गुरुवार, सितंबर 08, 2011

राष्ट्रवाद और आतंकवाद - कांग्रेस का सांप्रदायिक चेहरा

राष्ट्रवाद और आतंकवाद - कांग्रेस का सांप्रदायिक चेहरा

Lovy Bhardwaj द्वारा
वर्तमान परिस्थितियों में राजनीति एक छल है कपट है धोखा है फरेब है ... सब मिल कर स्थितियं पैशाचिक बन चुकी हैं l
राजनीति के कपत्पूर्नौर आडम्बरयुक्त वातावरण से देश की जनता अब ऊब चुकी है l राष्ट्र चिन्तन कर रहा है की आज वह इन सब पैशाचिक परिस्थितियों से कैसे बाहर निकले l आज राजनीति का पैशाचिक और अमानवीय रूप हमारे सामने दिनों दिन नए नए उदाहरन लेकर सामने आ रहा है l एक के बाद एक राष्ट्र-भक्त सनातन धर्मीयों को आतंकवादी कह कह कर निशाना बनाया जा रहा है वह हमारे सामने है l

सन 2010 के दौरान कांग्रेस के नेताओं चाहे वह पीं पीं छि-दम्बरम हों, मूरख जी हों, बिगड़ जी हों, DogVijay हों, GayAndhi हों या कांग्रेस के अन्य सलीमशाही जूतियाँ चाटने वाले जितने भी छुटभैय्ये नेता  हों, सभी ने एक के बाद एक सनातन धर्म को बदनाम करने का एक सोचा समझा मिशन प्रारम्भ कर दिया है गया है l ये मिशन घूम फिर कर अरब और वेटिकन की धुरी पर ही जाकर खत्म होते प्रतीत होते हैं l

इस विषय पर सबसे पहले ग्रहमंत्री पी-चिदंबरम ने भगवा आतंकवाद का मिथक खडा करने का प्रयास किया l
उसके बाद दिग्गी रंक ने भगवा और आतंकवाद को जोड़ दिया l
फिर Raul Vinci ने तो सातवीं कक्षा के अनपढ़ वाली बात कह दी और संघ की तुलना प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन सिमी और इंडियन मुजाहिद्दीन से कर डाली l
इससे पहले अब्दुल रहमान अंतुले ने भी हेमंत करकरे की शहादत का मजाक उड़ाते हुए उसकी हत्या के लिए सनातन धर्म के संगठनों की और इशारा किया l
हद तो तब हो गई जब Raul Vinci ने अमरीकी राजदूत टिमोथी रोमर से भारत की आंतरिक सुरक्षा पर बात करते हुए भगवा आतंकवाद को लश्कर-ए-तयेबा से भी ज्यादा खतरनाक बताया l
WikiLeaks ने भी खुलासा कर डाला की कांग्रेस ने मुंबई हमलों के बाद मजहबी राजनीति का लाभ उठाया l

इस्लामिक आतंकवाद की एतिहासिक गाथाओं में कभी भी हरा आतंकवाद की परिभाषा नही दी गई l
न ही वेटिकन समर्थित सफेद या नीले को कभी परिभाषित किया गया l
नहीं चीन समर्थित लाल झंडों को .... य्दिदी होती तो शायद आज बंगाल और केवल की स्थिति इतनी दयनीय और पैशाचिक न होती l

कांग्रेस के पास जो कुछ था उसने दे दिया ....

वैचारिक दृष्टि से कांग्रेस पूर्णतया ख़त्म हो चुकी, अब स्वतंत्रता पश्चात से अब तक की उसकी नीतियों के पीछे का सांप्रदायिक चेहरा सामने आ चुका है ल इतिहास अपने आपको दोहराता अवश्य है ये कई जगह पढ़ा था और विश्वास था की दोहराया जायेगा और अब ..... शायद इसकी शुरुआत की जा चुकी है l

भारत में क्रांतिकारियों से सदैव छल किया गया .... अहिंसा हमारा परम धर्म रहा है परन्तु  राष्ट्र-निर्माण और धर्म-विकास हेतु शांती के पौधों को भी रक्त से सींचना पड़ता है l

भगवा पर आतंकवाद का ठप्पा लगाने की मुहीम सबसे पहले गंधासुर नेहरु जैसे सलीमशाही जूतियाँ चाटने वालों ने ही प्रारंभ किया था, और फिर कुछ और सलीमशाही जूतियाँ चाटने वाले बुद्धिजीवियों को लाल झंडे, हरे झंडे ...सफेद झंडे के तहत बिकवा कर उनसे कदम कदम कर सनातन धर्म के शौर्य के प्रतीकों पर ठप्पा लगाया गया l

सन 1926 की एक घटना आपके सामने रख रहा हूँ :

परमवीरगति को प्राप्त शूरवीर चन्द्रशेखर तिवारी 'आज़ाद' अन्ग्रेजों की नजरों से बचकर दुरात्मा गंधासुर 'गाँधी' से मिले, और उन्होंने केवल इतना ही कहा :
"बापू आपके प्रति हमारे दिलों में बड़ा सम्मान है और सारा राष्ट्र आपका सम्मान करता है, आप कृपया हम पर एक उपकार कर दें ... अपने व्यक्तिगत सम्बोधनों में हमे "आतंकवादी" न कहा करें, इससे हमे दुःख होता है l"

गंधासुर ने कहा " तुम्हारा मार्ग हिंसा का है, और हिंसा का अवलम्बन लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति मेरी नजर में आतंकवादी है l "

चन्द्रशेखर तिवारी 'आज़ाद' वापिस आ गए l चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, राम प्रसाद बिस्मिल आदि सब दुरात्मा गंधासुर की नजरों में आतंकवादी थे,  जिन्हें अक्सर मार्ग से भटका हुआ कहा जाता था गंधासुर के द्वारा , और इसी श्रेणी में छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, वीर दुर्गा दास,  दशम गुरु गोबिंद सिंह जी को भी रखा गया l
जो गंधासुर के अनुयायी थे वो गंधासुर और नेहरु के प्रभाव में क्रांतिकारियों को तो हे दृष्टि से देखते थे, परन्तु जब येही अहिंसक किसी घटनाकर्म में ब्रिटिश पुलिस प्रशासन की क्रूरता का कोपभाजन बनती थी तो यही ब्रिटिश पुलिस उनको पीत पीत कर बेहाल कर देती थी ... जिनका साथ देने वालों में कुछ तथाकथित सलीमशाही जूतियाँ  चाटने वाले अभारतीय हवलदार 'ठुल्ले'  भी शामिल होते थे l
इन अत्याचारों का क्रांतिकारियों पर विपरीत प्रभाव पड़ता था .... हैं तो भारतीय ही ... भले ही अंधे सही l

उस समय के लाखों वैचारिक अंधे कहीं न कहीं कायर परन्तु किसी न किसी दृष्टिकोण से नपुंसक भी हो चुके थे l

ऐसी ही एक घटना है चन्द्रशेखर तिवारी 'आज़ाद' जी की ... घटना वाराणसी से है :

वाराणसी में ऐसे एक अहिंसक को जो सत्याग्रह पर बैठा था, उसे कुछ ब्रिटिश पुलिस के सलीमशाही ठुल्ले बर्बरता से पीट रहे थे, उसे पिटते देख कर आज़ाद जी की आत्मा विद्रोह कर गई l
पहले तो सलीमशाही ठुल्लों की देशद्रोही ताकत से ब्रिटिश पुलिस नेउस सत्याग्रही को पीता, फिर उसे अनगिनत गालियाँ दीं और फिर उसे नंगा कर दिया गया .... उल्लेख्पूर्ण है की जिसमे सबसे सुंदर गाली भी दी गई थीं.... "You Indian" जो की आज सम्मान का और गर्व का वश्य बन चूका है .. जैसे की कुछ लोग आज बहुत शान से कहते हैं... I AM PROUD TO BE AN INDIAN ....
जब उस सत्याग्रही की माँ और बाप से से रिश्ते जोड़ते अंग्रेज और सलीमशाही ठुल्ले गंधासुर 'बापू' को भी गालियाँ देने लगे तो चन्द्रशेखर तिवारी 'आज़ाद' ने एक बड़ा पत्थर लेकर एक दमनकारी का सर फोड़ दिया, अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार किया, उन पर सलीमशाही ठुल्लों ने कोड़ों की बारिश की.... और हर कौड़े पर आज़ाद जिय्ही कहते थे की ... "जिल्लत की जिन्दगी से तो मौत बेहतर है "

मैं भारत के युवा लडके - लड़कियों और मर्दों - महिलों से एक ही प्रश्न करना चाहता हूँ :
अंग्रेजों और सलीमशाही जूतियाँ चाटने वाले देशद्रोही ठुल्लों की लाठियां खाना, उनके लात जूते खाना, उनकी निहायत ही गन्दी गन्दी गालियाँ खाकर, उनके कौड़े खाकर, मूंह नीचा किये ...हाय हाय कह कर चिल्लाते हुए मर जाना बेहतर था या ... पैशाचिक अत्याचार के विरोध में खडा होना उचित था l अपने देश को गुलामी से आज़ाद करवाने के लिए .... उनकी भावनाएं क्या इतनी बुरी थीं की आज की पीढी उन्हें आतंकवादी पढ़ कर भी कुछ नहीं कहती l
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त असेम्बली के बाहर चरखा लेकर नहीं गए थे, और ना ही उन्होंने असेम्बली के बाहर "वैष्णव जन तेने कहिये" जैसी कोई गुहार लगाईं थी l उन्होंने किसी की हत्या भी नही की थी और न ही करना चाहते थे, उनके हाथ में बम था जिसकी गूँज उस दिन लाहौर से लन्दन तक गूंजी थी ... जो बम फौड़ा गया था उससे केवल धमाका किया गया था... केवल धमाका l
उसमे न कांच के टुकड़े थे, न कीलें, न ब्लेड के टुकड़े .... कुछ भी नही था l

सारा जीवन लड़े पर शूरवीरों की भांति l

भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, आज़ाद जी, नेताजी, राम प्रसाद बिस्मिल आदि सब परमवीरगति को प्राप्त हो गए और माँ भारती का आशीर्वाद पा गए ... पर भारत की उबलती जवानी को एक संदेश दे गये
"मर कर भी न जाएगी, दिल से वफा की उल्फत
मेरी मिटटी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी "

मेरा रंग दे बसंती चोला की गूँज कश्मीर से कन्या कुमारी तक गूंजी और सनातन इतिहास में सदैव गूंजती रहेगी l

आप 1930 से लेकर 1947 तक का ही स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास किसी ऐसे लेखक या लेखनी का पढ़ें जो लाल, सफेद हरे झंडे के पैसों के आगे बिका न हो .... तो आपकी आत्मा क्रांतिकारियों के साथ हुए अन्याय से चीत्कार उठेगी ..... आप घबरा जायेंगे l

क्योंकि सलीमशाही जूतियाँ चाटने वाले बुद्धिजीवियों ने तो इतिहास का बलात्कार ही किया है हर कदम पर l जिन्हें बदले में विदेशी नागरिकता, बे-हिसाबी पैसा और विश्व प्रसिद्ध इतिहासकारों का प्रमाणपत्र तक भी दिया गया .... ऐसे तथा कथित पोप और सलीम शाही जूतियों को चाटने वालों मे रोमिला थापर और अरुंधती रॉय का नाम सबसे ऊपर आयेगा l

कौन कौन जानता है की भारत की स्वतंत्रता के लिए अपनी अलग फ़ौज बनाने वाले नेताजी के नाम पर गंधासुर और नेहरु ने मिल कर एक वारंट जारी किया था जो आज भी वापिस नहीं लिया गया है आज भी वैद्य है l स्वतन्त्रता से पहले जितने भी अंग्रेजी साम्राज्य के अपराधी थे उन्हें गिरफ्तार कर ब्रिटेन को सौंपने की शर्त रखी गई थी ... जो की मान ली गई सत्तालोलुपों नेहरु-गांधी के द्वारा l

कौन कौन जानता है की भगत सिंह,सुखदेव राजगुरु की फंसी की सजा 24 मार्च 1931 के दिन तय की गई थी, परन्तु उन्हें 23 मार्च को ही फंसी दे दी गई थी ... और बाद में उनके शव को निर्ममता और नृशंस रूप से काट काट के टुकड़े टुकड़े टुकड़े कर के ... रावी नदी में बहा दिया गया था l

गंधासुर नेहरु आदि के साथ क्या हुआ... ये सबने अपने अपने स्कूलों में पढ़ा होगा ... परन्तु क्रांतिकारियों के साथ क्या क्या हुआ, उनके शौर्य का कहाँ कहाँ एतिहासिक बलात्कार किया गया .. सलीमशाही जूतीयां चाटने वाले बुद्धिजीवियों द्वारा... कोई नहीं जनता l

इन सलीमशाही देशद्रोहियों द्वारा जो व्यवस्था बनाई गई उसके अंतर्गत राष्ट्रवादी शौर्य के प्रतीकों और उनके परिवारों को किन किन कठिनाइयों का सामना करना पडा, उनकी आर्थिक स्थिति क्या रही ये कोई नहीं जानता l मुफ्त की आजादी ने आज की पीढी को इस कदर संस्कृति से काट दिया है की उनमे से अच्छे बुरे में अंतर करने की समझ भी ख़त्म हो चुकी है l

वर्तमान परिस्थितियों में ऐसे राजनीतिज्ञों द्वारा बनाई गई व्यवस्था को पैशाचिक ही कहा जा सकता है ....
और सनातन संस्कृति के अनुसार शिक्षित दीक्षित आर्य चाणक्य, महात्मा विदुर, की राजनीति का लोहा भी दुनिया ने माना है, जिनमे राष्ट्र-प्रेम के प्रति प्रेम कूट कूट कर भरा हुआ था l

ये निम्नलिखित विडियो अवश्य देखें ....
http://www.facebook.com/video/video.php?v=155370827857235


http://subhashafter1945.blogspot.com/2008/12/subhash-alive-after-1945.html










उपरोक्त शब्दों में कुछ शब्द पंजाब केसरी के अश्विनी कुमार जी के लेख से भी लिए गए हैं l
और जिस किसी को उपरोक्त शब्दों से आपत्ति हो वो वो सलीमशाही जूतियाँ चाटने वाले कृपया दूर ही रहें तो बेहतर होगा l

इस सन्दर्भ में यह नोट भी अवश्य पढ़ें .....
http://www.facebook.com/note.php?note_id=10150103867236526

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