सोमवार, अक्टूबर 31, 2011

ये जो अमेरिका है!

याद कीजिए इस अमेरिका को आपने पहले कब देखा था। दुनिया को पूंजी, तकनीक, निवेश, सलाहें, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और सपने बांटने वाला अमेरिका नहीं, बल्कि बेरोजगार, गरीब, मंदी पीड़ित, सब्सिडीखोर, कर्ज में डूबा, बुढ़ाता और हांफता हुआ अमेरिका। न्यूयॉर्क, सिएटल, लॉस एंजिलिस सहित 70 शहरों की सड़कों पर फैले आंदोलन में एक दूसरा ही अमेरिका उभर रहा है। चीखते, कोसते और गुस्साते अमेरिकी लोग अमेरिकी बाजारवाद और पूंजीवाद पर हमलावर है। राष्ट्रपति ओबामा डरे हुए हैं। उनकी निगाह में शेयर बाजार व बैंक गुनहगार हैं। न्यूयॉर्क के मेयर माइकल ब्लूमबर्ग को अमेरिका की सड़कों पर काइरो व लंदन जैसे आंदोलन उभरते दिख रहे हैं। इन आशंकाओं में दम है। अमेरिका से लेकर कनाडा व यूरोप तक 140 शहरों में जनता सड़क पर आने की तैयारी में है। आर्थिक आंकड़ों से लेकर सामाजिक बदलावों तक और संसद से लेकर वित्तीय बाजार तक अमेरिका में उम्मीद की रोशनियां अचानक बुझने लगी हैं। लगता है मानो दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क में कोई तिलिस्म टूट गया है या किसी ने पर्दा खींचकर सब कुछ उघाड़ दिया है। महाशक्ति की यह तस्वीर महादयनीय है।

बेरोजगार अमेरिका

अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां करीब दो ट्रिलियन डॉलर (2,00,000 करोड़ डॉलर) की नकदी पर बैठी हैं!! लेकिन रोजगार नहीं हैं। सस्ते बाजारों में उत्पादन से मुनाफा कमाने के मॉडल ने अमेरिका को तोड़ दिया है। अमेरिका के पास शानदार कंपनियां तो हैं, मगर रोजगार चीन, भारत थाइलैंड को मिल रहे हैं। देश में बेकारी की बढोतरी दर पिछले दो साल से 9 फीसदी पर बनी हुई है। इस समय अमेरिका में करीब 140 लाख लोग बेकार हैं। अगर आंशिक बेकारी को शामिल कर लिया जाए तो इस अमीर मुल्क में बेकारी की दर 16.5 फीसदी हो जाती है। लोगों को औसतन 41 हफ्तों तक कोई काम नहीं मिल रहा है। 1948 के बाद बेकारी का यह सबसे भयानक चेहरा है। बेरोजगारी भत्ते के लिए सरकार के पास आवेदनों की तादाद कम नहीं हो रही है। बैंक ऑफ अमेरिका ने 30,000 नौकरियां घटाईं हैं, जबकि अमेरिकी सेना ने पांच वर्षीय भर्ती कटौती अभियान शुरू कर दिया है। आलम यह है कि कर्मचरियों को बाहर का रास्ता दिखाने की रफ्तार 212 फीसदी पर है। पिछले माह अमेरिका में करीब सवा लाख लोगों की नौकिरयां गई हैं। इस बीच नौकरियां बढ़ाने के लिए ओबामा का 447 अरब डॉलर का प्रस्ताव प्रतिस्पर्धी राजनीति में फंसकर संसद में (इसी शुक्रवार को) गिर गया है। इसके बाद बची-खुची उम्मीदें भी टूट गईं हैं। अमेरिका अब गरीब (अमेरिकी पैमानों पर) मुल्क में तब्दील होने लगा है।

गरीब अमेरिका

अमेरिकी यूं ही नहीं गुस्साए हैं। दुनिया के सबसे अमीर मुल्क में 460 लाख लोग बाकायदा गरीब (अमेरिकी पैमाने पर) हैं। अमेरिका में गरीबी के हिसाब किताब की 52 साल पुरानी व्यवस्था में निर्धनों की इतनी बड़ी तादाद पहली बार दिखी है। अमेरिकी सेंसस ब्यूरो व श्रम आंकड़े बताते हैं कि देश में गरीबी बढ़ने की दर 2007 में 2.1 फीसदी थी, जो अब 15 फीसदी पर पहुंच गई है। मध्यमवर्गीय परिवारों की औसत आय 6.4 फीसदी घटी है। 25 से 34 साल के करीब 9 फीसदी लोग (पूरे परिवार की आय के आधार पर) गरीबी की रेखा से नीचे हैं। यदि व्यक्तिगत आय को आधार बनाया जाए तो आंकड़ा बहुत बड़ा होगा। लोगों की गरीबी कर्ज में डूबी सरकार को और गरीब कर रही है। अमेरिका के करीब 48.5 फीसदी लोग किसी न किसी तरह सरकारी सहायता पर निर्भर हैं। अमेरिका का टैक्स पॉलिसी सेंटर कहता है कि देश के 46.5 फीसदी परिवार केंद्र सरकार कोई कर नहीं देते यानी कि देश की आधी उत्पादक व कार्यशील आबादी शेष आधी जनसंख्या से मिलने वाले टैक्स पर निर्भर है। यह एक खतरनाक स्थिति है। अमेरिका को इस समय उत्पादन, रोजगार और ज्यादा राजस्व चाहिए, जबकि सरकार उलटे टैक्स बढ़ाने व खर्च घटाने जा रही है।

बेबस अमेरिका

इस मुल्क की कंपनियां व शेयर बाजार देश में उपभोक्ता खर्च का आंकड़ा देखकर नाच उठते थे। अमेरिका के जीडीपी में उपभोक्ता खर्च 60 फीसदी का हिस्सेदार है। बेकारी बढ़ने व आय घटने से यह खर्च कम हुआ है और अमेरिका मंदी की तरफ खिसक गया। अमेरिकी बचत के मुरीद कभी नहीं रहे, इसलिए उपभोक्ता खर्च ही ग्रोथ का इंजन था। अब मंदी व वित्तीय संकटों से डरे लोग बचत करने लगे हैं। अमेरिका में बंद होते रेस्टोरेंट और खाली पड़े शॉपिंग मॉल बता रहे हैं कि लोगों ने हाथ सिकोड़ लिए हैं। किसी भी देश के लिए बचत बढ़ना अच्छी बात है, मगर अमेरिका के लिए बचत दोहरी आफत है। कंपनियां इस बात से डर रही हैं कि अगर अमेरिकी सादा जीवन जीने लगे और बचत दर 5 से 7 फीसदी हो गई तो मंदी बहुत टिकाऊ हो जाएगी। दिक्कत इसलिए पेचीदा है, क्योंकि अमेरिका में 1946 से 1964 के बीच पैदा हुए लोग (बेबी बूम पीढ़ी) अब बुढ़ा रहे हैं। इनकी कमाई व खर्च ने ही अमेरिका को उपभोक्ता संस्कृति का स्वर्ग बनाया था। यह पीढ़ी अब रिटायरमेंट की तरफ है यानी की कमाई व खर्च सीमित और चिकित्सा पेंशन आदि के लिए सरकार पर निर्भरता। टैक्स देकर अमेरिकी सरकार को चलाने यह पीढ़ी अब सरकार की देखरेख में अपना बुढ़ापा काटेगी। मगर इसी मौके पर सरकार कर्ज में डूबकर दोहरी हो गई है।

अमेरिका आंदोलनबाज देश नहीं है। 1992 में लॉस एंजिलिस में दंगों (अश्वेत रोडनी किंग की पुलिस पिटाई में मौत) के बाद पहली बार देश इस तरह आंदोलित दिख रहा है। अमेरिकी शहरों को मथ रहे आंदोलनों का मकसद और नेतृत्व भले ही अस्पष्ट हो, मगर पृष्ठभूमि पूरी दुनिया को दिख रही है। मशहूर अमेरिकन ड्रीम मुश्किल में है। बेहतर, समृद्ध और संपूर्ण जिंदगी व बराबरी के अवसरों (एपिक ऑप अमेरिका- जेम्स ट्रुसलो एडम्स) का बुनियादी अमेरिकी सपना टूट रहा है। इस भयानक संकट के बाद दुनिया को जो अमेरिका मिलेगा, वह पहले जैसा बिल्कुल नहीं होगा। अपनी जनता की आंखों में अमेरिकन ड्रीम को दोबारा बसाने के लिए अमेरिका को बहुत कुछ बदलना पड़ेगा। चर्चिल ने ठीक ही कहा था कि अमेरिका पर इस बात के लिए भरोसा किया जा सकता है कि वह सही काम करेगा, लेकिन कई गलतियों के बाद। ..अमेरिका का प्रायश्चित शरू हो गया है।

[अर्थार्थ : अंशुमान तिवारी]

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