शनिवार, सितंबर 03, 2011

अगर वे सोचते हैं कि बिना मांजे के वे और भी ऊंचा उड़ सकते हैं तो ठीक है

अगर वे सोचते हैं कि बिना मांजे के वे और भी ऊंचा उड़ सकते हैं तो ठीक है

गोविन्दाचार्य से भाजपा और संघ से जुड़े मुद्दों पर बातचीत की जो इस प्रकार है.
शुरुआत हिंदुत्व के विचार से करते हैं. हिंदुत्व का क्या अर्थ है? आज जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ नेता भी ये प्रश्न उठा रहे हैं. पार्टी में जब पहली बार ये शब्द उछला था तब आप महासचिव थे.
देखिए हिंदुत्व के पांच मूल तत्व हैं. पहला, उपासना की हर पद्धति का सम्मान करना. दूसरा, जड़ हो या चेतन सब में एक ही चेतना है. कोई भी ऊंचा या नीचा नहीं होता. इसलिए हिंदुत्व समतावादी है. तीसरा, मनुष्य प्रकृति का स्वामी नहीं है बल्कि इसका एक हिस्सा है. इसलिए हिंदुत्व पर्यावरण-हितैषी अर्थव्यवस्था की बात करता है. चौथा, मातृत्व के विशेष गुण के कारण समाज में महिलाओं का विशेष सम्मान है. और आखिर में जीवन का मकसद सिर्फ खाने, शादी करने और मर जाने जैसी भौतिकताओं तक ही सीमित नहीं बल्कि इसके परे भी कुछ है. आध्यात्मिकता का अहसास ही हिंदुत्व है. यही संघ की भी सोच है.
इस विचार को राजनीतिक स्वरूप में तब्दील करने के लिए संघ को भाजपा से किस तरह की उम्मीदें हैं?
भाजपा को ये बात अच्छी तरह से समझ लेनी होगी कि प्रशासन, आर्थिक नीतियों आदि के संदर्भ में हिंदुत्व के मायने क्या हैं. उसे हर वर्ग के लोगों, समाज, रीति-रिवाज और यथार्थ से खुद को जोड़ना होगा. उसे इन सभी चीजों को साथ लेकर चलते हुए शासन का संचालन करना सीखना होगा. परिवार अपनी इस राजनैतिक शाखा से यही उम्मीद करता है.
आपको लगता है कि भाजपा हिंदुत्व के इस विचार पर खरा उतरने में नाकाम रही?
मैं उनकी आलोचना नहीं करना चाहता क्योंकि न तो उनके अंदर इसके प्रति कोई समर्पण था न ही वे हिंदुत्व को समझना चाहते थे. इसलिए उन्हें इस आधार पर कटघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता कि वे अपने मूल विचार के विपरीत काम कर रहे हैं. वे छद्म हिंदुत्व के औजार भर रह गए थे. उदाहरण के लिए वरुण गांधी के भाषण की भाषा और लहजा कुछ लोगों को तो खुशी पहुंचा सकता है लेकिन ये हिंदुत्व नहीं है. ये गैर-जिम्मेदार और प्रतिक्रियावादी छद्म हिंदुत्व है.
आपके मुताबिक भाजपा का मौजूदा नेतृत्व जिसमें राजनाथ सिंह भी शामिल हैं, एक तरह से छद्म हिंदुत्व की राह पर चल रहा है?
बिल्कुल, क्योंकि न तो उनके भीतर समर्पण है न प्रतिबद्धता. वे सोचते हैं कि आदि से अंत तक राजनीति ही सबकुछ है. उनके सोचने विचारने की प्रक्रिया सिर्फ सत्ता के इर्द-गिर्द चक्कर काटती है. वे प्रदर्शन की बजाए उपलब्धियों के पीछे भागते हैं.
इस बार उनकी उपलब्धियां भी निराशाजनक हैं. भाजपा 2009 के लोकसभा चुनावों में 116 सीटों पर सिमट गई.
अभी भी छह-सात राज्यों में उनकी सरकार है और उनके पास प्रधानमंत्री पद के लिए आडवाणी के रूप में एक नेता भी था. जीतने के लिए उनके पास पर्याप्त अवसर थे. लेकिन मुझे उनके सत्ता में आ जाने से भी बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं थी. वे किस तरह से काम करते हैं और क्या करके दिखाते हैं ये ज्यादा महत्वपूर्ण है. उदाहरण के लिए मेरा मानना है कि पर्यावरण के अनुकूल तकनीकी आर्थिक व्यवस्था हिंदुत्व है. इस लिहाज से उत्तराखंड में पर्यावरण का नाश कर रही पन-बिजली परियोजनाओं पर वहां की सरकार का रुख अलग होना चाहिए. गंगा जैसे पवित्र मसले पर इतना विवेकहीन रवैया खुद को हिंदुत्व का झंडाबरदार कहने वालों का खोखलापन स्वयं ही उजागर कर देता है. उत्तराखंडवासियों की बिजली की जरूरत पूरी करने के सैकड़ों तरीके हैं और वहां के संवेदनशील पर्यावरण तंत्र को नुकसान पहुंचाए बिना पैदा होने वाली अतिरिक्त बिजली को संरक्षित भी किया जा सकता है. इसी तरह से सेतुसमुद्रम परियोजना के लिए भी पांच दूसरे वैकल्पिक तरीके हैं. मगर न तो सत्तापक्ष के रूप में और न ही विपक्ष के रूप में कभी उन्होंने हिंदुत्व के बारे में सोचा. 20-25 साल पहले उन्होंने जो अपार जनसमर्थन की पूंजी जुटाई थी वह अब उन्होंने खो दी है.
संघ का नेतृत्व मौजूदा चुनावी नतीजों को किस निगाह से देखता है?
एक जिम्मेदार स्वयंसेवक के तौर पर आरएसएस के नेतृत्व की जो मन:स्थिति मैं देख पा रहा हूं वह कुछ ऐसी है- अब संघ भाजपा से स्पष्ट शब्दों में बात करेगा और उससे दो टूक शब्दों में पूछेगा कि आखिर पार्टी उसके साथ किस तरह के संबंध रखना चाहती है. अब तक उनके बीच चाहे जिस तरह के भी रिश्ते रहे हों लेकिन अब उन्हें इस पर नए सिरे से चर्चा करने की जरूरत है. अगर जरूरत पड़े तो नई व्यवस्था बने. संघ उनसे कहेगा अगर आप हमारे बिना आगे बढ़ना चाहते हैं, तो कोई बात नहीं. आप आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र हैं. हम इस पर अच्छा या बुरा कुछ नहीं कहेंगे. लेकिन अगर आप हमारे साथ चलना चाहते हैं तो फिर हम अपने हिसाब से ही चलेंगे. हमें लगता है कि हमें अपने साथ कोई अतिरिक्त बोझ या पुछल्ला ढोने की जरूरत नहीं है. न ही हमें किसी बैसाखी की जरूरत है. संघ अकेले ही भाजपा की बैसाखी के बिना भी सीधा चल सकता है. संघ नेतृत्व ने यही संदेश भाजपा को दिया है. एक और बात, अगर भाजपा संघ परिवार के साथ चलना चाहती है तो संघ ने ये साफ कर दिया है कि इसे विचारधारा के हिसाब से चलना होगा. यही संदेश है जिसे भाजपा को पहुंचाया गया है.
आडवाणी को या राजनाथ सिंह को?
दोनों को.
आपने कहा कि संघ को भाजपा की बैसाखी की जरूरत नहीं है. पर क्या भाजपा को भी संघ की जरूरत नहीं?
मुझे नहीं पता. भाजपा के भीतर एक बड़ा तबका है जो मानता है कि संघ एक पुछल्ला और अगर भाजपा इस पुछल्ले से पीछा छुड़ा ले तो वह और बड़ी सफलता पा सकती है. पिछले 15 सालों के दौरान ऐसा मानने वालों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है. मैं इसकी तुलना ऊंचाई पर उड़ रही पतंग से करता हूं जो एक मांजे से जुड़ी है. पतंग ये सोच सकती है कि वे अपने आप भी उड़ान भर सकती है, अगर वे सोचते हैं कि बिना मांजे के वे और भी ऊंचा उड़ सकते हैं तो ठीक है.
भाजपा का कौन सा तबका है जो मानता है कि पार्टी संघ के बिना भी चल सकती है?
मैंने इस बार चुन कर आए सांसदों की सूची देखी है. उनमें से 30 के करीब ऐसे सांसद हैं जिनका संघ या उसकी विचारधारा या फिर दीनदयाल उपाध्याय की नीतियों से थोड़ा-बहुत जुड़ाव रहा है. ये भाजपा की मूल विचारधारा है जो आज भी कायम है. लेकिन वहां 85 के करीब ऐसे सांसद हैं जिन्होंने शायद दीनदयाल उपाध्याय की विचारधारा के बारे में सुना भी नहीं होगा. और हो सकता है उनमें से बहुत से ऐसे हों जिन्हें लगता हो कि उन्हें संघ की जरूरत नहीं है. अगर पार्टी की संसदीय संरचना में ये समस्या है तो कार्यकारी समिति में भी ये समस्या होगी. यानी भाजपा अवसरवादियों से भर गई है और अगर मैं थोड़ा और अच्छे से कहूं तो ये पार्टी पूरी तरह से उदार डेमोक्रेट्स का जमावड़ा बन गई है. ये सब राजनीति को करियर या धंधा समझते हैं.
भाजपा के जाने-पहचाने चेहरे आडवाणी, जसवंत सिंह, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और यशवंत सिन्हा के बारे में आपका क्या विचार है. क्या संघ उन्हें भी अवसरवादी और करियरवादी मानता है?
यहां सिर्फ एक गुट नहीं है. कई छोटे-छोटे धड़े भी हैं. यहां व्यक्तित्वों और अहं की लड़ाई है और ये कारण पार्टी में तमाम जटिलताएं पैदा कर रहे हैं. अगर कोई व्यक्ति हिंदुत्व के समर्थन में बयान दे रहा है तो इसका कतई ये अर्थ नहीं है कि वो हिंदुत्व का असली समर्थक है. उसके लिए तो ये बस मौके की नजाकत का सवाल है. दूसरी पार्टियों में भी मैंने तमाम ऐसे लोगों को देखा है जो दबे शब्दों में मानते हैं कि वे कट्टर हिंदू हैं पर खुलेआम नहीं कह सकते. ये दोहरापन मैंने कई भाजपा नेताओं में भी पाया है.
जहां तक संघ का सवाल है तो आपके मुताबिक भाजपा के अलग हो जाने से भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. लेकिन अगर भाजपा ऐसा नहीं करती तो संघ उससे क्या अपेक्षाएं रखता है?
शायद भाजपा और संघ के कुछ लोगों को आपस में मिल बैठ कर वह राह निकालनी होगी जिससे भाजपा फिर से विचारधारा और आदर्शवाद के रास्ते पर लौट सके. हो सकता है कि संघ भाजपा के निचली पांत के कुछ नए नेताओं को मौका दे और साथ ही अपने दूसरे संगठनों से कुछ नए चेहरों को भी यहां तैनात करे.
क्या आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मनोनीत करने के पीछे संघ पूरी तरह से था?
बिल्कुल.
क्या उनका प्रचार अभियान गलत रहा?
मेरा मानना है कि चुनाव अभियान का श्रीगणेश ही गलत कदम के साथ हुआ. कहा गया ‘मजबूत नेता निर्णायक सरकार’. निजी स्पर्धा में कूदने की बजाय जनता से जुड़े मुद्दों को अच्छी तरह से उठाया जा सकता था.
क्या आपका इशारा मनमोहन सिंह पर किए गए आडवाणी के हमले की ओर है?
ये सिर्फ एक मसला है. दरअसल ये प्रधानमंत्री पद के दो कमजोर उम्मीदवारों की लड़ाई थी. एक तरफ मनमोहन सिंह थे तो दूसरी तरफ आडवाणीजी थे. दोनों ही कमजोर थे. गृहमंत्री के तौर पर आडवाणीजी की तुलना सिर्फ शिवराज पाटिल से की जा सकती है. उनके पास गिनाने को कोई उपलब्धि नहीं है.
आपको भाजपा के राष्ट्रीय पार्टी का रुतबा खो देने का डर लगता है?
फिलहाल भाजपा केंद्र से कही ज्यादा राज्य स्तर पर मजबूत राजनीतिक ताकत के रूप में मौजूद है.
यानी ये राष्ट्रीय ताकत नहीं रही?
विचारधारा, नीतियों और प्रतिबद्धता के लिहाज से ये राष्ट्रीय पार्टी नहीं रह गई है. मेरे ख्याल से कांग्रेस और भाजपा दोनों ही अमेरिकापरस्त और अमीरपरस्त हैं. ये कहीं से भी भारत के हित में नहीं हैं. विनिवेश को ही लीजिए. भाजपा और कांग्रेस दोनों ही इसके पक्ष में हैं.
सुधींद्र कुलकर्णी ने तहलका में जो लिखा है उसने भूचाल पैदा कर दिया है. उन्होंने कहा कि संघ और भाजपा ने आडवाणी जैसे मजबूत आदमी को कमजोर और असहाय बना कर रख दिया.
उन्हें संघ पर इसका ठीकरा नहीं फोड़ना चाहिए था. चुनावी रणनीति बनाने में संघ का कोई हस्तक्षेप नहीं था. भाजपाइयों ने वॉररूम पर कब्जा कर रखा था इसलिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए.
जेटली भी वॉररूम के सदस्य थे. अब वे राज्यसभा में नेता विपक्ष हैं, क्या ये ठीक है?
राजनाथ सिंह ने एक नया जुमला उछाला है- भाजपा में जिम्मेदारी सामूहिक होती है. इसके हिसाब से व्यक्ति विशेष की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती. दरअसल इससे हर एक को साफ बच निकलने का रास्ता मिल गया है. इसमें राजनाथ सिंह का गृह प्रदेश उत्तर प्रदेश भी शामिल है जहां पर पार्टी का प्रदर्शन बेहद दयनीय रहा. अब मैं देख रहा हूं कि वो एक बार फिर से उन्हीं रणनीतियों का इस्तेमाल कर रहे हैं जो उन्होंने उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष रहने के दौरान उपयोग की थीं. (उस वक्त कल्याण सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री थे). उन रणनीतियों ने पार्टी को घोर नुकसान पहुंचाया था.
क्या संघ ने कोई सफाई मांगी है?
नहीं, जब तक कहा न जाए संघ स्वयं इस तरह के मामलों में नहीं पड़ता. भाजपा सलाह मांगती है. संघ का जवाब होता है जो आपको सही लगता है आप करें और उसके परिणाम का सामना करने के लिए भी तैयार रहें.
ऐसे में संघ अध्यक्ष के रूप में राजनाथ सिंह के काम से खुश नहीं हो सकता.
नहीं, संघ इतने राजनीतिक नजरिए से विश्लेषण नहीं करता जैसा इस वक्त मैं कर रहा हूं.
मैं ऐसा कर रहा हूं क्योंकि मैं भाजपा में रह चुका हूं.
पर वैद्य का लेख पूरी तरह से राजनीतिक विश्लेषण पर आधारित था.तंज भरे लहजे में उन्होंने सिर्फ इतना भर कहा था कि अगर आप संघ से अलग होना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. अगर हिम्मत है तो आगे बढ़िए और आने वाले नतीजों का सामना कीजिए.
मैं कुलकर्णी के लेख के हवाले से कह रही हूं- भाजपा के ज्यादातर सहयोगी गुजरात की वजह से उससे दूर हो गए. क्या आप सहमत है?
मैं इससे इत्तेफाक नहीं रखता. भाजपा के सहयोगी दो मुख्य वजहों से उसके पास आए थे. पहला, उन्हें अपने राज्यों में किसी तरह के मुस्लिम वोट के नुकसान का डर नहीं था क्योंकि उनके राज्यों में प्रभावी मुस्लिम वोट बैंक था ही नहीं. चाहे उड़ीसा हो, पंजाब हो हरियाणा हो या फिर तमिलनाडु. दूसरे, सहयोगियों ने समझ लिया कि भाजपा की वोटों की हिस्सेदारी उनके राज्यों के कुल मुस्लिम वोटों से कहीं ज्यादा है. तब जाकर उन्होंने भाजपा से गठजोड़ किया. उन्होंने विशुद्ध नफे-नुकसान के तराजू पर तोल कर गठबंधन किया था जैसे कि बिहार में. इसलिए भाजपा को धोखा देना आसान है. तेलगू देशम ने आंध्र प्रदेश में ये किया भी. ये सभी अवसरवादी नेताओं के गुट हैं. अजित सिंह या फिर टीआरएस को परिस्थितियों के हिसाब से भाजपा से छिटकने या फिर उसके पास आने में कोई झिझक नहीं होगी. ये अवसरवादी गुट हैं जो राजनीतिक फायदे के लिए इसका इस्तेमाल करते रहते हैं.
भाजपा हिंदुत्व की अवधारणा पर पुनर्विचार कर रही है. आपको लगता है कि मौजूदा भारत में हिंदुत्व बेमायने हो गया है?
हो सकता है इसके प्रति नजरिया बीते समय का या अप्रासंगिक लगने लगा हो. लेकिन यह औद्योगीकरण के बाद के समाज को दिशा देने वाला पहिया है. हिंदुत्व आने वाले कल की विचारधारा है न कि बीते हुए कल की. पुनर्विचार की बातें कोरे अज्ञान और समर्पण के अभाव के कारण हो रही हैं. इसलिए अगर कोई कहता है कि वह हिंदुत्व के बारे में कुछ नहीं जानता तो मुझे उसके निहितार्थ क्या हैं यही समझ नहीं आता.
जसवंत सिंह ने खुलेआम कहा था कि उन्हें नहीं पता हिंदुत्व क्या है.
उन्हें स्पष्ट करना चाहिए कि वे इसके बारे में क्या सोचते हैं. निजी तौर पर मुझे पता है कि हिंदुत्व के बारे में वे भी उसी तर्ज पर सोचते हैं जैसे कि गोविंदाचार्य क्योंकि वे भी हिंदू हैं.
क्या हिंदुत्व के कारण भाजपा बीते हुए कल की पार्टी लगने लगी है?
ऐसा उसके अवसरवादी व्यवहार के कारण है- हिंदुत्व को एक समग्र दृष्टिकोण और विचारधारा के रूप में पेश करने की बजाय वह इसे वोट हासिल करने का जरिया भर मान रही है.
भाजपा के अंदर इतनी मारामारी क्यों मची हुई है?
क्योंकि ये अब तक सुचारू कामकाज के लिए जरूरी वैज्ञानिक तरीका ही विकसित नहीं कर पाई है. कांग्रेस ने इसे विकसित कर लिया है जो कि पूरी तरह से शक्ति केंद्रित है. वामपंथियों ने भी अपनी कार्यप्रणाली विकसित कर ली है जिनका इतिहास 1848 तक जाता है. जब भाजपा की शुरुआत जनसंघ के रूप में हुई थी तब ज्यादा जोर विचारधारा पर था न कि संचालन के तरीके पर. व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि भाजपा की मुख्य समस्या कामकाज के व्यवस्थित ढांचे का अभाव है. इसीलिए आज ये इतनी खंडित नजर आ रही है.
बीच में ही नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री के रूप में उछालना चूक थी?
ये अपने-आप ही अचानक हो गया. अरुण शौरी ने अहमदाबाद में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा कि मोदी में प्रधानमंत्री बनने की सभी योग्यताएं हैं जो कि पूरी तरह से गैरजरूरी था. लेकिन ऐसे वक्त में वार रूम को तत्काल कदम उठाने चाहिए थे और सभी जिम्मेदार पदाधिकारियों को ये संदेश देना चाहिए था कि इस मामले में कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करें. पर वे चुपचाप बैठे रहे. ऐसे में विपक्षियों और मीडिया को एक मुद्दा मिल गया जिसे उन्होंने खूब उछाला.
क्या संघ में आडवाणी के संन्यास पर कोई विचार चल रहा है?
जब तक इस संबंध में कोई सलाह न मांगी जाए संघ इस मामले में किसी तरह की माथापच्ची नहीं करेगा.
कुछ साल पहले सुदर्शनजी ने कहा था कि संन्यास लेने की एक निश्चित उम्र होनी चाहिए.
व्यक्तिगत रूप से हो सकता है उन्होंने यह बात कही हो लेकिन संघ के किसी मंच पर इसकी कभी भी चर्चा नहीं हुई. यह सामूहिक भावना


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