गुरुवार, सितंबर 08, 2011

2011 की जनगणना में हमारी भूमिका - पैशाचिक, मिशनरी और सरकारी षड्यंत्रों का एक और ताना बाना

2011 की जनगणना में हमारी भूमिका - पैशाचिक, मिशनरी और सरकारी षड्यंत्रों का एक और ताना बाना

Lovy Bhardwaj द्वारा
2011 की जनगणना में हमारी भूमिका

2011 की जनगणना में प्रत्येक व्यक्ति से उसकी मातृभाषा पूछी जाएगी। चूँकि भारत एक बहु-भाषी देश है,अतः प्रत्येक व्यक्ति से यह भी पूछा जाएगा कि उसे और कौन-सी भाषाओं का ज्ञान है। जिनकी मातृभाषा कोई भारतीय भाषा है, स्वाभाविक रूप से उन्हें कम से कम 50% संस्कृत शब्दों का उच्चारण करना आता है। जैसे- जल, वायु, अग्नि, मार्ग, नेत्र, विवाह, भोजन आदि। इसका कारण यह है कि संस्कृत ही समस्त भाषाओं की जननी है। करोड़ों भारतीय,विशेषतः हिन्दू,अनेक स्तोत्र-मंत्रों, आरतियों,गीता-पाठ आदि के माध्यम से प्रातः काल से रात्रि तक दिन-भर संस्कृत का ही उच्चारण करते रहते हैं। अधिकांश हिन्दुओं के नाम भी संस्कृतनिष्ठ ही होते हैं, जैसे- राजेन्द्र, सुरेश, सुरेन्द्र, मीनाक्षी, सुरभि, निधि, स्वाति, सुमंगल आदि। हम दिन में अनेक बार इन नामों का उच्चारण करते हैं। अतः स्पष्ट है कि हममें से अधिकांश भारतीयों को संस्कृत का थोड़ा बहुत ज्ञान अवश्य है और हम इस भाषा का बड़े पैमाने पर प्रयोग भी करते हैं।

अतः जिन भारतीय नागरिकों की प्रथम भाषा संस्कृत न हो, उन सभी को अवश्य ही अपनी द्वितीय-भाषा के रूप में संस्कृत का उल्लेख करना चाहिए। तीसरी भाषा से संबंधित प्रश्न के उत्तर में किसी भी अन्य भारतीय भाषा का नाम लिया जा सकता है। पिछली जनगणना में 2,26,449 नागरिकों ने अपनी प्रथम भाषा के रूप में अंग्रेज़ी का उल्लेख किया था। 8,60,00,000 नागरिकों ने इसे अपनी द्वितीय भाषा और 3,90,00,000 नागरिकों ने तीसरी भाषा बताया। इन सभी आँकड़ों को जोड़कर यह स्थापित करने का प्रयास किया गया कि देश में हिन्दी के बाद सर्वाधिक बोली जाने वाली या सर्वाधिक ज्ञात भाषा अंग्रेज़ी है। यह कुछ और नहीं, बल्कि भारतीयों की गौरवहीनता का ही परिणाम है, अन्यथा भारत में जो स्थान संस्कृत का है, उसे अंग्रेज़ी कैसे हथिया लेती? संस्कृत विश्व की प्रथम भाषा होने के साथ-साथ मानव-इतिहास की सर्वाधिक समृद्ध भाषा भी है। यह अत्यंत दुःखद है कि शेष विश्व ने पहले ही उसे लुप्तप्राय भाषाओं की श्रेणी में डाल दिया है। परंतु, इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि संस्कृत के जन्मस्थान भारत में भी इसे हाशिये पर डालने का प्रयास चल रहा है। जो भाषा हमारी सभी भाषाओं की जननी है, क्या उसकी रक्षा किये बिना हम अपनी मातृभाषा की रक्षा कर सकेंगे? यह संस्कृत की उपेक्षा का ही परिणाम है कि आज सभी भाषाएँ मिश्रित भाषाएँ बन गईं हैं और कुछ लोग निर्लज्जतापूर्वक यह आग्रह करते हैं कि इन भाषाओं को इसी प्रकार उनके अशुद्ध रूप में ही प्रयोग किया जाए। यह केवल एक भूल ही नहीं,वरन् हमारी अपनी भारतीय भाषाओं को नष्ट करने का अपराध है, जिसमें हम सभी जाने-अनजाने सम्मिलित हो रहे हैं। यह हम सभी का कर्तव्य है कि हम संस्कृत को नष्ट होने से बचाने में योगदान दें,ताकि हमारी सभी भारतीय भाषाओं की भी रक्षा की जा सके। अतः यह आवश्यक है कि हम सभी अपनी प्रथम,द्वितीय अथवा तृतीय भाषा के रूप में संस्कृत का उल्लेख अवश्य करें तथा साथ ही अपने दैनिक जीवन में संस्कृत के अधिक-से-अधिक शब्दों का प्रयोग भी करें। यदि हम अपने दैनिक वार्तालाप में अधिक-से-अधिक संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग करने लगेंगे,तो इससे न केवल संस्कृत का प्रचार-प्रसार होगा,वरन् हमारी अन्य भारतीय भाषाएँ का शुद्ध स्वरूप भी बना रहेगा। संस्कृत सभी भाषाओं की माँ है। जिस प्रकार माता का दूध जीवनदायी होता है,उसी प्रकार संस्कृत का प्रयोग अन्य सभी भारतीय भाषाओं को शक्ति प्रदान करेगा व साथ ही इससे समाज का मन और बुद्धि भी स्वस्थ रहेंगे।

पिछली जनगणना में अपनी मातृभाषा के रूप में संस्कृत का उल्लेख करने वालों की संख्या 14,135 है। अतः सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं की सूची में इसका स्थान 118वां है। वहीं दूसरी ओर, 51, 728 नागरिकों ने अपनी मातृभाषा अरबी बताई है। परिणामस्वरूप, सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं की सूची में अरबी का स्थान 78वां, अर्थात् संस्कृत से भी ऊपर, है। यह कैसा क्रूर मज़ाक है! क्या भारत में अरबी की संतानें अधिक हैं और संस्कृत के सपूत कम?अतः संस्कृत को जनभाषा बनाने के लिये एक अभियान चलाए जाने की आवश्यकता है और हम सभी को इसमें अवश्य योगदान करना चाहिए।

यह केवल हमारी उदासीनता व अज्ञान का ही परिणाम है कि सहस्त्रों शब्दों के माध्यम से अनेक भाषाओं में प्रयोग की जाने वाली और जाने-अनजाने में लाखों-करोड़ों भारतीयों द्वारा बोली जाने वाली संस्कृत भाषा को आज लुप्त-प्राय कहने का साहस किया जा रहा है। जिस भाषा में विश्व के सर्वश्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई, जिस भाषा में वेदों, उपनिषदों व पुराणों का लेखन हुआ, जिस भाषा में सर्वोच्च कोटि के महाकाव्य रचे गए, वह भाषा आज अपने ही देश में उपेक्षित है। यह हम सभी का कर्तव्य है कि हम सभी संस्कृत को पुनर्जीवित करने में अपना योगदान दें,ताकि यह भाषा विश्व-मंच पर अपना गौरव पुनः प्राप्त कर सके। यदि हमने इस कार्य में सहयोग न किया,तो यह एक ऐसा अपराध होगा, जिसके लिये आने वाली पीढ़ियां हमें कभी क्षमा नहीं करेंगी।

अतः आइये, हम सभी मिलकर संस्कृत के प्रसार में अपना योगदान करें तथा 2011 की जनगणना में अपनी प्रथम, द्वितीय अथवा तृतीय भाषा के रूप में अवश्य ही संस्कृत का उल्लेख करें।

(संस्कृत-भारती, नई दिल्ली के श्री श्रीश देवपुजारी के लेख के आधार पर)

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