शनिवार, अक्टूबर 08, 2011

प्रकाश की गति का आकलन, अद्भुत रसायन शॊध, धातुकर्म कौशल - ऋग्वेद

प्रकाश की गति का आकलन - ऋग्वेद

05 अक्टूबर 2011 को 07:29 बजे पर
वेदों में देवताओं की स्तुति हेतु अनेक ऋचाएँ पढ़ने के लिए मिलती हैं। ऋग् वेद में सूर्य की स्तुति के लिए एक ऋचा हैः

तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कुदसि सूर्य। विश्वमाभासि रोचनम्

इस ऋचा को पढ़कर सायनाचार्य (c.1300's) ने टिप्पणी के रूप में सूर्य की एक और स्तुति लिखी, जो इस प्रकार हैः

तथा च स्मर्यते योजनानां सहस्त्रं द्वे द्वे शते द्वे च योजने एकेन निमिषार्धेन क्रममाण नमोऽस्तुते॥

यहाँ पर "द्वे द्वे शते द्वे" का अर्थ है "2202" और "एकेन निमिषार्धेन" का अर्थ "आधा निमिष" है। अर्थात सूर्य की स्तुति करते हुए यह कहा गया है कि सूर्य से चलने वाला प्रकाश आधा निमिष में 2202 योजन की यात्रा करता है।

आइए योजन और निमिष को आज प्रचलित इकाइयों में परिवर्तित करके देखें कि क्या परिणाम आता हैः

अब तक किए गए अध्ययन के अनुसार एक योजन 9 मील के तथा एक निमिष 16/75 याने कि 0.213333333333333 सेकंड के बराबर होता है।

2202 योजन = 19818 मील = 31893.979392 कि.मी.

आधा निमष = 0.106666666666666 सेकंड

अर्थात् सूर्य का प्रकाश 0.106666666666666 सेकंड में 19818 मील (31893.979392 कि.मी.) की यात्रा करता है।

याने कि प्रकाश की गति 185793.750000001 मील (299006.056800002) कि.मी. प्रति सेकंड है।

वर्तमान में प्रचलित प्रकाश की गति लगभग 186000 मील (3 x 10^8 मीटर) है जो कि सायनाचार्य के द्वारा बताई गई प्रकाश की गति से लगभग मेल खाती है। http://vishvaguru.blogspot.com/
EarthSun.jpeg (394×299)
आखिर सायनाचार्य ने ऋग वेद के उस ऋचा को पढ़कर टिप्पणी में प्रकाश की गति दर्शाने वाली सूर्य की स्तुति कैसे लिखी? कहीं ऋग वेद की वह ऋचा कोई कोड तो नहीं है जिसे सायनाचार्य ने डीकोड किया?

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पुं० [सं० स-अयन, ब० स०] १. आरंभिक भारतीय वैद्यक में औषध, चिकित्सा आदि के क्षेत्रों में रस अर्थात् पारे का प्रयोग करने की कला या विद्या। २. परवर्ती काल में उक्त कला के आधार पर पारे के प्रयोगों से धातुओं आदि में अद्भुत और असाधारण तात्त्विक परिवर्तन कर दिखाने अथवा उन्हें भस्म करने की कला या विद्या जिसके फलस्वरूप आगे चलकर भारत, पश्चिमी एशिया तथा यूरोप के कुछ देशों में बहुत से लोग इस बात की छानबीन और प्रयोग करने लगे थे कि पीतल लोहे आदि को किस प्रकार सोने के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। कीमियागारी। विशेष—पाश्चात्य देशों में इसी प्रकार के प्रयोग करते-करते कुछ लोगों ने वे तत्त्व और सिद्धान्त ढूँढ़ निकाले थे, जिनके आधार पर आधुनिक रसायन-शास्त्र (देखें) का विकास हुआ है। ३. परवर्ती भारतीय वैद्यक में कुछ विशिष्ट प्रकार के ऐसे औषध या दवाएँ जिनके संबंध में यह माना जाता है कि इनके सेवन से मनुष्य कभी बीमार या बुड्ढा नहीं हो सकता और उसमें फिर नया जीवन और युवावस्था आ जाती है। ४. आधुनिक भारतीय वैद्यक में कुछ विशिष्ट प्रकार की ओषधियों से बनी हुई कुछ ऐसी दवाएँ जो मनुष्यों का बल-वीर्य आदि बढ़ानेवाली मानी जाती है। जैसे—आमलक रसायन, ब्राह्मी, रसायन, हरीतकी रसायन आदि। ५. तक्र। मठा। ६. बायबिंडग। बिंडग। ७. जहर। विष। ८. कटि। कमर। ९. गरुड़ पक्षी।

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रसार्णव नामक ग्रंथ में विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाओं में प्रयुक्त होने वाले तत्कालीन उत्प्रेरकों, रासायनिक अभिक्रियाओं को तीव्रता प्रदान करने वाले पदार्थ जिनमें से अधिकांश वानस्पतिक श्रोतों से प्राप्त किये जाते थे, का उल्लेख है। इसी ग्रंथ में कॉपर सल्फाइड, मैगनीज डाइऑक्साइड, कॉपर कार्बोनेट आदि यौगिकों के रंग, प्रकृति एवं उनके द्वारा दी जाने वाली लौ के वर्ण आदि की भी सटीक एवं आधुनिक ज्ञान के संगत जानकारी है। रस रत्नाकर में वनस्पतियों से कई प्रकार के अम्ल और क्षार की प्राप्ति की भी विधियां वर्णित हैं।

पेड़-पौधों का रस
अधिकतर आयुर्वेद औषधियां वानस्पतिक श्रोतों अथवा धातुओं से विरचित होती है। इसके लिए चरक ने जहां पेड़-पौधों के रस प्राप्त करने के लिए उन्हें उबालने, आसवन एवं निक्षालन प्रक्रमों को विस्तार से बताया है, वहीं धातुओं की भस्मों (आक्साइड) अथवा माक्षिकों (सल्फाइड) आदि को तैयार करने की विधियों का भी सांगोपांग वर्णन किया है। अत्यंत रोचक बात तो यह है कि भिन्न-भिन्न क्रियाओं के लिए उपयुक्त भिन्न ताप उत्पन्न करने के लिए अलग-अलग वृक्षों की लकड़ियों के उपयोग का विधान किया गया है।

आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण में गंधक का विशेष महत्व है। यह बहुधा प्रकृति में मुक्त अवस्था में उपलब्ध होता है। यद्यपि संयुक्त अवस्था में भी सल्फाइड एवं सल्फेट के रूप में इसके भंडार मिलते हैं। संस्कृत साहित्य में गंधक के तीन प्रकार बताए गए हैं। यद्यपि केवल एक पीला गंधक ही आज के रासायनिक ज्ञान में फिट बैठता है। विभिन्न श्रोतों से प्राप्त गंधक के शुद्धिकरण की जो प्रक्रिया रसार्णव में वर्णित है वह आज के फ्र्ाश एवं ली ब्लांश विधियों से काफी सीमा तक मिलती जुलती है। रसजलनिधि ग्रंथ में तो शुद्ध अवस्था में गंधक प्राप्त करने की चार विधियां बताई गई हैं।

धातुओं से शीघ्र संयुक्त हो जाने की प्रकृति के कारण ही गंधक को रसजलनिधि में शुल्वारि अथवा धातुओं का शत्रु कहा गया है।http://vishvaguru.blogspot.com/

धातु मिश्रणन
प्राचीन भारतीय रसायनज्ञों को धातु मिश्रणन का भी ज्ञान था। यह छांदोग्य उपनिषद के इस कथन से सिद्ध होता है कि स्वर्ण जोड़ने के लिए सुहागा, चांदी के लिए स्वर्ण एवं वंग के लिए सीसा का प्रयोग किया जाना चाहिए।

प्राचीन भारत में रसायन के सिद्धांतों का ज्ञान इस सीमा तक था कि उन्हें वातावरण में नमी, ऑक्सीजन तथा अनेक अम्लीय अथवा क्षारीय पदार्थों के संपर्क में धातुओं के संक्षारण का तथ्य भी ज्ञात था। याज्ञवल्कय स्मृति में संक्षारित धातुओं को अम्ल अथवा क्षार की सहायता से शुद्ध करने का विधान भी दिया गया है। रसार्णव में यह भी बताया गया है कि वंग, सीसा, लोहा, तांबा, रजत और स्वर्ण में स्वत: संक्षारण की प्रवृत्ति इसी क्रम में घटती जाती है जो आधुनिक रसायनशास्त्र के संगत है।

संक्षारण एवं अन्य प्राकृतिक आक्रमणों से वस्तुओं को दस हजार वर्षों तक सुरक्षित रखने के लिए वराहमिहिर की वृहत संहिता में वज्र लेप एवं वज्र संघट्ट के प्रयोग की अनुशंसा है। वज्र लेप को वानस्पतिक एवं वज्र संघट्ट को जैविक श्रोतों से निर्मित करने की विधियां भी वर्णन की गई हैं। शुक्र नीति में कोयला, गंधक, शोरा, लाल आर्सेनिक, पीत आर्सेनिक, आक्सीकृत सीसा, सिंदूर, इस्पात का चूरा, कपूर, लाख, तारपीन एवं गोंद के भिन्न-भिन्न अनुपातों में मिश्रण को गर्म कर अनेक प्रकार के विस्फोटकों के निर्माण की चर्चा की गई है।

प्राचीन भारतीय रसायन साहित्य में सर्वाधिक समृद्ध अध्याय मिश्र धातुओं का है। पुरातात्विक प्रमाण सिद्ध करते हैं कि ईसाई युग के प्रारंभ के सहस्रों वर्ष पहले से भारतीयों को मिश्र धातुओं और उनके महत्व का ज्ञान था। व्रोंज एवं पीतल के नमूने लगभग सभी उत्खनन स्थलों से प्राप्त हुए हैं और वेदों में भी इनका उल्लेख मिलता है। संस्कृत में तो जस्त का एक नाम सुवर्णकार इसीलिए है क्योंकि उसका संयोग तांबे को स्वर्ण समान धातु (पीतल) में परिवर्तित कर देता है। वस्तुत: वेदों में तथा रसार्णव, अर्थशास्त्र, अष्टाध्यायी एवं रसरत्न समुच्चय आदि ग्रंथों में पीतल को भी सुवर्ण कहकर ही पुकारा गया है।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में चार प्रकार की सिक्का धातुएं वर्णित हैं-मशकम, अर्धमशकम, काकनी एवं अर्धकाकनी। ये सभी रजत, तांबा, लोहा, वंग और सीसा अथवा एंटिमनी को विभिन्न अनुपातों में मिलाकर बनाई जाती थीं। इसी प्रकार चांदी एवं पारद की भी कई वर्णों वाली मिश्र धातुएं बनाई जाती थीं। वंग की भी सोने के वर्ण वाली कई मिश्र धातुएं अभ्रक, तांबा, चांदी और पारे के संयोग से विरचित की जाती थीं। स्वर्ण की तो अनेक मिश्र धातुएं ज्ञात थीं।

स्वर्ण जैसे रंग वाली पीतल धातु तांबे और जस्त के मुख्यत: दो प्रकार के अनुपातों से बनाई जाती थीं और इनके नाम रीतिका एवं काकतुंडी थे। जस्त का मिश्रणन सीधे ही अथवा जस्त अयस्क (कैलामाइन) के रूप में किया जाता था। सीधे कैलामाइन के उपयोग से पीतल निर्माण आज प्रचलित नहीं है। अयस्क वाले पीतल में जस्त २८ प्रतिशत जबकि दूसरे में यह कम ही यानी ६ प्रतिशत होता था और यही पीतल आज के व्रोंज पीतल के समकक्ष ठहरता है। अधिक जस्त वाले ४० प्रतिशत तक कई प्रकार के पीतल भी आजकल तैयार किये जाते हैं। व्रोंज भी आज की भांति कई प्रकार के होते थे जिनमें तांबा ८०-९० प्रतिशत तक हो सकता था। शेष जस्त एवं टिन होता था। मूर्ति निर्माण में पंचलोहा का प्रयोग किया जाता था, जिसमें वंग, तांबा, सीसा, लोहा एवं रजत का मिश्रण होता था (चरक संहिता)। कभी-कभी रजत के स्थान पर पीतल का प्रयोग किया जाता था (रसरत्न समुच्चय)। मंदिरों में आकर्षक ध्वनि उत्पन्न करने वाले घंटे न हों तो मंदिर ही क्या। इनके लिए तांबा और वंग विभिन्न अनुपातों में मिलाए जाते थे। आज के ‘बेल मेटल‘ में भी ८० प्रतिशत सीयू एवं २० प्रतिशत एसएन होता है। कुछ अन्य धातुएं भी लेशमात्र उपस्थित हो सकती है। http://vishvaguru.blogspot.com/

शोध की आवश्यकता
विशिष्ट तकनीकी उपयोग के लिए कुछ अत्यंत विचित्र मिश्र धातुएं तैयार की जाती थीं। कुछ के संघटन समझ में आते हैं और कुछ अति प्राचीन संस्कृत नामों के कारण बुद्धि से परे जान पड़ते हैं। इन सभी पर शोध की नितांत आवश्यकता है। रहस्योद्घाटन हो जाने पर मानवता को अपरिमित लाभ होने की पूर्ण संभावना है। भारद्वाज मुनि के वृहद विमान शास्त्रम्‌ में विमान के यात्री कक्ष को शीतल रखने के लिए विद्युत दर्पण नामक यंत्र को तड़ित दर्पण मिश्र धातु से बनाने का विधान है जिसके विरचन के लिए १६ पदार्थों की सूची है। इनमें से अनेक अज्ञात हैं। वैमानिकी में काम आने वाली कुछ अन्य विचित्र सी लगने वाली मिश्र धातुएं इस प्रकार हैं-‘एअरोडाइनेमिक कंट्रोल‘ के कई उपकरणों के लिए अरारा ताम्र धातु का विधान है जिसमें ८४.२प्रतिशत तांबा, १५-१८प्रतिशत वंग एवं ०.०२प्रतिशत सीसा अपेक्षित था। यह मिश्र धातु आज के फॉस्फर व्रोंज से मिलती जुलती है जिसका गलनांक १००० डिग्री होता है। बाजीमुख लौह (लौह तंत्र) कुछ-कुछ फोम की प्रकृति की अत्यंत नरम, पीले रंग की मिश्र धातु है जो ध्वनि शोषक का कार्य करती थी। यह तांबा, आयरन, पायराइटीज, जस्त, सीसा, लोहा, वंग, तांबे की एक श्तेवर्णी मिश्र धातु, पंचानन, अभ्रक एवं सोंठ के मिश्रण से तैयार की जाती थी। शक्ति गर्भ लौह के लिए कांटा (कास्ट आयरन) ३७ प्रतिशत, क्रौंचिका स्टील ३३प्रतिशत तथा सामान्य लौह अथवा कोई भिन्न स्टील ३३ प्रतिशत का मिश्रण अनुशंसित है। इसी प्रकार एक अत्यंत हल्की यद्यपि कठोर मिश्र धातु बैडाल लौह १५ तथा घंटारव लौह १२ पदार्थों के मिश्रण से बनाई जाती थी, जिनमें से अनेक नाम अभी समझने शेष हैं।

शत्रु विमान से बचने के लिए अथवा उन पर आक्रमण के लिए विषैली धूम फेंकने वाले यंत्र के निर्माण के लिए क्षौंडीर लौह मिश्र धातु की अनुशंसा है जिसके निर्माण में पारद, वीरा, क्रौंचिका, कास्ट आयरन, रजत, माध्विकम एवं वंग की आवश्यकता पड़ती थी। त्रिपुर विमान जो संभवत: अंतरिक्ष विमान था, में लगे यंत्रों के निर्माण के लिए अनेक मिश्र धातुओं का वर्णन है जिसमें से एक त्रिनेत्र लौह है जो संभवत: क्रोम वैनेडियम स्टील था-यद्यपि उसका संघटन आज के इस प्रकार के स्टील से भिन्न था।

हमारी रसायन संबंधी विरासत विशाल है। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि अनेक रासायनिक प्रक्रियाओं के संपादन के लिए आवश्यक रसायन एवं अभिकर्मक वानस्पतिक तथा जैविक स्रोतों से प्राप्त किए जाते थे। उत्प्रेरकों, अम्लों एवं क्षारों पर भी यह बात लागू होती है। इसी कारण प्राचीन भारतीय रसायन का रूप आधुनिक रसायन की अपेक्षा कम प्रदूषणकारी था।
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सैद्धांतिक रसायन शास्त्र का मूलाधार परमाणुओं की प्रकृति का सही ज्ञान एवं उनमें परस्पर बंधता का गुण है। परमाणु संबंधी आधुनिक मान्यता के आदि पुरुष डाल्टन माने जाते हैं। परंतु उनसे बहुत पहले ईसा से ६०० वर्ष पूर्व ही कणाद मुनि ने परमाणुओं के संबंध में जिन धारणाओं का प्रतिपादन किया, उनसे आश्चर्यजनक रूप से डाल्टन की संकल्पना मेल खाती है। कणाद ने न केवल परमाणुओं को तत्वों की ऐसी लघुतम अविभाज्य इकाई माना जिनमें इस तत्व के समस्त गुण उपस्थित होते हैं बल्कि ऐसी इकाई को ‘परमाणु‘ नाम भी उन्होंने ही दिया तथा यह भी कहा कि परमाणु स्वतंत्र नहीं रह सकते।http://vishvaguru.blogspot.com/

कणाद की धारणा
कणाद की परमाणु संबंधी यह धारणा उनके वैशेषिक सूत्र में निहित है। कणाद आगे यह भी कहते हैं कि एक प्रकार के दो परमाणु संयुक्त होकर ‘द्विणुक‘ का निर्माण कर सकते हैं। यह द्विणुक ही आज के रसायनज्ञों का ‘वायनरी मालिक्यूल‘ लगता है। उन्होंने यह भी कहा कि भिन्न भिन्न पदार्थों के परमाणु भी आपस में संयुक्त हो सकते हैं। यहां निश्चित रूप से कणाद रासायनिक बंधता की ओर इंगित कर रहे हैं। वैशेषिक सूत्र में परमाणुओं को सतत गतिशील भी माना गया है तथा द्रव्य के संरक्षण (कन्सर्वेशन आफ मैटर) की भी बात कही गई है। ये बातें भी आधुनिक मान्यताओं के संगत हैं।

रासायनिक बंधता को और अधिक स्पष्ट करते हुए जैन दर्शन में कहा गया है कि कुछ परमाणुओं में स्निग्धता और कुछ में ‘रुक्षता‘ के गुण होते हैं तथा ऐसी भिन्न प्रकृति वाले परमाणु आपस में सहजता से संयुक्त हो सकते हैं जबकि समान प्रकृति के परमाणुओं में सामान्यत: संयोग की प्रवृत्ति नहीं होती। ऐसा आभास होता है कि जैसे आयनी बंधता की व्याख्या की जा रही है।

प्रायोगिक रसायन में काम आने वाले उपकरणों पर भी प्राचीन भारतीय रसायन शास्त्र में विस्तार से चर्चा हुई है। रासायनिक प्रयोगों एवं औषधि विरचन के लिए रसायनज्ञ ३२ कोटि के उपकरणों का प्रयोग अपनी प्रयोगशाला में करते थे, जिनकी सहायता से आसवन, संघनन, ऊर्ध्वपातन, द्रवण आदि सभी प्रकार की क्रियाएं संपादित की जा सकती थीं। इनमें से बहुतों का व्यवहार आज भी औषधि विरचन के लिए वैद्य कर रहे हैं। प्रयोगशालाओं के लेआउट का भी वर्णन रसरत्न समुच्चय में मिलता है। ग्रंथों में अनेक प्रकार की कुंडियों, भठ्ठियों, धौंकानियों एवं क्रूसिबिलों के विशद विवरण उपलब्ध हैं। इनकी भिन्नता धातुकर्म अथवा रासायनिक प्रयोगों के लिए उपयुक्त ताप प्रदान करने की उनकी क्षमता के कारण थी। रसरत्न समुच्चय में महागजपुट, गजपुट, वराहपुट, कुक्कुटपुट एवं कपोतपुट भठ्ठियों का वर्णन है, जो केवल प्रयुक्त उपलों की संख्या और उनकी व्यवस्था के आधार पर ७५०० से ९००० तक का भिन्न-भिन्न ताप उत्पन्न करने में समर्थ थीं। उदाहरणार्थ, महागजपुट के लिए २०००, परंतु निम्नतम ताप उत्पन्न करने वाली कपोतपुट के लिए केवल ८ उपलों की आवश्यकता पड़ती थी। इनके द्वारा उत्पन्न तापों की भिन्नता आधुनिक तकनीकी द्वारा सिद्ध हो चुकी है। ९००० से भी अधिक ताप के लिए वाग्भट्ट ने चार भठ्ठियों का वर्णन किया है- अंगारकोष्ठी, पातालकोष्ठी, गोरकोष्ठी एवं मूषकोष्ठी। पातालकोष्ठी का वर्णन लोहे के धातुकर्म में प्रयुक्त होने वाली आधुनिक ‘पिट फर्नेस‘ से अत्यधिक साम्य रखता है। धातु प्रगलन के लिए भट्ठियों से उच्च ताप प्राप्त करने के लिए भारद्वाज मुनि के वृहद्‌ विमान शास्त्र में ५३२ प्रकार की धौंकनियों का वर्णन किया गया है। इसी ग्रंथ में ४०७ प्रकार की क्रूसिबिलों की भी चर्चा की गई है। इनमें से कुछ के नाम हैं- पंचास्यक, त्रुटि, शुंडालक आदि। सोमदेव के रसेंद्र चूड़ामणि में पारद-रसायन के संदर्भ में जिस ऊर्घ्वपातन यंत्र तथा कोष्ठिका यंत्र का वर्णन है, उसका आविष्कार किसी नंदी नामक व्यक्ति ने किया था।http://vishvaguru.blogspot.com/

धातुकर्म कौशल
रसायन के क्षेत्र में विश्व में प्राचीन भारत की प्रसिद्धि मुख्यत: अपने धातुकर्म कौशल के लिए रही है। मध्यकाल में भारत का इस्पात यूरोप, चीन और मध्यपूर्व के देशों तक पहुंचा। इतिहास में दमिश्क की जिन अपूर्व तलवारों की प्रसिद्धि है वे दक्षिण भारत के इस्पात से ही बनाई जाती थीं। आज से १५०० वर्ष पूर्व निर्मित और आज भी जंग से सर्वथा मुक्त दिल्ली के महरौली का स्तंभ भारतीय धातुकर्म की श्रेष्ठता का प्रतीक है। यही बात व्रिटिश म्यूजियम में रखे बिहार से प्राप्त चौथी शताब्दी की तांबे से बनी बुद्ध की २.१ मीटर ऊंची मूर्ति के बारे में भी कही जा सकती है। भारत में अत्यंत शुद्ध जस्ता एवं पीतल के उत्पादन भी प्रमाणित हैं।

कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र‘ में क़ड्ढ, क्द्व, ॠढ़, ॠद्व, घ्ड (लोहा, तांबा, रजत, स्वर्ण, सीसा) एवं च्द (टिन) धातुओं के अयस्कों की सटीक पहचान उपलब्ध है। लोहे के लिए रक्ताभ भूरे हेमेटाइट (सिंधुद्रव) एवं कौवे के अंडे के रंग वाले मैग्नेटाइट (बैक्रुंटक) तांबे के लिए कॉपर पाइराइटिज, मैलाकाइट, एज्यूराइट एवं नेटिव कॉपर, रजत के लिए नेटिव सिल्वर, स्वर्ण के लिए नेटिव गोल्ड, सीसा के लिए रजत अथवा स्वर्ण मिश्रित गैलेना एवं बंग के लिए कैसेटिराइट अयस्कों की उनके रंगों के आधार पर पहचान वर्णित है। संस्कृत साहित्य में पारद के सिनाबार तथा जस्त के कैलामाइन अयस्कों का समुचित वर्णन उपलब्ध है। अर्थशास्त्र में ही अनेकों अयस्कों में मिश्रित कार्बनिक अशुद्धियों से मुक्ति की क्रिया भी वर्णित है। इसके लिए उच्च ताप पर गर्म कर विघटित करने का विधान है। अकार्बनिक अशुद्धियों से मुक्ति के लिए रसरत्न समुच्चय में अयस्क के साथ बाह्य पदार्थ, फ्लक्स को मिलाकर और इस मिश्रण को गर्म कर उन्हें धातुमल के रूप में अलग कर देने का विधान है। धातु विरचन के सभी उत्खनन स्थलों पर ये फ्लक्स प्राप्त हुए हैं। उदाहरणार्थ, सिलिका के निष्कासन के लिए चूना पत्थर का प्रयोग आम बात थी ताकि कैल्सियम सिलिकेट पृथक हो सके। ये सभी बातें आज के धातुकर्म विज्ञान से असंगत हैं। सामान्य धातुओं में लोहे का गलनांक सर्वाधिक है- १५०००। हमारे वैज्ञानिक पूर्वज इस उच्च ताप को उत्पन्न करने में सफल रहे थे। बताया ही जा चुका है कि इसके लिए प्रयुक्त पातालकोष्ठी भठ्ठी आज की पिट फर्नेस से मिलती-जुलती थी। अन्य तीन भठ्ठियों-अंगारकोष्ठी, मूषकोष्ठी एवं गारकोष्ठी के उपयोग की भी अनुशंसा वाग्भट्ट ने की है। वाग्भट्ट ने ही लौह धातुकर्म के लिए भर्जन एवं निस्पातन क्रियाओं का भी सांगोपांग वर्णन किया है। लौह अयस्क के निस्पातन के लिए हिंगुल (गंधक एवं पारद) का उपयोग किया जाता था तथा भर्जन के लिए छिछली भठ्ठियों की अनुशंसा की गई है, जो पूर्णत: वैज्ञानिक है। इन प्रक्रियाओं में आक्सीकृत आर्सेनिक, गंधक, कार्बन आदि मुक्त हो जाते थे तथा फेरस आक्साइड, फेरिक में परिवर्तित हो जाता था। सुखद आश्चर्य की बात है कि रसरत्न समुच्चय में छह प्रकार के कार्बीनीकृत इस्पातों का उल्लेख है। बृहत्त संहिता में लोहे के कार्बोनीकरण की विधि सम्पूर्ण रूप से वर्णित है।http://vishvaguru.blogspot.com/

इतिहास-सम्मत तथ्य
यह इतिहास सम्मत तथ्य है कि विश्व में तांबे का धातुकर्म सर्वप्रथम भारत में ही प्रारंभ हुआ। मेहरगण के उत्खनन में तांबे के ८००० वर्ष पुराने नमूने मिले हैं। उत्खनन में ही अयस्कों से तांबा प्राप्त करने वाली भठ्ठियों के भी अवशेष मिले हैं तथा फ्लक्स के प्रयोग से लौह को आयरन सिलिकेट के रूप में अलग करने के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं।

नागार्जुन के रस रत्नाकर में अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन विधि वर्णित है। ऐसी ही विधि रसरत्न समुच्चय तथा सुश्रुत एवं चरक संहिताओं में भी दी गई है तथा आसवन के लिए ढेंकी यंत्र की अनुशंसा की गई है। स्मरणीय है कि इस विधि का आधुनिक विधि से आश्चर्यजनक साम्य है। चरक ने पारद के शोधन की १०८ विधियां लिखी हैं।

गोविंद भागवत्पाद ने अपने रस हृदयतंत्र में पारद को सीसा एवं वंग से पृथक करने की विधि लिखी है। रसार्णवम में वंग के धातुकर्म का वर्णन करते हुए सीसा के धातुकर्म का भी उल्लेख किया गया है। सीसा को अयस्क से प्राप्त करने के लिए हाथी की हड्डियों तथा वंग के लिए भैंसे की हड्डियों के प्रयोग का विधान दिया गया है। स्पष्टत: हड्डियों का कैल्सियम फ्लक्स के रूप में कार्य करते हुए अशुद्धियों को कैल्सियम सिलिकेट धातुमल के रूप में पृथक कर देता था। आज भी आधारभूत प्रक्रिया यही है यद्यपि कैल्सियम को जैविक श्रोत के रूप में न प्रयोग कर अकार्बनिक यौगिक के रूप में मिलाया जाता है। कैसेटिराइट के आक्सीकृत वंग अयस्क के अपचयन के लिए विशिष्ट वनस्पतियों की अनुशंसा की गई है, जो कार्बन के श्रोत का कार्य करती थीं।http://vishvaguru.blogspot.com/

अद्भुत मिश्र धातु
जस्त एवं अन्य धातु, जो प्राचीन भारत में अपनी अद्भुत मिश्र धातु निर्माण क्षमता के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण थी, इन्हें कैलेमाइन अयस्क से प्राप्त किया जाता था। इसके धातुकर्म की भठ्ठियां, जो राजस्थान में प्राप्त हुई हैं, वे ईसा पूर्व ३००० से २००० वर्ष पूर्व तक की हैं। धातुकर्म में मुख्य पद आसवन का ही है जो आधुनिक समय में भी प्रासांगिक है। रसरत्न समुच्चय में संपूर्ण विधि वर्णित है। स्मरणीय है कि १५९७ में लिबावियस नामक व्यक्ति इसे भारत से लेकर यूरोप पहुंचा। १७४३ में विलियम चैंपियन नामक अंग्रेज ने कैलामाइन अयस्क आधारित धातुकर्म के आविष्कार का दावा करते हुए इसके पेटेंट के लिए प्रार्थना पत्र दिया। परंतु कलई खुल गई और पता चला कि वह समस्त तकनीकी भारत में राजस्थान की जवार खानों से लेकर गया था। इसके लिए उसकी अत्यधिक भर्त्सना की गई।

नागार्जुन के रस रत्नाकर में रजत के धातुकर्म का वर्णन तो विस्मयकारी है। नेटिव सिल्वर (अशुद्ध रजत) को सीसा और भस्म के साथ मिलाकर लोहे की कुंडी में पिघलाइये, शुद्ध रजत प्राप्त हो जाएगा। गैलेना अयस्क, जो रजत और सीसे का एक प्रकार का एलाय है, को तो बिना बाहर से सीसा मिलाए ही गलाये जाने का विधान है। यह विधि आज की क्यूफ्लेशन विधि से आश्चर्यजनक साम्य रखती है। अंतर केवल इतना है कि आज की विधि में क्यूपेल (कुंडी) के अंदर किसी संरंध्र पदार्थ का लेप किया जाता है जबकि प्राचीन काल में बाहर से मिलाई गई भस्म यही कार्य करती थी। दृष्टव्य है कि कौटिल्य के काल में लोहे की कुंडी के स्थान पर खोपड़ी के प्रयोग का वर्णन है। यहां यह खोपड़ी भी संरंध्र पदार्थ का ही कार्य करती थी, जिसमें सीसा अवशोषित हो जाता होगा।


कौटिल्य ने लिखा है कि स्वर्ण को नेटिव रूप में नदियों के जल अथवा चट्टानों से प्राप्त किया जा सकता है। ऐसी चट्टानें पीताभ अथवा हल्के पीत-गुलाबी रंग की होती हैं और इन्हें तोड़ने पर नीली धरियां दृश्य हो जाती हैं। यह अत्यंत सटीक वर्णन है। अत्यंत शुद्ध धातु की प्राप्ति के लिए जैविक पदार्थों के साथ गर्म करने का विधान है। सीसे के साथ मिलाकर भी शुद्ध करने की अनुशंसा है जो आज की पद्धति में कोई स्थान नहीं रखती।http://vishvaguru.blogspot.com/
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