समलैंगिकता पर कोर्ट के निर्णय के साथ ही लोगबाग जाग गए. हमने प्रतिक्रियाएँ देनी शुरू कर दीं क्योंकि हम किस बात पर प्रतिक्रिया देंगे यह हमेशा दूसरे खेमे से तय किया जाता है.
एक सामान्य प्रतिक्रिया है कि लोगों को पप्पू याद आएगा ही आएगा. कुछ हँसी मजाक होगा. समलैंगिकता की उससे ज्यादा प्रासंगिकता हमारे समाज में कभी नहीं थी. अगर कोई समलैंगिक निकल आता है तो हमारे देश में यह थोड़े मजाक और थोड़े कटाक्ष से ज्यादा बड़ा विषय कभी नहीं बनता. आपने किसी को जेल जाते तो नहीं सुना होगा.
पर पश्चिम की बात कुछ और है. यहाँ यह सचमुच दंडनीय अपराध था. ऑस्कर वाइल्ड ने कई साल जेल में गुजारे थे. पर वह तो था ही मोटी चमड़ी वाला. उससे ज्यादा दुखद कहानी है कंप्यूटर के आविष्कारक गणितज्ञ एलन ट्यूरिंग की. ट्यूरिंग बेचारा शर्मीला सा आदमी था. उसे बेइज्जती झेलने की आदत नहीं थी. उसे सजा के तौर पर कुछ साल हॉर्मोन थेरेपी दी गई, फिर उसने आत्महत्या कर ली.
इन दुखद कहानियों का बहुत बड़ा बाजार है. भारतीयों का कोमल हृदय ऐसी ट्रैजिक कहानियों के लिए बहुत ही उर्वर मिट्टी है. तो आज मुझे भी एक-दो सहानुभूति से भरी हुई पोस्ट्स मिलीं, जिनमें समलैंगिकों की व्यक्तिगत पसंद और जीवन शैली के प्रति सम्मान और स्वीकार्यता के स्वर थे.
पर यहाँ किसी के लिए भी समलैंगिक व्यक्तियों के सेक्सुअल ओरिएंटेशन की पसंद और निजता का विषय विमर्श का केंद्र नहीं है. भारत में यूँ ही सेक्स एक ऐसा टैबू है कि कोई सामान्यतः सेक्स की बात नहीं करता. सेक्स टीनएजर्स के बीच एक कौतूहल और जोक्स के अलावा किसी गंभीर चर्चा में कोई स्थान नहीं पाता. इसलिए अगर आप अपने व्यक्तिगत जीवन में समलैंगिक हों तो कोई यूँ भी आपकी निजता में झाँकने नहीं आने वाला.
पर यह कम्युनिस्ट्स के लिए एक बड़ा विषय है. क्यों? क्योंकि इसमें कम्युनिस्ट उद्देश्यों की पूर्ति का बहुत स्कोप है. पहली तो कि इसमें आइडेंटिटी पॉलिटिक्स जुड़ी है. आप आज इसे महत्वपूर्ण नहीं समझते, पर 15-20 सालों में यह एक बड़ा विषय हो जाएगा. जितने समलैंगिक होंगे, उनके लिए यह उनकी पहचान का सबसे बड़ा भाग होगा. उन्हें हर समय हर किसी को यह बताना बहुत जरूरी लगेगा कि वे गे/लेस्बियन हैं.
फिर अगला पक्ष आएगा अधिकारों का - गे/लेस्बियन के अधिकार परिभाषित किये जायेंगे, और जब वे परिभाषित कर दिए जाएंगे तो जाहिर है कि उनका हनन हो रहा होगा, जो कि वामपंथी संदर्भ में हर समाज में होता है. वामपंथी शब्दकोश में समाज की परिभाषा ही यह है, कि वह इकाई जहाँ आपके अधिकार छीने जाते हैं उसे समाज कहते हैं.
फिर एट्रोसिटी लिटरेचर की बाढ़ आएगी. आपको जरा जरा सी बात पर होमोफोबिक करार दिया जाएगा. कोई यह थ्योरी लेकर आएगा कि हिन्दू सभ्यता में सदियों से समलैंगिकों का शोषण होता आ रहा है. राम ने बाली और रावण को इसलिए मार दिया था क्योंकि दोनों गे थे, और इसी वजह से कृष्ण ने शिशुपाल को मार दिया था.
यहाँ तक आप इसे नुइसन्स समझ कर झेल लोगे. लेकिन तब यह समस्या बन के आपके बच्चों की तरफ बढ़ेगा. क्योंकि उन्हें रिक्रूट चाहिए. समाज के 2-3% समलैंगिक सामाजिक संघर्ष के लिए अच्छा मटेरियल नहीं हैं. बढ़िया संघर्ष के लिए इन्हें 10-15% होना चाहिए. तो ये स्कूलों में समलैंगिकता को प्रचारित करेंगे, उसे प्राकृतिक और फिर श्रेष्ठ बताएंगे. समलैंगिक खिलाड़ियों और फ़िल्म स्टार्स की कहानियाँ बच्चों तक पहुंचने लगेंगी. इसे ग्लैमराइज किया जाएगा.
मुझे कैसे पता? क्योंकि यह सब हो चुका है. यह सारा ड्रामा 1950-60 के दशक में अमेरिका में और 70-80 के दशक में इंग्लैंड और यूरोप में खेला जा चुका है. समाज में परिवार नाम की संस्था इनके निशाने पर है, इसलिए ये एक समलैंगिक परिवार की कहानी चलाने में लगे हुए हैं. समलैंगिक शादियाँ, उनके गोद लिए हुए बच्चे...परिवार के समानांतर एक संस्था खड़ी की जा रही है. साथ ही यह वर्ग नशे के लिए भी बहुत अच्छा बाजार है, डिप्रेशन का भी शिकार औसत से ज्यादा है और इस वजह से सोशल सिक्योरिटी सिस्टम यानी मुफ्तखोरी की व्यवस्था का भी अच्छा ग्राहक है.
जो चीज सबसे ज्यादा चुभेगी आपको, वह है उनका समलैंगिकता का विज्ञापन. जैसे कि धूप में आप काले हो रहे हैं...बोल कर आपको फेयरनेस क्रीम बेच दी जाती है. युवाओं और किशोरों को बताया जाएगा कि उनके जीवन में जो कुछ खालीपन है, जो कूलत्व घट रहा है उसकी भरपाई सिर्फ समलैंगिकता से हो सकती है. बहुत से टीनएजर्स सिर्फ पीअर प्रेशर में, कूल बनने के लिए समलैंगिकता के प्रयोग करते हैं. इसे यहाँ कहते हैं "एक्सप्लोरिंग योर सेक्सुअलिटी".
हर शहर में हर साल गे-प्राइड परेड के आयोजन होंगे, जिनमें लड़के पिंक रिबन बाँध कर और लिपस्टिक लगा कर और लड़कियाँ सर मुंड़ा कर LGBT की फ्लैग लेकर दारू पीते और सड़कों पर चूमते मिलेंगे. यह विज्ञापन और रिक्रूटमेंट इस परिवर्तन का सबसे घिनौना पक्ष है. आज जो बात इससे शुरू हुई है कि अपने बेडरूम में कोई क्या करता है यह उसका निजी मामला है, तो मामला वह निजी रह क्यों नहीं जाता, उसे पूरे शहर को प्रदर्शित करने और पब्लिक का मामला बनाने की क्या मजबूरी हो जाती है? कैसे एक व्यक्ति का सेक्सुअल ओरिएंटेशन उसकी पूरी आइडेंटिटी बन जाता है?
इसकी हद सुनेंगे? मेरे बच्चों के स्कूल में एक महिला को बुलाया गया एनुअल डे में चीफ गेस्ट के रूप में. उनकी तारीफ यह थी कि वे LGBT के लिए एक चैरिटी चलाती थीं. यह चैरिटी बच्चों को समलैंगिकता को प्राकृतिक रूप से स्वीकार्य बनाने का काम करता है. उन महिला ने बच्चों को सेमलैंगिकता की महिमा बताई. फिर अपनी चैरिटी आर्गेनाईजेशन के बारे में बताया, बीच में दबी जुबान में डोनाल्ड ट्रम्प को गालियाँ भी दीं. उसने अपनी लिखी और छपवाई हुई नर्सरी बच्चों की एक तस्वीरों वाली कहानियों की किताब भी दिखाई. उसमें बतख, बंदर, हिरण की कहानियाँ थीं...खास बात यह थी कि उन कहानियों में सभी पात्र समलैंगिक थे...
सोच सकते हैं आप? स्कूल समलैंगिकता का प्रचार कुछ ऐसे कर रहे हैं कि 2-3 साल के बच्चों को भी समलैंगिकता के बारे में बताया जा रहा है...
समलैंगिकता पर यह आंदोलन सिर्फ उन कुछ लोगों को निजता और यौन-प्राथमिकताओं के अधिकार का प्रश्न भर नहीं है जो नैसर्गिक रूप से समलैंगिक हैं (अगर समलैंगिकता को आप यौन-विकृति ना भी मानें...). समझें यह कम्युनिस्ट का एक और रिक्रूटमेंट काउंटर भर खुला है.
Navneet Kumar
तुम हमारा योग लो , हम तुम्हारा भोग (रोग) लेंगें
# AnujAgarwal
जी हाँ, कुछ इसी तर्ज पर भारत मे मोदी सरकार ने समलेंगिकता पर अपनी सहमति दी और अंततः सुप्रीम कोर्ट ने इसे वैधानिक कर दिया। अपनी स्थापना से ही इस अप्राकृतिक कृत्य का विरोध करने वाले संघ के एक वर्ग को भी मोदी-जेटली की जोड़ी ने तोड़ लिया और तभी सन 2016 में संघ के सहकार्यवाह दत्तात्रेय हौसले ने व्यक्तव्य दिया कि संघ समलेंगिकता को अपराध नहीं मानता मगर अप्राकृतिक मानता है। पश्चिमी ताकतों से पर्दे के पीछे लेनदेन के इस खेल में संघ परिवार ने योग के बदले भोग व रोग को आंतरिक स्वीकृति दे डाली। मजदूरों, किसानों, एफ़ डी आई व स्वदेशी के बाद संघ परिवार की यह सबसे बड़ी उलटबांसी है जिसने संघ परिवार के कार्यकर्ताओं, स्वयंसेवको, प्रचारकों व सनातनधर्मी लोगों को अंदर से हिला दिया है। हर मोर्चे पर समझौता करने को आतुर संघ परिवार जिस भगवे को विश्व गुरू बनाने के लिए संघर्षरत है रातोंरात उसका रंग सतरंगी हो चला है। अंततः वह भी देश मे खुले बाजार की उन नीतियों की विकृतियों का शिकार हो गया जिनकी नींव कांग्रेस पार्टी की नरसिम्हा राव सरकार ने सन 1991 में डाली थी। अटल बिहारी वाजपेयी ने तो वैसे भी काफी पहले गोविंदाचार्य जी से कहा ही था कि हममें व कांग्रेसियों में कोई अंतर नहीं। वे कांग्रेसी हैं और हम भगवा कांग्रेसी। बस जनता को यह अब अच्छे से समझ आ गया।
बिना किसी जनगणना, सामाजिक बहस व सर्वसम्मति के देश की 135 करोड़ आबादी को तथाकथित 25 लाख बीमार लोगों (कोई जनगणना नहीं बस अनुमान) की विकृति को न्यायोचित करने के नाम पर दांव पर लगा दिया गया। बीमारी के इलाज की जगह बीमारी को ही सही ठहराने का यह खेल बाज़ार और व्यापक लेनदेन के बिना संभव नहीं। दुनिया में बड़ी मात्रा में समलैंगिक एड्स आदि यौन बीमारियों का शिकार हैं। अपनी विकृत यौन पिपासा की पूर्ति के लिए ड्रग्स लेते हैं व अपने अतिरिक्त खर्चो की पूर्ति के लिए पोर्नोग्राफी के व्यवसाय में भी लग जाते हैं। दुनिया का मेडिकल माफिया और जीडीपी बढ़ाने वाली सरकारें व न्यायायल और उनका भोंपू मीडिया व फ़िल्म जगत इनका प्रवक्ता बन जाता है और ये सब एक सिंडिकेट की शक्ल लेकर चंद रुपयों की खातिर पूरे समाज को दांव पर लगा देते हैं।
समलैंगिकता को मान्यता पूर्णतः बाजार के दवाब में दी गयी है। जब सामान्य युवक व युवती इस प्रकार के जोड़ो को देखेंगे तो ऐसा करने को प्रेरित हो सकते हैं। इसी के साथ ही इस खेल का बाजार बढ़ता जाता है । अनेको रोगों व उनके उपचारों का बाजार। हम कुछ लोगों के अधिकारों के नाम पर पूरे समाज को दांव पर नहीं लगा सकते। अभी देश मे पेडमेंन और टॉयलेट एक प्रेमकथा जैसी फिल्में बनाने की जरूरत पड़ रही है और सुप्रीम कोर्ट को ट्रांसजेंडर की ज्यादा फिक्र हो गयी। क्यो करोड़ो आध्यात्मिक व धर्मिक जीवन जीने वालो के आराध्य राम का मंदिर सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता में नहीं?
जब आपके घर परिवार इस विकृति का शिकार होंगे और आपके परिजन ऑन लाईन शॉपिंग करेंगे घटिया सामानों की, करेंगे ड्रग्स का इस्तेमाल तब गहराई से समझेंगे इसे। यह मकड़जाल है और सबको फंसा लिया गया है इसमें। जिस मजबूर लड़की को वेश्यावृत्ति में धकेला जाता है,कुछ समय बाद वह भी अपनी नियति को स्वीकार कर लेती है, क्या इससे हम वेश्यावृत्ति को न्यायोचित ठहरा सकते हैं? यूरोप व अमेरिका में पोर्न, ड्रग्स व होमोसेक्सुअलटी के प्रोडक्ट व बीमारियों का बाज़ार हथियारों के बाद सबसे बड़ा बाजार है। अगर कोई समलैंगिकता से पीड़ित है तो उसके प्रति पूरी सहानुभूति होनी चाहिए व सरकार उसके इलाज व पुनर्वास के पूरे प्रबंध करे मगर उनके अधिकारों के संरक्षण के नाम पर पूरे समाज को दांव पर न लगाए। भारत को भारतीय मानसिकता वाले न्यायधीशो की आवश्यकता है, मगर दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हमारा संविधान व संविधानविद अपनी प्रेरणा व प्रशिक्षण ब्रिटेन से लेते हैं और उनकी नज़र से देखते व सोचते हैं। भारत को भारत के संदर्भो में देखने व चलाने की जरूरत है मगर वैश्वीकरण की आड़ में हम विकृत व्यवस्थाओं को अपनाते जा रहे हैं जो बहुत ही घातक है। अगर किसी को प्राकृतिक नियमों व पशुता से इतना ही लगाव है तो उसे कानून व संविधान भी समाप्ति का पक्षधर हो जाना चाहिए। आजादी के नज़्म पर बाज़ार के एजेंट हमें गर्त के गड्ढे में धकेल रहे हैं जहाँ कीचड़ व अंधेरों के सिवा कुछ नहीं।
॥अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते॥
एक सामान्य प्रतिक्रिया है कि लोगों को पप्पू याद आएगा ही आएगा. कुछ हँसी मजाक होगा. समलैंगिकता की उससे ज्यादा प्रासंगिकता हमारे समाज में कभी नहीं थी. अगर कोई समलैंगिक निकल आता है तो हमारे देश में यह थोड़े मजाक और थोड़े कटाक्ष से ज्यादा बड़ा विषय कभी नहीं बनता. आपने किसी को जेल जाते तो नहीं सुना होगा.
पर पश्चिम की बात कुछ और है. यहाँ यह सचमुच दंडनीय अपराध था. ऑस्कर वाइल्ड ने कई साल जेल में गुजारे थे. पर वह तो था ही मोटी चमड़ी वाला. उससे ज्यादा दुखद कहानी है कंप्यूटर के आविष्कारक गणितज्ञ एलन ट्यूरिंग की. ट्यूरिंग बेचारा शर्मीला सा आदमी था. उसे बेइज्जती झेलने की आदत नहीं थी. उसे सजा के तौर पर कुछ साल हॉर्मोन थेरेपी दी गई, फिर उसने आत्महत्या कर ली.
इन दुखद कहानियों का बहुत बड़ा बाजार है. भारतीयों का कोमल हृदय ऐसी ट्रैजिक कहानियों के लिए बहुत ही उर्वर मिट्टी है. तो आज मुझे भी एक-दो सहानुभूति से भरी हुई पोस्ट्स मिलीं, जिनमें समलैंगिकों की व्यक्तिगत पसंद और जीवन शैली के प्रति सम्मान और स्वीकार्यता के स्वर थे.
पर यहाँ किसी के लिए भी समलैंगिक व्यक्तियों के सेक्सुअल ओरिएंटेशन की पसंद और निजता का विषय विमर्श का केंद्र नहीं है. भारत में यूँ ही सेक्स एक ऐसा टैबू है कि कोई सामान्यतः सेक्स की बात नहीं करता. सेक्स टीनएजर्स के बीच एक कौतूहल और जोक्स के अलावा किसी गंभीर चर्चा में कोई स्थान नहीं पाता. इसलिए अगर आप अपने व्यक्तिगत जीवन में समलैंगिक हों तो कोई यूँ भी आपकी निजता में झाँकने नहीं आने वाला.
पर यह कम्युनिस्ट्स के लिए एक बड़ा विषय है. क्यों? क्योंकि इसमें कम्युनिस्ट उद्देश्यों की पूर्ति का बहुत स्कोप है. पहली तो कि इसमें आइडेंटिटी पॉलिटिक्स जुड़ी है. आप आज इसे महत्वपूर्ण नहीं समझते, पर 15-20 सालों में यह एक बड़ा विषय हो जाएगा. जितने समलैंगिक होंगे, उनके लिए यह उनकी पहचान का सबसे बड़ा भाग होगा. उन्हें हर समय हर किसी को यह बताना बहुत जरूरी लगेगा कि वे गे/लेस्बियन हैं.
फिर अगला पक्ष आएगा अधिकारों का - गे/लेस्बियन के अधिकार परिभाषित किये जायेंगे, और जब वे परिभाषित कर दिए जाएंगे तो जाहिर है कि उनका हनन हो रहा होगा, जो कि वामपंथी संदर्भ में हर समाज में होता है. वामपंथी शब्दकोश में समाज की परिभाषा ही यह है, कि वह इकाई जहाँ आपके अधिकार छीने जाते हैं उसे समाज कहते हैं.
फिर एट्रोसिटी लिटरेचर की बाढ़ आएगी. आपको जरा जरा सी बात पर होमोफोबिक करार दिया जाएगा. कोई यह थ्योरी लेकर आएगा कि हिन्दू सभ्यता में सदियों से समलैंगिकों का शोषण होता आ रहा है. राम ने बाली और रावण को इसलिए मार दिया था क्योंकि दोनों गे थे, और इसी वजह से कृष्ण ने शिशुपाल को मार दिया था.
यहाँ तक आप इसे नुइसन्स समझ कर झेल लोगे. लेकिन तब यह समस्या बन के आपके बच्चों की तरफ बढ़ेगा. क्योंकि उन्हें रिक्रूट चाहिए. समाज के 2-3% समलैंगिक सामाजिक संघर्ष के लिए अच्छा मटेरियल नहीं हैं. बढ़िया संघर्ष के लिए इन्हें 10-15% होना चाहिए. तो ये स्कूलों में समलैंगिकता को प्रचारित करेंगे, उसे प्राकृतिक और फिर श्रेष्ठ बताएंगे. समलैंगिक खिलाड़ियों और फ़िल्म स्टार्स की कहानियाँ बच्चों तक पहुंचने लगेंगी. इसे ग्लैमराइज किया जाएगा.
मुझे कैसे पता? क्योंकि यह सब हो चुका है. यह सारा ड्रामा 1950-60 के दशक में अमेरिका में और 70-80 के दशक में इंग्लैंड और यूरोप में खेला जा चुका है. समाज में परिवार नाम की संस्था इनके निशाने पर है, इसलिए ये एक समलैंगिक परिवार की कहानी चलाने में लगे हुए हैं. समलैंगिक शादियाँ, उनके गोद लिए हुए बच्चे...परिवार के समानांतर एक संस्था खड़ी की जा रही है. साथ ही यह वर्ग नशे के लिए भी बहुत अच्छा बाजार है, डिप्रेशन का भी शिकार औसत से ज्यादा है और इस वजह से सोशल सिक्योरिटी सिस्टम यानी मुफ्तखोरी की व्यवस्था का भी अच्छा ग्राहक है.
जो चीज सबसे ज्यादा चुभेगी आपको, वह है उनका समलैंगिकता का विज्ञापन. जैसे कि धूप में आप काले हो रहे हैं...बोल कर आपको फेयरनेस क्रीम बेच दी जाती है. युवाओं और किशोरों को बताया जाएगा कि उनके जीवन में जो कुछ खालीपन है, जो कूलत्व घट रहा है उसकी भरपाई सिर्फ समलैंगिकता से हो सकती है. बहुत से टीनएजर्स सिर्फ पीअर प्रेशर में, कूल बनने के लिए समलैंगिकता के प्रयोग करते हैं. इसे यहाँ कहते हैं "एक्सप्लोरिंग योर सेक्सुअलिटी".
हर शहर में हर साल गे-प्राइड परेड के आयोजन होंगे, जिनमें लड़के पिंक रिबन बाँध कर और लिपस्टिक लगा कर और लड़कियाँ सर मुंड़ा कर LGBT की फ्लैग लेकर दारू पीते और सड़कों पर चूमते मिलेंगे. यह विज्ञापन और रिक्रूटमेंट इस परिवर्तन का सबसे घिनौना पक्ष है. आज जो बात इससे शुरू हुई है कि अपने बेडरूम में कोई क्या करता है यह उसका निजी मामला है, तो मामला वह निजी रह क्यों नहीं जाता, उसे पूरे शहर को प्रदर्शित करने और पब्लिक का मामला बनाने की क्या मजबूरी हो जाती है? कैसे एक व्यक्ति का सेक्सुअल ओरिएंटेशन उसकी पूरी आइडेंटिटी बन जाता है?
इसकी हद सुनेंगे? मेरे बच्चों के स्कूल में एक महिला को बुलाया गया एनुअल डे में चीफ गेस्ट के रूप में. उनकी तारीफ यह थी कि वे LGBT के लिए एक चैरिटी चलाती थीं. यह चैरिटी बच्चों को समलैंगिकता को प्राकृतिक रूप से स्वीकार्य बनाने का काम करता है. उन महिला ने बच्चों को सेमलैंगिकता की महिमा बताई. फिर अपनी चैरिटी आर्गेनाईजेशन के बारे में बताया, बीच में दबी जुबान में डोनाल्ड ट्रम्प को गालियाँ भी दीं. उसने अपनी लिखी और छपवाई हुई नर्सरी बच्चों की एक तस्वीरों वाली कहानियों की किताब भी दिखाई. उसमें बतख, बंदर, हिरण की कहानियाँ थीं...खास बात यह थी कि उन कहानियों में सभी पात्र समलैंगिक थे...
सोच सकते हैं आप? स्कूल समलैंगिकता का प्रचार कुछ ऐसे कर रहे हैं कि 2-3 साल के बच्चों को भी समलैंगिकता के बारे में बताया जा रहा है...
समलैंगिकता पर यह आंदोलन सिर्फ उन कुछ लोगों को निजता और यौन-प्राथमिकताओं के अधिकार का प्रश्न भर नहीं है जो नैसर्गिक रूप से समलैंगिक हैं (अगर समलैंगिकता को आप यौन-विकृति ना भी मानें...). समझें यह कम्युनिस्ट का एक और रिक्रूटमेंट काउंटर भर खुला है.
Navneet Kumar
तुम हमारा योग लो , हम तुम्हारा भोग (रोग) लेंगें
# AnujAgarwal
जी हाँ, कुछ इसी तर्ज पर भारत मे मोदी सरकार ने समलेंगिकता पर अपनी सहमति दी और अंततः सुप्रीम कोर्ट ने इसे वैधानिक कर दिया। अपनी स्थापना से ही इस अप्राकृतिक कृत्य का विरोध करने वाले संघ के एक वर्ग को भी मोदी-जेटली की जोड़ी ने तोड़ लिया और तभी सन 2016 में संघ के सहकार्यवाह दत्तात्रेय हौसले ने व्यक्तव्य दिया कि संघ समलेंगिकता को अपराध नहीं मानता मगर अप्राकृतिक मानता है। पश्चिमी ताकतों से पर्दे के पीछे लेनदेन के इस खेल में संघ परिवार ने योग के बदले भोग व रोग को आंतरिक स्वीकृति दे डाली। मजदूरों, किसानों, एफ़ डी आई व स्वदेशी के बाद संघ परिवार की यह सबसे बड़ी उलटबांसी है जिसने संघ परिवार के कार्यकर्ताओं, स्वयंसेवको, प्रचारकों व सनातनधर्मी लोगों को अंदर से हिला दिया है। हर मोर्चे पर समझौता करने को आतुर संघ परिवार जिस भगवे को विश्व गुरू बनाने के लिए संघर्षरत है रातोंरात उसका रंग सतरंगी हो चला है। अंततः वह भी देश मे खुले बाजार की उन नीतियों की विकृतियों का शिकार हो गया जिनकी नींव कांग्रेस पार्टी की नरसिम्हा राव सरकार ने सन 1991 में डाली थी। अटल बिहारी वाजपेयी ने तो वैसे भी काफी पहले गोविंदाचार्य जी से कहा ही था कि हममें व कांग्रेसियों में कोई अंतर नहीं। वे कांग्रेसी हैं और हम भगवा कांग्रेसी। बस जनता को यह अब अच्छे से समझ आ गया।
बिना किसी जनगणना, सामाजिक बहस व सर्वसम्मति के देश की 135 करोड़ आबादी को तथाकथित 25 लाख बीमार लोगों (कोई जनगणना नहीं बस अनुमान) की विकृति को न्यायोचित करने के नाम पर दांव पर लगा दिया गया। बीमारी के इलाज की जगह बीमारी को ही सही ठहराने का यह खेल बाज़ार और व्यापक लेनदेन के बिना संभव नहीं। दुनिया में बड़ी मात्रा में समलैंगिक एड्स आदि यौन बीमारियों का शिकार हैं। अपनी विकृत यौन पिपासा की पूर्ति के लिए ड्रग्स लेते हैं व अपने अतिरिक्त खर्चो की पूर्ति के लिए पोर्नोग्राफी के व्यवसाय में भी लग जाते हैं। दुनिया का मेडिकल माफिया और जीडीपी बढ़ाने वाली सरकारें व न्यायायल और उनका भोंपू मीडिया व फ़िल्म जगत इनका प्रवक्ता बन जाता है और ये सब एक सिंडिकेट की शक्ल लेकर चंद रुपयों की खातिर पूरे समाज को दांव पर लगा देते हैं।
समलैंगिकता को मान्यता पूर्णतः बाजार के दवाब में दी गयी है। जब सामान्य युवक व युवती इस प्रकार के जोड़ो को देखेंगे तो ऐसा करने को प्रेरित हो सकते हैं। इसी के साथ ही इस खेल का बाजार बढ़ता जाता है । अनेको रोगों व उनके उपचारों का बाजार। हम कुछ लोगों के अधिकारों के नाम पर पूरे समाज को दांव पर नहीं लगा सकते। अभी देश मे पेडमेंन और टॉयलेट एक प्रेमकथा जैसी फिल्में बनाने की जरूरत पड़ रही है और सुप्रीम कोर्ट को ट्रांसजेंडर की ज्यादा फिक्र हो गयी। क्यो करोड़ो आध्यात्मिक व धर्मिक जीवन जीने वालो के आराध्य राम का मंदिर सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता में नहीं?
जब आपके घर परिवार इस विकृति का शिकार होंगे और आपके परिजन ऑन लाईन शॉपिंग करेंगे घटिया सामानों की, करेंगे ड्रग्स का इस्तेमाल तब गहराई से समझेंगे इसे। यह मकड़जाल है और सबको फंसा लिया गया है इसमें। जिस मजबूर लड़की को वेश्यावृत्ति में धकेला जाता है,कुछ समय बाद वह भी अपनी नियति को स्वीकार कर लेती है, क्या इससे हम वेश्यावृत्ति को न्यायोचित ठहरा सकते हैं? यूरोप व अमेरिका में पोर्न, ड्रग्स व होमोसेक्सुअलटी के प्रोडक्ट व बीमारियों का बाज़ार हथियारों के बाद सबसे बड़ा बाजार है। अगर कोई समलैंगिकता से पीड़ित है तो उसके प्रति पूरी सहानुभूति होनी चाहिए व सरकार उसके इलाज व पुनर्वास के पूरे प्रबंध करे मगर उनके अधिकारों के संरक्षण के नाम पर पूरे समाज को दांव पर न लगाए। भारत को भारतीय मानसिकता वाले न्यायधीशो की आवश्यकता है, मगर दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हमारा संविधान व संविधानविद अपनी प्रेरणा व प्रशिक्षण ब्रिटेन से लेते हैं और उनकी नज़र से देखते व सोचते हैं। भारत को भारत के संदर्भो में देखने व चलाने की जरूरत है मगर वैश्वीकरण की आड़ में हम विकृत व्यवस्थाओं को अपनाते जा रहे हैं जो बहुत ही घातक है। अगर किसी को प्राकृतिक नियमों व पशुता से इतना ही लगाव है तो उसे कानून व संविधान भी समाप्ति का पक्षधर हो जाना चाहिए। आजादी के नज़्म पर बाज़ार के एजेंट हमें गर्त के गड्ढे में धकेल रहे हैं जहाँ कीचड़ व अंधेरों के सिवा कुछ नहीं।
॥अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते॥
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