरोध हुआ कि उनके ख़िलाफ बीसियौं फतवे निकाले गये । उन्हें काफिर घोषित किया गया और तो और लोग सऊदी अरब से भी उनके ख़िलाफ फतवा ले आये । अंग्रेजों की हुक़ूमत न होती तो शायद कोई सिरफिरा उनका काम भी तमाम कर देता । सबसे अधिक एतराज़ तो इस बात पर था कि कॉलेज में सुन्नी धर्म शास्त्र और शिया धर्म शास्त्र दोनों के अलग अलग विभाग खोले गये । यह बात तो नाक़ाबिले बर्दाश्त थी ।
सर सैयद का मदरसा आगे चल कर विश्वविद्यालय बन गया । पूरे उपमहाद्वीप में मुसलमानों की तरक्की में अलीगढ़ का बहुत योगदान है जबकि देवबंद ने पहले से फिरकों बंटे मुसलमानों को एक और फिरका देने के सिवा कुछ नहीं दिया । अरब की जड़ों में वह इस कदर घुसे हुए हैं कि भारत में होते हुए भी पंचतंत्र जैसे महान ग्रंथ का अरबी अनुवाद 'कलीला व दमना' पढ़ाते हैं ।
अलीगढ़ प्रवास के दौरान एएमयू से रत्न परीक्षण में एक साल का डिप्लोमा करने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त है । पढ़ाई कितनी सस्ती हो सकती है इसका अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि पूरे वर्ष की फीस लगभग ६००/ थी और यूनिवर्सिटी ने कम से कम १००००/ रुपये मेरे ऊपर शैक्षिक भ्रमण आदि में ख़र्च कर दिये होंगे । सारे भारत में लोगों ने अपनी संपत्तियाँ अलीगढ़ विश्वविद्यालय को वक़्फ कर रखी हैं ।
यहाँ के पूर्व छात्रों ने राजनीति, साइंस, इंजीनियरिंग, मेडिकल आदि क्षेत्रों में सारी दुनिया में नाम कमाया है । मुसलमान सर सैयद से कभी उऋण नहीं हो सकते !
आज सर सैयद के जन्म को २०० वर्ष पूरे हो रहे हैं । अलीगढ़ में हर साल १७ अक्तूबर को सर सैयद डे मनाया जाता है । सर सैयद नै राजनीति से दूर रह कर विशुद्ध शैक्षिक उद्धार के लिये यह इदारा क़ायम किया था लेकिन अलीगढ़ में ही पाकिस्तान के बीज बोये गये जो सर सैयद की शायद कभी अभिलाषा न रही हो । वह हिंदू मुसलमान दोनों की उपमा अपनी दो आँखों से देते थे ।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से जुड़े हुए सभी लोगों को मैं सर सैयद डे की बधाई देता हूँ ।
राजकमल गोस्वामी Rajkamal Goswami जी की पोस्ट।।

एक_फर्जी_प्रेम_की_हकीकत

H Man Singh Panwar
# एक_फर्जी_प्रेम_की_हकीकत
शाहजंहा के असली नाम खुर्रम था ,जब भी वो कोई युद्ध जीतता था तो कैद किये लोगो के सर कटवा कर कमान बनवाता था और उनके स्त्रीधन को बंदी बना लेता था उनमे से जो भी पसंद आती वो उनमे से उसे रखैल बना कर हरम में ले लेता था !शाहजहा की सात शादियां हुई थी जिसमे चौथे नंबर की बीबी थी मुमताज ! जब शाहजंहा और मुमताज की शादी हुई थी उस समय मुमताज शादीशुदा थी ,मुमताज का पति शाहजहाँ का सबसे वफादार दोस्त था !एक समारोह के दौरान जब मुमताज अपने पति के साथ शाहजंहा के महल में गयी तो शाहजंहा उस पर मोहित हो गया !इसके बाद उसने षड्यंत्र से उसके पति कि हत्या करवा दी !जिस समय मुमताज से शाहजंहा के साथ निकाह किया था उस समय मुमताज के एक औलाद भी थी जिसे शाहजंहा ने नदी में फिंकवा दिया था !शाहजंहा और मुमताज के 14 बच्चे हुवे और 14 वे बच्चे के जन्म के समय ही मुमताज की मृत्य हुई थी !हालाँकि मुमताज उसकी सभी रानियों में से खूबसूरत थी जिससे शाहजंहा अपना ज्यादातर समय मुमताज बिताता था ! सात रानियाँ होने के बावजूद शाहजंहा की 8000 रखेले भी थी !
शाहजंहा की हवस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता हे की उसने उसकी और मुमताज की बेटी जंहाआरा तक भी नहीं बख्शा !जंहाआरा बेहद सुंदर थी उसे देख कर उसपर कोई भी मोहित हो जाता था इसलिए शाहजंहा ने उसे अपनी रखेल बना लिया और कभी उसकी शादी नहीं होने दी ! शाहजंहा अपनी कही इस बात को सिद्ध करता था की जब कोई माली अपने बगीचे में पेड़ लगाता हे तो उसके फल खाने का भी उसको पूरा हक हे ,उसके इस कूतर्क का उस समय तत्कालीन किसी भी इस्लामिक धर्म गुरु के पास कोई जवाब नहीं था !शाहजंहा को पता चला की जंहाआरा किसी लड़के से प्रेम करती हे तो उस लड़के को मरवा दिया इसके बाद उसने अपनी बेटी के साथ ही सभी घिनोने कर्म किए !
यदि शाहजंहा मुमताज से सच्चा प्यार करता था तो उसने उसके मरने के बाद शादियां क्यों की ? ये एक बड़ा सवाल हे ? आपको बता दू की मुमताज की मोत के बाद शाहजंहा ने उसी की छोटी बहिन के साथ शादी कर ली !शाहजंहा की कुदृष्टि हर सुंदर महिला पर रहती थी !सुंदर महिलावो को शहजहा की वासनावो का कोई अंत नहीं था !इतनी हवस रखने वाला इंसान किसी से सच्चा प्यार कैसे कर सकता हे इसका जवाब किसी के पास नहीं हे !

सच को सच कहना भी आसान नही है !!

Farida Khanam सच को सच कहना भी आसान नही है !!
कुछ लोगों सवाल कर रहे हैं की मुगल हिन्दुस्तान आये और जबरन धर्म परिवर्तन करवाया तब हिन्दुस्तान में सिर्फ 15% मुसलमान और 85% हिन्दू कैसे हैं ?
वह भुल जाते हैं की उस वक्त पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान भी हिन्दुस्तान का ही हिस्सा थे और इन सब की जनसंख्या का आजादी के पूर्व की जनसंख्या से मिलान किया जाए तो बात स्पष्ट हो जाएगी की सारी सुन्नत ही मार मार बनाई मुसलमान हैं !
रही बात शियाओं की तो वह निश्चित ही विदेशी शरणार्थियों में रहे हैं जो खुद पर हो रहे अत्याचारों से ज्यादा इमाम हुसैन अहिलैस्लाम का इंसानियत का पैगाम ले कर ठीक उसी तरह वतन से निकले थे जैसे तथागत बौद्ध बुद्धत्व का पैगाम ले कर निकले थे !
बुद्ध के संदेशवाहको ने कभी किसी देश मे हिंसा के सहारे बुद्ध का संदेश नहीं पहुंचाया ! ठीक उसी तरह आज भी हिन्दुस्तान के इतिहास इमाम हुसैन के इंसानियत के संदेश लाए शिया कभी आतंकवाद के आरोपी तक नहीं रहे !
अफसोसजनक है की शमशीरें सत्य को काटती चली गई और शैतानीयत इस्लाम के चहरे में घुसपैठ कर बैठी!
वर्तमान का कट्टरपंथी मुसलमान इस्लाम से ज्यादा हिन्दू धर्म की कुरीतियों पर बात करता नजर आएगा ! वह हर इल्म के लिए विदेशी इस्लामीक मुल्कों की सूरत देखता नजर आएगा, यह बात ठीक उन दलितों के बौद्ध धर्म और बौद्ध धर्म की विदेशी सूरत को देखें तो तस्वीर साफ हो जाएगी , तथाकथित बौद्ध की पोस्ट गौर करें वह हिन्दु विरोधी हैं पर कहीं बुद्ध की क्षिक्षाऔ का अनुगामी नहीं !वह बुद्ध का ध्यान भुल ही गया वर्ना शिव तक पहुंच जाता , ठीक ऎसे ही मुसलमान हुसैन अहिलैस्लाम का त्याग याद रखता तो आतंकवाद तक नहीं पहुंचता ! कमज़ोरी की पहचान गालियाँ और आतंक है , सत्यता की पहचान मौन और अहिंसा है

सोमवार, अक्टूबर 16, 2017

पदमावती फिल्म देखने के पहले जान लीजिए

कला के कारोबारी संजय लीला भंसाली की कुछ फिल्मंे मैंने देखी हैं। इतिहास के पसंदीदा टुकड़ों को अपनी आजाद ख्याली से जोड़कर ढाई घंटे की एक कहानी में परोसने में वे वैसे ही कुशल हैं, जैसा सिनेमा के एक कामयाब कारोबारी को होना चाहिए। इन दिनों उनकी नई फिल्म पदमावती सुर्खी में है। इतिहास का एक विद्यार्थी होने के नाते मेरी दिलचस्पी इसमें है कि संजय सिनेमा के परदे की लीला में सुलतान अलाउद्दीन खिलजी को किस तरह पेश करने वाले हैं।
मेरी दिलचस्पी रानी पद्मिनी में नहीं है। वह भारत के इतिहास की राख और धुएं की कहानी में एक दर्दनाक किरदार है। एक भारतीय होने के नाते मैं पद्मिनी के हश्र का एक हिस्सेदार और जिम्मेदार खुद को महसूस करता हूं। पद्मिनी चित्तौड़ के अासमान से गंूजी आंसुओं से भीगी एक पुकार है। सदियों बाद भी उस चिता की आग की गरमाहट अब तक मेरे विचारों में तपती है, जिसमें चित्तौड़ की हजारों राजपूत औरतें जिंदा जल मरने के लिए उतर गई थीं। उस दिन चित्तौड़गढ़ के किले पर अलाउद्दीन खिलजी की आहट थी।
सदियों तक इस्लाम का परचम फहराते हुए आए हमलावरों को हिंदुस्तान माले-गनीमत में मिला था। मुस्लिम सुलतानों और बादशाहों की फौजों से हारने पर बेहिसाब लूट, मंदिरों की तोड़फोड़, जुल्म, गुलामी और जबरन धर्म परिवर्तन के किस्से इतिहास में बिखरे हुए हैं। तब युद्ध हारने की हालत में राजपूत औरतों की सामूहिक आत्महत्याएं इतिहास में जौहर के नाम से लिखी गई हैं। ऐसे अनगिनत जौहर हुए हैं। राजस्थान के आसमान पर जौहरों का गाढ़ा काला धुआं सदियों तक देखा गया है। मेरे मध्यप्रदेश के चंदेरी और रायसेन में भी जौहर हुए हैं। हमारी आज की पीढ़ी की याददाश्त से यह सब गुम है। आखिरकार अलाउद्दीन खिलजी के करीब 225 साल बाद अकबर के समय राजस्थान की ज्यादातर रियासतों ने मध्यमार्ग अपनाया। यह शांति और समझाैते का रास्ता था। एकतरफा रिश्तों की शक्ल में एक ऐसा समझौता, जिसमें राजपूत राजाओं ने अपनी बहन-बेटियों को दिल्ली के बादशाहों के हरम में भेजा और अपनी रियासतों को बार-बार के हमलों, लूट और बरबादी से बचाने में कुछ हद तक कामयाब हुए।
मुझे जयपुर में इतिहास के एक जानकार ने बताया था कि सिर्फ अकबर के हरम में राजस्थान के करीब 40 राजघरानों की लड़कियां भेजी गईं थीं। आमेर राजघराने की जोधाबाई इनमें से एक थीं। हालांकि अकबर तो दोतरफा रिश्ते चाहता था। यानी मुस्लिम शाही वंश की लड़कियांें को भी राजपूत अपनाएं। मगर धर्म के अंधे राजपूतों को यह मंजूर नहीं था। वे खुश होकर एक हाथ से ताली बजाते रहे। यानी अपनी लड़कियों के डोले दिल्ली भेजते रहे। तब भी चित्तौड़ अकेला था, जो नहीं झुका। चित्तौड़गढ़ ने इसे अपमानजनक माना और कभी बादशाही ताकत के आगे घुटने नहीं टेके। अपनी अडिग नीति के कारण ही पूरे देश के मानस में आज भी चित्तौड़गढ़ नसों में लहू का प्रवाह तेज कर देता है, जहां सबसे पहले पद्मिनी को अलाउद्दीन के हाथों में पड़ने बेहतर यह लगा कि वे धधकती आग में जलकर मर जाएं। जयपुर में बसे चित्तौड़गढ़ के लोग आज भी गर्दन ऊँची करके बात करते हैं। वे आपको अपने दिल में राज करने वाले महाराणा प्रताप और अकबर के सेनापति बने जयपुर के राजा मानसिंह का फर्क बताएंगे।
मैंने भारत के मुस्लिम शासकों के बारे में काफी कुछ पढ़ा है। मेरे अपने संग्रह में ढेरों किताबें हैं। खासकर दिल्ली में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद शुरू हुए सुलतानों और बादशाहों के दुर्गम दौर का इतिहास, जो 1193 से शुरू होता है और अंग्रेजों के काबिज होने तक चलता है। दिल्ली में आप इसे बहादुरशाह जफर तक गिन सकते हैं, लेकिन औरंगजेब के बाद यानी 1707 के बाद से ही उनका सितारा डूबने लगा था।
यहां मैं अपनी बात सिर्फ अलाउद्दीन खिलजी पर केंद्रित रखूंगा, जिसने कुलजमा 21 साल दिल्ली में सुलतानी की। वह 1296 में अपने चाचा-ससुर जलालुद्दीन खिलजी को धोखे से कत्ल करके दिल्ली पर कब्जा करने आया। इसके पहले जलालुद्दीन ने उसे इलाहाबाद के पास कड़ा का हाकिम बनाया था। कड़ा की जागीर में रहते हुए जलालुद्दीन की इजाजत के बिना उसने पहली बार विदिशा पर हमला किया। मंदिर तोड़े और जमकर लूट की। विदिशा में ही उसे किसी ने देवगिरी का पता यह कहकर बताया कि यहां तो कुछ भी नहीं है। माल तो देवगिरी में है। दूसरी दफा वह जलालुद्दीन को बरगलाकर देवगिरी को लूटने में कामयाब हुआ। यहां उसे बेहिसाब दौलत मिली। अब उसने दिल्ली का सुलतान बनने का ख्वाब देखा। तब तक जलालुद्दीन को भी अपने धोखेबाज भतीजे के इरादों का पता चला। फिर भी उसे भरोसा था कि उसका दामाद अलाउद्दीन, जो उसका सगा भतीजा भी है हुकूमत के लालच में नहीं पड़ेगा। मान जाएगा।
दोनों के बीच समझौते की बातचीत गंगा नदी के किनारे एक शिविर में तय हुई। वह घात लगाए ही था। उसने बूढ़े और निहत्थे जलालुद्दीन का कत्ल धोखे से रमजान महीने में इफ्तारी के वक्त किया। बेरहमी से उसका सिर काटकर अलग किया गया और एक भाले पर टांगकर कड़ा-मानिकपुर के अलावा अवध में घुमाया गया। उस दौर में दुश्मनों के सिर काटकर इस तरह बेइज्जत करना कोई नहीं बात नहीं थी मगर जिस चाचा-ससुर और सुलतान ने उसकी बचपन से परवरिश की और अपनी बेटी दी, उसके इस तरह कत्ल किए जाने पर कई लेखकों ने भी अलाउद्दीन को बुरा-भला कहा। जियाउद्दीन बरनी का चचा अलाउलमुल्क अलाउद्दीन के समय दिल्ली का कोतवाल था। बरनी ने इस घटना का ब्यौरा विस्तार से लिखा है। अलाउद्दीन यहीं नहीं रुका। उसने जलालुद्दीन के दो बेटों अरकली खां और रुकनुद्दीन को अंधा करने के बाद कत्ल किया।
जब अलाउद्दीन दिल्ली में दाखिल हुआ तो उसे मालूम था कि लोग सुलतान की हत्या से बेहद नाराज हैं। अलाउद्दीन ने अपना जलवा दिखाने के लिए देवगिरी से लूटा गया सोना और जवाहरात सड़कों पर लुटाए। उसने हर पड़ाव पर हर दिन पांच मन सोने के सितारे लुटवाए। जलालुद्दीन के सारे भरोसेमंद दरबारियों को मुंह बंद रखने की मोटी कीमत चुकाई। सबको बीस-बीस मन सोना दिया गया। सबने उसकी सरपरस्ती चाहे-अनचाहे कुबूल की। 1296 में वह दिल्ली का सुलतान बना। उसके समकालीन इतिहासकार बताते हैं कि वह निहायत ही अनपढ़ था। उसे कुछ नहीं आता था। मगर वह कट्‌टर मुसलमान था। उसकी दाढ़ में भारत के राजघरानों की पीढ़ियों से जमा दौलत का खून विदिशा और देवगिरी में लग चुका था। आखिर उसे देवगिरि में मिला क्या था? देवगिरी की उस पहली लूट का हिसाब जियाउद्दीन बरनी ने यह लिखा है-देवगिरी के घेरे के 25 वें दिन रामदेव ने 600 मन सोना, सात मन मोती, दो मन जवाहरात, लाल, याकूत, हीरे, पन्ने, एक हजार मन चांदी, चार हजार रेशमी कपड़ों के थान और कई ऐसी चीजें जिन पर अक्ल को भरोसा न आए, अलाउद्दीन को देने का प्रस्ताव रखा।
यहां से खुलेआम लूट और कत्लेआम का एक ऐसा सिलसिला शुरू होता है, जो 1316 में अलाउद्दीन के कब्र में जाने तक पूरे भारत में लगातार चलता रहा। अलाउ्दीन खिलजी के करीब 340 साल बाद औरंगजेब ने भी सन् 1656 में ऐसी ही एक खूंरेज लड़ाई में अपने सगे भाइयों का कत्ल और बाप को कैद करके हिंदुस्तान की हुकूमत पर कब्जा किया था। जब आप पहले से कोई राय कायम किए बिना तफसील से अलाउद्दीन और आैरंगजेब के इतिहास को पढ़ेंगे तो पाएंगे दोनों एक जैसे धोखेबाज, क्रूर और कट्‌टर थे। औरंगजेब ने 50 साल तक राज किया। अलाउद्दीन ने 20 साल। भारत की तबाही में अलाउद्दीन औरंगजेब से काफी आगे और भारी दिखाई देगा। अलाउद्दीन के हमलों ने भारत की आत्मा को आहत किया।
सुलतान बनने के बाद उसने एक बार उलुग खां को गुजरात पर हमला करने का हुक्म दिया। तब गुजरात का राजा करण था। अलाउद्दीन के इतिहासकार लिखते हैं कि करण हार के डर से देवगिरी चला गया। उलुग खां के हाथ करण का खजाना और रानी कमलादी लगी। कमलादी को दिल्ली लाया गया और सुलतान के सामने पेश किया गया। अब कमलादी सुलतान की संपत्ति थी। कमलादी की दो बेटियां थीं। एक मर चुकी थी अौर छह महीने की दूसरी बेटी गुजरात में ही छूट गई थी। उसका नाम था देवलदी। उसे दिवल रानी भी कहा गया है। एक बार मौका देखकर कमलादी ने सुलतान को खुश करते हुए अपनी बिछुड़ी हुई बेटी से मिलने की ख्वाहिश की। नन्हीं देवलदी को दिल्ली लाया गया। उसकी परवरिश सुलतान के ही महल में कमलादी के साथ हुई।
जब अलाउद्दीन के महलों में यह सब चल रहा था तब उसका एक बेटा खिज्र खां 11 साल का था। दिल्ली में बड़ी धूमधाम से उसकी शादी अलाउद्दीन खिलजी के ही एक करीबी सिपहसालार अलप खां की बेटी से हो चुकी थी। मगर वह देवलदी को भी चाहता था। दोनों साथ ही पले-बढ़े थे। आखिरकार एक दिन चुपचाप देवलदी से भी उसकी शादी हो गई। न कोई जश्न हुआ। न शादी जैसा कुछ। आप सोचिए-सुलतान अलाउद्दीन ने कमलादी को रखा। उसकी बेटी को अपने बेटे के साथ रख दिया! अमीर खुसरो ने खिज्र खां और देवलदी के बारे में खूब लिखा है! वह अपने समय की इन घटनाओं का चश्मदीद था।
भारत को लगातार लूटने की अलाउद्दीन की हवस की अपनी वजहें थीं। 1311 में दक्षिण भारत की लूट का हिसाब देखिए-मलिक नायब 612 हाथी, 20 हजार घोड़े और इन पर लदा 96 हजार मन सोना, मोती और जवाहरात के संदूक लेकर दिल्ली पहुंचा। सीरी के राजमहल में मलिक नायब ने सुलतान के सामने लूट का माल पेश किया। खुश होकर सुलतान ने दो-दो, चार-चार, एक-एक और अाधा-आधा मन सोना मलिकों और अमीरों को बांटा। दिल्ली के तजुर्बेकार लोग इस बात पर एकमत थे कि इतना और तरह-तरह का लूट का सामान इतने हाथी और सोने के साथ दिल्ली आया है, इतना माल इसके पहले किसी समय कभी नहीं आया। अलाउद्दीन खिलजी के हर हमले और लूट के ऐसे ही ब्यौरे हैं। इनमें बेकसूर हिंदुओं की अनगिनत हत्याओं के विवरण रोंगटे खड़े करने वाले हैं, जब नृशंस खिलजी के सैनिक हारे हुए हिंदुओं के कटे हुए सिरों को गेंद बनाकर चौगान खेला करते थे।
अलाउद्दीन खिलजी ने जो बोया, वह जनवरी 1316 में उसकी मौत के कुछ ही महीनों के भीतर उसकी औलादों ने अपने खून की हर बूंद के साथ काटा। सुलतान के ही भरोसेमंद नायब मलिक काफूर ने हिसाब बराबर किया। खिलजी की फौज को लेकर कफूर ने कई बड़ी दिल दहलाने वाली फतहें हासिल की थीं। सुलतान की मौत के पहले ही मलिक कफूर ने सुलतान के कई भरोसेमंद लोगांे को मरवाना शुरू कर दिया था। इसमें अलप खां भी शामिल था। खिज्र खां को उसने ग्वालियर के किले में कैद किया, जहां देवलदी भी उसके साथ थी। जब सुलतान मरा ताे मलिक काफूर ने सुंबुल नाम के एक गुलाम को ग्वालियर भेजकर खिज्र खां को अंधा करा दिया। सुलतान के दूसरे बेटे शहाबुद्दीन को भी मरवा दिया गया। शहाबुद्दीन सुलतान अलाउद्दीन खिलजी और देवगिरी के राजा रामदेव की बेटी झिताई का बेटा था। रामदेव को भी उसने कई बार लूटा और बेइज्जत किया था। मलिक कफूर सिर्फ 35 दिन जिंदा रह सका, अलाउद्दीन के लोगों ने उसे भी खत्म कर दिया।
फिल्म देखने के पहले जान लीजिए कि जियाउद्दीन बरनी ने बताया है कि खिलजी के आदेश लागू होने के बाद हिंदुओं के पास सोना, चांदी, तनके, जीतल और धन-संपत्ति का नामोनिशान नहीं रह गया था। वह घोर गरीबी में आ गए थे। बड़े घरों की औरतों को भी मुसलमानों के घरों में काम के लिए मजबूर होना पड़ा। उनकी हालत ऐसी बना दी गई थी कि वे घोड़े पर न बैठ सकें, हथियार न रख सकें, अच्छे कपड़े न पहन सकें और बेफिक्र से जिंदगी न जी सकें।
अब मैं इत्मीनान से संजय लीला भंसाली की फिल्म को देखना चाहंूगा। और आप भी इस रोशनी में देखिएगा कि अगर सिनेमा एक कला है तो इस कला का इस्तेमाल भंसाली क्या बताने के लिए कर रहे हैं?
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खिलजी की 21 साल की हुकूमत: हमले, लूट, खूनखराबा, कत्लोगारत...
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-25 फरवरी 1296 : सुलतान बनने से पहले देवगिरी पर हमला और लूट
-18 जुलाई 1316 को देवगिरी से लौटकर उसने जलालुद्दीन की हत्या की।
-21 अक्टूबर 1396 को दिल्ली पहुंचा और जमकर लूट का सोना लुटाया।
-23 फरवरी 1299 को सोमनाथ पर हमले का हुक्म। फौज ने रास्ते में मार्च से जुलाई तक राजस्थान में रणथंभौर को लूटा। हिंदुओं का कत्ल। यहां भी राजपूत औरतों ने जौहर किया। गुजरात में सोमनाथ का मंदिर तोड़ा गया।
-28 जनवरी 1303: चित्तौड़ पर हमले का फैसला। इसी साल अगस्त में हमला। 30 हजार हिंदुओं का कत्ल। चित्तौड़ का नाम अपने बेटे खिज्र खां के नाम पर खिज्राबाद किया। खिज्र खां की ताजपोशी।
-23 नवंबर 1305: पूरा मालवा और मांडू रौंद डाला।
-24 मार्च 1307: एक बार फिर देवगिरी पर हमला।
-3 जुलाई 1308: सिवाना को घेरकर फतह।
-31 अक्टूबर 1309: तेलंगाना के लिए कूच। इस एक ही बार के अभियान के बाद खिलजी की फौजें 23 जून 1310 को लूट के बेहिसाब माल के साथ दिल्ली लौटीं।
-18 नवंबर 1310: माबर के लिए कूच। यह दक्षिण भारत का जबर्दस्त अभियान था। अमीर खुसरो ने इसे दिल्ली से एक साल की दूरी पर बताया है। पहली बार इन इलाकों में कोई मुस्लिम हमलावर गया। इसी धावे में फरवरी 1311 देवगिरी भी पहुंचा। अक्टूबर 1311 में फौजें कई रियासतों को रौंदते हुए दिल्ली लौटीं।
-4 जनवरी 1316 :अलाउद्दीन खिलजी की मौत।
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ये सारे विवरण खिलजी के समय के लेखकों के दस्तावेजों में हैं। इनमें जियाउद्दीन बरनी, अमीर खुसरो और उनके बाद के फरिश्ता के नाम उल्लेखनीय हैं।

शुक्रवार, अक्टूबर 13, 2017

प्रदूषण तो सिर्फ बहाना है, हिन्दू निशाना है

Pawan Tripathi
हिंदुओं से चिढ़ने के पीछे का रहस्य
पटाखों के पीछे की गहरी साजिश करने वालो को देखेंगे तो साफ़-साफ़ दिखेगा प्रदूषण तो सिर्फ बहाना है, हिन्दू निशाना है।प्रदूषण दूर करना होता तो साल भर के लिए पटाखों पर बैन लगता न की सिर्फ दीपावली के लिए।डीजल गाड़ियों,और ओखला में चल रहे छोटे कारखानों पर बैन लगता,बकरीद पर बैन लगता न की दिवाली पर।हिन्दुओ को चिढ़ाने की योजना काफी दिनों से बन रही थी। आपको इतना तो पता है की सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में पटाखों पर बैन लगाया है पर हिन्दू त्यौहार दीपावली पर पटाखों को बैन करवाने के पीछे कांग्रेस लॉबी है यह नही पता होगा ? किन लोगों ने बैन लगवाया ?गहराई से इसका विश्लेषण करिये कुछ चौकाने वाले नाम सामने आयेंगें।
अर्जुन गोयल -उम्र - याचिका के समय 6 माह 12 दिन,आरव भंडारी- उम्र - याचिका के समय 6 माह 21 दिन,ज़ोया राव भसीन -उम्र-याचिका के समय -14 माह 5 दिन।याचिका प्रकार - जनहित याचिका आर्टिकल 21 के तहत - आर्टिकल 21 के तहत सांस लेने के लिए साफ़-सुथरे वातावरण को अपना अधिकार बताया है।सुप्रीम कोर्ट ने बच्चों को आवाज़ उठाने का हक़ दे रखा है.। ऐसे मामलों में बच्चों के मां-बाप पेटिशन दायर कर सकते हैं. संविधान में आर्टिकल 21 के तहत लोगों को जिंदगी जीने और उनकी पसंद के खान-पान का अधिकार है।मैं किसी राजनीती का समर्थन नही करता लेकिन कोई चाहे तो इन याचिकाकर्ताओ के माता पिता के किसी पार्टी से संलिप्तता देखकर मुद्दा बना सकता है।
जस्टिस एके सिकरी - दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोडक्ट् है ।1977 से 1998 तक दिल्ली कोर्ट में वकील 1999 में जज बनाये गए ।महामहिम प्रणव मुखर्जी जी द्वारा appoint किये गए है ।।
जस्टिस अभय मनोहर सपरे - साहब जबलपुर से है माननीय प्रणव मुखर्जी द्वारा सीधे जज बनाये गए है दवाब किसका आप समझ सकते है ।जस्टिस अशोक भूषण - साहब सीधे माननीय प्रणव मुखर्जी द्वारा जज बनाये गए है इनको मंजुला चेल्लूर (Manjula Chellur) ने suggest किया था जो खुद प्रणव दा द्वारा appoint है।जस्टिस एके सिकरी पे RTI के तहत खुलासा हुआ है की साहब को सरकारी खर्च पे घूमना बहोत पसंद है अब तक परिवार के साथ सरकारी खर्च पे लंदन और दुबई (संयुक्त अरब अमीरात), सिंगापुर (दो बार), हांगकांग, ब्रुसेल्स , हांगकांग और बीजिंग, मकाओ (चीन) , एम्सटर्डम, हेग (नीदरलैंड्स) घूम चुके है सालाना एयर टिकट 37लाख से ऊपर का है।
अर्जुन गोपाल, आरव भंडारी साथ ही ज़ोया राव इसमें से 2 की उम्र 6 महीने थी, और 1 की उम्र 14 महीने थी, यानि ये तो दुधमुहे बच्चे थे।इनको क्या पता सुप्रीम कोर्ट क्या होता है, याचिका क्या होती है।नवजात दुधमुहे बच्चों के कंधे पर बन्दुक किसी और ने ही चलाया है जिन लोगों ने इन बच्चों के नाम पर दीपावली पर पटाखों के खलाफ याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगाई उनके नाम है।एडवोकेट गोपाल शंकरनारायण, सौरभ भसीन और एडवोकेट अमित भंडारी।इसने से अमित भंडारी कांग्रेस के नेता और सुप्रीम कोर्ट के वकील अभिषेक मनु सिंघवी के साथ काम करता है। ये वही अभिषेक मनु सिंघवी है जो लोगों को जज बनवाता थे, और महिला के साथ भी अश्लील हरकत करता पकड़ा गये थे(मूल कांग्रेसी चरित्र)। न जाने कितने लोगों को जज बनवाया होगा।तो कुल मिलाकर बच्चों के कंधे पर बन्दुक रखकर जिन वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में दीपावली पर पटाखों के खिलाफ याचिका डाली,आपको नही लगता ये कनेक्शन कांग्रेस पार्टी तक पहुँचता है?
कांग्रेस पार्टी से जुड़े वकील ट्रिपल तलाक के समर्थन में केस लड़ते है।अयोध्या जी में श्री राम मंदिर के खिलाफ भी कांग्रेस का नेता और वकील कपिल सिब्बल ही लड़ रहा है।दीपावली पर पटाखों पर बैन का कनेक्शन भी इसी पार्टी से जुड़ता है।कांग्रेस और उसके नेता हिन्दू समाज के प्रति किस प्रकार का सोच रखते है ये पूरी दुनिया जानती है कांग्रेस के एक ऐसे ही नेता है जो की केरल से आते है। केरल वही राज्य जहाँ कांग्रेस ने गाय को सड़क पर काटा था।कांग्रेस नेता शशि थरूर बहुत खुश है।सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में सिर्फ दीपावली के मौके पर पटाखों पर बैन लगाया है।जिसके बाद तमाम सेक्युलरो की तरह शशि थरूर भी बेहद खुश है।उन्होंने कई ट्वीट किये और सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ख़ुशी जताई। पर कुछ लोगों ने शशि थरूर को ट्विटर पर सवाल करने शुरू कर दिए। बहस शुरू हो गयी। लोगों का कहना था की आप दीपावली के पटाखों पर बैन चाहते हो, कभी मुहर्रम के खून पर भी बैन की बात करो, बकरीद पर जानवरो के कत्लेआम के खिलाफ भी बात करो।
फिर क्या था, खुद के दोगलेपन की पोल खुलने पर शशि थरूर भड़क गए और उन्होंने ये ट्वीट किया।
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Shashi Tharoor @ShashiTharoor
Bakr-Id sacrifices hurt only goats; Muharram mourners flagellate themselves, but Diwali firecrackers affect celebrants&non-revellers alike.
1:45 AM - Oct 11, 2017
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शशि थरूर ने मुहर्रम और बकरीद को दीपावली से बेहतर बताते हुए लिखा है कि
* बकरीद पर तो सिर्फ बकरियों पर असर होता है, उनको काटा जाता है उसका असर किसी और पर नहीं होता?
* मुहर्रम में तो दुःख मनाया जाता है, उसका भी किसी दूसरे पर असर नहीं होता?
* पर दीपवाली के पटाखों से तो दूसरों पर भी असर होता है जो दीपावली नहीं मनाते।
शशि थरूर बताने की कोशिश कर रहे है की, बकरीद पर जानवरों का कत्लेआम जायज है, उसका विरोध नहीं हो सकता, वहीँ मुहर्रम में तो दुःख मनाया जाता है उसका भी विरोध नहीं हो सकता विरोध दीपवाली के पटाखों का होगा क्यूंकि वो दूसरों पर असर करता है।
यहाँ आपको बता दें की, बकरीद पर जानवरों के क़त्ल से परजीवी फैलते है, कैंसर तक की बीमारियां दूसरों को होती है, साथ ही पानी की बर्बादी, और जमीन के जरिये भूतल जल में खून का मिलना। बकरीद एक बेहद प्रदुषण फैलाने वाला इस्लामी त्यौहार है, पर शशि थरूर जो खुद को पढ़ा लिखा बताते है, वो इसपर नहीं बोलना चाहते वहीँ दही हांड़ी में हिन्दू बच्चे ऊपर चढ़े उनके पैर टूटे उस से दूसरों पर क्या असर पड़ता है ?फिर भी कोर्ट और सेक्युलर तत्व दही हांड़ी को खतरनाक बताकर उसपर नियम थोपते ही है, जबकि मुहर्रम में बच्चों का खून बहाया जाता है, उसपर ये सेक्युलर चुप कैसे रहते है और जब कोई इनसे सवाल पूछे तो ये भड़क जाते है, मुहर्रम, बकरीद को दीपावली से बेहतर बताने लगते है।
कांग्रेस देश का बंटवारा करवाती है, कांग्रेस दो करोड़ हिंदुओं को उजाड़ देती है, कांग्रेस इस देश के बटवारे के बावजूद भी मुस्लिमो को रोक लेती है, कांग्रेस भारत में छद्म सेकुलरिज्म के नाम पर हिंदू-विरोध का बढ़ावा देती है, कांग्रेस संविधान में 'धर्मनिरपेक्षता वादी समाजवादी गणराज्य जुड़वा कर एकतरफा-पक्षपाती बर्ताव करती है,कांग्रेस इस देश मे समानता-वादी संविधान(कॉमन सिविल कोड) नही बनने देती,कांग्रेस गोहत्या करवाती है,कांग्रेस इस देश में हिंदुओं के दमन का हर तरीका ढूंढती है,कांग्रेस हिंदुओं के मंदिरों को बनवाने से रोकने के लिए कानून पेश करती है,कांग्रेस हिंदुओं में जातिय-बंटवारा करवाने के लिए तमाम तरह के संविधान बनवाती है, कांग्रेस तमाम तरह के आरक्षण से हिंदू समाज का बंटवारा करती है,कांग्रेस दूसरे मजहबो को विशेष-अधिकार वाले राज्य बनाकर प्रादेशिक बंटवारा करवाती है, कांग्रेस धर्मांतरण पर कानून नहीं बनने देती,धर्मांतरण को बढ़ावा देती है।कांग्रेस हिंदू समाज को घटाने और क्षति पहुंचाने के लिए हर उपाय खोजती/बनाती है,कांग्रेस हिंदुओं में दखलअंदाजी का तरीका अपनाती है,कांग्रेस कभी हलाला,मुताही,तीन तलाक, चार विवाह,जैसे मुद्दों को टच नहीं करने देती,कांग्रेस ऐसी मीडिया नीति को बढ़ावा देती है जो हिंदुओं को नीचा दिखाते हैं,कांग्रेस विदेशों में स्थापित कैथोलिक जनों को भारत में स्थापित करने के लिए एक बड़ी पॉलिसी अपनाती है,काश्मीर को 370 देकर पंडितों को खदेड़े जाने को समर्थन देती है,एक मजहब की जनसंख्या बढ़ाने को सब्सिडी देती है,बांग्ला घुसपैठियो का बढावा देती है,मीडिया,फ़िल्म,लेखन,शिक्षा के मॉध्यम से हिंदू-संस्कृति के दमन को बढ़ावा देती है, आखिर माजरा क्या है? ऐसा नहीं लगता कि कांग्रेस ने अपने सत्तर वर्षो के शासन में एक रणनीति के तहत भारत में हिंदुओं को कमजोर करके समाप्त करने की साजिश चली थी? ऐसा नहीं लगता कांग्रेस एक विदेशी कंपनी है जो धीरे-धीरे धीरे-धीरे अंग्रेजो को छुटा कार्य कर रही है।विशेषकर वह जो 600 साल में मुसलमान और 200 साल में अंग्रेज नहीं कर पाए।ऐसा नहीं लगता कांग्रेस ईसाईयों की रणनीति को भारत में बढ़ावा दे रही है? आखिर ऐसे-कैसे हो सकता है कि 2004 से 2014 तक के कांग्रेसी मंत्रिमंडल में 67 प्रतिशत कांग्रेस नेता या तो क्रिश्चियन हैं या तो उनकी पत्नियां कैथलिक है।उनमें से मैक्सिमम चर्चो से जुड़े रहे हैं।अधिकतर क्रिप्टो-क्रिश्चियन है।यानी हिंदू नाम के सहारे हिंदूओ को नष्ट करने में लगे ईसाई।वे हिन्दुओ समाप्त करने का काम क्यों करते रहे यह बहुत गहरा रहस्य और जांच का विषय है।
सोनिया गांधी,प्रियंका बढेरा,रॉबर्ट बढेरा,कैथोलिक क्रिश्चियन हैं।वी-जार्ज,एके एंथोनी,आस्कर फर्नांडीज,अजित जोगी,आंध्र के पूर्व मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी,सभी ईसाई हैं।मनीष तिवारी की पत्नी क्रिस्चियन,आनन्द शर्मा की पत्नी,सतीश शर्मा की पत्नी,माखन लाल फोतेदार की पत्नी,एनकेपी साल्वे की पत्नी ईसाई है।ऐसा सम्भव नही है कि इतनी पुरानी सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी का पूरा नेतृत्त्व सहजता से ईसाई हो गया होगा।उसके पीछे पूरी योजना और रणनीति बनाई गई होगी।तब जाकर पूर्णतः कब्जा हुआ होगा।स्वाभाविक है मुस्लिम पिता और कैथोलिक माँ से पैदा हुए राहुल गांधी क्रिप्टो-इस्लामिज्म में जकड़े है।जिनको मन ही हिन्दुओ को खत्म करने का संस्कार सहजता से मिला है।काँग्रेसियो में उपजा छद्म सेकुलरिज्म मतलब हिंदू-विरोध का मूल कारण यही है।

गुरुवार, अक्टूबर 12, 2017

नमाज ★ गुप्त सलाम?

नमाज के बाद हमेशा एक खास गुप्त दुआ / सलाम पढ़ी जाती है । इस दुआ / सलाम को इस्लाम के अलग-अलग फिरकों में पढ़ने के अपने-अपने तरीके हैं, कोई तेज आवाज मे पढ़ता है, कोई धीमे स्वर मे, पर पढ़ते सभी हैं ।
जिस तरह मंदिर मे हवन-पुजा या आरती के बाद पंडित जी एक दुआ करते हैं, जो आपने अक्सर सुना होगा "धर्म की -- जय हो, अधर्म का -- नाश हो, प्राणियों मे -- सद्भावना हो, विश्व का -- कल्याण हो" । मानवता-धर्म और सत्य की विजय की कामना के साथ समस्त प्राणियों और विश्व के कल्याण के लिए भगवान से दुआ मांगी जाती है ।
ठीक वैसे ही नमाज के बाद या साथ ही नमाज़ी एक खास "दुआ / सलाम" पढ़ते हैं । इस दुआ मे कुरान की खास 3 आयतें शामिल की गयी है । एक मौलाना-मौलवी इन आयतों के छोटे से खास हिस्से को अरबी मे पढ़ता है और बाँकी नमाज़ी "आमीन" आमीन" बोला करते हैं । यहाँ आप हिन्दू-बौद्ध-सिख भाइयों के लिए यह जानना बहुत जरूरी है की नमाज के ठीक बाद या साथ पढ़ी जाने वाली "दुआ / सलाम" आखिर क्या है ? किस चीज की दुआ माँगते हैं मुसलमान और इन दुआओं मे आप गैर-मुसलमानों के खिलाफ अल्लाह से क्या मिन्नतें करते हैं ये ? देखिये :-
1) “हमें काफ़िरों के मुक़ाबिले में नुसरत अता फ़रमा।” कुरान सूरा 2 आयत 250
2) या अल्लाह, काफ़िरों को शिकस्त देने में हमारी मदद फ़रमा।” कुरान सूरा 2 आयत 286
3) “ या खुदा हमारे पापों को माफ कर, हमारी कदमों मे मजबूती दे, काफ़िरों के मुक़ाबिले हमारी फतह कर । “ कुरान सूरा 3 आयत 147
हम पर सलाम हो और अल्लाह के तमाम नेक बंदों पर सलाम हो । आमीन
यह और ऐसी कुरानी दुआएं नमाज के साथ और बाद में की जाती हैं ,इन से मुसलमानों के बुरी नियत और गंदी सोच का पता चलता है । कितनी नफरत भरी है इनके दिमाग मे की ईश्वर की प्रार्थना के वक्त भी गैर-मुसलमानों के लिए शिकस्त और बरबादी की दुआ मांगते हैं । :- # DrAlam
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पिछले दिनों आगरा के दबकय्यान स्थित मस्जिद मे सलाम पढ़ने के तरीके को लेकर नमाज के बाद बरेलवी और देवबंदी मुसलमान भिड़ गए । एक पक्ष कह रहा था सलाम धीमे स्वर मे पढ्न चाहिए, दूसरा ऊंचे स्वर का पक्षधर थे , इतनी सी बात मे दो फिरके खून-खराबा पर आमदा हो गए । थाना-पुलिस के दखल के बाद पत्थरबाजी बंद हुई । देखिये जाहिलों की हरकत की न्यूज़ :- http://
www.kohraam.com/state-news/devbandi-and-barelvi-clash-over-salam-64775.html
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ऐसी गंदी सोच और नफरत पालने वाली कौम को आखिर कब तक दुनिया बर्दाश्त करेगी ? आखिर कब तक मुसलमान बेगुनाहों से कुरान की आयतें पुछ कत्ल करेंगे ? एक दिन ऐसा जरूर आयेगा जब दुनिया भर के लोग तुम्हारी लुल्ली चेक कर तुम्हें कत्ल करेंगे -- शुरुआत दुनिया की सबसे शांतिप्रिय-दयालु धर्म के लोगों ने की है -- धीरे-धीरे यह आग इस पैशाचिक-राक्षसी मजहब को निगल जाएगी - आमीन

अकबरनामा

Jitendra Pratap Singh
अकबर के समय के इतिहास लेखक अहमद यादगार ने लिखा-
“बैरम खाँ ने निहत्थे और बुरी तरह घायल हिन्दू राजा हेमू के हाथ पैर बाँध दिये और उसे नौजवान शहजादे के पास ले गया और बोला, आप अपने पवित्र हाथों से इस काफिर का कत्ल कर दें और”गाज़ी”की उपाधि कुबूल करें, और शहजादे ने उसका सिर उसके अपवित्र धड़ से अलग कर दिया।” (नवम्बर, 5 AD1556)
(तारीख-ई-अफगान,अहमद यादगार,अनुवाद एलियट और डाउसन, खण्ड VI, पृष्ठ 65-66)
इस तरह अकबर ने १४ साल की आयु में ही गाज़ी (काफिरों का कातिल) होने का सम्मान पाया।
इसके बाद हेमू के कटे सिर को काबुल भिजवा दिया और धड़ को दिल्ली के दरवाजे पर टांग दिया।
अबुल फजल ने आगे लिखा – ”हेमू के पिता को जीवित ले आया गया और नासिर-उल-मलिक के सामने पेश किया गया जिसने उसे इस्लाम कबूल करने का आदेश दिया, किन्तु उस वृद्ध पुरुष ने उत्तर दिया, ”मैंने अस्सी वर्ष तक अपने ईश्वर की पूजा की है; मै अपने धर्म को कैसे त्याग सकता हूँ?
मौलाना परी मोहम्मद ने उसके उत्तर को अनसुना कर अपनी तलवार से उसका सर काट दिया।”
(अकबर नामा, अबुल फजल : एलियट और डाउसन, पृष्ठ २१)
इस विजय के तुरन्त बाद अकबर ने काफिरों के कटे हुए सिरों से एक ऊँची मीनार बनवायी।
२ सितम्बर 1573 को भी अकबर ने अहमदाबाद में २००० दुश्मनों के सिर काटकर अब तक की सबसे ऊँची सिरों की मीनार बनवायी और अपने दादा बाबर का रिकार्ड तोड़ दिया। यानी घर का रिकार्ड घर में ही रहा।
अकबरनामा के अनुसार ३ मार्च 1575 को अकबर ने बंगाल विजय के दौरान इतने सैनिकों और नागरिकों की हत्या करवायी कि उससे कटे सिरों की आठ मीनारें बनायी गयीं। यह फिर से एक नया रिकार्ड था। जब वहाँ के हारे हुए शासक दाउद खान ने मरते समय पानी माँगा तो उसे जूतों में भरकर पानी पीने के लिए दिया गया।
अकबर की चित्तौड़ विजय के विषय में अबुल फजल ने
लिखा था- ”अकबर के आदेशानुसार प्रथम ८०००
राजपूत योद्धाओं को बंदी बना लिया गया, और बाद में उनका वध कर दिया गया। उनके साथ-साथ विजय के बाद प्रात:काल से दोपहर तक अन्य ४०००० किसानों का भी वध कर दिया गया जिनमें ३००० बच्चे और बूढ़े थे।”
(अकबरनामा, अबुल फजल, अनुवाद एच. बैबरिज)
चित्तौड़ की पराजय के बाद महारानी जयमाल मेतावाड़िया समेत १२००० क्षत्राणियों ने मुगलों के हरम में जाने की अपेक्षा जौहर की अग्नि में स्वयं को जलाकर भस्म कर लिया। जरा कल्पना कीजिए विशाल गड्ढों में धधकती आग और दिल दहला देने वाली चीखों-पुकार के बीच उसमें कूदती १२००० महिलाएँ ।
अपने हरम को सम्पन्न करने के लिए अकबर ने अनेकों हिन्दू राजकुमारियों के साथ जबरनठ शादियाँ की थी परन्तु कभी भी, किसी मुगल महिला को हिन्दू से शादी नहीं करने दी। केवल अकबर के शासनकाल में 38 राजपूत राजकुमारियाँ शाही खानदान में ब्याही जा चुकी थीं। १२ अकबर को, १७ शाहजादा सलीम को, छः दानियाल को, २ मुराद को और १ सलीम के पुत्र खुसरो को।
अकबर की गंदी नजर गौंडवाना की विधवा रानी दुर्गावती पर थी
”सन् १५६४ में अकबर ने अपनी हवस की शांति के लिए रानी दुर्गावती पर आक्रमण कर दिया किन्तु एक वीरतापूर्ण संघर्ष के बाद अपनी हार निश्चित देखकर रानी ने अपनी ही छाती में छुरा घोंपकर आत्म हत्या कर ली। किन्तु उसकी बहिन और पुत्रवधू को को बन्दी बना लिया गया। और अकबर ने उसे अपने हरम में ले लिया। उस समय अकबर की उम्र २२ वर्ष और रानी दुर्गावती की ४० वर्ष थी।”
(आर. सी. मजूमदार, दी मुगल ऐम्पायर, खण्ड VII)
सन् 1561 में आमेर के राजा भारमल और उनके ३ राजकुमारों को यातना दे कर उनकी पुत्री को साम्बर से अपहरण कर अपने हरम में आने को मज़बूर किया।
औरतों का झूठा सम्मान करने वाले अकबर ने सिर्फ अपनी हवस मिटाने के लिए न जाने कितनी मुस्लिम औरतों की भी अस्मत लूटी थी। इसमें मुस्लिम नारी चाँद बीबी का नाम भी है।
अकबर ने अपनी सगी बेटी आराम बेगम की पूरी जिंदगी शादी नहीं की और अंत में उस की मौत अविवाहित ही जहाँगीर के शासन काल में हुई।
सबसे मनगढ़ंत किस्सा कि अकबर ने दया करके सतीप्रथा पर रोक लगाई; जबकि इसके पीछे उसका मुख्य मकसद केवल यही था की राजवंशीय हिन्दू नारियों के पतियों को मरवाकर एवं उनको सती होने से रोककर अपने हरम में डालकर एेय्याशी करना।
राजकुमार जयमल की हत्या के पश्चात अपनी अस्मत बचाने को घोड़े पर सवार होकर सती होने जा रही उसकी पत्नी को अकबर ने रास्ते में ही पकड़ लिया।
शमशान घाट जा रहे उसके सारे सम्बन्धियों को वहीं से कारागार में सड़ने के लिए भेज दिया और राजकुमारी को अपने हरम में ठूंस दिया ।
इसी तरह पन्ना के राजकुमार को मारकर उसकी विधवा पत्नी का अपहरण कर अकबर ने अपने हरम में ले लिया।
अकबर औरतों के लिबास में मीना बाज़ार जाता था जो हर नये साल की पहली शाम को लगता था। अकबर अपने दरबारियों को अपनी स्त्रियों को वहाँ सज-धज कर भेजने का आदेश देता था। मीना बाज़ार में जो औरत अकबर को पसंद आ जाती, उसके महान फौजी उस औरत को उठा ले जाते और कामी अकबर की अय्याशी के लिए हरम में पटक देते। अकबर महान उन्हें एक रात से लेकर एक महीने तक अपनी हरम में खिदमत का मौका देते थे। जब शाही दस्ते शहर से बाहर जाते थे तो अकबर के हरम
की औरतें जानवरों की तरह महल में बंद कर दी जाती थीं।
अकबर ने अपनी अय्याशी के लिए इस्लाम का भी दुरुपयोग किया था। चूँकि सुन्नी फिरके के अनुसार एक मुस्लिम एक साथ चार से अधिक औरतें नहीं रख सकता और जब अकबर उस से अधिक औरतें रखने लगा तो काजी ने उसे रोकने की कोशिश की। इस से नाराज होकर अकबर ने उस सुन्नी काजी को हटा कर शिया काजी को रख लिया क्योंकि शिया फिरके में असीमित और अस्थायी शादियों की इजाजत है , ऐसी शादियों को अरबी में “मुतअ” कहा जाता है।
अबुल फज़ल ने अकबर के हरम को इस तरह वर्णित किया है-
“अकबर के हरम में पांच हजार औरतें थीं और ये पांच हजार औरतें उसकी ३६ पत्नियों से अलग थीं। शहंशाह के महल के पास ही एक शराबखाना बनाया गया था। वहाँ इतनी वेश्याएं इकट्ठी हो गयीं कि उनकी गिनती करनी भी मुश्किल हो गयी। अगर कोई दरबारी किसी नयी लड़की को घर ले जाना चाहे तो उसको अकबर से आज्ञा लेनी पड़ती थी। कई बार सुन्दर लड़कियों को ले जाने के लिए लोगों में झगड़ा भी हो जाता था। एक बार अकबर ने खुद कुछ वेश्याओं को बुलाया और उनसे पूछा कि उनसे सबसे पहले भोग किसने किया”।
बैरम खान जो अकबर के पिता जैसा और संरक्षक था,
उसकी हत्या करके इसने उसकी पत्नी अर्थात अपनी माता के समान स्त्री से शादी की ।
इस्लामिक शरीयत के अनुसार किसी भी मुस्लिम राज्य में रहने वाले गैर मुस्लिमों को अपनी संपत्ति और स्त्रियों को छिनने से बचाने के लिए इसकी कीमत देनी पड़ती थी जिसे जजिया कहते थे। कुछ अकबर प्रेमी कहते हैं कि अकबर ने जजिया खत्म कर दिया था। लेकिन इस बात का इतिहास में एक जगह भी उल्लेख नहीं! केवल इतना है कि यह जजिया रणथम्भौर के लिए माफ करने की शर्त रखी गयी थी।
रणथम्भौर की सन्धि में बूंदी के सरदार को शाही हरम में औरतें भेजने की “रीति” से मुक्ति देने की बात लिखी गई थी। जिससे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि अकबर ने युद्ध में हारे हुए हिन्दू सरदारों के परिवार की सर्वाधिक सुन्दर महिला को मांग लेने की एक परिपाटी बना रखी थीं और केवल बूंदी ही इस क्रूर रीति से बच पाया था।
यही कारण था की इन मुस्लिम सुल्तानों के काल में हिन्दू स्त्रियों के जौहर की आग में जलने की हजारों घटनाएँ हुईं
जवाहर लाल नेहरु ने अपनी पुस्तक ”डिस्कवरी ऑफ इण्डिया” में अकबर को ‘महान’ कहकर उसकी प्रशंसा की है। हमारे कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने भी अकबर को एक परोपकारी उदार, दयालु और धर्मनिरपेक्ष शासक बताया है।
अकबर के दादा बाबर का वंश तैमूरलंग से था और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर की नसों में एशिया की दो प्रसिद्ध आतंकी और खूनी जातियों, तुर्क और मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था। जिसके खानदान के सारे पूर्वज दुनिया के सबसे बड़े जल्लाद थे और अकबर के बाद भी जहाँगीर और औरंगजेब दुनिया के सबसे बड़े दरिन्दे थे तो ये बीच में महानता की पैदाईश कैसे हो गयी।
अकबर के जीवन पर शोध करने वाले इतिहासकार विंसेट स्मिथ ने साफ़ लिखा है की अकबर एक दुष्कर्मी, घृणित एवं नृशंश हत्याकांड करने वाला क्रूर शाशक था।
विन्सेंट स्मिथ ने किताब ही यहाँ से शुरू की है कि “अकबर भारत में एक विदेशी था. उसकी नसों में एक बूँद खून भी भारतीय नहीं था । अकबर मुग़ल से ज्यादा एक तुर्क था”।
चित्तौड़ की विजय के बाद अकबर ने कुछ फतहनामें प्रसारित करवाये थे। जिससे हिन्दुओं के प्रति उसकी गहन आन्तरिक घृणा प्रकाशित हो गई थी।
उनमें से एक फतहनामा पढ़िये-
”अल्लाह की खयाति बढ़े इसके लिए हमारे कर्तव्य परायण मुजाहिदीनों ने अपवित्र काफिरों को अपनी बिजली की तरह चमकीली कड़कड़ाती तलवारों द्वारा वध कर दिया। ”हमने अपना बहुमूल्य समय और अपनी शक्ति घिज़ा (जिहाद) में ही लगा दिया है और अल्लाह के सहयोग से काफिरों के अधीन बस्तियों, किलों, शहरों को विजय कर अपने अधीन कर लिया है, कृपालु अल्लाह उन्हें त्याग दे और उन सभी का विनाश कर दे। हमने पूजा स्थलों उसकी मूर्तियों को और काफिरों के अन्य स्थानों का विध्वंस कर दिया है।”
(फतहनामा-ई-चित्तौड़ मार्च १५८६,नई दिल्ली)
महाराणा प्रताप के विरुद्ध अकबर के अभियानों के लिए
सबसे बड़ा प्रेरक तत्व था इस्लामी जिहाद की भावना जो उसके अन्दर कूट-कूटकर भरी हुई थी।
अकबर के एक दरबारी इमाम अब्दुल कादिर बदाउनी ने अपने इतिहास अभिलेख, ‘मुन्तखाव-उत-तवारीख’ में लिखा था कि १५७६ में जब शाही फौजें राणाप्रताप के खिलाफ युद्ध के लिए अग्रसर हो रहीं थीं तो मैनें (बदाउनीने) ”युद्ध अभियान में शामिल होकर हिन्दुओं के रक्त से अपनी इस्लामी दाढ़ी को भिगोंकर शाहंशाह से भेंट की अनुमति के लिए प्रार्थना की।”मेरे व्यक्तित्व और जिहाद के प्रति मेरी निष्ठा भावना से अकबर इतना प्रसन्न हुआ कि उन्होनें प्रसन्न होकर मुझे मुठ्ठी भर सोने की मुहरें दे डालीं।” (मुन्तखाब-उत-तव
ारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी, खण्ड II, पृष्ठ ३८३,अनुवाद वी. स्मिथ, अकबर दी ग्रेट मुगल, पृष्ठ १०८)
बदाउनी ने हल्दी घाटी के युद्ध में एक मनोरंजक घटना के बारे में लिखा था-
”हल्दी घाटी में जब युद्ध चल रहा था और अकबर की सेना से जुड़े राजपूत, और राणा प्रताप की सेना के राजपूत जब परस्पर युद्धरत थे और उनमें कौन किस ओर है, भेद कर पाना असम्भव हो रहा था, तब मैनें शाही फौज के अपने सेना नायक से पूछा कि वह किस पर गोली चलाये ताकि शत्रु ही मरे।
तब कमाण्डर आसफ खाँ ने उत्तर दिया कि यह जरूरी नहीं कि गोली किसको लगती है क्योंकि दोनों ओर से युद्ध करने वाले काफिर हैं, गोली जिसे भी लगेगी काफिर ही मरेगा, जिससे लाभ इस्लाम को ही होगा।”
(मुन्तखान-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी,
खण्ड II,अनु अकबर दी ग्रेट मुगल : वी. स्मिथ पुनः मुद्रित १९६२; हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल, दी मुगल ऐम्पायर :आर. सी. मजूमदार, खण्ड VII, पृष्ठ १३२ तृतीय संस्करण)
जहाँगीर ने, अपनी जीवनी, ”तारीख-ई-सलीमशाही” में लिखा था कि ‘ ‘अकबर और जहाँगीर के शासन काल में पाँच से छः लाख की संख्या में हिन्दुओं का वध हुआ था।”
(तारीख-ई-सलीम शाही, अनु. प्राइस, पृष्ठ २२५-२६)
जून 1561- एटा जिले के (सकित परंगना) के 8 गावों की हिंदू जनता के विरुद्ध अकबर ने खुद एक आक्रमण का संचालन किया और परोख नाम के गाँव में मकानों में बंद करके १००० से ज़्यादा हिंदुओं को जिंदा जलवा दिया था।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनके इस्लाम कबूल ना करने के कारण ही अकबर ने क्रुद्ध होकर ऐसा किया।
थानेश्वर में दो संप्रदायों कुरु और पुरी के बीच पूजा की जगह को लेकर विवाद चल रहा था. अकबर ने आदेश
दिया कि दोनों आपस में लड़ें और जीतने वाला जगह पर कब्ज़ा कर ले। उन मूर्ख लोगों ने आपस में ही अस्त्र शस्त्रों से लड़ाई शुरू कर दी। जब पुरी पक्ष जीतने लगा तो अकबर ने अपने सैनिकों को कुरु पक्ष की तरफ से लड़ने का आदेश दिया. और अंत में इसने दोनों ही तरफ के लोगों को अपने सैनिकों से मरवा डाला और फिर अकबर महान जोर से हंसा।
एक बार अकबर शाम के समय जल्दी सोकर उठ गया तो उसने देखा कि एक नौकर उसके बिस्तर के पास सो रहा है। इससे उसको इतना गुस्सा आया कि नौकर को मीनार से नीचे फिंकवा दिया।
अगस्त १६०० में अकबर की सेना ने असीरगढ़ का किला घेर लिया पर मामला बराबरी का था।विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है कि अकबर ने एक अद्भुत तरीका सोचा। उसने किले के राजा मीरां बहादुर को संदेश भेजकर अपने सिर की कसम खाई कि उसे सुरक्षित वापस जाने देगा। जब मीरां शान्ति के नाम पर बाहर आया तो उसे अकबर के सामने सम्मान दिखाने के लिए तीन बार झुकने का आदेश दिया गया क्योंकि अकबर महान को यही पसंद था।
उसको अब पकड़ लिया गया और आज्ञा दी गयी कि अपने सेनापति को कहकर आत्मसमर्पण करवा दे। मीराँ के सेनापति ने इसे मानने से मना कर दिया और अपने लड़के को अकबर के पास यह पूछने भेजा कि उसने अपनी प्रतिज्ञा क्यों तोड़ी? अकबर ने उसके बच्चे से पूछा कि क्या तेरा पिता आत्मसमर्पण के लिए तैयार है? तब बालक ने कहा कि चाहे राजा को मार ही क्यों न डाला जाए उसका पिता समर्पण नहीं करेगा। यह सुनकर अकबर महान ने उस बालक को मार डालने का आदेश दिया। यह घटना अकबर की मृत्यु से पांच साल पहले की ही है।
हिन्दुस्तानी मुसलमानों को यह कह कर बेवकूफ बनाया जाता है कि अकबर ने इस्लाम की अच्छाइयों को पेश किया. असलियत यह है कि कुरआन के खिलाफ जाकर ३६ शादियाँ करना, शराब पीना, नशा करना, दूसरों से अपने आगे सजदा करवाना आदि इस्लाम के लिए हराम है और इसीलिए इसके नाम की मस्जिद भी हराम है।
अकबर स्वयं पैगम्बर बनना चाहता था इसलिए उसने अपना नया धर्म “दीन-ए-इलाही – ﺩﯾﻦ ﺍﻟﻬﯽ ” चलाया। जिसका एकमात्र उद्देश्य खुद की बड़ाई करवाना था। यहाँ तक कि मुसलमानों के कलमें में यह शब्द “अकबर खलीफतुल्लाह – ﺍﻛﺒﺮ ﺧﻠﻴﻔﺔ ﺍﻟﻠﻪ ” भी जुड़वा दिया था।
उसने लोगों को आदेश दिए कि आपस में अस्सलाम वालैकुम नहीं बल्कि “अल्लाह ओ अकबर” कहकर एक दूसरे का अभिवादन किया जाए। यही नहीं अकबर ने हिन्दुओं को गुमराह करने के लिए एक फर्जी उपनिषद् “अल्लोपनिषद” बनवाया था जिसमें अरबी और संस्कृत मिश्रित भाषा में मुहम्मद को अल्लाह का रसूल और अकबर को खलीफा बताया गया था। इस फर्जी उपनिषद् का उल्लेख महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में किया है।
उसके चाटुकारों ने इस धूर्तता को भी उसकी उदारता की तरह पेश किया। जबकि वास्तविकता ये है कि उस धर्म को मानने वाले अकबरनामा में लिखित कुल १८ लोगों में से केवल एक हिन्दू बीरबल था।
अकबर ने अपने को रूहानी ताकतों से भरपूर साबित करने के लिए कितने ही झूठ बोले। जैसे कि उसके पैरों की धुलाई करने से निकले गंदे पानी में अद्भुत ताकत है जो रोगों का इलाज कर सकता है। अकबर के पैरों का पानी लेने के लिए लोगों की भीड़ लगवाई जाती थी। उसके दरबारियों को तो इसलिए अकबर के नापाक पैर का चरणामृत पीना पड़ता था ताकि वह नाराज न हो जाए।
अकबर ने एक आदमी को केवल इसी काम पर रखा था कि वह उनको जहर दे सके जो लोग उसे पसंद नहीं।
अकबर महान ने न केवल कम भरोसेमंद लोगों का कतल
कराया बल्कि उनका भी कराया जो उसके भरोसे के आदमी थे जैसे- बैरम खान (अकबर का गुरु जिसे मारकर अकबर ने उसकी बीवी से निकाह कर लिया), जमन, असफ खान (इसका वित्त मंत्री), शाह मंसूर, मानसिंह, कामरान का बेटा, शेख अब्दुरनबी, मुइजुल मुल्क, हाजी इब्राहिम और बाकी सब जो इसे नापसंद थे। पूरी सूची स्मिथ की किताब में दी हुई है।
अकबर के चाटुकारों ने राजा विक्रमादित्य के दरबार की कहानियों के आधार पर उसके दरबार और नौ रत्नों की कहानी गढ़ी। पर असलियत यह है कि अकबर अपने
सब दरबारियों को मूर्ख समझता था। उसने स्वयं कहा था कि वह अल्लाह का शुक्रगुजार है कि उसको योग्य दरबारी नहीं मिले वरना लोग सोचते कि अकबर का राज उसके दरबारी चलाते हैं वह खुद नहीं।
अकबरनामा के एक उल्लेख से स्पष्ट हो जाता है कि उसके हिन्दू दरबारियों का प्रायः अपमान हुआ करता था। ग्वालियर में जन्में संगीत सम्राट रामतनु पाण्डेय उर्फ तानसेन की तारीफ करते-करते मुस्लिम दरबारी उसके मुँह में चबाया हुआ पान ठूँस देते थे। भगवन्त दास और दसवंत ने सम्भवत: इसी लिए आत्महत्या कर ली थी।
प्रसिद्ध नवरत्न टोडरमल अकबर की लूट का हिसाब करता था। इसका काम था जजिया न देने वालों की औरतों को हरम का रास्ता दिखाना। वफादार होने के बावजूद अकबर ने एक दिन क्रुद्ध होकर उसकी पूजा की मूर्तियाँ तुड़वा दी।
जिन्दगी भर अकबर की गुलामी करने के बाद टोडरमल ने अपने जीवन के आखिरी समय में अपनी गलती मान कर दरबार से इस्तीफा दे दिया और अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए प्राण त्यागने की इच्छा से वाराणसी होते हुए हरिद्वार चला गया और वहीं मरा।
लेखक और नवरत्न अबुल फजल को स्मिथ ने अकबर का अव्वल दर्जे का निर्लज्ज चाटुकार बताया। बाद में जहाँगीर ने इसे मार डाला।
फैजी नामक रत्न असल में एक साधारण सा कवि था जिसकी कलम अपने शहंशाह को प्रसन्न करने के लिए ही चलती थी।
बीरबल शर्मनाक तरीके से एक लड़ाई में मारा गया। बीरबल अकबर के किस्से असल में मन बहलाव की बातें हैं जिनका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं। ध्यान रहे
कि ऐसी कहानियाँ दक्षिण भारत में तेनालीराम के नाम से
भी प्रचलित हैं।
एक और रत्न शाह मंसूर दूसरे रत्न अबुल फजल के हाथों अकबर के आदेश पर मार डाला गया ।
मान सिंह जो देश में पैदा हुआ सबसे नीच गद्दार था, ने अपनी बेटी तो अकबर को दी ही जागीर के लालच में कई और राजपूत राजकुमारियों को तुर्क हरम में पहुँचाया। बाद में जहांगीर ने इसी मान सिंह की पोती को भी अपने हरम में खींच लिया।
मानसिंह ने पूरे राजपूताने के गौरव को कलंकित किया था। यहाँ तक कि उसे अपना आवास आगरा में बनाना पड़ा क्योंकि वो राजस्थान में मुँह दिखाने के लायक नहीं था। यही मानसिंह जब संत तुलसीदास से मिलने गया तो अकबर ने इस पर गद्दारी का संदेह कर दूध में जहर देकर मरवा डाला और इसके पिता भगवान दास ने लज्जित होकर आत्महत्या कर ली।
इन नवरत्नों को अपनी बीवियां, लडकियां, बहनें तो अकबर की खिदमत में भेजनी पड़ती ही थीं ताकि बादशाह सलामत उनको भी सलामत रखें, और साथ ही अकबर महान के पैरों पर डाला गया पानी भी इनको पीना पड़ता था जैसा कि ऊपर बताया गया है। अकबर शराब और अफीम का इतना शौक़ीन था, कि अधिकतर समय नशे में धुत रहता था।
अकबर के दो बच्चे नशाखोरी की आदत के चलते अल्लाह को प्यारे हो गये।
हमारे फिल्मकार अकबर को सुन्दर और रोबीला दिखाने के लिए रितिक रोशन जैसे अभिनेताओं को फिल्मों में पेश करते हैं परन्तु विन्सेंट स्मिथ अकबर के बारे में लिखते हैं-
“अकबर एक औसत दर्जे की लम्बाई का था। उसके बाएं पैर में लंगड़ापन था। उसका सिर अपने दायें कंधे की तरफ झुका रहता था। उसकी नाक छोटी थी जिसकी हड्डी बाहर को निकली हुई थी। उसके नाक के नथुने ऐसे दिखते थे जैसे वो गुस्से में हो। आधे मटर के दाने के बराबर एक मस्सा उसके होंठ और नथुनों को मिलाता था।
अकबर का दरबारी लिखता है कि अकबर ने इतनी ज्यादा पीनी शुरू कर दी थी कि वह मेहमानों से बात
करता करता भी नींद में गिर पड़ता था। वह जब ज्यादा पी लेता था तो आपे से बाहर हो जाता था और पागलों जैसी हरकतें करने लगता।
अकबर महान के खुद के पुत्र जहाँगीर ने लिखा है कि अकबर कुछ भी लिखना पढ़ना नहीं जानता था पर यह दिखाता था कि वह बड़ा भारी विद्वान है।
अकबर ने एक ईसाई पुजारी को एक रूसी गुलाम का पूरा परिवार भेंट में दिया। इससे पता चलता है कि अकबर गुलाम रखता था और उन्हें वस्तु की तरह भेंट में दिया और लिया करता था।
कंधार में एक बार अकबर ने बहुत से लोगों को गुलाम बनाया क्योंकि उन्होंने १५८१-८२ में इसकी किसी नीति का विरोध किया था। बाद में इन गुलामों को मंडी में बेच कर घोड़े खरीदे गए ।
अकबर बहुत नए तरीकों से गुलाम बनाता था। उसके आदमी किसी भी घोड़े के सिर पर एक फूल रख देते थे। फिर बादशाह की आज्ञा से उस घोड़े के मालिक के सामने दो विकल्प रखे जाते थे, या तो वह अपने घोड़े को भूल जाये, या अकबर की वित्तीय गुलामी क़ुबूल करे।
जब अकबर मरा था तो उसके पास दो करोड़ से ज्यादा अशर्फियाँ केवल आगरे के किले में थीं। इसी तरह के और
खजाने छह और जगह पर भी थे। इसके बावजूद भी उसने १५९५-१५९९ की भयानक भुखमरी के समय एक सिक्का भी देश की सहायता में खर्च नहीं किया।
अकबर के सभी धर्म के सम्मान करने का सबसे बड़ा सबूत-
अकबर ने गंगा,यमुना,सरस्वती के संगम का तीर्थनगर “प्रयागराज” जो एक काफिर नाम था को बदलकर इलाहाबाद रख दिया था। वहाँ गंगा के तटों पर रहने वाली सारी आबादी का क़त्ल करवा दिया और सब इमारतें गिरा दीं क्योंकि जब उसने इस शहर को जीता तो वहाँ की हिन्दू जनता ने उसका इस्तकबाल नहीं किया। यही कारण है कि प्रयागराज के तटों पर कोई पुरानी इमारत नहीं है। अकबर ने हिन्दू राजाओं द्वारा निर्मित संगम प्रयाग के किनारे के सारे घाट तुड़वा डाले थे। आज भी वो सारे साक्ष्य वहाँ मौजूद हैं।
२८ फरवरी १५८० को गोवा से एक पुर्तगाली मिशन अकबर के पास पंहुचा और उसे बाइबल भेंट की जिसे इसने बिना खोले ही वापस कर दिया।
4 अगस्त १५८२ को इस्लाम को अस्वीकार करने के कारण सूरत के २ ईसाई युवकों को अकबर ने अपने हाथों से क़त्ल किया था जबकि इसाईयों ने इन दोनों युवकों को छोड़ने के लिए १००० सोने के सिक्कों का सौदा किया था। लेकिन उसने क़त्ल ज्यादा सही समझा । सन् 1582 में बीस मासूम बच्चों पर भाषा परीक्षण किया और ऐसे घर में रखा जहाँ किसी भी प्रकार की आवाज़ न जाए और उन मासूम बच्चों की ज़िंदगी बर्बाद कर दी वो गूंगे होकर मर गये । यही परीक्षण दोबारा 1589 में बारह बच्चों पर किया ।
सन् 1567 में नगर कोट को जीत कर कांगड़ा देवी मंदिर की मूर्ति को खण्डित की और लूट लिया फिर गायों की हत्या कर के गौ रक्त को जूतों में भरकर मंदिर की प्राचीरों पर छाप लगाई ।
जैन संत हरिविजय के समय सन् 1583-85 को जजिया कर और गौ हत्या पर पाबंदी लगाने की झूठी घोषणा की जिस पर कभी अमल नहीं हुआ।
एक अंग्रेज रूडोल्फ ने अकबर की घोर निंदा की।
कर्नल टोड लिखते हैं कि अकबर ने एकलिंग की मूर्ति तोड़ डाली और उस स्थान पर नमाज पढ़ी।
1587 में जनता का धन लूटने और अपने खिलाफ हो रहे विरोधों को ख़त्म करने के लिए अकबर ने एक आदेश पारित किया कि जो भी उससे मिलना चाहेगा उसको अपनी उम्र के बराबर मुद्राएँ उसको भेंट में देनी पड़ेगी।
जीवन भर इससे युद्ध करने वाले महान महाराणा प्रताप जी से अंत में इसने खुद ही हार मान ली थी यही कारण है कि अकबर के बार बार निवेदन करने पर भी जीवन भर जहाँगीर केवल ये बहाना करके महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह से युद्ध करने नहीं गया की उसके पास हथियारों और सैनिकों की कमी है..जबकि असलियत ये थी की उसको अपने बाप का बुरा हश्र याद था।
विन्सेंट स्मिथ के अनुसार अकबर ने मुजफ्फर शाह को हाथी से कुचलवाया। हमजबान की जबान ही कटवा डाली। मसूद हुसैन मिर्ज़ा की आँखें सीकर बंद कर दी गयीं। उसके 300 साथी उसके सामने लाये गए और उनके चेहरों पर अजीबोगरीब तरीकों से गधों, भेड़ों और कुत्तों की खालें डाल कर काट डाला गया।
मुग़ल आक्रमणकारी थे यह सिद्ध हो चुका है। मुगल दरबार तुर्क एवं ईरानी शक्ल ले चुका था। कभी भारतीय न बन सका। भारतीय राजाओं ने लगातार संघर्ष कर मुगल साम्राज्य को कभी स्थिर नहीं होने दिया।

शुक्रवार, अक्टूबर 06, 2017

किताबों में मेवाड़ को जगह क्यों नहीं मिलती

Anand Kumar
एक आम लोकभाषा की कहावत होती थी “जहाँ ना पहुंचे रेलगाड़ी, वहां पहुंचे मारवाड़ी” ! दूर-दराज के क्षेत्रों तक जा पहुँचने और अपनी कर्मठता से अपने व्यवसायों को स्थापित करने के कारण मारवाड़ी, भारत भर में जाने जाते हैं। उनके हर जगह फैलने का नतीजा ये हुआ कि राजस्थान और मेवाड़ की कहानियां भी जनमानस में प्रचलित हैं। किताबों में मेवाड़ को जगह क्यों नहीं मिलती इसपर बाद में आयेंगे, पहले इनकी शुरुआत के दौर पर आते हैं। दिल्ली सल्तनत के अक्र्मणकारियों के कब्जे में जाने के करीब करीब सात-साथ ये कहानी शुरू हो जाती।
तेरहवीं शताब्दी के दौर में जब अल्लाउदीन खिलजी ने मेवाड़ पर हमला किया तो वहां गहलौत वंश के रावत रतन सिंह का शासन था। खिलजी की काम-पिपासा को रोकने के लिए हुए इस युद्ध में रावल रतन सिंह के साथ और भी कई आस पास के लोग आये जिनमें से एक थे लक्ष्मण सिंह या ‘लक्षा’। अपने सात बेटों के साथ उन्होंने चित्तौड़ के दुर्ग को बचाते हुए साका किया। कुछ कहानियां आठ या नौ बेटे भी बताती हैं, लेकिन वो सभी चित्तौड़ को भूखे कुत्तों से बचाते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे लेकिन लोककथाओं के विख्यात बप्पा रावल का ये वंश इस युद्ध में पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ था।
नाथद्वार के पास के एक गाँव के नाम पर इन्हें सिसोदिया कहा जाने लगा। लक्षा के सबसे बड़े बेटे का नाम अरी था और उनकी शादी पड़ोस के ही एक गाँव, उन्नावा, के साधारण राजपूत परिवार की लड़की उर्मिला से हुई थी। खिलजी के दुराचार को रोकते अरी और उनका पूरा परिवार जब वीरगति को प्राप्त हुआ तो अरी का एक दुधमुंहा बेटा भी था। परिवार का ये एक बच्चा जौहर और साका के बाद भी बचा रहा। इसी युद्ध में घायल होकर बच गए योद्धाओं में से एक उसके चाचा अजय सिंह थे, लक्ष्मण सिंह के दुसरे सुपुत्र जिन्होंने बच्चे को पाला, चलना-बोलना-लड़ना सिखाया। इस तरह ये बच्चा विपन्नता में, शासन विहीन इलाके में, पूर्वजों की छोड़ी सिर्फ तलवारों के बीच बड़ा होने लगा।
हमीर नाम के इस बच्चे की बहादुरी और नेतृत्व के गुणों का पता चलने में ज्यादा दिन भी नहीं लगे। किशोरावस्था में कदम रखते ही पड़ोस के एक हमलावर, लुटेरे किस्म के राजा मुंजा बलेचा को इसने जबरन की लूट-पाट से रोका। इस बात पर लड़ाई हुई और तलवार चलाने में सिद्धहस्त मुंजा बलेचा, एक किशोर के हाथों मार गिराया गया ! इस घटना से प्रभावित अजय सिंह ने उसी वक्त वंश के आगे के सभी अधिकार इस बालक को सौंप दिए। ये वो दौर था जब खिलजी ने इन इलाकों में अपना प्रभाव जमाने में मदद करने वाले जलोर के राजा मालदेव को इस इलाके का शासन सौंप दिया था।
हमीर के नाम में राणा लगाना शुरू हो गया और राजनैतिक प्रभावों में राजा मालदेव ने अपनी बेटी की शादी भी उनसे की। यहाँ से राणा हमीर के प्रभाव का और सिसोदिया राजवंश के उदय का समय शुरू हुआ। मेवाड़ राज्य को उन्होंने 1326 में फिर से स्थापित कर दिया। जाहिर है दिल्ली सल्तनत राजपूताना की गुलामी ना करने की आदत से वाकिफ़ थी। शुरू में ही उठते हुए इस नए सर को इस्लामिक हुकूमत ने कुचलने की सोची। मुहम्मद बिन तुगलक अपनी तुर्क फौजों के साथ राजपूताना पर चढ़ दौड़ा। राणा हमीर टेढ़ी खीर साबित हुए और तुगलक की पूरी फौज़ को साफ़ करके उन्होंने तुगलक को गिरफ्तार भी कर लिया। आखिर जब उसने राजपूताना को एक अलग साम्राज्य मान लिया तो उसे कैद से रिहा किया गया। https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10159470759820581&id=634930580&refid=28&ref=opera_speed_dial&_ft_=qid.6473763292503195169%3Amf_story_key.2604634415489639140%3Atop_level_post_id.10159470759820581&__tn__=%2As-Rराजपूतों से मिली इस तगड़ी हार के ही दौर में दक्षिण भारत में हरिहर और बुक्का का उदय हो रहा था। तुर्कों द्वारा स्थापित शासन को उन्होंने, प्रलय वर्मा रेड्डी के साथ मिलकर उखाड़ फेंका। इस तरह 1193 या करीब 1200 में मुहम्मद घोरी द्वाhttps://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10159470759820581&id=634930580&refid=28&ref=opera_speed_dial&_ft_=qid.6473763292503195169%3Amf_story_key.2604634415489639140%3Atop_level_post_id.10159470759820581&__tn__=%2As-Rरा स्थापित साम्राज्य करीब डेढ़ सौ साल में पूरी तरह ख़त्म होकर 1350 में एक दिल्ली के किले तक सिमट गया। राजपूत विजय का नतीजा ये हुआ कि आगे राणा हमीर के वंशज अपने नाम में राणा लगाते रहे। राणा कुम्भा इसी सिसोदिया वंश से थे, राणा सांगा भी, और बाद के महाराणा प्रताप भी। भारत में प्रिंसली स्टेट के ख़त्म होने के समय इस वंश के अंतिम राजा भूपाल सिंह (1930-1955) थे।
अब सवाल उठता है कि डेढ़ सौ वर्ष (1200 से 1350 के आस पास) तक शासन करने वाले खिलजी-तुगलक के वंश का नाम किताबों में हो तो फिर चार गुना यानि छह सौ साल (1350 से 1950 के लगभग) के राजवंश का नाम किताबों में क्यों नहीं दिखता ? दरअसल ये स्थापित सेक्युलर इतिहास के किस्सों के खिलाफ चला जाएगा। अगर इनकी कहानियां सुनाई गई तो घोरी से लेकर तुगलक तक के जबरन धर्म परिवर्तन करवाने, असैनिक-नागरिकों का कत्लेआम करने और लूट के किस्से बखान करने पड़ेंगे। सबसे बड़ी समस्या कि ये कहानी शुरू ही स्त्रियों की वीरता यानि जौहर पर होती है। उसे लिखने पर मुस्लिम आक्रमणकारियों को नेकदिल-इंसाफपसंद कहने में और दिक्कत होती।
सबसे बड़ी दिक्कत कि सती को एक परंपरा के तौर पर इतिहास में स्थापित कर पाना बड़ा मुश्किल होता। राणा हमीर से राजा मालदेव ने अपनी जिस पुत्री का विवाह करवाया था उनका नाम सोंगरी (या सोनगरी) था। ये विधवा पुनःविवाह था। सिर्फ इस एक किस्से भर से सतीप्रथा को परंपरा के तौर पर स्थापित करने में समस्या आ जायेगी। जब आप इस लम्बे से लेख को पढ़कर यहाँ तक पहुँच गए हैं तो एक मशहूर अफ़्रीकी लेखक का कहा भी याद आता है। वो कहते थे जब तक शेर अपनी कहानी खुद नहीं लिखता, शिकार की कहानियों में हमेशा शिकारी को महान घोषित किया जाता रहेगा।
बाकी मेरे लिखने पर सहमती हो या आपत्ति हो, ये याद रखिये कि अगर आपने खुद नहीं लिखा तो कोई भी आपके बारे में कुछ भी लिख जाने को स्वतंत्र है। सहमती-आपत्ति दोनों स्थितियों में अपनी कलम उठा के खुद लिखना सीखिए।

मैं इतिहास लिख रहा हूँ और ये इतने बेचैन हैं कि न पूछिये..

Tabish Siddiqui
मैं इतिहास लिख रहा हूँ और ये इतने बेचैन हैं कि न पूछिये.. दिन रात मुझे इन लोगों के मेल मिल रहे हैं और हर मेल में सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही गुज़ारिश कि "लिखना बाद कर दो" बस.. क्यूं बंद कर दो? क्यूंकि ग़लत लिख रहे हो.. पूछो सही क्या है? तो कहेंगे कि क़ुरआन पढ़ो, किसी मदरसे के आलिम के पास जाओ उस से पूछो.. बस यही रटे रटाये जवाब और इनकी बेचैनी
अपने मज़हब को पागलपन की हद तक सही साबित करने का जुनून आपको सच मे मानसिक रोगी बना देता है.. एक पूरी जनरेशन दिमाग़ी दिवालिया हो चुकी है जिसे देख कर रूह काँप जाती है
एक बीहड़ रेगिस्तान में एक पानी का कुवाँ मिलता है.. इतिहास और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखिए तो ये समझ आएगा कि कुछ लोग जो सफ़र पर निकले थे.. उन्होंने इस बीहड़ में पानी खोजा और कुवां खोदा अपनी ज़रूरत के हिसाब से.. जब जब सफ़र के दौरान वो लोग उधर से निकलते थे तब वो उन कुंवे का इस्तेमाल करते थे.. जाते समय उसे ढक देते थे.. ये हुवा समझदारी भरा दृष्टिकोण जो सच है और जिसे हमारा दिमाग मान लेगा.. ऐसे सैकड़ों कुवें दुनिया के अन्य रेगिस्तानों में भी हैं
मगर अंध धार्मिक गुस्सा हैं.. वो चाहते हैं कि मैं लिखूं कि एक छोटा बच्चा उस बीहड़ में लेटा हुवा जोर जोर से रो कर अपना पैर रगड़ रहा था और उसके पैर की रगड़ से ज़मीन से एक पानी की धार फूट पड़ी.. या.. एक फ़रिश्ता आसमान से उड़ता हुवा आया और उसने अपने पंखों से उस कुवें को खोदा.. ऐसे उस बीहड़ में एक कुंवा बन गया.. इन धार्मिकों के हिसाब से उस कुँवें की घटना का असल सच ये है.. देखिये मानसिक दिवालियापन इनका ज़रा.. कुवां सीधा सीधा इंसानों द्वारा खोदने में इन्हें परेशानी है.. वो परीकथा है इनके हिसाब से कि इंसान कुवां खोदे
उसी बीहड़ में इस कुवें के आसपास उन राहगीरों ने अपना मंदिर बनाया.. और पूजा शुरू कर दी.. और फिर धीरे धीरे वो मंदिर अन्य लोगों द्वारा भी पूजा जाने लगा और धीरे धीरे लोग उसके आस पास बस गए.. ये तो है वैज्ञानिक दृष्टिकोण.. मगर धार्मिक मुझे चाहेंगे कि मैं इतिहास में लिखूं कि कोई पंद्रह सौ किलोमीटर से ख़ुदा के हुक्म से अपने एक बेटे के साथ कोई चलकर आया और उसने ये मंदिर बनाया.. कुछ कहेंगे कि ये मंदिर सीधा सीधा आसमान से उतारा गया था आदम के समय में.. और उसमे जो पत्थर लगा है वो जन्नत से आया है.. आसमान से एक फ़रिश्ता ला कर दे गया वो पत्थर.. ये लोग इसे इतिहास बोलेंगे.. मगर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को कोरी कल्पना.. देखिये धार्मिकता का मानसिक दिवालियापन.. जो सीधा सीधा है वो नहीं समझ आएगा.. आसमान से परिश्ते, हूरें और मलाईका आएँगी.. पत्थर की डिलीवरी होगी आसमान से.. ये सब इतिहास प्रामाणिक है इनके लिए और इसे लिखा जाय
पहले फ़रिश्ते आते थे कुवें खोद के जाते थे.. मगर उन फरिश्तों ने कभी तेल के कुवें नहीं खोदे जिनकी वजह से आज सऊदी अरब जो है वो है.. और उन्ही तेल के कुवों की वजह से यहाँ भारत के भी मुस्लमान वहां नौकरी की लालच में जाते हैं.. ये कुवें किसी फ़रिश्ते ने नहीं बल्कि अंग्रेजों ने खोदे और उन्होंने तुम्हारी सारी नस्लों को रोटी दी.. वरना तुम वही मन्न और सलवा खा रहे होते.. जिस वजह से तुम्हारी सारी नस्लें आबाद हैं वो उन यहूद और नसारा (इसाईयों) की देन है.. यहूद और नसारा अगर गाडी न बनाते और पेट्रोल की कीमत न बताते, और फिर तुम्हारे इलाके में पेट्रोल खोज के उन्हें इस्तेमाल न करते तो तुम्हारे घरों में रोटी के लाले पड़े होते.. और तुम आज तक वही ज़मज़म के पानी को बेवकूफों को बेच बेच के पेट पाल रहे होते
उस पानी को पहले लोग बोतलों में भर कर लाते थे इस उम्मीद से कि उसकी एक बूँद किसी के मुह में डाल दोगे तो उसकी बिमारी ठीक हो जायेगी.. मगर कभी न ठीक हुई.. फिर जब मेडिकल साइंस आई तो लोग उन बोतलों को फ़ेंक कर भागे डॉक्टरों की तरफ.. जो पूरा कुवां अपने शहर में रखे बैठे हैं वो भी अपना इलाज कराने न्यूयॉर्क जाते हैं.. और वो भी इसीलिए जा पाते हैं क्यूंकि अंग्रेजों ने उनके यहाँ कुवें खोदे.. फरिश्तों ने नहीं
मैं अफीम खा कर इतिहास नहीं लिखूंगा.. ये आपकी परेशानी है कि परीकथाएँ आपको इतिहास नज़र आती हैं और सच्चाई आपको परीकथाएँ.. इसलिए आप जिस बात के लिए इतने बेचैन है वो सच्चाई नहीं बल्कि आप मुझ से बस ये उम्मीद कर रहे हैं कि आपके मानसिक रोग को मैं हरी झंडी दिखा दूँ.. जो अन्य लेखक आपके धार्मिक उन्माद से डरकर और ख़िलाफ़त की चापलूसी में करते आये हैं अभी तक.. और वो मैं नहीं करूँगा.. आप आज मुझे गाली देंगे.. मगर आपकी आने वाली नस्लें सीखेंगे मेरे आर्टिकल से और सच्चाई की दुनिया में क़दम रख सकेंगी
~ताबिश

गुरुवार, अक्टूबर 05, 2017

बोद्धो ने मंयामार नही छोडा बल्की खाली करवाया है

हिन्दुऔ ने मजबुर होकर ईराक छोडा
ईरान छोडा ,अफगान छोडा
बाग्ला छोडा,पाक छोडा
कश्मिर छोडा ,केरल , पश्चिम बंगाल छुट रहै है
मगर
बोद्धो ने मंयामार नही छोडा बल्की खाली करवाया है
पता है क्यो क्योकि
वहा के धर्म गुरु विराथु ने धर्म रक्षा और देशप्रेम सिखाया
और हमारे यहा धर्माचार्य कथावाचन के समय धर्म रक्षा और देश प्रेम की बजाय नाच गाना सिखाते है
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जय श्री राम

रविवार, अक्टूबर 01, 2017

तलवार की धार पर फैलाई गयी कुरीति :इस्लाम

Agniveer Singh
भारत में इस्लाम, तलवार के धार पर फैलाई गयी कुरीति है, कोई धर्म नहीं -भाग १
सुनने अटपटा है, लेकिन सच है ,हो सकता है इस लेख के बाद सेकुलरों की नज़रे मेरे ऊपर तीखी हो जाए, गालियाँ भी सुननी पड़े, या अरब कनेक्टेड लोग मेरे ऊपर फतवा जारी कर दें, या सेकुलर कोंग्रेस सरकार करवाई कर दे (वो बात अलग है की अलगावादी गिलानी और अपने को आए एस आई का एजेंट कहने वाले बुखारी को सर आँखों पे रखती है ) . फिर भी सच तो बताना ही पड़ेगा. वो बात अलग है की ये हिंदू सच बताने के लिए तलवार का सहारा नहीं लेगा.
लेकिन इससे पहले ये जान लेना जरुरी है की इस्लाम क्या है ????
एक नजर अनपढ़ मोहम्मद के बारे में भी जान ले....
इस्लामी कठमुल्लो ने इस्लाम का मतलब "अमन" (शांति) बताया, एसी शांति जिसको फ़ैलाने के लिए तलवार की जरुरत आन पड़ी. क्यों आन पड़ी ये नहीं बताया.
मोहम्मद को अल्लाह का अंतिम बन्दा बताया जो अल्लाह से सीधे संवाद स्थापित करता था, आईये पहले इस तथाकथित शान्ति के दूत के बारे में जान लें .
मोहम्मद का जन्म ५७० इसा पूर्व अरब के मक्का शहर में हुआ था, अल्लाह की इनके ऊपर बड़ी रहमत थी , पहली रहमत की अल्लाह ने पिता का साया इस अल्लाह के बंदे से जन्म होने के पूर्व ही छीन लिया था और जन्नत में कँवारी ७२ हूरों के साथ मजा लेने के लिए भेज दिया, और दूसरी रहमत करने के लिए अल्लाह ने छः साल का समयावधि लिया सो छः साल के उम्र में माँ भी निकल लीं. इनकी माँ को जन्नत में ७२ लौंडो की सेवा मिली होगी या नहीं अल्लाह ही जनता है . फिर इनकी देख रेख का जिम्मा इनके दादा जी ने लिया, अब चुकी अल्लाह के रहमत का कोई ठिकाना नहीं सो दो साल बाद ये भी जन्नत चल दिए ७२ हूरों का मजा लेने. यानी अब तक १४४ कँवारी हूरे मोहम्मद के खानदान के नाम अल्लाह ने कर दिया. इसके बाद इनका जिम्मा मिला इनके चचा अबू तालिब को. बात ये है की ये खुद अल्लाह का एक रूप थे जो इस दुनिया को प्रकाश दिखने और बोझ से हल्का करने आये थे अलबत्ता बार बार ये खुद ही बोझ बनते रहे.
अब आगे देखिये, जब २५ साल के हुए तो इन्होने एक ४० वर्षीय महिला खादिजाह से विवाह सिर्फ इसलिए किया क्योकिं वो एक बड़ी व्यापारी थी. मजे की बात ये है की मोहम्मद ४० वरसो तक किंकर्तव्य विमूढ़ थे, जब ये ४० साल के हुए तब इन्हें अल्लाह का पहला अनुभव हुआ ६१० ईसापूर्व में. फिर लगे उलटी सीधी बाते बोलने (की दुनिया बचाने का कांट्रेक्ट बस अल्लाह के पास है और कोई टेंडर नहीं लिया जायेगा ) जिससे लोगो में आक्रोश बढ़ा, और अल्लाह का ये बन्दा चोरों की तरह फरार हो गया. उसके बाद मक्का मदीना में खूब लड़ाईयां हुई शरिया कानून को ले के. ६३० इसा पूर्व जनवरी माह में इसा ने दस हजार खूंखार कातिलों की फ़ौज खड़ी की और चल पड़े मक्का विरोधियों को दोजख भेजने . काबा की ३६० मूर्तियां तोड के और सबको क़त्ल करने के बाद मुसल्मानियत उर्फ इस्लाम की नीव रखी, ये है शांतिपूर्ण इस्लाम के स्थापना का इतिहास .
जिस धर्म की स्थापना ही तलवार के बल पे हुयी हो वो धर्म है या विकृति या कुरीति आप ही निर्णय कीजिये.
और इसी तलवार के दम पे इसे पुरे विश्व में फैलाया गया.
चुकी भारत वैदिक सभ्यता और अहिंसा में विश्वास रखता था सो यहाँ कब्ज़ा जमाना जादा आसान था.
इस्लाम की कुछ प्रमुख एवं हास्यपद बातें :
१. खतना :
हर मुस्लिम का एक़ कामन पेटेंट ठप्पा होगा होगा अर्थात "खतना" होन अनिवार्य है, इस प्रकिया में नवजात बच्चे के लिंग का अगला हिस्सा उतार दिया जाता है .
अब सोचिये जिस धर्म में पैदा होते ही दर्द है उसमे शान्ति कहाँ ? और इस्लाम इसका कोई तर्क भी नहीं दे पाया है की ऐसा क्यों करें ??
२. हर मुस्लिम ४ बीवियां रख सकता है :
यानि स्त्री को भोग की वस्तु समझा गया, शुक्रवार के नमाज के बाद रविवार तक आराम , उसके बाद सोमवार से बुध्ध्वार तक समय सारिणी बना लो किस दिन किसके साथ सोना है .
३. नसबंदी हराम है :
जम के बच्चे पैदा करो, जहाँ रहो वहाँ बहुल हो जाओ और अलगाव वादी प्रक्रिया शुरू कर दो चाहे चेचन्या हो या कश्मीर . यानी आठ आठ -दस दस बच्चे पैदा करो फिर सरकार से कहो की आरक्षण दो नहीं तो वोट नहीं देंगे .
४. काफिर :
जो इस्लाम न माने वो काफिर , और कुरआन काफिरों को क़त्ल करने की इजाजत देता है, यानि जितने भी हिंदू है जो इस्लाम नहीं मानते वो काफ़िर है , यदि उनको मर दिया जाए तो जन्नत नसीब होगी जहाँ ७२ कुँवारी हूरे उनका इन्तजार कर रही होंगी.
५ . जन्नत :
काफिरो को मरने पे जन्नत नसीब होगी जहाँ ७२ कुँवारी हूरे उनका इन्तजार कर रही होंगी.
६ . मूर्तिपूजा निषेध :
इस्लाम में पत्थर पूजा निषेध है , लेकिन फिर भी काबा के पत्थर में पत्थर मारने होड लगी रहती है .
७. मजहब देश से बड़ा :
इनके लिए मजहब हमेशा देश से बड़ा होता है , यदि किसी देश का राष्ट्र गान इनके मजहब के हिसाब से नहीं है तो इनके लिए हराम है और दूसरा उदहारण कश्मीर में पाक के साथ यूध्ध का, जब कश्मीरी इस्लाम सेनाए पाकिस्तान से बस इसलिए मिल गयी क्योकि पकिस्तान एक इस्लाम देश है अपने कौम को किनारे रख के और ये बात पूरा विश्व जानता है शायद इसीलिए मुसलमानों पे कोई भी देश भरोसा करने को तैयार नहीं, इनका दोगलापन देख के , खाते कही और का और सोचते सिर्फ अरब का हैं .
८. हिंदू विरोधी धर्म :
इस्नके सारे कांड वैदिक से उलटे होते हैं , चाहे वो लिखना हो या धोना , शायद किसी समय पैर की बजाय सर से भी चलने की कोशिश की होगी (उल्टा करने के चक्कर में ) सो चुन्डी घिस गयी होगी, इसीलिए कोई भी मुसलमान चुन्डी नहीं रखता शर्म के मारे.
९ जिहाद :
जिहाद शब्द का जन्म इस्लाम के जन्म के साथ ही हो गया था। जिहाद अरबी का शब्द है जिसका अर्थ है जोइस्लाम न माने उसको समाप्त कर दो "। भारत में पहला आक्रमणकारी मोहम्मद बिन कासिम था जिसने 8वीं शताब्दी में सिंध पर आक्रमण किया था। तत्पश्चात् 11वीं शताब्दी में महमूद गजनवी तथा उसके बाद मोहम्मद गोरी आक्रांता के रूप में भारत आया।
इस्लाम ग्रहण करने से पूर्व मध्य एशिया के कबीले आपस में ही मार-काट और लड़ाइयां करते थे। अत्यधिक समृद्ध भारत उनके लिए आकर्षण का केन्द्र था। और जब इन कबीलों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया तो इनका उद्देश्य दोहरा हो गया। लूट-पाट करने के साथ-साथ विजित देश में बलपूर्वक इस्लाम का प्रसार करना। इसलिए कहा जाता था कि इस्लाम जहां जाता था-एक हाथ में तलवार, दूसरे में कुरान रखता था।
जिहाद से भारत का सम्बंध हजार वर्ष पुराना है। भारत में वर्षों शासन करने वाले बादशाह भी जिहाद की बात करते थे। 13वीं 14वीं शताब्दी के दौरान मुसलमानों के अंदर ही एक अन्य समानांतर धारा विकसित हुई। यह थी सूफी धारा। हालांकि सूफी धारा के अगुआ भी इस्लाम का प्रचार करते थे किन्तु वे प्रेम और सद्भाव से इस्लाम की बात करते थे। किन्तु बादशाहों पर सूफियों से कहीं अधिक प्रभाव कट्टरपंथियों का था। इस्लाम के साथ-साथ जिहाद शब्द और जिहादी मनोवृत्ति को भारत पिछले हजार वर्षों से झेल रहा है।
अब चुकी भारत वैदिक और अहिंसा वादी था सो इन बर्बर नीच पापियों का प्रभुत्व जल्दी जम गया फिर भी बहुत जादा नुक्सान न कर पाए .
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