सोमवार, अक्टूबर 31, 2011

सात अरब का परिवार और हम

सात अरब का परिवार और हम


बधाई! कल आप सात अरब के विश्व परिवार के सदस्य बनने का गौरव हासिल करने जा रहे हैं। हालांकि, किसी भी सच के जनमने से पहले विवादों को जनने वाली मौजूदा दुनिया में इस मुद्दे पर भी बहस छिड़ गई है। संयुक्त राष्ट्र संघ का मानना है कि ऐसा 31 अक्तूबर को होना है, जबकि अमेरिकी जनगणना ब्यूरो के अनुसार अभी मार्च, 2012 तक का समय शेष है।

यह बहस-मुबाहिसा यहीं खत्म नहीं होता। उत्तर प्रदेश में बागपत जिले के गांव सुन्हेड़ा में सचिन पंवार और उनकी पत्नी पिंकी को लगता है कि दुनिया को सात अरब के आंकड़े पर पहुंचाने वाला वह भाग्यशाली बच्चा उनके घर आने वाला है। भगवान करे ऐसा ही हो। ईश्वर से यह भी कामना है कि वह बच्चा उन लोगों की कतार में शामिल न हो, जो सिर्फ दुनिया की गिनती बढ़ाते हैं, बल्कि विश्व इतिहास में उसका नाम उन हस्तियों के साथ दर्ज किया जाए, जो दुनिया को बनाते और बचाते आए हैं। संयुक्त राष्ट्र इस मुद्दे पर चुप है कि सात अरबवां बच्चा कहां होगा? जहां भी हो, उसे मेरा यह आशीर्वाद जरूर फलीभूत हो कि वह गणना का एक पड़ाव भर न बनकर रह जाए।

आंकड़ों के इस मायाजाल की भी अपनी एक कहानी है। जीवन की लय और गति की तरह जनसंख्या में बढ़ोतरी की रफ्तार भी कभी मद्धिम, तो कभी तेज होती रही है। उदाहरण के तौर पर, वर्ष 1804 में दुनिया की आबादी एक अरब थी। इसे दो गुना होने में 123 वर्ष लग गए। इसके विपरीत 1927 से 1959 यानी 32 वर्षों में ही इस विश्व की गिनती में एक अरब का इजाफा हो गया। आप सोच रहे होंगे कि दुनिया की आबादी बढ़े या घटे, हिंदी हृदय स्थल के हम लोगों पर भला क्या असर पड़ेगा?

इस सवाल का जवाब जानने के लिए जरा इतिहास के अंधेरे बंद कमरों में झांककर देखते हैं। 1350 में धरा की आबादी करीब 37 करोड़ थी। समूचा यूरोप उस समय प्लेग की मार से कराह रहा था। दो साल पहले नाचीज माने जाने वाले चूहों की मेहरबानी से यह रोग उस महाद्वीप के कुछ हिस्सों में दबे पांव दाखिल हुआ था और देखते ही देखते उसने दो-तिहाई शहरों को मौत का अड्डा बना डाला था। माना जाता है कि 1348 में यदि प्लेग का प्रसार इतनी तेजी से नहीं हुआ होता, तो उस महाद्वीप की दशा-दिशा कुछ और होती। पर इंसानियत की सबसे अनूठी बात है कि वह हर हमले के बाद खुद को पहले से कहीं अधिक सजग, सचेष्ट और सक्षम बना लेती है। इसी 1350 में हाहाकार करते यूरोप में कुछ कलाकारों, साहित्यकारों और उद्यमियों ने पुनर्जागरण का ख्वाब देखा। कहने की जरूरत नहीं कि अगली पांच शताब्दियां यूरोप की होने वाली थीं।

पता नहीं प्लेग का उस महाद्वीप के महान सामुद्रिक अभियानों से कोई रिश्ता था या नहीं, पर यह सच है कि लगभग सौ साल बाद जन्मे क्रिस्टोफर कोलंबस और वास्कोडिगामा ने जिन दो महादेशों के तटों पर लंगर डाला, उनका मौजूदा संसार में बेहद अहम योगदान है। कोलंबस का अमेरिका संसार का सबसे ताकतवर और वास्कोडिगामा का भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र है। जनसंख्या के आईने में देखें तो बहुत दिन नहीं बचे हैं, जब हमारा हिन्दुस्तान इस मामले में चीन को पीछे छोड़ देगा।

अक्सर कहा जाता है कि विशाल मानव समूह की वजह से हमारे देश में इतनी दिक्कतें हैं। यह सही है कि बहुत अधिक आबादी को कारगर शासन प्रणाली देना मुश्किल होता है, पर अब यह अभिशाप नहीं रह बची है। भारत और चीन को मिला दें, तो दुनिया की आबादी का कुल जमा 36.4 प्रतिशत हिस्सा इन दो देशों में रहता है। आज चाहे वार्षिक विकास दर हो, युवाओं में आगे बढ़ने की ललक हो, सफलताएं अजिर्त करने के प्रतिमान हों या फिर दूर जगमगाता भविष्य, सब के सब इन दो मुल्कों के पक्ष में जाते हैं। चीन पहले ही महाशक्ति बन चुका है। हमारा रास्ता भी हर रोज हमवार होता जा रहा है। कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि 2050 में जब आबादी नौ अरब के पार होगी, तब भारत विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या और संभावना वाला देश होगा।

पर 2011 को मानवता के इतिहास में कुछ चुनौतियां उपजाने वाला साल भी माना जाएगा। मसलन, लोगों की औसत उम्र बढ़ रही है और अपने ही कूचे में विस्थापन भी। मैंने जापान में देखा है। बड़ी संख्या में बूढ़े लोग बिना किसी काम-धाम के सड़कों के किनारे बैठकर निरुद्देश्य शून्य की तरफ ताकते रहते हैं। सरकारों के सामने इस तरह के बुजुर्गों का लालन-पालन काफी मुश्किल पेश कर रहा है। हम अपने बचपन में सुनते थे कि बड़े लोग एक बच्चे को गोद लेते हैं। यूरोप और अमेरिका में अब बुजुर्गों को गोद लेने का चलन बढ़ता जा रहा है। एक तरफ जहां उम्र के ढलान पर खड़े लोग दिक्कतों के शिकार हो रहे हैं, वहीं युवाओं को सही रास्ता दिखाना भी एक बड़ी समस्या बन गया है। इस समय दुनिया की आबादी का कुल 43 प्रतिशत हिस्सा नौजवान है। जब दो-तिहाई से ज्यादा देशों में गरीबी और बदहाली बिखरी पड़ी हो, तब करोड़ों लोगों को शिक्षा और सही कैरियर देना अपने आप में एक दुष्कर काम है। आतंक और अलगाव के कुटिल सौदागरों की नजर हमेशा इन पर रहती है। इन्हें सही रहगुजर प्रदान करना इस सदी की सबसे बड़ी चुनौती है।

कुदरत पर भी आबादी का बोझ भारी पड़ता जा रहा है। एक साल में इतने सारे लोग जिन प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग करते हैं, उनको दोबारा उपजाने में प्रकृति को 18 महीने लग जाते हैं। यह हाहाकारी समीकरण कहर बरपा सकता है।
एक वाकया याद आता है। तीन दशक होने को आए जब भारतीय दल ने उत्तरी ध्रुव पर फतह पाई थी। एक विकासशील देश के लिए यह बड़ी बात थी। उस अभियान के अगुवा एस जेड कासिम थे। इलाहाबाद का होने के कारण वहां पर उनके लिए एक सम्मान-समारोह आयोजित किया गया था। इस मौके पर उन्होंने विस्तार से समझाया था कि जब दुनिया में आबादी बहुत बढ़ जाएगी और पानी का संकट बेलगाम हो जाएगा, तब हमें इन ध्रुवों की ओर देखना पड़ेगा। हमारी ऊल-जुलूल हरकतों से हिमालय के आदि ग्लेश्यिर पिघलने लगे हैं। जब लोगों की फौज इन ध्रुवों की ओर बढ़ेगी, तो उनका और हमारे इस भूमंडल का क्या हाल होगा?

यही नहीं, आबादी में बढ़ोतरी के साथ हमें दूसरे ग्रहों पर भी बस्तियां बसानी पड़ सकती हैं। चंद्रमा और मंगल पर इस दिशा में काम भी चल रहा है। पर ये दूर की कौड़ियां हैं। सबसे बड़ी आशंका तो यह है कि तमाम सभ्यताएं और संस्कृतियां गड्ड-मड्ड हो सकती हैं। सुकून और संसाधन की तलाश में बड़ी संख्या में लोग दूसरे देशों और महाद्वीपों की ओर रुख करेंगे। इससे पुराने समाजों के विलीनीकरण का खतरा पैदा हो गया है, पर भय खाने की जरूरत नहीं है। विज्ञान ने जिस प्रकार दूरियों को मिटाया है, उससे इस स्थिति में बदलाव जरूरी भी हो गया है। हमें इसके लिए खुद को तैयार कर लेना चाहिए। चलते-चलते एक बात और। कल इंदिरा गांधी का शहादत दिवस भी है। अपने ही आवास में आतंक का शिकार बनने वाली वह दुर्भाग्य से पहली और सौभाग्य से अब तक की अकेली प्रधानमंत्री हैं। दु:खद मौत के 27 बरस बाद भी देश के लोग उन्हें तमाम कारणों से याद रखते हैं। हर क्षण चेहरे बदलने को तत्पर वक्त के इस दौर में यह दुर्लभ है।

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