सोमवार, अक्टूबर 31, 2011

पश्चिमी पूंजीवाद की पराजय

अमेरिका और यूरोप के आर्थिक संकट के बुनियादी कारणों की तह में जा रहे हैं लॉर्ड मेघनाद देसाई

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अमेरिका और यूरोप समेत कई पश्चिमी देशों में आर्थिक संकट सुलझने के बजाय लगातार गहरा रहा है। ऐसे में अपनी खराब होती आर्थिक हालत और बैंकों से लिए गए कर्ज को न चुका पाने के कारण नागरिकों में सरकार के प्रति रोष बढ़ रहा है, जो स्वाभाविक है। यही कारण है कि पश्चिम के कई देशों में अफ्रीका और अरब देशों में हुई क्रांति की तरह ही लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। इस संदर्भ में अमेरिका में वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करने के नारे के साथ कई नागरिक समूहों द्वारा सामूहिक रूप से आवाज उठाना एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। आज तक कभी ऐसा नहीं देखा गया जब पूरी दुनिया को नियंत्रित करने वाले इस सबसे बड़े पूंजीवादी संस्थान के खिलाफ वही लोग खड़े हो गए जो अभी तक इस पर गर्व करते आए हैं। इन घटनाक्रमों की व्याख्या कई रूपों में अलग-अलग तरह से की जा सकती है और की भी जा रही है, लेकिन सवाल यह है कि ऐसा हुआ क्यों और क्या इस स्थिति से बाहर निकला जा सकता है या नहीं?

इसके अलावा प्रश्न यह भी है कि इससे भारत जैसे विकासशील देशों को क्या सबक सीखना चाहिए? दरअसल अभी तक अमेरिकी बैंकों की नीति अपने नागरिकों को अधिकाधिक कर्ज बांटने की रही है। ऐसा करने के पीछे तर्क यह था कि जब लोगों के पास पैसा आएगा तो वह अधिकाधिक उपभोग के लिए प्रेरित होंगे और बाजार में मांग बनेगी और जब मांग बढ़ेगी तो फैक्ट्रियों में उत्पादन बढ़ेगा, जिससे रोजगार सृजित होगा और देश में खुशहाली बढ़ेगी। निश्चित ही यह एक अच्छा विचार था, लेकिन बैंकों से गलती यह हुई उन्होंने यह जानना जरूरी नहीं समझा कि लोग जो कर्ज ले रहे हैं उसका कर क्या रहे हैं और उसे कहां लगा रहे हैं? 2007-08 में सबप्राइम संकट की मूल वजह यही थी कि लोगों ने कर्ज का पैसा प्रापर्टी बाजार में मोटी कमाई के उद्देश्य से लगाया। लोगों ने कर्ज के पैसे से घर खरीदा और बैंक की किस्त चुकाने के लिए इन घरों को किराए पर उठा दिया, लेकिन समस्या तब शुरू हुई जब ब्याज दरें बढ़ने से कर्ज की किस्त देना मुश्किल हो गया। इसके लिए लोगों ने फिर से उन्हीं घरों पर दोबारा कर्ज ले लिया जिनकी किस्त अभी तक भरी जा रही थी। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रॉपर्टी की मांग तेजी से बढ़ी और मकानो के किराये भी काफी ऊपर हो गए। इसके परिणामस्वरूप प्रॉपर्टी के दाम तेजी से बढ़े और बाजार से खरीददार गायब होने लगे। साथ ही महंगे किराये की वजह से लोगों ने इन घरों को भी खाली करना शुरू कर दिया। ऐसी स्थिति में प्रापर्टी बाजार जो तेजी से ऊपर जा रहा था, औंधे मुंह नीचे गिर गया। इन हालात में बैंकों से लिए गए कर्ज का मूलधन तो दूर रहा, उसकी किस्त भी चुका पाना लोगों के लिए मुश्किल हो गया। आज हालत यह है कि बैंक यदि इस प्रापर्टी को अधिग्रहीत भी कर लें तो भी उनका धन वापस नहीं मिल सकता। यही कारण था कि अमेरिका समेत यूरोप के कई देशों में बैंक दिवालिया होना शुरू हो गए।

इस स्थिति से बाहर निकलने और बैंकों को दिवालिया होने से बचाने के लिए बेलआउट पैकेज दिए गए, लेकिन यह भी आज कारगर होते नहीं दिख रहे हैं। इसकी बड़ी वजह यही है कि जो भी पैसा इस तरह के पैकेज द्वारा बाजार में आता है उसका एक बड़ा हिस्सा कंपनियों द्वारा कमोडिटी बाजार में लाभ कमाने के लिए झोंक दिया जाता है, जबकि बेलआउट पैकेज के तहत पैसा देने का उद्देश्य ही यह होता है कि इनका उपयोग उद्योगों में निवेश के लिए किया जाएगा ताकि उत्पादन बढ़ने से वस्तुओं की कीमतें नीचे आएं और लोगों में इनकी मांग बढ़े। यदि ऐसा होता है तो ही बाजार फिर से पटरी पर लौट पाएगा और रोजगार सृजन भी तेज होगा, लेकिन यह सारा उद्देश्य वहीं विफल हो जाता है जब इन पैसों का उपयोग उद्योगों में निवेश के बजाय शेयर बाजार और कमोडिटी बाजार में होने लगता है। यह दुष्चक्र 2007-08 के सबप्राइम संकट जैसा ही है, जिसका हल खोजना फिलहाल मुश्किल हो रहा है, क्योंकि मंदी और महंगाई आज साथ-साथ हैं और यह एक वैश्विक समस्या बनती जा रही है। पता नहीं अमेरिकी संकट कब हल होगा, लेकिन इतना अवश्य है कि यूरो जोन के संकट का हल हुए बिना अमेरिकी संकट भी फिलहाल खत्म नहीं होने वाला। मुझे नहीं लगता कि यह संकट तीन-चार साल से पहले खत्म हो पाएगा।

इस संदर्भ में जो सबसे महत्वपूर्ण बात उभर कर आई है वह है बचत का महत्व को समझना और इसे अपनी आदत में ढालकर पैसों का सही उपयोग सुनिश्चित करना। आज पूंजीवाद का केंद्र अमेरिका और यूरोप से खिसककर चीन, भारत और ब्राजील की तरफ स्थापित हो रहा है, लेकिन पश्चिम के ताजा संकट से इन देशों को भी सतर्क रहने की जरूरत है। यह बात खासकर भारत पर लागू होती है, क्योंकि आज यहां जिस तरह पैसों का प्रबंधन गलत तरीके से किया जा रहा है और इनका खर्च गैर-उत्पादक और गैर-योजनागत व्यय के लिए अधिक किया जा रहा है वह आने वाले समय में चिंता का कारण बन सकता है। यह सही है कि भारत अपनी जनसांख्यिकीय स्थिति के कारण आज लाभ की स्थिति में है। एक बड़ा मध्यम वर्ग, बड़ा बाजार और उदार अर्थव्यवस्था भारत के पक्ष में जाता है, लेकिन आर्थिक नीतियों में तमाम खामियों और योजनाओं के सही क्रियान्वयन के अभाव के कारण इस स्थिति का लाभ उठा पाना मुश्किल दिख रहा है। भारत को घरेलू स्तर पर तमाम सुधार के साथ ही वैश्विक निवेशकों को यह भरोसा भी दिलाना होगा कि उनका निवेश न केवल सुरक्षित होगा, बल्कि उनके लिए लाभकारी भी होगा।

निश्चित रूप से बढ़ती महंगाई और जनअसंतोष भी एक बड़ा खतरा है। इस कारण भारत के लिए पश्चिम के घटनाक्रमों का सबक यही है कि उसे सिर्फ आर्थिक विकास से संतुष्ट होकर नहीं बैठ जाना चाहिए, बल्कि समतापूर्ण विकास के लक्ष्य पर हमें अधिक केंद्रित होना चाहिए। यही वास्तविक विकास है और हमारी नीतियां इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बनाई जानी चाहिए। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए न केवल दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है, बल्कि दीर्घकालिक नीतियों को ध्यान में रखते हुए अपेक्षित आर्थिक सुधारों को जल्द से जल्द स्वीकृति देने और उन पर ईमानदारी से अमल करने की आवश्यकता है।

[लेखक: ब्रिटिश अर्थशास्त्री हैं]

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