शनिवार, सितंबर 01, 2018

हिन्दू कौन.................?

हिन्दू कौन.................? "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं!" इस उद्घोष की घोषणा करने वाले सम्भवतया न जानते होंगे कि हिन्दू कौन हैं? और जाने भी कैसे? इस तथ्य को ना तो भारत सरकार जानती है ना उच्चतम न्यायालय और ना ही भारतीय संसद! और जाने भी कैसे! क्योंकि "हिन्दू" अपरिभाषेय है! जैसे परमात्मा का अशेषतः वर्णन नहीं किया जा सकता है वैसे ही हिन्दू का भी नहीं! ** ** ** ** ** एक सामाजिक कार्यकर्ता ने भारत सरकार के गृह मन्त्रालय से भारत के संविधान और कानून के अनुसार हिन्दू शब्द की परिभाषा पूछी। गृह मन्त्रालय के केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी ने कहा कि इसकी उनके पास कोई जानकारी नहीं है! यह १२ अक्टूबर २०१५ के दैनिक भास्कर के अजमेर संस्करण में प्रकाशित भी हुई थी। ** ** ** ** ** डा. धर्मवीर ने ऊपरोक्त परिपेक्ष्य में अपने लेख में लिखा था- "यह एक विडबना है कि दुनिया के सारे देशद्रोही मिलकर हिन्दू को समाप्त करने पर तुले हैं और इस देश में रहने वाले को पता तक नहीं है कि वह हिन्दू क्यों है? और वह हिन्दू नहीं तो हिन्दू कौन है? आज आप हिन्दू की परिभाषा करना चाहे तो आपके लिये असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। आज किसी एक बात को किसी भी हिन्दू पर घटा नहीं सकते! हिन्दू समाज की कोई मान्यता, कोई सिद्धान्त, कोई भगवान् कुछ भी ऐसा नहीं है, जो सभी हिन्दुओं पर घटता हो और सभी को स्वीकार्य हो। हिन्दू समाज की मान्यतायें परस्पर इतनी विरोधी हैं कि उनको एक स्वीकार करना संभव नहीं है। ईश्वर को एक ओर निराकार मानने वाला भी हिन्दू है, तो साकार मानने वाले भी हिन्दू हैं। वेद की पूजा करने वाले भी हिन्दू हैं, वेद की निन्दा करने वाले भी हिन्दू! इतने कट्टर शाकाहारी हिन्दू हैं कि वे लाल मसूर या लाल टमाटर को मांस से मिलता-जुलता समझकर अपनी पाकशाला से भी दूर रखते हैं, इसके विपरीत काली माता पर बकरे, मुर्गे, भैसों की बलि देकर भी ईश्वर को प्रसन्न करनेवाले भी हिन्दू हैं। केवल शरीर के अस्तित्व को ही समझने वाले हिन्दू हैं, तो दूसरे जीव को ब्रह्म का अंश मानने वाले भी हिन्दू हैं! ऐसी परिस्थिति में आप किन शब्दों में हिन्दू को परिभाषित करेंगे। आज के विधान से जहाँ अपने को सभी अल्पसंख्यक घोषित कराने की होड़ में लगे हैं! तो बौद्ध, जैन, सिक्ख, राम-कृष्ण मठ..... आदि अपने को हिन्दू से इतर भी बताने लगे हैं! फिर आप हिन्दू को कैसे परिभाषित करेंगे? परिभाषित करने का कोई न कोई आधार तो होना चाहिए।" ** ** ** ** ** डॉ धर्मवीर आगे लिखते हैं- "हिन्दू को परिभाषित करने के हमारे पास दो आधार बड़े और महत्त्वपूर्ण हैं- एक आधार हमारा भूगोल और दूसरा आधार हमारा इतिहास है। हमारा भूगोल तो परिवर्तित होता रहा है, कभी हिन्दुओं का शासन अफगानिस्तान, ईरान तक फैला था तो आज पाकिस्तान कहे जाने वाले भू-भाग को आप हिन्दू होने के कारण अपना नहीं कह सकते! परन्तु हिन्दू के इतिहास में आप उसे हिन्दू से बाहर नहीं कर सकते। भारत पाकिस्तान के विभाजन का आधार ही हिन्दू और मुसलमान था। फिर हिन्दू की परिभाषा में विभाजन को आधार तो मानना ही पड़ेगा। उस दिन जिसने अपने को हिन्दू कहा और भारत का नागरिक बना; उस दिन वह हिन्दू ही था, आज हो सकता है वह हिन्दू न रहा हो! हिन्दू कोई थोड़े समय की अवधारणा नहीं है। हिन्दू शब्द से जिस देश और जाति का इतिहास लिखा गया है, उसे आज आप किसी और के नाम से पढ़ सकते हैं। इस देश में जितने बड़े विशाल भू-भाग पर जिसका शासन रहा है और हजारों वर्ष के लम्बे काल खण्ड में जो विचार पुष्पित पल्लवित हुये! जिन विचारों को यहाँ के लोगों ने अपने जीवन में आदर्श बनाया, उनको जिया है, क्या उन्हें आप हिन्दू इतिहास से बाहर कर सकते हैं? उस परम्परा को अपना मानने वाला क्या अपने को हिन्दू नहीं कहेगा। हिन्दू इतिहास के नाम पर जिनका इतिहास लिखा गया, उन्हें हिन्दू ही समझा जायेगा, वे जिनके पूर्वज हैं, वे आज अपने को उस परंपरा से पृथक् कर पायेंगे? भारत की पराधीनता के समय को कौन अच्छा कहेगा! यह देश सात सौ वर्ष मुसलमानों के अधीन रहा, जो इस परिस्थिति को दुःख का कारण समझता है, वह हिन्दू है! यदि कोई व्यक्ति इस देश में औरंगजेब के शासन काल पर गर्व करे तो समझा जा सकता है वह हिन्दू नहीं है! इतिहास में शिवाजी, महाराणाप्रताप, गुरु गोविन्दसिंह जिससे लड़े वे हिन्दू नहीं थे और जिनके लिये लड़े थे वे हिन्दू हैं! क्या इसमें किसी को सन्देह हो सकता है? देश-विदेश के जिन इतिहासकारों ने जिस देश का व जाति का इतिहास लिखा, उन्होंने उसे हिन्दू ही कहा था। यही हिन्दू की पहचान और परिभाषा है। वीर सावरकर जी ने जो हिन्दू "आसिन्धु-सिन्धु-पर्यन्ता" कहकर सिन्धु प्रदेश को अपनी पुण्यभूमि-पितृभूमि के रूप में स्वीकार करते है, वह हिन्दू है, ऐसा कहकर हिन्दू को व्यापक अर्थ देने का प्रयास किया है। हिन्दू महासभा के प्रधान प्रो. रामसिंह जी से किसी ने प्रश्न किया- हिन्दू कौन है? तो उन्होंने कहा हिन्दू-मुस्लिम दंगों में मुसलमान जिसे अपना शत्रु मानता है वह हिन्दू है!" ** ** ** ** ** डा. धर्मवीर अपने उपर्युक्त लेख में आगे लिखते हैं- "मैक्समूलर ने भारत के विषय में इस प्रकार अपने विचार प्रकट किये हैं- ‘‘मानव मस्तिष्क के इतिहास का अध्ययन करते समय हमारे स्वयं के वास्तविक अध्ययन में भारत का स्थान विश्व के अन्य देशों की तुलना में अद्वितीय है। अपने विशेष अध्ययन के लिये मानव मन के किसी भी क्षेत्र का चयन करें, चाहे व भाषा हो, धर्म हो, पौराणिक गाथायें या दर्शनशास्त्र, चाहे विधि या प्रथायें हों, या प्रारंभिक कला या विज्ञान हो, प्रत्येक दशा में आपको भारत जाना पड़ेगा, चाहे आप इसे पसन्द करें या नहीं! क्योंकि मानव इतिहास के मूल्यवान् एवं ज्ञानवान् तथ्यों का कोष आपको भारत और केवल भारत में ही मिलेगा।’’ ** ** ** ** ** जब "हिन्दू-कोड-बिल" बनाया गया तो यही प्रश्न सामने आ खड़ा हुआ था कि यह किन पर लागू होगा। तब तत्कालीन विद्वानों ने हिन्दू की नकारात्मक परिभाषा की थी कि जो व्यक्ति मुसलमान, ईसाई, पारसी और यहूदी नहीं हैं उन पर यह बिल लागू होगा। अर्थात वे हिन्दू हैं। न्यायालयों में भी हिन्दू शब्द को एक जीवन पद्धति बताकर परिभाषित करने का यत्न किया था। यह भी एक अधूरा प्रयास है! ** ** ** ** ** वीर सावरकर ने हिन्दू एवं हिन्दुत्व शब्दों की एक परिभाषा दी थी जो हिन्दुत्ववादियों के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा- "आसिन्धु-सिन्धु पर्यन्ता यस्य भारत भूमिका। पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः।।" "हिन्दू वह व्यक्ति है जो भारत को अपनी पितृभूमि और अपनी पुण्यभूमि दोनों मानता है।" यद्यपि यह परिभाषा बहुत व्यापक और सटीक है तो भी यह भौगोलिक अधिक है। यदि कोई हिन्दू अमेरिका में रहता है और उसकी सन्तान वहां जन्म लेकर हिन्दू धर्म का पालन कर निष्ठावान हिन्दू का आचरण करता है तो वह भारत भूमि को अपनी पितृभूमि न मानते हुए भी हिन्दू तो माना ही जाएगा। जो अपने आपको हिन्दू परम्पराओं का पालनकर्त्ता समझता हो वह हिन्दू है। दूसरे शब्दों में कहें तो जो स्वयं को हिन्दू मानता है वह हिन्दू है। इसके लिए किसी की अनुमति, प्रमाणपत्र, पंजीकरण की आवश्यकता ही नहीं! ** ** ** ** ** राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने आपको हिन्दू समाज का संगठनकर्ता और संरक्षक मानता है। वह हिन्दू की परिभाषा कुछ इस प्रकार करता है- "जो भारतभूमि को अपनी मातृभूमि, पुण्यभूमि, महामंगला मानता है वह हिन्दू है।" वह इसे "हिन्दू-भूमि" के नाम से भी पुकारता है। हिन्दूभूमि और हिन्दुस्थान में कोई अन्तर नहीं है। कुछ विचारक भारत को हिन्दुस्थान तो कहते है पर हिन्दुभूमि नहीं कहना चाहते। वे हिन्दुओं का स्थान, हिन्दुस्थान तो कहते हैं परन्तु हिन्दूराष्ट्र, हिन्दुओं का राष्ट्र नहीं कहना चाहते! जो ऐसा नहीं चाहते वे ढोंगी और पाखण्डी हैं। वस्तुतः हिन्दुस्थान, हिन्दुभूमि और हिन्दुराष्ट्र समानार्थक शब्द हैं। इन सबका एक ही तात्पर्य है। संघ के स्वयंसेवक अपने आपको हिन्दुराष्ट्रांगभूत भी कहते हैं। वे कहते हैं- "प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्रांगभूता इमे सादरं त्वां नमामो वयम्।" हे, शक्तिमन् प्रभो! हम ये हिन्दुराष्ट्र के अंगभूत आपको सादर प्रणाम करते हैं। संघ का यह भी कहना है कि इस वाक्य को जो भी श्रद्धापूर्वक बोलता है वह हिन्दू है। भले ही उसकी उपासना पद्धति कुछ भी हो। चाहे वह पुराणी (हिन्दू), कुरानी (मुसलमान), ख्रिस्तानी (ईसाई) कुछ भी हो! हिन्दू अपने आपको आर्यों का वंशज मानते हैं। आज उनकी उपासना पद्धति आर्यों की उपासना पद्धति से कुछ भिन्न है तो भी वे अपना सम्बन्ध सगर्व आर्यों से जोड़े रखते हैं। भारत के मुसलमान भी आर्य हैं परन्तु वे इसकी सगर्व घोषणा नहीं करते! संघ के सरसंघचालक श्री बाला साहब देवरस ने कहा था कि भारत को हिन्दुओं का देश ही समझा और माना जाता है। जिसे वेद पढ़ना हो वह भारत आयेगा और जिसे बाईबिल पढ़ना हो वह वेटिकन सिटी जाएगा! ** ** ** ** ** महर्षि मनु ने धर्म के दश लक्षण गिनाते हुए कहा कि जिसमें ये पाये जाएं उसे धार्मिक व्यक्ति कहा जाएगा। उनका प्रसिद्ध श्लोक यह है- "धृतिः क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रय निग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।" धैर्य, क्षमा, दम, अचौर्य, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्ध, विद्या, सत्य और अक्रोध ये दस धर्म के लक्षण हैं। इनमें कहीं उपासना पद्धति यहां तक कि ईश्वर की आराधना करने या न करने का भी उल्लेख नहीं है। अर्थात स्पष्ट शब्दों में कहें तो, यदि कोई ललकार कर कहे कि "रे हिन्दू उठ" तो जो उठ कर खड़ा हो जाए वह हिन्दू है! ** ** ** ** ** "मन्यते कर्मसिद्धान्तं पुनर्जन्मनि वर्तते। बुद्धेःशरणमिच्छेति स हिन्दुर्नात्र संशयः।।" - गोवर्धन पटैरिया जो कर्म सिद्धान्त को मानता हो, पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार करता हो और बुद्धि की शरण में जाने की इच्छा (सभी मान्यताओं को बुद्धि से परखता हो - गायत्री मन्त्र) रखता हो वह निःसंदेह हिन्दू है। पुनः पटैरिया महोदय कहते है- "सृष्टेरादेर्प्रसूता या धारा वहति भारते। यस्तामाराधते नित्यं स हिन्दुर्नात्र संशयः।।" जो चिन्तन धारा सृष्टि के प्रारम्भ से ही भारत में प्रवाहित हो रही है उस धारा की आराधना जो करता है वह निस्संदेह हिन्दू है। ** ** ** ** ** दिसबर १८६१ के 'द कलकत्ता रिव्यू' का लेख भी पठनीय है- "आज अपमानित तथा अप्रतिष्ठित किये जाने पर भी हमें इसमें कोई सन्देह नहीं है कि एक समय था जब हिन्दू जाति, कला एवं शास्त्रों के क्षेत्र में निष्णात, राज्य व्यवस्था में कल्याणकारी, विधि निर्माण में कुशल एवं उत्कृष्ठ ज्ञान से भरपूर थी।" ** ** ** ** ** पाश्चात्य लेखक मि. पियरे लोती ने भारत के प्रति अपने विचार इन शब्दों में प्रकट किये हैं- ‘‘ऐ भारत! अब मैं तुहें आदर सम्मान के साथ प्रणाम करता हूँ। मैं उस प्राचीन भारत को प्रणाम करता हूँ! जिसका मैं विशेषज्ञ हूँ। मैं उस भारत का प्रशंसक हूँ, जिसे कला और दर्शन के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। ईश्वर करे तेरे उद्बोधन से प्रतिदिन ह्रासोन्मुख, पतित एवं क्षीणता को प्राप्त होता हुआ तथा राष्ट्रों, देवताओं एवं आत्माओं का हत्यारा पश्चिम आश्चर्य-चकित हो जाये। वह आज भी तेरे आदिम-कालीन महान् व्यक्तियों के सामने नतमस्तक है।’’ ** ** ** ** ** अक्टूबर १८७२ के 'द एडिनबर्ग रिव्यू' में लिखा है- "हिन्दू एक बहुत प्राचीन राष्ट्र है, जिसके मूल्यवान् अवशेष आज भी उपलब्ध हैं। अन्य कोई भी राष्ट्र आज भी सुरुचि और सभ्यता में इससे बढ़कर नहीं है, यद्यपि यह सुरुचि की पराकाष्ठा पर उस काल में पहुँच चुका था, जब वर्तमान सभ्य कहलाने वाले राष्ट्रों में सभ्यता का उदय भी नहीं हुआ था, जितना अधिक हमारी विस्तृत साहित्यिक खोंजें इस क्षेत्र में प्रविष्ट होती हैं, उतने ही अधिक विस्मयकारी एवं विस्तृत आयाम हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं।" ** ** ** ** ** पाश्चात्य लेखिका श्रीमती मैनिकग ने इस प्रकार लिखा है- ‘‘हिन्दुओं के पास मस्तिष्क का इतना व्यापक विस्तार था, जितनी किसी भी मानव में कल्पना की जा सकती है।’’ ** ** ** ** ** इतिहासकार काउण्ट जोर्न्स्ट जेरना ने भारत राष्ट्र प्राचीनता पर विचार करते हुए लिखा है- ‘‘विश्व का कोई भी राष्ट्र सभ्यता एवं धर्म की प्राचीनता की दृष्टि से भारत का सामना नहीं कर सकता।’’ ये पंक्तियाँ ऐसे ही नहीं लिखी गई हैं। इन लेखकों ने भारत की प्रतिभा को अलग-अलग क्षेत्रों में देखा और अनुभव किया। भारतीय विधि और नियमों को "मनुस्मृति" आदि स्मृति ग्रन्थों में, प्रशासन की योग्यता एवं मानव मनोविज्ञान का कौटिल्य अर्थशास्त्र जैसे प्रौढ़ ग्रन्थों में देखने को मिलता है। यह ज्ञान-विज्ञान हजारों वर्षों से भारत में प्रचलित है। ** ** ** ** ** महाभारत, रामायण जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थ पुराणों की कथाओं के माध्यम से इतिहास की परम्परा का होना हिन्दू समाज के गौरव के साक्षी हैं। मनु के द्वारा स्थापित वर्ण-व्यवस्था और दण्ड-विधान श्रेष्ठता में आज भी सर्वोपरि हैं। संस्कृति की उत्तमता में वैदिक संस्कृति की तुलना नहीं का जा सकती। यहा का प्रभाव संसार के अनेक देशों द्वीप-द्वीपान्तरों में आज भी देखने को मिलता है। यहाँ के दर्शन, विज्ञान, कला, साहित्य, धर्म, इतिहास, समाजशास्त्र ऐसा कौन सा क्षेत्र है, जिस पर हजारों वर्षों का गौरवपूर्ण चिन्तन ना हो! ऐसा गौरणपूर्ण विचार एवं चिंतन जिस देश के हैं, उसे हिन्दू राष्ट्र कहते हैं और इन विचारों को जो अपनी धरोहर समझता है, वही तो हिन्दू है। ** ** ** ** ** कोई भी लंगड़ा, लूला, अन्धा होने पर व्यक्ति नहीं रहता, ऐसा तो नहीं है। नाम भी बदल ले तो दूसरा नाम भी तो उसी व्यक्ति का होगा। वह वैदिक था, आर्य था, पौराणिक हो गया, बाद में हिन्दू बन गया, सारा इतिहास तो उसी व्यक्ति का है। जिसे केवल अपने विचार, कला, कृतित्व पर ही गर्व नहीं, उसे अपने चरित्र पर भी उतना ही गर्व है। तभी तो वह कह सकता है, यह विचार उन्ही हिन्दुओं का है जो इस श्लोक को पढ़ कर गर्व अनुभव करते हैं, यही हिन्दू होने की परिभाषा है- एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः" ** ** ** ** ** पुराणों में भारत, भारतवर्ष, हिन्दुस्थान आदि का स्पष्ट उल्लेख है- "ऋषभो मरुदेव्याश्च ऋषभात भरतो भवेत्। भरताद्भारतं वर्षं भरतात्सुमतिस्त्वभूत्।। -विष्णुपुराण मरुदेवी से ऋषभ हुए, ऋषभ से भरत हुए, भरत से भारतवर्ष बना और भरत से सुमति प्रादुर्भूत हुई। "ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषुगीयते। भरताय यत: पित्रा दत्तं प्रतिष्ठिता वनम्।।" -विष्णुपुराण जब से ही भरत के पिता ने उनको राज्य देकर वनगमन किया तब से संसार में इसका भारत नाम गाया जा रहा है। "उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः।।" - विष्णुपुराण जो देश समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में है उसका नाम भारत और उसकी सन्तान का नाम भारती है। "हिमालयसमारभ्य यावदिन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्ष्यते।।" - बार्हस्पत्यशास्त्र
कुलदीप 

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